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एकोनत्रिंशत्तमं पर्व
विमुक्तं व्यक्तसूत्कारं करमुत्क्षिप्य वारणैः । वारि स्फटिकदण्डस्य लक्ष्मीमूहं खमुच्चलत् ॥१३३॥ उदगाहैर्विनिर्धूतश्रमाः केचिन्मतङ्गजाः । विसभङ्गै 'रघुस्पृप्ति हेलया कवलीकृतैः ॥१३४॥ मृणालैरधिदन्ताग्रमर्पितैर्विबभुर्गजाः । अजस्रमम्बु संसेकाद् रदैः प्रारोहितैरिव ॥१३५॥ प्रमाद्यन् द्विरदः कश्चिन्मृणालं स्वकरोदुष्टतम् । ददावालान बुध्यैव नियन्त्रे द्विगुणीकृतम् ॥१३६॥ चरणालग्नमाकर्षन् मृणाल भीलुको गजः । बहिःस रस्तटं १० व्यास्वदन्दुतन्तुकशङ्कया ॥१३७॥ करैरुत्क्षिप्य पद्मानि स्थिताः स्तम्बेरमा बभुः । देवतानुस्मृतिं किंचित् कुर्वन्तोऽर्घोरिवोद्धृतैः ॥१३८॥ सरस्तरङ्गधौताङ्गा रेजुस्तुङ्गा मतङ्गजाः । शृङ्गारिता इवालग्नैः सान्द्रैरम्भोजरेणुभिः ॥ १३९ ॥
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यः करिभिरुद्धं परिहृत्य सरोजलम् । पतत्रिणः सरस्तीरं तद्युक्तमबलीयसाम् ॥१४०॥ सरोवगाह निर्णिक्तमूर्तयोऽपि मतङ्गजाः । " रजः प्रमाथैरात्मानं चक्रुरेव मलीमसम् ॥ १४१ ॥
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वयं जात्यैव मातङ्गा" मदेनोद्दीपिताः पुनः । कुतस्त्या शुद्धिरस्माकमित्यात्तं नु" रजो गजैः ॥१४२॥
वसन्ततिलकावृत्तम्
इथं सरस्सु रुचिरं प्रविहृत्य नागाः संतापमन्त' रुदितं प्रशमय्य तोयैः ।
ती मानुपययुः किमपि प्रतोषाद् बन्धं तु तत्र नियतं न विदांबभूवुः " ॥१४३॥
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॥ १३२ ॥ कितने ही हाथी सूँड़ ऊँची उठाकर सू सू शब्द करते हुए ऊपरको पानी छोड़ रहे थे, उस समय आकाशकी ओर उछलता हुआ वह पानी ठीक स्फटिक मणिके बने हुए दण्डेकी शोभा धारण कर रहा था ।। १३३ ।। पानी में प्रवेश करनेसे जिनका सब परिश्रम दूर हो गया है ऐसे कितने ही हाथी लोलापूर्वक मृणालके टुकड़े खाकर सन्तोष धारण कर रहे थे || १३४|| कितने ही हाथी अपने दाँतोंके अग्रभागपर रखे हुए मृणालोंसे ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो निरन्तर पानीके सींचनेसे उनके दाँत ही अंकुरित हो उठे हों ॥ १३५ ॥ मद से अत्यन्त उन्मत्त हुआ कोई हाथी अपनी सूँड़से ऊपर उठाये हुए मृणालको बाँधनेकी साँकल समझकर उसे दोहरी कर हातको दे रहा था ।। १३६ ।। अपने पैर में लगे हुए मृणालको खींचता हुआ कोई भीरु हाथी उसे बाँधनेकी साँकल समझकर तालाब के बाहरी तटपर ही खड़ा रह गया था ।। १३७ ।। अपनी सूँड़ोंसे कमलों को उठाकर खड़े हुए हाथी ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो हाथोंमें अर्घ लेकर किसी देवताका कुछ स्मरण ही कर रहे हों ।। १३८ ।। जिनके शरीर तालाबकी लहरोंसे धुल गये हैं ऐसे ऊँचे-ऊँचे हाथी सघन रूपसे लगे हुए कमलोंकी परागसे ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो स्नान कराकर उनका शृंगार ही किया गया हो ।। १३९ ।। हाथियोंसे घिरे हुए तालाबके जलको छोड़कर सब पक्षी तालाब के किनारेपर चले गये थे सो ठीक ही है क्योंकि निर्बल प्राणियोंको ऐसा ही करना योग्य है || १४० ।। तालाबोंमें प्रवेश करनेसे जिनके शरीर निर्मल हो गये हैं ऐसे कितने ही हाथी धूल उड़ाकर फिरसे अपने-आपको मैला कर रहे थे ।। १४१ ॥ प्रथम तो हम लोग जातिसे ही मातंग अर्थात् चाण्डाल हैं ( पक्षमें - हाथी हैं ) और फिर मद अर्थात् मदिरासे ( पक्ष में- गण्डस्थलसे बहते हुए तरल पदार्थसे ) उत्तेजित हो रहे हैं इसलिए हम लोगोंकी शुद्धि अर्थात् पवित्रता ( पक्ष में - निर्मलता ) कहाँसे रह सकती है ऐसा समझकर ही मानो हाथियोंने अपने ऊपर धूल डाल ली थी || १४२ || इस प्रकार वे हाथो बहुत देर तक सरोवरोंमें क्रीड़ा कर और अन्तरंग में उत्पन्न हुए सन्तापको जलसे शान्त कर किनारे के वृक्षों
१ खमुच्छ्वलत् ल० द०, इ० अ०, प०, स० । २ जलावगाहैः । ३ मृणालखण्डैः । ४ धृतवन्तः । ५ दन्तै: ल०, ५० । ६ संजातप्रारोहैः, अङ्करितैः । ७ बन्धनरज्जुः । ८ आरोहकाय । ९ सरस्वटीबाह्य प्रदेशे । १० प्रक्षिपति स्म । 'असु क्षेपणे' । ११ शृङ्खलासूत्र । 'अथ शृङ्खले । 'अन्दुको गिलोsस्त्री स्याद्' इत्यभिधानात् । १२ त्यक्त्वा । १३ शुद्ध । १४ धूलिप्रक्षेपैः । १५ श्वपचाः इति ध्वनिः । १६ इव । १७ अभ्यन्तरोदभूतम् । १८ न विदन्ति स्म ।