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आदिपुराणम्
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हृत्वा सरोऽम्बु करिणो निजदानवारि संवर्धितं विनिमयादनुणाचं सन्तः । तद्वीचिहस्तजनितप्रतिरोधशङ्का व्यासंगिनो नु सरसः प्रसभं निरीयुः ॥ १४४ ॥ आधोरणा मदमष मलिनान् करीन्द्रान् निर्णक्तु मम्बु सरसामवगाहयन्तः । शेकुर्न केवलमपामुपयोगमात्रं तीरस्थिताननु नयैस्तद वीकरन्त" ॥१४५॥ स्वैरं नवाम्युपरितमयनलभ्यत रमेषु न कृतः कोऽपि
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छावलम्भि न तु विश्रमणं प्रभिः स्तम्बेरमै मदः खलु नात्मनीनः ॥१४६॥ नावा द्रुतं गुरुतरैरपि नातियातो युद्धेषु जातु न किमप्यपराद्धमभिः ।
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भारक्षभाश्च करिणः सविशेषमेव बद्धास्तथाप्यनिभृता इति दिक्चलत्वम् ॥ १४७॥ बनी" नः किमिति हन्त विनापराधाज् जानीत भोः प्रतिफलत्यचिरादिदं वः । इत्युत्सूणि विधूय शिरांसि बन्धे वैरं तु यम्पु गजाः स्म विभावयन्ति ॥ १७८॥ आधातुको द्विरदिनः सविशेषमेव गात्रापरान्तकर वालधिपु न्यायोजि । वन्धेन सिन्धुररास्थितरे तथा नो गाडीभवत्यविरताक्ष" परत्र बन्धः ॥ १४५ ॥
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के समीप आ गये थे, यद्यपि वहाँ उनके बाँधनेका स्थान नियत था तथापि क्रीड़ासे उत्पन्न हुए अतिशय सन्तोष से उन्हें उसका कुछ भी ज्ञान नहीं था || १४३ || हाथियोंने तालाबोंका जो पानी पिया था उसे मानो अपना बदला चुकानेके लिए ही अपने मदरूपी जलसे बढ़ा दिया था, इस प्रकार प्यासरहित हो सुखकी सांस लेते हुए वे हाथी, 'ये तालाब अपनी लहरेंरूपी हाथोंसे कहीं हमें रोक न ले' ऐसी आशंका कर तालाबोंसे शीघ्र ही बाहर निकल आये थे || १४४ ।। मदरूपी स्याहीसे मलिन हुए हाथियोंको निर्मल करनेके लिए तालाबोंके जलमें प्रवेश कराते हुए महावत जब उन्हें जलके भीतर प्रविष्ट नहीं करा सके तब उन्होंने केवल जल ही पिलाना चाहा परन्तु बहुत कुछ अनुनय-विनय करनेपर भी वे किनारेपर खड़े हुए उन हाथियोंको केवल जल भी पिलाने के लिए समर्थ नहीं हो सके थे । भावार्थ - मदोन्मत्त हाथी न तो पानीमें ही घुसे थे और न उन्होंने पानी ही पिया था ।। १४५ ।। मदोन्मत्त हाथियोंने न तो अपने इच्छानुसार बिना यत्नके प्राप्त हुआ पानी ही पिया था, न किनारेके वृक्षोंसे कुछ तोड़कर खाया ही था और न वृक्षोंकी छाया में कुछ विश्वास ही प्राप्त किया था, खेद है कि यह मद कभी भी आत्माका भला करनेवाला नहीं है ।। १४६ ।। इन हाथियोने शरीर भारी होनेसे शीघ्र ही मार्ग तय नहीं किया यह बात नहीं है अर्थात् इन्होंने भारी होनेपर भी शीघ्र ही मार्ग तय किया है, इन्होंने युद्ध में भी कभी अपराध नहीं किया है और ये भार ढोनेके लिए भी सबसे अधिक समर्थ हैं फिर भी केवल चंचल होनेसे इन्हें बद्ध होना पड़ा है इसलिए इस चंचलताको ही धिक्कार हो ।।१४७।। तुम लोग इस प्रकार बिना अपराधके हम लोगोंको क्यों बाँध रहे हो? तुम्हारा यह कार्य तुम्हें शीघ्र ही इसका वदला देगा यह तुम खूब समझ लो इस प्रकार बाँधनेके कारण महावतोंमें जो वर था उसे वे हाथी अंकुशको ऊपर उछालकर मस्तक हिलाते हुए स्पष्ट रूपसे जतला रहे थे || १४८|| जो हाथी जीवोंका घात करनेवाले थे वे शरीरके आगे पीछे तथा सूँड़ और पूँछ आदि
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१ नैमेयात् । 'परिदानं परीवर्त नैमेयनियभावपि' इत्यभिधानात् । २ - दतॄणा: श्वसन्तः ल० ।- दनृणाः श्वसन्तः द०। ३ शुद्धान् कर्तुम् । ४ तीरे स्थितान्-ल० । ५ कारयन्ति स्म । ६ नैव । ७ मत्तः । प्रभिन्नो गति मत' इत्यभिधानात् ८ आत्महितम्। ९ नानुयातो प० ० १० ११ बन्धनं कुरुथ | १२लो १३ भी: यूयम् १४ कुशं यथा भवति तथा 'अंकुशोअत्री सूणिः स्त्रियाम्' इत्यभिधानात् । १५ हिंस्रक: । 'शरारुर्घातुको हिंस्र:' इत्यभिधानात् । १६ अपरगात्रान्त । शरीरापरभाग । 'द्वौ पूर्वपश्चाद्जादिदेशी गाणारे क्रमात् इति रभसः । गात्रे इत्युक्ते पूर्वजा, अपरे इत्युक्ते इस्तिन: अपरा अन्त इत्युक्ते हस्तिनो मध्यप्रदेश, कर इत्युक्ते हस्तिनो हस्तः, वालधिरित्युक्ते पुच्छविशेषः शरीरमध्य । १७ अधातुका १८ असंयतात् । अवतिकादित्यर्थः १९ संयते ।