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अष्टाविंशतितमं पर्व
अमुष्यजलमुत्पतद्गगनमेतदालक्ष्यते शशाङ्ककरकोमलच्छविभिराततं शीकरैः ।
प्रहासमिव दिग्वधू परिचयाय विश्वग्दधत् तितांस दिव चात्मनः प्रतिदिशं यशो भागशः ॥ १७० ॥ क्वचित्स्फुटितशुक्तिमौनिकततं सतारं नभो जयत्य लिकलीमसं मकरमीनराशिश्रितम् । क्वचित्सलिलमस्य भोगिकुल संकुलं सून्नतं नरेन्द्र कुलमुत्तम स्थितिजिगीषतीवोद्भयम् ॥ १७१ ॥ इतो विशति गाङ्गमम्बु शरदम्बुदाच्छच्छवि स्रुतं हिमवतोऽमुतश्च सुरसं पयः सैन्धवम् । तथापि न जलागमेन धृतिरस्य पोपूर्यते ध्रुवं न जलसंग्रहैरिह जलाशयो' द्वायति ॥ १७२॥ वसन्ततिलकावृत्तम्
व्याप्योदरं चलकुलाचलसंनिकाशाः पुत्रा इवास्य तिमयः पयसा प्रपुष्टाः । कल्लोलकाच परिमारहिताः समन्तादन्योन्य घट्टनपराः सममावसन्ति ॥ १७३॥
५.१
रूपी भुजाओं के द्वारा धारण किये हुए देदीप्यमान मणियोंके समूह ही जिसकी पूजा की सामग्री हैं, जो शब्द करते हुए असंख्यात शंखोंसे आकुल है, जो प्रत्येक बेलाके साथ जोरसे शब्द कर रहा है, वायुके द्वारा कम्पित हुआ जल ही जिसके नगाड़े हैं और जो इन सबसे ऐसा जान पड़ता
मानो आपके लिए अर्घं ही देना चाहता हो ऐसा यह समुद्र सदा आपके लिए आनन्द देवे ।। १६९ ॥ आकाशकी ओर उछलता हुआ और चन्द्रमाकी किरणोंके समान कोमल कान्तिवाले जलके छोटे-छोटे छींटोंसे व्याप्त हुआ इस समुद्रका यह जल ऐसा जान पड़ता है मानो दिशारूपी स्त्रियोंके साथ परिचय करने के लिए चारों ओरसे हास्य ही कर रहा हो अथवा अपना यश बाँटकर प्रत्येक दिशा में फैलाना ही चाहता हो ॥ १७० ॥ खुली हुई सीपोंके मोतियोंसे व्याप्त हुआ, भ्रमर के समान काला और मकर, मीन, मगरमच्छ आदि जल-जन्तुओंकी राशि - समूहसे भरा हुआ यह समुद्रका जल कहीं ताराओं सहित, भ्रमर के समान श्याम और मकर मीन आदि राशियों से भरे हुए आकाशको जीतता है तो कहीं राजाओंके कुलको जीतना चाहता है क्योंकि जिस प्रकार राजाओंका कुल भोगी अर्थात् राजाओंके समूहसे व्याप्त रहता है उसी प्रकार यह जल भी भोगी अर्थात् सर्पोंके समूहसे व्याप्त है, जिस प्रकार राजाओं का कुल सून्नत अर्थात् अत्यन्त उत्कृष्ट होता है उसी प्रकार यह जल भी सून्नत अर्थात् अत्यन्त ऊँचा है, जिस प्रकार राजाओंका कुल उत्तम स्थिति अर्थात् मर्यादासे सहित होता है उसी प्रकार यह जल भी उत्तम स्थिति अर्थात् अवधि ( हद) से सहित है, और राजाओंका कुल जिस प्रकार उद्भट अर्थात् उत्कृष्ट योद्धाओंसे
हित होता है उसी प्रकार यह जल भी उद्भट अर्थात् प्रबल है ।। १७१ । । इधर हिमवान् पर्वतसे निकला हुआ तथा शरदऋतुके बादलोंके समान स्वच्छ कान्तिको धारण करनेवाला गंगा नदीका जल प्रवेश कर रहा है और उस ओर सिन्धु नदीका मीठा जल प्रवेश कर रहा है, फिर भी जलके आने से इसका सन्तोष पूरा नहीं होता है, सो ठीक ही है क्योंकि जलाशय ( जिसके बोचमें जल है, पक्षमें जड़ आशयवाला - मूर्ख) जल ( पक्ष में जड़ - मूर्ख) के संग्रहसे कभी भी सन्तुष्ट नहीं होता है । भावार्थ - जिस प्रकार जलाशय जडाशय अर्थात् मूर्ख मनुष्य जलसंग्रह - जड़संग्रह अर्थात् मूर्ख मनुष्योंके संग्रह से सन्तुष्ट नहीं होता उसी प्रकार जलाशय अर्थात् जलसे भरा हुआ समुद्र या तालाब जल संग्रह अर्थात् पानी के संग्रह करनेसे सन्तुष्ट नहीं होता ॥ १७२ ॥ । इस समुद्रके उदर अर्थात् मध्यभाग अथवा पेटमें व्याप्त होकर पय अर्थात् जल अथवा दूधसे अत्यन्त पुष्ट हुए तथा चलते हुए कुलाचलोंके समान बड़े-बड़े इसके पुत्रोंके समान मगरमच्छ और प्रमाणरहित
१ विस्तारितुमिच्छत् । २ सर्पममूह पक्षे भोगिसमूह | ३ सिन्धु नदीसंबन्धि । ४ जलाधारः जडबुद्धिश्च । ५ द्रायति तृप्यति । द्वै तृप्ती । - ६ माविशन्ति ल०, द० ।