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आदिपुराणम् - अनन्यशरणैरन्यैस्तापविच्छेदमिच्छुमिः । तत्पादपादपच्छाया न्यषेवि सुखशीतला ॥१८॥ केषांचित् पत्रनिर्मोक्ष छायापायं च भूभुजाम् । पादपानामिव ग्रीष्मः समभ्यर्णश्चकार सः ॥१९॥ घस्तोष्मप्रसरों गाढमुच्छ्वसन्तोऽन्तराकुलाः । प्राप्तेऽस्मिन् वैरिभूपालाः प्रापुर्मर्तव्यशेषताम् ॥२०॥ चैरकाम्यति वः स्मास्मिन् प्रागेव विननाश सः। विदिध्यापयिषुर्वहिं शलभः कुशली किमु ॥२१॥ वस्तुवाहनसर्वस्वमाच्छिद्य प्रभुराहरन् । अरित्वमरिचक्रेषु व्यक्तमेव चकार सः ॥२२॥ स्वयमर्पितसर्वस्वा नमन्तश्चक्रवर्तिनम् । पूर्वमप्यरयः पश्चादधिकारित्वमाचरन् ॥२३॥ "साधनैरमुनाक्रान्ता या धरा धृतसाध्वसा । साधनैरेव तं तोषं नीत्वाऽभूद्धतसाध्वसा ॥२४॥ "कुल्याः कुलधनान्यस्मै दत्वा स्वां भुवमार्जिजन् । कुल्या धनजलौघस्य जिगीषोस्ते हि पार्थिवाः॥२५॥
प्रजाः करमराक्रान्ता यस्मिन् स्वामिनि दुःस्थिताः । तमुद्धत्य परे तस्य युक्तदण्डं न्यधान विभुः॥२६॥ था ॥१७॥ जिन्हें अन्य कोई शरण नहीं थी और जो अपना सन्ताप नष्ट करना चाहते थे ऐसे कितने ही राजाओंने सुख तथा शान्ति देनेवाली भरतके चरणरूपी वृक्षोंकी छायाका आश्रय लिया था ॥१८॥ जिस प्रकार समीप आया हुआ ग्रीष्म ऋतु वृक्षोंके पत्र अर्थात् पत्तोंका नाश कर देता है और उनकी छाया अर्थात् छाँहरीका अभाव कर देता है उसी प्रकार समीप आये हुए भरतने कितने ही राजाओंके पत्र अर्थात् हाथी घोड़े आदि वाहनों (सवारियों) का नाश कर दिया था और उनकी छाया अर्थात् कान्तिका अभाव कर दिया था। भावार्थ-भरतके समीप आते ही कितने ही राजा लोग वाहन छोड़कर भाग जाते थे तथा उनके मुखकी कान्ति भयसे नष्ट हो जाती थी ॥१०॥ महाराज भरतके समीप आते ही शत्रु राजाओंका सब तेज (पक्षमें गरमी) नष्ट हो गया था, उनके भारी-भारी श्वासोच्छ्वास चलने लगे थे और वे अन्त.करणमें व्याकुल हो रहे थे, इसलिए वे मरणोन्मुख मनुष्यकी समानताको प्राप्त हो रहे थे ॥२०॥ जिस पुरुषने भरतके साथ शत्रुता करनेकी इच्छा की थी वह पहले ही नष्ट हो चुका था, सो ठीक ही है क्योंकि अग्निको बुझानेकी इच्छा करनेवाला पतंगा क्या कभी सकुशल रह सकता है ? अर्थात् नहीं ॥२१॥ महाराज भरतने शत्रुओंके हीरा मोती आदि रत्न तथा सवारी आदि सब धन छीन लिया था और इस प्रकार उन्होंने समस्त अरि अर्थात् शत्रुओंके समूहको स्पष्ट रूपसे अरि अर्थात् धनरहित कर दिया था ॥२२॥ अपने आप समस्त धन भेंट कर चक्रवर्तीको नमस्कार करनेवाले राजा लोग यद्यपि पहले शत्रु थे तथापि पीछेसे वे बड़े भारी अधिकारी हुए थे ।।२३।। जो पृथिवी पहले भरतकी सेनासे आक्रान्त होकर भयभीत हो रही थी वही पृथिवी अब अपने धनसे भरतको सन्तोष प्राप्त कराकर निर्भय हो गयी थी ॥२४॥ उच्च कुलोंमें उत्पन्न हुए अनेक राजाओंने भरतेश्वरके लिए अपनी कुल-परम्परासे चला आया धन देकर फिरसे अपनी पृथिवी प्राप्त की थी सो ठीक ही है क्योंकि वे राजा विजयाभिलाषी राजाके लिए धनरूपी जलके प्रवाहकी प्राप्तिके लिए 'कुल्या'-नदी अथवा नहरके समान होते हैं। भावार्थ-विजयी राजाओंको धनकी प्राप्ति साधारण राजाओंसे होती है।।२५॥ जिस राजाके रहते हुए प्रजा करके बोझसे दबकर दुःखी हो रही थी,
१ वाहननिर्णाशम् पक्षे पूर्णविनाशम् । २ तेजोहानिम् । ३ समीपस्थः । ४ निरस्तप्रभावप्रसराः । पक्षे निरस्तोष्णप्रसराः । ५ भरते। ६ मरणकालमाप्तपुरुषसमानतामित्यर्थः । ७ वैरमिच्छति । ८ यो नास्मिन् इ०। ( ना पुमान् इति इ० टिप्पणी )। ९ क्षपयितुमिच्छुः । १० आकृष्य । ११ स्वीकुर्वन् । १२ न विद्यते राः धनं येषां तानि अरीणि तेषां भावस्तत्त्वम्, निर्धनत्वमित्यर्थः । १३ अधिकशत्रुत्वमिति ध्वनिः । १४ सैन्यैः । १५ निरस्तभीतिः । १६ कुलजाः । १७ उपार्जयति स्म । ऋज गतिस्थानार्जनोपार्जनेषु । १८ सरितः । 'कुल्या कुलवधूः सरित्' । अथवा कृत्रिमसरितः । तत्पक्षे 'कुल्याल्पा कृत्रिमा सरित्' । १९ दुःखिताः ल० । १० योग्यदण्डकारिपुरुष स्थापयामास ।