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एकोनत्रिंशत्तमं पर्व निजग्राह नृपान् दृप्ताननुजग्राह सस्क्रियान् । न्याय्यः क्षात्रो ऽयमित्येव प्रजाहितविधिल्सया॥२७॥ योगक्षेमा जगत्स्थिस्यै न प्रजास्वेव केवलम् । प्रजापालेष्वपि प्रायस्तस्य चिन्त्ययमीयतः ॥२८॥ पार्शिवस्यैकराष्ट्रस्य मता वर्णाश्रमाः प्रजाः । पार्थिवाः सार्वभौमस्य प्रजा यत्तेन ते वृताः ॥२६॥ पुण्यं साधनमस्यैकं चक्रं तस्यैव पोषकम् । तद्वयं साध्यसिद्ध्यङ्ग सेनाङ्गानि विभूतये ॥३०॥ इति मण्डलभूपालान् बलात् प्राणमयन्नयम्। 'मानमेवाभनक तेषां न सेवाग्रजयं विभुः ॥३१॥ प्रतिप्रयाणमभ्यत्य प्राणंसिपुरमुं नृपाः । प्राणरक्षामिवास्याज्ञां वहन्तः स्वेषु मूर्धसु ॥३२॥ प्रणताननुजग्राह सातिरेकैः फलैः प्रभुः। किमु कल्पतरोः सेवास्त्यफलाल्पफलापि वा ॥३३॥ "संप्रेक्षितैः स्मितहसिः सविश्रम्भैश्च जल्पितैः । सम्राट् संभावयामास नृपान् संमाननैरपि ॥३४॥ स्मितैः प्रसादं संजल्पैर्विसम्भं हसितैर्मुदम् । प्रेक्षितैरनुरागं च व्यनक्ति स्म नृपंपु सः ॥३५॥
भरतने उसे हटाकर उसके पदपर किसी अन्य नीतिमान् राजाको वैठाया था ॥२६॥ उन्होंने अहंकारी राजाओंको दण्डित किया था और सत्कार अथवा उत्तम कार्य करनेवाले राजाओंपर अनुग्रह किया था सो ठीक ही है क्योंकि प्रजाका हित करनेकी इच्छासे क्षत्रियोंका यह धर्म ही न्यायपूर्ण है ॥२७।। राजा भरतने जगत्की स्थितिके लिए केवल प्रजाके विषयमें ही योग (नवीन वस्तुको प्राप्त करना) और क्षेम (प्राप्त हुई वस्तुकी रक्षा करना) की चिन्ता नहीं की थी किन्तु प्रजाकी रक्षा करनेवाले राजाओंके विषयमें भी प्रायः उन्हें योग और क्षेमकी चिन्ता रहती थी ॥२८॥ किसी एक देशके राजाकी प्रजा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्ण रूप मानी जाती है परन्तु चक्रवर्तीकी प्रजा नम्रीभूत हुए राजा लोग ही माने जाते हैं इसलिए चक्रवर्तीको प्रजाके साथ-साथ राजाओंकी चिन्ता करना भी उचित है ।।२९।। भरतके समस्त कार्योको सिद्ध करनेवाला एक पुण्य ही मुख्य साधन था, और चक्ररत्न उस पुण्यकी पुष्टि करनेवाला था, पुण्य और चक्ररत्न ये दोनों ही उसके साध्य (सिद्ध करने योग्य विजय रूप कार्य) की सिद्धिके अंग थे, बाको हाथी घोड़े आदि सेनाके अंग केवल वैभवके लिए थे ॥३०॥ इस प्रकार मण्डलेश्वर राजाओंसे बलपूर्वक प्रणाम कराते हए चक्रवर्तीने उनका केवल मान भंग ही किया था, अपनी सेवाके लिए जो उनका प्रेम था उसे नष्ट नहीं किया था ॥३१॥ प्राणोंकी रक्षाके समान भरतकी आज्ञाको अपने मस्तकपर धारण करते हुए अनेक राजा लोग प्रत्येक पड़ावपर आकर उन्हें प्रणाम करते थे ॥३२॥ प्रणाम करनेवाले राजाओंको महाराज भरतने बहुत अधिक फल देकर अनुगृहीत किया था सो ठीक ही है क्योंकि कल्पवृक्षकी सेवा क्या कभी फलरहित अथवा थोड़ा फल देनेवाली हुई है ? ॥३३॥ सम्राट् भरतने कितने ही राजाओंकी ओर देखकर, कितने ही राजाओंकी ओर मुसकराकर, कितने ही राजाओंकी ओर हँसकर, कितने ही राजाओंके साथ विश्वासपूर्वक वार्तालाप कर, और कितने ही राजाओंका सन्मान कर उन्हें प्रसन्न किया था ॥३४॥ उन्होंने कितने ही राजाओंपर मुसकराकर अपनी प्रसन्नता प्रकट की थी, कितने ही राजाओंपर वार्तालाप कर अपना विश्वास प्रकट किया था कितने ही राजाओंपर हँसकर अपना हर्ष प्रकट किया था और कितने ही राजाओंपर प्रेमपूर्ण
१ निग्रहं करोति स्म। २ दर्पाविष्टान् । ३ स्वीकृतवान् । ४ न्यायादनपेतः । ५ क्षत्रियधर्मः । ६ पार्थिवेषु । ७ एकदेशवतः । ८ क्षत्रियादिवर्णाः ब्रह्मचर्याद्या आश्रमाः । ९ प्रजायन्ते प०, ल० । १० पार्थिवाः । ११ स्वीकृताः । १२ प्रहोभूतानकुर्वन् । १३ गर्वमेव । १४ मर्दयति स्म । 'भजोऽत्रमर्दने' । १५ नमस्कुर्वन्ति स्म । १६ तैर्दत्तधनात् साधिकैः । १७ स्निग्धावलोकनैः। संप्रेक्षणैः ल० । १८ सविश्वासैः । 'समौ विश्रम्भविश्वासौ' इत्यमरः । १९ वचनैः । २० वस्त्राभरणादिपूजनैः ।