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आधिपुराण
"ना निसर्ग वक्ष्यामि हिमांकेऽस्मिन्निबोधत । नाभिस्त्वजनयत् पुवं महदेव्यां महामतिः ॥१६॥ ऋषभं पार्थिवश्रेष्ठं सर्वक्षत्रस्य पूजितम् । ऋषभाद् भरतो जज्ञे वीरः पुत्रशताग्रजः ॥२०॥ सोऽभिषिच्याथ ऋषभो भरतं पुत्रवत्सलः । ज्ञानं वैराग्यमाश्रित्य जित्वेनियमहोरगान् ॥२१॥ सर्वात्मनात्मन्यास्थाप्य परमात्मानमीश्वरम् । नग्नो जटो निराहारोऽचोरी ध्वान्तगतो हि सः ॥२२॥ निराशस्त्यक्तसंदेहः शवमाप परं पदम् । हिमाद्रदक्षिणं वर्ष भरताय न्यवेदयत् ॥२शा तस्मात्तु भारतं वर्ष तस्य नाम्ना विदुर्बुधाः।"
_. _-लिङ्गपुराण, अध्याय ४७ . "न ते स्वस्ति युगावस्था क्षेत्रष्वष्टस सर्वदा । हिमाह्वयं तु बै वर्ष नाभेरासोन्महात्मनः ॥२७॥ तस्यर्षभोऽभवत्पुत्रो मरुदेव्यां महाच तिः । ऋषभाभरतो जज्ञे ज्येष्ठः पुत्रशतस्य सः ॥२८॥"
-विष्णुपुराण, द्वितीयांश, अध्याय १ "नाभः पुत्रश्च ऋषभः ऋषभाद् भरतोऽभवत् । तस्य नाम्मा त्विदं वर्ष भारतं चेति कोयते ॥५७॥"
-स्कन्धपुराण, माहेश्वरखण्ड, कौमारखण्ड, अध्याय ३७ भगवान् वृषभदेव और ब्रह्मा
लोक में ब्रह्मा नाम से प्रसिद्ध जो देव है वह जैन-परम्परानुसार, भगवान् वृषभदेव को छोड़कर दूसरा नहीं है । ब्रह्मा के अन्य अनेक नामों में निम्नलिखित नाम अत्यन्त प्रसिद्ध हैं:
हिरण्यगर्भ, प्रजापति, लोकेश, नाभिज, चतुरामन, स्रष्टा, स्वयम्भू । ... इनकी यथार्थ संगति भगवान् वृषभदेव के साथ ही बैठती है । जैसे: । हिरण्यगर्भ-जब भगवान् माता मरुदेवी के गर्भ में आये थे, उसके छह माह पहले से अयोध्या नगर
में हिरण्य-सुवर्ण तथा रत्नों की वर्षा होने लगी थी, इसलिए आपका हिरण्यगर्भ नाम
सार्थक है। प्रजापति-कल्पवृक्षों के नष्ट हो जाने के बाद असि, मसि, कृषि आदि छह कर्मों का उपदेश देकर
आपने ही प्रजा की रक्षा की थी, इसलिए आप प्रजापति कहलाते थे। लोकेश-समस्त लोक के स्वामी थे, इसलिए लोकेश कहलाते थे। नाभिज-नाभिराज नामक चौदहवें मनु से उत्पन्न हुए थे, इसलिए नाभिज कहलाते थे। चतुरानन-समवसरण में चारों ओर से आपका दर्शन होता था, इसलिए आप चतुरानन कहे
जाते थे। स्रष्टा-भोगभूमि नष्ट होने के बाद देश, नगर आदि का विभाग, राजा, प्रजा, गुरु, शिष्य आदि
का व्यवहार, विवाह-प्रथा आदि के आप आद्य प्रवर्तक थे, इसलिए स्रष्टा कहे जाते थे। स्वयंभ-दर्शन-विशुद्धि आदि भावनाओं से अपने आत्मा के गुणों का विकास कर स्वयं ही आद्य
तीर्थकर हुए थे, इसलिए स्वयंभु कहलाते थे। आचार्य जिनसेन और गुणभद्र'
ये दोनों ही आचार्य मूलसंघ के उस 'पंचस्तूप' नामक अन्वय में हुए हैं जो कि आगे चलकर सेनान्वय
१. यह प्रकरण श्रद्धेय नाथरामजी प्रेमी के 'जैन साहित्य और इतिहास' तथा 'विद्वद्रत्नमाला' से
लिया गया है।