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प्रस्तावना
आदिपुराण पुराणकाल के सन्धिकाल की रचना है अत: यह न केवल पुराणग्रन्थ है अपितु काव्यग्रन्थ भी है, काव्य ही नहीं महाकाव्य है । महाकाव्य के जो लक्षण हैं वह सब इसमें प्रस्फुटित हैं । श्री जिनसेनाचार्य ने प्रथम पर्व में काव्य और महाकाव्य की चर्चा करते हुए निम्नांकित भाव प्रकट किया है :
"काव्यस्वरूप के जानने वाले विद्वान् कवि के भाव अथवा कार्य को काव्य कहते हैं । कवि का वह काव्य सर्वसम्मत अर्थ से सहित, ग्राम्यदोष से रहित, अलंकार से युक्त और प्रसाद आदि गुणों से सुशोभित होता है।"
"कितने ही विद्वान् अर्थ की सुन्दरता को वाणी का अलंकार कहते हैं और कितने ही पदों की सुन्दरता को, किन्तु हमारा मत है कि अर्थ और पद दोनों की सुन्दरता ही वाणी का अलंकार है।"
___ "सज्जन पुरुषों का जो काव्य अलंकार सहित, शृंगारादि रसों से युक्त, सौन्दर्य से ओत-प्रोत और उच्छिष्टतारहित अर्थात् मौलिक होता है वह सरस्वती देवी के मुख के समान आचरण करता है।"
"जिस काव्य में न तो रीति की रमणीयता है, न पदों का लालित्य है और न रस का ही प्रवाह है उसे काव्य नहीं कहना चाहिए वह तो केवल कानों को दुःख देने वाली ग्रामीण भाषा ही है।"
"जो अनेक अर्थों को सूचित करने वाले पदविन्यास से सहित, मनोहर रीतियों से युक्त एवं स्पष्ट अर्थ से उद्भासित प्रबन्धों-महाकाव्यों की रचना करते हैं वे महाकवि कहलाते हैं।"
"जो प्राचीन काल से सम्बन्ध रखने वाला हो, जिसमें तीर्थकर चक्रवर्ती आदि महापुरुषों के चरित्र का चित्रण किया गया हो तथा जो धर्म, अर्थ और काम के फल को दिखाने वाला हो उसे महाकाव्य कहते हैं।"
"किसी एक प्रकारण को लेकर कुछ श्लोकों की रचना तो सभी कर सकते हैं परन्तु पूर्वापर का सम्बन्ध मिलाते हुए किसी प्रबन्ध की रचना कठिन कार्य है।"
"जब कि इस संसार में शब्दों का समूह अनन्त है, वर्णनीय विषय अपनी इच्छा के अधीन है, रस स्पष्ट है और उत्तमोत्तम छन्द सुलभ हैं तब कविता करने में दरिद्रता क्या है ?"
"विशाल शब्द-मार्ग में भ्रमण करता हुआ जो कवि अर्थरूपी सघन वनों में घूमने से खेदखिन्नता को प्राप्त हुआ है उसे विश्राम के लिए महाकाव्यरूप वृक्षों की छाया का आश्रय लेना चाहिए।"
___ "प्रतिभा जिसकी जड़ है, माधुर्य, ओज, प्रसाद आदि गुण जिसकी उन्नत शाखाएँ हैं और उत्तम शब्द ही जिसके उज्ज्वल पत्ते हैं ऐसा यह महाकाव्यरूपी वृक्ष यशरूपी पुष्पमंजरी को धारण करता है।"
"अथवा बुद्धि ही जिसके किनारे हैं, प्रसाद आदि गुण ही जिसकी लहरें हैं, जो गुणरूपी रत्नों से भरा हुआ है, उच्च और मनोहर शब्दों से युक्त है तथा जिसमें गुरु-शिष्यपरम्परारूप विशाल प्रवाह चला आ रहा है ऐसा यह महाकवि समुद्र के समान आचरण करता है ।"
"हे विद्वान् पुरुषो, तुम लोग ऊपर कहे हुए काव्यरूपी रसायन का भरपूर उपयोग करो जिससे कि तुम्हारा यशरूपी शरीर कल्पान्तकाल तक स्थिर रह सके।"
उक्त उद्धरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि ग्रन्थकर्ता की केवल पुराणरचना में उतनी आस्था नहीं है जितनी कि काव्य की रीति से लिखे हुए पुराण में-धर्मकथा में । केवल काव्य में भी ग्रन्थकर्ता की आस्था नहीं मालूम होती उसे वे सिर्फ कौतुकावह रचना मानते हैं । उस रचना से लाभ ही क्या जिससे प्राणी का अन्तस्तल विशुद्ध न हो सके । उन्होंने पीठिका में आदिपुराण को 'धर्मानुबन्धिनी कथा' कहा है और बड़ी दृढ़ता के साथ प्रकट किया है कि 'जो पुरुष यशरूपी धन का संचय और पुण्यरूपी पण्य का व्यवहार-लेन-देन करना चाहते हैं उनके लिए धर्मकथा का निरूपण करने वाला यह काव्य मूलधन के समान माना गया
वास्तव में आदिपुराण संस्कृत-साहित्य का एक अनुपम रत्न है । ऐसा कोई विषय नहीं है जिसका इसमें प्रतिपादन न हो । यह पुराण है, महाकाव्य है, धर्मकथा है, धर्मशास्त्र है, राजनीतिशास्त्र है, आचारशास्त्र है, और युग की आद्यव्यवस्था को बतलाने वाला महान् इतिहास है।
१. पर्व १ श्लोक ९४-१०५ ।