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आदिपुराणम पुण्योदयं भरत चक्रधरो जिगीषुरुनिन्नवेलमनिलाहतवीचिमालम् । प्रोलक्य वार्धिममरं सहसा विजिग्ये पुग्ये बलीयसि किमस्ति जगत्प्रजय्यम् ॥२१४॥ पुण्योदयेन मकराकरवारिसीम पृथ्वी स्वसादकृत चक्रधरः पृथुश्रीः । दुलंयमब्धिमवगाह्य विनोपसर्गः पुण्यात् परं न खलु साधनमिष्टसिद्धयै ॥२१५॥ चक्रायुधोऽयमरिचक्रभयंकरश्रीराक्रम्य 'सिन्धुमतिभीषणनक्रचक्रम् । चक्रे वशे सुरमवश्यमनन्यवश्यं पुण्यात् परं न हि वशीकरणं जगत्याम् ॥२१६॥ पुण्यं जले स्थलमिवाभ्यवपद्यते नून् पुण्यं स्थले जलमिवाशु नियन्ति तापम् । पुण्यं जलस्थलमये शरणं तृतीयं पुण्यं कुरुध्वमत एव जना जिनोक्तम् ॥२१७॥ पुण्यं परं शरणमापदि दुर्विलङ्घयं पुण्यं दरिद्रति जने धनदायि पुण्यम् । पुण्यं सुखार्थिनि जने सुखदायि रत्नं पुण्यं जिनोदितमतः सुजनाश्चिनुध्वम् ॥२१॥ पुण्यं जिनेन्द्रपरिपूजनसाध्यमाद्यं पुण्यं सुपात्रगतदानसमुत्थमन्यत् । पुण्यं व्रतानुचरणादुपवासयोगात् पुण्यार्थिनामिति चतुष्टयमर्जनीयम् ॥२१॥
हुए मनुष्योंको क्या अलंघनीय ( प्राप्त न होने योग्य ) रह जाता है ? अर्थात् कुछ भी नहीं ॥२१३।। सबको जीतनेकी इच्छा करनेवाले भरत चक्रवर्तीने पुण्यके प्रभावसे, जिसमें ज्वारभाटा उठ रहे हैं और जिसमें लहरोंके समूह वायुसे ताड़ित हो रहे हैं ऐसे समुद्र को उल्लंघन कर शीघ्र ही मागध देवको जीत लिया सो ठीक ही है क्योंकि अतिशय बलवान् पुण्यके रहते हुए संसारमें अजय्य अर्थात् जीतनेके अयोग्य क्या रह जाता है ? अर्थात् कुछ भी नहीं ॥२१४।। बहुत भारी लक्ष्मीको धारण करनेवाले चक्रवर्ती भरतने पुण्यकर्मके उदयसे ही बिना किसी उपद्रवके उल्लंघन करनेके अयोग्य समुद्रका उल्लंघन कर समुद्रका जल ही जिसकी सीमा है ऐसी पृथिवीको अपने अधीन कर लिया, सो ठीक ही है क्योंकि इष्ट पदार्थोंकी सिद्धि के लिए पुण्यसे बढ़कर और कोई साधन नहीं है ॥२१५॥ शत्रुओंके समूहके लिए जिनकी सम्पत्ति बहुत ही भयंकर है ऐसे चक्रवर्ती भरतने अत्यन्त भयंकर मगर-मच्छोंके समूहसे भरे हुए समुद्रका उल्लंघन कर अन्य किसीके वश न होने योग्य मागध देवको निश्चित रूपसे वश कर लिया, सो ठीक ही है क्योंकि लोकमें पुण्यसे बढ़कर और कोई वशीकरण ( वश करनेवाला ) नहीं है ॥२१६॥ पुण्य ही मनुष्योंको जलमें स्थलके समान हो जाता है, पुण्य ही स्थलमें जलके समान होकर शीघ्र ही समस्त सन्तापको नष्ट कर देता है और पुण्य ही जल तथा स्थल दोनों जगहके भयमें एक तीसरा पदार्थ होकर शरण होता है, इसलिए हे भव्यजनो, तुम लोग जिनेन्द्र भगवान्के द्वारा कहे हुए पुण्यकर्म करो ॥२१७॥ पुण्य ही आपत्ति के समय किसीके द्वारा उल्लंघन न करनेके योग्य उत्कृष्ट शरण है, पुण्य ही दरिद्र मनुष्योंके लिए धन देनेवाला है और पुण्य ही सुखकी इच्छा करनेवाले लोगोंके लिए सुख देनेवाला है, इसलिए हे सज्जन पुरुषो ! तुम लोग जिनेन्द्र भगवान्के द्वारा कहे हुए इस पुण्यरूपी रत्नका संचय करो ॥२१८॥ जिनेन्द्र भगवान्की पूजा करनेसे उत्पन्न होनेवाला पहला पुण्य है, सुपात्रको दान देनेसे उत्पन्न हुआ, दूसरा पुण्य है व्रत पालन करनेसे उत्पन्न हुआ, तीसरा पुण्य है और उपवास करनेसे उत्पन्न हुआ, चौथा पुण्य है इस प्रकार पुण्यकी इच्छा करनेवाले पुरुषोंको ऊपर लिखे हुए चार प्रकारके पुण्योंका १ सीमां ल०, इ०, द०, अ०, ५०, स०। २ स्वाधीनं चकार । ३ समुद्रम् । ४ प्राप्नोति । -मिवाभ्युपपद्यते ल०, द० । ५ दरिद्रयति ।