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त्रिंशत्तम पर्व कृतावासं च तत्रैनं ददृशुस्तद्वनाधिपाः । वन्यरुपायनैः इलाध्यैरगदैश्च महौषधैः ॥१२॥ उपानिन्युः करीन्द्राणां दन्तानस्मै सलौक्तिकान् । किरातवर्या वर्या हि स्वोचिता सस्क्रिया प्रभौ ॥५३॥ पश्चिमान विन्ध्याद्विमुल्लङध्योत्तीर्य नर्मदाम् । विजेतुमपरामाशां प्रतस्थे चक्रिणो बलम् ॥१॥ गत्वा किंचिदु दग्भूयः प्रतीची दिशमानशे । प्राक प्रतापोऽस्य दुर्वारः सचक्रं चरम बलम् ॥१५॥ तदा प्रचलदश्वीयखुरोद्भुत महीरजः । न केवलं द्विषां तेजो रुरोध द्युमणेरपि ॥१६॥ लाटा ललाट संवृष्टभूपृष्ठाश्चाटुभाषिणः । लालाटिकपदं भेजुः प्रभोराज्ञावशीकृताः ॥९॥ केचित्सौराष्ट्रिकै गैः परे पाञ्चनदैर्गजैः । तं तद्वनाधिपा वीक्षांचक्रिरे चक्रचालिताः ॥९८॥ चक्रसंदर्शनादेव बस्ता निर्मण्डलग्रहाः । ग्रहाइव नृपाः केचित् चक्रिणो वशमाययुः ॥१९॥ दिश्यानिव द्विपान् मापान्पृथुवंशान्मदोधुरान् । प्रचक्रे प्रगुणांश्चक्री बलादाक्रम्य दिक्पतीन् ॥१०॥
नृपान् सौराष्ट्रकानुष्ट्र वामीशतभृतोपदान् । समाजयन् प्रभुभेंजे रम्या रैवतकस्थलीः ॥१०१॥ नुसार निवास किया था सो ठीक ही है क्योंकि विन्ध्याचलपर रहना बहुत ही रमणीय होता है ॥९१॥ विन्ध्याचलके वनोंके राजाओंने वनोंमें उत्पन्न हुई, रोग दूर करनेवाली और प्रशंसनीय बड़ी-बड़ी ओषधियाँ भेंट कर वहाँपर निवास करनेवाले राजा भरतके दर्शन किये ॥९२॥ भीलोंके राजाओंने बड़े-बड़े हाथियोंके दाँत और मोती महाराज भरतकी भेंट, किये सो ठीक ही है क्योंकि स्वामीका सत्कार अपनी योग्यताके अनुसार ही करना चाहिए ॥९३॥ विन्ध्याचलको पश्चिमी किनारेके अन्तभागसे उल्लंघन कर और नर्मदा नदीको पार कर चक्रवर्तीकी सेनाने पश्चिम दिशाको जीतनेके लिए प्रस्थान किया ॥९४॥ वह सेना पहले तो कुछ उत्तर दिशाकी ओर बढ़ी और फिर पश्चिम दिशामें व्याप्त हो गयी। सेनामें सबसे आगे महाराज भरतका दुर्निवार प्रताप जा रहा था और उसके पीछे-पीछे चक्रसहित सेना जा रही थो ॥९५॥ उस समय वेगसे चलते हुए घोड़ोंके समूहके खुरोंसे उड़ी हुई पृथिवीको धूलिने केवल शत्रुओंके ही तेजको नहीं रोका था किन्तु सूर्यका तेज भी रोक लिया था ॥९६॥ जिन्होंने अपने ललाटसे पृथिवीतलको घिसा है और जो मधुर भाषण कर रहे हैं ऐसे भरतकी आज्ञासे वश किये हुए लाट देशके राजा उनके लालाटिक पदको प्राप्त हुए थे। ( ललाटं पश्यति लालाटिक:-स्वामी क्या आज्ञा देते हैं ? यह जाननेके लिए जो सदा स्वामीके मुखकी ओर ताका करते हैं उन्हें लालाटिक कहते हैं ।) ॥९७॥ चक्र रत्नसे विचलित हुए कितने ही वनके राजाओंने सोरठ देशमें उत्पन्न हुए और कितने ही राजाओंने पंजाबमें उत्पन्न हुए हाथी भेंट देकर भरतके दर्शन किये ॥९८॥ जो चक्रके देखनेसे ही भयभीत हो गये हैं और जिन्होंने अपने देशका अभिमान छोड़ दिया है ऐसे कितने ही राजा लोग सूर्य चन्द्र आदि ग्रहोंके समान चक्रवर्तीके वश हो गये थे । भावार्थ-जिस प्रकार समस्त ग्रह भरतके वशीभूत थे-अनुकूल थे उसी प्रकार उस दिशाके समस्त राजा भी उनके वशीभूत हो गये थे ॥९९॥ चक्रवर्ती भरतने दिग्गजोंके समान पृथुवंश अर्थात् उत्कृष्ट वंशमें उत्पन्न हुए ( पक्षमें-पीठपर-की चौड़ी रीढ़से सहित ) और मदोटुर अर्थात् अभिमानी ( पक्षमें-मदजलसे उत्कट ) राजाओंको जबरदस्ती आक्रमण कर अपने वश किया था ॥१००॥ सैकड़ों ऊँट और घोड़ियोंकी भेंट लेकर आये हुए सोरठ देशके राजाओंसे १ व्याधिघातकः । २ उपायनीकृत्य नयन्ति स्म। उपनिन्युः अ०, इ०, ५०, स०, द० । ३ श्रेष्ठाः । ४ चया ल०। ५ विभौ स०, अ०। ६ पश्चिमान्तेन ल०, द०। ७ उत्तरदिशम्। ८ पश्चिमाम् । ९ पश्चात् । १० खुरोद्भूतमहीरज: ल० । ११ संदष्ट-इ०, ५०, द०। १२ विशिष्टभत्यपदम् । 'लालाटिकः प्रभाभावदशा कायक्षमश्च यः' इत्यभिधानात । १३ पञ्चनदीष जातः । १४ देशग्रहणरहिताः । १५ आदित्यग्रहाः । १६ दिशि भवान् । १७ प्रणतान् । १८ उष्ट्राश्वसम्हधतोपदान् । १९ तोषयन् । २० ऊजयन्तागारस्थल