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आदिपुराणम्
सच्छायान् सांस्तुङ्गान् बहुपत्र परिच्छदान् । असेवन्त जनाः प्रीत्या पार्थिवांस्तापविच्छिदः ॥ १०५ ॥ सच्छायानप्यसंभाव्याफलान् प्रोज्झ्य महाद्रुमान् । सफलान् विरलच्छायानप्यहो शिश्रियुर्जनाः ॥ १०६॥ 'आकालिकी मनाहृत्य बहिश्छायां तदातनीम् । भाविनीं तरुमुलेषु छायामाशिश्रियञ्जनाः ॥ १०७॥ वनस्थली तरुच्छायानिरुद्धमणित्विषः । 'सजानयस्तरस्तीरेष्वध्यासिषत सैनिकाः ॥ १०८ ॥ प्रेयसीभिराद्धप्रणयैराश्रिता नृपैः । कल्पपादपजां लक्ष्मी व्यक्तमृहुर्वनद्रुमाः ॥ १०९ ॥ कपयः कपिकच्छूनामुनानाः फलच्छटाः । सैनिकानाकुलांश्चक्रुर्निविष्टान् वीरुधामधः ॥११०॥ सरःपरिसरेष्वासन् प्रभोरावीयमन्दुराः । सुन्दराः स्वैरमाहायें "पिच्छे स्णाङ्कुरैः " ॥१११॥
है उसी प्रकार वह सेना भी अनेक सवारियों और रथोंसे सहित थी, इस प्रकार भरतकी वह सेना अपने समान वनमें ठहरी ||१०४ | उस वनके पार्थिव अर्थात् वृक्ष ( पृथिव्यां भवः, 'पार्थिवः' ) पार्थिव अर्थात् राजाओं ( पृथिव्या अधिपः 'पार्थिवः' ) के समान थे, क्योंकि जिस प्रकार राजा सच्छाय अर्थात् उत्तम कान्तिसे सहित होते हैं उसी प्रकार उस वनके वृक्ष भी सच्छाय अर्थात् उत्तम छाया (छाँहरी) से सहित थे, जिस प्रकार राजा लोग सफल अर्थात् आयसे सहित होते हैं उसी प्रकार उस वनके वृक्ष भी सफल अर्थात् फलोंसे सहित थे। जिस प्रकार राजा लोग तुंग अर्थात् ऊँची प्रकृतिके उदार होते हैं उसी प्रकार उस वनके वृक्ष भी तुंग अर्थात् ऊँचे थे, जिस प्रकार राजा लोग बहुपत्रपरिच्छद अर्थात् अनेक सवारी आदिके वैभवसे सहित होते हैं उसी प्रकार उस वनके वृक्ष भी बहुपत्रपरिच्छद अर्थात् अनेक पत्तोंके परिवार सहित थे और जिस प्रकार राजा लोग ताप अर्थात् दरिद्रतासम्बन्धी दुःखको नष्ट करनेवाले होते हैं। उसी प्रकार उस वनके वृक्ष भी ताप अर्थात् सूर्यके घामसे उत्पन्न हुई गरमीको नष्ट करनेवाले थे, इस प्रकार भरतके सैनिक, राजाओंकी समानता रखनेवाले वृक्षोंका आश्रय बड़े प्रेमसे ले रहे थे ।। १०५ ।। सेनाके कितने ही लोग उत्तम छायासे सहित होनेपर भी जिनसे फल मिलनेकी सम्भावना नहीं थी ऐसे बड़े-बड़े वृक्षोंको छोड़कर थोड़ी छायावाले किन्तु फलयुक्त वृक्षोंका आश्रय ले रहे थे । भावार्थ - जिस प्रकार धनाढ्य होनेपर भी उचित वृत्ति न देनेवाले कंजूस स्वामीको छोड़कर सेवक लोग अल्पधनी किन्तु उचित वृत्ति देनेवाले उदार स्वामीका आश्रय लेने लगते हैं उसी प्रकार सैनिक लोग फलरहित बड़े-बड़े वृक्षोंको छोड़कर फलसहित छोटेछोटे वृक्षोंका आश्रय ले रहे थे ॥ १०६ ॥ सेनाके लोग उस समयकी थोड़ी देर रहनेवाली बाहरकी छाया छोड़कर वृक्षोंके नीचे आगे आनेवाली छायामें बैठे थे ॥ १०७॥ | वनस्थलीके वृक्षों की छायासे जिनपर सूर्यकी धूप रुक गयी है ऐसे कितने ही सैनिक अपनी-अपनी स्त्रियों सहित तालाबोंके किनारोंपर बैठे हुए थे || १०८ ॥ परस्परके प्रेमसे बँधे हुए राजा लोग अपनी-अपनी स्त्रियों सहित जिनके नीचे बैठे हुए हैं ऐसे वनके वृक्ष कल्पवृक्षोंसे उत्पन्न हुई शोभाको स्पष्ट रूपसे धारण कर रहे थे । भावार्थ - वनके वे वृक्ष कल्पवृक्षोंके समान जान पड़ते थे और उनके नीचे बैठे हुए स्त्री-पुरुष भोगभूमिके आर्य तथा आर्याओंके समान मालूम होते थे ॥१०९ ॥ वहाँ करें की कलियोंको हिलाते हुए वानर उन लताओंके नीचे बैठे हुए सैनिकों को व्याकुल कर रहे थे क्योंकि करेंचकी फलियोंके रोयें शरीरपर लग जानेसे खुजली उठने लगती है। ॥११०॥ तालाबों के समीप ही इच्छानुसार चरने योग्य तथा भापसे ही टूटनेवाले सुकोमल घास के
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१ सच्छायान् तेजस्विनश्च । २ बहुदलपरिकरान् बहुवाह्नपरिकरांश्च । ३ वृक्षान् नृपतींश्च । ४ अस्थिराम् । ५ - माशिश्रियुर्जनाः ल० द० । ६ स्त्रीसहिताः । ७ मर्कटीनाम् । 'कपिकच्छुश्च मर्कटी' इत्यभिधानात् । ८ फलपञ्जरी: । ५ लतानाम् । १० सर्वत्र प्रदेशेषु सुलभैरित्यर्थः । ११ कोमलैः ।