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आदिपुराणम्
साक्षेपमिति संरम्भादुदीर्य गिरमूर्जिताम् । व्यरंसीद् दशनज्योत्स्ना संहरन्मागधामरः ॥१३६॥ ततस्तमूचुरभ्यर्णाः सुरा दृष्ट परम्पराः । प्रभु शमयितुं क्रोधाद् विद्या वृद्वैविभोः स्थितिः ॥१३॥ यथार्थं वरमर्थ्य च मितं च बहुविस्तरम् । अनाकुलं च गम्भीरं नाधियामीदृशं वचः ॥१३८॥ सत्यं परिभवः मोढुमशक्यो मानशालिनाम् । बलवद्भिर्विरोधस्तु स्त्रपराभवकारणम् ॥१३९॥ सत्यमेव यशो रक्ष्यं प्राणैरपि धनैरपि । तत्तु प्रभुमनाश्रित्य कथं लभ्येत धीधनैः ॥१४॥ अलब्धभावो लब्धार्थपरिरक्षणमित्यपि । द्वयमेतत् सुग्वाल्लभ्यं जिगीषो श्रयं विना ॥१४१॥ बलिनामपि सन्न्येव बलीयांसो मनस्विनः । बलवानहमस्मीति नोत्संक्तव्यमतः परम् ॥१४२॥ न किंचिदप्यनालोच्य विधेयं सिद्धिकाम्यता । ततः शरः कुतस्योऽयं किमीयों वेति मृग्यताम् ॥११३॥ श्रतं च बहुशोऽस्माभिराप्तीयं पुष्कलं वचः । जिनाश्चक्रधरैस्पार्ध वस्यन्ताहेति भारते ॥१४४॥ ननं चक्रिण एवायं जयाशंसी शरागमः । धूतान्धतमसोद्योतः संभाव्योऽन्यत्र किरवेः ॥११५॥
अथवा खलु संशय्य चक्रपाणेरयं शरः । व्यनक्ति व्यक्तमेवैनं तन्नामाक्षरमालिका ॥१४६॥ से मेरी क्रोधरूपी अग्निको प्रज्वलित करनेवाला हो ॥१३५॥ इस प्रकार वह मागध देव क्रोधसे तिरस्कारके साथ-साथ कठोर वचन कहकर दाँतोंकी कान्तिको संकुचित करता हुआ जब चुप हो रहा ॥१३६।। तब कुल-परम्पराको देखनेवाले समीपवर्ती देव उसका क्रोध शमन करनेके लिए उससे कहने लगे सो ठीक ही है क्योंकि राजा लोगोंकी स्थिति विद्याकी अपेक्षा वृद्ध हुए मनुष्योंसे ही होती है, भावार्थ-जो मनुष्य विद्यावृद्ध अर्थात् विद्याकी अपेक्षा बड़े हैं उन्हींसे राजा लोगोंकी मर्यादा स्थिर रहती है किन्तु जो मनुष्य केवल अवस्थासे बड़े हैं उनसे कुछ लाभ नहीं होता ॥१३७। उन देवोंने जो वचन कहे थे वे समयके अनुकूल थे, अर्थसे भरे हुए थे, परिमित थे, अर्थको अपेक्षा बहुत विस्तारवाले थे, आकुलतारहित थे और गम्भीर थे सो ठीक ही है क्योंकि मूर्खाके ऐसे वचन कभी नहीं निकलते हैं ॥१३८। उन देवोंने कहा कि हे प्रभो, यह ठीक है कि अभिमानी मनुष्योंको अपना पराभव सहन नहीं हो सकता है परन्तु बलवान् पुरुषोंके साथ विरोध करना भी तो अपने पराभवका कारण है ॥१३९।। यह बिलकुल ठीक है कि अपने प्राण अथवा धन देकर भी यशकी रक्षा करनी चाहिए परन्तु वह यश किसी समर्थ पुरुषका आश्रय किये बिना बुद्धिमान् मनुष्योंको किस प्रकार प्राप्त हो सकता है ? ॥१४०॥ प्राप्त नहीं हुई वस्तुका प्राप्त होना और प्राप्त हुई वस्तुको रक्षा करना ये दोनों ही कार्य किसी विजिगीषु राजाके आश्रयके बिना सुखपूर्वक प्राप्त नहीं हो सकते ॥१४१॥ हे प्रभो, बलवान् मनुष्योंकी अपेक्षा और भी अधिक बलवान् तथा बुद्धिमान् हैं इसलिए मैं बलवान् हूँ इस प्रकार कभी गर्व नहीं करना चाहिए ।।१४२॥ सिद्धि अर्थात् सफलताको इच्छा करनेवाले पुरुषको बिना विचारे कुछ भी कार्य नहीं करना चाहिए इसलिए यह बाण कहाँसे आया है ? और किसका है ? पहले इस बातकी खोज करनी चाहिए ॥१४३।। इस भारतवर्ष में चक्रवर्तियोंके साथ तीर्थ कर निवास करेंगे, अवतार लेंगे ऐसे आप्त पुरुषोंके यथार्थ वचन हम लोगोंने अनेक बार सुने हैं ॥१४४॥ विजयको सूचित करनेवाला यह बाण अवश्य ही चक्रवर्तीका ही होगा क्योंकि सघन अन्धकारको नष्ट करनेवाला प्रकाश क्या सूर्यके सिवाय किसी अन्य वस्तुमें भी सम्भव हो सकता है ? अर्थात् नहीं ॥१४५।। अथवा इस विषयमें संशय करना व्यर्थ है । यह बाण चक्रवर्तीका ही है, क्योंकि इसपर खुदे हुए नामके अक्षरोंकी माला साफ-साफ हो १ प्रभोः स्थितिविद्यावद्धर्भवति हि । २ प्रभोः ल०। ३ यथावसरमत्यं च ८०, ल०, अ०, प०, स०, इ० । ४ अभिलषणीयम् । ५ बुद्धिहीनानाम् । ६ सिद्धि वाञ्छता। ७ कस्य संबन्धि । ८ विचार्यताम् । ९ आप्तसंबन्धि । १० रवि विवय॑ । ११ शङ्कां मा कार्षीः। १२ चक्रिनामाक्षर ।