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दशरथगुरु
जिनसेन
वीरसेन
प्रस्तावना
आर्य चन्द्रसेन
आर्य आर्यनन्दी
विनयसेन
कुमारसेन (काष्ठासंघप्रवर्तक)
जयसेन
श्रीपाल
पद्मसेन
देवसेन
गुणभद्र
लोकसेन
इन्द्रनन्दी ने अपने श्रुतावतार' में लिखा है कि कितना ही समय बीत जाने पर चित्रकूटपुर में रहने बाले श्रीमान् एलाचार्य हुए जो सिद्धान्त-ग्रन्थों के रहस्य को जानते थे । श्रीवीरसेन स्वामी ने उनके पास समस्त सिद्धान्त का अध्ययन कर उपरितन, निबन्धन आदि आठ अधिकारों को लिखा था। गुरु महाराज की आशा से वीरसेन स्वामी चित्रकूट छोड़कर माटग्राम आये। वहाँ आनतेंन्द्र के बनवाये हुए जिन-मन्दिर में बैठकर उन्होंने 'व्याख्याप्रज्ञप्ति' को पाकर उसके जो पहले छह खण्ड हैं, उनमें बन्धादि अठारह अधिकारों में सत्कर्म नामक छठे खण्ड को संक्षिप्त किया और सबकी संस्कृत- प्राकृत भाषा मिश्रित धवला नाम की टीका ७२ हजार श्लोक - प्रमाण रची और फिर दूसरे 'कषायप्राभृत' के पहले स्कन्ध की चारों विभक्तियों पर जयधवला नाम की २० हजार श्लोक-प्रमाण टीका लिखी। इसके बाद आयु पूर्ण हो जाने से स्वर्गवासी हुए । उनके अनन्तर श्रीजयसेन गुरु ने ४० हजार श्लोक और बनाकर जयधवला टीका पूर्ण की। इस प्रकार जयधवला टीका ६० हजार श्लोक प्रमाण निर्मित हुई ।
यही बात श्रीधर विबुध ने भी अपने गद्यात्मक श्रुतावतार में कही है, अतः इन दोनों श्रुतावतारों के आधार से यह सिद्ध होता है कि वीरसेनाचार्य के गुरु एलाचार्य थे । परन्तु यह एलाचार्य कौन थे, इसका
१. बेलो श्लोक १७६-१८३ ।
२. श्लोक १८२ में "यातस्त्वतः पुनस्तच्छिव्यो जयसेन गुरुनामा" यहां जयसेन के स्थान में जिनसेन का उल्लेख होना चाहिए क्योंकि श्रीधर कृत 'गद्यश्रुतावतार' में जयसेन के स्थान पर जिनसेन का ही पाठ हैं। यथा :
"... वीरसेन मुनिः स्वर्गं यास्यति । तस्य शिष्यो जिनसेनो भविष्यति । सोऽपि चत्वारिंशत्सहनैः कर्मप्राभूतं समाप्ति मेष्यति । अमुना प्रकारेण वष्टिसहस्रप्रमिता जयधवलानामांकिता टीका भविष्यति ।"
इसके सिवाय गुणभद्राचार्य ने उत्तरपुराण की प्रशस्ति में भी जिनसेन स्वामी को सिद्धान्तशास्त्र का टीकाकार कहा है ।
इतना ही नहीं, जिनसेन स्वामी ने पीठिकाबन्ध में अपने गुरु वीरसेनाचार्य का जो स्मरण किया है, उसमें उन्होंने उन्हें 'सिद्धान्तोपनिबन्धनां सिद्धान्त-ग्रन्थ के उपनिबन्धों-टीकाओं का कर्ता कहा है ।