________________
एकत्रिंशत्तमं पर्व
१०७
3
११
.13
'वटस्थानवरस्थां' फुटस्थान कोटरोटजान्। अझपाटान् अपाठां विद्धि नः सार्व सर्वगान् ॥ ११३ ॥ इति प्रशान्तमस्विपचः संभाव्य सादरम् । सोऽमरो विर्त तारास्मै भूषणानि चतुर्दश ॥ ११४ ॥ ताम्यनम्योपलभ्यानि प्राप्य चक्री परां मुदम् । भेजे "ताकृतसत्कारैः सुरः सोऽप्याप संमदम् ॥ ११५ ॥ सं रूप्याद्विगुहाहारप्रवेशोपायशंसिनम् । प्रविसज्यं स्वयेनाभ्यं प्राहिणोत् प्रभुरतः ॥ ११६ ॥ त्वमुदाय गुहाद्वारं पावनिर्वाति सा गुहा तावत् पाश्चात्यखण्डस्य निर्जयाय कुरुथमम् ॥ ११७ ॥ इति चक्रधरादेशं मूर्ध्ना माल्यमिवोद्वहन् । कृतमालामरोद्दिष्टकृत्स्नोपायप्रयोगवित् ॥ ११८ ॥ कृती कतिपयैरेष तुरंगैः सपरिच्छदैः । प्रतस्थे वाजिरलेन दण्डपाणिश्चमूपतिः ॥ ११६ ॥ किंचिच्चान्तरमुल्लङ्घय स सिन्धोर्वनवेदिकाम् । विगाह्य विजयार्द्धस्य संप्रापत् तटवेदिकाम् ॥ १२० ॥ तत्सोपानेन रूप्याद्रेरारुह्य जगतीतलम् । प्रत्यङ्मुखो गुहोत्संग माससाद चमूपतिः ॥ १२१ ॥ जया चक्रवर्तीति सोऽश्वरत्नमधिष्टितः । दण्डेाडयामास गुहाद्वारं स्फुरद्ध्वनिः ॥ १२२ ॥ दण्डाभिघातेन गुहाद्वारे निरर्गले " । तद्गर्भाद् बलवानूष्मा निर्ययौ किल संततः ॥ १२३ ॥ दधदण्डाभिघातोत्थं "क्रेङ्कारमरपुटम् । सवेदनमिवास्वेदि निर्गतासु गुहोष्मणा ॥ १२४॥
१६
हुआ न हो ॥११२॥ हे सार्व अर्थात् सबका हित करनेवाले, वटके वृक्षोंपर, छोटे-छोटे गड्ढों में, पहाड़ोंके शिखरोंपर वृक्षोंकी खोलों और पत्तोंकी झोपड़ियोंमें रहनेवाले तथा दिन और रात्रि में भ्रमण करनेवाले हम लोगोंको आप सब जगह जानेवाले समझिए ।। ११३ || इस प्रकार आदरसहित शान्त और ओजपूर्ण वचन कहकर उस देवने भरत के लिए चौदह आभूषण दिये ।। ११४ ।। जो किसी दूसरेको प्राप्त नहीं हो सकते थे ऐसे उन आभूषणोंको पाकर चक्रवर्ती
परम हर्षको प्राप्त हुए और चक्रवर्तीके द्वारा किये हुए सत्कारोंसे वह देव भी अत्यन्त हर्षको प्राप्त हुआ ।। ११५ ।। तदनन्तर विजयार्थं पर्वतकी गुफाके द्वारसे प्रवेश करनेका उपाय बतलानेवाले उस देवको भरत चक्रवर्तीने विदा किया और गुफाका द्वार खोलनेके लिए सबसे आगे अपना सेनापति भेजा ।। ११६ ॥ चक्रवर्तीने सेनापतिसे कहा कि तुम गुफाका द्वार उघाड़कर जबतक गुफा शान्त हो तबतक पश्चिम खण्डको जीतनेका उद्योग करो ।। ११७|| इस प्रकार चक्रवर्तीकी आज्ञाको मालाके समान मस्तकपर धारण करता हुआ और कृतमाल देवके द्वारा बतलाये हुए समस्त उपायोंके प्रयोगको जाननेवाला वह चतुर सेनापति कुछ घोड़े और सैनिकोंके साथ दण्डरत्न हाथमें लेकर अश्वरत्नपर आरूढ़ होकर चला ॥११८ - ११९ ।। और थोड़ी दूर जाकर तथा सिन्धु नदीके वनकी वेदीको उल्लंघन कर विजयार्ध पर्वतके तटकी वेदीपर जा पहुँचा ॥१२०॥ प्रथम ही वह सेनापति सीढ़ियोंके द्वारा विजयार्ध पर्वतकी वेदिकापर चढ़ा और फिर पश्चिमकी ओर मुँहकर गुफाके आगे जा पहुंचा ॥१२१॥ अवरत्नपर बैठे हुए सेनापतिने चक्रवर्तीकी जय हो इस प्रकार कहकर दण्डरत्नसे गुफाद्वारका ताड़न किया जिससे बड़ा भारी शब्द हुआ ।। १२२ । दण्डरत्नकी चोटसे गुफाका द्वार खुल जानेपर उसके भीतरसे बड़ी भारी गरमी निकलने लगी ॥ १२३॥ दण्डरत्नके प्रहारसे उत्पन्न हुए क्रेड्कार शब्दको धारण करते हुए दोनों किवाड़ ऐसे जान पड़ते थे मानो बेदनासे सहित होनेके
कुछ
१ न्यग्रोधस्थान् । २ पातालस्थान् । 'गर्तावटौ भुवि श्वभ्रं' इत्यभिधानात् । श्वभ्रगतविटागादा भुवो विवरवाचकाः' इति कात्येनोक्तम् । ३ वृक्षविवरपर्णशालासु जातान् 'पर्णशालोटजोऽस्त्रियाम्' इत्यभिधानात् । ४ राक्षसेभ्योऽन्यान् । ५ क्षपा रात्रिः तस्यामटन्तीति क्षपाटाः तान् राक्षसानित्यर्थ । 'पलंकषो रात्रिमटो रायटो जललोहितः' इत्यभिधानात् ६ सहितान् ७ तेजोऽन्वितम् । ८ ददौ ९ तिलकादिचतुर्दशाभरणानि । १० चक्रित ११ उपशान्तिमेति १२ पश्चिमखण्ड १३ आशाम् १४ पश्चिमाभिमुखः । १५ समीपम् । १६] आरु १७ दण्डरमेन १८ अर्गलरहिते सति । १९ विस्तृतः । २० ध्वनिविशेषः । २१ कवाटयुगलम् 'कटावमररं तुल्ये' इत्यभिधानात् । २२ स्विद्यति स्म स्वेदितमित्यर्थः ।