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एकत्रिंशत्तम पर्व दिव्यः प्रभान्वयः कोऽपि संमूर्च्छति किमम्बरे । तडित्पुञ्जः किमग्न्यचिरिति दृष्टः क्षणं जनैः ॥१२॥ किमप्येतदधिज्योतिरित्यादावविशेषतः । पश्चादवयवव्यक्त्या प्रव्यक्तपुरुषाकृतिः ॥१३॥ कृतमालश्रुतिव्यक्त्यै कृतमालः स चम्पकैः । कृतमाल इवोत्फुल्लो निदध्ये प्रभुणाऽग्रतः ॥९॥ सप्रणामं च संप्राप्तं तं वीक्ष्य सहसा विभुः । यथाहप्रतिपत्त्याऽस्मा आसनं प्रत्यपादयत् ॥१५॥ प्रभुणाऽनुमतश्चायं कृतासनपरिग्रहः । क्षणं विसिस्मिये पश्यन् धामा मुष्या मानुषम् ॥१६॥ संभाषितश्च संभ्राजा पूर्व' पूर्वार्द्धभाषिणा। सुरः प्रचक्रमे वक्तमिति प्रश्रयवद्वचः ॥९७॥ क्व वयं क्षुद्रका देवाः क्व मवान् दिव्यमानुषः । पौतन्य' 'मुचितं मन्ये वाचाटयति नः स्फुटम् ॥२८॥ आयुष्मन् कुशलं प्रष्टुं जिहीमः शासितुस्तव । स्वदायत्ता यतः कृत्स्ना जगत: कुशलक्रिया ॥१९॥ लोकस्य कुशलाधाने निरूढं यस्य कौशलम् । कुशलं दक्षिणस्याऽस्य बाहोस्ते मां जिगीषतः १०० देवानां प्रिय देवत्वं तवाशेषजगजयात् । नाम्नैव तु वयं देवा जातिमात्रकृतोतयः ॥१०॥
गीर्वाणा वयमन्यत्र जिगीषी शितगीशराः । त्वयि कुण्ठगिरो“जाताः प्रस्खलद्गर्वगद्गदाः १०२ कल्पवृक्ष ही हो ॥९१॥ क्या कोई दिव्य प्रभाका समूह आकाशमें फैल रहा है ? अथवा क्या बिजलीका समूह है ? अथवा क्या अग्निकी ज्वाला है ? इस प्रकार अनेक कल्पनाओंसे लोगोंने जिसे क्षण-भर देखा था जो पहले तो यह कोई कान्तिका समूह है इस प्रकार सामान्य रूपसे देखा गया था, परन्तु बादमें अवयवोंके प्रकट होनेसे जिसका पुरुषका-सा आकार साफसाफ प्रकट हो रहा था, जो अपना कृतमाल नाम प्रकट करनेके लिए चम्पाके फूलोंकी माला पहने हुआ था और जो उससे फूले हुए, कृतमाल वृक्षके समान जान पड़ता था ऐसे उस देवको चक्रवर्ती भरतने अपने सामने खड़ा हुआ देखा ।।९२-९४॥ आनेके साथ ही नमस्कार करते हए उस देवको अकस्मात् अपने सामने देखकर भरतने उसे यथायोग्य सत्कारके साथ आसन दिया ॥९५॥ भरतकी आज्ञासे वह देव आसनपर बैठा और उनके लोकोत्तर तेजको देखता हुआ क्षण-भरके लिए आश्चर्य करने लगा ॥९६॥ प्रथम ही, पहले बोलनेवाले सम्राट भरतने जिसके साथ बातचीत की है ऐसा वह देव नीचे लिखे अनुसार विनयसहित वचन कहने लगा ॥९७।। हे देव, हम क्षुद्र देव कहाँ ? और आप दिव्य मनुष्य कहाँ ? तथापि मैं ऐसा मानता हूँ कि हम लोगोंका यथायोग्य देवपना ही हम लोगोंको स्पष्ट रूपसे वाचालित कर रहा है अर्थात् जबरदस्ती बुलवा रहा है ॥९८॥ हे आयुष्मन्, आप-जैसे शासन करनेवालोंका कुशल-मंगल पूछनेके लिए हम लोग लज्जित हो रहे हैं क्योंकि इस जगत्का सब तरहका कल्याण करना आपके ही अधीन है ॥९९॥ जगत्का कल्याण करनेके लिए जिसकी चतुराई प्रसिद्ध है और जो समस्त पृथिवीको जीतना चाहती है ऐसी आपकी इस दाहिनी भुजाकी कुशलता है न ? ॥१००॥ हे देव, आप देवोंके भी प्रिय हैं, आपने समस्त जगत्को जीत लिया है इसलिए यह देवपना आपके ही योग्य है हम लोग तो अत्यन्त तुच्छ देव हैं-केवल देव जातिमें जन्म होनेसे ही देव कहलाने लगे हैं । यहाँ पर 'देवानां' 'प्रिय' ये दोनों ही पद पृथक्-पृथक् हैं, अथवा ऐसा १ प्रभासंतानः । २ व्याप्नोति । ३ अग्निशिखामतिक्रान्तः । ४ कृतमालनामा । कृतमाल आरग्वधः । 'आरग्वधे राजवृक्षः शम्भाकचतुरंगुलाः । आरेवतव्याधिघातकृतमालसुवर्णकाः ।।' इत्यभिधानात्। ५ दृश्यते स्म। ६प्रापयत । ७ तेजः । ८ चक्रिणः । ९ मानुषमतीतम् । १० संस्कृतभाषिणा । पूर्वाभि-अ०, ५०, स०, द०, ल०। ११ पुतानायाः अपत्यं पौतनः तस्य भावः पोतन्यम् । देवत्वमित्यर्थः । १२ नूनम् । १३ वाचालं करोति । १४ लज्जामहे । १५ यस्मात् कारणात् । १६ क्षेमकरणे । १७ प्रख्यातम् । १८ क्षेमं किम् । १९गीरेव शापानुग्रहसमर्था वाणा: साधनं निग्रहानुग्रहयोरेषामिति गीर्वाणाः देवा इत्यर्थः । २० जिगीषोः त्वत्त: अन्यत्र । २१.शीतशीश्वराः ट० । मन्दानामीश्वरा इत्यर्थः । शीते शेरते एते शीतशयः - तेषामीश्वराः क्रियासु मन्दानामीश्वरा इत्यर्थः । 'मूढाल्पापटुनिर्भाग्याः । मन्दाः स्युः ।' इत्यमरः । २२ मन्दवचसः ।
नोति । ३ अग्निशिखामतिक्रान्तःवर्णकाः ।' इत्यभिधानात्। य०स०, द०, ल