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आरिपुराण
विनयसेन मुनि भी वीरसेन के शिष्य थे जिनकी प्रबल प्रेरणा पाकर जिनसेन आचार्य ने 'पार्वाभ्युदय" काव्य की रचना की थी। इन्हीं विनयसेन के शिष्य कुमारसेन ने आगे चलकर काष्ठासंघ की स्थापना की थी ऐसा देवसेनाचार्य ने अपने 'दर्शनसार में लिखा है। जयधवला टीका में श्रीपाल, पद्मसेन और देवसेन इन तीन विद्वानों का उल्लेख और भी आता है जो कि सम्भवतः जिनसेन के सधर्मा या गुरुभाई थे। श्रीपाल को तो जिनसेन ने जयधवला टीका का संपालक कहा है और आदिपुराण के पीठिकाबन्ध में उनके गुणों की काफी प्रशंसा की है।
आदिपुराण की पीठिका में श्री जिनसेन स्वामी ने श्री वीरसेन स्वामी की स्तुति के बाद ही थी वयसेन स्वामी की स्तुति की है और उनसे प्रार्थना की है कि जो तपोलक्ष्मी की जन्मभूमि है, शास्त्र और शान्ति के भण्डार हैं तथा विद्वत्समूह के अग्रणी हैं वे जयसेन गुरु हमारी रक्षा करें। इससे यह सिद्ध होता है कि जयसेन श्री वीरसेन स्वामी के गुरुभाई होंगे और इसीलिए जिनसेन ने उनका गुरु-रूप से स्मरण किया है। इस प्रकार श्री जिनसेन की गुरु-परम्परा आगे के पृष्ठ पर दिये गये चार्ट से प्रस्फुट की जा सकती है:
१. "सिरिवीरसेनसिस्सो जिनसेलो सयलसत्यविणाणी।
सिरिपउमणंदिपन्छा बाउसंघसमुधरणधीरो ॥३१॥ तस्सप सिस्तो गुन गुनमहो विम्बमाणपरिपुलो। . पक्लोरवासमंडियमहातबो भावलिंगो य॥३२॥ तेण पुणोधिय मिच्चुणामण मुणिस विषयसेणस्स । सिद्धतं घोसिता सयं गयं सग्गलोयस्स ॥३३॥ आसी कुमारसेणो मंदियो विजयसेनविलपनो। सन्नामभवन य मगहियपुगविलमो जागो ॥३॥ तो सणसंपन्नो कुमारसेनो समब मिच्छतो। पत्तोचसमो वदो कट्ठ संघ पम्नेवि ॥३॥"
-दर्शनसार २. “सर्वप्रतिपादितागणमत्सूत्रानुटीकामिमा,
पेऽम्यस्यन्ति बहुभुताः भुतगुरु संपूज्य परिप्रभुम् । ते नित्योज्ज्वलपमसेनपरमाः भीदेवसेनाचिता, भासन्ते रविचनामासिसतपः भीपालसत्कीर्तयः॥॥"
-जयधवला ३. "टीका भीजयचिह्नितोरधवला सूत्रावंसंगीतिनी स्पेयावारविचन मुज्ज्वलतपः श्रीपालसंपालिता ॥४३॥"
-जयधवला ४. "भट्टाकल कश्रीपालपात्रकेसरिणां गुणाः । विदुषो हरयारूढा हारायन्तेऽतिनिर्मला:" ॥५३॥
-आ० पु. ५. देलो, आ० पु० १॥ ५५-५६ ।