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आदिपुराणम् दूरमुत्सारिताः सैन्यैः परित्यक्तपरिच्छदाः । विपक्षाः सत्यमेवास्य विपक्षत्वमुपाययुः ॥९॥ आक्रान्त भूभृतो नित्यं भुनानाः फलसंपदम् । कुपतित्वं ययुश्चित्रं कोपेऽप्यस्य विरोधिनः ॥१०॥ संधिविग्रहचिन्तास्य पदविद्यास्व भृत् परम् । धूतया तव्यपक्षस्य व संधानं क्व विग्रहः ॥११॥ इत्यजेतव्यपक्षोऽपि यदयं दिग्जयोद्यतः । तन्ननं भुक्तिमात्मीयां तद्वयाजेन परीयिवान् ॥१२॥ • आक्रान्ताः सनिकैरस्य विभोः पारेऽणवं'भुवः । पूगद्रुमकृतच्छाया नालिकरबनैस्तताः ॥१३॥ निपपे नालिकराणां तरुणानां स्रुतो रसः । सरस्तीरतरुच्छाया विश्रान्तरस्य सैनिकैः ॥१४॥
पैने थे, जिस प्रकार योद्धा सपक्ष अर्थात् सहायकोंसे सहित थे उसी प्रकार बाण भी सपक्ष अर्थात् पंखोंसे सहित थे, और जिस प्रकार योद्धा दूर तक गमन करनेवाले थे उसी प्रकार बाण भी दूर तक गमन करनेवाले थे, इस प्रकार वे दोनों साथ-साथ ही विजयके अंग हो रहे थे ॥८॥ भरतके विपक्ष (विरुद्धः पक्षो येषां ते विपक्षाः ) अर्थात् शत्रओंको उनकी सेनाने दूर भगा दिया था और उनके छत्र चमर आदि सब सामग्री भी छीन ली थी इसलिए वे सचमुच ही विपक्षपनेको ( विगतः पक्षो येषां ते विपक्षास्तेषां भावस्तत्त्वम् ) प्राप्त हो गये थे अर्थात् सहायरहित हो गये थे ।।९।। यह एक आश्चर्यको बात थी कि भरतके विरोधी राजा सेनाके द्वारा आक्रमण किये जानेपर तथा उनके क्रोधित होनेपर भी अनेक प्रकारकी फल-सम्पदाओंका उपभोग करते हुए कुपतित्व अर्थात् पृथिवीके स्वामीपनेको प्राप्त हो रहे थे। भावार्थ - इस श्लोकमें श्लेषमूलक विरोधाभास अलंकार है इसलिए पहले तो विरोध मालूम होता है बादमें उसका परिहार हो जाता है। इलोकका जो अर्थ ऊपर लिखा गया है उससे विरोध स्पष्ट ही झलक रहा है क्योंकि भरतके क्रोधित होनेपर और उनकी सेनाके द्वारा आक्रमण किये जानेपर कोई भी शत्रु सुखी नहीं रह सकता था परन्तु नीचे लिखे अनुसार अर्थ बदल देनेसे उस विरोधका परिहार हो जाता है-भरतके विरोधी राजा लोग, उनके कुपित होने तथा सेनाके द्वारा आक्रमण किये जानेपर अपनी राजधानी छोड़कर जंगलोंमें भाग जाते थे, वहाँ फल खाकर ही अपना निर्वाह करते थे और इस प्रकार कु-पतित्व अर्थात् कुत्सित राजवृत्ति ( दरिद्रता ) को प्राप्त हो रहे थे ॥१०॥ उस भरतको सन्धि ( स्वर अथवा व्यंजनोंको मिलाना ) और विग्रह ( व्युत्पत्ति ) की चिन्ता केवल व्याकरण शास्त्र में ही हुई थी अन्य शत्रुओंके विषयमें नहीं हुई थी सो ठीक ही है क्योंकि जिसने समस्त शत्रुओंको नष्ट कर दिया है उसे कहाँ सन्धि ( अपना पक्ष निर्बल होनेपर बलवान् शत्रुके साथ मेल करना ) करनी पड़ती है ? और कहाँ विग्रह ( युद्ध ) करना पड़ता है ? अर्थात् कहीं नहीं ॥११।। इस प्रकार भरतके यद्यपि जीतने योग्य कोई शत्रु नहीं था तथापि वे जो दिग्विजय करनेके लिए उद्यत हुए थे सो केवल दिग्विजयके छलसे अपने उपभोग करने योग्य क्षेत्रमें चक्कर लगा आये थे - घूम आये थे ॥१२॥ महाराज भरतके सैनिकोंने, जहाँ सुपारीके वृक्षोंके द्वारा छाया की गयी है और जो नारियलके वनोंसे व्याप्त हो रही है ऐसे समुद्रके किनारेकी भूमिपर आक्रमण किया था ।।१३।। सरोवरोंके किनारेके वृक्षोंकी छायामें विश्राम करनेवाले भरतके सैनिकोंने नारियलके तरुण अर्थात् बड़े-बड़े वृक्षों
१ सहायपुरुषरहितत्वम् । २ आक्रान्ता भूभृतो ल०। भूभृतः राजानः पर्वताश्च । ३ अभीष्टफलसंपदम्, बनस्पतिफलसंपदं च । ४ भूपतित्वं कुत्सितपतित्वं च । ५ संधानयुद्धचिन्ता च । ६ शब्दशास्त्रेषु । ७ निरस्तशत्रपक्षस्य । ८ पालनक्षेत्रम् । ९ दिग्विजयछद्मना। १० प्रदक्षिणीकृतवान् । ११ समुद्रतीरम् । 'पारे मध्येऽन्यः षष्ठ्या ' । १२ पानं क्रियते स्म । १३ निसृतः ।