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आदिपुराणम्
अदृष्टपारमाभ्यमसंहार्य 'मनुत्तरम् । सिद्धालयमिव व्यक्तमव्यक्तममृतास्पदम् ॥१७॥ क्वचिन्महोपलच्छायाँ कृतसंध्याभ्रविभ्रमम् । कृतान्धतमसारम्भ क्वचिन्नीलाइमरश्मिभिः ॥९८॥ हरिन्मणिप्रभोत्स: क्वचि संदिग्ध शैवलम् । क्वचिच्च कोङ्कमी कान्ति तन्वानं विद्माईरः ॥१९॥ क्वचिच्छुक्तिपुटो दसमुच्चलितमौकिकम् । तारकानिकराकीणं हसन्तं जल भृत्पथम् ॥१०॥ वेलापर्यन्तसंमृ छन्सर्वरत्नांशुशीकरः । क्वचिदिन्द्रधनुलेखां लिखन्तमिव खाङ्गणे ॥१०१॥
रथाङ्गपाणिरित्युच्चः संवृतं रनकोटिभिः। महानिधिमिवापूर्वमपश्यन्मकराकरम् ॥१०२॥ भरा हुआ था इसलिए नदीन अर्थात् दीन नहीं था यह उचित था ( पक्षमें 'नदी इन' नदियोंका स्वामी था ) परन्तु अप्राण अर्थात् प्राणरहित होकर भी चिरजीवित अर्थात् बहुत समय तक जीवित रहनेवाला था, समुद्र अर्थात् मुद्रासहित होकर भी उन्मुद्र अर्थात् मुद्रारहित था और झषकेतु अर्थात् मछलीरूप पताकासे सहित होकर भी अमन्मथ अर्थात् कामदेव नहीं था यह विरुद्ध बात थी किन्तु नीचे लिखे अनुसार अर्थमें परिवर्तन कर देनेसे कोई विरुद्ध बात नहीं रहती। वह प्राणरहित होनेपर भी चिरजीवित अर्थात् चिरस्थायी रहनेवाला था अथवा चिरकालसे जलसहित था, समुद्र अर्थात् सागर होकर भी उन्मुद्र अर्थात् उत्कृष्ट आनन्दको देनेवाला था ( उद्-उत्कृष्टां मुदं हर्ष राति-ददातीति उन्मुद्रः ) और झषकेतु अर्थात् समुद्र अथवा मछलियोंके उत्पातसे सहित होकर भी अमन्मथ अर्थात् काम नहीं था। अथवा वह समद्र स्पष्ट ही सिद्धालयके समान जान पड़ता था क्योंकि जिस प्रकार सिद्धालयका पार दिखाई नहीं देता है उसी प्रकार उस समुद्र का भी पार दिखाई नहीं देता था – दोनों ही अदृष्टपार थे, जिस प्रकार सिद्धालय अक्षोभ्य है अर्थात् आकुलतारहित है । उसो प्रकार समुद्र भी अक्षोभ्य था अर्थात् क्षोभित करनेके अयोग्य था उसे कोई गॅदला नहीं कर सकता था, जिस प्रकार सिद्धालयका कोई संहार नहीं कर सकता उसी प्रकार उस समूहका भी कोई संहार नहीं कर सकता था, जिस प्रकार सिद्धालय अनुत्तर अर्थात् उत्कृष्ट है उसी प्रकार वह समुद्र भी अनुत्तर अर्थात् तैरनेके अयोग्य था, जिस प्रकार सिद्धालय अव्यक्त अर्थात् अप्रकट है उसी प्रकार वह समुद्र भी अव्यक्त अर्थात् अगम्य था और सिद्धालय जिस प्रकार अमृतास्पद अर्थात् अमृत (मोक्ष) का स्थान है उसी प्रकार वह समुद्र भी अमृत (जल) का स्थान था। कहीं तो वह समुद्र पद्मरागमणियोंसे सन्ध्याकालके बादलोंकी शोभा अथवा सन्देह धारण कर रहा था और कहीं नील मणियोंकी किरणोंसे गाढ़ अन्धकारका प्रारम्भ करता हुआ-सा जान पड़ता था। कहीं हरित मणियोंकी कान्तिके प्रसारसे उसमें शेवालका सन्देह हो रहा था और कहीं वह मूंगाओंके अंकुरोंसे कुंकुमकी कान्ति फैला रहा था। कहीं सीपोंके सम्पुट खुल जानेसे उसमें मोती तैर रहे थे और उनसे वह ऐसा जान पड़ता था मानो ताराओंके समूहसे भरे हुए आकाशकी ओर हँस ही रहा हो । तथा कहींपर किनारेके समीप ही समस्त रत्नोंकी किरणोंसहित जलकी छोटी-छोटी बँदें पड़ रही थीं उनसे ऐसा जान पड़ता था मानो आकाशरूपी आँगनमें इन्द्रधनुषकी रेखा ही लिख रहा हो। इस प्रकार जो ऊँचे तक करोड़ों रत्नोंसे भरा हुआ था ऐसे उस समुद्रको चक्रवर्तीने अपूर्व महानिधिके समान देखा ।। ६८-१०२ ।।
१ अविनाश्यम् । २ न विद्यते उत्तरः श्रेष्ठो यस्मात् स तम् । ३ सलिलपीयूषनिवासम् । पक्षे अभयस्थानम् । 'सुधाकरयज्ञशेषसलिलाज्यमोक्षधन्वन्तरिविषकन्दच्छिन्न सहायदिविजेष्वमृतम्' इत्यभिधानात् । ४ पद्मरागमाणिक्य । ५ लिप्त । सन्देहविषयीकृत । ६ समुत्सर्पन्नानारत्नमरीचियुतशीकरैः । ७ -संकरैः प० । ८ मकरालयम् ल०।