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एकत्रिंशत्तमं पर्व गन्धैः पुप्पैश्च धूपैश्च दोपैश्च सजलाक्षतैः । फलैश्च चरुभिर्दिव्यैश्चक्रेज्यां निरवर्तयत् ॥५३॥ विजया जयेऽप्यासीदमन्दोऽस्य जयोद्यमः । उत्तरार्धजथाशंसा प्रत्यागूर्णस्य चक्रिणः ॥५४॥ ततः प्रतीपमागत्य रूप्याद्रेः पश्चिमां गुहाम् । निकषा वनमारुध्य बलैरीशो न्यविक्षत ॥५५॥ दक्षिणेन तमद्रीन्द्र मध्ये वेदिकयोर्द्वयोः । बलं निविविशे भर्तुः सिन्धोस्तटवनाद् बहिः ॥५६॥ भूयो द्रष्टव्यमत्रास्ति बह्वाश्चर्ये धराधरे । इति तत्र चिरावासं बहु मेने किलाधिराट् ॥५७॥ चिरासनेऽपि तत्रास्य नासीत् स्वल्पोऽप्युपक्षयः । "प्रत्युतापूर्वलाभेन प्रभुरापूर्यताब्धिवत् ॥५८॥ कृतासनं च तत्रैनं श्रुत्वा द्रष्टुमुपागमन् । पार्थिवाः पृथिवीमध्यात् मध्ये' नद्योर्द्वयोः स्थितः ॥५९॥ दूरानत चलन्मौलिसंदष्टकरकुटमलाः। प्रणमन्तः स्फुटीचक्रः प्रभौ भक्ति महीभुजः ॥६०॥ कुमागरुं कर्पूरसुवर्णमणिमौक्तिकैः । रतैरन्यैश्च रत्नेशं भक्त्यानचुनृपाः परम् ॥६१॥ विश्वगापूर्यमाणस्य रैराशिभिरनारतम् । कोश प्रावेशरत्नानामियत्तां कोऽस्य निणयेत् ॥६२॥ देशाध्यक्षा बलाध्यक्षैबलं सुकृतरक्षणम् । यवसेन्धन संधानैस्तदोपजगृहुश्विरम् ॥६३॥
उत्तरार्द्धजयोद्योगं प्रभोः श्रुत्वा तदागमन् । पार्थिवाः कुरुराजाद्याः समग्रबलवाहनाः ॥६४॥ ऐसा मानते हुए चक्रवर्तीने चक्ररत्नकी पूजा की ॥५२।। उन्होंने चक्ररत्नकी पूजा गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, जल, अक्षत, फल और दिव्य नैवेद्यके द्वारा की थी ॥५३॥ विजयाध पर्वत तक विजय कर लेनेपर भी उत्तरार्धको जीतने की आशासे उद्यत हए चक्रवर्तीका विजयका उद्योग शिथिल नहीं हुआ था ॥५४॥ तदनन्तर-वह भरत कुछ पीछे लौटकर विजयाध पर्वतकी पश्चिम गुहाके समीपवर्ती वनको अपनी सेवाके द्वारा घेरकर ठहर गया ॥५५॥ विजायार्ध पर्वतके दक्षिणकी ओर पर्वत तथा वन दोनोंकी वेदियोंके बीच में सिन्धु नदीके किनारेके वनके बाहर भरतकी सेना ठहरी थी ॥५६॥ अनेक आश्चर्यो से भरे हुए इस पर्वतपर बहुत कुछ देखने योग्य है यही समझकर चक्रवर्तीने वहाँ बहुत दिन तक रहना अच्छा माना था ।।५७।। वहाँपर बहुत दिनतक रहनेपर भी भरतका थोड़ा भी खर्च नहीं हुआ था, बल्कि अपूर्व-अपूर्व वस्तुओंके लाभ होनेसे वह समुद्रके समान भर गया था ॥५८॥ भरतको वहाँ रहता हुआ सुनकर गंगा और सिन्धु दोनों नदियोंके बीचमें रहनेवाले अनेक राजा लोग अपनी-अपनी पृथ्वीसे उनके दर्शन करनेके लिए आये थे ।।५९।। दूरसे झुके हुए चंचल मुकुटोंपर जिन्होंने अपने हाथ जोड़कर रखे हैं ऐसे नमस्कार करते हुए राजा लोग महाराज भरतमें अपनी भक्ति प्रकट कर रहे थे ॥६०। उन राजाओंने केशर, अगुरु, कपूर, सुवर्ण, मोती, रत्न तथा और भी अनेक वस्तुओंसे भक्तिपूर्वक चक्रवर्तीका उत्तम सन्मान किया था ॥६१॥ धनकी राशियोंसे निरन्तर चारों ओरसे भरते हुए भरतके खजाने में प्रविष्ट हुए रत्नोंकी मर्यादा ( संख्या ) का भला कौन निर्णय कर सकता था ? भावार्थ-उसके खजानेमें इतने अधिक रत्न इकटे हो गये थे कि उनकी गणना करना कठिन था ॥६२॥ उस समय समीपवर्ती देशोंके राजाओंने, सेनापतियोंके द्वारा जिसकी अच्छी तरह रक्षा की गयी है ऐसी भरतकी सेनाको चिरकाल तक भूसा, ईधन आदि वस्तुएं देकर उपकृत किया था ॥६३॥ महाराज भरत विजयार्ध पर्वतसे उत्तर भागको जीतनेका उद्योग कर रहे हैं यह सुनकर कुरु देशके राजा जयकुमार १ इच्छामुद्दिश्य । २ उद्यतस्य । ३ पश्चिमदिशम् । ४ रोप्याद्रप० । रूप्याद्रः अ०, स०, इ० । ५ वनस्य समीपम् । ६ तस्य अद्रीन्द्रस्य दक्षिणस्यां दिशि । ७ पर्वतवेदिकावनवेदिकयोः । ८ बहुकालनिवसने सत्यपि । ९ धनव्ययः । १० पुनः किमिति चेत् । ११ गङ्गासिन्धुनदीमध्यात् । १२ कुड्मलाः द०, ल०, अ०, स०, इ०। १३ कालागुरु 'कालागुर्वगुरुः स्याद्' इत्यमरः । १४ भाण्डागारप्रवेशयोग्य । १५ तृण । १६ उपकार चक्रुः । १७ सोमप्रभपुत्राद्याः ।