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आदिपुराणम् गया ऋतिपयान्यब्धी योजनानि रथः प्रभोः । स्थितोऽन्तर्जलमाक्रम्य ग्रस्ताश्व इव वाधिना ॥११४॥ द्विपयोजनमागाहा स्थित मध्येऽर्णवं रथे। रथाङ्गपाणिरारुष्टो जग्राह किल कार्मकम् ॥११५॥ स्फुरज्ज्यं वज्रकाण्डं तदनुरारोपितं यदा । तदा जीवितसंदेहदोलारूढमभूजगत् ॥११६॥ स्फुरन्मारिवस्तस्य मुहुः प्रधानयन् दिशः । प्रशोभमनयद्वाधि चलत्तिमिकुलाकुलम् ॥११७॥ संहार्यः किममध्याब्धिरुत विश्वमिदं जगत् । इत्याशक्य झणं तस्थे तदा नभसि खेचरैः ॥११८॥ वक्रेऽपि गुणवत्यस्मिनृजुकर्मणि कार्मुके । अमोघं संदधे बाणं इलाध्यं स्थानकमास्थितः ॥११६॥ अहं हि भरतो नाम चक्री वृषभनन्दनः । मत्साभवन्तु मदभुक्तिवासिनो ब्यन्तरामराः ॥१२०॥ इति व्यक्तलिपिन्यासो दूतमुख्य इव द्रुतम् । स पत्री' चक्रिणा मुक्तः प्राङ्मुखीमास्थितो गतिम् ॥१२१॥ ''जितनिर्यातनिर्दोषं धनि कुर्वनाभस्तलात् । न्यपसन्मागधावासे तत्सैन्यं क्षोभमानयन् ॥१२२॥ कि.ष क्षुभितोऽम्भाधिः करुपान्तपवनाहतः । निर्घात: किंस्त्रिदुद्ध्वान्तो भूमिकम्पो नु जम्भतं ॥१२३॥ ''इत्याकुलाकुलधियस्तनिकायोपगाः सुराः । परिवदुरुपत्यैनं सन्नद्धा माग, प्रभुम् ॥१२॥
देव दीप्र : शरः कोऽपि पतितोऽस्मत्सभाङ्गणे । तेनायं प्रकृतः क्षोभो न किंचित्कारणान्तरम् ॥१२५॥ गया और पुण्यरूपी सारथिके द्वारा प्रेरित हुआ उनका मनोरथ भी सफलताको प्राप्त हो गया ॥११३।। महाराज भरतका रथ समुद्र में कुछ योजन जाकर जलके भीतर ही खड़ा हो गया मानो समुद्रने ऊपरकी ओर बढ़कर उसके घोड़े ही थाम लिये हों ।।११४।। जब वह रथ समुद्रके भोतर बारह योजन चलकर खड़ा हो गया तब चक्रवर्तीने कुछ कुपित होकर धनुप उठाया ।।११५।। जिसको प्रत्यंचा ( डोरी ) स्फूरायमान है और काण्ड वज्रके समान है ऐसा वह धनुप जिस समय चक्रवतीने प्रत्यंचासे युक्त किया था उसी समय यह जगत् अपने जीवित रहनेके सन्देह रूपी लापर आरूढ़ हो गया था अर्थात् समस्त संसारको अपने जीवित रहनेका सन्देह हो गया था ।।११६।। समस्त दिशाओंको वार-बार शब्दायमान करते हुए चक्रवर्तीके धनुपकी स्फुरायमान प्रत्यंचाके शब्दने इधर-उधर भागते हए मच्छोंके समहसे भरे हए समुद्रको भी क्षोभित कर दिया था ॥११७।। क्या यह चक्रवर्ती इस समुद्रका संहार करना चाहता है अथवा समस्त संसारका ? इस प्रकार आशंका कर विद्याधर लोग उस समय क्षण-भरके लिए आकाशमें खड़े हो गये थे ।।११८।। जो टेढ़ा होकर भी गणवान् ( पक्षमें डोरीसे सहित) और सरल कार्य करनेवाला था ( पक्षमें सीधा बाण छोड़नेवाला था ) ऐसे उस धनुषपर चक्रवर्तीने प्रशंसनीययोग्य आसनसे खड़े होकर भी व्यर्थ न जानेवाला अमोघ नामका बाण रखा ।।११९।। 'मैं वृषभदेवका पुत्र भरत नामका चक्रवर्ती हैं इसलिए मेरे उपभोगके योग्य क्षेत्रमें रहनेवाले सब व्यन्तर देव मेरे अधीन हों इस प्रकार जिसपर स्पष्ट अक्षर लिखे हए हैं ऐसा हुआ वह चक्रवर्तीके द्वारा चलाया हुआ बाण मुख्य दूतको तरह पूर्व दिशाकी ओर मुख कर चला ॥१२०-१२१॥ और जिसने वज्रपातके शब्दको जीत लिया है ऐसा भारी शब्द करता हुआ तथा मागध देवकी सेनामें क्षोभ उत्पन्न करता हुआ वह बाण आकाश-तलसे मागध देवके निवासस्थान में जा पड़ा ।।१२२।। क्या यह कल्पान्त कालके वायुसे ताडित हुआ समुद्र ही क्षोभको प्राप्त हुआ है ? अथवा जोरसे शब्द करता हुआ वज्र पड़ा है ? अथवा भूमिकम्प ही हो रहा है ? इस प्रकार जिनकी बुद्धि अत्यन्त व्याकुल हो रही है ऐसे उसके समीप रहनेवाले व्यन्तरदेव तैयार होकर मागध देवके पास आये और उसे घेरकर खड़े हो गये ।।१२३-१२४॥ हे देव, हमारे सभा१ जलमध्यं । २ अर्णवमध्ये। ३ क्रुद्धः। ४ स्फुरन्ती या मौवीं यस्य स तम् । ५ चक्रिणः । ६ स्थानकम् प्रत्याले ढादिस्थानम् । ७ मदधीना भवन्तु । ८ मम क्षेत्रवासिन इत्यर्थः । ९ बाणः । १० पूर्वाभिमुखीम् । ११ अशनि । १२ अत्याकुलबुद्धयः । १३ विहितः ।