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त्रिंशत्तम पर्व
स्फुटद्वेणूदरोन्मुक्तैर्व्यस्तैर्मुक्ताफलैः क्वचित् । वनलक्ष्म्यो हसन्तीव स्फुटहन्तांशु यद्वने ॥७॥ गुहामुखस्फुरदीरनिर्झरप्रतिशब्दकैः । गर्जतीव कृतस्पर्धी महिम्ना यः कुलाचलैः ॥७५॥ स्फुटन्निम्नोन्नतोद्देशेश्चित्रवर्णश्च धातुभिः । मृगरूपैरतक्यैश्च चित्राकारं बिभर्ति यः ॥७६॥ ज्वलन्त्योषधयो यस्य वनान्तेषु तमीमुखे । देवताभिरिवोत्क्षिप्ता दीपिकास्तिमिरच्छिदः ॥७७॥ क्वचिन्मृगेन्द्र भिन्नेभकुम्भोच्चलितमौक्तिकैः । मदुपान्तस्थलं धत्ते प्रकीर्णकुसुमश्रियम् ॥७८॥ स तमालोकयन् दूरादाससाद महागिरिम् । आह्वयन्तमिवासक्त मरुद्धतैस्तद्रुमैः ॥७९॥ स तद्वनगतान् दूरादपश्यद् घनकर्बुरान् । “सयूथानुनुवंशान् किरातान् करिणोऽपि च ॥८॥
सरिद्वधूस्तदुल्सङ्गे विवृत्तशफरीक्षणाः । तद्वल्लभा इवापश्यत् स्फुरद्विरुतमन्मनाः ॥८१॥ था इस प्रकार विरोधरूप होकर भी सुशोभित हो रहा था। भावार्थ - इस श्लोकमें विरोधाभास अलंकार है, विरोध ऊपर दिखाया जा चुका है अब उसका परिहार देखिए - वहाँका वन क्षीबकुंजर अर्थात् मदोन्मत्त हाथियोंसे युक्त होनेपर भी अक्षीबकुंजर अर्थात् समुद्री नमक तथा हाथीदाँतोंको देनेवाला था अथवा सहजनों के लतामण्डपोंको प्रदान करनेवाला था और विपत्र अर्थात पक्षियोंके पंखोंसे सहित होकर भी उत्तम पत्तों तथा नवीन कोंपलोसे सहित था ( अक्षीबं च कुञ्जश्चेत्यक्षीबकुजौ, तौ राति ददातीत्यक्षीबकुञ्जरम् अथवा 'अक्षीबाणां शोभाजनानां कुजं लतागृहं राति ददाति', 'सामुद्रं यत्तु लवणमक्षीबं वशिरं च तत्' 'कुजो दन्तेऽपि न स्त्रियाम्' 'शोभाञ्जने शिग्रुतीक्ष्णगन्धकाक्षीबमोचकाः इति सर्वत्रामरः ) ॥७३।। उस पर्वतके वनमें कहीं-कहींपर फटे हए बाँसोंके भीतरसे निकलकर चारों ओर फैले हुए मोतियोंसे ऐसा जान पड़ता था मानो वनलक्ष्मियाँ ही दाँतोंकी किरणें फैलाती हुई हँस रही हों ।।७४।। गुफाओंके द्वारोंसे निकलती हुई झरनोंकी गम्भीर प्रतिध्वनियोंसे वह पर्वत ऐसा जान पडता था मानो अपनी महिमाके कारण कुलाचलोंके साथ स्पर्धा करता हुआ गरज ही रहा हो ॥७५।। वह पर्वत ऊँचे नोचे प्रदेशोंसे, अनेक रंगकी धातुओंसे और हरिणोंके अचिन्तनीय वर्णोसे प्रकट रूप ही एक विचित्र प्रकारका आकार धारण कर रहा था ॥७६॥ उस पर्वतके वनोंमें रात्रि प्रारम्भ होनेके समय अनेक प्रकारकी औषधियाँ प्रकाशमान होने लगती थीं जो कि ऐसी जान पड़ती थीं मानो देवताओंने अन्धकारको नष्ट करनेवाले दीपक ही जलाकर लटका दिये हों ॥७७॥ कहीं-कहींपर उस पर्वतके समीपका प्रदेश, सिंहोंके द्वारा फाड़े हुए हाथियोंके मस्तकोंसे उछलकर पड़े हुए मोतियोंसे ऐसा जान पड़ता था मानो बिखरे हुए फूलोंको शोभा ही धारण कर रहा हो ॥७८।। जो वायुसे हिलते हुए किनारेके वृक्षोंसे बुलाता हुआ-सा जान पड़ता था ऐसे अपनेमें आसक्त उस महापर्वतको दूरसे ही देखते हुए चक्रवर्ती भरत उसपर जा पहुँचे । ॥७९।। वहाँ जाकर उन्होंने उस पर्वतके वनोंमें रहनेवाले झुण्डके झुण्ड भील और हाथी देखे । वे भील मेघोंके समान काले थे और धनुषोंके बाँसोंको ऊँचा उठाकर कन्धोंपर रखे हुए थे तथा हाथी भी मेघोंके समान काले थे और धनुषके समान ऊँची उठी हुई पीठकी हड्डीको धारण किये हुए थे ॥८०॥ उस पर्वतके किनारेपर उन्होंने चंचल मछलियाँ ही जिनके नेत्र हैं और बोलते हुए पक्षियोंके शब्द ही जिनके मनोहर शब्द हैं ऐसी उस विन्ध्याचलकी प्यारी स्त्रियोंके समान नदीरूपी स्त्रियोंको बड़ी ही उत्कण्ठाके साथ
१ स्फुरद्दन्तांश-ल० । २ व्यक्त । ३ गैरिकादिभिः । ४ उद्धृताः । ५ -च्छ्वलत-ल०, द० । ६ पुष्पोपहारशोभाम् । ७ अनवरतम् । ८ ससमूहान् । ९ उद्गतधनुषो वेणून् । उद्गतधनुराकारपृष्ठस्थांश्च । १० पर्वतसानो। ११ विहगध्वनिरेवाव्यक्तवाचो यासां ताः । -मुन्मनाः ल०, द०।
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