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मादिपुराण युग के आदिपुरुष श्री भगवान् ऋषभदेव और उनके प्रथम पुत्र सम्राट भरत चक्रवर्ती आदिपुराण के प्रधान नायक हैं । इन्हीं से सम्पर्क रखने वाले अन्य कितने ही महापुरुषों को कथाओं की भी इसमें समावेश हुमा है। प्रत्येक कथानायक का चरित्र-चित्रण इतना सुन्दर हुआ है कि वह यथार्थता की परिधि को न लांघता हा भी हृदयग्राही मालूम होता है । हरे-भरे वन, वायु के मन्द-मन्द झकोरे से थिरकती हुई पुगित-पल्लवित लताएँ, कलकल करती हुई सरिताएँ, प्रफुल्ल कमलोद्भासित सरोवर, उत्तुंग गिरिमालाएँ, पहाड़ी निर्झर, बिजली से शोभित श्यामल धनघटाएँ, चहकते हुए पक्षी, प्राची में सिन्दूररस की अरुणिमा को बिखेरने वाला सूर्योदय
और लोक-लोचनालादकारी र न्द्रोदय आदि प्राकृतिक पथार्थों का चित्रण कवि ने जिस चातुर्य से किया है वह हृदय में भारी आह्लाद की उद्भूति कराता है। .
तृतीय पर्व में चौदहवें कुलकर श्री नाभिराज के समय गगनांगण में सर्वप्रथम घनघटा छायी हई दिखाता है. उसमें बिजली चमकती है. मन्द-मन्द गर्जना होती है, सर्य की सनहली रश्मियों के सम्पर्क से उसमें रंग-बिरंगे इन्द्रधनुष दिखायी देते हैं, कभी मध्मम और कभी तीव्र वर्षा होती है, पृथ्विी जलमय हो जाती है, मयूर नृत्य करने लगते हैं, चिरसन्तप्त चातक सन्तोष की सांस लेते हैं, और प्रकृष्ट वारिधारा वसुधातल में व्याकीर्ण हो जाती है।"इस प्राकृतिक सौन्दर्य का वर्णन कवि ने जिस सरसता और सरलता के साथ किया है कि एक अध्ययन की वस्तु है । अन्य कवियों के काव्य में आप यही बात क्लिष्ट-बुद्धिगम्य शब्दों से परिवेष्टित पाते हैं और इसी कारण स्थूलपरिधान से आवृत कामिनी के सौन्दर्य की भांति वहाँ प्रकृति का सौन्दर्य अपने रूप में प्रस्फुटित नहीं हो पाता है परन्तु यहाँ कवि के सरल शब्द-विन्यास से प्रकृति की प्राकृतिक सुषमा परिधानावत नहीं हो सकी है बल्कि सूक्ष्म-महीन वस्त्रावलि से सुशोभित किसी सुन्दरी के गात्र की अवदात आभा की भांति अत्यन्त प्रस्फुटित हुई है।
श्रीमती और वज्रजंघ के भोगोपभोगों का वर्णन, भोगभूमि की भव्यता का व्याख्यान, मरुदेवी के गात्र की गरिमा, श्रीभगवान् वृषभदेव का जन्मकल्याणक का दृश्य, अभिषेककालीन जल का विस्तार, क्षीरसमुद्र का सौन्दर्य, भगवान् की बाल्य-क्रीडा, पिता नाभिराज की प्रेरणा से यशोदा और सुनन्दा के साथ विवाह करना, राज्यपालन, नीलांजना के विलय का निमित्त पाकर चार हजार राजाओं के साथ दीक्षा धारण करना, छह माह का योग समाप्त होने पर बाहार के लिए लगातार छह माह तक भ्रमण करना, हस्तिनापुर में राजा सोमप्रभ
और श्रेयांस के द्वारा इक्षरस का आहार दिया जाना, तपोलीनता, नमि-विनमि की राज्य-प्रार्थना, समूचे सर्ग में व्याप्त नानावृत्तमय विजयागिरि की सुन्दरता, भरत और बाहुलली का महायुद्ध, सुलोचना का स्वयंवर, जयकुमार और अर्ककीति का अद्भुत युद्ध, आदि-आदि विषयों के सरस सालंकार-प्रवाहान्वित वर्णन में कवि ने जो कमाल किया है उससे पाठक का हृदय-मयूर सहसा नाच उठता है । बरबस मुख से निकलने लगता है-धन्य महाकवि धन्य ! गर्भकालिक वर्णन के समय षट् कुमारिकाओं और मरुदेवी के बीच प्रश्नोत्तर रूप में कवि ने जो प्रहेलिका तथा चित्रालंकार की छटा दिखलायी है वह आश्चयं में डालने वाली वस्तु है।
यदि अचार्य जिनसेन स्वामी भगवान् का स्तवन करने बैठते हैं तो इतने तन्मय हुए दिखते हैं कि उन्हें समय की अवधि का भी भान नहीं रहता और एक-दो नहीं अष्टोत्तर हजार नामों से भगवान् का विशद सुयश गाते हैं। उनके ऐसे स्तोत्र आज सहस्रनाम स्तोत्र के नाम से प्रसिद्ध हैं । वे समवसरण का वर्णन करते हैं तो पाठक और श्रोता दोनों को ऐसा विदित होने लगता है मानो हम साक्षात् समवसरण का ही दर्शन कर रहे हैं। चतुर्भेदात्मक ध्यान के वर्णन से पूरा सर्ग भरा हुआ है। उसके अध्ययन से ऐसा लगने लगता है कि मानो अब मुझे शुक्लध्यान होने वाला ही है और मेरे समस्त कमों की निर्जरा होकर मोक्ष प्राप्त हुआ ही चाहता है। भरत चक्रवर्ती की दिग्विजय का वर्णन पढ़ते समय ऐसा लगने लगता है कि जैसे मैं गंगा, सिन्धू, विजयाई, वृषभाचल हिमाचल आदि का प्रत्यक्ष अवलोकन कर रहा हूँ।
भगवान् आदिनाथ जब ब्राह्मी सुन्दरी-पुत्रियों और भरत बाहुबली आदि को लोककल्याणकारी विविध विद्याओं की शिक्षा देते हैं तब ऐसा प्रतीत होता है मानो एक सुन्दर विद्यामन्दिर है और उसमें शिक्षक के स्थान