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मारिपुराण
बाणिक्य (व्यापार)-इन छह कार्यों का उपदेश दिया तथा इन्द्र के सहयोग से देश, नगर, ग्राम बादिकी रचना करवायी । भगवान् के द्वारा प्रदर्शित छह कार्यों से लोगों की बाजीविका चलने लगी। कर्मभूमि प्रारम्भ हो गयी। उस समय की सारी व्यवस्था भगवान् वृषभदेव ने अपने बुडिबल मे की थी, इसलिए वही बादिपुरुष, ब्रह्मा, विधाता आदि संज्ञाओं से व्यवहृत हुए।
नाभिराज की प्रेरणा से उन्होंने कच्छ, महाकच्छ राजाओं की बहनों यशस्वती और सुनबा के साथ विवाह किया। नाभिराज के महान् आग्रह से राज्य का भार स्वीकृत किया । आपके राज्य से प्रजा अत्यन्त सन्तुष्ट हुई। कालक्रम से यशस्वती की कूख से भरत बादि. १०० पुत्र तथा ब्राह्मी नामक पुत्री हुई बोर सुनन्दा की कूख से बाहुबली पुत्र तथा सुन्दरी नामक पुत्री उत्पन्न हुई। भगवान् वृषभदेव ने अपने पुत्र-पुत्रियों को अनेक जनकल्याणकारी विद्याएँ पढ़ायी थीं जिनके द्वारा समस्त प्रजा में पठन-पाठन की व्यवस्था का प्रारम्भ हुवा था।
नीलांजना का नृत्य-काल में अचानक विलीन हो जाना भगवान् के वैराग्य का कारण बन गया। उन्होंने बड़े पुत्र भरत को राज्य तथा अन्य पुत्रों को यथायोग्य स्वामित्व देकर प्रव्रज्या धारण कर ली। पार हजार अन्य राजा भी उनके साथ प्रवजित हुए थे परन्तु वे क्षुधा, तृषा आदि की बाधा न सह सकने के कारण कुछ ही दिनों में भ्रष्ट हो गये। भगवान् ने प्रथमयोग छह माह का लिया था। छह माह समाप्त होने के बाद वे आहार के लिए निकले, परन्तु उस समय लोग, मुनियों को आहार किस प्रकार दिया जाता है, यह नहीं जानते थे। अत: विधि न मिलने के कारण आपको छह माह तक भ्रमण करना पड़ा। आपका यह विहार अयोध्या से उत्तर की ओर हुआ और आप चलते-चलते हस्तिनागपुर जा पहुंचे। वहाँ के तत्कालीन राजा सोमप्रभ थे। उनके छोटे भाई का नाम श्रेयांस था। इस श्रेयांस का भगवान् वृषभदेव के साथ पूर्वभव का सम्बन्ध था। वज्रजंघ की पर्याय में यह उनकी श्रीमती नाम की स्त्री था। उस समय इन दोनों ने एक मुनिराज के लिए आहार दिया था। श्रेयांस को जाति-स्मरण होने से वह सब घटना स्मृत हो गयी । इसलिए उसने भगवान् को देखते ही पडगाह लिया और इक्षुरस का आहार दिया। वह आहार वैशाख सुदी तृतीया को दिया गया था तभी से इसका नाम 'अक्षयतृतीया' प्रसिद्ध हुना। राजा सोमप्रभ, श्रेयांस तथा उनकी रानियों का लोगों ने बड़ा सम्मान किया । आहार लेने के बाद भगवान् वन में चले जाते थे और वहां के स्वच्छ वायुमण्डल में आत्मसाधना करते थे। एक हजार वर्ष के तपश्चरण के बाद उन्हें दिव्यज्ञान-केवलज्ञान--प्राप्त हा। अब वह सर्वज्ञ हो गये, संसार के प्रत्येक पदार्थ को स्पष्ट जानने लगे।
उनके पुत्र भरत प्रथम चक्रवर्ती हुए। उन्होंने चक्ररत्न के द्वारा षट्खण्ड भरतक्षेत्र को अपने अधीन किया और राजनीति का विस्तार करके आश्रित राजाओं को राज्य-शासन की पद्धति सिखलायी। उन्होंने ही ब्राह्मण वर्ण की स्थापना की। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार वर्ण इस भारत में प्रचलित हुए। इनमें क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये तीन वर्ण आजीविका के भेद से निर्धारित किये गये थे और ब्राह्मण व्रती के रूप में स्थापित हुए थे । सब अपनी-अपनी वृत्ति का निर्वाह करते थे, इसलिए कोई दुःखी नहीं था।
भगवान वषभदेव ने सर्वज्ञ दशा में दिव्य ध्वनि के द्वारा संसार के भले-भटके प्राणियों को हित का उपदेश दिया। उनका समस्त आर्यखण्ड में विहार हुबा था। आयु के अन्तिम समय वे कैलास पर्वत पर पहुंचे और वहीं से उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया। भरत चक्रवर्ती यद्यपि षट्खण्ड पृथिवी के अधिपति थे, फिर भी उसमें बासक्त नहीं रहते थे। यही कारण था कि जब उन्होंने गृहवास से विरक्त होकर प्रव्रज्या-दीक्षा धारण की तब अन्तर्मुहूर्त में ही उन्हें केवलज्ञान हो गया था। केवलज्ञानी भरत ने भी आर्य देशों में विहार कर समस्त जीवों को हित का उपदेश दिया और आयु के अन्त में निर्वाण प्राप्त किया।