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एकोनत्रिंशत्तमं पर्व
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अथ चक्रधरो जैनों कृत्वेज्यामिष्टसाधनीम् । प्रतस्थे दक्षिणामाशां जिगीषुरनुतोयधि ॥१॥ 'यतोऽस्य पदढक्कानां ध्वनिरामन्द्रमुच्चरन् । मूर्छितः काहलारावैरब्धिध्वानं तिरोदधे ॥२॥ प्रयाणभेरीनिःस्वानः सम्मूर्छन् गजबृहितैः। दिमखान्यनयत् क्षोभ हृदयानि च विद्विषाम् ॥३॥ विवभुः पवनोद्धृता जिगीषोर्जयकेतनाः । वारिधेरिव कल्लोलानुवैलानाजुहूषवः ॥४॥ एकतो लवणाम्भोधिरन्यतोऽप्युपसागरः । तन्मध्ये यान्बलौघोऽस्य तृतीयोऽब्धिरिवाबभौ ॥५॥ हस्त्यश्वरथपादातं देवाश्च सनभश्चराः । षडङ्ग बलमस्येति पप्रथे व्याप्य रोदसी ॥६॥ पुरः प्रतस्थे दण्डेन चक्रेण तदनन्तरम् । ताभ्यां विशोधिते मार्गे तबलं प्रययौ सुखम् ॥७॥ तच्चक्रमरिचक्रस्य केवलं क्रकचायितम्"। दण्डोऽपि दण्डपक्षस्य कालदण्ड इवापरः ॥८॥ प्रययौ निकषाम्भोधि समया तटवेदिकाम् । अनुवेलावनं सम्राट् सैन्यैः संश्रावयन्" दिशः॥६॥ अनुवाधितटं कर्षन्नलयां स्वामनीकिनीम् । आज्ञालतां नृपाद्रीणां मूनि रोपयति स्म सः ॥१०॥ चलिते चलितं पूर्व निर्याते निःसृतं पुरः। प्रयाते यातमेवास्मिन् सेनानीभिरिवारिभिः ॥११॥
अथानन्तर - चक्रवर्ती भरत समस्त इष्ट वस्तुओंको सिद्ध करनेवाली जिनेन्द्रदेवकी पूजा कर दक्षिण दिशाको जीतनेकी इच्छा करते हुए समुद्र के किनारे-किनारे चले ॥ १॥ जिस समय चक्रवर्ती जा रहे थे उस समय तुरहीके शब्दोंसे मिली हुई पदरूपी नगाड़ोंकी गम्भीर ध्वनि समुद्र की गर्जनाको भी ढक रही थी ।।२।। हाथियोंकी चिग्घाड़ोंसे मिले हुए प्रस्थानके समय बजनेवाले नगाड़ोंके शब्द समस्त दिशाओं तथा शत्रुओंके हृदयोंको क्षोभ प्राप्त करा रहे थे ।। ३ ।। जीतनेकी इच्छा करनेवाले चक्रवर्तीकी वायुसे उड़ती हुई विजय-पताकाएँ ऐसी सुशोभित हो रही थीं मानो ज्वारसे उठी हुई समुद्रको लहरोंको ही बुला रही हों ॥ ४ ॥ उस सेनाके एक ओर (दक्षिणकी ओर ) तो लवण समद्र था और दूसरी ( उत्तरकी ) ओर उपसागर था उन दोनोंके बीच जाता हुआ वह सेनाका समूह ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो तीसरा समुद्र ही हो ॥५॥ हाथी, घोड़े, रथ, पियादे, देव और विद्याधर यह छह प्रकारकी चक्रवर्तीकी सेना आकाश और पृथिवीके अन्तरालको व्याप्त कर सब ओर फैल गयी थी ॥ ६॥ सेनामें सबसे आगे दण्डरत्न और उसके पीछे चक्र रत्न चलता था तथा इन दोनोंके द्वारा साफ किये हुए मार्गमें सुखपूर्वक चक्रवर्तीकी सेना चलती थी । ७ ।। चक्रवर्तीका वह एक चक्र ही शत्रुओंके समूहको नष्ट करनेके लिए करोतके समान था तथा दण्ड ही दण्ड देने योग्य शत्रुओंके लिए दूसरे यमदण्डके समान था ॥ ८ ॥ सम्राट् भरत समुद्र के समीप-समीप किनारेकी वेदीके पास-पास किनारेके अनुसार अपनी सेनाके द्वारा दिशाओंको गुंजाते हुए - सचेत करते हुए चले ।। ९ ।। अपनी अलंघनीय सेनाको समद्रके किनारे-किनारे चलाते हए चक्रवर्ती भरत अपनी आज्ञारूपी लताको राजारूपी पर्वतोंके मस्तकपर चढ़ाते जाते थे ॥ १० ॥ महाराज भरतके शत्रु उनके सेनापतियोंके समान थे, क्योंकि जिस प्रकार महाराजके चलनेकी इच्छा होते ही सेनापति १ गच्छतः । २ पटु प०, इ०, द० । ३ मिश्रितः । ४ आच्छादयति स्म । ५ मिश्रीभवन् । ६ उज्जृम्भितान् । ७ स्पर्धा कर्तुमिच्छवः । ८ गच्छन् । ९ द्यावापृथिव्यौ । 'भूद्यावौ रोदस्यौ रोदसी च ते' इत्यमरः । १० दण्डरत्नेन । ११ करपत्रमिवाचरितम् । १२ यमस्य दण्डः। १३ अम्भोधेः समीपम् । 'निकषा त्वन्तिके मध्ये' । १४ तटवेदिकायाः समीपे । १५ साधयन् । १६ प्रापयन् । १७ भरते ।