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त्रिंशत्तमं पर्व
वेलासरित्करान्वाद्धिरतिदरं प्रसारयन् । नूनं प्रत्यग्रहीदेवं नानारवार्घमुद्वहन् ॥११३॥ शूर्पोन्मयानि रत्नानि वार्धरित्यप्रशंसिनी। यानपात्रमहामानैरुन्मयान्यन तानि यत् ॥११॥ नाम्नैव लवणाम्भोधिरित्युदन्वान् लघुकृतः । रत्नाकरोऽयमित्युच्चैर्बहु मने तदा नृपैः ॥११५॥ पतन्यत्र पतङ्गोऽपि तेजसा याति मन्दताम् । दिदीपे तत्र तेजोऽस्य प्रतीच्यां जयतो नृपान् ॥११६॥ धारयंश्च क्ररत्नस्य पारयः संगरोदधेः । द्विषा मुदे जयस्तीवं स तिग्मांशुरिवाद्युतत् ॥११७॥ अनुवाद्धि तटं गत्वा सिन्धुद्वारे न्यवेशयत् । स्कन्धावारं स लक्ष्मीवानक्षोभ्यं स्वमिवाशयम् ॥११८॥ सिन्धोस्तटवने रम्ये न्यविक्षन्नास्य सैनिकाः । चमूद्विरदसंभोगनिकुब्जीभूतपादप" ॥११९॥ तत्राधिवासितानोङ्गः पुरश्चरणकर्मवित् । पुरोधा धर्मचक्रेशान् प्रपूज्य विधिवत्ततः ॥१२०॥ सिद्धशेषाक्षतैः पुण्यैर्गन्धोदकविमिश्रितैः । अभ्यनन्दत्सुयज्वा तं पुण्याशीभिश्च चक्रिणम् ॥१२१॥
ततोऽसौ धृतदिव्यास्त्रो रथमारुह्य पूर्ववत् । जगाहे लवणाम्भोधि गोष्पदावज्ञया प्रभुः ॥१२२॥ चला ॥११२।। उस समय वह समुद्र ऐसा जान पड़ता था मानो किनारेपर बहनेवाली नदियाँरूपी हाथोंको बहुत दूर तक फैलाकर नाना प्रकारके रत्नरूपी अर्घको धारण करता हुआ महाराज भरतकी अगवानी ही कर रहा हो अर्थात् आगे बढ़कर सत्कार ही कर रहा हो ॥११३॥ जो लोग कहा करते हैं कि समुद्रके रत्न सूपसे नापे जा सकते हैं वे उसकी ठीक-ठीक प्रशंसा नहीं करते बल्कि अप्रशंसा ही करते हैं क्योंकि यहाँ तो इतने अधिक रत्न हैं कि जो बड़ेबड़े जहाजरूप नापोंसे भी नापे जा. सकते हैं ॥११४।। यह समुद्र 'लवण समुद्र' इस नामसे बिलकुल ही तुच्छ कर दिया गया है, वास्तवमें यह रत्नाकर है इस प्रकार उस समय भरतआदि राजाओंने उसे बहुत बड़ा माना था ॥११५।। जिस दिशामें जाकर सूर्य भी अपने तेजकी अपेक्षा मन्द ( फीका ) हो जाता है उसी दिशामें पश्चिमी राजाओंको जीतते हुए चक्रवर्ती भरत का तेज अतिशय देदीप्यमान हो रहा था ॥११६।। चक्ररत्नको धारण करता हुआ, युद्धरूपी समुद्रको पार करता हुआ और शत्रुओंको उद्विग्न करता हुआ वह भरत उस समय ठीक सूर्यके समान देदीप्यमान हो रहा था ।।११७॥ जो राज्यलक्ष्मीसे युक्त है ऐसे उस भरतने समुद्रके किनारे-किनारे जाकर अपने हृदयके समान कभी क्षुब्ध न होनेवाला अपनी सेनाका पड़ाव सिन्धु नदीके द्वारपर लगवाया। भावार्थ - जहाँ सिन्धु नदी समुद्र में जाकर मिलती है वहाँ अपनी सेनाके डेरे लगवाये ॥११८।। सेनाके हाथियोंके उपभोगसे जहाँके वृक्ष निकुंज अर्थात् लतागृहोंके समान हो गये हैं ऐसे सिन्धु नदीके किनारेके मनोहर वनमें भरतकी सेनाके लोगोंने निवास किया ॥११९।। तदनन्तर कार्यके प्रारम्भमें करने योग्य समस्त कार्योंको जाननेवाले परोहितने वहाँपर मन्त्र के द्वारा चक्ररत्नको पजा कर विधिपर्वक धर्मचक्रके स्वामी अर्थात् जिनेन्द्रदेवकी पूजा की और फिर गन्धोदकसे मिले हए पवित्र सिद्ध शेषाक्षतों और पुण्यरूप अनेक आशीर्वादोंसे चक्रवर्ती भरतको आनन्दित किया ॥१२०-१२१।। तदनन्तर १ वेलासरित एव कराः तान् । २ इव । ३ प्रस्फोटनेन उन्मातुं योग्यानि । प्रस्फोटनं शूर्पमस्त्रीत्यभिधानात् । ४ वेला । -रिभ्यप्रशंसिभिः ल०। प्रशस्तेऽपि न प्रशस्या । ( प्रशस्ताऽपि न प्रशस्या)। ५ सूर्यः । ६ प्रतीच्यानिति पाठः । ७ चक्ररत्नं धारयन् । ८ प्रतिज्ञासमुद्रं समाप्तं कुर्वन् । ९ शत्रून् । १० कम्पयन् । (एज कम्पने इति धातुः । 'दारिपारिवेद्युदेजिजेतिसाहिसाहिलिम्पविन्दोपसर्गात् इति कर्तरि शप् प्रत्ययः' । 'मध्ये कर्तरि शप्' इति शविधानात् एजयादेशः )। ११ नितरां ह्रस्वीभूत । १२ समन्त्रकं पूजितचक्ररत्नः ( अनः शकटम् तस्याङ्गम् चक्रम् )। १३ पूर्वसेवा । १४ पञ्चपरमेष्ठिनः। १५ पुरोहितः । सुष्ठु दृष्टवान् । 'यज्वा तु विधिनेष्टवान्' इत्यमरः । 'सुयजोङ वनिप्' इति अतीतार्थे सुयजधातुभ्यां ड्वनिप्प्रत्ययः । १६ मागधविजये यथा ।