Book Title: Vardhaman Jivan kosha Part 2
Author(s): Mohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
Publisher: Jain Darshan Prakashan
Catalog link: https://jainqq.org/explore/016033/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.2070 A 14/10/2000 वर्धमान -38-8 जीवन-कोश 1 [द्वितीय खण्ड] 0. ...AD श्रीकैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर श्रीमहावीर जैन आराधना केन्द्र कोवा (गांधीनगर) पि. 300008 -88-m Jain all intem Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश [द्वितीय खण्ड ] CYCLOPAEDIA OF VARDHAMANA जैन दशमलव वर्गीकरण संख्या ०३५४ तथा ६२२४ सम्पादक : मोहनलाल बांठिया, बी. कॉम श्रीचन्द चोरडिया, न्यायतीर्थ ( द्वय ) प्रकाशक: जैन दर्शन समिति १६-सी, डोवर लेन, कलकत्ता-७०००२६ सन् १९८४ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम विषय कोश ग्रन्थमाला चतुर्थ पुष्प-- वर्धमान जीवन-कोश, द्वितीय खण्ड : जैन दशमलव वर्गीकरण संख्या ०३५४ तथा ६२२४ अर्थ सहायक-श्री भगवतीलाल सिसोदिया ट्रष्ट, जोधपुर मारफत-श्री जबरमल भंडारी, तथा अन्यगण प्रथम आवृति ५०० मूल्य भारत में रु० ६५.०० विदेश में Sh 85/ मुद्रक : मिश्रा आर्ट प्रेस २४ सी, रवीन्द्र सरणी, कलकत्ता-७०००७३ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण महामहिम युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी हमारे निर्णायक रहे हैं। जीवन की नाव आवों से बचकर, ज्वारों को लांघकर जो मंजिलें पार कर रही है, उसमें निर्यायक का कौशल एक अप्रतिम हेतु भी है। युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी ने तेरापंथ धर्म संघ में साहित्य की अनेक धाराभों का सूत्रपात किया, जिसमें एक धारा आगम कोश की है। जिन्होंने मेरे मन में श्रत की धार प्रवाहित की, उन आगमों के वाचना प्रमुख युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी को मैं वर्धमान जीवन कोश द्वितीय खंड सभक्ति, सविनय समर्पित करता हुआ अपूर्व आनन्द का अनुभव कर रहा हूं। -श्रीचन्द चोरड़िया Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकलन-संपादन में प्रयुक्त ग्रन्थों की संकेत-सूची अणुत्त० अन्ययो० अंत० अष्ट० अभिधा० अष्टपा० अणुओ. अणुओ० हारि० आया. आया० चू० आव०नि० अंगुत्तरनिकाय अणुत्तरोववाइयदसाओ अयोनव्यवच्छेदिका अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका अंतगडदसाओ अष्टसहस्त्री अभिधान चितामणि संस्कृत कोष अष्टप्राभृत अणुओगद्दाराई अणुओगद्दाराइं हारिभद्रीयटीका अर्धमागधी कोष आगम और त्रिपिटक आयरो-टीका-चूर्णी आप्ते संस्कृत अंग्रेजी छात्र कोष आवश्यक चूणि आवश्यक निर्यक्ति आवश्यक भाष्य आवस्सयं सुत्तं उत्तरज्झयणाई-टीका उत्तमपुरुषचरित्रम् उतरपुराण उपदेशमाला सटीक उवासगदसाओ-टीका ओववाइयं कप्पसुत्तं कल्पसूत्र कल्पलता ब्याख्या कल्पसूत्रचूणि कसायपाहुडं क्रियाकोश जंबुद्दीवपण्णत्ती आव० भाष्य आव० उत्त० उत्तपु० उत्तरपु० उवा० ओव० कप्प० कल्पसू० चू. कसापा० क्रियाको जंबू० Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवा० ठाणं० चउप्प० चतुः चंद० तिलोप० दसवे० त्रिशलाका० दसासु धर्मों ध्याको नंदी० जीवाजीवाभिगमो ठाणं ठाणं टीका चउप्पनपुरिसचरिउ चतुर्विशतिस्तवन चंदपण्णत्ती तित्थोगालीपइन्नयविविधतीर्थकल्प तिलोयपण्णत्तो तुलसी प्रज्ञा दसवेआलियं त्रिषष्टिश्लाकापुरुषचरित्र दीर्घनिकाय दर्शनसार दसासुयखंधो-टीका धर्म संग्रह सटीक धमोपदेशमाला न्यायबिन्दु ध्यान कोश ( अप्रकाशित) नंदीसुत्तं न्यायावतार णायाधम्मकहाओ निरयावलियाओ णिसीहं पुद्गल कोश ( अप्रकाशित ) खण्ड १ पुद्गल कोश ( अप्रकाशित ) खण्ड २ परिभाषा कोश (अप्रकाशित) पउमचरियं पण्हावागरणाइ परिशिष्टपर्व पंचाशकटीका पाइअसद्दमहाण्णवो प्रवचनसारोद्धार पंचवस्तुकग्रन्थ पण्णवणासुत्तं भगवई-टीका भरतेश्वरबाहुबलिवृत्ति नाया० निरया० णिसी० पुद्को०१ पुद्को०२ परिको. पउम० पण्हा० पाद प्रवसा. पंचवस्तुक. पण्ण. भग. ( 5 ) Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मिआवि० महापु० योगको बिह० रत्नश्रा० राय० वर० लेको लेश्याको वडढच. विवा० वोरजि० मज्झिमनिकाय मज्झिमपणामक मिथ्यात्वीका आध्यात्मिक विकास महावीरचरियं मत्स्यपुराण महापुराण योग कोश अप्रकाशित यजुर्वेद अजुर्वेद) बिहकप्पो रत्नकरण्डश्रावकाचार रायपसेणइयं-टीका वररूचिव्याकरण लेश्याकोश युक्त्यनुशासनम् संयुक्त लेश्या कोश ( दिगम्बरसोर्स ) वडढमाणचरिउ वायुपुराण विवाग वीरर्जािणदचरिउ विनयपिटक वीरवर्धमानचरितम् विचारश्रेणि ववहारो विशेषावश्यक भाष्य सप्ततिशत स्थान प्रकरण स्वयंभू स्तोत्र सिरिदुसमाकाल समण संघथयं-अवचूरि सूरपण्णत्ती संयुक्तनिकाय समवाओ टीका सूयगडो टीका सुत्तनिपात्तपालि स्कंधमहापुराण हरिवंशपुराण सिद्धहेमशब्दानुशासनम् ऋग्वेदमंडल वोरवर्धमान वव. विशेभा० सप्ततिशत० स्वभू० सूर० सम. सय हरिपु० हेम. ( 6 ) Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशीर्वचन भगवान महावीर का जीवन अनेक दृष्टियों से अनेक लेखकों ने लिखा है । कुछ लेखकों ने स्वतन्त्र रूप से लिखा हैं और कुछ लेखकों ने साधार । स्वर्गीय श्री मोहनलालजी बांठिया और श्रीचन्द चोरड़िया के संयुक्त प्रयास से कुछ वर्गीकृत कोशों का संकलन किया गया है। उनमें से लेश्या कोश, क्रियाकोश और वर्धमान जीवन कोश ( प्रथम खण्ड ) प्रकाशित हो चुके हैं। प्रस्तुत प्रन्थ वर्धमान जीवन-कोश (द्वितीय खण्ड) प्रकाशनाधीन है । यह कोई स्वतन्त्र या मौलिक चिन्तन से प्रसूत जीवन जीवनवृत्त नहीं है। जैन आगमों और प्राचीन ग्रन्थों के आधार पर इसका संकलन किया गया है। इसमें संकलनकर्त्ता को अध्ययन, रूचि, धृति और परिश्रम को एक साथ उजागर होने का अवसर मिला है । साधारण पाठकों के लिए इस ग्रन्थ का बहुत बड़ा उपयोग नहीं हो सकता । किन्तु जो विद्वान् भगवान महावीर के जीवन सन्दर्भ में विशेष रूप से जिज्ञासु और संधि हैं. उनके लिए प्रन्थमाला प्रकाशस्तम्भ का काम करनेवाली है । विद्वान लोग इस प्रन्थमाला का सलक्ष्य उपयोग कर श्री बांठिया और श्री चोरड़िया श्रम को सार्थक ही नहीं करेंगे, अपने शोधकार्य में उपस्थित अनेक समस्याओं का समाधान भी पा सकेंगे, ऐसा विश्वास है । २६ मार्च १६८४ चुरू (राजस्थान ) ( 7 ) - आचार्य तुलसी Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जे० द० ब० स० (हमारे अंकन ) -जैन दार्शनिक पृष्ठभूमि 11 • १ लोकालोक - ०२ - द्रव्य उत्पाद व्यय- प्रीव्य ०३ - जीव ०४ - जीव परिणाम ०५ - अजीव अरूपी जैन वाङमय का दशमलव वर्गीकरण मूल विभागों की रूपरेखा ०६ - अजीव रूपी - पुद्गल ०७ - पुद्गल परिणाम ०८ - समय व्यवहार समय ०१ - विशिष्ठ सिद्धान्त १ - जैन दर्शन ११- आत्मवाद १२ - कर्मवाद आसव-बंध १३- क्रियावाद संवर- निर्जरा मोक्ष १४ - जैनेवरवाद १५- मनोविज्ञान १६- न्याय प्रमाण १७- आचार संहिता १८ स्यादवाद नयवाद अनेकान्त १९- विविध दार्शनिक सिद्धान्त - धर्म -1 २१- जैन धर्म की प्रकृति २२ - जैन के धर्मग्रन्थ २३- आध्यात्मिक मतवाद २४ - धार्मिक जीवन २५- साधु-साध्वी- यति भट्टारक क्षुल्लकादि २६ - चतुविध संघ २७ - जैन धर्म का साम्प्रदायिक इतिहास २८ - सम्प्रदाय २६ - जैनेतर धर्म तुलनात्मक धर्म (8) यू० डी० सी० के अंकन + ५२३.१ + १२० सी० एफ० ५७७ + ११४ ११७ सी० एफ• ५३८ + ११५ सी० एफ० ५२६ + १ १२ + + १४ १५ १६ १७ + २ २१ २२ २३ २४ २५ २६ २७ २८ २६ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३-समाज विज्ञान ३१-सामाजिक संस्थान ३२-राजनीति ३३-अर्थशास्त्र ३४-नियम-विधि-कानून-न्याय ३५-शासन ३६-सामाजिक उन्नयन ३७-शिक्षा३८-व्यापार-व्यवसाय-यातायात ३६-रीति-रिवाज-लोक कथा m + m mmm0 SKWW T ४-भाषाविज्ञान-भाषा ४१-साधारण तथ्य ४२-प्राकृत भाषा ४३-संस्कृत भाषा ४४-अपभ्रंश भाषा ४५-दक्षिणी भाषाएं ४६-हिन्दी ४७-गुजराती-महाराष्ट्री ४८-राजस्थानो १४-अन्य देशी-विदेशी भाषार ४६१.३ ४६१.२ ४६१.३ ४६१.८ ४६१.४३ ४६१.४ ४६१.४६ ४६१ ५-विज्ञान ५१-गणित ५२-खगोल ५३-भौतिकी-यांत्रिकी ५४-रसायन ५५-भूगर्भ विज्ञान ५६-पूराजीव विज्ञान ५७-जीव विज्ञान ५८-वनस्पति विज्ञान ५६-पशु विज्ञान ६-प्रयुक्त विज्ञान ६१-चिकित्सा ६२-यांत्रिक शिल्प ६३- कृषि विज्ञान ( १ ) Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ - गृह विज्ञान ६५+ ६६ - रसायन शिल्प ६७ - हस्त शिल्प वा अन्यथा ६८ - विशिष्ट शिल्प ६६ - वास्तु शिल्प ७- कला - मनोरंजन-कीड़ा ७१ - नगरादि निर्माण कला ७२ - स्थापत्य कला ७३ - मूर्ति कला ७४- रेखांकन ७५ - चित्रकारी ७६ उत्कीर्णन ७७ – प्रतिलिपि - लेखन कला - ७८ - संगीत ७६- मनोरंजन के साधन ८- साहित्य ८१ - छंद - अलंकार - रस. ८२- प्राकृत साहित्य ८३ - संस्कृत जैन साहित्य ६२ - जीवनी ६३ - इतिहास ६४ – मध्य भारत का जैन इतिहास ६४ + ६५ - दक्षिण भारत का जैन इतिहास १६ - उत्तरी भारत का जैन इतिहास ६७ गुजरात महाराष्ट्र का जैन इतिहास १६- राजस्थान का जैन इतिहास ६६ - अन्य क्षेत्र व वैदेशिक जैन इतिहास ६६ ६७ ६८ ६६ ७ ७१ ७२ ७३ ७४ ७५ ७६ ७७ ७८ ७६ ८ ८१ + ८४- अपभ्रंश ५- दक्षिणी भाषा में जैन साहित्य ८६- हिन्दी भाषा में जैन साहित्य ८७ गुजराती महाराष्ट्री भाषा में जैन साहित्य + ८८ - राजस्थानी भाषा में जैन साहित्य - अन्य भाषाओं में जैन साहित्य ६- भुगोल जीवनी - इतिहास ११ - भूगोल + + + + + + + & ६१ ६ २ ६३ + + +++ · + ( 10 ) Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .०३ जीव द्वार का वर्गीकरण ०३३१ पर्याप्त-आर्याप्त ०३३२ सूक्ष्म-बादर ०३३३ स-स्थावर ०३३४ संज्ञी-असंज्ञो ०३३५ गर्मज-संमुच्छिम ०३३६ सइन्द्रिय-अनेन्द्रिय ०३३७ आहारक अनाहारक ०३०. सामान्य विवेचन ०३०१ जीव औधिक ०३०२ सिद्ध अरूपी ०३०३ संसारी रूपी ०३०४ नारकी ०३०५ तियंच ०३.६ एकेन्द्रिय तियंच ०३०७ पृथ्वीकाय ०३०८ अप्पकाय ०३०६ अग्निकाय ०३१० वायुकाय ०३११ वनस्पतिकाय ०३१२ प्रत्येक वनस्पतिकाय ०३१३ साधारण वनस्पतिकाय ०३१४ निगोद ०३१५ विकलेन्द्रिय तियंच ०३१६ बेइन्द्रिय तियंच ०३१७ तेइन्द्रिय तिर्यच ०३१८ चतुरिन्द्रिय तिर्यंच ०३१६ पंचेन्द्रिय जीव ०३२० तिथंच पंचेन्द्रिय ०३२१ मनुष्य ०३२२ कर्मभूमिज मनुष्य ०३२३ अकर्मभूमिज मनुष्य ०३२४ अंतर्तीपज मनुष्य ०३२५ युगलिया ०३२६ दव ०३२७ भवनपति ३२८ व्यंतर ०३२६ ज्योतिषी देव ०३३० वैमानिक देव ०३४० ०३४१ मिथ्या दृष्टि ०३४२ सममिथ्या दृष्टि ०३४३ सम्यक्त्वी ०३४४ असंयती ०३४५ संयतासंयती ०३४६ संयती ०३४७ प्रमत्त ०३४८ अप्रमत्त ०३४६ सवेदी ०३५० अवेदी ०३५१ सकषायी ०३५२ अकषायी ०३५३ छद्मस्थ ०३५४ सर्वज्ञ - सर्वदर्शी (सामान्य केवली, तीर्थङ्कर ) ०३५५ सलेशी ०३५६ अलेशी ०३५७ सयोगी • ३५८ अयोगी ०३५९ सक्रिय ०३६. अक्रिय ० mr ० m ० m ० mr ( 11 ) Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२०० सामान्य विवेचन २०१ ऋषभनाथ तीर्थकुर १२०२ अजितनाथ १२०३ संभवनाथ २०४ अभिनंदन ६२०५ सुमतिनाथ २०६ पद्मप्रभु २०७ सुपार्श्वनाथ,, १२०८ चंद्रप्रभु २०६ सुविधिनाथ, १२१० शीतलनाथ ९२११ श्रेयांसनाथ २१२ वासुपूज्य ९२१३ विमलनाथ २१४ अनंतनाथ ९२१५ धर्मनाथ २२१६ शांतिनाथ ε२१७ कुंथुनाथ १२१६ अरनाथ १२१९ मल्लीनाथ १२२० मुनिसुव्रत २२१ नमिनाथ २२२ नेमीनाथ ६२२३ पार्श्वनाथ ९२२४ वर्धमान 33 37 21 27 17 " 33 77 21 37 17 " " " 21 · ६२ जीवनी का वर्गीकरण 17 २२५ इन्द्रभूति गणधर १२२६ अग्निभूति, १२२७ वायुभूति, ६२२८ व्यक्त ६२२६ सुघमं ९२३ मंडित २३१ मौर्यपुत्र १२३२ अकम्पित ६२३३ अचलभ्राता १२३४ मेतार्थ ६२३५ प्रभास ६२३६ धन्य अनगार ६२३७ नमि राजर्षि २३८ करकं ६२४७ ६२४८ ( 12 ) 27 21 33 "1 33 " २३६ दुर्मुख ९२४० नगई ६२४१ ६२४२ १२४३ आर्य चंदना २४४ मृगावती २४५ प्रभावती २४६ पद्मावती 31 37 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व० श्री मोहनलालजी परिकल्पना प्रस्तुत की थी तथा एक विषय सूची प्रणीत की थी। प्रारम्भ किये थे। प्रायः १००० सुरक्षित हैं। प्रकाशकीय . बांठिया ने अपने अनेक अनुभवों से प्रेरित होकर, एक जैन विषय कोश की श्रीचंदजी चोरड़िया के सहयोग से प्रमुख आगम ग्रन्थोंका मन्थन और चिन्तन करके, फिर उस विषय सूची के आधार पर जैन आगमों के विषयानुसार पाठ संकलन करने विषयों पर पाठ संकलित हो चुके थे। वे जैन दर्शन समिति के पास अभी भी अस्तु लेश्या कोश, क्रिया कोश उन्होंने श्रीचंदजी चोरड़िया के सहयोग से क्रमशः सन् १९६६ व १९६६ प्रकाशित किये थे । में इसके बाद पुद्गल कोश, ध्यान कोश, संयुक्त लेश्या कोश आदि का कार्य स्व० श्री मोहनलालजी बाँठिया ने पूर्ण किया जो अभी प्रकाशित नहीं हुए है। इन कोशों को जैन विश्व भारती, लाडनूं जल्दी ही प्रकाशित करेगी। परिभाषा कोश' का कार्य भी स्वर्गीय श्री मोहनलालजी बांठिया के सान्निध्य में चला। मैं यह भी उल्लेख करना चाहूंगा कि स्व० श्री मोहनलालजी बांठिया के इस प्रयत्न और प्रयास में सक्रिय सहयोग दिया श्रीचंदजी चोरडिया ने । तत्पश्चात् भगवान् महावीर की २५ वीं निर्वाण शताब्दी के सुअवसर पर स्वर्गीय साहित्य वारिधि श्री अगरचंदजी नाहटा की सद्प्रेरणा से वर्धमान जीवन कोश का शुभारंभ १७५-१९७५ ई० को स्वर्गीय श्री मोहनलालजी बांठिया ने शुभारंभ किया। जैन दर्शन समिति द्वारा श्री बांठिया ने अपने जीवन काल में श्रीचंदजी चोरड़िया के सहयोग से वर्धमान जीवन कोश का संकलन कर लिया था परन्तु २३ ६ १६७६ में उनका आकस्मिक स्वर्गवास हो गया। बांठियाजी के स्वर्गवास पर जैन दर्शन समिति को बहुत बड़ा धन का लगा । अस्तु वर्धमान जीवन कोश के साथ-साथ श्री नंदजी चोरड़िया अपनी स्वतंत्र कृति 'मिध्यात्वी का अध्यात्मिक विकास' पुस्तक की तैयारी कर रहे थे । फलस्वरूप मिध्यात्वीका अध्यात्मिक विकास' पुस्तक ३०-११-१६७७ को जैन दर्शन समिति द्वारा प्रकाशित हुई। निःसंदेह दार्शनिक जगत में चोरड़ियाजी की यह एक अप्रतिम देन है। इसकी भी प्रतिक्रिया अच्छी रही । अतः वर्धमान जीवन कोश, प्रथम खंड के प्रकाशन में विलंब हुआ । स्वर्गीय श्री बांठियाजी के स्वर्गवास के चार वर्ष पश्चात् वर्धमान जीवन कोश- प्रथम खंड का प्रकाशन हुआ (१९५० ई० में) यह वर्धमान जीवन कोश- विश्व वर्ग द्वारा जितना समाप्त हुआ तथा जैन दर्शन और वाङ् मय के अध्ययन के लिये जिस रूप में इसे अपरिहार्य बताया गया और पत्र-पत्रिकाओं में समीक्षा के रूप में जिस तरह मुक्त कंठ से प्रशंसा की गई, यही उसकी उपयोगिता तथा सार्वजनिनता को आलोकित करने में सक्षम है। ( 13 ) Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसके बाद उनके साथी श्री जबरमलजी भंडारी, जैन दर्शन समिति के अध्यक्ष श्री नवरतनमल सुराना, श्री मांगीलाल लूणिया, स्व० ताजमलजी बोथरा, धर्मचंदजी राखेचा, हनुतमलजी बांठिया, चंदमलजो मणोत, बच्छराजजी सेठिया आदि महानुभावों ने इस कार्य को अपने हाथ में लेकर वधमान जीवन कोश, द्वितीय खंड के प्रकाशित करने की योजना बनायी। इसके प्रति समिति इन सज्जनों को धन्यवाद ज्ञापित करती है। ___ इस महत्वपूर्ण प्रथ को प्रकाशित करने में श्री जबरमलजी भंडारी द्वारा-भगवतीलाल सिसोदिया ट्रष्ट हमें ६००.) रु. द्वितीय खंड के प्रकाशनार्थ देकर उत्साहित किया तथा श्री शोभाचंद्र सोहनलाल चोरडिया चेरिटेबल ट्रस्ट कलकता ने १०००) और अन्य सज्जनों ने इस उत्साह के वातावरण में २५०)- २५०) रुपये देकर और उत्साह बढ़ाया। इसके लिये समिति उन्हें धन्यवाद ज्ञापित करती है। सहायक दताओं के नाम निम्न प्रकार हैं जोधपुर कलकत्ता जयपुर १-श्री भगवतीलाल सिसोदिया ट्रस्ट, २-श्री नवरतनमल सुराना ३-श्री मोहनलाल बैद ४-श्री हनुतमल बांठिया ५-श्री रावतमल हरखचंद ६-श्री मानिकचंद बांठिया ७-श्री चंपालाल आंचलिया ८-सेठ मन्नालालजी सुराना मेमोरियल ट्रस्ट ६-श्री मानिकचंद सेठिया १.-श्री स्वागत फंड सभा ११-श्री हनुमान चेरिटीट्रस्ट १२-श्री केशरीचंद जीतमल १३- श्री कुन्दनमल जयचंदलाल नाहटा चेरिटेबल ट्रस्ट १४-श्री सिंधी फाउन्डेसन १५-श्री जयचंदलाल सेठिया १६-श्री जंवरीमल बंद १७-श्री बेगराज भंवरलाल चोरडिया चेरीटेबल ट्रस्ट १८-श्री बच्छराज सेठिया १६-श्री श्रीचंद रामपुरिया २०-श्री शोभाचंद सोहनलाल चोरडिया चेरिटेबल ट्रस्ट कलकत्ता ( 14 ) Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१-श्री रतनचंद नाहटा कलकत्ता २२-श्री देवचंद दुगड़ २३-श्री बिहारीलाल जैन, २४-श्री ज्ञानचन्द गुलाबचन्द ___ यद्यपि 'वर्धवान महावीर, जीवन के संबंध में अनेक ग्रंथ प्रकाशित हो तुके हैं लेकिन यह वर्धमान जीवन कोश, शास्त्रों के आधार पर एक उच्च कोटि का कोश है जिसमें मूल आगम का आधार तो है ही-दिगम्बर और श्वेताम्बर ग्रंथों का आधार भो प्रचुर मात्रा में लिया गया है। कुछ बौद्ध और वैदिक ग्रथों का भी आधार रहा है। भगवान महावीर के पूर्व भव, ग्यारह गणधर, आर्य चंदना आदि का विवेचन अनेक पुस्तकों में अनेक प्रकार से आये हैं। वे इस ग्रंथ में संकलित है। इस तरह यह जीववृत्त और जीवन प्रसंग का कोश है। अस्तु हम आपके सामने वर्धमान जीवन कोश -द्वितीय खंड को रख रहे हैं। प्रस्तुत ग्रंथ का प्रतिपादन अत्यन्त प्राञ्जल एवं प्रभावक रूप में सूक्ष्मता के साथ किया गया है। यह भगवान महावीर की जीवनधारा को शास्त्रों के आधार पर बताने वाला अनुपम ग्रंथ है। वर्धमान जीवन कोश के तृतीय खंड को भी जल्द ही प्रकाशित करने की योजना है। इसमें वर्धमान के साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका तथा ऐतिहासिक पुरुष विशेष का व्यक्तिगत रूप से विवेचन रहेगा। परमाराध्य युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी हमारी प्रार्थना पर ध्यान देकर प्रस्तुत कोश पर आशीर्वचन लिखा इसके लिये उनके प्रति श्रद्धावनत हैं। ___LD. Institute of Indology अहमदाबाद के भूतपूर्व डाइरेक्टर दलसुखभाई मालवणिया जो जैन दर्शन के उद्भट विद्वान है, उनके बहुमूल्य सुझाव बराबर मिलते रहे हैं तथा लखनऊ के डा. ज्योतिप्रसाद जैन जो जैन दर्शन के उच्चकोटि के विद्वान है। प्रस्तुत ग्रन्य पर 'Fore-word लिखकर हमें अनुगृहीत किया है। इसके लिये हम उन दोनों विद्वानों के लिये अत्यन्त आभारी हैं। स्व. श्री मोहनलालजी बांठिया तथा श्रीचंदजी चोरडिया अनेक पुस्तकों का अध्ययन कर प्रस्तुत कोश को तैयार कर हमे प्रकाशित करने का मौका दिया-उनके प्रति भी हम आभारी हैं। स्व. श्री ताजमलजी बोथरा को भी हम भूल नहीं सकते हैं। जिनका कोश कार्य में बराबर सहयोग रहा। जबरमलजी भंडारी जो हमारी संस्था को मार्ग-दर्श। दे रहे हैं एवं इस कोश को प्रकाशित करने में तन मन, धन से सहयोग देते रहे-उनके प्रति हम अत्यन्त कृतज्ञ हैं। समिति आपकी सेवाओं को सदैव स्मरण रखेगी। हमारी समिति के द्वारा प्रकाशित अभी ३ पुस्तकें स्टोक में है। हमारी समिति के निर्णयानुसार १००) रु. देने वाले सज्जनों को १३०) रु. की निम्नलिखित पुस्तकें दी जाती है। १-मिथ्यात्वी का अध्यात्मिक विकास १५) २-वर्धमान जीवन कोश- प्रथमखंड ५०) ३-वर्धमान जीवन कोश-द्वितीयखंड ६५) ( 15 ) Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कतिपय व्यक्तियों ने अग्रिम ग्राहक बनकर हमारा उत्साह बढ़ाया है और हमें आशा है कि सभी जैन बंधु इस कार्य में सहयोगी होंगे । मेरे सहयोगी — जैन दर्शन समिति के सभापति श्री नवरतनमल सुराना, उपसभापति श्री हनुतमल बांठिया, श्री मांगीलाल लूणिया, श्री धर्मचन्द राखेचा, श्री बच्छराज सेठिया, श्री चंदमल मणोत, श्री जंवरीमल बंद आदि समिति के उत्साही सदस्यों, शुभ चिन्तकों, एवं संरक्षकों का साह्य और निष्ठा का उल्लेख करना मेरा कर्तव्य है । जिनकी इच्छाएँ और परिकल्पनायें मूर्तरूप में मेरे सामने आ रही 1 स्व० श्री सूरजमलजी सुराना का भी हमें अभूतपूर्व सहयोग रहा है । से जैन दर्शन समिति ने जैन दर्शन के प्रचार करने के उद्देश्य सभी समुदाय से हमारा अनुरोध है कि 'वर्धमान जीवन कोश' द्वितीय के विद्वानों भंडारों में, पुस्तकालयों में उसका यथोचित वितरण करने में मिश्रा आर्ट प्रेस तथा उनके कर्मचारी भी धन्यवाद के पात्र हैं। जिन्होंने अनेक बाधाओं के होते हुए भी ( प्रेस कर्मचारियों की हड़ताल, बिजली लोडशेडिंग आदि ) प्रकाशित करने में सक्षम रहे । १० सितम्बर १६८४ कलकत्ता इसका मूल्य केवल ६५ ) रखा है । जैनेतर खंड को कय करके अंततः अपने सम्प्रदाय सहयोग दे । ( 16 ) मोहनलाल बैद मंत्री जैन दर्शन समिति Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना जैन दर्शन सूक्ष्म और गहन है तथा मूल सिद्धान्त ग्रन्थों में इसका क्रमबद्ध तथा विषयानुकम नहीं होने के गरण इसके अध्ययन में तथा इसके समझने में कठिनाई होती है। अनेक विषयों के विवेचन अपूर्ण अधूरे हैं अतः नक स्थल इस कारण से भी समझ में नहीं आते हैं। अर्थ बोध को इस दुर्गमता के कारण जन-अर्जन दोनों प्रकार विद्वान् जैन दर्शन के अध्ययन से सकुचाते हैं। क्रमबद्ध और विषयानुक्रम विवेचन का अभाव जैन दर्शन के अध्ययन सबसे बड़ी बाधा उपस्थित करता है-ऐसा हमारा अनुभव है । अध्ययन की बाधा मिटाने के लिए हमने जैन विषय कोश की एक परिकल्पना बनायी और उस परिकल्पना के अनुसार समग्र आगम ग्रन्थों का अध्ययन किया और उस अध्ययन के आधार पर सर्वप्रथम हमने विशिष्ट पारिभाषिक हानिक और आध्यात्मिक विषयों की एक सूची बनाई। विषयों की संख्या १००० से भी अधिक हो गई तथा इन विषयों का सम्यक् वर्गीकरण करने के लिए हमने आधुनिक सार्वभौमिक दशमलव वर्गीकरण करने का अध्ययन किया । तत्पश्चात् बहुत कुछ इसी पद्धति का अनुसरण करते हुए हमने सम्पूर्ण वाङ्मय को १०० वर्गों में विभक्त करके मूल विषयों को वर्गीकरण की एक रूपरेखा ( देखे पृष्ठ १०) की। यह रूपरेखा कोई अन्तिम नहीं है। परिवर्तन, परिवर्द्धन तथा संशोधन को अपेक्षा भी रह सकती है। मूल विषयों की सूची भी हमने तैयार की है। उनमें से जीव परिणाम ( मूल विषयांक .०४ ) की उपविषय सूची लेश्या कोश में दे दी गई है तथा कर्मवाद ( मूल विषयांक १२) वा कियावाद ( मूल विषयांक .१३ ) को उपसूची क्रियाकोश में दी गई है। जोव परिणाम, कर्मवाद तथा क्रियावाद वह उपसूची भी परिवर्तन, परिपद्धंन तथा संशोधन की धपेक्षा रख सकती है। __ अस्तु प्रस्तुत ग्रन्ध-वर्धमान जीवन कोश-द्वितीय खण्ड में इस अवसर्पिणो काल के चौबीसवें तीर्थकर अयान के पूर्वभव का विवेचन है ही। साथ ही साथ वर्धमान महावीर भगवान् की स्तुति विषयक पाठों का भी विवेचन है। चतुर्विध संघ की उत्पत्ति भगवान महावीर की प्रथम तथा द्वितीय देशना, अन्तिम देशना का भी उल्लेख । भगवान महावीर के इन्द्रभूति आदि ग्यारह गणधरों का भी विवेचन है । आर्य चन्दना का भी प्रचुर मात्रा में लेख है। इस प्रकार पुस्तक बड़ी रोचक बन पड़ी है। तीर्थकर वर्धमान-जीव द्वार ( जैन वाङमय का दशमलव वर्गीकरण संख्या • ०३ ) के अन्तर्गत तथा जीवनी ( जैन वाङमय का दशमलव वर्गीकरण संख्या ६२ ) के अन्तर्गत समाविष्ट है। हमने जीव द्वार के उपविषयों को सूची अलग-अलग दी है। (देखें पृष्ठ १३-१४ ) इन सूचियों में भी परिवर्तन, परिवर्द्धन तथा संशोधन की पेक्षा रह सकती है। जीव द्वार में वर्धमान नाम विषयांक ३५४ है तथा जीवनी में नाम शब्द विषयाफ ६२२४ है। ( 17 ) Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठों के संकलन संपादन में प्रयुक्त ग्रन्थों की सूची में यद्यपि हमने कतिपय ग्रन्थों का ही नाम दिया है तथापि अध्ययन हमने अधिक ग्रन्थों का किया है। चूो, नियुक्ति, टीका आदि का भी अध्ययन किया है। दिगम्बर ग्रंथकषाय पाहुडं वड्ढमाणचरिउ, वीरजिणिदचरिउ, वर्धमानचरितम्, उत्तमपुराण आदि ग्रन्थों का भी उपयोग किया है। लेश्या कोश क्रियाकोश, मिथ्यात्वीका आध्यात्मिक विकास आदि की तरह पाठों का मिलान हमने कई मुद्रित प्रतियों से किया है। यद्यपि हमने सन्दर्भ एक ही प्रति का दिया है। सम्पादन में निम्नलिखित बातों को हमने आधार माना है१-पाठकों का संकलन और मिलान २-विषय के उपविषयों के वर्गीकरण तथा ३-हिन्दी अनुवाद अस्तु पाठों के मिलान के लिए हमने कई मुद्रित प्रतियों की सहायता ली है और यदि कोई महत्वपूर्ण पाठान्तर मिला तो उसे शब्द के बाद ही कोष्ठक में दे दिया है। जहाँ 'वर्धमान' सम्बन्धी पाठ स्वतन्त्र रूप में मिल गया है वहाँ हमने उसे उसी रूप में लिया है लेकिन जहाँ वर्धमान सम्बन्धित पाठ अन्य विषयों के साथ सम्मिश्रित दिये गये हैं वहां हमने निम्नलिखित दो पद्धतियों को अपनाया है (१) पहली पद्धति में हमने सम्मिश्रित पाठों से 'वर्धमान' सम्बन्धी पाठ अलग निकाल दिया है तथा जिस सन्दर्भ में यह पाठ आया है उस सन्दर्भ को प्रारम्भ में कोष्ठ में देते हुए उसके बाद वर्धमान सम्बन्धी पाठ दे दिया है। (२) दूसरी पद्धति में हमने सम्मिश्रित पाठों में से जो पाठ वर्धमान से सम्बन्धित नहीं है उसको बाद देते हुए वर्धमान सम्बन्धी पाठ ग्रहण किया है। वर्गीकृत उपविषयों में हमने मूल पाठों को अलग-अलग विभाजित करके भी दिया है तथा कहीं-कहीं समूचे मूल पाठको एक वर्गीकृत उपविषय में देकर उस पाठ में निर्दिष्ट अन्य वर्गीकृत उपविषयों में उक्त मूल पाठकों बार-बार उद्धृत न करके जहाँ समूचा मूल पाठ दिया गया है उस स्थल को इंगित कर दिया गया है। लेश्याकोश, क्रियाकोश, पुद्गलकोश, ध्यानकोश की तरह वर्धमान जीवन कोश को भी हमने दशमलव वर्गीकरण से विभाजित किया है । __ अस्तु हमने वर्धमान जीवन कोश को तीन खण्डों में विभाजित किया है। जिसका प्रथम खण्ड चार वर्ष पूर्व प्रकाशित हो चुका है। जिसमें भगवान महावीर के च्यवन, गर्भ, जन्म-दीक्षा, साधना काल, कैवल्यज्ञान तथा परिनिर्वाण आदि का विवेचन है । जिसका दूसरा खण्ड आपके हाथों में है। इसके मूल विभाग इस प्रकार है। १-वर्धमान ( महावीर ) के पूर्वभव-२७ भव अथवा ३३ भव २-भगवान महावीर के पर्यायवाची नाम ३-वर्धमान-महावीर की स्तुति ( 18 ) Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४-भगवान महावीर और चतुर्विध संघ की उत्पत्ति ५-भगवान् महावीर की देशना ६-वर्धमान और शासन सम्पदा १-भगवान् के ग्यारह गणधरों का विवेचन २-आर्य चन्दना। दिगम्बर सम्प्रदाय में भगवान् महावीर के चरित का विस्तृत वर्णन सर्वप्रथम गुणभद्राचार्य ने अपने उत्तर पुराण में किया है। तत्पश्चात् असग कवि ने वि सं० ११० में महावीर चरित का संस्कृत भाषा में एक महाकाव्य के रूप में निर्माण किया। इसके पश्चात् संस्कृत भाषा में प्रस्तुत महावीर चरित को लिखनेवाले भट्रारक सकल कीर्ति है। इस प्रकार संस्कृत भाषा में निबन्द्ध उक्त तीन चरित पाये जाते हैं। प्राकृत भाषा में किसी भी दि. आचार्य ने महावीर चरित लिखा हो-ऐसा अभी तक ज्ञान नहीं हो सका है। हाँ, अपभूश भाषा में पुष्पदन्त लिखित महापुराण में महावीर चरित, जयमित्तहल्लका वडढमाणचरिउ, विवुध श्रीधर का वड्ढमाण चरिउ और रयधू कवि का महावीरचरिउ-इस प्रकार चार रचनायें पायी जाती है। तीर्थकर स्वयं संबुद्ध होते हैं । भगवान् महाबोर स्वयं संबुद्ध थे। उन्हें अपने आप संबोधि प्राप्त हुई थी। उसके आधार पर उन्होंने विश्व के स्वरूप की समोक्षा और दार्शनिक विचारों की मीमांसा की। अस्तु सत्पुरुष उपकारी होते हैं तो फिर सर्व कृतज्ञ पुरुषों में शिरोमणि वर्धमान महावीर प्रभु की तो बात ही क्या ? तीथंकरों का यह नियम है कि वे किसी पुरुष विशेष को प्रणाम नहीं करते हैं । ( कल्पसूत्रार्थ प्रबोधिनी पृष्ठ १२७)। तीर्थंकरत्व एक गरिमा पूर्णपद है। वह काम्य नहीं हुआ करता। वह तो सहज सुकृत संचयसे प्राप्त हो जाता है। तीर्थकरत्व प्राप्ति के लिए बीस निमित्त माने गये है। यधा१-अरिहंत की आराधना ११-षड् आवश्यक का विधिवत् समाचरण २-सिद्ध की आराधना १२-ब्रह्मचर्य का निरतिचार पालन ३-प्रवचन की आराधना १३-ध्यान ४-गुरु का विनय १४-तपश्चर्या ५-स्थविर का विनय १५-पात्रदान ६-बहुश्रुत का विनय १६-वैयावृत्ति ७-तपस्वी का विनय १५ --. समाधि-दान ८-अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग १८-अपूर्व ज्ञानाभ्यास 8-निर्मल सम्यग् दर्शन १६-श्रुत भक्ति १०-विनय २०-प्रवचन प्रभावना गर्भहरण का प्रसंग दिगम्बर परम्परा में अभिमत नहीं है। कल्पसूत्र में संहरण-काल को भी अज्ञात बताया है। वह किसी अपेक्षा विशेष से ही यथार्थ हो सकता है। तत्वतः तो अवधि ज्ञान युक्त महावीर के लिए वह अगम्य नहीं हो सकता। ( 19 ) Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार कुमार वर्द्धमान माता-पिता के सामने झुक गये। उन्होंने विवाह कर लिया। महावीर भोग समर्थ होकर दाम्पतिक जीवन प्रारम्भ करते हैं। दिगम्बर परम्परा में महावीर का दाम्पतिक जीवन मान्य नहीं है । दिगम्बर परम्परा के अनुसार कुमार वर्द्धमान ने विवाह का अनुरोध ठुकरा दिया। वे जीवन भर ब्रह्मचारी रहे । दिगम्बर परम्परा भगवान महावीर का पाणि-ग्रहण तो नहीं मानती, पर इतना अवश्य मानती है कि मातापिता की ओर से उनके विवाह का वातावरण बनाया गया था। अनेक राजा उन्हें अपनी-अपनी कन्यायें देना चाहते थे। राजा जितशत्रु अपनी कन्या यशोदा का उनके साथ विवाह करने के लिए विशेष आग्रहशील था। पर महावीर ने विवाह करना स्वीकार नहीं किया। भगवान महावीर के दीक्षार्थ वन-गमन के समय उनके पिता का शोक और माता त्रिशला का करुण विलाप तो पाठों के नेत्रों में भी आँसू लाये बिना न रहेगा। अतः दिगम्बर परम्परानुसार भगवान् के दीक्षा लेने के समय उनके माता-पिता जीवित थे। किन्तु श्वेताम्बर शास्त्रों के अनुसार दोनों के स्वर्गवास होने के दो वर्ष पश्चात भगवान महावीर ने दीक्षा ग्रहण की है। साधना काल के बारह वर्ष तेरह पखवाड़ों में केवल एक बार मुहूर्त भर नींद लीऐसा माना जाता है। कैवल्य प्राप्त होने पर भगवान् की साधना सम्पन्न हो गई। फिर उन्होंने नरंतरिक उपवास नहीं किये। उपवास अपने आप में कोई लक्ष्य नहीं है। वह लक्ष्य पूर्ति का एक साधन है । लक्ष्य की पूर्ति होने पर साधन असाधन बन गया। श्वेताम्बर परम्परानुसार भगवान महावीर के प्रथम चार कल्याण उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में हुए, परिनिर्वाण स्वाति नक्षत्र में हुभा परन्तु दिगम्बर परम्परानुसार भगवान् महावीर के पांचों कल्याणों की तिथि और नक्षत्र निम्न प्रकार थी १-गर्भ कल्याणक-आषाढ़ शुक्ला षष्ठी, उत्तराषाढा नक्षत्र । २-जन्म कल्याणक-चैत्र शुक्ला त्रयोदशी, उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र । ३ --दीक्षा कल्याणक-मार्गशीर्ष कृष्णादशमी, , नक्षत्र । ४-केवल कल्याणक-बैशाख शुक्ला दशमी, मघा नक्षत्र । ५-निर्वाण कल्याणक-कार्तिक कृष्णा अमावस्या, स्वाति नक्षत्र । दिगम्बर परम्परानसार भगवान महावीर के ५ नाम प्रसिद्ध रहे हैं १-वीर-जन्माभिषेक के समय इन्द्र-प्रदत्त नाम २-श्री वर्धमान-नाम संस्कार के समय पिता द्वारा प्रदत्त नाम ३-सम्मति-विजय-संजय मुनि द्वारा शंका समाधान होने पर प्रदत्त नाम ४-महावीर-संगम देव द्वारा प्रदत्त नाम ५-महति महावीर-स्थाणु रुद्र द्वारा प्रदत्त नाम भगवान महावीर के पूर्वपक्ष-दिगम्बर परम्परा में पुरूरवा भील से लेकर महावीर होने तक भगवान के गणनीय ३३ भवों का उल्लेख है जबकि श्वेताम्बर परम्परा में २७ ही भव मिलते हैं। उनमें प्रारम्भ के २२ भव कुछ नाम परिवर्तनादि के साथ वे ही हैं जो कि दिगम्बर परम्परा में बतलाये गये हैं। शेष भवों में से कुछको नहीं माना है । ( 20 ) Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोनों परम्पराओं के अनुसार भगवान् महावीर के पूर्वभवों में उक्त छह भवों का अन्तर कैसे पड़ा। यह प्रश्न विद्वद्वजनों के लिए विचारणीय है । प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव ने पूर्व के अनेक भव लक्ष्य कर मरीचि तापस को कहा- यह अन्तिम तीर्थंकर होगा । यह महावीर की घटना उनके पच्चीस भव की या इकतीस भवपूर्व की है । मरीचि भरत का पुत्र था। सुर-असुरों द्वारा की गई भगवान् ऋषभदेव के केवल ज्ञान की महिमा को देखकर वह भी अपने पांच सौ भाइयों के साथ निर्ग्रन्थ बना था। कालान्तर में भगवान् महावीर के संघ से निष्कासित हो गया। बाद में त्रिदंडी तापस हो गया । श्वेताम्बर परम्परानुसार महावीर के कुल सत्ताईस भवों का वर्णन मिलता है, जिसमें दो भव मरीचि भव से पूर्व के हैं और शेष के बाद के सत्ताईस भवों में प्रथम भव नयसार कर्मकार का था। इस भाव में नयसार ने किसी तपस्वी मुनि को आहार दान किया था और प्रथम बार सम्यग् दर्शन उपार्जित किया। सताईस भवों में महावीर ने जहां चक्रवर्तित्व और वासुदेवत्व पाया वहां उन्होंने सप्तम नरक तक का भयंकर दुःख भी सहा । पच्चीसवें भाव में तीर्थंकरत्व प्राप्ति के बीस निमित्तों की आराधना करते हुए तीर्थंकर गोत्र नामकर्म बांधा। एम्बीसवें भाव में प्राणत नामक दशवें स्वर्ग में रहे और सत्ताईसवें भव में महावीर के रूप में जन्म लिया । श्रीधर ने अपभ्रंश भाषा में रचित अपने वढ्ढमाण चरिउ में भगवान् महावीर का चरित दिगम्बर परम्परानुसार ही लिखा है तो भी कुछ घटनाओं का उन्होंने विशिष्ट वर्णन किया है। जैसे त्रिपृष्ठनारायण के भव में सिंह के उपद्रव से पीड़ित प्रजा जब उनके पिता से जाकर कहती है, तब वे उसे मारने को जाने के लिए उद्यत होते हैं। तब कुमार त्रिपृष्ठ उन्हें रोकते हुए कहते हैं । जय मह संतेवि असिवरु लेवि पहिण करण अर्थात् यदि मेरे होते सन्ते भी आप खंग लेकर क्या लाभ ? उट्टिउ करि कोड वरि विलोड ता कि मतएण ॥ एक पशु का निग्रह करने जाते हैं तो फिर मुझ पुत्र से ऐसा कहकर त्रिपृष्ठ कुमार सिंह को मारने के लिए स्वयं जंगल में जाता है और विकराल सिंह को दहाड़ते हुए सम्मुख आता देखकर उसके खुले हुए मुख में अपना नाम हाथ देकर दाहिने हाथ से उसके मुख को फाड़ देता है और सिंह का काय जीव से अलग कर देता है । सिंह के मारने की इस घटना का वर्णन श्वेताम्बर पंथों में भी पाया जाता है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार भगवान् महावीर ने केवलज्ञान प्राप्त कर लेने के बाद ६६ दिन तक मौन पूर्वक विहार किया क्योंकि तब तक उन्हें गणधर गणका संघ का धारक, जो कि भगवान् के उपदेशों को स्मृति रखकर उनका संकलन कर सकता, नहीं मिला था। विहार करते-करते महावीर मगध देशकी राजधानी राजगृही में पधारे और उसके बाहर विपुलाचल पर्वत पर ठहरे। उस समय राजगृही में राजा श्रेणिक रानो चलना के साथ राज्य करते थे। दिगम्बर परम्परानुसार भगवान् महावीर को केवल ज्ञान उत्पन्न होने के पश्चात् इन्द्रभूति गौतम के समागम नहीं होने तक ६६ दिन दिव्यध्वनि नहीं खिरने पर भी भूतल पर विहार करते रहे। केवलज्ञान रूप सूर्य की किरणों के ( 21 ) Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारण कर लेने पर निर्गुन मुनि आदि के साथ भारतवर्ष में विहार करते हुए छयासठ दिन बीत जाने पर भी भगवान को दिव्यवाणी प्रकट नहीं हुई तब अमरेश्वर इन्द्र के मन में चिन्ता हुई कि सकल सामग्री के होने पर मो क्या कारण है कि भगवान् अपनी वाणी से जीवादि तत्वों को नहीं कह रहे हैं। इन्द्र चिन्तित हुआ और अवधि ज्ञान से गणधर के अभाव को जानकर तथा वृद्ध ब्राह्मण का रूप बनाकर गौतम को लाने के लिए गया । तिलोयपण्णत्ती, धवला-जयधवला टीका और हरिवंश पुराण में श्रावण कृष्णा तिपदा के प्रातःकाल अर्थात केवलज्ञान की बैसाख शुक्ला दशमी को उत्पत्ति हो जाने के ६६ दिन पश्चात भगवान् महावीर के द्वारा धर्म देशना का स्पष्ट उल्लेख होने पर भी सकलकोति ने वीर वर्धमान चरित में इसका उल्लेख कयों नहीं किया-यह बाद विचारणीय है। ___ वहीं पर आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा, जिसे गुरु पूर्णिमा भी कहते हैं, के दिन इन्द्रभूति नाम का गौतम गोत्री वेद-वेदांग में पारंगत एक शीलवान् ब्राह्मण विद्वान् जीव-अजीव विषयक संदेह को दूर करने के लिए महावीर के पार आया। और सन्देह दूर होते ही उसने महावीर के पादमूल में जिनदीक्षा ले लो और उनका प्रधान गणधर बन गया उसके बाद ही प्रातःकाल में भगवान महावीर की प्रथम देशना हुई। जैसाकि प्राचीन गाथाओं में लिखा है "पंच शैलपुर में ( पांच पर्वतों में शोभायमान होने के कारण राजगृह को पंच शैलपुर या पंचण्हाडी कहते हैं ) रमणीक, नाना प्रकार के वृक्षों से व्याप्त और देव-दानव से वन्दित विपुल नामक पर्वत पर महावीर भव्यजनों को उपदेश दिया।" वर्ष के प्रथम मास अर्थात् श्रावण मास में, प्रथम पक्ष अर्थात् कृष्ण पक्ष में, प्रतिपदा के दिन, प्रातःकाल समय अभिजित् नक्षत्र के उदय रहते हुए धर्मतीर्थ की उत्पत्ति हुई । अस्तु दिगम्बर परम्परानुसार भगवान की प्रथम देशना राजगृही में ही श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के ब्राह्ममुहुर्त । होने के प्राचीन उल्लेख है। हरिवंश पुराणकार आचार्य जिनसेन भी श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के प्रातःकाल अभिजित् नक्षत्र के समर भगवान महावीर को दिव्यध्वनि प्रकट होने का उल्लेख किया है भगवान महावीर के धर्म संघ में १४००० साधु और ३६०.० साध्वियां बताई गई है। संघ विस्तार कार्य कैवल्य और बोध प्राप्ति के साथ-साथ ही प्रारम्भ हो गया। सहस्रों २ के थोक ( समूह ) विविध घटना प्रसंगों साथ दीक्षित हुए थे। दीक्षित होनेवालों में बड़ा भाग वैदिक पण्डितों, परिव्राजकों व क्षत्रिय राजकुमारों का होता था महावीर-इन्द्रभूति आदि ग्यारह पंडितों व चार हजार चार सौ उनके ब्राह्मण शिष्यों को दीक्षित करते हैं। महावीर अपनी जन्मभूमि में आकर पांच सौ व्यक्तियों के परिवार से अपने जामाता को व पन्द्रह सौ परिवार से अपर पूत्री प्रियदर्शना को दीक्षित करते हैं। अस्तु भगवान् महावीर के ग्यारह गणधर थे। अग्निभूति, वायुभूति, अचलभाता, मेतार्य और प्रभासपांच गणधरों का निर्वाण भगवान से पहले हो चुका था। ब्यक्त, मण्डित, मौर्य पुत्र और अंकपित-इन चार गणधा का निर्वाण भगवान के निर्वाण के कुछ महीने पहले हुआ। इन्द्रभूति भगवान के परिनिर्वाण के साढ़े बारह वर्ष भी ( 22 ) Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधर्मा साढ़े बीस वर्ष जीवित रहे । ये दोनों पचास वर्ष गृहवास में रहे। भगवान् का निर्वाण हुआ तब ये दोनों ८० वर्ष के थे । गौतम का निर्वाण ६२ वर्ष की तथा सुधर्मा का निर्वाण १०० वर्ष की अवस्था में हुआ । कुमार श्रमण केशी भगवान् पार्श्वनाथ के और श्रमण गौतम भगवान् महावीर के शिष्य थे। भगवान् महावीर अस्तित्व में आये ही थे । उनका धर्मचक अभी प्रवृत्त हुआ ही था। संक्षिप्त उत्तर से केशी की जिज्ञासा शांत हुई। तब गौतम ने भगवान् महावीर के जीवनवृत्त के अनेक चित्र केशी के सामने प्रस्तुत किये। निर्व्रन्थ संघ में महावीर के प्रथम समवसरण में हो स्त्री दोक्षायें हुई। चन्दनबाला प्रथम शिष्या थी और वह छत्तीस हजार के वृहत् श्रमणी संघ में भी सदैव प्रवर्तिनी अग्रणी रही। केवलज्ञान प्राप्त कर जब महावीर मध्यम पावा पधारे तब चन्दनवाला उनके समवयण में दीक्षित हुई। भगवान् बहत्तरवें वर्ष में चल रहे थे। उस अवस्था में भी वे पूर्ण स्वस्थ थे। वे राजगृह से विहार कर अपापापुरी में आये वहां की जनता और राजा हस्तिपाल ने भगवान् के पाय धर्म का सश्व सुना भगवान् के निर्वाण का समय बहुत नजदीक आ रहा था । भगवान् ने गौतम को आमन्त्रित कर कहा- गौतम! पास के गांव में सोमशर्मा (देवशर्मा) नाम का ब्राह्मण है। उसे धर्म का तत्र समझाना है। तुम वहां जाओ और उसे सम्बोधि दो । गौतम भगवान् का आदेश शिरोधार्य कर वहां चले गए। भगवान् प्रवचन करते-करते ही निर्वाण को प्राप्त हो गये। उस समय रात्रि चार घड़ी शेष थी (चतुर्घटिकाथशेषायां शत्रो कल्पसूत्र-सूत्र १४७ सुबोधिका टीका ) महल और लिच्छवि गणराज्यों ने दीप जलाये कार्तिकी अमावस्या की रात जगमगा उठो । सोमशर्मा ब्राह्मण प्रतिबुद्ध हो गया। गौतम अपने कार्य में सफल होकर भगवान् के पास आ रहे थे इतने में उन्हें सम्वाद मिला कि भगवान् महावीर का निर्वाण हो गया। कुछ क्षणों के लिए गौतम माम भूल गये। उनकी अन्तरात्मा जागृत हुई। वे सम्भले गौतम ध्यान के उच्च शिखर पर पहुँचे। उनका राग क्षीण हुआ। वे केवली हो गये । मंत्री गौशाल की मृत्यु उनके जीवन काल में तथा गौतम बुद्ध के पहले ही महावीर का निर्माण अपापा ( पावा ) में हो चुका था। बौद्ध ग्रन्थों में उल्लेखित विभिन्न संवादों से स्पष्ट है कि महावीर को गौतम बुद्ध से आयु में ज्येष्ठ माना जाता था । जेन परम्परा में गौशाल की मृत्यु महावीर के निर्वाण के साढ़े सोलह वर्ष पहले श्रावस्ती में होने तथा कूप. अगत के शासन काल के सोलवें वर्ष में भगवान् के निर्माण के उल्लेख उपलब्ध हैं। महावीर के निर्माण और अवन्तीदाज प्रद्योत के उत्तराधिकारी पालक का राज्यारोहण एक ही दिन हुआ था । महावीर ने निर्वाण के समय चुन्द समास का वर्षावास भी पावा में ही था। महावीर गौतम बुद्ध की अपेक्षा चिर-दीक्षित और ओष्ठ थे तथा महावीर का निर्माण गौतम बुद्ध के जीवन काल में हो चुका था । महावीर को केवलज्ञान गौतम बुद्ध को सम्बोधि प्राप्त होने के पूर्व ही प्राप्त हो चुका था । चन्द्रगुप्त मौर्य और महावीर निर्वाण के बोच २१५ वर्ष का अन्तर ( ३१२ + २१५ ) माना गया गया है तथा महावीर निर्माण के ४०० वर्ष बाद उज्जयिनी में विक्रमादित्य राजा के होने का उल्लेख है । ( 23 ) Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स दिव्यध्वनिना विश्व संशयच्छेदिना जिन: । दुन्दुभिध्वनिधीरेण योजनान्तग् यायिना || श्रावणस्यासिते पक्षे नक्षत्रेऽअभिजिति प्रभुः । प्रतिपद्यह्नि पूर्वान्हे शासनार्थ मुदाहरत् ॥ - हरिपु० सर्ग २, श्लो० ६०-६१ केवल दर्शन उत्पन्न होने के पूर्व विश्वार भगवान् के परिनिर्वाण के बाद गौतम स्वामी को केवलज्ञान करते हैं " राग और द्वेष संसार के हेतु है उसका त्याग करने के लिए - परमेष्ठी ( भगवान् महावीर ) ने हमारा त्याग किया होगा । इसलिए ऐसे ममता रहित प्रभु में ममता रखने से हमको क्या लाभ हुआ । रागद्वेषप्रभृतयः किं चामी भवहेतवः । हेतुना तेन च त्यक्तारतेनापि परमेष्ठिना ॥ २७६ ॥ निर्ममे नाथे ममत्वेन ममाऽप्यलम् । ममत्वं सममत्वेऽपि मुनीनां न हि युज्यते ॥२८०|| - त्रिशला का० पर्व १० / सर्ग १३ यदि अजातशत्रु के द्वारा राजगृह हस्तगत करने की तिथि ई० पू० ५४४ मानी जाय तो गौतम बुद्ध निर्वाण की तिथि ई० पू० ५०२ होगी । के महावीर के निर्वाण की तिथि उसके राज्यारोहण के १६ वर्ष पश्चात् है जो कि जैन परम्परा को विश्वसनीय मानना अनुचित नहीं है । जैन परम्परा के अनुसार महावीर के कैवल्य प्राप्त करने के लगभग तेरह वर्ष पश्वात् श्रेणिक बिम्बसार की मृत्यु हुई। अतः यह घटना ई० पू० ५४४ की रही होगी । अवंतीराज चंडप्रद्योत की मृत्यु महावीर के निर्वाण के कुछ दिनों के पहले हो चुकी थी, क्योंकि जैन परम्परा के अनुसार उसके उत्तराधिकारी और पुत्र पालक का राज्याभिषेक महावीर की निर्वाण रात्रि को हुआ था। प्रद्योत, मगध के शासक बिम्बसार और उसके पुत्र अजातशत्रु दोनों का ही समकालीन था । भगवान् महावीर के परम्परानुसार तीन पाट केवली हुए १ - गौतम स्वामी २ - सुधर्मा स्वामी - १३ - जभ्बू स्वामी सर्वज्ञ-सर्वदर्शी में हमने सामान्य केवली व तीर्थ कर को ग्रहण किया है । सर्वज्ञ - सर्वदर्शी वर्धमान तीर्थंकर का विषयांकन हमने ३५४ किया है। इसका आधार यह है कि सम्पूर्ण जैन वाङ् मय को १०० विभागों में विभाजित किया गया है। (देखें - मूल वर्गीकरण सूची पृष्ठ १०-१२ ) । इसके अनुसार जीवका विषयांकन ०३ है । जीव को ६० विभागों में विभक्त किया गया है ( देखें – जीव वर्गीकरण सूची पृष्ठ १३ ) इसके अनुसार वर्धमान का विषयांकन हमने ९२२४ किया है । इसका आधार इस प्रकार है जैन वाङमय के मूल वर्गीकरण में जीवका विषयांकन ०३ है तथा जोवनी ( महापुरुषों की जीवनी । के उपवर्गीकरण में तीर्थंकर वर्धमान का विषयांकन २४ है अतः जीवनी में विषयांकन ६२२४ किया है । वर्धमान सम्बन्धी तुलनात्मक अध्ययन के लिए हम कई असुविधाओं के कारण अन्य धर्मों के दार्शनिक ग्रंथों का सम्यक अध्ययन नहीं कर सके, केवल मज्झिम निकाय, अंगुत्तर निकाय, यजुर्वेद आदि का अध्ययन किया । उससे प्राप्त वर्धमान ( महावीर ) जोवनो सम्बन्धी पाठों को हमने दे दिया है । ( 24 ) Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामान्यतः अनुवाद हमने शाब्दिक अर्थ रूप ही किया है लेकिन जहाँ विषय को गम्भीरता या जटिलता देखी है वहाँ अर्थ को स्पष्ट करने के लिए विवेचनात्मक अर्थ भी किया है। कहीं-कहीं भावार्थ भी किया है। विवेचनात्मक अर्थ करने के लिए हमने सभी प्रकार की टीकाओं तथा अन्य सिद्धांत ग्रंथों का उपयोग किया है। छद्मस्था के कारण यदि अनुवादों में या विवेचन करने में कहीं कोई भूलभांति व त्रुटि रह गई हो तो पाठक वर्ग सुधार लें। जहां मूल पाठ में विषय स्पष्ट रहा है वहाँ मूल पाठ के अर्थ को स्पष्ट करने के लिए हमने टीकाकारों के स्पष्टीकरण को भी अपनाया है तथा स्थान-स्थान पर टीका का पाठ भी उद्धृत कर दिया है। अस्तु वर्धमान जीवन कोश -श्वेताम्बर आगम तथा दिगम्बर तथा श्वेताम्बर सिद्धांत ग्रंथों से तैयार किया गया है। सम्पादन, वर्गीकरण तथा अनुवाद के काम में निर्यक्ति, चूर्णी, वृत्ति, भाष्य आदि का भी उपयोग किया गया है। संभव है हमारी छद्मस्था के कारण तथा मुद्रक के कर्मचारियों के प्रमादवश पुस्तक की छपाई में कुछ अशुद्धियाँ रह गई हो। आशा है पाठकगण अशुद्धियों के लिए हमें क्षमा करेंगे तथा आवश्यकता के अनुसार संशोधन कर लेंगे। हमारी कोश परिकल्पना का अभी भी परोक्षण काल चल रहा है अतः इसमें अनेक त्रुटियों हों तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। लेकिन इस हमारी परिकल्पना में पुष्टता आ रही है। तथा हमारे अनुभव से यथेष्ट समृद्धि हुई है इसमें कोई सन्देह नहीं है । पाठक वर्ग से सभी प्रकार के सुझाव अभिनन्दनीय है। चाहे वे सम्पादन, अनुवाद या अन्य किसी प्रकार के हों। आशा है इस विषय में विद्वद् वर्ग अपने सुझाव भेजकर हमें पूरा सहयोग देंगे। अस्तु वर्धमान जीवन-कोश-तृतीय खण्ड की तैयारी अधिकांश सम्पूर्ण हो चुकी है। इसमें वर्धमान तीर्थंकर के साधु-साध्वी-श्राविक-श्राविका का तो विवेचन रहेगा ही और भी प्रचुर सामग्री मिलेगी। हम जैन दर्शन समिति के आभारी है जिसने वर्धमान जोवन-कोश के प्रकाशन की सारी व्यवस्था की जिम्मेवारो ग्रहण की। युग प्रधान आचार्य श्री तुलसी के प्रति भी हम श्रद्धावनत है जिन्होंने अतिव्यवस्तता के कारण भी प्रस्तुत कोश पर आशीर्वचन लिखा। हम बन्धुवर जबरमल जी भंडारी के अत्यन्त आभारी हैं जिन्होंने सदा इस कार्य के लिए प्रोत्साहित किया है। लखनऊ के डा. ज्योति प्रसाद जैन को हम कभी नहीं भूल सकते-जिन्होंने समयसमय पर अपने बहुमूल्य सुझाव देते रहे तथा प्रस्तुत कोश पर "Foreword" लिखा। L D. Institute of Indology अहमदाबाद के भूनपूर्व डाइरेक्टर श्री दल सूख भाई मालवणिया के प्रति हम आभारी हैं जिन्होंने समय-समय पर अपने बहुमूल्य सुझाव जताते रहे। हम उन देशी-विदेशी विद्वानों को धन्यवाद देते हैं जिन्होंने लेश्या कोश, क्रिया कोश, मिथ्यात्वी का आध्यात्मिक विकास तथा वर्धमान जीवन-कोश प्रथम खण्ड पर अपनी अपनी सम्मतियां भेजकर हमारा उत्साहवर्धन किया है ! युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी तथा युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ की महान दृष्टि हमारे पर सदैव रही है-जिसे हम भूल नहीं सकते। हम जैन दर्शन समिति के सभापति श्री नवरतनमल सुराना, स्व० ताजमलजी बोथरा, नेमीचन्दजी गधइया, मोहनलालजो बैद ( मन्त्री ), मांगीलालजी लूणिया, जयसिंहजी सिंघी, सुमेरमलजी सुराना, धर्मचन्दजी राखेचा, भंवरलालजी सिंघी तथा स्व• सूरजमल जी सुराना आदि आदि सभी बन्धुओं को धन्यवाद देते हैं जिन्होंने हमारे विषय कोश निर्माण कल्पना में हमें किसी न किसी रूप में सहयोग दिया है। कलकत्ता, -श्रीचन्द चोरड़िया ११, नवम्बर, १९८४ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो शब्द स्वर्गीय श्री मोहनलालजी बांठिया तथा उनके साथियों ने जैनागम एवं वाङ् मय के तलस्पर्शी गंभीर अध्ययन कर आधुनिक दशमलव प्रणाली के आधार पर अलग-अलग अनेक विषयों पर कोश प्रकाशित करने की परिकल्पना की और इसको मूर्तरूप देने के लिए जैन दर्शन समिति की स्थापना महावीर जयंती के दिन सन् १९६९ के दिन की गई । यह संस्था स्वर्गीय मोहनलालजी बांठिया एवं श्रीचंद चोरड़िया द्वारा निर्मित विषयों पर कोश प्रकाशन का कार्य कर रही है। इसके द्वारा निम्नलिखित कोश प्रकाशित हैं जिनका सक्षिप्त विवरण इस प्रकार हैं। १. लेश्याकोश – प्रथम पुष्प - लेश्या अध्यवसाय का बेरोमेटर है । इस कोश में छओं लेश्याओं का विस्तृत विवेचन है। इन लेश्याओं का आगम ग्रंथों में अनेक स्थल पर उल्लेख है उसका संकलन हुआ है। CYCLOPAEDIA OF LESHYA के रूप में इस ग्रंथ का प्रकाशन हुआ है। जिससे कि लेश्या विषय पर अनुसंधान करने वालों को व दर्शन शास्त्र में रूचि रखने वालों को एक ही स्थान में पर्याप्त सामग्री उपलब्ध हो सकेगी। अमेरिका के एक छात्र ने इस विषय को लेकर PH D. डिप्लोमा प्राप्त किया। विषय पर अध्ययन करने में 'लेश्याकोश' से भरपूर सामग्री प्राप्त हुई। २. क्रियाकोश - द्वितीय पुष्प - इसी प्रकार क्रिया कोश में आरंभिकी आदि पच्चीस क्रियाओं का विस्तृत विवेचन है । क्रिया का एकरूप पुण्य-पाप का बंधन है और उसका दूसरा रूप कर्म-बंधन से छुटकारा पाना है । किया कोश में आगम व ग्रंथों के आधार पर विस्तृत विवेचन है । २. मिध्यात्वीका आध्यात्मिक विकास तृतीय पुष्प मिध्यास्वी प्राणी का सह आचरण श्रेष्ठ नहीं माना जाय तो उसका आध्यात्मिक विकास कैसे हो सकता है। श्रीचंद चोरड़िया ने लगभग दो सौ ग्रंथों का गम्भीर परायण एवं आलोडन करके शास्त्रीय रूप में अपने विषय को प्रस्तुत किया है । अतः पंडित दलसुख भाई मालवणिया के शब्दों में यह ग्रंथ लेश्याकोश तथा क्रियाकोश की कोटिका हो है । उनके कथनानुसार इस - ४. वर्धमान जीवन कोश- प्रथमखण्ड - चतुर्थ पुष्प प्रस्तुत ग्रंथ जैन दर्शन समिति को कोश परम्परा की - कड़ी में एक महत्वपूर्ण संदर्भ ग्रंथ है। वर्धमान जीवन कोश का यह प्रथम भाग स्वर्गीय मोहनलालजी बांठिया द्वारा संकलित एवं तैयार सामग्री का व्यवस्थित संपादित रूप है । बाँठियाजी इस काम को अधूरा छोड़कर स्वर्गवासी हो गये, किन्तु श्रीचन्द चोरड़िया ने अत्यन्त परिश्रम कर इसे तैयार किया है । इसमें भगवान् महावीर के पवन, गर्भ, जन्म, दीक्षा, केवल ज्ञान तथा परिनिर्वाण आदि का विस्तृत विवेचन है। ( 25 ) Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन कोश-द्वितीय खण्ड-पंचम पुष्प-जो आपके सामने है। इसमें भगवान महावीर के पूर्व श्वेताम्बर मतानुसार २७ भव तथा दिगम्बर मतानुसार ३३ भवों का आगम तथा सिद्धांत ग्रंथों के आधार पर विवेचन है। इसमें भगवान् महावीर के इन्द्रभूति आदि ग्यारह गणधरों के जीवन पर भी प्रकाश डाला गया है। इस प्रकार जैन दर्शन समिति के द्वारा सैकड़ों विषयों पर कोश संकलन कार्य हुआ है। कोशों के संबंध में भारत के उच्चकोटि के विद्वानों ने मुक्त कंठ से सराहना की है। इनमें मुख्य रूप से १-स्व० प्रज्ञाचक्षु पंडित सुखलाल जी संघवी २-स्व० आदिनाथ नेमीनाथ उपाध्याय ३-डा० ज्योतिप्रसाद जैन ४-युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी ५-प्रो० दलसुख भाई मालवणिया ६-स्व. डा० सुनीतिकुमार चटर्जी ७ - प्रो० पद्मनाथ जैन U.S A. ८-प्रो० डा० L. ALSDROF, Hamburg आदि के नाम उल्लेखनीय है । इस प्रकार दशमलव प्रणाली के आधार पर करीब १००० विषयों पर आगम तथा प्राचीन भारतीय ग्रंथों का तलस्पर्शी अध्ययन करके स्व० श्री मोहनलालजी बांठिया व श्रीचंद चोरडिया ने पांडुलिपि तयार की। जिसको हमने सुरक्षित रखा है। ___ इस समिति में भारतीय दर्शन में रूचि लेने वाले सभी सज्जन सदस्य हो सकते हैं। संस्था में दो सदस्य श्रेणी है १-आजीवन संरक्षक सदस्य-जिसकी सदस्यता फीस १०००) है। उन्हें संस्था द्वारा प्रकाशित साहित्य बिना मूल्य सप्रेम भेंट किया जाता है। २-आजीवन साधारण सदस्य-जिसकी सदस्यता फीस सिर्फ १.१) है। सदस्य व्यक्तिगत रूप से ही लिये जाते हैं। माननीय जोधपुर निवासी श्री जबरमलजी भंडारी इस संस्था के सहयोगी और शुभचिन्तक है। उनके समयसमय पर अभूतपूर्व सुझाव मिलते रहे । कोशों के प्रकाशन में आर्थिक सहयोग भरपूर रहा है। हमारी संस्था अब तक विद्ववद् योग्य सामग्री तयार करती रही है। अतः संस्था को जनप्रिय बनाने के लिये सरल भाषा में छोटी-छोटी पुस्तकें तैयार कराकर प्रकाशित करने की योजना है। और संभव हो तो उन्हें निःशुल्क वितरण की जाये। ___ अस्तु स्व० मोहनलालजी बाँठिया इस संस्था के संस्थापक ही नहीं थे, प्राण थे। वे इतने कोशों की रूपरेखा तैयार करके छोड़ गये हैं कि कई विद्वान वर्षों तक कार्य करे तो भी समाप्त न हो। ऐसे मनीषि की स्मृति में ठोस कार्य होना ही चाहिए। इस संस्था का पावन उद्देश्य जैन दर्शन व भारतीय दर्शन को उजागर करना है जिससे मानव ज्ञान रश्मियों से अपने अज्ञान अंधकार को मिटा सकें। इस संस्था द्वारा प्रकाशित साहित्य सस्ते दामों में वितरण कर अधिक से अधिक प्रचार हो-यही इसका उद्देश्य है। इस पुनीत कार्य में सबका सहयोग अपेक्षित है। भवदीय कलकत्ता नवरतनमल सुराना, अध्यक्ष १२-१२-८४ जैन दर्शन समिति ( 27 ) Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FOREWORD This is an age of systematic enquiry and research. So, when a scholar undertakes the study of a particular topic, he does not rest satisfied with a single source or version handed down to him by tradi tions, leterary, epigraphical or oral. Whereas a simple believer would not question the authority of the scriptures or traditions he puts his faith in, the modern investigator would try to explore all the sources relating to the subject under study, and examine thoroughly all the aspects and relevant details connected with it. This unbounded spirit of enquiry and tendency to a comprehensive methodical approach have been greatly facilitated by the discovery publication or availability and specialised studies of the diverse source material related to almost every subject or branch of learning which may arouse the interest of a scholar. There is thus now no dearth of source material of various kinds and categories on almost any topic which is sought to be investigated This in itself however, makes the task of the researcher much more arduous and time consuming And, herein lies the importance of different kinds of reference books which render his task comparatively easy and smooth Topical dictionaries constitute a very valuable class of such reference books So far, as Jainological studies are concerned, encyclopaedies like the Abhidhana Rajendra Kosha and the Jainendra Siddhanta Kosha. several bibliographies. collections of colophons. catalogues of manuscripts, glossaries of technicalterms dictionaries of historical persons and places, and collections of inscriptions and of other historical records like potifical genealogies and Vijnapti patras. etc.. have already been published These reference books are undoubtedly of immense help to the research scholar of Jainological studies. The conception of topical dictioneries. like the present one is however. a bit different from that of the works mentioned adove The late Sri Mohanlal Bhanthia was, perhaps the first to initiate develop and launch upon a scheme of compiling topical dictionaries of Jaina religion philosophy and traditions He was lucky in having a hardworking dedicated and competent assistant in Pt Srichand Choraria The scheme covered about a thousand topics. but to begin with they compiled and published in 1966. the Leshya Kosha in 1969 the Kriya Kosha in 1980, the Vardhamana Jivana Kosha Part I, and its Part II in 1984 in the form of the present publication. ( 28 ) Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The object in compiling and publishing this 'Cyclopaedia of Vardhamana, as they have Called it, is to indicate. with references the known sources quoting the different texts with their Hindi translations, on almost all the details or data relating to Bhagawan Vardhamana Mahavira (599 527 B.C), the 24th and last Thirthankara of the Jaina tradition. The sources utilised include the canonical texts, their commentaries and the non canonical literature of the Shvetambara tradition, alongwith the more important works of the Digambara tradition, a few of Buddhish and Brahamanical works relevant to the purpose, and some later encyclopaedia. dictionaries and reference volumes. Part-I of the Kosha contained details of the life of the great Hero from his conception to Nirvana, whereas Part-II, the present volume, deals with the 33 or so previous births of Mahavira, as gleaned from the Shvetambara and Digambara sources incidentally facilitating a comperative study of the two traditional accounts, besides, the five Kalyanakas or auspicious events of his life, his aliases or epithets, his eulogies, his Samavasarana, Divya, dhwani or Discourse Divine, his sanghs or the fourifold order. his disciples including the Eleven Ganadharas headed by Indrabhuti Gautamas with particulars about each, and many other minor or miscellaneous details On many points, the information collected in this part supplements that contained in the first part. The topics have been classified and arranged in the international decimal system as adapted by the editors of this Kosha and used in their earlier topical dictionaries, mentioned above. There is no doubt as to the value and usefulness of this unique opical dictionary of the Tirthankara Mahavira for scholars and research Workers. We heartily congratulate the Learned Pt Srichand Choraria or accomplishing this very painstaking and time-consuming task so atisfactorily. The Jain Darshan Samiti and its Office bearers deserve hanks for publishing the Volume. yoti Nikunj. Charbagh Lucknow-19 (U.P.) 2th June, 1984 ( 29 ) (JYOTI PRASAD JAIN) Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका का हिन्दी अनुवाद यह युग विधिवद्ध खोज व शोध का है । अतः जब कोई विद्वान किसी विषय पर शोध करता है तो वह किसी परम्परा से प्राप्त तथ्य पर ही केवल निर्भर नहीं करता चाहे वह तथ्य ग्रन्थ, शिलालेख या कहावत रूप से प्राप्त हुआ हो। जबकि सरल विश्वासी मानव जिस परम्परा में वह विश्वास रखता है उसके शास्त्र इतिहास पुराण को निर्विवाद रूप से सत्य मान लेता है तब आधुनिक अन्वेषक उस विषय पर जहां भी जो कुछ भी प्राप्त हो सके उसे प्राप्त करने का एवं प्राप्त तथ्यों को विशद् रूप से निरीक्षण व विभिन्न दृष्टिकोणों से परखने का प्रयास करता है। ज्ञान-विज्ञान के किसी भी विषय या शाखा जिसमें विद्वानों की रूची जागृत हो सकती है उस विषय या शाखा से सम्बन्धित विभिन्न प्रकार के तथ्य ग्रन्थों की खोज, प्रकाशन उनकी सहजतया प्राप्ति तथा विशद् अध्ययन शोध की इस असीमित प्रवृत्ति तथा तथ्य को समग्र रूप से यथाक्रम समझने के प्रयास को प्रोत्साहित किया है। शोध खोज के लिए प्राप्त विभिन्न प्रकार के विभिन्न विषयों से सम्बन्धित ग्रंथों की आज कोई कमी नहीं है। सत्य तो यह है कि इसने अन्वेषक के कार्य को और भी जटिल बना दिया है, समय सापेक्ष बना दिया है। अतः इनके कार्य को सहज व सुगम करने के लिए ही विभिन्न प्रकार के सन्दर्भ ग्रंथों की बड़ी उपयोगिता है। इन सन्दर्भ ग्रंथों से भी अधिक उपयोगिता है वर्गीकृत कोषों को। __ जैन विद्या के क्षेत्र में अभिधान राजेन्द्र कोश, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश जैसे कोश ग्रंथ एवं ग्रन्थ पंजियों, प्रशस्ति संग्रह हस्तलिखित ग्रंथों की सूचियां, पारिभाषिक शब्द सूचियां ऐतिहासिक व्यक्ति व स्थानों का अभिधान, शिलालेख संग्रह व अन्य ऐतिहासिक प्रमाण जैसे वंशावलियाँ विज्ञप्ति पत्र आदि प्रकाशित हो चुके हैं। ये सभी सन्दर्भ ग्रन्थ जैन विद्या के अन्वेषकों के लिए बड़े सहायक होते हैं। किन्तु वर्गीकृत कोशग्रंथ जैसा कि प्रस्तुत ग्रंथ हमारे हाथों में है उपरोक्त सभी ग्रंथों से कुछ भिन्न है । जैन धर्म दर्शन एवं पुराण के वर्गीकृत कोश ग्रन्थों के रचना क्षेत्र में शायद स्वर्गीय मोहनलालजी बांठिया ही प्रथम व्यक्ति हैं जिन्होंने इसके प्रयोजन को समझकर उसे क्रियान्वित करने का प्रयास किया है। सौभाग्य से उन्हें इस कार्य के लिए पं० श्रीचन्दजी चोरडिया जैसे कर्मठ समर्पित व समर्थ व्यक्ति का सहयोग भी प्राप्त हो गया। इस कार्य के लिए एक हजार विषयों की योजना बनाई गई जिसमें अभी तक लेश्या कोश (१९६६) क्रिया कोश (१९६९) वर्धमान जीवन कोश भाग-१ (१९८०) प्रकाशित हो चुके हैं एवं वर्धमान जीवन कोश का यह दूसरा भाग आपके सम्मुख है । वर्धमान जीवन-कोश के प्रकाशन में उनका उद्देश्य यह था कि चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर के जीवन (५६६-५२७ ई० पू०) से सम्बन्धित समस्त तथ्य जहां से भी जो कुछ भी प्राप्त हो उसे सन्दर्भ व हिन्दी अनुवाद सहित प्रकाशित करना। इस कार्य के लिए उन्होंने आगम ग्रन्थ उनकी टीकायें, श्देताम्बर व दिगम्बर आगमेतर ग्रन्थ, कुछ बौद्ध एवं ब्राह्मण्य ग्रन्थ एवं परवर्ती कालीन कोश, अभिधान अ'द का भी उपयोग किया है। वर्धमान जीवन-कोश भाग ( 80 ) Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक में भगवान महावीर के गर्भ प्रवेश से निर्वाण तक का जीवनवृत्त संकलित किया गया है। भाग दो में उनके ३३ पूर्व भवों का विवरण है जो कि श्वेताम्बर व दिगम्बर परम्परा से लिया गया है। इससे तुलनात्मक अध्ययन सुगम हो जाता है। इसके अतिरिक्त इसमें भगवान महावीर के पांचों कल्याणक, नाम एवं उपनाम, उनकी स्तुतियां, समवसरण, दिव्यध्वनि, संघ विवरण, इन्द्रभूति आदि ग्यारह गणधरों का पृथक-पृथक विवरणादि संकलित है।। इस भाग में संकलित अनेक विषय बहुधा प्रथम भाग में संकलित विषयों के परिपूरक हैं । विषयों को इसमें अन्तर्जातीय दशमलव के रूप में विभाजित व संकलित किया गया है जैसा कि सम्पादकों ने उपरोक्त वर्गीकृत कोश ग्रन्थों में किया है। विद्वान् अन्वेषकों के लिए तीर्थंकर भगवान महावीर के इस भांति के वर्गीकृत कोश ग्रन्थों की उपादेयता के विषय में कोई दो मत नहीं हो सकता। परिश्रम साध्य व समय सापेक्ष इस कार्य को इतने सुचारू रूप से सम्पादन करने के लिए हम विद्वान पण्डित श्री श्रीचन्द चोरड़िया का आन्तरिक भाव से अभिनन्दन करते हैं । साथ ही जैन दर्शन समिति और उनके कार्यकर्ताओं को भी इसके प्रकाशन के लिए धन्यवाद देते हैं। ज्योति निकुंज ज्योतिप्रसाद जैन चार बाग, लखनऊ १२ जून, १९८४ ( 31 ) Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय सूची •००४ विषय पृष्ठ संकलन-संपादन में प्रयुक्त ग्रन्थों को संकेत सूची आशीर्वचन -आचार्य तुलसी 7 जन वाङ्मय का दशमलव वर्गीकरण जीव का वर्गीकरण जीवनी का वर्गीकरण प्रकाशकीय प्रस्तावना दो शब्द -नवरतनमल सुराना 26 भूमिका (Foreword) -डा. ज्योतिप्रसाद जैन 28 भगवान (महावीर) के पूर्व भव पूर्व भव विवेचन अनन्त-संसार-भ्रमण भगवान महावीर का जीव ग्रामचिंतक-नयसारभिल्ल-पुरूरवाभिल्ल के भव में पूर्वभव में प्रथम बार सम्यक्त्व प्राप्तभगवान महावीर का जीव--सौधर्मकल्प देव में भगवान् महावीर का जीव-मरीचिकुमार भव में-नीच गोत्रकर्म का उपार्जन भावी तीर्थकर वर्धमान मिथ्यामत की प्ररूपणा-शिष्यत्व के लोभ से मरीचि के शिष्य कपिल द्वारा सांख्य दर्शन का प्रवर्तन भगवान् महावीर का जीव ब्रह्मकल्पदेव मेंभगवान महावीर का जीव-कौशिक परिव्राजक भव में अथवा जटिल ब्राह्मण भव में (क) कौशिक परिव्राजक भव में (श्वे) (ख) जटिल ब्राह्मण भव में (दिग्० ) चतुर्गति संसारभ्रमण • worror .. . .०४ Mr m •०५ ( 32 ) Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 विषय .०६ ईशान स्वर्गदेव अथवा सौधर्म स्वर्गदेव भव में .०६.१ सौधर्म स्वर्ग के देव भव में (श्वे.) ०६.२ सौधर्म स्वर्ग के देव भव में (दिग०) '०७ पुष्यमित्रपरिव्राजक अथवा पुष्यमित्र ब्राह्मण भव में •०७० संसार भूमण •०८ सौधर्मकल्पदेव अथवा ईशानकरूपदेव भव में .०८क संसार भ्रमण •०६ अग्निद्योत परिव्राजक अथवा अग्निसह (अग्निशिख) ब्राह्मण भव में १. ईशान कल्पदेव-या सानत्कुमार देव भव में .१०क संसार भूमण .११ अग्निभूति पारिबाजक या अग्निमित्र प्राह्मण •११क संसार भूमण .१२ सनत्कुमार देव-या माहेन्द्र कल्पदेव भव में .१२क संसार भूमण •१३ भारद्वाज परिव्राजक भव में "१३क संसार भूमण .१४ माहेन्द्र कल्पदेव भव में .१४क संसार भूमण (श्वे०) .१४% बस-स्थावर योनि के असंख्यात भव (दिग०) '१५ स्थावर परिव्राजक भव में .१६ ब्रह्मलोक कल्पदेव अथवा माहेन्द्र कल्पदेव भव में .१६क संसार भूमण .१७ विश्वभूति क्षत्रिय के भव में .१८ महाशुक्र कल्पदेव भव में १६ त्रिपृष्ठ वासुदेव के भव में १९.१ त्रिपृष्ठ वासुदेव का ममयकाल .१९२ प्रथम दो चक्रवर्ती के बाद-त्रिपृष्ठ वासुदेव १९.३ त्रिपृष्ठ वासुदेव के माता-पिता के नाम १९०४ त्रिपृष्ठ वासुदेव का निदान-पूर्व भव का १९.५ त्रिपृष्ठ वासुदेव के प्रतिशत्रु ( 33 ) л ял о е Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ od ७४ विषय १९.६ त्रिपृष्ठ वासुदेव के पिता का पुत्री से विवाह •१६७ त्रिपृष्ठ वासुदेव का अवतरण १९८ त्रिपृष्ठ वासुदेव के प्रतिशत्रु-अश्वग्रीव प्रतिवासुदेव '१६९ वासुदेवों में विपृष्ठ प्रथम वासुदेव था .१९.१० त्रिपृष्ठ वासुदेव द्वारा केशरी सिंह का मारा जाना .१९.११ त्रिपृष्ठ वासुदेव द्वारा अश्वग्रीव प्रतिवासुदेव का मारा जाना •१९.१२ त्रिपृष्ठ वासुदेव का राज्याभिषेक १९.१३ त्रिपृष्ठ भव में कार्मो का गाढ बंधन '२. सप्तम नरक के नारकी के भव में '२१ सिंह के भव में '२२ चतुर्थ नरक अथवा प्रथम नरक के नारकी के भव में .२२कतिपय तिर्यग-मनुष्य एव में '२३ सिंह के भव में .२४ सौधर्म स्वर्ग का देव २५ कनकोज्ज्वल राजा-कनकप्रभ राजा लाम्तव स्वर्मकादेव •२७ हरिषेण राजा •२८ महाशुक्र स्वर्ग का देव .२९ प्रियमित्र-प्रियदल चक्रवर्ती के भव में •२९१ जन्म •२६२ प्रियमित्र-चक्रवर्ती की छह-बाड पर विजय (क) मागम तीर्थं पर विजय (ख) वरदाम तीर्थ आदि पर विजय •२६.३ एक विवेचन '२९.४ पोट्टिलभव (प्रियमित्र पक्रवर्ती) में (दिग० ब श्वे. मान्यता) •३. सहस्त्रार स्वर्ग का देव-भषया महाशुक्र का देव • नन्द-मन्दन राजा .३११ नन्दन राजा-नंदीवर्धन राजा-मालिक राजा थे। ५१.२ नन्दराजा-मंदीवर्धन राजा के-तीर्थकर प्रकृतिका १२ अग्युत स्वर्ग- प्राणत स्वर्म का देक . ला W : UUN ( 34 ) Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ १०१ १०१ १०३ १०३ १०८ १०८ १११ विषय •३२.१ देव रूप में उत्पन्न '३२.२ अच्युत स्वर्ग का इन्द्र अथवा प्राणत स्वर्ग का इन्द्र '३२३ आहार-श्वासोच्छ्वास-ज्ञान •३२.४ पुष्पोत्तर विमान में भगवान महावीर का जीव और भाविजन्म-क्षेत्र में धनवर्षा '३३ वर्धमान तीर्थकर-भगवान् महावीर '३३.१ गर्भप्रदेश •३३.२ प्रियकारिणी ( त्रिशला ) के गर्भ के समय धन-वर्षा '३३क भगवान् महावीर-देवानंदा-गर्भ में .३३ख त्रिशला-गर्भ में ( सिद्धार्थ राजा की पत्नी ) •३३ख १ गर्भ विवेचन •३३ख'२ गर्भका प्रभाव-त्रिशला के गर्भ के समय धन-वर्षा •३३ख.३ त्रिशला के गर्भ में अभिग्रह •३३ख ४ वर्धमान का वंश •३३ख ५ बर्धमान भगवान् का शरीर •३३ख ६ वर्धमान भगवान् के शरीर के अवयवों का विवेचन (क) शिख-नख विवेचन •३३ख ७ बाल्यावस्था में अध्ययन '३३ख' बु.मारादि पर्याय '३३' आमलकी क्रीडा '३३ख १० चक्रवर्ती की कल्पना •३३ख.११ भगवान् के अभिनिष्क्रमण का विचार और नंदीवर्धन •३३ख'१२ नंदीवर्धन के आग्रह पर दो वर्ष और गृहस्थावास में •३३ख.१३ साधिक दो वर्ष में विविध-नियम .१- रात्रि-भोजन न करने तथा सचित्त जल न पीने की प्रतिज्ञा '२- एकत्व भावना •३३ख १४ जीव-सचित्त-अचित्त का ज्ञान '३३ख १५ दीक्षा-पर्याय •३३१६ प्रथम-भिक्षा-दाता ने कैसी भिक्षा दी .३३ख १७ जम्भक देवों द्वारा प्रथम पारणे में वृष्टि •३३.१८ भगवान् के छद्मस्थ-अवस्था का ज्ञान १११ ११२ ११२ ११५ ११५ ११५ ११६ ११६ ११६ ११७ ११७ ११८ ११८ ११८ ( 35 ) Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय * १ कर्म और कर्मफल का ज्ञान *३३ख १६ वर्धमान से चतुर्थ प्रहर में केवलज्ञान की उपलि '३३ख २० ज्ञान कल्याणक • १ देवों द्वारा महोत्सव * २ केवलज्ञानोत्पत्ति के समय आसनकंपन *३३ख २१ वर्धमान की अंतक्रिया और परिनिर्वा • ३३ख २२ भगवान् के पर्यायवाची नाम १ महामाहण २ महागोप ·३ महासार्थवाह •४ महाधर्मकथ * ५ महानियमक *३३ख २३ मंगल और तप शब्दों में वर्धमान • १ वद्धमाणक (वर्द्धमानक) २ आयंबिल वद्धमाणं (आयंबिल वर्द्धमान ) • ३३ख २४ तोर्थप्रवर्तन काल '३३ख २५ बर्धमान के समय चारित्र '३३ख २६ भगवान् महावीर और दीपमालिका ०३३ २७ वर्धमान महावीर भगवान् को स्तुति * १ सूयगडी (सूत्रकृतांग ) से २ कसा पाहु से *३ अग्यान्य आगमों से '४ अन्यान्य ग्रन्थों से *३३ २७ जनेतर ग्रन्थों में *३४ १ ब्राह्मण ग्रन्थों में २ बौद्ध ग्रन्थों में दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्पराओं में भगवान महावीर के जीवनवृत विषयक भाग्माय भेद वर्धमान की जन्म कुंडली वर्धमान महावीर और समवसरण देशना कोठों का विस्तार ( 36 ) पृष्ठ ११६ ११६ १२० १२० १२१ १२१ १२१ १२१ १२१ १२२ १२२ १२३ १२३ १२३ १२३ १२३ १२३ १२४ १२४ १२४ १३२ १३३ १३५ १३७ १३७ १३७ १३६ १३६ १४० rrr Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय भगवान् महावीर और चतुविध संघ की उत्पत्ति द्वितीय समवसरण में तीर्थोत्पत्ति भगवान् महावीर और दिव्यध्वनि दिगम्बर मतानुसार गौतम के प्रश्न गौतम के प्रश्न करने पर प्रथम देशना भगवान् द्वारा दिव्यध्वनि के द्वारा उपदेश दशभिः प्रोक्तः परीतेन जिनेशिना श्वेताम्बर मतानुसार भगवान् की द्वितीय देशना अपापा नगरी में द्वितीय समवसरण में तीर्थ की स्थापना भगवान् महावीर और समवसरण । - १६० १६१ देशना का निष्कर्ष - अपापा नगरी के द्वितीय समवसरण में चतुविध संघ की स्थापना आर्यचन्दना को प्रवर्तिनी पद पर स्थापित भगवान महावीर की देशना द्वितीय धर्म देशना भगवान् महावीर की अन्तिम देशना के समय इन्द्रभूति (गौतम) भगवान् के निकट नहीं थे भगवान् की अंतिम देशना ( अन्तिम रात्रि में ) भगवान् महावीर को अन्तिम देशना १६१ १६२ १६३ भगवान् की अंतिम देशना की समाप्ति पर राजा हस्तिपाल राजाके द्वारा देखे गये आठ स्वप्नों की अर्थ पूछा १६३ भगवान की अंतिम देशना की समाप्ति पर हस्तिपाल राजा के आठ स्वप्नों का अर्थ स्वयं पूछना - १६५ १६० -- १६८ भगवान महावीर की राजगृह में धर्म देशना (धनुमार के दीक्षित वर्ष में) ब्राह्मण कूंडग्राम में धर्मदेशना ( ऋषभदत्त - देवानन्दा दीक्षित) हुए चंपानगरी में धर्म देशना ( कृणिक राजा, सुभद्रादि देवियों के समक्ष ) अन्यान्य नगर में भगवान् की धर्म देशना १६९ १७० १७२ १०२ १७२ १७२ श्रमण भगवान् महावीर के विविध विशेषण भगवान् महावीर और दुर्गम स्थान भगवान् महावीर और उनका प्रवचन भगवन् महावीर से उपदिष्ट और अनुमत पांच वस्तु भगवान् महावीर से उपदिष्ट एवं अनुमत पांच स्थान भगवान् महावीर से उपदिष्ट एवं अनुमत पांच स्थान भगवान महावीर से उपदिष्ट एवं अनुमत पांच स्थान " 32 17 --- "2 ( 37 ) पृष्ठ - १४७ १४७ १४८ १४० १५० १५० १५२ १५७ १५७ १६० १७३ १७३ १७३ १७४ १७४ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ विषय भगवान महावीर से. उपदिष्ट एवं अनुमत पांच स्थान १७४ १७५ १७६ १७६ १७७ १७८ 0 १७९ १६ भगवान महावीर के शासन और अन्य तीर्थंकरों के शासन में अंतर•४०/६९ वर्धमान (महावीर) और शासन संपदा •४०/४६ वर्धमान के ग्यारह गणधरों का विवेचन •४०/१ मौधिक गणधर विवेचन १ सोमिल ब्राह्मण द्वारा यज्ञ और गणधर-गणधरों के माम (पवे.) *२ गणघर-परिवार (गणघर के साथ दीक्षित ) •३ . गणधर की व्याख्या '४ गौतम गणधर के संशय "५ अग्निभूति के संशय , . .६ वायुभूति के संशय ७ व्यक्त गणधर के संशय '८ सुधर्म गणधर के संशय षष्ठम गणधर-मंडित के संशय सप्तम गणघर-मौर्यपुत्र के संशय अष्टम गणधर --अकंपित के संशय. .१२ नवम गणधर-अचलभाता के संशय *१३ दशमम् गणधर-मेतार्य के संशय एकादशम् गणधर-प्रभास के संशय गणधरों का सामान्य विवेचन १६ भगवान महावीर के गण और गणधर'१७ अंगपूर्वो की रचना और गणधर .१८ गणघरों का श्रुत १९ मणघर और तीर्थ *२. गणधरौ को प्रमुखता २१ गणवर और वर्षावास '२२. भगवान् के गणधरों का परिनिर्वाण 6 dr . or . , SV VI V . . . . १८१ १८१ १४ १८१ १८१ १८३ १८६ १८७ १८७ १८७ १८८ १८८ ( 38 ) Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ १८६ १६० १९० १६१ १६१ '२८ १६१ १९२ १६२ १६३ १९३ १६३ विषय •२३ भगवान् के अंतिम समय-काल में-सिर्फ दो गणधर थे .२४ गणधरों की जन्मभूमि '२५ गणधर और काल-नक्षत्र-चन्द्र-योग "२६ गणधरों के पिता के नाम •२७ गणधरों की माता के नाम गणधरों का गोत्र :२६ गणधरों की आगार पर्याय - ३. गणघरों का छद्मस्थकाल '३१ गणधरों का केवलिकाल-जिनपर्याय १२ गणधरों की आयु-सर्वायु •३३ सब गणधरों के शरीर के संहनन और संस्थान •३४ . सब गणधर लब्धि सम्पन्न थे '३५ परिनिर्वाण के समय तप '३६ गणधरों की श्रुत साधना-आगम अध्ययन '३७ भगवान् के परिनिर्वाण के समय-इन्द्रभूति और सुधर्म गणधर थे ४१ प्रथम इन्द्रभूति (गौतम) गणधर ' ४१.१ गौतम गणधर और सौधर्म इन्द्र का प्रश्न ४१.२ गणधर गौतम का भगवान महावीर के पास आगमन ४१.३ अपापा नगरी में दीक्षा ग्रहण ४१.४ गौतम गणधर को सात ऋद्धियां व चतुर्दश पूर्वो का ज्ञान ४१.५ गौतम का दूसरा नाम इन्द्रभूति ४१.६ इन्द्रभूति के माता-पिता के नाम ४१.७ गौतम गणघर-प्रथम गणधर ४१. साधु-समुदाय में प्रमुख इन्द्रभूति ४१. गौतम स्वामी के छद्मस्थावस्था का एक विवेचन ११.१.छद्मस्थावस्था में गौतम गणधर ने छठ-तप-बेले-बेले की तपस्या अनेक बारकी १.११ गौतम की जिज्ञासा १.१२ केशी और गौतम संवाद .१२.१ केशी-गौतम-मिलन १२२ केशी-गौतम संवाद १६४. १६५ १६६ २०६ २०६ २०७ २०० २१० २१० २१४ ( 39 ) . Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ २१४ २१५ २१६ २१७ २१५ २२० विषय (क) चारयाम ( महाप्रत ) के सम्बन्ध में (ख) सचेलक-अचेलक के सम्बन्ध में (ग) अंतरंग शत्रुओं के सम्बन्ध में (घ) पाश ( रागद्वेषादि ) सम्बन्ध में (च) लता के सम्बन्ध में (छ) अग्नि ( क्रोध-मान-माया-लोभ ) के सम्बन्ध में (ज) ( मनरूपी ) दुष्ट अश्व के विषय में (स) सन्मार्ग-कुमार्ग के सम्बन्ध में (अ) धर्भरूप द्वीप के सम्बन्ध में (ट) नौका के सम्बन्ध में (3) सच्चे सूर्य के सम्बन्ध में (३) क्षेमरूप-शिवरूप-बाधा-पीड़ा रहित स्थान के सम्बन्ध में •४१.१२.३ गौतम स्वामी से केशी स्वामी ने चार महाब्रत से पाँच महाव्रत ग्रहण किये •४१.१२.४ श्रमण भगवान महावीर की समकालीन अवस्था में गौतम स्वामी का भिक्षार्थ जाना .४१.१२.५ गौतम गणधर और माणंद श्रावक •१ वाणिज्य ग्राम में भिक्षार्थ आज्ञा मानना-भिक्षार्थ जाना '२ गौतम द्वारा आनन्द की चर्चा विषयक समाचार का श्रवण '३ गौतम का मानन्द के पास पहुंचना । •४ आनन्द ने गौतम स्वामी को अपने पास आने का निवेदन किया .५ आनन्द द्वारा अपने ज्ञान की सूचना '६ गौतम का संदेह और आनन्द का उत्तर •७ गौतम का शंकित होकर भगवान के पास आगमन •८ गौतम द्वारा क्षमा याचना “४१:१२.६ महाशतक श्रावक और गौतम गणधर .१ गौतम का आगमन २ महाशतक का भूल स्वीकार करना और प्रायश्चित्त करना '३ गौतम का महाशतक श्रावक के घर से वापस आना ४१.१२.७ अन्य तीथियों से गौतम स्वामी का वाद-विवाद १ अन्य तीथियों द्वारा प्रश्न '२ अन्य तीथियों के साथ सैद्धान्तिक मतभेद .३ भगवान महावीर द्वारा गौतम स्वामी की प्रशंसा २२१ २२२ २२२ २२२ २२३ २२.३ २२४ २२५ । २२५ २२६ २२६ २२७ USU २२८ २२९ २२६ २२९ २२९ २३० ( 40 ) Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३१ २३३ २३३ २३४ २३४ २३४ २३५ २३५ २३५ २३५ २३५ २३५ २३६ विषय २.८ परिनिर्वाण के दिन गौतम गणधर को देवशर्मा को प्रतिबोधार्थ भेजा २.६ इन्द्रभूति को केवलज्ञान २.१० वर्धमान महावीर के पश्चात धर्म का प्रवर्तन ११ गौतम का परिनिर्वाण १२ इन्द्रभूति का एक विवेचन .१३ इन्द्रभूति-सर्वलब्धि सम्पन्न थे १४ संहनन और संस्थान १५ इन्द्रभूति का जन्म-नक्षत्र १६ गौत्र १७ गृहस्थपर्याय १८ छमस्थपर्याय १६ केवलिपर्याय •२० इन्द्रभूति का परिनिर्वाण-भगवान महावीर के पश्चात •२१ गौतम गणधर का श्रुत २२ गौतम गणधर की आयु २३ परिनिर्वाण के समय तप ४२. द्वितीय अग्निभूति १ अग्निभूति का श्रमण भगवान् महावीर के पास आगमन और दीक्षा ग्रहण __ २ दीक्षा के समय-अग्निभूति की आयु •३ अग्निभूति के माता-पिता के नाम '४ अग्निभूति गणधर-द्वितीय गौतम से सम्बोधित .५ अग्निभूति का परिनिर्वाण-परिनिर्वाण के समय अवस्था ४३. तृतीय वायुभूति ( तृतीय गौतम ) गणधर ४३१ वायुभूति का भगवान् महावीर के पास आगमन-संशय का निवारण और दीक्षा ४३.२ वायुभूति के माता-पिता के नाम ४३३ वायुभूति गणधर-तृतीय गौतम से संबोधित ४३.४ वायुभूति की आयु " वतुर्थ गणधर-व्यक्त ४४१ व्यक्त गणधर का भगवान् महावीर के पास आगमन २. व्यक्त स्वामी के माता-पिता के नाम २३६ २३६ २३६ २३६ २४० २४० २४१ २४१ २४२ २४२ २४४ २४४ - २४५ २४५ २४५ २४७.. ( 41 ) Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय *४४३ व्यक्त गण घर की आयु *४५ ४५१ सुधर्मा गणधर का भगवान् के पास आगमन, संशय निवारण और दीक्ष ४५२ सुधर्मा गणधर के माता-पिता के नाम *४५३ आर्य सुधर्मा का गौत्र पंचम गणधर - सुधर्मा गणधर *४५४ सुधर्मा के जन्म के समय नक्षत्र का योग *४५५ गणधर सुधर्मा का श्रुत • १ दीक्षा के पूर्व का श्रुत *२ द्वादशांगी से पूर्व - पूर्वो की रचना *४५६ संहनन और संस्थान *४५७ आर्य सुधर्म का आयुष्य *४५८ सुधर्मा गणघर का एक विवेचन *४५१ सुधर्म का कैवल्यकाल और परिनिर्वाण *४५*१० सुधर्मा गणधर से जम्बू स्वामी के प्रश्नोतर *४५११ भगवान् महावीर के पट्टपर सुधर्मा गणधर *४५१२ सुधर्मा गणधर का मासिक अनशन में परिनिर्वाण *४५१३ सुधर्मा गणधर की निर्वाण भूमि *४५*१४ सुधर्मा गणधर की बुतसाधमा ४५१५ आर्य सुधर्मा की अपत्य परम्परा या वंश-परम्परा *४५१६ सुधर्मा के पट्टधर जम्बूस्वामी * १ जम्बू स्वामी - एक विवेचन २ जम्बूस्वामी ३ जम्बू जाव पज्जुवासामि ४ म के पट्टधर जम्मू स्वामी वे *४५१७ सुधर्म गणधर के पट्टधर जम्मू के अनन्तर कतिपय विच्छेद *४५१८ सुधर्मा गणधर के बाद जम्बूस्वामी आदि ४५१९ भगवान् के परिनिर्वाण के बाद सुधर्मा स्वामी चम्पानगरी में *४५२० सुधर्मा गणधर के बिहार ( भगवान् महावीर के परिनिर्वाण के बाद ) • ४५ षष्टमंडित गणधर ( 42 ) पृष्ठ २४७ २४० २४७ २४६ २४६ २४६ २५० २५० २५० २५० २५१ २५१ २५४ २५५ २५६ २५७ २५८ २५८ २५८ २५८ २५८ २५६ २५६ २६० २६० २६० २६१ २६२ २६२ २६२ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय *४५१ मंडित मंडिक गणधर का भगवान् के पास आगमन *४५*२ मंडित के मातापिता के नाम • ४५३ मंडित गणधर की श्रमण-पर्याय *४५८ मंडित पुत्र को आयु *४५*५ परिनिर्वाण के समय तप ४६ सतम मौर्यपुत्र गणधर • ४६१ मौर्यपुत्र का श्रमण भगवान् महावीर के पास आगमन *८६२ मीर्यपुत्र के माता-पिता के नाम • ४६३ दोक्षा के समय मौर्यपुत्र की अवस्था ४६४ मौर्यपुत्र का आयुष्य *४७ अष्टम - अकंपित गणधर *४७१ अकंपित गणधर का भगवान् महावीर के पास आगमन *४७२ अकंपित के माता-पिता के नाम • ४७.३ अकंपित गणधर की आयु *४८ नववें - अचलभ्राता गगधर *४८१ अचलभ्राता का श्रमण भगवान् महावीर के पास आगमन *४८२ अचलभ्राता के माता-पिता के नाम *४८३लाता गणधर के शरीर का संहनम-संस्थान *४८४ अचलभ्राता गणधर की आयु *४१ (क) दशम -- गणधर मेतार्य '४६ (क) १ मेतार्य गणधर का श्रमण भगवान् महावीर के पास आगमन और दीक्षा ग्रहण • २ मेतार्य गणधर के माता-पिता के नाम •३ मेतार्य गणधर के संशय •४ मेतार्य गणश्वर का जन्म नक्षत्र *५ मेतार्थ गघर का गोत्र ६ मेतार्य गणबर की आगारपर्याय गृहस्थपर्याय * मेतार्य गणधर की छमस्थ दीक्षा पर्याय * दीक्षा के पूर्व मेतार्य गणधर का अध्ययन • मेतार्य गणधर का केवलिकाल - जिनपर्याय • १० मेतार्य गणधर की आयु ( 43 ) पृष्ठ २६२ २६४ २६४ २६४ २६४ २६५ २६५ २६६ २६७ २६७ २६५ २६८ २७० २७० २७० २७० २७२ २७२ २७२ २७३ २७३ २७४ २७४ २७४ २७४ २७५ २७५ २७५ २७५ २७५ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ २७६ २७६ २७६ २८० २८. विषय • ४६ (ख) ग्यारहवें गणधर-प्रभास .१ प्रभास गणधर का भगवान् महावीर के पास आगमन .२ प्रभास गणघर के माता-पिता के नाम '३ प्रभास गणधर का परिवार ( गणधर के साथ दीक्षित) .४ प्रभास गणधर के संशय .५ प्रभास गणधर का श्रुत-अध्ययन •६ प्रभास गणधर का जन्म-मक्षत्र .७ प्रभास गणधर की आगार पर्याय-गृहस्थ पर्याय '८ प्रभास गणधर का गौत्र और जाति ९ प्रभास गणधर की छद्मस्थ-दीक्षा-पर्याय '१० प्रभास गणधर का केवलिकाल-जिनपर्याय ११ प्रभास गणधर की आयु-सर्वायु •४६(ग) विविध .१ द्वादशांग का उपदेश •२ भगवान महावीर और गौतम का भवान्तरीय सम्बन्ध '३ भगवान के परिनिर्वाण के दिन ज्येष्ठ अनगार गौतम को केवल ज्ञान-केवल दर्शन समुत्पन्न .४ परिनिर्वाण के दिन गौतम स्वामी निकट में नहीं थे •५ अग्निभूति की अवगाहना .६ ग्यारह गणधरों के नाम-परम्परा में भिन्नता •७ आमीषधि आदि लब्धि सम्पन्न थे ८ गौतम के प्रश्नोत्तर की जिज्ञासा • गणधर के उपदेश का समय .५० भगवान् पार्श्वनाथ के संतानीय शिष्य ५०.१ उदयपेढालपुत्र और गौतम गणघर के प्रश्नोत्तर ५०२ उदयपेढालपुत्र का भगवान् गौतम के निकट-आगमन "५० ३ उदयपेढालपुत्र का प्रश्न ५०.४ भगवान् गौतम का उत्तर •५०५ उदयपेढालपुत्र का प्रतिप्रश्न .५०६ भगवान् गौतम का प्रत्युत्तर ५०.७ उदयपेढालपुत्र का-सपक्ष स्थापना २६० is i V xxx Mm SV ... २८४ २८६ .. i .. in . in .. o .. n ( 44 ), Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ २९. २९० २६४ २६९ ३०३ ३०५ ३०७ ३०७ विषय ५०.८ भगवान् गौतम का प्रत्युत्तर .५०६ श्रमण-दृष्टांत •५०.१० प्रत्याख्यान-विषय-उपदर्शन •५०११ नव-भंगी प्रत्याख्यान ५०.१२ स-स्थावर-प्राणियों का अविच्छिन्न •५०१३ उपसंहार-पद •५१ गौतम गणधर के प्रश्न .५२ परिनिर्वाण के दिन भगवान महावीर ने गौतम गणधर को देवशर्मा को प्रतिबोधार्थ भेजा “५३ भगवान् महावोर का परिनिर्वाण सुनकर गौतम का विलाप और केवलज्ञान •५३.१ भगवान् के परिनिर्वाण को रात्रि को गौतम का क्रन्दन •५३.२ भगवान के परिनिर्वाण के दिन गौतम गणधर को केवलज्ञान की उपलब्धि •५४ ग्यारह गणघरों के नाम (दिग्०) ५५ श्रमणी संघ को प्रतिनो ( अग्रणी )-आर्य चन्दना ( साध्वी प्रमुखा) चन्दनबाला .५५२ अभिग्रह फलित होने पर देवों द्वारा वृष्टि .५५.३ दीक्षा-ग्रहण-भगवान महावीर से "५५°४ भगवान् महावीर को मुखिया-चंदना साध्वी .५५५ चन्दना आर्या को केवलज्ञान की उत्पत्ति MMMC ३०१ ३०१ ३२५ سه m له . ( 45 ) Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान (महावीर) के पूर्वभव .०० / ४ पूर्वभव विवेचन .०० अनन्त संसार - भ्रमण अनन्त संसार भ्रमण के पश्चात् भगवान महावीर के जीव का सर्वप्रथम मिथ्यात्व से निगम : (क) एतच्च सर्वं भगवन्महावीरलक्षणद्रव्याधी नमतस्तस्यैव प्रथमतो मिथ्यात्वादिभ्यो निर्गममभिधित्सुराह-- आव० निगा० १४२ । टीका विप्पणट्ठाणं । वद्धमाणस्स || पंथ किर देसित्ता साहूणं अडवि सम्मत्तपढमलंभो मलयटीका -- पन्थानं 'किले' त्याप्तवादे देशयित्वा - कथयित्वा साधुभ्यः, सूत्र े षष्ठी प्राकृतत्वात्, 'अडवि' त्ति प्राकृतत्वादेवात्र सप्तम्या लोपः अटव्यां पथो विप्रनष्टेभ्यः, परिभ्रष्टेभ्यः, पुनस्तेभ्यः एव देशनां श्रुत्वा सम्यक्त्वं प्राप्तः, एवं सम्यक्त्व प्रथमलाभो बोद्धव्यो वर्द्धमानस्येति गाथाक्षरार्थः । - आव० निगा० १४३ अटवी में पथभ्रष्ट साधुओं को सही पथ दिखाने से तथा उन साधुओं की देशना श्रवण करने से भगवान महावीर के जीव को मिथ्यात्वादि से निर्गमन होकर, सम्यक्त्व की पहली बार प्राप्ति हुई । (ख) घत्ता - बहु- दुरिय-महल्ले मिच्छा सल्लें विविह- देह - संघारइ | भरसर-णंदणु संसय-हय- मणु चिरूहिंडिवि संसारइ ॥५॥ - वीरजि० संधि १ । कडवक ५ भगवान महावीर का जीव अनेक जन्मों में अनेक प्रकार के शरीर धारण किये और वह मरीचि भरतेश्वर पुत्र होकर भी मन में सराय के आघात से चिरकाल तक संसार में भ्रमण करता रहा । * Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .०१ भगवान् महावीर का जीवग्रामचिंतक- नयसार भिल्ल-पुरुरवाभिल्ल के भव में पूर्वभव में प्रथम सम्यक्त्व प्राप्त(क) मलयटीका-xxx एतच्च सर्व भगवन्महावीरलक्षणद्रव्याधीनमतस्तस्यैव प्रथमतो मिथ्यात्वादिभ्यो निर्गममभिधित्सुराह पंथ किर देसित्ता साहूणं अडवि विप्पणट्ठाणं । सम्मत्तपढमलंभो बोद्धव्वो वद्धमाणस्स ॥१४३।। टीका-पंथानं 'किले' त्याप्तवादे देशयित्वा-कथयित्वा साधुभ्यः, सूत्र षष्ठी प्राकृतत्वात् ‘अडवि' त्ति प्राकृत्वादेवात्र सप्तम्या लोपः अटव्यां पथो विप्रनष्टेभ्यः-परिभ्रष्टेभ्यः पुनस्तेभ्यः एव देशनां श्रुत्वा सम्यक्त्वं प्राप्तः, एवं सम्यक्त्वप्रथमलाभो बोद्धव्यो वर्द्धमानस्येति गाथाक्षरार्थः -आव० निगा० १४३ अटवी में पथभ्रष्ट साधओं को देशना श्रवण करने से भगवान महावीर के जीव को मिथ्यात्वादि से थिर्गमन होकर, सभ्यक्त्व की पहली बार प्राप्ति हुई। (ख) कथानकादवसेयः, तेच्चदम्-अवरविदेहे एगम्मि गामे बलाहितो, सो य रायाएसेण सगडाणि गहाय दारूनिमित्त महाडविं पविट्ठो, इतो य साहुणो मग्गं पवन्ना सत्येण समं वच्चंति, सत्थे आवासिए भिक्खं पविट्ठा, सस्थो गतो, ते मग्गतो पहाविया, अयाता संहा, मृढदिसा पथं अयाता तेण अडविपंथेण मज्झण्हदिवसकाले तण्हाए छुहाए य पारद्धा तं देसं गया जत्थ सो सगडसंनिवेसो, सो य बलाहिओ ते पासित्ता महंतं संवेगमावण्णो भणइ-अहो ! इमे साहुणो अदेसिया तवस्सिणो अडविमणुपविठ्ठा, तेसिं सो परमभत्तीए विउलं असणपाणं दाऊण आह-एह भगवं । जेण पंथे समवतारेमि, पुरतो संपत्थितो, ताहे तेऽवि साहुणो तस्सेव मग्गेण अणगच्छन्ति, ततोगुरू तस्स धम्म कहेउमारद्धो, सो तस्सुवगतो, ततो पंथं समोयारित्ता नियत्तो, ते पत्ता सदेसं, सो पुण अविरयसम्मट्ठिी कालं काऊण सोहम्मे कप्पे पलितोवमहिइतो देवो जातो ।। एतदेवोपदर्शयन् गाथाद्वयमन्तर्भाष्यकृदाह अवरविदेहे गामस्स चिंतगो रायदारूवणगमणं । साहू भिक्खनिमित्त सस्था हीणे तहिं पासे ।।१।। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश दाणऽन्न पंथ नयणं, अणुकंप गुरुण कहण सम्मत्तं । सोहम्मे उववन्नो पलियाउ सुरो महिड्डीतो ॥२॥ आव० मूलभाष्य । गा० १, २ मलय टीका-अपरविदेहे ग्रामस्य चिन्तको ‘रायदारूवणगमण' मिति अत्र निमित्तशब्दलोपो द्रष्टव्यो राजदारूनिमित्तां तस्य वनगमन, सुसाधून भिक्षानिमित्तां सार्थाद्मटान तत्र दृष्टवान, ततोऽनुकम्पया. --परमभक्त्या दानं अन्नपानस्य, नयनं-प्रापणं पथि, तदनन्तरं गुरोः कथनं, ततः सम्यक्त्वप्राप्तिः, तत्प्रभावान्मृत्वाऽसौ सौधर्मलोके उत्पन्नः पल्योपमायुः सुरो महद्धिक इति ।! लद्रूण य सम्मत्त अणुकंपाए सो सुविहियाणं । भासुरवरबोंदिधरो देवो वेमाणितो जातो ॥ -आव० निगा । १४४ मलय टीका-स ग्रामचिंतकः सुविहितानामनुकम्पया-परमभक्त्या तेभ्यः सम्यक्त्वं लब्ध्वा च भास्वरां--दीप्तिमत्ती वरां-प्रधानां बोन्दी-तनु धारयति इति भास्वरवरबोन्दिधरः देवो वैमानिको जात इति नियुक्तिगाथार्थः। (ग) अस्यैव जम्यूटोपस्य प्रत्यग्विदेहभूषणे । विजयेऽस्ति महावप्रे जयन्ती नामतः पुरी ॥।। दोर्वीर्येण समुत्पन्न इव नव्यो जनार्दनः। महासमृद्धिस्तत्रासोन्नृपतिः शत्र मर्दनः ॥४॥ तस्य प्रामे तु पृथिवीप्रतिष्ठानाभिधेऽभवत्। स्वामिभक्तो नयसाराभिवानो ग्रामचिन्तकः ।।५।। साधुसंबंधबाह्योऽपि सोऽकृत्येभ्यः पराङ मुखः। दोषान्वेषगविमुखो गुणग्रहणतत्परः ॥६॥ सोऽन्यदा वरदारुभ्यः पृथिवीपतिशासनात्। सपाथेयो महाटव्यामादाय शकटानगात् ॥७॥ तस्य च्छेदयतो वृक्षान्मध्यन्दिनमुपाययौ। जठरेऽग्निरिव व्योम्नि दिदीपे तपनोऽधिकम् ॥८॥ भृतकैर्नयसारस्य सारा रसवती तदा। समयज्ञ रुपनिन्ये मंडपाभतरोरधः ||६|| क्षुधितस्तृषितोः वापि यदि स्यादतिथिमम । तं भोजयामीति नयसारोऽपश्यदितस्ततः ॥१०॥ क्षुधितास्तृषिता: श्रान्ताः सार्थान्वेषणतत्पराः। धर्माम्भःप्लुतसर्वांगाः साधवश्चाययुस्तदा ।।११।। साध्वमी साधवो मेऽत्रातिथयः समुपस्थिताः । चिन्तयन्निति नत्वा तान् सोऽब्रवीद् ग्रामचिन्तकः।।१२। भगवन्तो भवन्तोऽस्यामटव्यां कथमागताः । एकाकिनः शास्त्रिगोऽपि पर्यटन्ति न खल्विह ।।१३।। तेऽप्यभ्यधुर्वयं स्थानात् सार्थन प्रस्थिताः पुरा । ग्रामे प्रविष्टा भिक्षायै ययौ सार्थतस्तदैव हि ॥१४॥ अनात्तभिक्षाश्चलिताः सार्थस्थानुपदं वयम् । आगच्छन्तो महाटव्यामस्यां निपतितास्ततः ॥१५॥ नयसारोऽब्रवीदेवमहो ! सार्थोऽतिनिष्कृपः । अहो पापाद्यभोरुरहो विश्वस्तधातकः ॥१६।। यत्सह प्रस्थितान् साधून साथ प्रत्याशया स्थितान् । अनागमय्प प्रपयौ निजकार्यकनिष्ठ रः ।।१७।। मत्पुण्य! यमायाता वनेत्रातिथयो मम । इत्युक्त्वा भोजनस्थानं स निन्ये तान्महामुनोन ।१८।। स्वार्थोपनोतैः पानान्नैः स मुनोन् प्रत्यलाभयत् । अन्यत्र गत्वा विधिना तेऽप्यभुञ्जत साधवः ।।१६।। प्रामायुक्तोऽपि हि भुक्त्वा गवा नत्वाऽवदन्मुनोन् । चलातु भावतोऽय पूर्मार्ग दर्शयामि वः।।२०।। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ते तेन सहवेलुश्च प्रायुश्च नगरीपथम् तरोरधश्चोपविश्य धर्मं तस्याचचक्षिरे ||२१|| स प्रत्यादि सम्यक्त्वं धन्यंमन्यः प्रणम्य तान् । बलिया दारूणि राज्ञ े प्रपीद् ग्रामे स्वयं स्वगात्। २२ । अथाभ्यस्यन् सदा धर्मं सप्ततत्त्वानि चिन्तयन् । सम्यक्त्वं पालयन् कालमनैषीत् स महामनाः ||२३| विहिवाराधनः सोऽन्ते स्मृतपञ्चनमस्कृतिः । मृत्वा बभूव सौधर्मे सूरः पश्योपमस्थितिः ||२४|| - त्रिशलाका • पर्व १० सर्ग १ श्लो० ३ से २४ इस जम्बूद्वीप के पश्चिम महाविदेह क्षेत्र के आभूषण रूप महावन नाम के विजय में जय ती नामक नगरी थी। उस नगरी में भुजा के बायें से मानो नवीन वासुदेव उत्पन्न हुआ हो ऐसा महासमृद्धिवान् शत्रुमर्दन नामक राजा था । उसके पृथ्वी प्रतिष्ठान नामक ग्राम में नयसार नानक एक स्वामीभक्त ग्रामचिंतक (गोमेती) निवास करता था । बहु साधु-संग से दूर था तथापि स्वभाव से ही अपकृत्य से पराङमुस, दूसरों के दोष को देखने में विमुख और गुण ग्रहण करने में तत्पर था । साथ महा अटवी में आकाश में अधिक के नीचे उसके लिए तो मैं उसे भोजन उसी समय धातुर - एकदा राजा की आज्ञा से मोटे काठ देने के लिए पाथेय (भातु) लेकर कितनेक शकटों के गया । वहाँ वृक्षों को छेदते हुए मध्याह्न समय हुआ - इतने में उदर में जठराग्नि की तरह सूर्य प्रकाश-तपायमान हुआ । उस समय नयसार के समय को जानने वाले सेवक मंडपाकार वृक्ष उत्तम रसवती लाये । स्वयं क्षुधा तृषा से आतुर होते हुए भी कोई अतिथि का पदार्पण हो कराकर बाद में मैं भोजन करूँ ऐसा मन में धारण कर वह नयसार इधर-उधर देखने लगा । तृषातुर, श्रांत, स्वयं के सार्थकी खोज करने में तत्पर और पसीना से जिसके सर्वाङ्ग व्याप्त हो गये थे-- ऐसे कितनेक मुनि उस तरफ आये । ये साधु हमारे अतिथि हैं— सम्मुख उपस्थित हैं—ऐसा चिंतन कर उन्हें नमस्कार किया। नमस्कार कर नवसार ने उन साधुओं से पूछा कि हे भगवन् ! इस महा अटवि में आप कहां से आये हैं ? क्योंकि शस्त्रधारी भी एकाकी रूप में इस अटवी में नहीं फिर सकते हैं। तब वे साधु बोले- हम पूर्व हमारे स्थान से सार्थके साथ चले थे परन्तु इस मार्ग में किसी ग्राम में भिक्षार्थं गये इधर में साथ चला गया। हमें कुछ भी भिक्षा नहीं मिली। अतः हम उस सार्थ के पीछे-पीछे चलने लगे परन्तु वह सार्थं नहीं मिला । अत: भटकते-भटकते इसअटवी में आ गये । प्रत्युत्तर में नवसार बोला-नहो! यह साथ कैसा निर्दयी है? - — पाप में भी अभीर है, विश्वासवाती है कि उसकी आशा से साधुगण साथ में आये फिर उनको साथ लिये बिना वह स्वयं के स्वार्थ में ही निष्ठुर बनकर चला गया। परन्तु इस वन में मेरे पुण्योदय से आप अतिथि रूप में पधारे - यह कार्य बहुत अच्छा है। इस प्रकार कहकर नवसार उन महामुनियों को जहाँ स्वयं का भोजन स्थान था वहाँ ले गया । तत्पश्चात् स्वयं के लिये तैयार करके आया हुआ अन्नपान से उसने मुनियों को प्रतिलाभित किया। मुनिगण प्रतिलाभित आहार से अन्य स्थान में जाकर विधिवत् आहार किया भोजन करके नयसार मुनियों के पास आया। उन्हें नमस्कार कर - प्रणाम कर उसने कहा - हे भगवंत ! आप पधारिये मैं आपको नगर का मार्ग बताऊँ । फलस्वरूप साधुगण उसके साथ चले और नगर के मार्ग पर आये । एक वृक्ष के नोचे बंठकर उन्होंने नयसाय को धर्म बताया । उस धर्म को सुनकर आत्मा को धन्य मानकर नयवार ने उसी समय सम्व को प्राप्त किया। मुनियों को नमस्कार-वंदन कर वापस नयसार आया और सर्व काष्ठ राजा के पास छोड़कर स्वयं के ग्राम में आया । 1 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जोवन-कोश तत्पश्चात मोटा मनवाला नयसार सदा धम का अभ्यास करता हुआ, सप्त तत्त्व का चितवन करता हआ और सम्यक्त्व का प्रतिपालन करता हुआ काल निर्गमन करने लगा। इस प्रकार आराधना करता हुआ नयसार अन्त समय में पाँच नमस्कार मंत्र का स्मरण करा मृत्यु को प्राप्त कर सौधर्म देवलोक में एक पल्योपम की आयु वाला देव हुआ। (घ) पायड-रवि-दीवइ-जंबू-दीवइ पुव्व-विदेहइ मणहरि । सीयहिं उत्तरयलि पविमल-सरजलि पुक्खलवइ-देसन्तरि ।। १ ।। वियसिय - सरस - कुसुम - श्य - धूसरि । महुयर-पिय-मणहरि महुयर-वणि ।। सबह सु दूसिउ दु-प्परिणामें चंड-कंड-कोवंड-परिग्गहु । काल-सवरि-आलिंगिय-विग्गहु ।। अइ-परिरक्खिय-थावर-जंगमु । सायरसेणु णामु जइ पुगमु ।। विघहुं तेण तेत्थु आढत्तउ । जाव ण मग्गणु कह व ण चित्तउ । -वीरजि० संधि । कड १,२ सूर्यरूपो दीपक से प्रकाशमान इस जंबूद्वीप के पूर्वविदेह नामक मनोहर क्षेत्र में निर्मल जल के प्रवाहयुक्त सोता नदी के उत्तर तट पर पुष्कलावतो नामक देश है। उस देश में एक वन था। उस मधुकर नामक वन में पुरूरव नामक एक शबर रहता था। वह अत्यन्त दुर्भावनाओं से दूषित था। एक समय जब वह अपने प्रचण्ड धनुष और बाण को लिए हुए अपनो कृष्ण वर्ण शबरी के साथ उस वन में विचरण कर रहा था, तभी उसने स्थावर और जंगम जोवों की यत्नपूर्वक रक्षा करने वाले श्रेष्ठ मुनि सागरसेन को देखा। उसने तत्काल उन्हें अपने बाण से छेद देने का विचार किया, किन्तु वह अपने बाण को जबतक हाथ में ले तभो उसको स्त्री ने उसे रोका । ताम तमाल - णील - मणि - वण्ण' । सिसु - करि - दंत-खंड - कय-कण्णा ॥ घत्ता-तण - विरइय • कोलइँ गय - मय-णील तरु-पत्ताइ - णियस्थ वेल्ली - कडि - सुत्त पंकय - णेत्तइँ पल-फल-पिढर-विहत्थई ॥२॥ -वीरजि० संधि शकडर वह शबरो तमाल और नीलमणि के सदृश काली थी, छोटे हाथो के दाँत के टुकड़ों से निर्मित कर्ण-भूषण पहने हए थी तथा तृण के बने कोल धारण किये थो। वह हाथो के मद के समान नीलवर्ण थो, वृक्षों के पत्तों से बने वस्त्र धारण किये था और लता-बेली से बने कटिसूत्र को पहने थो। उसके हाथ में मांस एवं फलों से भरी पिटारी थी। उसके नेत्र नील-कमल के सदृश थे। भणिउ पुलिंदियाई मा धायहि । हा हे मूढ ण किं पि विवेयहि ॥ मिगु ण होइ बुहु देव भडारउ । इहु पणविज्जइ लोय - पियारउ ॥ तं णिसुणिवि भुय-दण्ड-विहूसणु । मुक्कु पुलिंदै महिहि सरासणु ।। षणविउ मुणि-वरिंदु सब्भावें । तेणाभासिउ णासिय-पावें ॥ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश भो भो धम्म-बुद्धि तुह होज्जउ । बोहि - समाहि - सुद्धि संपज्जउ ॥ जीव म हिंसहि अलिउ म बोल्लहि। कर-यलु परहणि कहिं मि म घल्लहि ।। पर-रमणिहि मुह कमलु म जोयहि। थण-मंडलि कर-पत्तु म ढोयहि । को वि म जिंदहि दूसिउ दोसें । संग-पमाण करहि संतोसें ।। पंचुबर - महु - पाण - णिवायणु । रयणि-भोयणु दुक्खहं भायणु ॥ वाह विवजहि मणि पडिवज्जहि । णिच्चमेव जिणु भत्तिइँ पुज्जहि ।। तं णिसुणेवि मणुय-गुण-णासहँ. । लइय णिवित्ति तेण महु-मासह ।। घत्ता-हुउ जीव-दयावरु सवरु णिरक्खरु । लागउ जिणवर धम्मइ ।। मुउ कालें जंतें गिलिउ कयंतें । उप्पण्णउ सोहम्मइ ॥ -वीरजि० संधि १। कड ३ उस शबरी ने शबर से कहा-मत मारा। हाय रे मूढ़, तू कुछ भी विवेक नहीं करता। यह कोई मृग नहीं है। वे ज्ञानी मुनिराज हैं जो लोकप्रिय हैं, और सभी उन्हें प्रणाम करते हैं। शबरी की यह बात सुनकर उस पुलिन्द ने अपने भूजदंड के भुषण धनुष को भूमि पर पटक दिया । और सद्भाव पूर्वक मुनिवर को प्रणाम किया। पाप का नाश करने वाले उन मुनिराज ने उसे आशीर्वाद देते हुए कहा-हे शवर !, तुझे धर्मबुद्धि तथा शुद्धज्ञान और समाधि प्राप्त हो । अब तू जीवों को हिंसा मत करना, झूठ मत बोलना तथा कभी भी पराये धन को हाथ नहीं लगाना' परायो स्त्रियों के मुख कमल की ओर मत घूरना और उनके स्तन-मंडल पर हाथ नहीं चलाना। दोषों से दूषित होने पर भी किसी की निंदा मत करना, घर में कितना साज-सामान रखना है इसको संतोषपूर्वक सीमा कर लेना । वट पीपल, पाकर, उमर व कठूमर इन पाँच उदुम्बर फलों का, तथा मधु, मद्य और मांस का भोजन एवं रात्रि भोजन, दुःख के कारण बनते हैं। तू आखेट करना छोड़ दे। इसकी अपने मन में दृढ़ करना छोड़ दे। इसकी अपने मन में दृढ़ प्रतिज्ञा करले । प्रतिदिन भक्तिभावपूर्वक जिन भगवान की पूजा करना । मुनि के इस उपदेश को सुनकर उस शबर ने मानवीय गुणों का नाश करने वाले मधु और मांस के त्याग की प्रतिज्ञा ले ली। इस प्रकार वह निरक्षर शबर जीवदया में तत्पर हो -धर्म में लग गया। कालव्यतीत होने पर वह यम द्वारा निगला ज कर मरा और सोधर्म स्वर्ग में देव उत्पन्न हुआ। (च) अथ-जम्बद्र मोपेतो जम्बूद्वोपो विराजते। मध्ये द्वोपाब्धि सर्वेषां चक्रवर्तीव भूभुजाम् ॥२॥ तन्मध्ये मेहराभाति सुदर्शनो महोन्नतः। मध्ये विश्वाचलानां च देवानामिव तीर्थकृत् ॥३॥ तस्मात्पूर्वदिशो भागे भ्राजते क्षेत्रमुत्तमम्। रम्यं पूर्वविदेहाख्यं धार्मिकैः श्रोजिनादिभिः ।।४।। यतोत्र तपसानन्ता विदेहा मुनयश्चिदा। भवन्त्यतइदं क्षेत्र विधत्ते सार्थनामहि ।।५।। -वीरवर्षच० अधि २ । असंख्यात द्वोप-समुद्रों वाले इस मध्यलोक के मध्य में राजाओं में वकी के समान जबूवृक्ष से संयुक्त जम्बूद्वीप शोभित है। उस जम्बूद्वीप के मध्य में महान् उना सुदर्शन नाम का मेरुपर्वत देवों के मध्य में तीर्थकर के समान सर्व पर्वतों में शिरोमणि रूप से शोभित है। उस मेपर्वत के पूर्व दिशा में पूर्व विदेह नाम का एक उत्तम क्षेत्र Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश ७ श्री जिनेन्द्र देवों से और धार्मिक जैनों से रमणीय शोभित है। यतः उस क्षेत्र से अनन्त मुनिगण तप करके देहरहित हो गये हैं, अत: यह क्षेत्र 'विदेह' इस सार्थक नाम को धारण करता है। तन्मध्यस्थितसीताया नद्या उत्तर दिवटे। विषयः पुष्कलावस्यभिधो भाति महान श्रिया ॥६।। + + तन्मध्ये नाभिवद् भाति नगरी पुण्डरीकिणी ॥१७॥ पूर्वार्ध + तस्या बाह्य भवद्रम्यं मधु काख्यं वनं महत्। शीतलं सफलं हेधा ध्यानस्थमुनिभूषितम् ॥१८।। वसेद् व्याधाधिपस्तत्र पुरूरवाभिधानकः ॥१६।। पूर्वार्ध कदाचित्कानने तस्मिन् वन्दनायै जिनेशिनः। मुनिः सागरसेनाख्य आयातः सत्पथे व्रजन् ॥२०॥ सार्थवाहेन धर्मस्य स्वामिना सह सोऽशुभात। सार्थो भिल्लैगृहीतो खिलो भात् किं न जायते ॥२१॥ अतस्तत्र मुनीन्द्र तमीर्यापथविलोचनम् । दिङ मोहाद्धर्मसंलीनं पर्यटन्तमितस्ततः ॥२२।। दूराद्वीक्ष्य मृगं मत्वाहन्तुकामः पुरूरवाः। निषिद्धो द्र तमित्युक्त्वा शुभात्तत्कान्तया गिरा ॥२३।। वनदेवाश्चरन्तीमे विश्वानुग्रहकारिणः । न कर्तव्यमिदं नाथ त्वया कर्मावकारणम् ॥२४॥ तद्वचः श्रवणात्काललब्ध्या भूत्वा प्रसन्नधीः। उपैत्यासौ मुनीशं तं ननाम शिरसा मुदा ॥२५॥ + इति तद्वचसा त्यक्त्वा मद्यमांसवधादिकान् । नत्वा मुनीन्द्रपादाब्जौ श्रद्धया परयासमम् ।।३१॥ जग्राह दृष्टीना सार्ध भिल्लाधिपः शुभाशयः। द्वादशैव व्रतान्याशु श्रावकस्य बृषाप्तये ॥३२।। ततो यतेः स पुण्यात्मा दर्शयित्वा पथोत्तमम् । नमस्कारं मुहुः कृत्वा जगाम स्वाश्रयंमुदा ॥३६।। आजन्मान्त प्रपाल्योच्चैः सर्वं व्रतकदम्बकम् । अन्ते समाधिना मृत्वा व्रतजातशुभोदयात् ॥३७॥ सौधर्माख्ये महाकल्पेऽनेक्शर्माकरेऽभवत् । महद्धिकोऽमरो भिल्ल एकसागरजीवितः ॥३८।। -वीरच० अधि२ उस पूर्वविदेह क्षेत्र के मध्य में स्थित सीता नदी के उत्तर दिशावर्ती तट पर लक्ष्मी से शोभायमान एक पुष्कलावती नामक देश है । उस पुष्कलावती देश में एक पुण्डरीकिणी नामकी नगरी है। उस नगरी के बाहर मधुक नाम का एक रमणीक महावन है, जो शीतल छायावाले और फले-फूले हुए वृक्षों से युक्त तथा ध्यानस्थ मुनियों से भूषित है। उस वन में पुरूरवा नाम का भद्र प्रकृत्ति का एक भोलों का स्वामी रहता था। उसकी कालिका नाम की एक भद्र और कल्याणकारिणी प्रिया थी। किसी समय जिनदेव की वंदना के लिए जाते हुए सागरसेन नामक एक मुनिराज उस वन में आये । वे मुनिराज धर्म के स्वामी किसी सार्थवाह के साथ आ रहे थे कि मार्ग में उस सार्थवाहको पापोदय से भीलों ने पकड़ लिया। अशुभ कर्म के उदय से वया नहीं हो जाता है। सार्थवाह के हाथ से बिछुड़कर और दिशा भूल जाने से ईर्यासमतिसे इधर-उधर घूमते हुए धर्म में संलग्न उन मुनिराज को पुरूरवा भील ने Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वधमान जीवन-कोश दूर से देखा और उन्हें मृग समभकर बाण द्वारा मारने के लिए उद्यत हुआ। तभी पुण्योदय से उसकी स्त्री ने शीघ्र ही यह कहकर उसे मारने से रोका कि- अरे, ये तो संसार का अनुग्रह करने वाले वनदेव विचर रहे हैं । हे नाथ ! तुम्हें महापाप कर्म का कारणभूत यह निंद्य कार्य नहीं करना चाहिए। अपनी स्त्रो के ये वचन सुनने से और काल- . लब्धि के योग से प्रसन्नचित्त होकर वह उन मुनिराज के पास गया और अति हर्ण के साथ मस्तक से उन्हे नमस्कार किया। मनिराज ने उसे धर्मोपदेश दिया । मनिराज के इन वचनों से उस भिल्लराज ने मद्य-मासादिका भक्षण और जीवघात आदि का त्याग कर और परम श्रद्धा के साथ श्रावक के बारह ही व्रतों को धर्म-प्राप्ति के लिए शीघ्र ग्रहण कर लिया। तत्पश्चात् वह पुण्यात्मा भिल्लराज मुनिराज को उत्तम माग दिखला कर और उन्हें बार-बार नमस्कार करके हर्षित होता हुआ अपने स्थान को चला गया। उसने अपने जोवन-पर्यन्त उस सब व्रत समुदाय को उत्तम प्रकार से पालन किया और अन्त में समाधि के साथ मरण कर श्रत पालन से उत्पन्न हुए पुण्य के उदय से अनेक सुखों के भंडार ऐसे सौधर्म नामक महाकल्प में एक सागरोपम की आयु का धारक महद्धिकदेव उत्पन्न हुआ। (छ) एत्थवि जंबूदीव विदेहई पंगणि वरिसिय विविह. मेहइँ । पुक्खलवइ - विसयम्मि विसालए णारि - दिण्ण - मंगल - रावालए । सीया - जलवाहिणि - उत्तरयले अगिणिय - गोहण - मंडिय - महियले। विउल पुंडरिंकिणि पुरि निवसइ जहिं मुणिगणु भव्वयणहँ हरिसइ । सत्थवाहु तहिं वसइ वणीसरु धम्म • सामि नामेण महुर - सरु । तहो सस्थेण तेण सहुँ चलियउ मंदगामि तवलच्छी - चलियउ । हिययकमले - विणिहित्त जिणेसरु । णामें सायरसेणु मुणिसरु । एक्कहिं दिणि चोरेहिं विलुटिए । तम्मि सस्थि लवडोवल - कुटिए । सूरहिं जुझेवि पाण - विमुक्कई कायरं-णर पलाइवि थक्कई एत्यंतरे वण-मज्झे मुणिदें । तव पहाव-उवसमिय फणेदें दिस · विहाय - मूढेण णिहालिउ सवरु कालि - सवरी - भुव - लालिउ । सूवर - हरिण - वियारिय - सूरउ रूव-रहिउँ नामेण पुरुरउ । पुप्वज्जिय - पावेण असुद्धउ सो कुरुवि मुणि वयणहिं बुद्धउ भत्ति करेविणु सहुँ सम्मत्तं लइयइँ सावय - वय िपयत्ते । कोउवसंतएण चुव संगे णिण्णासिय दुव्वार - निरंगे । घत्ता-सहुँ मुणिणा जाएवि करु उच्चाइवि तेण मग्गि मुणि लाइउ । जिण-गुणचितंतर मइणिभंतउ गउ उवसम सिरि राइउ । -वड्डमाणच० संधिरा कड १० Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश सावय वय विहाणं पालिवि जीवई अप्प - समाण. लालिवि । बहुकाले सो मरेवि पुरूरउ पढम सग्गे सुरु जाउ सरूरउ । वे - रयणायराउ अणिमाइय - गुण - गणईि महंतउ। -वड ढमाणच० सन्धि ।कड ११ (ज) अथ जम्बूद्र मालक्ष्ये द्वीपानां मध्यवर्तिनि । द्वीपे विदेहे पूर्वस्मिन् सीतासरिदुदक्तटे ॥१४॥ विषये पुष्कलावत्यां नगरी पुण्डरी किणी । मधुकास्ये वने तस्या नाम्ना व्याधाधिपोऽभवत् ।।१५।। पुरूरवाः प्रियास्यासीत् कालिकाख्यानुरागिणो । अनुरूपं विधत्ते हि वेधाः संगममङ्गिनाम् ।।१६।। कदाचित् कानने तस्मिन् दिग्विभागविमोहनात् । मुनि सागरसेनाख्यं पर्यटन्तमितस्ततः ॥ १७॥ विलोक्य तं मृगं मत्वा हन्तुकामः स्वकान्तया । वनदेवाश्चरन्तीमे मावधीरिति वारितः ॥१८॥ तदैव स प्रसन्नात्मा समुपेत्य पुरूरवाः। प्रणम्य तद्वचः श्रुत्वा सुशांतः श्रद्धयाहितः ॥१६॥ मध्वादित्रितयत्यागलक्षणं व्रतमासदत्। जीवितावसितौ सम्यक्पालयित्वादराट् व्रतम् । सागरोपमदिव्यायुः सौधर्मेऽनिमेषोऽभवत् ।।२२।। -उत्तपु० पर्व ७४/श्लो १४से १६, २१ पूर्वार्ध २२, सब द्वीपों के मध्य में रहने वाले इस जम्बू द्वीप के पूर्वविदेह क्षेत्र में सीतानदी के उत्तर किनारे पर पुष्कलावती नाम का देश है । उसकी पुण्डरीकिणी नगरी में एक मधु नाम का वन है। उसमें पुरुरवा नाम का एक भीलों का राजा रहता था। उसकी कालिका नाम की अनुराग करने वाली स्त्री थी सो ठीक ही है क्योंकि विधाता प्राणियों के अनुकूल ही समागम करता है । किसी एक दिन दिग्भ्रम हो जाने के कारण सागरसेन नाम के मुनिराज उस धन में इधर-उधर भ्रमण कर रहे थे। उन्हें देख पुरुरवा भील मृग समझकर उन्हें मारने के लिये उद्यत हुआ परन्तु उसको स्त्री ने यह कहकर मना कर दिया कि 'ये वन के देवता घूम रहे हैं, इन्हें मत मारो। वह पुरुरवा भील उसी समय प्रसन्नचित्त होकर उन मुनिराज के पास गया और श्रद्धा के साथ नमस्कार कर तथा उनके बचन सुनकर शांत हो गया। वस्तुतः वह भोल भी सागरसेन मुनिराज को पाकर शान्त हुआ था। उसने मुनिराज से मधु और तीन प्रकार के त्याग का व्रत ग्रहण किया और जीवन-पर्यन्त उसका बड़े आदर से अच्छो तरह पालन किया। आयु समाप्त होने पर वह सौधर्म स्वर्ग में एक सागर को उत्तम आयु का धारक देव हुआ। - इस जम्बूद्वीप स्थित विदेह क्षेत्र के प्रांगण में विविध प्रकार के मेघों की वर्षा होती ही रहती है। वहीं पर पुष्कलावती नाम का एक विशाल देश है जहाँ महिलाएं मंगलगान गाती रहती है । उस देश में जलवाहिनी सीतानदी के उत्तरतट पर अगणित गोधनों से मण्डित महीतलपर विशाल पुण्डरिकीणी नामकी नगरी बसी है, जहाँ के मुनिगण भव्यजनों को हर्पित करते रहते हैं। उस नगरी में धर्म का रक्षक 'मधुस्वर' इस नाम से प्रसिद्ध एक चणिक श्रेष्ठ सार्थवाह निवास करता था। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश ___ उस सार्थवाह के साथ मदगामी तपोलक्ष्मी से युक्त तथा हृदय कमल में जिनेश्वर को धारण किये हुए सागरसेन नामक मुनिश्वर चले । एक दिन वह सार्थवाह चोरों के द्वारा लुट लिया गया तथा उसके साथी लकड़ी पत्थरो से कूटे गए । जो शुरव र थे, उन्होने तो जुभते हुये प्राण छोड़ दिये और जो कायर व्यक्ति थे, वे भाग खड़े हुये । इसी बीच में वन के मध्य में नीन्द्र (सागरसेन ) के तप के प्रभाव से एक प.णीन्द्र ने स्थिति को शात किया। दिशा के विघात से विमूढ़ ( दिग्भ्रम हो जाने के कारण ) सुन्दर भुजावाले उन मुनीन्द्र ने एक शबर को काली नामक अपनी शबरी के साथ देखा । शुकर और हिरणों के विदारण में शुर तथा अत्यन्त कुरूप उस शबर का नाम पुरूरवा था । पूर्वोपार्जित पापों के कारण कलुषित मन वाला वह क र पुरूरवा भो मुनि वचनों से प्रबुद्ध हो गया । उस शबर ने मुनीन्द्र की भक्ति करके उनके पास प्रमाद रहित एवं सम्यक्त्व सहित होकर श्रावकवतों को ले लिया तथा क्रोध को उपशम कर, परिग्रह छोड़कर दुनिवार काम-वासना को नष्ट कर दिया । घत्ता-मुनि के साथ जाकर, कर ऊंचाकर, उस शबर ने उन्हें मार्ग में लगा दिया ( पथ-निर्देश कर दिया )। इस प्रकार जिन गुणों का चिन्तन करता हुआ वह पुरूरवा अपनी मति को निर्धी त कर उपशमश्री से सुशोभित हुआ। विधि-विधान पूर्वक श्रावक व्रतों का दीर्घकाल तक पालन कर तथा जीवों का अपने समान ही लालन करता हुप्रा वह पुरूरवा नामक शबर मरा और प्रथम स्वर्ग में दो सागर की आयु से सुशोभित तथा अणिमादिक ऋद्धिसमूह से महान् सुरौरव नामक देष हुआ। कर दिया। .०२ भगवान महावीर का जीव-सौधर्मकल्प देव में (क) अपरविदेहे ग्रामस्य चिन्तको XXX राजदारुनिमित्तं तस्य वनगमनं सुसाधून भिक्षानिमित्तं सार्थाद्मष्टान् तत्र दृष्टवान, ततोऽअनुकम्पया-परमभक्त्या दानं अन्नपानस्य,+ +-+, प्रापणं पथि, तदनन्तरं गुरोः कथनं, ततः सम्यक्त्वप्राप्तिः, तत्प्रभावान्मृत्वाऽसौ सौधर्मदेवलोके उत्पन्नः पल्योपमायुः सुरो महर्द्धिक इति। - आव० मूलभाष्य । गा १.२।टीका (ख) अस्यैव जंबूद्वीपस्य प्रत्यग्विदेहभूषणे । विजयेऽस्ति महावप्रे जयन्ती नामतःपुरी ॥३।। + स्वामीभक्तो नयसाराभिधानो ग्रामचिन्तकः ।।५।। उत्तरार्ध + ग्रामायुक्तोऽपि हि भुक्त्वा गत्वा नत्वाऽवदन्मुनीन् ।।२०।। पूर्वार्ध अथाभ्यस्यन् सदा धर्म सप्ततत्त्वानि चिन्तयन् । सम्यक्त्वं पालयन् कालमनैषीत् स महामनाः ।।२३ विहिताराधनः सोऽन्ते स्मृतपञ्चनमस्कृतिः । मृत्वा बभूव सौधर्म सूरः पल्योपमस्थितिः ॥२४॥ त्रिशलाका पर्व १०।सर्ग १ अपर विदेह क्षेत्र में भगवान महावीर का ग्रामचिन्तक जीव सुसाधुओं को परम भक्ति से अन्नपान देने से तथा Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जोवन-कोश से निकलने का सही पथ दिखाने से सम्यक्त्व को प्राप्त कर उसके प्रभाव से आयष क्षय होने पर सौधर्म स्वर्ग रूप में उत्पन्न हुआ । वहाँ एक पल्योपम की आयु थी। . (ग) हुउ जीव दयावरु सवरू णिक्खरू लग्गउ जिणवर धम्मइ । . मुउ काले जंतं गिलिउ कयंत उप्पण्णउ सोहम्मइ ।।३।। -वीरजि० संधि १/कड ३ बह निरक्षर शबर जोवदया में तत्पर हो गया और जिनधर्म में लग गया। काल व्यतीत होने पर वह यम द्वारा गला जाकर मरा और सौधर्म स्वर्ग में देव उत्पन्न हुआ। (घ आजन्मान्तं प्रपाल्योच्चैः सर्वं व्रतकदम्बकम् । अन्ते समाधिना मृत्वा व्रतजातशुभोदयात् ॥३७॥ सौधर्माख्ये महाकल्पेऽनेकशर्माकरेऽभवत् । मह द्विकोऽमरो भिल्ल एकसागरजीवितः ॥३८॥ -वीरच० अधि २ पुरुरवा भिल्ल ने अपने जोवन-पर्पन्त उप सब व्रत समुदाय को उत्तम प्रकार से पालन किया और अन्त में समाधि साथ मरण कर व्रत-पालन से उत्पन्न हुये पुण्योदय से अनेक सुखों के भण्डार ऐसे सौधर्म नामक महाकल्प में एक गरोपम की आयु का धारक महद्धिक देव उत्पन्न हुआ। (च) शिलासं पुटगर्भ स तंत्राप्य नवयौवनम् । मुहूर्तेन विलोक्याशु विमानादिश्रियं पराम् ॥३६॥ समस्तं प्राग्भवं ज्ञात्वा व्रतादिजनितं फलम् । तरक्षणाप्तावधिज्ञानाद्धर्मेधात्स्वमति दृढाम् ॥४०॥ ततश्चैत्यालयं गत्वा मुदा धर्मादिसिद्धये । चक्रेऽसौ परमां पूजां प्रतिमानां जिनेशिनाम् ॥४१।। सार्ध स्वपरिवारेण चाष्टभेदैमहार्चनैः। जलादिफलपयन्तीतनृत्यस्तवादिभिः ॥४२।। पुनः प्रपूज्य तीर्थेशमूर्तीश्चत्यद्रुमे स्थिताः । मेरुनन्दीश्वरादौ च गत्वारूढः स्ववाहनम् ।।४३॥ जिनेन्द्रकेवलज्ञानिगणेशादिमहात्मनाम्। महामहं विधायोच्चभक्त्या मूर्ना ननाम सः ॥४४॥ तेभ्यः श्रुत्वा द्विधा धर्म विश्वतत्त्वादिगर्भितम् । उपाय बहुधा पुण्यं सोऽगमत्स्वालयं ततः ।।४।। इत्यसौ विविधं पुण्यं कुर्वाणः शुभचेन्टया । क्रोडा कुर्वन् स्वदेवीभिः सौधमेरुवनादिषु ॥४६।।। शृण्वन् मणोहरं गीतं क्वचित्पश्यश्च नर्तनम् । शृङ्गारं रूपसौन्दर्य विलासं दिव्ययोषिताम् ।।४।। इत्यादिपरमान् भोगान् भुजाना प्राकशुभार्जितान् । सप्तहस्तस्ततनूत्सेधः सवधात्व तिगाङ्गभाक्॥४८॥ त्रिज्ञानाष्टद्धिभूषाढ्यो नेत्रस्पन्दादिदूरगः । दिव्यदेहधरतत्र तिष्ठेच्छाब्धिमध्यगः ॥४६।। - वीरवधूच० अधि २॥ श्लो ४१ से ३६ उपपादशय्या के शिलासम्पुट गर्भ में अन्तमुहूतं के भोतर ही नवयौवन अवस्था को प्राप्त कर और तत्क्षण प्राप्त मे अवधि ज्ञान से पूर्वभव में कृत व्रतादिका फल जानकर और स्वर्ग-विमानादिको उ कृष्ट लक्ष्मी को देख कर उसने बम में अपनी मति को और भी दृढ़ किया। तदनन्तर धर्म आदि की सिद्धि के लिये हर्षित होकर उसने अपने परिवार के साथ च:यालय में जाकर जिनेन्द्र देवों प्रतिमाओं की जल को आदि लेकर फल-पर्यन्त भेदरूप उतम द्रव्यों से गोत, नृत्य, स्तवन आदि के साथ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ वर्धमान जीवन-कोश महापूजा को । पुन: चैत्यद्रुमों में स्थित तीर्थ करों की मूर्तियोंका पूजन करके वह अपने वाहनपर आरुढ होकर मेरूपर्वत और नन्दीश्वर आदि में गया और वहाँ की प्रतिमाओं कापूजन करके तथा विदेह आदि क्षेत्रों में, स्थित जिनेन्द्र देव केवल ज्ञानी और गणधरादि महात्माओं का उच्च भक्ति के साथ महापूजन करके उसने उन सबको नमस्कार किया। तथा उनसे समस्त तत्त्व आदि में गभित मुनि और धावकों के धर्म को सून कर और बहुत-सा पुण्य उपाजन करके वह अपने देवालय को चला गया । ___ इस प्रकार वह अनेक प्रकार से पुण्य को उपार्जन करता हुआ और अपनी शुभ चेष्टा से अपनी देवियों के साथ देव भवनों में तथा मेरुगिरि के वनों आदि में क्रोड़ा करता हुआ, उनके मनोहर गीत सुनता हुआ और दिव्य नारियों के नृत्य-शृगार, रूप-सोन्दर्य और विलास को देखता हुआ तथा पुण्योपार्जित नाना प्रकार के परम भोगों को भोगता हुआ वह स्वर्गीय सुख भोगने लगा। उसका शरीर सात हाथ उन्नत था, सप्त धातुओं से रहित और नेत्रा-स्पदन आदि से रहित था। वह तीन ज्ञान का धारक और अणिाभादि आठ ऋद्धियों से विभूषित था । दिव्य-देह का धारक था । इस प्रकार वह सुखसागर में निमग्न रहता हआ अपना काल बिताने लगा। (छ) सावय-वयई विहाणे पालिवि जीवई अप-समाणइ लालिवि । बहुकाले सो मरेवि पुरुरउ पढम-सग्गे सुरु जाउ सुरूरउ वे-रयणायराउ सोहंतउ अणिमाइय-गुण-गणहिं महंतउ । -बड्ढमाणच० संधि २/कड ११ विधि--विधान पूर्वक श्रावक ब्रतों का दीर्घकाल तक पालन कर तथा जीवों का अपने समान ही लालन करता हुआ वह पुरूरवा नामक शबर मरा और प्रथम स्वर्ग में दो सागरोपम की आयु से सुशोभित था ! अणिमादिक ऋद्धि-समूह से महान् सुरोरव नामक देव हुआ। (ज) जीवितावसितौ सम्यक्पालयित्वादराट् व्रतम्। सागरोपमदिव्यायुः सौधर्मेऽनिमेषोऽभवत् । -उत्तपु० पर्व ७४ श्लो २२ जोधन-पर्यन्त मधु आदि तीन प्रकार के त्याग के व्रतों का सम्यग पालन किया। आयु समाप्त होने पर वह सौधर्म स्वर्ग में एक सागरोपम की उत्तम आयु को धारण करने वाला देव हुआ । .०३ भगवान महावीर का जोव-मरीचिकुमार भव में (क चइऊण देवलोगा इह चेव य भारहमि वासंमि । इक्खागकुले जातो उसभसुयसुतो मरीइत्ति ।।१४५।। मलयटीका-ततो देवलोकात स्वायुः क्षये च्युत्वा भारतवर्ष । इक्ष्वाकुकुले जातः-उत्पन्नऋषभसुतसुतो ।। मरीचिः ऋषभपौत्र इत्यर्थः कुलगरवंसे तीए भरहस्स सुओ मरीइत्ति ।। १४६ ।। - आव० निगा १४५/१४६ का उत्तराध Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ वर्धमान जीवन-कोश सौधर्म देवलोक से चवकर भगवान महावीर का जीव भगवान ऋषभ के पुत्र भरत के पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ । उसका नाम मरीचिकुमार था। इक्ष्वाकु कुल में जन्म हुआ । अतीत में कुलकर वंश था। (ख) इतश्चात्र व भरते विनीतेत्यस्ति पूर्वरा । पुरा युगादिनाथस्य कृते सुरवरैः कृता ।।२५।। तत्र श्रीकृषभस्वामिसूनुर्नवनिधीश्वरः। चतुर्दशरत्नपतिर्भरतश्चक्रवर्त्यभूत् ।।२६॥ ग्रामचिन्तकजीवः स च्युत्वाऽभूत्तस्य नन्दनः । मरीचीन विकिरंस्तेन मरीचिरिति विश्रुतः ॥२७॥ त्रिशलाका० पर्व १० । सर्ग १ (ग) अस्थि इहेव जंबुद्दीवे दीवे इक्खागभूमी तस्थणाभी कुलगरो। तस्स य मरुदेवीए भारियाए समुप्पण्णो उसहसामी तिथयशे। तस्सय उप्पण्णदिव्वणाणस्स पुत्तस्स भरहचक्कवट्टिणो सुओ मिरिई समुप्पण्णवेरग्गो पव्वइओ जहुत्तविहारी विहरइ। -चउप्पन० पृ०६७ विनीता नगरी में ऋषत्रदेव भगवान् का पुत्र भरत चक्रवर्ती जो नवनिधि और चतुदंश रत्न का स्वामी चक्रवर्ती था । ग्रामचिंतक -नयसार का जीव पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ। उसका नाम मरीचि प्रसिद्ध हुआ । (घ) तेत्थु सुदिव भोय भुजेप्पिणु । एक्कु समुद्दोवमु जीवेप्पिणु ।। एत्थु विउलि भारह-वरिसंतरि । कोसल विसइ सुसास-णिरंतरि । णंदण-वण वरही रव रम्महि । + होतउ रिसहणाहु चिरु-णरवइ । पविमल णाण-धारि सुह-संकरू । पढम णरिंदु पढम-तित्थं करु ॥ + तहु पहिलारहु सुउ भरहे सरु । जो छक्खंड-धरणि-परमेसरु ।। + + -वीरजि० संधि १/कड ४ सौधर्म स्वर्ग में दिव्यभोगों को भोगकर तथा एक सागरोपम काल जीवित रहकर वह शबर स्वर्ग सेच्युत हुआ। उस समय इस विशाल भारतवर्ष में कोशल देश धन धान्य से सम्पन्न था। उसकी राजधानी अयोध्या नगरी के नन्दनवन मयूरों की ध्वनि से रमणीक थी। ऐसो उस अयोध्या नगरी के राजा ऋषभनाथ थे, जिनके चरणों में देवेन्द्र भी नमस्कार करते थे। उन्होंने दीर्घकाल तक राज्य किया। वे विशुद्ध ज्ञान के धारक शुभशकर ( पुण्य और सुखकर्ता ) प्रथम तीर्थ कर और प्रथम नरेंद हुए । उनके प्रथम पुत्र भरतेश्वर थे-जो षट्खण्ड पृथ्वी के सम्राट हुए । (च) मागहु वर-तणु जेण पहासु वि । जित्तउ सुरु वेयडढ-णिवासु वि ।। विज्जाहर-वइ भय कंपाविय । णमि-विणमीस वि सेव कराविय ।। घत्ता-जो सिसु-हरिणच्छिइ सेविउ लच्छिइ। गंगइ सिंधुइ सिंचिउ । णव-कमल-दलक्खहिँ उववण-जक्खहिं णाणा कुसुमहिं अंचिउ ।। -वीरजि० संधि १/कडवक ४ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन - कोश उन्होंने वैताढ्य गिरि पर निवास करने वाले सुन्दर देहधारी मागघ- प्रभास नामक देव को भी जीत लिया। उन्होंने विद्याधरों के स्वामी नमि और विनमि नामक राजाओं को भय से कंपायमान कराकर उनसे अपनी सेवा करायो ! बालमृगनयनी लक्ष्मो भी उनकी सेवा करती थी । गंगा और सिंधु नदी-देवियाँ, उनका अभिषेक करती थीं तथा नये कमल-दलों के सदृश नेत्रोंवाले उपवन निवासी यक्ष भी नाना प्रकार के पुष्पों से उनकी पूजा करते थे । १४ (छ) ता कंकेली दल कोमल कर । वीणा वंस-हंस - कोइल. सर || तासु देवि उत्तुंग पयोहर णाम अनंतमइ तिमणोहर || सो सुरसुंदरि चालिय चामरु | ताहि गब्भि जायउ सबरामरु || उ णामें मरीइ विक्खायउ || बहु-लक्खण समर्लकिय-काय ॥ देव-देउ अच्चन्त-विवेइउ । णीलंजस मरणे उव्वे || चरण-कमल जुय-णमियाहंडलु । दिक्खंकिउ मेल्लिव महिमंडल || हरि-कुरु-कुल- कच्छाइ गरिंदहिं । समउ णमंसिउ इंद-पदिहि || णाली पियामहु जइयहुँ । णत्तउ जइ पावइयउ तइयहुँ ।। दुच्चर - रिसह महातवलग्गड । भग्ग णराहिव एहु विभग्गउ || सरवरसलिलु पिएव्वइ लग्गउ । भुक्खइँ भज्जइ लज्जइ णग्गउ || वक्कलु परिहइ तरु-हल भक्खइ । मिच्छाइट्ठि असच्चु णिरिक्खइ | वता - बहुदुरियमहरुले मिच्छा सल्ले विविह- देह संधारइ | भरसर-नंदणु संसय- हय- मणु चिरु हिंडिवि संसारइ ||५|| - वीरजि० संधि १ / कडबक ५ भरत की रानी अनंतमती अत्यन्त सुंदर थी । उसके हाथ कंकेली पुष्पों के दलों के समान कोमल तथा उसका स्वर वीणा, हंस, बाँसुरी व कोकिल के समान मधुर था । उसी तुरंग पयोधरी देवी के गर्भ में वह शबर का जीव आकर उत्पन्न हुआ, जिसके ऊपर देवलोक को सुन्दरियाँ चमर ढोरतो थीं । उनका वह पुत्र मरीचि नाम से विख्यात हुआ । उसका शरीर अनेक शुभ लक्षणों से अलंकृत था । जब उसके पितामह देवों के देव व अत्यंत ज्ञानवान् नीलांजसा नर्तकी के मरण से विरक्त होकर पृथ्यो-मंडल का राज्य त्यागकर दीक्षित मुनि हो गये और इन्द्र भी उनके चरण कमलों को प्रणाम करने लगे, तब इन्द्र और प्रतोन्द्र एवं हरिवश व कुरुवंश के कच्छादि राजाओं सहित उनके इस पोते मरीचि ने भी अपने पितामहको ध्यान-लीन अवस्था में नमन किया और वह उसी समय प्रव्रजित हो गया । किन्तु शीघ्र हो उन भगवाम् ऋषमदेव के दुश्वर महातप को असह्य पाकर जब अनेक अन्य दीक्षित राजा तप से भ्रष्ट हुए, तब वह भी भ्रष्ट हो गया ! वह वल्कल धारण करने लगा, वृक्षों के फल खाने लगा और मिथ्यादृष्टि होकर असत्य बातों पर दृष्टि देने लगा । इस प्रकार नाना महान् पापों से युक्त मिध्यात्व रूपी शल्य के कारण उसने अनेक जन्मों में अनेक प्रकार के शरीर धारण किये । और वह भरतेश्वर पुत्र होकर भी मन में संशय के आवास से चिरकाल तक ससार में परिभ्रमण करता रहा । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन - कोश १५ (ज) आद्य समवसरणे ऋषभस्वामिनः प्रभोः । पितृभ्रात्रादिभिः सार्धं मरीचिः क्षत्रियो ययौ ॥ २८ ॥ महिमानं प्रभोः प्रेक्ष्य क्रियमाणं स नाकिभिः । धर्म चाकर्ण्य सम्यक्त्वलव्धधीव्रं तमाददे ॥ २६॥ सम्यग्ज्ञातयतिधर्मः स्वशरीरेऽपि निःस्पृहः । त्रिगुप्तः पंचसमितिर्निष्कषायो महाव्रती | ३०|| स्थविराणां पुरोऽङ्गानि पठन्नेकादशापि हि । ऋषभस्वामिना सार्धं मरीचिर्व्यहरच्चिरम् ||३१|| - त्रिशलाका० पर्व १० | सर्ग १ | एक समय श्री ऋषत्रदेव के प्रथम प्रभु की महिमा देखकर और धर्मं को समवसरण में पिता तथा भाइयों के साथ में मरीचि भी गया । वहाँ देवकृत सुनकर सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ । फलस्वरूप उसने तत्काल चारित्रग्रहण किया | सम्यग् प्रकार यतिधमं को जानकर स्वयं के शरीर में भी निःष्पह होकर त्रिगुप्ति और पंच समिति को धारण कर और कषाय को छोड़ते हुए महाव्रतो मरीचि मुनि स्थविर साधुओं के पास एकादश अंग का अभ्यास किया। अनुक्रम से भगवान् ऋषभदेव के साथ विहार करने लगा । (झ) अत्थेह भारते क्षेत्रे देशोऽस्ति कोशलाभिघः । आर्यखण्डस्य मध्यस्थ आर्याणां मुक्तिकारणः ॥ ५० ॥ इत्यादिवर्णनोपेतस्यास्य देशस्य मध्यगा । विनीतास्ति पुरी रम्या विनीतजनसंभृता ।। ५६ ।। योजनानां नव व्यासायामा द्वादशयोजनैः । प्रीतिकरा सुरादीनां तरां किं वर्ण्यते हि सा ||२६|| बभूवास्याः पतिः श्रीमान् प्रथमश्चक्रवर्तिनाम् । आदि सृष्टिविधातुस्तुम्ग्ज्येष्ठो हि भरताभिधः ६४ || + + + + तस्य पुण्यवतो देवी पुण्यादासीत्सुखाकरा । पुण्याढ्या धारिणीसंज्ञा दिव्यलक्षणलक्षिता ||६८|| तयोः स स्वर्गश्च्युत्वा पुरूरवाचरोऽमरः । सूनुर्मरीचिनामाभूद् रूपादिगुणमंडितः ॥६६॥ + + + सक्रमाद् वृद्धिमासाद्य स्वयोग्यान्नादिभूषणैः । पठित्वानेकशास्त्राणि प्राप्य स्वयोग्यसंपदः ||७०|| सार्ध' fraामहेनैव स्वस्य पूर्वशुभार्जितान् । अन्वभूद् विविधान् भोगान् वनक्रीड़ादिभिः सह ||७१ कदाचिद् वृषभः स्वामी देवीनर्तनदर्शनात् । विश्व भोगाङ्गराज्यादौ लब्ध्वा संवेगमूर्जितम् ॥७२ शिबिक गत्वा वनं शक्रादिभिः समम् । जग्राह संयमं त्यक्त्वा द्विधा संगान् स्वमुक्तये ||७३ || तदा कच्छादिभूपालैः स्वामिभक्तिपरायणैः चतुः सहस्रसंख्यानैः केवलं स्वामिभक्तये ||७४ || समं मरीचिरण्याशु द्रव्यसंयममाददे । नग्नवेषं विधायाङ्ग स्वामिवन्मुग्धधीस्ततः ॥७५ || - वीरच० अधि २ इस भरतक्षेत्र के आय खण्ड के मध्य में कोशल नाम का एक देश है, जो आर्य पुरुषों को मुक्ति का कारण है । उस कोशल देश के मध्य में विनीता नाम की एक रमणीक पुरी है, जो विनीतजनों से परिपूर्ण हैं । वह पुरी नौ योजन चौड़ी है और बारह योजन लम्बी है। अधिक क्या वर्णन करें, वह नगरी देवादिकों को भी अत्यन्त आनन्द करने वालो है । उस विनीता नगरी का अधिपति श्रीमान् भरत नरेश हुआ, जो चक्रवर्तियों में प्रथम था और आदि • सुष्टि-विधाता वृषयदेष- ऋषभदेव का ज्येष्ठ पुत्र था । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश . उस पुण्यात्मा भरत के पुण्योदय से सुख की खानि, पुष्य-विभूषित और दिव्य लक्षणों वाली धारिणी नाम की रानी थी । उन दोनों के वह पुरूरवा भील का जीव देव स्वर्ग से चयकर रूपादि गणों से मंडित मरीचि नाम का पुत्र ऊत्पन्न हुआ। वह क्रम से अपने योग्य अन्न-पानादि से और भूषणों से वृद्धि को प्राप्त होकर, अनेक शास्त्रों को पढ़कर और अपने योग्य सम्पदा को प्राप्त करके पूर्वोपार्जित पुण्यकम के उदय से अपने पितामह के साथ हो वनक्रीडा आदि के द्वारा नाना प्रकार के भोगों को भोगता रहा। किसी समय नीलांजनां देवी को नृत्य देखने से बृषभदेव स्वामी ने समस्त भोगों में, देह में और राज्य आदि में उत्कृष्ट वैराग्य को प्राप्त होकर और पालकी पर बैटकर इन्द्रादि के साथ वन में जाकर और अन्तरग-बहिरंग दोनों प्रकार के परिग्रह को अपनी मुक्ति के लिए छोड़कर संयम को ग्रहण कर लिया। उस समय केवल स्वामि-भक्ति के लिए स्वाभिभक्त परायण कच्छ आदि चार हजार राजाओं के साथ मरीचि ने भी शोघ्र द्रव्य-संयम को ग्रहण कर लिया और नग्नवेष धारण करके वह मुग्ध बुद्धि शरीर में वृषभ स्वामी के समान हो गया। किन्तु अन्तरंग में इस दीक्षा का कुछ भी रहस्य नहीं जानता था। (ब) मरिईवि सामिपासे विहरइ तवसंजमसमग्गो। सामाइअमाईअं इक्कारसमा उ जाव अंगाओ। उज्जुत्तो भत्तिगओ अहिन्जिओ सो गुरुसगासे ।। -आव मूल भाष्य गा ३६। उत्तरार्ध, ३७ मलय टीका-xxxमरीचिरपि स्वामिपार्श्वे विइरति तपःसंयमसमप्रः, स च समायिकादिकं एकादशमंगं यावत् उद्युक्तः क्रियायां भक्तिगतो भगवति श्रुते वा अधीतवान् स गुरुसकाश इत्युपन्यस्त गाथार्थः ऋणभनाथ भगवान् के पास मरीचि दीक्षित होकर तप और संयम से विहरण करने लगा। (ट) मिरीइवि सामाइयादि एक्कारस अंगागि अहिज्जितो। -आव० निगा ३४८।मलय टीका दीक्षित होकर मिरीची ने सामायिकादि एकारस अंग का अध्ययन किया । सामाइअमाईअं इक्कारसमा उ जाव अंगाओ । -आव मूल भाष्य गा ३७पूर्वाध (ठ) (मिरिई ) अण्णया अचिन्तसत्तित्तणओ कम्मपरिणईए, अवस्समावित्तणओ तस्स भावस्स, जाणन्तस्स वि उम्मग्गदेसणापरिणामफलं तस्सुम्मग्गदेसणापरिणामो संवुत्तो। पयट्टावियंच तेण कुलिंग भागवयदरिसणं । उवसंत्तय सीसते साहूणं समप्पेइ । 'गिलाणपडिजागरन्ति एगं पवावेमित्ति चिन्तयन्तस्स उवडिओ कविलाहिराणो रायपुत्तो। साहिओ य अस्थि धम्मो, साहुदंसणेवि अस्थि त्ति । तओ एएण दुब्भासिएण बद्धं दुहविवागं कम्म। पब्बाविओ य Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश कविलो । चिट्ठइ तस्संतिए। सरइ संसारो। मिरीयी वि चउरासीपुठवलक्खे आउयमणुवालिऊण, चइऊण अणसणविहिणा तस्स य दुब्भासियहाणस्स अपडिक्कतो. मरिऊण बम्भलोए कप्पे दससारारोवमाइ ( वम ) हिईओ देवो समुप्पण्णो -चउप्पन्न०पू०६७ ड) सोऽपरेय प्रीष्मऋतावुष्णांशुकरदारुणे। प्रतिमार्ग पान्थपादनखंपचरजश्चये ॥३२॥ स्वेद्राीभूतसर्वाङ्गमललिप्तांशुकद्वयः । तृष्णार्तो चिन्तयदिति चारित्रावारणोदयात् ॥३३॥ न श्रामण्यगुणान्मेरुसमभारान् दुरुबहान् । निगुणोऽहं भवाकांक्षी वोढु प्रभुरतः परम् ।।३४।। किं त्यजामि व्रतं लोके तत्त्यागे लज्ज्यते खलु । लब्धो वाऽयं मयोपायो व्रतं येन क्लमो न च ॥३५।। श्रमणा भगवन्तोऽमी त्रिदंडविरताः सदा। अस्तुदण्डैनिर्जितस्य त्रिदंडी मम लांछनम् ॥३६।। केशलोचादमी मुण्डाः क्षुरमुण्डःशिखी वहम् । महाव्रतधराश्चामी स्यामणुव्रतभृत्त्वहम् ।।३७।। निष्किञ्चना मुनयोऽमी भूयान्मे मुद्रिका दितु । अमीविमोहामोहेनच्छन्नस्य छत्रमस्तु मे ॥३८।। उपानद्रहिताश्चामी सश्चरन्ति महर्षयः। पादत्राणनिमित्तं मे भवतामप्युपानहो ॥३६।। सुगन्धयोऽमी शीलेन दुर्गन्धः शीलतस्त्वहम् । सौगन्ध्यहेतोर्भवतु श्रीखण्डतिलकादि मे ॥४०॥ अमी शुक्लजरदस्त्रा निष्कषाया महर्षयः । भवन्तु मे तु वासांसि काषायाणि कषायिणः ॥४१॥ स्यजन्यमी जलारम्भं बहुजीवोपममर्दकम् । स्नानं पानं च पयसा मितेन भवताच्च मे ॥४२॥ एवं विकल्य्य स्वधिया लिंगनिर्वाह हेतवे। पारिवाज्यं प्रत्यपादि मरीचिः क्लेशकातरः । ४३॥ -त्रिशलाका पर्ष १० । सर्ग १ ढ) अण्णया य भरहपुत्तो मिरीयी दिवसयरकरनियरताविओ मज्झण्हदेसयाले मल जल्ला. विलसरीरो अहिणवलोयपरियाविउत्तिमंगो पदिदिणं जायणापरीसहपराजिओ बायालीसदोसरहियभिक्खासोहिमचयन्तो गिम्हुम्हवालुयकिलामियचलणकमलो भागवयं कुलिंग परिकप्पिठण अहासुहं विहरिउमाढत्तो । -चउत्पन्न० पृष्ठ ४६ (ण) अह अन्नया कयाइ गिम्हे उण्हेण परिगयसरोते । अण्हाणएण चइओ इमं कुलिंगं विचितेइ ।। ३५० ।। मलयटोका-कदाचिद्-एकस्मिन् काले प्रीष्मे उष्णेन परिगतशरीरः अस्नानेनेति-अस्नानपरीषहेण त्याजितः संयमात् एतत्कुलिङ्ग-वक्ष्यमाणं विचिन्तयतीति । मेरु गिरीसमभारे न हुवि समस्थो मुहुत्तमवि वोढु । सामन्नए गुणे गुणरहिओ संसारमणुकंखी ।। ३५१ ।। मलयटीका - मेरुगिरिसमो भारो येषां ते तथाविधास्तान व समर्थो मुहूर्तमपि वोढु, कान् ? - नै श्रमणानामेते श्रामणाः, के ते?-गुणाः-विशिष्टक्षान्स्यादयस्तान्, कुतो ? यतो धृत्यादिगुणरहितोऽहं Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ वधमान जोवन-कोश संसारानुकांक्षीति गाथार्थ । ततश्च किं मम युज्यते ? गृहस्थत्वं तावदनुचितं, श्रमणगुणानुपालन मप्यशक्यम् । एवमणुचितयंतस्स तस्स निअगा मई समुप्पन्ना । लद्धो मए उवाओ जाया मे सासया बुद्धी ।। ३५२ ।। मलय टोका-'एवं' मुक्त न प्रकारेणानुचिन्तयतस्तस्य निजा मतिः समुत्पन्ना न परोपदेशेन, स ह्य वं चिन्तयामास-लब्धो मया वर्तमानकालोचितः खलूपायो, जाता मम शाश्वता बुद्धिः, 'शाश्वते' त्याकालिकी, प्रायो निरवद्यजीविका हेतुत्वादिति गाथार्थः । यदुक्तमिदं कुलिङ्ग अचि तयत तत्प्रदर्शनायाह समणातिदंडविरया भगवंतो निहुअसंकुइअअंगा। अजिइ दिअदंडस्स उ होउ तिदंडं महंचिंधं ।। ३५३ ।। मलय टोका-गाथागमनिका श्रमणा मनोवाकायलक्षणत्रिदंडविरताः ऐश्वर्यादिभगयोगाद्भगवन्तः निभृतानि-अन्तःकरणान्यशुभव्यापारपरित्यागात् संकुचितानि-अशुभकायव्यापारपरित्यागादङ्गानि येषां ते तथोच्यन्ते, अहं तु नेवंविधो, यतः 'अजितेन्द्रिये' त्यादि न जितानि इन्द्रियाणि चक्षुरादीनि दंडाश्च-मनोवाक्कायलक्षणा येन स तथोच्यते, तस्याजितेन्द्रियदंडस्य तु त्रिदण्डं मम चिन्हं अविस्मरणार्थमिति गाथार्थः । तथालोइंदिय मुंडा संजया उ अहयं खुरेण ससिहो अ। थलगपाणिवहाओ वेरमणं मे सया होउ ।। ३५४ ।। मलय टीका-गाथागमनिका-मुण्डो हि द्विधाभवति-द्रव्यतो भावतश्च तत्र ते श्रमणा द्रव्यभावमुण्डाः, कथां लोचेनेन्द्रियश्च मुण्डाः संयतास्तु, अह पुननेन्द्रियमुण्डः यतः अतोऽलं द्रव्यमुण्डतया, तस्मादहं क्षुरेण मुण्डः सशिखश्च भवामि, तथा सर्वप्राणिवर्धावरताः श्रम वत्तन्ते, अहंतु नवंविधो यतः अतः स्थूलप्राणातिपाताद्विरमणं मे सदा भवस्विति गाथार्थः निकिंचणा य समणा अकिंचणा मम किंचणं होउ। सीलसुगंधा समणा अयं सीलेण दुग्गंधा ।। ३५५ ।। मलय टीका-गाथागमनिका-निर्गतं किञ्चनं-हिरण्यादि येभ्यस्ते निष्किञ्चनाश्व श्रमणाः, तथाविद्यमानं किञ्चन-अल्पमपि येषां तेषां अकिञ्चना जिनकल्पिकादयः, अहं तु नैवंविधो यतोऽतो मार्गाविस्मृत्यर्थं मम किञ्चनं भवतु, पवित्रिकादि, तथा शीलेन शोभनो गंधो येषां ते तथाविधाः श्रमणाः अहं तु शीलेन दुर्गन्धः अतो गंधचंदनग्रहणं मे युक्तमिति गाथार्थः । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वधमान जोवन-कोश ववगयमोहा समणा मोहच्छन्नस्स छत्तयं होउ । अणुवाणहा य समणा मज्भंतु उवाणहे हुन्तु ।। ३५६ ।। मलय टीका-गाथागमनिका -व्यपगतो मोहो येषां ते व्यपगतमोहाः श्रमणाः, अहं तु नेत्थं यतः अतो मोहाच्छादितस्य छत्रकं भवतु, अनुपानकांश्च श्रमणाः मम चोपानहौ भवत इति गाथार्थः ।। सुक्क बरा य समणा निरंबरा मझ धाउरत्ताई। हुंतु इमे वत्थाई अरिहो मि कसायकलुसमई ।। ३५७ ।। मलय टीका-गाथागमनिका-शुक्लांत्यम्बराणि येषां ते शुद्धाम्बराः, श्रमणाः तथा निर्गतमम्बरं येषां ते निरम्बराः-जिनकल्पिकादयः, 'मझ' ति मम च, एते श्रमणा इत्यनेन तत्कालोत्पन्नतापसश्रमणव्युदासः, धातुरक्तानि भवन्तु मम वस्त्राणि किमिति ?, अस्मि योग्योऽस्मि तेषामेव, कषायः, कलुषा मतिर्यस्य सोऽहं कषायकलुषमतिरिति गाथार्थः ॥ वजंतऽवज्जभीरू बहुजीवसमाउलं जलारंभं । होउ मम परिमिएणं जलेण हाणं च पिअणं च ।। ३५८ ।। मलय टीका-गाथागमनिका-वर्ज यन्त्यवद्यभोरवो बहु नीवसमाकुलंजलारम्भ, तत्र व वनस्पतेरवस्थानात् , अवद्य--पापं, अहं तु नेत्थं-पतः अतो भवतु मे परिमितेन जलेन स्नानं च पानं चेति गाथार्थः। एवं सो रूइयमई निअगमइविगप्पि इमं लिंग। तद्विअहेउसुजुत्तं पोरिव्वजं तओ कासो । ३५६ ।। मलय टीका-स्थूलमृषावादादिनिवृत्तः, एवमसौ रुचिता मतिर्यस्य असौ रुचितमतिः, अतो निजमत्या विकल्पितं निजमतिविकल्पितम् , इदं लिङ्ग विशिष्ट, तस्य हितास्तध्दिताः तद्धिताश्च हेतवश्चेति समासः तैः सुष्ठु युक्त श्लिष्टमित्यर्थः परित्राजानामिदं पारिवाजं प्रवर्त्तयति, शास्त्रकारवचनात् वर्तमान निर्देशोऽप्यविरुद्ध एव, पाठान्तरं वा 'पारिव्वजं ततो कासित्ति' पारिवाजं ततः कृतपानिति गाथार्थः। -आव० निगा ३५० से ३५६ इस प्रकार बहुत काल पर्यन्त विहार करते हुए अन्यदा ग्रीष्मऋतु का आगमन हुआ। उस समय अति दारुण सूर्य की किरणें पड़ने से तप्त पृथ्वी की रज प्रतिमार्ग में चरण के नखों को रांधने लगा। उस समय जिनके सर्व अग स्वेद से आद्रित हो गये। और पहने हुए दो वस्त्र मल से लित हो गये। तथा वे मरोचि मुनि तृषा से पीड़ित हो गये । फलस्वरूप चारित्रावरणीय कर्मोदय से इस प्रकार चिंतन करने लगे। मेरु पर्वत को तरह जिसका वहन नहीं हो सकता-उस साधुपन का वहन करने में मैं समर्थ नहीं हूँ। क्योंकि मैं गुण-विहीन हूँ और. भवकी आकांक्षा वाला हूं। पंगु होने से व्रत का त्याग भी कैसे हो सकता है। उस साधुपन का त्याग करने से लोक में Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० वर्धमान जीवन-कोश लज्जा को प्राप्त होऊँगा परन्तु एक उपाय है जिससे व्रत भी कुछ अंश में रह जाता है और पैसा श्रम भी उठाना नहीं पड़ता है। ये श्रमण भगवंत त्रिदण्ड अर्थात् मनोदण्ड, वाक् दण्ड, और कायदण्ड से विरक्त हैं और मैं त्रिदण्ड का विजेता है अतः मेरा तीन दण्ड का लांछन हो । ये साधु केश के लोच से मुण्डित है और मैं तो शस्त्र से केशों को मुण्डने वाला व शिखाधारो होऊ । ये साधु महाव्रतधारी है और मैं अणुव्रतधारी बनूं। ये मुनि निष्किचन है और मैं मुद्रिकादि परिग्रहधारी होऊँ । ये मुनि मोहरहित हैं परन्तु मै मोह से आच्छादित होने से छत्र वाला होऊ । ये महर्षि उपानद् रहित हैं परन्तु मैं पादको रक्षा के लिए उपानद् को ग्रहण करूंगा। ये साधु शोल के द्वारा सुगन्धित है परन्तु मैं शोल से सुगन्धित नहीं हूं। अत: सुगन्धी के लिये मेरे श्रीखण्ड चन्दन का तिलक होना चाहिए। ये महर्षि कषाय रहित होने के कारण और शुक्ल और जीर्ण वस्त्रधारी है। इसके बनिबस्त कषाय वाले ऐसा हमारा कषाय (रंगे हुए ) वस्त्र है। ये मुनिगण तो घने जोवों को विराधना वाले सचित जल का आरम्भ छोड़ा है । इसके बनिबस्त हमारे मित जल से स्नान-पान हो। इस प्रकार स्वयं की बुद्धि से विचार करके कष्ट से कायर ऐसा मरोचि लिंग का निर्वाह करने के लिए त्रिदण्डी सन्यास को ग्रहण किया । (त) यक्वा देहममत्वादोन भूखा मेरुसमोऽवलः । हन्तुक रिसंतानं कर्मारातिनिकन्दनम् ।। ७६ ।। दधे योगं परं मुक्यै षमासावधिनारतवान् । प्रलम्बितमुनादण्डो ध्यानपूर्व जागुरुः ।। ७७ ।। ततस्ते क्षुत्तिपासादीन् सर्वान् घोरपरोषहान् । तेन साधं चिरं सोढ्वा पश्चात्सोदु किलाक्षमाः ।७८॥ तमक्लेशभराक्रान्ता दोनास्या धृतिदूरगाः । जनयुरित्य मन्योन्यं सुन्छ, दोनतया गिरा ।। ७६ ।। अहो एष जगद्भर्ता वचकायः स्थिराशयः । न ज्ञायते कियकालमेवं स्थास्यति विश्वराट ॥ ८ ॥ अस्माकं प्राणसंदेहो वततेस्मसनानकैः । यतोऽनेन समस्पर्धा कृत्वा मतव्यमेव किम् ॥ ८१ ।। इत्युक्त्वा लिङ्गिनः सर्वे ते नत्वा तस्कमाम्बुजौ । भरतेशभयाद् गन्तुमशक्काः स्वालयं ततः ।। ८२ ।। तत्र व कानने पापात्स्वेच्छया फळभक्ष गम् । कतु पातु जलं दोना स्वयं प्रारेभिरे शठाः ।। ८३ ।। . -वीरवर्धच० अधि-२ भगवान् वृषभदेव ने देह से ममता आदि को छोड़कर और मेरु के समान अचल होकर कर्मशत्रुओं को सन्तान का नाश करने के लिये कर्मधेसरी का घातक छह मास की अवधि वाला प्रतिमा योग मुक्ति प्राप्ति के लिये धारण कर लिया और आत्म-सामध्यपान वे जगद्गुरु अपने भुजादण्डों को लम्बा करके ध्यान में अवस्थित हो गये ।। भगवान् वृषभदेष के साथ जो चार हजार राजा लोग दोक्षित हुये थे, वे कुछ दिन तक तो भगवान् के समान ही कार्योत्सर्ग में खड़े रहे और भूख प्यास मादि सभो घोर परीषहों को सहन करते रहे। किन्तु आगे दोघकाल तक भगवान के साथ उन्हें सहने में असमर्थ हो गये। - वे सब तप के क्लेशभार से आक्रांत हो गये उनके मुख दोनता से परिपूर्ण हो गये, उनका धेर्य चला गया. तब वे अत्यन्त दान-वाणी से परस्पर में इस प्रकार वार्तालाप करने लगे-'अहो। यह जगद्-भर्ता वकाय और स्थिरचित वाला है, हम नहीं जानते हैं कि यह विश्व का स्वामी कितने समय तक इसी प्रकार से खड़ा रहेगा? Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन - कोश २१ बंब तो हमारे प्राणों के रहने में सन्देह है ? अपने समान लोगों से इस प्रभु के साथ स्पर्धा करके क्या मरना है ?' इस प्रकार कहकर वे सब वेषवारी साधु भगवान् के चरण-कमलों को नमस्कार करके वहाँ से चले । किन्तु भरतेश के भय से अपने घर जाने में असमर्थ होकर वहीं वन में ही पाप से स्वेच्छाचारी होकर वे दीन शठ फलों का भक्षण करने लगे । और नदो आदि का जल पोना उन्होंने प्रारम्भ कर दिया । (थ मरीचिरपि तैः सार्धं पीडितोऽतिपरीषदैः । तत्समानक्रियां कर्तुं प्रवृत्तोऽधविपाकतः ॥ ८४ ॥ ८५ ॥ निन्द्य कर्म तु तान् विलोक्य वनदेवता । इत्याह रे शठा यूयं शृणुतास्मद्वचः शुभम् ॥ वेषेणानेन ये मूढाः कर्मेदं कुर्वतेऽशुभम् । निन्यं सत्त्वक्षयं कर्तृ श्वभ्राब्धौ ते पतन्त्यघात् ॥ ८६ ॥ गृहिलिङ्गकृतं पापमल्लिङ्गन मुच्यते । अर्हल्लिङ्गकृतं पापं वज्रलेपो जायते ॥ ८७ ॥ अतो दं जगत्पूवेषं मुक्त्रा जिनेशिनाम् । गृहणीध्वमपरं नो चेद्रः करिष्यामि निग्रहम् ॥ ८८ ॥ इति तद्वचसा भीता मुक्त्वा वेषं बुधाचितम्। जटादिधारणैर्नानावेषं ते जगृहुस्तदा ।। ८६ ।। मरीचिरपि तोत्रात्तमिध्यात्वोदयतः स्वयम् । परिव्राजकदीक्षां स हत्वा वेष निजं व्यधात् ॥ ६०॥ तच्छास्त्ररचनेस्याशु दीर्घ संसारिणः स्त्रयम् । शक्तिरासीदहो यत्र यद्भावि तत्किमन्यथा ।। ६१ ।। वीरवधच ० अधि २ पाप के उदय से अति घोर परोषों के द्वारा पीड़ित हुआ मरोवि भी उन लोगों के साथ उनके समान हो क्रियाएं करने के लिये प्रत हो गया । इन भ्रष्ट साधु को नि-कर्म करते हुए देख कर घनदेवता ने कहा'अरे मूर्खो, तुम लोग हमारे शुभ वचन सुनो ' 'इन नग्नवेष को धारण कर जो मूहजन ऐसा निन्द्य अशुभ और जीवातक कार्य करते हैं, वे उस पाप फल से घार नरक के सागर में पड़ते हैं । अरे वेषवारियो, गृहस्थ-वेज में किया हुआ पाप तो जिलिंग के धारण करने से छू जाता है किन्तु इस जिनलिंग में किया गया पाप बच्चनेप हो जाता है। ( उसका छूटना बहुत कठिन है ) मतः जितेश्वर देव के इस जगत्पूज्य वेष को छोड़कर तुम लोग कोई अन्य वेष धारण करो । अन्यया मैं तुम लोगों का निग्रह करूंगा।' इस प्रकार वनदेवता के वचन से भयभीत होकर विद्वत्पूज्य जिनवेष को छोड़कर तब उन लोगों ने जटा आदि को धारण करके नाना प्रकार के वेष ग्रहण कर लिये । मोचि ने भी तो मिध्यात्व कर्म के उदय से जिनवेष को छोड़कर स्वयं ही परिव्राजक दीक्षा को धारण कर लिया | दोघं सतारी इस मरोचि के उस परिब्राजक दीक्षा के अनुरूप शास्त्र की रचना करने में शीघ्र हो शक्ति प्रगट हो गयी । अहो | जिस का जैसा भवितव्य होता है, वह क्या अन्यया हो सकता है । (द) तादृग्वेषं च तं दृष्ट्वाऽच्मं जनोऽखिलः । साबुधर्म सताचख्यौ सोऽपि तेषां जिनोदितम् ॥ ४४ ॥ किं त्वं स्वयं नाचरसीत्य नुयुक्तः पुनर्जनैः । मेहमारं न तं वोढुमीशोऽस्मीति शशंस सः ।। ४५ ।। धर्माख्यानप्रतिबुद्वान् स तु भञ्यानुपस्थितान्। शिध्यात् समयामास स्वामिने नाभिसूनवे ॥ ४६ ॥ त्याचारो विजहार मरोचिः स्वामिना सह । - त्रिशलाका० पर्व १० । स १ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन - कोश मरोचि के इस प्रकार के नवीन द्वेष को देखकर सब लोग उसे धर्मं पूछने लगे । फलस्वरूप मरीचि जिनेश्वर द्वारा कथित धर्म कहने लगा । पुनः लोग उसे पूछने लगे कि तु उस साधु धर्म का आचरण क्यों नहीं करते हो ? प्रत्युत्तर में मरीचि कहने लगा कि उस मेहभार जैसे साघु धर्म को वहन करने के लिये मैं समर्थ नहीं हूं । स्वय के धर्म के व्याख्यान से प्रतिबोध को प्राप्त जो भव्य होता उसे ऋषभनाथ भगवान् के पास जाने के लिए प्रेरित करता अर्थात् शिष्यरूप में उन्हें समर्पित कर देता। ऐसा आचार वाला मरीचि भगवान् के साथ विहार करता रहता । XXX भगवता च सह विजहार तं च साधुमध्ये विजातीयं दृष्टवा कौतुकाल्लोकः पृष्टवान्, तथा चाह (घ) अह त पागडरूवं दट्टु पुच्छेइ बहुजणो धम्मं । कहइ जईणं तो सो विभालगे तस्य परिकहणा || ३८८ || मलय टोका - अथ तं प्रविजातीयत्वात् दृष्ट्वा पृच्छति बहुजनो धम्मं, कथयति यतोनां सम्बन्धिभूतं क्षान्त्यादिलक्षणं ततोऽसाविति, लोका भणन्ति - यद्ययं श्रेष्ठो भवता किं नाङ्गीकृत इति विचारणे, तस्त्र परिः- समन्तात् कथना परिकथना श्रमगाः त्रिदंडविरता इवादिलक्षगा पृच्छतीति त्रिकालगोचरसूत्रप्रदर्शनार्थत्वादेवं निर्देशः पाठान्तरं वा 'अहं तं पागडल् द डं. पुच्छिं बहुजणो धम्मं । कहती सुजतीणं सो विद्यालणेतस्स परिकहणा । प्रवर्त्तत इति गाथार्थः । धम्मका अक्खित्त उवट्टिर देइ भगवओ सोसे । गामनगरागराई विहरइ सो सामिया सद्भि || ३६० || माटोका - धर्मकथा क्षिप्तान् उपस्थितान् ददाति भगवतः शिष्यान् ग्रामनगरादोन विहरति स स्वामिना सार्द्धं, भावार्थः सुगमः । इत्थं निर्देशन योजनं पूर्ववद् ग्रन्थकारवचतत्वाद्वा दोष इति गाथार्थः । अन्यदा भगवान् विहरमाणो अष्टापदमनुप्राप्तवान् तत्र च समवसृतः भरतोऽपि भ्रातृप्रत्रज्याकर्णनात् सज्जातमनस्तापोवृतिं चक्र े कदाचिद्भोगादीन् दीयमानान् पुनरपि गृहन्तीत्यालोच्य भगवत्समीपं चागम्य निमन्त्रयंश्च तान् भोगैर्निराकृत श्चिन्तयामास एतेषामेदानीं परित्यक्तपङ्गानां आहारदानेपि तावद्वतानं करोमीति पंचभिः शकद्वारा तैर्विचित्रमाहारमानाय्योपनि न्याधाकमहितं च न कल्पते यतीनामिति प्रतिषिद्वैकृतकारितेनान्येव निमन्त्रितवान्, राजपिण्डोऽव्यकल्पनोयइति प्रतिषिद्धः सर्वप्रकारैरहं भगवता परिक्षक इति सुतरामुमाथितो बभूव तमुन्माथितं विज्ञाय देवराट्ाच्छो कोपरान्तये भगवन्तमव पप्रच्छ - कतिविधः अवग्रह इति । - आव० निगा ३८८, ३६० पुच्छंतान कई वट्ठिए देइ साहुणो सीसे । गेलन्नेऽपडियरणं कविला । इत्थंपि इहयंपि ॥ - आव निगा ४३७ मलय टीका- गमनिका - पृच्छतां कथयति उपस्थितान् ददाति साधुम्यः शिध्यान, ग्लानले उप्रतिजागरणं, कपिल ! अत्रापि इहानि । भावार्थ स हि प्राग्वर्णितस्वरून मरोचिर्भगवति निवृ से Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन - कोश २३ साधुभिः सह विहरन् पृच्छतां लोकानां कथयति धम्मं जिनप्रणीतमेव, धर्माक्षिप्रांश्च प्राणिन: उपस्थितान् ददाति साधुभ्यः शिष्यानिति, 'तित्थगरो को इह भरहे' त्ति, तइ व्याचिख्यारूपाऽह अह भइ नरवरिंदो ताय ! इमीसित्तिआइ परिसाए । अन्नsa कोऽवि होही भरहे वासम्मि तित्थयरो ? ।। ४४ ।। ( मूल भाष्य ) मलयटीका - अत्रान्तरे अथ भणति नरवरेन्द्रः - तातू ! अस्याः एतावत्याः परिषदः अन्योऽपि कश्चिद् भविष्यति तीर्थकरः अस्मिन भारते वर्षे, भावार्थस्तु सुगम एवेति गाथार्थः ॥ तत्थ मरीई नामा आइपरिव्वायगो उसभनत्ता । सज्झायज्झाणजुओ एगंते झायइ महप्पा || ४२२ ।। मलयटीका तत्र भगवतः प्रत्यासन्ने भूभागे मरीचिनामा आदौ परिव्राजकः आदिपरिव्राजकः प्रवर्त्तकत्वात्, ऋषभनता पौत्रक इत्यर्थः, स्वाध्याय एव ध्यानं२ तेन युक्तः एकांते ध्यायति महात्मेति । तं दाइ जिणिदो एवं नरिंदेण पुच्छिओ संतो | धम्मवरचक्कत्रट्टी अपच्छिमो वीरनामुत्ति ।। ४२३ ।। टीका - गमनिका - भरतपृष्ठो भगवान् 'नं' मरीचि दर्शयति जिनेंद्रः एवं नरेन्द्रण पृष्टः सन् धर्म्मवर - चक्रवर्ती पश्चिमो वीरनामा भविष्यती ' । तथा - आइगरु दसाराणं तिविट्ठ, नामेण पोअणाहिवई । पियमित्तचक्कवट्टी मूआइ विदेहवासम्मि || ४२४ ।। टीका - गमनिका - आदिकरो दसाराणं (दशाराणां ) त्रिपृष्ठनामा पोतना नाम नगरी तस्या अधिपतिर्भविष्यतीति । क्रिया, तथा प्रियमित्रनामाचक्रवर्त्ती मूकायां नगर्यां विदेहवासंमि त्ति महाविदेहे भविष्यतीति । तं वयणं सोऊण राया अंचिअतणूरुहसरीरो । अभिवंदिऊण पिअरं मरीइमभिवंदओ जाइ ।। ४२५ ।। टीका- गमनिका - तद्वचनं तीर्थकरवदनविनिर्गतं श्रुत्वा राजा अञ्चितानि तनूरुहाणि शरीरे यस्य तथाविधः, अभिवन्द्य पितरं तीर्थकरं मरीचि अभिवन्दको याति पाठान्तरं वा 'मिरी " अभिवंदिडं जाई' त्ति मरीचि याति किमर्थम् ? - 'अभिवंदिउ, अभिवन्दनायेत्यर्थः, यातीति वर्त्तमानकालनिर्देशस्त्रिका लगोचरसूत्रप्रदर्शनार्थ इति गाथ थः । सो विणण उवगओ काऊण पयाहिणं च तिक्खुत्तो | वंद अभित्तो इमाहिं महराहि वग्गूहिं ॥ ४२६ ।। टीका - स भरतः विनयेन करणभूतेन मरीचिसकाशमुपगतः सन् कृत्वा प्रदक्षिणां च 'तिक्खुन्तो' त्ति त्रिकृत्वः तिस्रो वारा इत्यर्थः वन्दते, अभिष्टुतवान्, एताभिर्मधुराभिर्वगुभिर्व । ग्भरिति गाथार्थः । लाभा हु ते सुद्धा जंऽसि तुमं धम्मचक्कवट्टीणं । हो हिसि सचउदसमो अपच्छिमो वीरनामुन्ति ॥ ४२७ ॥ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ riमान जीवन कोश टीका- 'लाभा' अभ्युदयप्राप्तिविशेषाः, हुकारो निपातः स चैवकारार्थः तस्य च व्यवहितः सम्बन्धः 'ते' तब सुब्धा एव यस्मात् त्वं धर्मचक्रवर्त्तिनां भविष्यसि दशचतुर्द्दशः, चतुर्विंशरतिम इत्यर्थः अपश्चिमो वीरनामेति गाथार्थः । तथा आइगरी दसाराणं (४२४) गाथा पूर्ववत् नेया । एकान्त सम्यग्दर्शनानुरचित हृदयो भावितीर्थकर भक्त्या च तमभिवन्दनायोद्यतो भरत एवाहनाविअ ते पारिवज्जं वंदामि अह इमं च ते जम्मं । जं होहिसि तित्थयरो अपच्छिमो तेण वंदामि ॥ ४२८ ॥ टीका- गमनिका - नापि च पारिव्राजामिदं परिव्राज्यं वंदामि अहं, इदं च ते जन्म, किन्तु यद् भविष्यसि तीर्थकर, अपश्चिमस्तेन वंदामीति गाथाथः । एवं ह थोऊणं काऊण पदाहिणं च तिक्खुत्तो । आपुच्छिऊण पियरं विणीअणगार अह पविट्ठो ॥। ४२६ ॥ टीका- गमनिका - एवं स्तुत्वा व्हमिति निपातः पूरणार्थो वत्तेते कृत्वा प्रदक्षिणां च त्रिकृत्वः, आपुच्छय पितरं ऋषभदेवं विनीतनगरीम् - अयोध्यायामथ - अनन्तरं प्रविष्टो भरत इति गाथार्थः ॥ मरीचि का जातिमद तव्वयणं सोऊणं तिवई अप्फोडिऊण तिक्खुत्तो । अष्महिअजायहरिसो तत्थ मरीई इमं भणइ ॥ ४३० ।। टीका - गमनिका - तस्य भरतस्य वचनं तद्वचनं श्रुत्वा तत्र मरीचिः इदं भणतीति योगः, कथमित्यत आह- त्रिपदीं दत्त्वा रङ्गमध्यगतमल्लवत्, तथा आस्फोट्य त्रिकृत्वः, तिस्रो बारा इत्यर्थः; किविशिष्टः संस्ततः आह - अभ्यधिको जातो हर्षो यस्येति समासः, तत्र स्थाने मरीचिरिदंवक्ष्यमाणं भणति, वर्तमान निर्देशप्रयोजनं प्राग्वदिति गाथार्थः । जइ वासुदेव पढमो मूआइ विदेह चक्कवट्टित्तं । चरिमो तिखयराणं होउ अलं इतिअं मझ्झ । ४३१ ।। टीका- गमनिका यदि वासुदेवः प्रथमोऽहं मूकायां विदेहे चक्रवर्त्तित्वं प्राप्स्यामि तथा चरमः - पश्चिमः तीथ कराणां भविष्यामि, एवं तर्हि भवतु एतावन्मम, एतावतैव कृतार्थ इत्यर्थः, अलं पर्याप्तमन्येनेवि पाठान्तरं वा 'अहो मए एत्तियं' ति गाथार्थः । अहयं च दसाराणं पिया य मे चक्कवट्टिवंसस्स । अज्जो तित्थयराण अहो कुलं उत्तमं मम ॥ ४३२ ॥ टीका- गमनिका अहमेव च शब्दस्यैवकारार्थ खात्, किं ? - दसाराणं, प्रथमो भविष्यामिति वाक्यशेषः, पिता च 'में' मम चक्रवर्तिवंशस्य प्रथम इति क्रियाध्याहारः, तथा 'आर्यकः पितामहः स तीर्थकराणां प्रथमः, यत एवमत अहो विस्मये कुलमुत्तमं ममेति गाथार्थः ॥ - आव० निगा ४२१ से ४३२ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . नीच गोत्रकर्मकाउपार्जन(न) स्वामी च समवासार्क द्विनीतायां पुनः पुरि ॥ ४७ ।। तत्र प्रभुनमस्कृत्य पृष्टो भरतचक्रिणा । भाविणोऽर्हच्चक्रिविष्णुप्रतिविष्णुबलाञ्जगौ ॥४८॥ पुनः पप्रच्छ भरतः किं कश्चिदिह पर्षदि । भाव्यत्र भरतक्षेत्र नाथ ! त्वमिव तीर्थंकृत् ।। ४६ ।। मरीचिं दर्शयन्नाख्यत् स्वामो सूनुरयं तव । पश्चिमस्तोर्थकृद्वोरो नाम्ना भावीह भारते ।। ५० ।। भाव्याद्योऽत्र त्रिपृष्ठाख्यः शाङ्ग भृत्पोतने पुरे । मूकापूर्यां विदेहेषु प्रियमित्रश्च चक्रभृत् ॥ ५१ ।। तच्छ्र, त्वा नाथमापृच्छय मरीचि भरतो ययौ । त्रिश्च प्रदक्षिणीकृत्य वन्दित्वैवमवोचत । ५२ ।। स्वामिनोक्त चरमस्त्वं भाव्यर्हन्निह भारते। आदिश्च वासुदेवस्त्वं त्रिपृष्ठः पोतनेश्वरः ॥ ५३ ।। चक्रो विदेहमूकायर्या प्रियमित्रोऽभिधानतः । पारिवाज्यं न ते वन्द्य भाव्यहन्निति वन्द्यसे ॥ ५४ ।। तमित्युक्त्वा चक्रवर्ती प्रणम्य स्वामिनं पुनः । वनीतात्मा प्रविवेश विनीतां मुदितः पुरीम् ।। ५५ ।। तदाकर्ण्य मरोचिस्त्रिरास्फोट्य त्रिपदी मुदा । इत्युवाचोच्चकैविष्णुभविष्यामि यदादिमः ॥ ५६ ।। मूकानगाँ मे चक्रवर्तित्वं च भविष्यति । भाव्यहं चरमश्चाह न पर्याप्तमपरेण मे ॥ ५७ ।। आद्योऽहं वासुदेवानां पिता मे चक्रवर्तिनाम् । पितामहस्तीर्थकृतामहो मे कुलमुत्तमम् ।। ५८ ॥ एवं जातिमदं कुर्वन् भुजावास्कोटयन्मुहुः । नीचगोत्राविधं कर्म मरोचिः समुपार्जयत् ॥ ५६ ।। –त्रिशलाका० पर्व १०/सर्ग १ भावी तीथंकर-वर्धमान :प) अन्यदा भगवान् विहरमाणो अष्टापदमनुप्राप्तवान् , तत्र च समवमृतः, भरतोऽपि भ्रातृप्रव्रज्या कर्णनात् सञ्जातमनस्तापोऽध तिं चक्र, कदाचिद् भोगादीन् दीयमानान पुनरपि गृह णन्तीत्यालोच्य भगवत्समीपं चागम्य x x x 'पुच्छत्ति भरतो भगवन्तमष्टापदसममृतमेवं पृष्टवान - यादग्भूता यूयमेवंविधाः तीर्थकृतः कियन्तः खल्विह भविष्यन्तीत्यादि x x x -आव० निगा ३६०, ३६६/टीका - पुणरवि अ समोसरणे पुच्छीअ जिणं तु चक्किणो भरहे । अप्पुट्ठो अ दसारे तित्थयरो को इहौं भरहे ? ॥ ३६७ ।। मलय टीका-xxx। भगवानपि तान कथितवान , तथा अपृष्टश्च दशारान , तथा तीर्थकरः क इह भरतेऽस्यां परषदीति पृष्टवान, भगवानपि मरीचिं कथितवानिति । (फ) अण्णया य भरहचक्कवट्टिणा अवसेसतित्थगर चक्कवट्टिपण्हकहणावसाणम्मि पुच्छियं-किं भयवं । अस्थि कोइ इमीसे परिसाए तहाविहो जो तित्थयरत्त पाविहि ? त्ति । भगवया भणियं -अस्थि तुह चेव पुत्तो मिरीई, सोय अद्धचक्कवट्टीणं पढमो पोयणाहिवई तिविठ्ठणामेणं, पुणो विदेहे चक्कवट्टी, पुणो वि कालेण बंधिऊण तित्थयरणामं अपच्छिमो वद्धमाणाहिहाणो तित्थयरो भविस्सइ। चउप्पन० पू०४६ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ वर्धमान जोवन कोश तओ तमायणिऊण भरहचक्कवट्टी उवणीयणाणाविहाहारो साहुगो णिमंतेइ x x x तओ असमंज - सपरिहरणत्थ' कागणिरयणेण धिज्जाइयाणमुपपत्ति काऊ विणिओइयाहारो अणुण्गाययमरहच्छेत्त साहुपया मिरोई (इ) - वंदणत्थं गओ । वंदिओ य गुरुकहिउबट्टणपुत्र्वं मिराई। मिरीचिणा वि 'तित्थयरी अपच्छिमो भविस्सामि त्ति जाणिऊण कयमुत्तुणत्तणं, गहिओ माणत्थंभेण तप्पच्चयं च बद्ध णीयागोयं । भगवओ समीवे समइविरइयलिंगो य विहरिउमादत्तो । उवसामेइ बहुविहे हिं पयारेहिं पाणिणो । वसन्तेय पवज्जमुवट्ठिए जयगाहस्स सोमत्तणेण उवणेति । चउपन्न० पृ० ४६ एक समय भगवान् ऋषभदेव पुनः विनोता नगरों के समीप पधारे । वहाँ भरत चक्रवर्ती भगवान् के पास आकर भावी अरिहंतादि से संबंधित प्रश्न पूछे । प्रत्युत्तर में भगवान् ने भविष्यत् में होने वाले अरिहंत, चक्रवर्ती, वासुदेव, और बलदेव बताये । तत्पश्चात् भरत चक्रवर्ती ने पुनः प्रश्न किया - हे नाथ | आपकी इस सभा में इस भरत क्षेत्र में वर्तमान चौबोसो में तोर्थंकर होते वाला क्या कोई व्यक्ति है । प्रत्युत्तर भगवान् ने मयीचि को भावी तीर्थंकर बताकर बोले – यह तुम्हारा पुत्र मरीचि इस भरत क्षेत्र में वीर नामक अंतिम तोर्थंकर होगा तथा पोतनपुर में त्रिपृष्ठ नामक प्रथम वासुदेव और महाविबेह क्षेत्र में मूकापुरी में प्रियमित्र नाम का चक्रवर्ती होगा । यह बात सुनकर भगवान् की आज्ञा लेकरा भरत मरीचि के पास आये और तीन प्रदक्षिणा देकर उसे वन्दन किया। बाद में कहा कि - भगवान् ऋषभदेव के कथनानुसार तुम इस भरत क्षेत्र में चरम तीर्थंकरत्व को प्राप्त होओगे । पोतनपुर में त्रिपृष्ठ नामक प्रथम वासुदेव और महाविदेह क्षेत्र में मुकानगरी में प्रियमित्र नामक चक्रवर्ती होओगे । तुम सन्यासी हो - इस कारण तुम्हें मैं वन्दन नहीं करता हूँ परन्तु भावी तीर्थंकर हो इस कारण मैं तुम्हें वदन करता हूँ । इस प्रकार कहकर विनयवान् भरत चक्रवर्ती भगवान् ऋषभदेव को पुनः वंदन हर्षित होकर विनीता नगी आये । इधर मरीचि - भरत चक्रवर्ती के पास सारी हकीकत जानकर हष से तीन बार त्रिपदी कर नाचने लगा और उच्च स्वर से कहने लगा कि - पोतनपुर में मैं प्रथम वासुदेव होऊँगा, मूकानगरी में चक्रवती होऊँगा और तत्पश्चात् चरम तीर्थंकरत्व को प्राप्त होऊँगा । मुझे दूसरों की क्या अपेक्षा है । मैं वासुदेवों में प्रथम बासुदेव, मेरे पिता चक्रवर्तियों में प्रथम चक्रवर्ती और मेरे पिता के पिता तीर्थकरों में प्रथम तीर्थंकर है। अहो | हमारा कुल कैसा उत्तम है । इस प्रकार बारम्बार भुजास्फोट कर जातिभेद करते हुए मरीचि ते नीच गो कर्म का उपार्जन किया । मरीचि का शिष्यत्व ग्रहण (ब) ऋषमस्वामि निर्वाणादध्वं सार्धं स साधुभिः । विहरन प्रबोध्य भव्यान प्राहिणोत् साधुसन्निधौ ॥ ६० ॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश व्याधिभिश्चान्यदा प्रस्तोऽसंयमीति स साध भिः । अपाल्यमानो ग्लानः सन्मनस्येवं व्यचिन्तयत् ।। ६१ ।। अहो अमी साधवो धिङ निर्दाक्षिण्याः कृपोज्झिताः । स्वार्थमात्रोद्यता लोकव्यवहारपराङ्मुखाः ।। ६२ ।। यन्मां परिचितं स्निग्धमप्येकगुरुदीक्षितम् । विनीतमपि नेक्षन्ते दुरेऽस्तु मम पालनम् ॥ ६३ ।। पद्वादुश्चिन्तितं मेदो यदमी स्वतनोरपि . परिचर्यां न कुर्वन्ति भ्रष्टस्य तु कथं मम ।। ६४ ।। अनेन व्याधिना मुक्तस्तत् स्वस्थ प्रतिचारकम् । कञ्चिच्छिष्यं करिष्यामि स्वलिङ्ग नामुनैव हि ॥ ६५ ।। एवंध्यायन विधिवशान्मरोचिरभवत् पटुः । अन्यदा मिलितश्चास्य कपिलः कुलपुत्रकः ।। ६६ ॥ धर्मार्थी ज्ञापितस्तेन कपिलो धर्मपाहतम् । कि स्वयं न करोषीति सोऽच्छि कपिलेन च ।। ६७ ।। मरीचिवदद्धर्म नैनं कर्तु महं क्षमः । कपिलोऽयब्रवीत् किं त्वन्मार्गे धर्मो न विद्यते ॥ ६८ ।। जिनधर्मालसं ज्ञात्वा शिष्यमिच्छन स तं जगौ । मार्गे जैनेऽपि धर्मोऽसि मम मार्गेऽपि विद्यते ।। ६६ ॥ तच्छिष्यः कपिलोऽथाभून्मिथ्याधर्मोपदेशनात् । मरीचिरप्यब्धिकोटिकोटीसंसारमार्जयत् ॥ ७० ।। मरीचिस्तदनालोच्य विहितानशनो मृतः । ब्रह्मलोके दशोदन्वत्प्रमितायुः सुरोऽभवत् ।। ७१ ।। -त्रिशलाका०पर्व १०/सर्ग १ गेलन्ने पडियरणं कविला ! इत्थंपि इयंपि ॥ ४३७ ।। --आव. निगा ४३७ मलय टीका-अन्यदा स ग्लानः संवृत्तः साधवोऽप्यसंयतत्वान्न प्रतिजाप्रति, स चिन्तयति निष्ठितार्थाः खल्वेते, नासंयतस्य कुर्वन्ति, नापि ममैतान कारयितु युज्यते, तस्मात्कंचन प्रतिजागरक दीक्षयामीति अपगत रोगस्य च कपिलो नाम राजपुत्रो धर्मशुश्रूषया तदन्तिकमागतइति, कथिते साधुधर्मे स आह-यद्ययं मार्ग किमिति भवतंतदङ्गीकृतं ? मरीचिराह-पापोऽहं 'लोए इंदिये' त्यादि विभाषा पूर्ववत् कपिलोऽपि कर्मोदयात् साधुधानभिमुख' खल्वाह-तथापि कि भवदर्शने नास्त्येव धर्म इ ते ? मरीचिरपि प्रचुरका खल्वयं न तीर्थकरोक्त प्रतिपद्यते, वरं मे सहायः संवृत्तइति सच साह–'कपिला एत्याप' त्ति अपि शब्दस्यैवकारार्थत्वान्निरूपचरितः खल्वत्र व साधुमार्ग, 'इ.इं पि' त्ति स्वल्पस्त्वत्रापि विद्यतइति गाथार्थः । सह्य वमाकर्ण्य तत्सकाश एवं प्रजितः, मरीचिनाऽप्येनेन दुर्वचनेन संसारोऽभिनिवर्तितः श्री ऋषभदेव स्वामी के परिनिर्वाण के पश्चात् भो साधुओं के साथ बिहार करता हुआ मरीचि भव्यजनों प्रतिबोधित कर साधुओं के पास भेजा करता था। एक समय मरीचि व्याधि ग्रस्त हुआ। उस समय-"यह मो नहीं है - ऐसा धारकर अन्य साधुगण उसकी आश्वासन नहीं की। फलस्वरूप ग्लानिको प्राप्त होकर मरीचि ने Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बधमान जीवन-कोश मन में विचार किया-'अहो । ये साघु जो दाक्षिण्य बिना, निर्दय, स्वार्थ में उद्यमवंत और लोकव्यवहार से विमुख है - उन्हें धिक्कार है-इसके बनिस्बत में जो उनसे परिचित स्नेहवाला और एक ही गुरु द्वारा दीक्षित तथा धिनीत हूँ। उसका पालन करना तो दूर रहा परन्तु वे उनके सामने भी नहीं देखते हैं परन्तु मुझे उचित है कि इनसे अश्लील व्यवहार नहीं करना चाहिए क्योंकि ये साधु स्वयं के शरीर की भी परिचर्या नहीं करते हैं फिर हमारे जैसे भ्रष्ट की परिचर्या कैसे कर सकते हैं। मेरा ऐसा विचार है कि यदि मैं इस व्याधि से मुक्त होऊँगा तो बाद में हमारी सेवा करने योग्य एक शिष्य करूंगा । वह भी ऐसा ही लिंग को धारण करे । इस प्रकार चितवन करते हए मरीचि देवयोग से स्वस्थ हुआ। एक समय उसे कपिल नामक किसो कुल पुत्र से भेंट हुई । वह धर्मार्थी था फलस्वरूप मरीचि ने कपिल को आहतधर्म को कहा । उस समय कपिल ने यह प्रश्न किया कि आप स्वय' क्यों नहीं धर्म का आचरण करते हो। मरोचि ने कहा कि मैं उस धर्म को पालन करने में असमर्थ हूं। तत्पश्चात् कपिल ने कहा-तब क्या तुम्हारे मार्ग में धर्म नहीं है। इस प्रश्न से उसे जिनधर्म में आलसी जानकर शिष्य की इच्छा करता हुआ मरीचि बोला"जैन मार्ग में भी धर्म है और हमारे मार्ग में भो धर्म है। बाद में कपिल -मरीचिका शिष्य बन गया । उस समय मिथ्याधर्म के उपदेश से मरीचि ने एक कोटा-कोटो सागरोपम प्रमाण ससारा को उपार्जन किया। पापकर्म को किंचित् भी आलोचना किये बिना अन्त में अनशन युक्त मृत्यु प्राप्त कर मरोचि ब्रह्मदेवलोक में दशसागरोपम को आयुष्य वाला देव हुआ। मिथ्यामत की प्ररुपणा-शिष्यत्व के लोभ से (भ) अण्णया य भवियव्वाए तारिसभावयास गेलण्णावसरे कविलमुणिणा पुच्छिओ-भयवं'! कहिं पुण णिरूवाओ मोक्खमग्गो ? तओ सहसक्कारेण जहट्ठियमेव णिवेइयं भयवओ समीवे । पुणोवि कविलमुणिणा भणियं-भयवं। इहपुण किंगस्थि चेव मोक्खो ! तमायण्णिऊण गेलन्नपडियरणकंखुणा समुइण्णकम्मुणा पणट्ठविवेएणं अणालोइयाऽऽगामियदुइपरंपरेणं भणिय दीहयरसंसारकारणं मिरीइणा. कविला ! एत्थं पि मोक्खमग्गो अस्थि त्ति । तओ एएण दुभासिएणं अप्पा संसारसागरे पवाहिओ त्ति । -"चउप्पन० पृ० ४६ (म) दुब्भासिएण इक्केण मरीई दुक्खसागरं पत्तो। भमिओ कोडाकोडिं सागरसरिनामधिज्जाणं ।। ४३८ ।। तं मूलं संसारो नीआगुत्तं च कासि तिवइम्मि। अपडिक्कतो बंभे कविलो अंतद्धिओ कहए ॥ ४३६ ।। -आव० निगा ४३८-४३६ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ वर्धमान जीवन-कोश मलय टीका-प्रथमगाथागमनिका-दुर्भाषितेन एकेन उक्तलक्षणेन मरीचिटुःखसागरं प्राप्तः, भ्रान्तः कोटामोटीना, केषामित्याह-सागरसरिनामधेज्जाणं'ति सागरसदृशनामधेयानां, सागरोपणामिति गाथार्थः । द्वितीय गाथागमनिका-'तन्मूलं दुर्भाषितमूलंः संसारः सजातः, तथा स एव नीचौर्गोत्रं च 'कृतवान्' निष्पादितवान् त्रिपद्यां प्राग्वर्णितस्वरूपायामिति, 'अपडिक्कतो बभेत्ति स मरीचिश्चतुरशीतिपूर्वशतसहस्राणि सर्वायुष्कमनुपाल्य तस्मात् दुर्भाषिताद् गर्वाच्चाप्रतिक्रांतः-अनिवृत्तः ब्रह्मलोके दशसागरोपमस्थितिदेवः सञ्जात इति । (य) अथासौ त्रिजगत्स्वामी ह्य काकी सिंहवन्महीम् । विहृत्याब्दसहस्रान्तं मौनेन प्राक्तने वने ।। १२ ।। हत्वा घातिरिपून शुक्लध्यानखङगेन तीर्थराट्। केवलज्ञानसाम्राज्यं स्वीचकार जगद्वितम् । ६३ ।। तत्क्षणं यक्षराडस्य दिव्यमास्थानमण्डलम् । स्फुरद्रत्नसुवर्णाद्य श्चक्रे विश्वाङ्गिपूरितम् ।। ६४ ।। इन्द्राद्याः परया भूत्या सकलनाः स वाहनाः । चक्रिरेऽष्टविधां पूजां भक्त्या दिव्याच नैविभोः ।।६५ ।। कच्छाद्याः प्राक्तनास्तेऽस्मादाकर्ण्य बंधभोक्षयोः । स्वरूपं परमार्थेन निम्रन्था बहवोऽभवन् ॥ १६ ॥ मरीचिस्त्रिजगभर्तुः श्रुत्वापि सत्पथं परम् । मुक्त न स्वमतं दुर्धाश्चात्यजद् भवकारणम् ॥ ६७ ।। यथैष तीर्थनाथोऽत्रात्मना संगादिवर्जनात् । त्रिजगज्जनसंक्षोभकारि सामर्थ्यमाप्तवान् ॥६ ।। मदुपज्ञ तथा लोके व्यवस्थाप्य मतान्तरम् ॥ तन्निमित्तोरुसामाज्जगत्त्रयगुरोरहम् ॥६६ ।। प्रतीक्षा प्राप्तुमिच्छागि तन्मेऽवश्यं भविष्यति । इति मानोदयादुष्टो न व्यरंसीत्स्वदुर्मतात् ॥१००॥ त्रिदंडसंयुतं वेषं तमेवादाय पापधीः। कायक्लेशपरो मूर्खः कमण्डलुकराङ्कितः ।। १०१ ॥ प्रातः शीतजलस्नानात्कन्दमूलादिभक्षणात् । बाह्योपधिपरित्यागात् कुर्वन् विख्यातिमात्मन ॥ १०२ ।। कपिलादिस्व शिष्याणां स्वकल्पितमतान्तरम् । इन्द्रजालनिभं निन्द्य यथार्थ प्रतिपादयन् ॥ १०३ ।। मुदा भ्रान्त्वा चिरं भूभौ मिथ्यामार्गाग्रणीः खलः । कालेन मरणं प्राप तनूजो भरतेशिनः ।। १०४ ॥ अज्ञानतपसाथासौ ब्रह्मकल्पेऽमरोऽजनि । दशसागरजीवि स्वयोग्यसंपत्सुखान्वितः ॥ १०५ ।। अहो इदृक् तपःकर्तायं यद्याप सुरालयम् । अतो ये सुतपः कुर्यस्तेषां किंकथ्यते फलम् ।। १०६ ।। -वीरच० अधि २ अनान्तर वे गिजस्वामी ऋषभदेव ( छः मास के योग पूर्ण होने के पश्चात् ) एक हजार वर्ष तक मौन से सिंह के समान पृथ्वी पर विहार करके जिसमें दीक्षा ली थी, उसी पूर्ववन में आये और वहां पर उन्होंने शुक्ल ध्यान रूप खडग से घातिकर्म रूप शत्र ओं का घात करके जगत् का हितकारक केवल ज्ञान रूप साम्राज्य प्राप्त किया और तोराट् बन गये। उसी समय यक्षराज ने स्फुराययान रत्न-सुवर्णादि से उनके दिव्य आस्थानमंडल ( समवसरण सभा ) को रचना की; जिसमें सर्वप्राणी यथास्थान बेठ सकें। इन्द्रादिक भी उत्कृष्ट विभूति, अपनी देवांगनाओं ओर वाहनों के साथ आये और दिव्य पूजन-सामग्री से उन्होंने प्रभु की भक्ति के साथ आठ प्रकार की पूजा की। भगवान् के मुख से बन्ध और मोक्षका स्वरूप सुनकर उन पुरातन कच्छादिक भ्रष्ट साधुओं में बहुत से साधु पुन: Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वधमान जीवन-कोश परमार्थ रूप से निप्रन्थ बन गये। दुर्बुद्धि मरीचि त्रिजगत्प्रभु से मुक्ति का परम सन्मार्ग कप उपदेश सुनकर के भी संसार के कारणभूत अपने खोटे मत को नहीं छोड़ा। प्रत्युत मन में स चने लगा कि जैसे इन पूज्य तीर्शनाथ ऋषभदेव ने परिग्रहादि को त्यागने से तीन जगत के जीवों को क्षोभित करने वाली सामथ्य प्राप्त की है, उसी प्रकार मै भी अपने द्वारा प्रपित इस अन्य मत का लोक में व्यवस्थित करके उसके निमित से महान सामय वाला होकर त्रिजगत् का गुरु हो सकता हूँ। मै इस अवसर को पाने के लिए प्रतीक्षा करता हूँ। वह सामथ्य मुझे अवश्य प्राप्त होगी। इस प्रकार के मान कषाय के उदय से वह दुष्ट अपने खोटे मत से विरुद्ध नहीं हुआ। वह पा उसी तीन दण्ड युक्त वेषको धारण कर और हाथ में कमण्डलु लेकर कायक्लेश सहने में त पर रहने लगा। वह प्रात:काल शीतल जल से स्नान करके कंदमूलादि फलों को खा करके और बाहरी परिग्रह के त्याग से अपनी प्रख्याति करने लगा, तथा कपिल आदि अपने शिष्यों को इन्द्रजाल के समान अपने कल्पित निन्द्य मतान्तर को यथाथ प्रतिपादन करता हुआ मिथ्यामार्ग के प्रवर्तन का अग्रणी बनकर चिरकाल तक भारतभूमि में परिभ्रमण करता रहा। अंत में भरतेश वह पुत्र मरोचि यथाकाल मरण को प्राप्त होकर अज्ञान तपके प्रभाव से ब्रह्मकल्प में दस सागरोपम की आयु का धारक और अपने पुण्य के योग्य सुख-संपति से युक्त देव हुआ। अहो, इस प्रकार के कुतप को करने वाला व्यक्ति यदि स्वर्गलोक को प्राप्त हुआ, तो जो लोग सुतप को करेंगे, उनके तप का क्या फल कहा जाये ? अर्थात् वे तो और भी अधिक उतम फल को प्राप्त करेंगे। मरीचि के शिष्य कपिल द्वारा सांख्यदर्शनका प्रवर्तन xxx कविलो अंतद्धिओ कहए ।। -आव निगा ४३६ उत्तरार्धं (र) मलय टीका-कपिलोऽपि ग्रंथार्थपरिज्ञानशून्य एव तद्दर्शितिक्रिधारतो विजहार, आसुरिनामा च शिष्योऽनेन प्रत्राजित इति, तस्य स्वभाचारपात्रंदिदेश एवमन्यानपि शिष्यान् स गृहीत्वा शिष्यप्रवचनानुरागततरो मृत्वा ब्रह्मलोक एवोत्पन्नः, स ह्य त्पत्तिममनन्तरमेवावधि प्रयुक्तवान् कि मया हुतं वेष्टं वा दानं वा दत्तं येनैषां दिव्या देवद्धिः प्राप्तेनि, स्त्रं पूर्वभवं विज्ञाय चिन्तयामास-मम शिष्यो न किञ्चिद्वेत्ति, तत्तस्योपदिशामि तत्त्वमिति, तस्मै आकाशस्थपंचवर्णमंडलकस्थः, तत्त्वं जगाद, आह च - कपिलो अंतद्धिओ कहए' कपिलः अन्तर्हितः कथितवान , किं ?' अव्यक्ताद् व्यक्त प्रभवति, ततः षष्टितन्त्र, तथा चाहुस्तन्मतानुसारिणः -- 'प्रकृतेमहांस्ततोऽङ्कारस्तस्माद् गणश्च षोडशकः । तस्मादपि षोडशकात् पंचभ्यः पंच भूतानी ।। १ ।। (ल) कविलो वि ग्रन्थस्थविण्णाणरहिओ केवलं तिकि करियाणुढाणपरायणो विहरति । अण्णया तेण आसुरी णाम पवावओ। तस्य य सो कविगो आचारमेत्तं उद्दिसिऊण अण्णे य बहवे सीसा पवावेऊण य, सदरिसणाणुगयचित्तो मरिऊण बम्भलोगं चेव गओ। तेण य उम्पत्तिसमणतरमेव उवउत्तो Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१ वर्धमान जीवन-कोश ओही, उक्लद्धो पुठवजम्मवुत्तन्तो। चिंतियं च णेण जहा-मझ सीसो विस्ट्ठिविण्णाणरहिओ, ता एयस्स उवइसामि तत्तं । ति चिंतिऊण ओइण्णो मत्तलोए । आगासस्थपंचमंडलकोवविठ्ठो तत्तं उदिसिउमाढत्तो, तंजहा-अव्वत्ताओ तिगुणपरिणामप्पहाणाओ वत्त पहवइ ति। तओ तस्सुवएसेणं सहित संजायंति । -चउप्पन्न० पृ०६७ व) शिष्यान् विधायासूर्यादीन स्वाचारानुपदिश्यच विपद्य च ब्रह्मलोके कपिलोऽप्यमरोऽभवत् ।। ७२ ।। स प्राग्जन्मावधेत्विा मोहादभ्येत्य भूतले । स्वयं कृतं सांख्यमतमासूर्यादीनबोधयत् ।। ७३ ।। तदाम्नायादत्र सांख्यं प्रावर्तत च दर्शनम् । सुखसाध्ये ह्यनुष्ठाने प्रायो लोकः प्रवर्तते ।। ७५ ॥ -त्रिशलाका० पर्व १० । सर्ग १ (श) कपिलो मरीचिसकाशे निष्क्रान्तः । --आव० निगा ३६६ । मलय टीका मरीचिका शिष्य कपिल भी आसूर्य आदि को स्वयं का शिष्य किया। उन्हें स्वय' के आचार वाला उपदेश दिया। कालान्तर में मृत्यु को प्राप्त होकर कपिल ब्रह्मदेवलोक में देव हुआ । वहाँ अवधि ज्ञान से स्वयं के पूर्व जन्म को जानकर उस पृथ्वी पर आया और उसने आसूर्य आदि को स्वय का सांख्य मत बताया। उसकी आम्नाय से इस पृथ्वी पर सांख्य दर्शन का प्रवर्तन हुआ । क्योंकि अधिकतर लोग सुखसाध्य अनुष्ठान में हो प्रवर्तन करते हैं। .०४ भगवान महावीर का जोव ब्रह्मकल्प देव में(क) मलयटीका-+++'अपडिक्कतो बंभे' त्ति स मरीचिश्चतुरशीतिपूर्वशतसहस्राणि सर्वायुष्कमनु पाल्य तस्मात् दुर्भाषिताद् गर्वाञ्चाप्रतिक्रांतः - अनिवृत्तः ब्रह्मलोकेदशसोगरोपमस्थितिर्देवः संजातः इति ॥ इक्खागेसु मरोई चउरासीई अ बंभलोअम्मि । ++ + | मलयटीका-गमनिका- इक्ष्वाकुषु मरीचिरासीत्, चतुरशीतिं च पूर्वशतसहस्राण्यायुष्क पालरित्वा 'बंभलोयंमि' ब्रह्मलोके कल्पे देवः संघृत्तः ++ + । -आव० निगा ४३६/४४० भगवान महावीय का जीव मरीचिकुमार भव का आयुष क्षय करके दुर्भाषित वचन ( परिव्राजक मत का प्रतिपादन ) करने से तथा ( भावी तीर्थकर होने के ) गर्व से अनिवृतः रहकर । ( एक काल में स्वध्याय एवं ध्यान युक्त होकर ) ब्रह्मलोक में दश सागरोपम स्थिति के देव रूप में उत्पन्न हुआ। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ वर्धमान जोवन-कोश (ख) जिन धर्मालसं ज्ञात्वा शिष्यमिच्छन् स तंजगौ। मार्गे जैनेपि धर्मोस्ति मममार्गेऽपि विद्यते ।। तच्छिध्यः कपिलोऽथाभून्मिथ्याधर्मोपदेशनात् । मरीचिरप्यब्धिकोटिकोटीसंसारमार्जयत् ॥ मरीचिस्तदनालोच्य विहितानशनो मृतः । ब्रह्मलोके दशोन्वत्प्रमितायुः सुरोऽभवत् । -त्रिशलाका० पर्व १०सग १। श्लो ६६ से ७१ (ग) मिरीयी वि चउरासीपुव्वलक्खे आउयमणुवालिऊण, चइऊण अणसणविहिणा तस्स य दुब्भासियट्ठाणस्स अपडिक्कतो, मरिऊण बम्भलोए कप्पे दससागरोवमाई ( बम ) हिईओ देवो समुप्पण्णो । --चउप्पन्न० पृ०६७ जिनधर्म में आलस जानकर शिष्य की इच्छा करता हुआ मरीचि कपिल को बोला- जैन मार्ग में भी धर्म है और हमारे माग में भी धर्म है। फलस्वरूप कपिल उनका शिष्य हुआ। उस समय मिथ्याधर्म के उपदेश से मरोचि ने कोटाकोटो सागरोपम प्रमाण संसार-उपार्जन किया। उस पापकर्म की किंचित भी आलोचना किये बिना अनशनकर मृत्यु को प्राप्तकर मरीचि ब्रह्म देवलोक में दस सागरोपम की आयुवाला देव हुआ। घ) मुदा भ्रान्त्वा चिरं भूभौ मिथ्यामार्गाग्रणीः खलः। कालेन मरणं प्राप तनूजो भरतेशिनः ॥ १०४ ॥ अज्ञानतपसाथासौ ब्रह्मकल्पेऽमरोजनि। दससागरजीवि स्वयोग्यसंपत्सुखान्वितः ।। १०५ ।। -वीरच० अधि २ मिथ्या मार्ग के प्रवर्तन का अग्रणी बनकर चिरकाल तक भारतभूमि में दुर्बुद्धि मरीचि परिभ्रमण करता रहा। अंत में भरतेश का वह पुत्र मरीचि यथाकाल मरण को प्राप्त होकर अज्ञानतप के प्रभाव से ब्रह्मकल्प में दश सागरोपम की आयु का धारक और अपने पुण्य के योग्य सुखसम्पत्ति से युक्त देव हुआ। (च) पंचवीस तच्च उवएसिवि कुमय-मग्गे जडयणु विणिएसिवि । परिवायय - तउ चिरु विरएविणु सोमिच्छत्ते पाण-मुए विणु। पंचम-कप्पि सुहासिव हूवउ कहो उवमिज्जइ अणुवम-रूवउ । दह रयणायर-परिमिय-जीविउ सहजाहरण-किरण-परिदीविउ ॥ जीवियंति सोणिहउ कयंते -वड्ढमाणच० संधि २ । पृ० ३. कुमत मार्ग में जड़जनों को विनिविशित कर उन्हें पचीस-तत्त्वों का उपदेश किया और चिरकाल तक परित्राजक-तप करके उस मरीचि ने मिथ्यात्वपूर्वक प्राण छोड़े और पांचवें कल्प में सुधाशी देव हुआ। वह रूपसौंदर्य में अनुपम था। वहां उसकी जीवित आयु दस सागर प्रमाण पी। वह सहज सुन्दर आचरणों से प्रदीप्त था। (छ) कपिलादिस्वशिष्याणां यथार्थ प्रतिपादयन् । सूनुर्भरतराजस्य धरिव्यों चिरमभ्रमत् ।। ६६ ।। स जीवितान्ते संभूय ब्रह्मकल्पेऽमृताशनः दशाब्ब्युपमदेवायुरनुभूय सुखं ततः ॥६७ ।। --उत्तपु० पर्व ७४ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जोवन - कोश ३३ इस प्रकार कपिल आदि अपने शिष्यों के लिए अपने कल्पित तत्व का उपदेश देता हुआ सम्राट भरत का पुत्र मरीचि चिरकाल तक इस पृथ्वी पर भ्रमण करता रहा। आयु के अन्त में मरकर वह ब्रह्मस्वर्ग में दस सागर की आयुवाला देव हुआ 1 *०५ भगवान महावीर का जीव कौशिक परिव्राजक भव में अथवा जटिल ब्राह्मण भव में • १ कौशिक परिवाजक भव में (श्वे० ) (क) ततः (ब्रह्मदेवलोकस्य ) आयुष्यकक्षायात् च्युत्वा ' को सियकोल्लाएस' त्ति कोल्लाकसनिवेशे कौशिको ब्राह्मणो बभूव, 'असीतिमाउ' च संसार' त्ति स च तत्राशीतिपूर्वशतसहस्राण्यायुष्कमनुपालय XX×। कोसिअ कुल्लागम्मी असीइमाउ' च संसारो ॥ - आव० निगा० ४४० / मलय टीका (ख) च्युत्वा मरीचिजीवोsपि कोल्लाके सन्निवेशने । कौशिकाख्यः पूर्वलक्षाशीत्यायुर्ब्राह्मणोऽभवत् ॥ ७५ ॥ स सदा विषयासक्तो द्रव्योपार्जनतत्परः । हिंसादिषु च निःशूकः कालं भूयांसमत्यगात् ॥७६॥ - त्रिशलाका० पर्व० १० स० १ (ग) मिरीयीवि देवलोगाओ चविऊण कोल्लागसन्निवेसे कोसिओ णाम बम्भणत्तणेण समुप्पण्णे । तत्थयअसीति पुव्वलक्खे आउयमणुवालिऊण, अन्तेय परिव्वायगत्तणेणं विहरिऊण, कालं च काऊण मओ । - चउप्पन्न० पृ० ६७ भगवान महावीर का जीव ब्रह्म देवलोक से चवन करके कोल्लाकसन्निवेश में कौशिक ब्राह्मण रूप में उत्पन्न हुआ तथा उसकी आयुष अस्सी लाख पूर्व की थी । '२ जटिल ब्राह्मणभव में – (दिग्० ) ( क अथेह भारते पूर्णां साकेतायांद्विजोवसेत् । कपिलाख्यः प्रिया तस्य कालीनाम्ना बभूव हि ।। १०७ ॥ तयोः स निर्जरः स्वर्गादेत्यांभूज्जटिलाभिधः । सुतो दुर्मतसंलीनो वेदस्मृत्यादिशास्त्रवित् ।। १०८ ।। पूर्वसंस्कारयोगेन परिव्राजक एव सः । भूत्वा मूढजनैर्वन्द्यः स्वकुमार्गं प्रकाशयन् ।। १०६ ।। वीरच० अधि २ इस भारतवर्ष में साकेतापुरी के भीतर कपिल नाम का एक ब्राह्मण रहता था । उसकी काली नाम की स्त्री थी । उन दोनों के वह देव स्वर्ग से चयकर जटिल नाम का पुत्र हुआ। वह कुमत में संलीन रहता था और वेद, स्मृति आदि शास्त्रों का विद्वान् था | पूर्व संस्कार के योग से वह पुनः परिव्राजक होकर कुमार्ग का प्रकाशन करता हुआ मूढजनों से वंदनीय हुआ । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वधमान जीवन-कोष (ख) तिविह-भुवण भवणंगे कयंतें । कोसलपुरि कविलहो भूदेवहो परिणिवसंतहो चवल - सहावहो । जण्णसेण - कंता - अणुरत्तहो जण्णोइय - परिभूसिय - गत्तहो । तहो तणुसहु सस्थत्थ - वियक्खणु हुउ बह्यणु सव्वंग-सलक्खणु । जडिलु भणिउ जलणुव दिप्पंतउ मिच्छादिहिहे सहुँ जपंतउ । -वड्डमाणच० संधि २ तीन होकों में एक अद्वितीय भवन के समान कोशला नाम की नगरी थी, जहाँ चपल स्वभावी कपिल भूदेव नामक ब्राह्मण निवास करता था। उसकी यज्ञादिक से परिभूषित गात्रवाली एवं अनुरागिणी यज्ञसेना नाम की कान्ता थी।। उनके यहाँ शास्त्रों एवं उनके अर्थों में विलक्षण विद्वान् तथा सर्वागीण शारीरिक लक्षणों से युक्त जटिल नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ, जो अग्नि शिखा के समान दीप्त था। तथा जो मिथ्यादृष्टियों के साथ ही वार्तालाप करता था। (ग) प्रच्युत्यागत्य साकेते कपिलब्राह्मणप्रभोः काल्याश्च तनयो जज्ञ जटिलो नाम वेदवित् ॥ ६८ ।। परिव्राजकमार्गस्थस्तन्मार्ग संप्रकाशयन् । पूर्ववत्सुचिरं x x x ॥६६ ।। -उत्तपु० पर्व ७४ ब्रह्मस्वर्ग से च्युत हुआ और अयोध्या नगरी में कपिल नामक ब्राह्मण की काली नाम की स्त्री से वेदों को जानने वाला जटिल नाम का पुत्र हआ। परिव्राजक के मत में स्थित होकर उसने पहले की तरह चिरकाल तक उसीके मार्ग का उपदेश दिया। .०५ क चतुर्गति संसारभ्रमण (क) x x x संसारो॥ मलयटीका-'संसार' त्ति तिर्यग्नरनारकामरभवानुभूतिलक्षणे संसारे पर्यटित इति गाथार्थः ।। -आव० निगा ४४० का अंश (ख) सोऽन्ते त्रिदंडी भूत्वा च मृत्वा भ्रान्त्वा बहून् भवान् || -त्रिशलाका० पर्व १०/सर्ग १/श्लो ७७/ पूर्वार्ध कोल्लाक सन्निवेश में कौशिक ब्राह्मण भव के पश्चात् भगवान् महावीर के जीव ने चतुर्गति रूप संसार का भ्रमण किया। .०६ ईशान स्वर्ग देव अथवा सौधर्म स्वर्ग देव भव में ___ (क) आवश्यक नियुक्ति में इस भवका वर्णन नहीं है। चतुर्गति रूप संसार का भ्रमण करते किस देव भवको प्राप्त किया-इसका उल्लेख नहीं है। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ बधमान जीवन-कोश (ख) त्रिशलाका पुरुष चरित्र में भी इस भव का वर्णन नहीं है । चतुर्गतिरूप संसार का भ्रमण करते किस देवभव को प्राप्त किया-इसका उल्लेख नहीं है । १ सौधर्म स्वर्ग का देव भव में-(श्वे) (ग) को सिओणाम बम्भणत्तणेण x x x मरिऊण अजहण्णुक्कोसटिइओ सोहम्मे कप्पे समुप्पण्णो ।। -चउप्पन्न पृ.६७ कौशिक परिव्राजक मरकर सौधर्म फल्प में अजघन्य-अनुत्कृष्ट स्थिति वाला देव हुआ। २ सौधर्म स्वर्ग का देव भव में ( दिग्०) (क) पूर्ववत्सुचिरं लोके मृत्वा स्वस्यायुषः क्षये । तत्कष्टादमरो जज्ञ कल्पे सौधर्मनामनि ॥ ११० ॥ द्विसागरोपमायुष्कः स्वल्पर्धिसुखसंयुतः । अहो न निःफलं जातु कुधियां कुतपो भुवि ॥ १११ ॥ -वीरवर्ध०-अधि २ (ख) — परिव्राजकमार्गस्थस्तन्मार्ग संप्रकाशयन् । पूर्ववरसुचिरं मृत्वा सौधर्मेऽभूत्सुरः पुनः ।। ६६ ।। -उत्तपु० पर्व ७४ ग) भयव-दिक्ख गेव्हेविणु काले परिपालेविणु मुउ असरालें । घत्ता-हुउ सुरु सोहम्म मणिमय-हम्मइँ वे-सायर-जीविय-धरु । अमियज्जुइ समण्णिउ सुर-यण-मण्णिउ सुन्दरु उणणय-कुन्धरु ।। -वड्ढमाणच० संधि २ अन्त समय में बटिल ने भगवती दीक्षा ग्रहण कर उसका पालन कर कष्ट पूर्वक मरा । पूर्वभव के समान इसभव में भी वह चिरकाल तक अपने मत का प्रचार करता और उसे पालन करता हमा आयु के क्षय हो जाने पर मरकर उस अज्ञान तप के कष्ट-सहन के प्रभाव से पुन: सौधर्म नामक कल्प में देव उत्पन्न हुआ। वहां वह दो सागरोपम की आयुका धारक और अल्प ऋद्धि से संयुक्त हुआ। अही। कुबुद्धियों का कुतप भी संसार में कभी निष्फल नहीं होता । ०७ पुष्यमित्रपरिव्राजक अथवा पुष्पमित्र ब्राह्मण भव में (क) मलय टीका-संसारे क्रियन्तभषि कालमटित्वा स्थूणायां नगर्या जात इति, अमुमेवार्थ 'थूणाये त्यादिना प्रतिपादयतिथूणाई पूममित्तो आउ बावत्तरि च सोहम्मे । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वधमान जीवन कोश मलय टीका-स्थुणायां नगर्यां पुष्पमित्रो नाम ब्राह्मणः सजातः 'आबावत्तरिं च सोहम्मे' त्ति तस्यायुष्कं द्विसप्रतिपूर्वशतसहस्राण्यासीत्-परिवाजकदर्शने च प्रत्रज्यां गृहीत्वा तांपालयित्वा कियन्तमपि कालं स्थित्वा + + + । --आव० निगा ४४१ (ख) सोऽन्ते त्रिदंडी भूत्वा च मृत्वा, भ्रान्त्वा बहून् भवान् । स्थाणूख्ये सन्निवेशेऽभूत् पुष्पमित्राभिधोद्विजः ।। ७७ ।। भूत्वा त्रिदण्डिकः पूर्वलक्षद्वासप्ततिप्रमम् । अतोत्यायुः स सौधर्मे सुरोऽभून्मध्यमस्थितिः ।।७८॥ –त्रिशलाका० पर्व १०सर्ग १ भगवान् महावोर का जीव कौशिक ब्राह्मण का भवायुक्षय करके, संसार पर्यटन कर स्थूणा नगरी में पुष्पमित्र नामक ब्राह्मण रूप में उत्पन्न हुआ। परिव्राजक दीक्षा ग्रहण की। सर्वायु बावत्तर लाख पूर्व का भोग किया । (ग) अथैवात्र पुरे रम्ये स्थूणागारसमाह्वये। भारद्वाजद्विजोऽम्यासीत्पुष्पदन्ता च वल्लभा ।। ११२ ।। तयोः स कल्पतश्च्युत्वा पुष्पमित्राहयोऽभवत् । तनूजो दुर्मतोत्पन्नकुशास्त्राभ्यासतत्परः ।। ११३ ॥ पुनर्मिथ्याघपाकेन मिथ्यामतविमोहितः । स्वीकृत्य प्राक्तनं वेषं प्रकृत्यादिप्ररूपितान ॥११४ ।। -वीरच० अधि २ (घ) सूणायार गामि मण-मोहणि कुसुमिय–फलिय विविह-वण-सोहणे । आसि विप्पु पुहुविए विक्खायउ णिय - कुल - भूसणु भारदायउ ।। पुप्फमित्त तहो कंत मणोहर कंचण-कलस-सरिच्छ-पओहर || विमलोहय पक्खहिं पविराइय हंसिणीव हरिसेणप्पाइय । आवेप्पिणु तियसावासहो सुरु ताहँ पुत्तु जायउ भा-भासुरु । पूसमित्त णामें मण-मोहणु माणिणि-यण-मण वित्ति-णिरोहणु । परिवायमहँ निलउ पावेप्पिणु सग्ग-सुक्खु णिय-मणि भावेप्पिणु । बालुविदिक्खिउ बालायरणे गमइ कालु भव-भय-दुह यरणें । तउ चिरु कालु करेइ मरेविण पंचवीस तच्चई भावेविण ।। -वड्ढ़माणच० संधि २ (च) द्विसमुद्रोपमं कालं तत्र भुक्त्वोचितं सुखम् । प्रान्ते ततः समागत्य भरतेऽस्मिन्पुरोत्तमे ॥७॥ स्थूणागाराभिधानेऽभूभारद्वाजद्विजस्य सः। तनूजः पुष्पदत्ताया पुष्यमित्राह्वयः पुनः ॥७१।। स्वीकृत्य प्राक्तनं वेषं प्रकृत्यादिप्ररूपितम् । पंचविंशतिदुस्तत्त्वं मूढ़ानां मतिमानयत् ।। ५२॥ उत्तपु० पर्व ७४ दो सागर तक सौधर्म स्वर्ग के सुख भोगकर आयु के अंत में वह वहाँ से च्युत हुआ और इसो भरतक्षेत्र के स्थणागार नामक श्रेष्ठ नगर में भारद्वाज नामक ब्राह्मण को पुष्पदत्ता स्त्री से पुष्यमित्र नामक पुत्र उत्पन्न हआ। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश उसने वही पहला परिव्राजक का वेष धारण कर प्रकृति आदि के द्वारा निरूपित पचीस मिथ्या तत्त्व मूर्ख मनुष्यों की बुद्धि में प्राप्त कराये अर्थात् मूर्ख मनुष्यों को पचीस तत्त्वों का उपदेश दिया। ७ क संसार भ्रमण xxx परिव्राजकदर्शने च प्रव्रज्यां गृहीत्वा तां पालयित्वा कियन्तमपि कालं स्थित्वा x x x । -आव• निगा ४४१मलयटीका परिव्राजक भवमें प्रव्रज्या ग्रहणकर-पालन कर संसार में कितनेककाल भ्रमण किया था ०८ सौधम कल्प देव अथवा ईशान कल्पदेव भव में क) xxx च सोहम्मे । मलयटीका- xxx पुप्पमित्रो xxx कियन्तमपि कालं स्थित्वा सौधर्मे कल्पेऽजघन्योत्कृष्टस्थितिः समुत्पन्न इति। - आव० निगा ४४१ का अंश भगवान् महावीर का जीष पुष्पमित्र ब्राह्मणभव की आयु क्षय करके सौधर्म कल्पदेव लोक में मध्यम स्थिति के आयुष्क देव रूप में समुत्पन्न हुमा । (ख) भूत्वा त्रिदण्डिकः पूर्वलक्षद्वासप्ततिप्रमम्। अतीत्यायुः स सौधर्मे सुरोऽभून्मध्यमस्थितिः ।। -त्रिशलाका• पर्व १०/सर्ग १ । श्लो० ७८ । (ग) पञ्चविंशतिदुस्तत्त्वान् दुधियामभिमानयन्। बद्धवा मंदकषायेण देवायुः सोऽभवद् व्यसुः ॥११५॥ तेन सौधर्मकल्पेभूदेकसागरजीवितः। स देवः स्वतपोयोग्यसुखलक्ष्म्यादिमंडितः ॥११६॥ -वीरच० अधि २ (घ) निष्कषायतया बवा देवायुरभवन्सुरः । सौधर्मकल्पे तत्सौख्यमेकवाध्युपमायुषा ॥ ७३ ॥ -उत्तपु० पर्व ७४ पुष्पमित्र प्रकृति आदि पूर्व प्ररूपित पचीस कुत्तत्त्वों को कुबुद्धिजनों के लिए स्वीकार करता हुआ मन्द कषाय के योग से देवायु को बाँध कर मरा और सौधर्म कल्प में एक सागरोपम की आयु का धारक एवं अपने तप के योग्य सुख और लक्ष्मी आदि से मंडित देव उत्पन्न हुआ। (च) तउचिरू कालु करेइ मरेविणु पंचवीस तच्चइँ भावेविणु । सुरु ईसाणे-सग्गि संजायउ कुसुम-माल-समलंकिय-कायउ । वे-सायर-संखाउसु सुहयण अच्छर-यण कय-गट्ट-णिहिय-मण । -वड्ढमाणच० संधि २ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ वर्धमान जीवन - कोश पुष्पमित्र चिरकाल तक तप करता रहा। फिर मर कर २५ तत्त्वों की भावना भाकर ईशान स्वर्ग में पुष्पमाला से अलंकृत देहधारी देव हुआ । वहाँ उसकी आयु दो सागर प्रमाण थी । वहाँ वह अप्सराओं द्वारा रचाये गये सुहावने नृत्यों में मन लगाने लगा । ०८ क संसार भ्रमण छवि परिव्वज्जं भभिओ तत्तो अ संसारे । - आव० निगा ४४३ उत्तराधं मलयटीका - एवं षट्स्वपि वारासु परिव्राजक्त्वमधिकृत्य दिवमवाप्तवान् 'भमिओ तत्तो य संसारे' XXX I छ परिव्राजक भवों के बाद देवलोक में उत्पन्न होकर भगवान महावीर के जीव ने संसार भ्रमण किया था । इस गाथा के आधार पर यह कहा जा सकता है कि पुष्पमित्र ब्राह्मण के भव के बाद सौधर्म देवलोक से च्यवन करके भगवान के जीव ने 'संसार - भ्रमण' किया । ०६ अग्निद्योत परिव्राजक अथवा अग्निसह (अग्निशिख) ब्राह्मण भव में (क) चेइअ अग्गिज्जोओ चोवट्ठी चेव ईसाणे ॥ - आव० निगा ४४१ उत्तरार्ध मलयटीका - 'चेइय अग्गिज्जोतो चोयट्ठीसाणकप्पं मि' ( चेव ईसा ) त्ति सौधर्माच्च्युतः चैत्यसन्निवेशे अग्निद्योतो ब्राह्मणः सन्जातः । तत्र चतुःषष्टिपूर्व शतसहस्राण्यायुष्कमासीत् । परिव्राट् सब्जातो | (ख) च्युत्वा चैत्ये सन्निवेशेऽग्न्युद्योतः स द्विजोऽभवत् । पूर्वलक्षचतुः षष्ट्यायुष्कः प्राग्वस्त्रिदण्ड्यभूत् ॥७६॥ - त्रिशलाका० पर्व १० / सर्ग १ (ग) तओ य चइऊण चेइए सण्णिवेसे अग्गिज्जोओ णाम बंभणो समुप्पण्णो । तत्थ य चडसट्ठि पुत्र्वलक्खे आउयमण वालिऊण अन्ते परिव्वायओ होऊण मओ । - चउप्पन्न० पृ० ६७ भगवान महावीर का जीव सौधर्म देवलोक से चव करके चैत्य सन्निवेश में अग्निद्योत ब्राह्मण के रूप में उत्पन्न हुए। वहाँ चौसठ लाख पूर्व की आयु थी । (घ) अथेह भारते क्षेत्र े श्वेतिकाख्ये पुरे शुभे ब्राह्मणोऽख्यग्निभूताख्यो ब्राह्मणी (तस्य) गौतमी ॥ ११७ ॥ स्वर्गाच्युत्वा तयोरासीत्सोऽमरः कर्मपाकतः । पुत्रोऽग्निसहनामा निज्जैकान्तमतशास्त्रवित् ॥ ११८ ॥ प्राक्कर्मणा भूत्वा परिव्राजकदीक्षितः । कालं स पूर्ववन्नीत्वा स्वायुषोऽन्ते पुनः मृतिं व्यगात् ॥ ११६ ॥ - वीरच० अधि २ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश ३६ इसी भरत क्षेत्र में श्वेतिका नाम के उतम नगर में अग्निभूति नाम का ब्राह्मण रहता था। उसकी ब्राह्मणी का नाम गौतमी था। स्वर्ग से चयकर वह देव उन दोनों के अग्निसह नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ। वह पूर्वकृत मिथ्यात्व कम के उदय से अपने ही पूर्व प्रचारित एकांत मत के शास्त्रों का ज्ञाता हुआ और पुनः पुरातन कम से परिव्राजक दीक्षा से दीक्षित होकर और पूर्व के समान काल व्यतीत कर आयु समाप्त किया। (च) भुक्तत्वा ततः समागत्य भरते सूतिकाह्वये। पुरेऽग्निभूतेगौ तम्यामभूदग्निसहः सुतः ॥ ७४ ॥ परिव्राजकदीक्षाया नीत्वा कालं स पूर्ववत् x x x । -उत्तपु० पर्व ७४ (छ) धत्ता-कण - निवडिय - खयरिहे सोइय णयरिहे अग्गिभूइ दिउहुन्तउ । गोत्तम - पिय · जुत्तउ पत्त - पहुत्तउ छक्कम्मइँ माणंतउ ।। ३४ ॥ एयहँ दोहिंमि सुहु भुजंतहँ सज्जणाई विगएँ रंजतहँ । आउक्खइँ सुर-वासु मुएप्पिणु सुर-सुन्दरिहिँ समाणु रमेप्पिण । पूसमित्त - चरु भयउ धणंधउ णिय-गुण-जियराणंदिय बंधउ । भणिउ अग्गिसिहु सोसइ - जणणे दुज्जण - भणिय - वयण - परिहणणे । पुणु परिवायय - तउ विरएविणु चिरु - कालें पंचत्त लहेविणु । -वड्ढमाणच० संधि २ वह ( मरीचि का जीव ) ईशान देव स्वर्ग से कण के समान पतित हआ। श्वेता नामकी नगरी में अग्निभति नाम का द्विज रहता था, जो अपनी गौतमी नाम की प्रिया से युक्त षट कर्मों को मानता हुआ प्रभुता को प्राप्त था। ( जब ) ये दोनों ( अग्निभूति और गौतमी) सुख - भोग कर रहे थे तथा अपने विनय गुण से सज्जनों का मनोरंजन कर रहे थे तभी उन के यहाँ आयु के क्षय होने पर स्वर्गीवास छोड़ कर सुर-सुन्दरियों के साथ रमण करने घाला वह (पुष्यमित्र का जीव ) ईशान देव स्वर्ग से चयकर अपने गुण समूह द्वारा बन्धुगणों को आनन्दित करने वाले पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ। अपने पिता (अग्निभूति ) के द्वारा वह 'अग्निशिख' इस नाम से पुकारा जाता था। 'अग्निशिख दुर्जनों को कहे गये वचनों का खण्डन करने वाला था। पुनः वह चिरकाल तक परिव्राजक तप कर पंचत्व को प्राप्त हुआ। •१० ईशान कल्प देव~या सानत्कुमार देव भव में(क. xxx चेव ईसाणे ॥ -आव० निगा ४४१ का शेषांश मलय टीका-xxx अग्निद्योतो ब्राह्मणः सञ्जातः, तत्र चतुःषष्टिपूर्वशतसहस्राण्यायुष्कमासीत्, परित्राट् संञ्जातो, मृत्वा चेशाने देवोऽजघन्योत्कृष्टस्थितिः संवृत इति गाथार्थः । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० (ख) मृत्वैशाने मध्यमायुः सोऽभूदेव स्ततश्च्युतः ।। ८० ।। वर्धमान जीवन - कोश - त्रिशलाका० पर्व १० / सर्ग १ +++ अग्निज्जोओ णाम बंभणो + + + । मरिऊण य ईसाणे कप्पेऽजहण्णमुक्कोसट्ठिई देवो - चउपन्न० पृ० ६७ भगवान महावीर का जीव अग्निद्योत ब्राह्मण के भव में परिव्राजक दीक्षा ग्रहण करके तथा सर्वायु चौसठ लाख पूर्व का जीकर आयुक्षेष में मर कर ईशान देवलोक में अजधन्य - अनुत्कृष्ट आयु वाले देव रूप में उत्पन्न हुआ । (ग) पुनः प्राक्कर्मणा भूत्वा परिव्राजकदीक्षितः । कालं स पूर्ववन्नीत्वा स्वायुषोऽन्ते मृति व्यगात् ॥ ११६ ॥ तदज्ञानतपक्लेशाद् बभूवासौ सुरौ दिवि । सनत्कुमारसंज्ञ े सप्ताब्धयायुकः सुखान्वितः ।। १२० ।। - वीरवर्ध मान० अधि २ सग्गं जाय उसुरु | (घ) चिरु कालें पंचत्त, लहेविणु । सणकुमार विष्फुरंत भूसण भा भासुरु । सत्त जलहि पमियाउ महामइ । गणगणे मग महिय सुरय गइ । - - - वड्ढमाणच० संधि २ (च) परिव्राजकदीक्षायां नीत्वा कालं सपूर्ववत् । सनत्कुमार कल्पेऽल्पं देवभूयं प्रपन्नवान् ॥ ७५ ।। सप्तान्ध्युपमितायुको भुक्त्वा तत्रामरं सुखम् ॥ - उत्तपु० ७४ वहाँ भी परिव्राजक की दीक्षा लेकर पहले के समान ही अपनी आयु बितायी और आयु के अंत में मरकर देव पद को प्राप्त हुआ । • १० क संसार भ्रमण ईशान देवलोक के बाद भगवान महावीर के जीव ने संसार भ्रमण किया था । .११ अग्निभूति पारिव्राजक या अग्निमित्र ब्राह्मण (क) मंदिरे अग्निभूई छप्पन्नाउ' सणकुमारम्मि । - आव० निगा ४४२ पूर्वार्ध मलयटीका - गमनिका - ईशानाच्च्युतो 'मंदिर' इति मंदिरसन्निवेशे अग्निभूतिनामा ब्राह्मणो बभूव, तत्र षट्पञ्चाशत् पूर्वंशतसहस्राणि जीवितमासीत् परिव्राजकश्च बभूव । - - ( आव० निगा० ४४३ उत्तरार्ध ) Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन - कोश मृत्वेशाने मध्यमायुः सोऽभूद वस्ततश्च्युतः । मन्दिरे सन्निवेशेऽभूदग्निभूतिरिति द्विजः ।। ८० ।। X X X षट्पंचाशत्पूर्वलक्षायुष्कः सोऽपि त्रिदंड्यभूत् ॥ - त्रिशलाका० पर्व १० / सर्ग १ ओ य चइऊण मंदिरे नगरे अग्गिभूईणाम बंभणो संवृत्त । तत्थ य छपंचासे पुव्वलक्खे आउयमणुपा लिऊण अंते परिवायगत्तणेणं । - चउप्पन्न० पृ० ६७ भगवान महावीर के जीव ने ईशान देवलोक से चक्कर मंदिर सन्निवेश में अग्निभूति नामक ब्राह्मण के रूप में लिया। परिव्राजक दीक्षा ली तथा छप्पन्न लाख पूर्व की आयु का भोग किया । यथास्मिन् भारते रम्ये मन्दिराख्येपुरे वरे । विप्रो गौतमनामास्य कौशिकीं ब्राह्मणी प्रिया ।। १२१ ॥ तयोर्देवो दिवश्च्युत्वा सोऽग्निमित्राभिधोऽजनिः । तनुद्भवो महामिध्यादृष्टिदुःश्रुतिपारगः ।। १२२ ।। - वीरच० अधि० २ आयुषोऽन्ते ततश्च्युत्वा विषयेऽस्मिन् पुरेऽभवत् ॥ ७६ ॥ मन्दिराख्येऽग्निमित्राख्यो गौतमस्य तनूद्भवः । कौशिक्यां दुःश्रुतेः पारं गत्वागत्य पुरातनीम् ॥ ७७ ॥ - उत्तपु०पर्व ७४ - इह णिव सइ सुन्दर मंदिरपुरु कामिणि - यण पय सहिय णेउरु । मंदरग्ग धय पंति पिहिय - रवि तहिं बलि विहिणा संपीणिय हवि । गोत्तमु णामें दियवरु हुवउ परियाणियणिय समय - सरूवउ | तहो कोसिय कामिणि - जण - मोहण तणु लायण्ण - वण्ण - संखोइण ॥ बत्ता - एयहँ सुउ हूवउ णं रइ दूवउ दियवर - सत्थ - रसिल्लउ | - - · सोभासि जगह पयासिउ अग्निमित्तु - इल्लउ || ३५ || गिह वासणि रह- भाउ णिवारिवि णारायण सासण मए धारेवि । मणु पसरंतु जिणेवि तड लेविणु चूलासहिउ तिर्दहु धारेविणु । परिवायय - रूवेण भमेविणु भूरिकाल मिच्छत्ति रमेविणु ॥ - ४१ - वडमाणच० संधि २ । कड १६ इस संसार में मन्दिरपुर नाम का एक सुन्दर नगर है । जहाँ कामिनीजनों के पैरों के नूपुर शब्दायमान है, जहाँ मन्दिय के अग्रभाग में लगी हुई ध्वज पंक्तियाँ रवि को ढंक देती थी । वहाँ बलि-विधान से होम किया [ था। वहाँ गौतम नामक एक द्विन श्रेष्ठ हुआ— जो अपने मत के स्वरूप का जानकार था । शरीर के लावण्य दिर्य से जगत् को मोह लेने वाली उसकी कौशिको नाम की कामिनी थी । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन कोष उन दोनों के वहाँ वह ( सनत्कुमार देव चयकर ) अग्निमित्र नाम के पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ । वह प्रतीत होता था मानो रति का दूत ही हो। वह द्विज श्रेष्ठ शास्त्रों का रसिक था। उसके पिता ( गौतम ) ने उस कहा कि - हे अग्निमित्र, लोक में अपना तेज प्रकाशित करो । ४२ वह अग्निमित्र घर में निवास करते हुए भी रति भावना का निवारण कर नारायण-शासन के मत को धा कर मन ( की वृत्तियों ) के प्रसार को जीत करा, तप ग्रहण कर, चूला ( शिखा जटा ) सहित त्रिदंड ( त्रिशुल धारण कर, परिव्राजक रूप में भ्रमण कर दीर्घकाल तक मिथ्यात्व में रमा । ११ क संसारभ्रमण ईशान देवलोक के बाद भगवान महावीर के जीव ने संसार भ्रमण किया था । . १२ सनत्कुमार देव - या माहेद्रकल्प देव भव में (क) +++ अग्गिभूई +++ सणकुमारम्मि । - आव निगा ४४२ पूर्वार्ध मटीका - xxx मृत्वा 'सणकुमारंमि' त्ति सनत्कुमारे कल्पे विमध्य स्थितिर्देवः समुत्पन्न इति । (ख) षट्पंचाशत्पूर्वलक्षायुकः सोऽपि त्रिदंड्यभूत् । मृत्वा सनत्कुमारे च मध्यमायुः सुरोऽभवत् ॥ ८१ । - त्रिशलाका० पर्व १० । सर्ग (ग) अग्गिभूई णाम बंभणो XXX मरिऊण सणकुमारे मज्झिमठिईओ देवो समुप्पण्णो । - चउप्पन० पृ० १ भगवान महावीर के जीव ने अग्निभूति ब्राह्मण का भव क्षय करके सनत्कुमार देवलोक में विमध्य स्थिति के रूप में समुत्पन्न हुआ । - ( देखो० आव० निगा० ४४३ उत्तरार्ध (घ) पुनः पूर्वभवाभ्यासान्नीत्वा दीक्षां पुरातनीम् । विधाय वपुष क्लेशं मृतः स स्वायुषःक्षये ॥ १२३ तेनाज्ञतपसा जज्ञ कल्पे माहेन्द्रसंज्ञके । गीर्वाणः स्वतपोजातायुः श्रीदेव्यादिमण्डितः ।। १२४ - वीरच० अधि २ (घ) परिवायय-रूवेण भमेविणु भूरिकाल मिच्छत्ति रमेविणु । मरि माहिंद-सग्गि संजायउ सत्त जलहि-सभाउ सुछायउ afe fun सुहुं देवीहि रमेविणु चविउ सुपुण्णक्ख पावेविणु । (छ) दीक्षां माहेन्द्रमभ्येत्य ततश्च्युत्वा पुरातने । - वडढमाणच० संधि २ । कड १६ - उत्तपु० पर्व ७४ / श्लो ७८/ पूर्वार्ध Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन - कोश ४३ मित्र पुनः पूर्वभव के अभ्यास से पूर्व भववाली परिव्राजक दीक्षा को लेकर और शारीरिक क्लेशों को अपनी आयु के क्षय होने पर मरा और उस अज्ञान तप से माहेन्द्र नाम के स्वर्ग में अपने तपानुसार आयु, और देवी आदि से मंडित देव उत्पन्न हुआ । क संसार भ्रमण ईशान देवलोक के बाद भगवान महावीर के जीव ने संसार भ्रमण किया था । भारद्वाज परिव्राजक भव में सेअवि भारद्दाओ चोआलीसं च माहिन्दे | - आव० निगा ४४२ उत्तरार्ध [ देखो० आव० निगा ४४३ । उत्तराधं ] मलयटीका - XXX सनत्कुमाराच्च्युतः श्वेताम्ब्यां नगर्यां भारद्वाजो नाम ब्राह्मण उत्पन्न इति । तत्र च चतुश्चत्वारिंशत् पूर्व शतसहस्राणि जीवितमासीत्, परिव्राजकश्चाभवत् × × ×/ च्युत्वा च श्वेतवीपुर्यां भारद्वाजोऽभवद्विजः । चतुश्चत्वारिंशत्पूर्वलक्षायुः स त्रिदंड्यभूत् ॥ ८२ ॥ - त्रिशलोका० पर्व १० / सर्ग १ पुण कुमाओ विऊण सेयवियाए नयरीए भारद्दाओ णाम बम्भणो समुप्पण्णो । तत्थ य चोयालीसं पुव्वलक्खे आउयमणुवा लिऊण अंते य परिवायगत्तणमणुवालिऊण पंचत्तमुवगओ । - चउप्पन० पृ० ६७ भगवान महावीर का जीव सनत्कुमार देवलोक से चवकर श्वेताम्ब्या नगरी में भारद्वाज नामक ब्राह्मण के रूप न्म लिया । परिव्राजक दीक्षा ग्रहण की और चौवालिस लाख पूर्व की आयु पूर्ण करके माहेन्द्र देवलोक में हुआ । अह प्राक्तने रम्ये पुरे मन्दिरनामके । सालंकायनविप्रोऽस्ति मन्दिरा तस्य वल्लभा ।। १२५ ।। तयोर्द्विजचरो देवश्च्युत्त्रा माहेन्द्रत स तुक् । भारद्वाजाह्वयो जातः कुशास्त्राभ्या सतत्परः || १२६ || - वीरच० अधि २ सत्यवंतपुरे पर-मण-हारण कुसुमपत्त कुस -पत्ती-धारणु । नियमणि निकाइय नारायण । आसि विप्पचरु सालंकायणु । मंदिर-णाम पियाहु एयहो । गुण-मंदिरु मुणियायमभेयहो । हँगो एव तरुह संभूवउ मुह-जिय- अंभोरुहु | जगणे भासि भारद्दायउ सुरसरि जल पक्खालिय- कायउ घता- - पुणरवि विक्खायउ हुउ परिवायउ x x x - वडमाणच संधि २Iकड १६ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश (छ) दीक्षा माहेंद्रमभ्येत्य ततश्च युत्वा पुरातने । मन्दिराख्यपुरे शालङ्कायनस्य सुतोऽभवत् ।। मन्दिरायां जगत्ख्यातो भारद्वाजसमाह्वयः। त्रिदंडमंडितां दीक्षाभक्षणां च समाचरन् ।। ७६ ॥ _ -उत्तपु० सर्ग ७४ माहेन्द्र स्वर्ग से व्युत् होकर उसी मंदिर नामक नगर में शालकायनब्राह्मणी की मन्दिरा नाम की स्त्री भारद्वाज नाम का जगत्प्रशिद्ध पुत्र हुआ और वहां उसने त्रिदण्ड से सुशोभित अखंड दीक्षा का आचरण किया। १३ क संसार भ्रमण xxx परिव्राजकश्चाभवत् xxx। -आव० निगा ४४२ । मलय टीका भारद्वाज ब्राह्मण के बाद भगवान महावीर के जीव ने संसार म्रमण किया। .१४ माहेन्द्र कल्प देव भव में (क) xxx भारदाओ xxx च माहिंन्द ॥ -आव० निगा ४४२ उत्तरार्ध । मलयटीका-xxx भारद्वाजो xxx मृत्वा च माहेन्द्र कल्पेजघन्योत्कृष्ट स्थितिर्देवो बभूवेति गाथार्थः। ख) चतुश्चत्वारिंशत्पूर्वलक्षायुः सत्रिदंड्यभूत् ।। ८२ ।। मृत्वा माहेन्द्रकल्पेऽभूत् स सुरो मध्यमस्थितिः - त्रिशलाका० पर्व १० । सर्ग १ । (ग) भारदाओ + + + मरिऊण माहिन्दे कप्पे मज्झिमट्ठिईओ देवो समुप्पण्णो। चउप्पन्न० पृ० १७ भगवान सहावीर का जीव भारद्वाज भव की आयु पूर्ण करदे माहेन्द्र देवलोक में मध्यस्थिति वाले देव के . में उत्पन्न हुआ। (घ) तत्कुज्ञानजसंवेगादीक्षा त्रिदंडमण्डिताम् । गृहीत्वा तपसा बद्ध्वा देवायुः स मृतिययौ ।। १२७ ।। तत्फलेन बभूवासौ दिवि माहेन्द्रनामनि । धृत्वा सप्ताब्धिगानायुः स्वतपोऽर्जितशर्मभाक् ॥१२८॥ -वीरच० अधि २ (च) त्रिदंडमंडितां दीक्षाभक्षणां च समाचरन् ॥ ७६ ॥ सप्ताब्युपमितायुः सन् कल्पे माहेन्द्रनामनि। ----उत्तपु० पर्व ७४ (छ) घत्ता-पुणरवि विक्खायउ हुउ परिवायउ चिरु तउ करेवि मरेविणु । माहिंदि मणोहरि मणिमय - सुरहरे हुवउ अमरु जाए विणु ॥ -वड ढमाणच० संधि-२ कड । १६ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश ४५ भारद्वाज सदा कुशास्त्र के अभ्यास में तत्पर रहता था। पुनः उस कुज्ञान से उत्पन्न संवेग से उसने तीन दंडों से मडित त्रिदंडी दीक्षा ग्रहण कर और तप से देवायु को बाँधकर मरा और उसके फल से माहेन्द्र नामक के स्वर्ग में सात सागरोपम आयुका धारक और अपने तप से उपार्जित पुण्य के अनुसार सुख को भोगने वाला देव रूप में उत्पन्न हुआ। .१४क-संसार भ्रमण ( श्वे. ) (क) संसरिय थावरो ++ + -आव० निगा०४४३ का अंश मलयटीका-भारद्वाजो +++ मृत्वा च माहेन्द्र कल्पेऽजघन्योत्कृष्टस्थितिर्देव बभूवेति (निगा ४४२ माहेन्द्राच्च्युतः संसृत्य कियन्तमपि कालं संसारे + + । (ख) मृत्वा माहेन्द्रकल्पेऽभूत् स सुरो मध्यमस्थितिः ॥ च्युत्वा भ्रान्स्वा भवं राजगृहेऽभूत्स्थावरोद्विजः ।।८३ ।। -त्रिशलाका० पर्व १० । सर्ग १ (ग) तओ विचुओ पुणो संसारमाहिंडिऊण xxx। --चउपन्न० पृ०६७ भगवान् महावीर का जीव माहेन्द्र देवलोक से चवकर कियत्काल संसार-भ्रमण किया। .१४ क-त्रस-स्थावर योनि के असंख्यात भव ( दिग्० ) (क) ततः प्रच्युत्य दुर्मार्गप्रकटीकृतजेनसः। महापापविपाकेन निन्द्याः सर्वा अधोगतीः ।। १२६ ।। प्रविश्यासंख्यवर्षाणि चिरं भ्रान्त्वा सुखातिगः । दुःकमशृंखलाबद्धस्त्रस स्थावरयोनिषु ॥ १३० ।। सर्वदुःखनिधानेषु नानादुःखातिपीडितः । वचोऽतिगं महादुःखं मिथ्यात्वफलतोऽन्वभूत् ।। १३१ ॥ इति कुपथविपाकाच्छम बिन्द्वाभमाप्य जलनिधिसमदुःखं चान्वभूत् सत्रिदंडी+ + -वीरच० अधि २ श्लो १२६ से १३१, १३६ पूर्वार्ध (ख) इह पलाव विरयंतु पढुक्कउ मरणावस्थाहिं पाहिं मुक्कउ । तत्थहो ओवरेवि पावासउ मिच्छत्ताणल-जाल हुवासउ । थावरजोणि-मज्झ णिवसेविण सोचिरु भूरि-दुक्खु विसहेविणु । दुक्खें कहव तसत्तु लहेविणु विविह-जीव संघाउ वहेविणु । पावेप्पिणु मणु वत्तणु वल्लहु जूअसविला संजोएँ दुल्लहु । जीउ पयंड पुराइय-कम्में किं किं णकरइ मुटु अगम्में । -वड्ढमाणच० संधि २ । कड २२ (ग) भूत्वा ततोऽवतीर्यात्र दुर्मार्गप्रकटीकृतेः॥ ८० ॥ फलेनाधोगतीः सर्वाः प्रविश्य गुरुदुःखभाक् ॥ त्रसस्थावरवर्गेषु संख्यातीतसमाश्चिरम् ॥ ८१ ।। परिभ्रम्य परिश्रान्तस्तदन्ते मगधाहये ।। -उत्तपु० पर्व ७४ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश माहेन्द्र स्वर्ग से च्युत होकर कुमार्ग के प्रकट करने के फलस्वरूप समस्त अधोगतियों में जन्म लेकर उसने भारी दुःख भोगे । इस प्रकार त्रस-स्थावर योनियों में असंख्यात वर्ष तक परिभ्रमण करता हुआ बहुतही श्रान्त हो गया। खेद-खिन्न हो गया। .१५ स्थावर परिव्राजक भव में (क) संसरिय थावरो रायगिहे चउतीस बंभलोगम्मि । -आव निगा ४४३ पूर्वार्ध मलयटीका-गमनिका-माहेन्द्राच्च्युतः संसृत्य कियन्तमपि कालं संसारे स्थावरो नाम ब्राह्मणो राजगृहे समुत्पन्न इति, तत्र च चतुस्त्रिंशत्पूर्वशतसहस्राण्यायुष्कं, परिव्राजक आसीत् , मृत्वा ब्रह्मलोकेजघन्योत्कृष्ट स्थितिर्देवः सञ्जातः + + +। (ख) मृत्वा माहेन्द्रकल्पेऽभूत् स सुरो मध्यमस्थितिः । च्युत्वा भ्रान्त्वा भबं राजगृहेऽभूत्स्थावरो द्विजः ।।८३।। चतुस्त्रिंशत्पूर्वलक्षायुष्कः सोऽपित्रिदंड्यभूत् + + –त्रिशलाका० पर्व १० । सर्ग १ (ग) तओ विचुओ पुणो संसारमाहिडिऊण रायगिहे णगरे थावरो नाम बंभणो समुप्पण्णो । तस्थ य चोत्तोसपुप्वलक्खे आउयमणुवालिऊण पज्जन्ते परिव्वायगत्तणेण मरिऊण बंभलोए। मज्झिमहिइओ देवो समुप्पण्णो च उप्पन्न० पृ०६७ भगवान महावीर के जीव ने माहेन्द्र देवलोक से च्युत होकर-कुछ काल संसार में भ्रमण करके-राजगृह नगरी में स्थावर नाम ब्राह्मण के रूप में जन्म लिया तथा परिब्राजक दीक्षा स्वीकार की और चौतीसलाख पूर्व की आयु सम्पूर्ण करके ब्रह्मलोक में समुत्पन्न हुआ। (घ) अथेह मागधे देशे पुरे राजगृहाभिधे । ब्राह्मणः शाण्डिलिर्नाम्ना तस्य पाराशरी प्रिया ॥२॥ भवभ्रमणतः श्रान्तः सोऽतिदुःखी ततस्तयोः । स्थावराख्यः सुतो जातो वेदवेदाङ्गपारगः ।। ३ ।। -वीरच अधि ३ (च) परिभ्रम्य परिश्रान्तस्तदन्ते मागधाह्वये । देशे राजगृहे जातः सुतोऽस्मिन्वेदवेदिनः ॥ २ ॥ शाण्डिल्याख्यस्य मुख्यस्य पारशों स्वसंज्ञया । स्थावरो वेदवेदाङ्गपारगः पापभाजनम् ।। ८३ मतिः श्रतं तपः शान्तिः समाधिस्तत्त्ववोक्षणम् । सर्व सम्यक्त्वशून्यस्य मरीचेरिव निष्फलम् ।। ८४ ।।। परिव्राजकदीक्षायामासक्ति पुनरादधत् । -उत्तपु० पर्व ७४ (छ) भरइखेत्ते खेयरहँ पियंकरे मगह-विसइ रायहरे सुहंकरे हुवउ विप्प चरु संडिल्लायणु जण्ण विहाणाइय गुणभायणु तहोसंजाय कंत पारासरि ण पच्चक्ख समागय सुरसरि Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश तहो संभूउ पुत्तु पयणिय-दिहि थावरुणामें जुइ-णिज्जिय-सिहि । -वड ढमाणच० संधि २ । कड २२ विद्याधरों के लिये प्रियंकर, भरतक्षेत्र स्थित मगधदेश के सुखकारी राजगृह नगर में शाण्डिल्यायन नाम का एक विप्र रहता था, जो यज्ञ-विधानादि गुणों का भाजन था। उसकी पारासरी नाम की कान्ता थी। वह ऐसी प्रतीत होती थो-मानो साक्षात् आयी हुई गगानदी ही हो। उन दोनों के धैर्य को प्रकट करने वाला, अपनी युति से शिखी को निर्जित करने वाला स्थावर नाम का ( वह माहेन्द्रदेव ) पुत्र उत्पन्न हुआ। १६ ब्रह्मलोक कल्प देव अथवा माहेन्द्र कल्प देव भव में (क) +++ थावरो ++ + बंभलोगम्मि । -आव० निगा० ४४३ पूर्वाध (ख) मलयटीका-+++ स्थावरों + + + मृत्वा ब्रह्मलोकेऽजघन्योत्कृष्टस्थितिर्देवः सञ्जातः । (ग) चतुस्त्रिंशत्पूर्वलक्षायुष्कः सोऽपित्रिदंड यभूत् । विपद्य च ब्रह्मलोके मध्यमायुः सूराऽभवत् ।। ८४ ॥ -त्रिशलाका० पर्व १० । सर्ग १ (घ थावरो णाम बंभणो +-++ मरिऊण बंभलोए मज्झिमहिईओ देवो समुप्पण्णो । -चउप्पन्न० पृ० ६७ भगवान महावीर का जीव स्थावर ब्राह्मण भव को आयुष पूर्ण करके ब्रह्मदेवलोक में मध्यम स्थिति के देवरूप में समुत्पन्न हुमा। च) तत्रापि प्राक् स्वमिथ्यात्वसंस्कारेण मुदाददे। परिव्राजकदीक्षां स कायक्लेशपरायणः ॥ ४ ॥ तेनाङ्गक्लेशपाकेन मृत्वासीदमरो दिवि । माहेन्द्र सप्तवाायुः सोऽल्पश्रीसुखभोगभाक् ।। ५ ।। -वीरच० संधि ३ (छ) परिव्राजकदीक्षायामासक्ति पुनरादधत् । सप्राब्ध्युपमितायुष्को माहेन्द्र समभून्मरुत् ॥ ८५ ।। -उत्तपु० पर्व ७४ वहाँ पर भी अपने पूर्व मिथ्यात्व के संस्कार से स्थावर ने सहर्ष परिव्राजक दीक्षा ग्रहण कर ली और कायक्लेश में पारायण होकर नाना प्रकार के खोटे तप करने लगा। उस कायक्लेश के परिपाक से आयु के अन्त में मसकर वह माहेन्द्र स्वर्ग में सात सागरोपय आयु का धारक और अल्प लक्ष्मी के सुख का भोगने वाला देव हुआ। (ज) भयव-भणिउ रुउचिरु विरएविणु । बम्हलोइ सो पत्तु मरेविणु। दह-सायर-संखा-पमियाउसु अइ-मणहरु णं अहिणउ पाउसु ।। सह-भव दिव्वाहरण पसाहिउ सुर-सीमंतिणि नियरा राहिउ । -वडढमाणच. संधि २ । कड २२ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ बधमान जीवन-कोश भागवत के कथनानुसार चिरकाल तप करके वह स्थावर पुनः मरा और ब्रह्मलोक - स्वर्ग को प्राप्त हुआ । वहाँ वह दस सागर प्रमाण आयु वाला तथा अभिनव-पावस के समान अत्यन्त मनोहर देव हआ। जन्म के साथ में ही वहाँ होने वाले दिव्य आचरणों से प्रसाधित तथा सुर-सीमन्तिनियों । देवांगनाओं द्वारा आराधित हआ। .१६ क संसार भ्रमण (क) छस्सुवि पारिवज्जं भमिओ तत्तो अ संसारे ।। -आव० निगा० ४४३ उत्तरार्ध मलयटीका-+ + + एवं षट्स्वपि वारासु परिव्राजकत्वमधिकृत्य दिवमवाप्तवान्, 'भमिओ तत्तो य संसारे' ततः ब्रह्मलोकाच्च्युत्वा भ्रांतः संसारे प्रभूतं कालमिति गाथार्थः। (ख) ब्रह्मलोकात्परिच्युत्य स बभ्राम बहून् भवान् । भवो ह्यनन्ती भवति स्वकर्मपरिणामतः ॥ ८५ ॥ –त्रिशलाका पर्व १० । सर्ग १ (ग. तओ वि चविऊण चउगइससारकन्तारं परिभमिओ। -चउपन्न० पृ०६८ भगवान महावीर के जीव ने छः वार परिव्राजक दीक्षा ग्रहण करके देवलोक प्रात किया तथा तत्पश्चात ब्रह्मलोक से च्युत होकर प्रभूतकाल तक संसार भ्रमण किया । .१७ विश्वभूति क्षत्रिय के भव में (क) रायगिह विस्सनंदो विसाहभूईअ तस्स जुवराया। जुवरण्णो विस्सभूई विसाहनंदी अ इअरस्स ।। रायगिह विस्सभूई विसाहभूइसुअ खत्तिए कोडी। वाससहस्सं दिक्खा संभूअजइस्स पासम्मि ॥ -आव. निगा ४४४।४४५ मलयटीका-अक्षरार्थस्त्वभिधियते-राजगृहे नगरे विश्वनन्दिनाम राजा अभूत्, विशाखभूतिश्च तस्य युवराजः तस्य धारिणीदेव्या विश्वभूतिनाम पुत्र आसीत् , विशाखनन्दिश्चेतरस्य, राज्ञ इत्यर्थः, तत्थमधिकृतो मरोचिजीवः 'रायगिह विस्सभूइत्ति' राजगृहे नगरे विश्वभूतिर्नाम विशाखभूतिसुतः क्षत्रियोऽभवत् , तत्र च वर्षकोटी आयुष्कमासीत् , तस्मिंश्च भवे वर्षसहस्त्र दीक्षा-प्रत्रज्या कृता, सम्भूतयतेः पावें ॥ तत्र वगुत्तासिओ महुराए सनिआणो मासिएण भत्तण । महसुक्क उववन्नो तओ चुओ पोअणपुरम्मि ।। - आव• निगा० ४४६ मलयटीका-पारणकप्रविष्टो गोत्रासितो मथुरायां निदानं चकार मृत्वा च सनिदानोनालोचित्ताप्रतिक्रांतः, अंते मासिकेन भक्तन महाशुक्र कल्पे उपपन्न उत्कृष्टस्थितिदेव इति । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन - कोश ४६ भगवान महावीर का जीव ब्रह्मलोक से च्युत होकर संसार भ्रमण करके राजगृही नगरी में विशाखभूति का पुत्र विश्वभूति नाम का क्षत्रिय हुआ । उस भव में उनकी एक कोटि घर्ष की आयु थी । उसमें एक हजार वर्ष की श्रमण पर्यायका पालन किया और यह प्रवर्त्त्या उन्होंने सम्भूतयति के पास ग्रहण की थी । एकदा पारण हेतु मथुरा नगरी में गोत्रासित' में प्रविष्ट होकर निदान किया । तथा वहाँ से सनिदान – अनालोचित - अप्रतिकांत मासक्षमण के अत में मर कर महाशुक्र देवलोक में उत्पन्न हुए । कथानकादव सेयः, तच्चेदम् (ख) रायगिहे नगरे विस्सनंदी राया तस्स भाया विसाहभूति, सो य जुवराया, तस्स जुत्ररण्णो धारिणीए देवीए विस्सभूत्ती नाम पुत्तो जातो' रणोऽवि पुत्तो विसाहनं दित्ति । तर विस्तभूतिस्स वासकोडी आउ, तत्थ पुप्फकरंडकं नाम उज्जाणं, तत्थ सो विस्तभूती अंडरवरतो सच्छंदह पवियर, ततो जा सा विसाहनंदिस्त माया तीसे दासचेडीओ पुष्ककरंडए उज्जाणे पत्ताणि पुष्पाणिय आ (वि) णेंति, पेच्छति य विस्सभूति कीडतं, तासिं अमरिसो जाओ, ताहे साहति जहा एवं कुमारो ललइ, किं अम्ह रज्जेण वा बलेणवा ?, जइ विसाहनंदी न भुजइ एवंविह भोए, अह नामं चेव, रज्जं पुण जुवरन्नो पुत्तस्स जस्सेरिसं ललियं, सा तासि अंतिए सोउ देवी ईसाए कोरं पविट्ठा, जइ ताव रायाणए जीवंतए एसा अवस्था ? जाहे रायामतो भविस्सइ ताहे इत्थम्हे को गणेहित्ति ? राया गमेइ, सा पसायं न गिण्हइ, किं मे रज्जेण तुमे वत्ति ? पच्छातेण अमच्चस्स सिंह, ता मच्चोऽवितंगमेति, तहवि न ठाइ, ताहे सो अमच्चो भणइ रायं मा देवीए वयणातिक्कमो कीर, मामारेहिति, अप्पाणं राया भणति - को उवाओ होज्जा ? ण य अम्हं वंसे अन्नमि अतिगते उज्जाणे अण्णो अतीति तत्थ वसंतमासं ठिओ मासग्गेतु अच्छइ, अमच्ची भणइ – उवाओकज्जउ जहा अमुगो पच्चतराया ओट्टो, अणज्जंता पुरिसा कूडलेहे वर्णेतु, एवमेतेण कयकेण ते कूडलेहा रन्ना उवठविया, ता या जतं गिइ तं विस्सभ तिणा सुयं, ताहे भणति मए जीवमाणे तुब्भेकिं निग्गच्छह ? ताहे सो गओ, ताहे चेव इमो अइयओ, सो गओ तंपच्चतं जाव न किंचि पेच्छइ उड्डुमरेंतं, ताहे आहिंडित्ता जाहेरि कोइ अतिक्कइ ताहे पुणरवि पुष्ककरंडयं उज्जाणमागओ, तत्थ दारवाला दंडगहिअग्गहत्था भतिमा अईह सामी कि निमित्त एत्थ विसाहनंदी कुमारो रमइ, ततो एवं सोऊणं कुविओ विस्सभूति तेण नायं- कयकेण अहं निग्गच्छाविओत्ति, तत्थ कविट्ठलता अणेगफलभर समोसया, सा मुहारेण आया, ताहे तेहि कविट्ठ हि भूमी अच्छुया, ते भणाति एवं अहं तुज्भं सीसाणि पाडितो जइ अह महल्लपिउणो गोरवं न करेंतो, अहं ये छम्मेण नीणिओ तम्हा अलाहि भोगेहिं, तओ निग्गओ, भोगा अवमाणमूलत्ति अज्जसंभूयाणं अंतिए पञ्वइओ, तं पव्वइयं सोडताहे राया संतेउरपरियणो जुवराया य निग्गओ, ते तं खभावेति णेव तेसि सो पसत्ति गेण्हइ ततो बहूहिं छट्ठमा दिएहिं अप्पाण भावेमाणो विहरति, एवं सो विहरमाणो महुरनगरि गओ । ओय विसाहनन्दी कुमारो तत्थ महुराए पिउच्छाए रन्नो अग्गमहिसीए धया लद्वेल्लिया, तत्थ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० वर्धमान जीवन-कोश गतो, तत्थसे रायमग्गे आवासो दिन्नो । सो य विस्सभती अणगारो मासखमणपारणगे हिंडतो तं पएसमागतो जत्य ठाणे विसाहनन्दीकुमारो अच्छइ, ताहे तस्स पुरिसेहिं कुमारो भण्णइ-सामि । तुब्भे एयं न याणह ? सोभणति-न याणामि, तेहि भण्णइ - एस सो विस्सभूतीकुमारो, ततो तस्स तं दट्ठाण रोसो जाओ, इत्थंतरे सूइयार गावीए पणोल्लिओ पडिओ, ताहे तेहिं उक्कुट्ठिकलयलो को, इमंचणेहि भणियं तं बलं तुझ कविठ्ठपाडणं च कहिं गयं ? ताहे तेणतत्तो पलोइयं, दिट्ठो यऽणेण सो पावो, ताहे अमरिसेणं तंगावि अग्गसिंगेहि गहाय उड्डमुव्वहइ सुदुबलस्साविसिंघस्स कि सियालेहिं बलं लंधिज्जइ ? ताहेचेव नियत्तो, इमो दुरप्पा अज्जवि मम रोसं वहइ ताहे सो नियाणं करेइजइ इमस्स तवनियमबंभचेरस्स फलमस्थि तो आगमेस्साणं अपरिमियबल्लो भवामि, तत्थ सो अणालोइयपडिक्कतोमहासुक्के उववण्णो, तत्थुक्कोसद्वितीयो देवो जातो। -आव० निगा ४४४-४४५ पर कथानक (ग) इतश्चभूद्राजगृहे विश्वनन्दी महीपतिः। पत्न्यां प्रियंगौ विशाखनन्दी तस्याभवत्सुतः ।। ८६ ।। विशाखभूतियुवराड राज्ञस्तस्यानुजोऽभवत् । युवराजस्य तस्याभू द्धारिणी नामतः प्रिया । ८७ ॥ मरीचिजीव प्राग्जन्मोपार्जितैः शुभकर्मभिः। विशाखभूतेर्धारिण्यां विश्वभूतिः सुतोऽभवत् ।। ८८ ।। उद्यौवनो विश्वभूतिर्वने पुष्पकरण्डके । रेमे सान्तःपुरो देवकुमारइव नन्दने ।। ८६ ॥ विशाखनन्दी क्रीडेच्छू राट्पुत्रोस्थात्तु तद्वहिः। पुष्पाद्यर्थंगता दास्यो ददृशुस्तौ तथास्थितौ॥ १० ॥ ताभ्योज्ञात्वा प्रियंगुस्तत् कोपौकः कुपिता ययौ । तदीप्सितार्थ राजापि यात्राभेरीमवादयत् ॥११॥ उद्वृत्तः पुरूषसिंहः सामन्तस्तज्जयाय तत् । यास्यामीति सभामध्ये मायया चावदन्नृपः ॥१२॥ तच्च श्रुत्वा विश्वभूति जुरेत्य वनात्ततः । भक्त्या निवार्य राजानं प्रयाणमकरोत् स्वयम् ॥१३॥ गतश्च पुरूषसिंह दृष्ट्वाऽज्ञावतिनं पुनः । ववले तत्रच ययौ वने पुष्पकरन्डके ॥१४॥ विशाखनंदी मध्ये स्तीत्युक्तो द्वाःस्थेन तत्र सः । अचिन्तयन्माययाऽहं कृष्टः पुष्पकरन्डकात् ।। ६५ ।। ऋद्धः कपित्थं मुष्टयाहस्तत्फलैः पतितभुवम् । छादितां दर्शयन् सोऽथ जगाद द्वारपालकम् ।। ६६ ।। पातयामि शिरांस्येव सर्वेषां भवतां पुनः । ज्यायसि ज्यायसी ताते न चेद्भक्तिर्भवेन्मम ॥ १७ ॥ भोगैरीहग्वञ्चनाद्य ममालमिति स ब्रुवन् । संभूतमुनिपादान्ते गत्वा व्रतमुपाददे ॥ ६८ ॥ तं च प्रव्रजितं श्रुत्वा राजा सावरजोऽप्यगात् । नत्वा च क्षमयित्वा च राज्यायार्थयते स्म च ।। ६६ ।। विश्वभ तिमनिच्छन्तं ज्ञात्वा भ पोगमद् गृहम् । ततो व्यहार्षीदन्यत्र स पुनगुरूणा सह ॥ १० ॥ स गर्वनुज्ञयकाकिविहारेण तपःकृशः । विहरन्नेकदागच्छन्नगरी मथुराभिधाम् ॥ १०१ ।। तदाविशाखनन्द्यागादुद्वोदु तन्नृपात्मजाम्। विश्वभूतिश्च मासान्ते पारणामयाविशत्पुरीम् ॥१०२॥ विशाखनन्दिनः सोऽथ शिविराभ्यर्णमागतः। विश्वभ तिः कुमारोऽसावित्यदर्घात पुरुषैः ।। १०३ ।। विशाखनन्दी तं सद्यः प्रेक्ष्य द्विषमिवाकुपत् । गवैकया विश्वभ तिः पर्यस्तश्च तदाऽपतत् ।। १०४ ॥ कपित्थपातनं स्थाम क्व ते चेत्यहसच्च सः । धृत्वा गां शृङ्गयोविश्वभूतिश्चाभ्रममा धा ॥१०॥ भ यिष्ठवीर्यो भूयांस मृत्यवेस्य भवान्तरे। अनेन तपसोग्रेण निदानमिति सोऽकरोत् ॥ १०६ ।। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश संपूर्य कोटिवर्षायुरनालोच्य च तन्मृतः । विश्वभ, तिर्महाशुक्र प्रकृष्टायुः सुरोऽभवत् ॥ १०७ ।। -त्रिशलाका पर्व १०।सर्ग १ xxx भमिऊण य अणंतरभवे तहाविहं कि पि कम्मं काऊण रायगिहेणगरे विस्सणंदी राया। तस्स भाया विसाहभ, ई जुवराओ ति। तस्स य जुवरायस्स धारिणीए महादेवीए पुत्तो विस्सभूतो णामेणजाओ। xxx + + + इओ य राइणो पुत्तो विसाहणंदी उज्जाणबाहिरगओ तप्पवेससमूसुओ चिट्ठइ +++ विस्सभ तीवि अणगारो तम्मि घेव णगरे विहरतो समागओ । पविट्ठो मासस्स पारणए क्खाणिमित्तं णगरं। दिट्ठो य विइरमाणो विस्सणंदिपुरिसेहिं, पच्चभिण्णाओ। दट्टण य तेसि मुप्पण्णो मच्छरो। वियम्भियमण्णाणतिमिरं । अण्णाणंधयारमोहियमईए मुक्का अहिणवपसूया गावी। ए समुहागओ णोल्लिओ, पडिओ य। कओ हलबोलो विस्सणंदिपुरिसेहिं । भणियं च णेहि-कहिं गयं तुझ कविठ्ठपाडणबलं ? ति । पच्चभिण्णाया य जहा एए विस्सणं दिसंतिया पुरिसा। तयणन्तरमेव हुणो पणट्ठो विवेओ परिगलिओ उवसमो, पज्जलिंओ कोहग्गी। धाविऊणय गहिया गावी गहेहि, भमाडिया सोसोवरिं, तणपूलिय व्व पक्खित्ता धरणीए। भणियंच ण-"रे रे का रसाहमा ! कोल्हुयसमसीसिया होऊण मं उवहसइ ? कि छहापरिगयदुब्बलसरीरस्सवि वगाहिवइणो मुहकुहरे अंगुलिं पक्खिविउ कोइ समत्थो ? ति । किंच कि कीरइ मय तुम्हारिसेहि गोमाउ-साणसरिसेहिं । गइकल्लोलसमेहि पयडियमुहमेत्तसारेहिं ॥२६।। । एवं च सुइरं चिंति (? भणि) ऊण गरुयाहिमाणवसगेण कोणपच्छाइयविवेगेण कओ णियाणाणुबंधो, वहा-जइ इमस्स दुक्करस्स तव-चरणस्स अणुचिण्णस्स होज्ज फलंतओ अहं अतुलबल-परक्कमो एसकालं जत्ति। एवं बंधिऊण णियाणं, इमस्स ठाणस्स अपडिक्कतो विहरिउकिं पि कालं कालमासे कालं अण महासुक्के देवलोए उक्कोसहिईओ देवो समुप्पण्णो। -चउप्पन्न० पृ०६८/६९ राजगृह नगरी में विश्वनंदी नामक राजा था। उसकी प्रियंगु नामकी पत्नी से विशाखनंदी नामक एक पुत्र ।। उस राजा के विशाखभूति नामक एक छोटा भाई था-जो युधराज था । उस युवराज के धारिणी नामक मरीचिका जीध पूर्वोपार्जित शुभकम से विशाखभूति युवराज की धारिणी नामकी स्त्री से विश्वभूति नामक से जन्म लिया। विश्वभूति अनुक्रम से यौवन-वय को प्राप्त हुआ। । एक समय नंदनवन में देवकुमार की तरह वह विश्वभूति अंत:पुर सहित पुष्पकरंडक नामक उद्यान में क्रीड़ा करने गया । वह कोड़ा कर गहा था-इतने में राजा का पुत्र विशाखनन्दी क्रीड़ा करने की इच्छा से वहां पाया। विश्वभूति अन्दय होने के कारण वह बाहर रहा । उस समय पुष्प लेने के लिये उसकी माता की दासियां Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वधमान जीवन-कोष आयी। उन्होंने विश्वभूति और विशाखभूति को क्रमशः अन्दर और बाहर देखा। दासियों के पास से उक्त बात सुन कर प्रियंगु राणी कोप को प्राप्त होकर गुस्से में आकर घर में जाकर बैठ गयी। राजा ने राणी की इच्छापूर्ति के लिए यात्रा की भेरी बजाई और कपट से सभा में कहा-अपना पुरुषसिंह सामंत उद्धत हो गया है भतः उसकी विजय के लिए मैं जाऊगा। यह खबर सुनकर सरल स्वभावो विश्वभति वन में से राज्य सभा में आया और भक्ति के वश राजा को जाने का निपेधकर स्वयं लश्कर के साथ प्रस्थान किया। वह पुरुषसिंह सामंत के पास गया। वहाँ उसे आज्ञावंत देखकर स्वयं वापस आया । मार्ग में पुष्पकरडक वन के निकट आया। वहाँ द्वारपाल ने सूचित किया-"अन्दर विशाखनंदी कूमार है-यह सनकर चिंतन करने लगा"मुझे कपटपूर्वक पुष्पकरंडक वन में से निकाला । तत्पश्चात् उसने क्रोधित होकर मुष्टि से एक कोठे के वृक्ष पर प्रहार किया जिससे उसके सफल टूटकर पृथ्वी पर पड़ने से सारी पृथ्वी आच्छादित हो गयी। यह बताकर विश्वभूति द्वारपाल को बोला-यदि बड़े पिता श्री पर हमारी भक्ति न होती तो मैं इस कोठे के फल की तरह तुम्हारे सबों के मस्तिष्क भूमि पर गिरा देता परन्तु उनकी भक्ति के कारण मैं ऐसा नहीं कर सकता । परन्तु इस वंचना युक्त भोग मुझे जरूरत नहीं है। ऐसा बोलता हुआ वह संभूतिमुनि के पास गया और चारित्र ग्रहण किया। वह दीक्षित हो गया है-ऐसा जानकर विश्वनंदी राजा अनुज बन्धु सहित वहां आया। और उसे नमस्कार कर क्षमतक्षामना कर राज्य लेने के लिए प्रार्थना की। परन्तु विश्वभूति को राज्य-लिप्सा से रहित जानकर राजा स्वयं के घर आया और विश्वभूति मुनि गुरु के साथ अन्यत्र बिहार किया तपस्या से अतिकृश हुआ और गुरु की आज्ञा से एकाको बिहार करता हुआ विश्वभूति मुनि अन्यदा मथुरापुरों आया। उस समय वहाँ राजा की पुत्री के साथ विवाह करने के लिए विशाखनंदी राजपुत्र भी मथुरा में आया हुआ था। विश्वभूति मुनि माखक्षमण का पारण के लिए नगरी में गोचरी के लिए गये। जहाँ विशाखनन्दो की छावणी थी वहाँ नजदीक आये तथा उनके मनुष्यों को कहा-यह विश्वभूति कुमार जाता है। ऐसा कहकर विशाखनदी को बताया। शत्रु को तरह उन्हें देखते ही विशाखनदी कुपित हुआ। उस काल में विश्वभूति मुनि किसी गाय के साथ में अबड़ाने से पृथ्वी पर पड़ गये । यह देखकर-"कोठो के फलों को उपाड़ने के समय जो बल था वह कहाँ गयाऐसा कहकर विशाखनदी हंसा ! विशाखनंदो की यह बात सुनकर विश्वभूति क्रोधित होकर गाय के सींगों को पकड़ कर आकाश में भ्रमित किया। तत्पश्चात् ऐसा निदान किया-इस उग्र तपस्या के प्रभाव से मैं भवांतर में घना पराक्रम वाला होकर इस विशाखनंदी की मृत्यु के लिए होऊ । अस्तु कोटिवर्ष की आयुष्यपूर्ण कर पूर्व । प्रायश्चित किये बिना मृत्यु प्राप्त कर वह विश्वभूति महाशुक्र देवलोक में उत्कृष्ट आयु वाला देव हुआ।" (च) अथास्मिन् मागधे देशे पुरे राजगृहाह्वये। विश्वभूतिर्महीपोऽभूज्जनी नाम्नास्य वल्लभा ॥ ६॥ तयोः स्वर्गात्स आगत्य विश्वनंदी सुतोऽजनि। विख्यातपौरुषो दक्षः पुण्यलक्षणभूषितः ॥ ७ विश्वभूतिमहोभतुः सस्नेहोऽस्यानुजो महान् । विशाखभूतिनामास्य लक्ष्मणाख्या प्रियाभवत् ॥ ८॥ तयोः पुत्रः कुधीर्जातो विशाखनंदसंज्ञकः। ते सर्व पूर्वपुण्येन तिष्ठन्ति शर्मणा मुदा ।।६।। विचिन्येति समाहूय तस्मै दत्वाशु तद्वनम् । त्यक्त्वा राज्यश्रियं सोगात्संभूतगुरुसंनिधिम् ॥३६॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + वर्धमान जीवन-कोश मूर्ना नत्वा यतीन्द्रांवो हित्वा सर्वपरिग्रहान् । सर्वत्राप्तसुसंवेगो विश्वनन्दी तपोऽग्रहीत् ॥ ४० ॥ + विश्वनन्दी भ्रमन्तानादेशग्रामवनादिकान्। तपातिकृशीभूतः पक्षमासादिनाबलः ।। ४६ ॥ क्वचित्स्वतनुशंस्थित्यै स्वीर्यापथात्तलोचनः। शुष्कौष्ठवदनाङ्गोऽसौ प्राविशन्मथुरा पुरीम् ।। ४७ ॥ तदा दुर्व्यसनान्निन्द्याद् भ्रष्टराज्यो महीपतेः। कस्यचिद्भुतभावेनागत्य तां स पुरीं शठः ॥ ४८ ।। विशाखनन्द एवाधीवश्चासौधाग्रसंस्थितः । सद्यः प्रसूतगोशृङ्गघातात दुर्बलं मुनिम् ॥ ४६ ।। प्रस्खलन्तं समीक्ष्याति क्षीणदेहपराक्रमम् । इत्यवादीत् प्रहासेन दुर्वचः स्वरुप घातकम् ।। ५० ।। + इति तदुर्वचः श्रुत्वा कोधमानोदयाद्यति। भूत्वा कोपेन रक्ताक्ष इत्यन्तर्गतमाह सः ।। ५३ ।। रे दुष्ट मत्तपोमाहात्म्यात्प्रहासफलं महत् । प्राप्यसि त्वं न संदेहः कटुकं मूलनाशकृत् ।। ४ ।। ईदृशं स तदुच्छित्त्यै निदानं बुधनिन्दितम् । कृत्वा स्वतपसा प्रान्ते संन्यासेनाभवव्यसुः ।। ५५ ।। -वीरच० अधि ३ (छ) सुरपुर पडिछंदु णर णिहंदु णयरु रायगिहु-भव तेत्थु वड्डमाणच० संधि ३/कड १ णिवसइ असेस-णयरह पहाणु वर-वत्थु - रयण - धारण • णिहाणु । + धत्ता-तहिं भुजा रज्जु, चिंतिय कज्जु वइरि - हरिण - गण - वाहु। णामेण पसिद्ध लच्छि - समिद्ध विस्सभूइ णरणाहु ।। ४१ ।। -वड्डमाणच• संधि ३ । कड २ तहो अस्थि सहोयरु जण-मणि, विणयाराहिय - गुरुयणु - कणि, दीणाणाहह पविइण्ण - भूइ णामेण पसिद्ध विसाहभूइ । जेट्ठहो जइणी णामेण भज्ज भाविय - पिय - पय-पंकय सलज्ज । णं णिवइहे णव - जोव्वणहो लच्छि णिम्मलयर -णीलुप्पल दलच्छि । णावइ तइलोयहो तणिय कंति एक्कट्ठिय जण-विभउ जणंति । अवरहो लक्खण णामेण भज्ज णाणाविह वर-लक्खण मणोज्ज । घत्ता-पढमहो सुउ जाउ अइसुच्छाउ तियसावासु मुएवि। तणु बल-सिरि रूवउ बहु-गुण भूवउसहुँ सोहगु लहेवि ॥ ४२ ।। -वड्डमाणच संधि ३/कड ३ सो विस्सणंदि-जणणे पउत्तु परियाणिवि णणा - गुण - णिउत्त । लहु भाइहे जाउ विसाहणंदि णंदणु णिय-कुल कमलाहिणंदि ।। -वड्डमाणच० संधि ३/कड ४ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ बर्धमान जीवन कोश बल - वीर - लच्छि णय संजुओ वि सुर करिवर कर जुवराउण णिय पित्ति रत्ति यहो आण लंघेविणु विरइय - - - दोहर-भुवोवि । अप-ठाण । वड्डमा च० संधि ३ / कड ५ घन्ता - मगहे सरजुत्त देह - विउत्तु सोलह जलहि समाउ | महक्क सतेउ जाउ देउ सो सुंदरयर काउ ।। ८६ ।। वड्डूमाणच संधि ३ । कड १७ (ज) ततोऽवतीयं देशेऽस्मिन् मगधाख्ये पुरोत्तमे । जातो राजागृहे विश्वभूतिनाममहीपतेः ॥ ८६ ।। जैन्याश्च तनयो विश्वनन्दी विख्यातपौरुषः । विश्वभूतिमहीभतु रनुजातो महोदयः || ८७ || विशाखभूतिरेतस्य लक्ष्मणायामभूद् विधीः । पुत्रो विशाख नन्दाख्यस्ते सर्वे सुखमास्थिताः ॥ ८८ ॥ अथाऽन्यदा कुमारोऽसौ विश्वनन्दी मनोहरे । निजोद्याने समं स्वाभिर्देवोभिः क्रीडयास्थितः ।। ६२ ।। विशाखनन्दस्तं दृष्ट्वा तदुद्यानं मनोहरम् स्वीकतु मतिमादाय गत्वा स्वपितृसंनिधिम् ॥ ६३ ॥ मह्यं मनोहरोद्यानं दीयतां भवतान्यथा । कुर्यां देशपरित्यागमहमित्यभ्यधादसौ ॥ ६४ ॥ सत्सु "सवपि भोगेषु विरुद्ध विषयप्रियः । भवेद्भाविभवे भूयो भविष्यदुःखभारधृत् ॥ ६५ ॥ श्रुत्वा तद्वचनं चित्तेनिधाय स्नेहनिर्भरः । कियत्तत्तं ददामीति संतोष्य तनुजंनिजम् ॥ ६६ ॥ विश्वनन्दिनमाहूय राज्यभारस्त्वयाधुना । गुह्यतामहमाक्रम्य प्रत्यन्तप्रतिभूभृतः ॥ ६७ ॥ कृत्वा तज्जनितक्षोभप्रशान्ति गणितैर्दिनैः । प्रत्येष्यामीति सोऽवोचच्छ त्वा तत्प्रत्युवाच तम् ॥६८॥ पूज्यपाद स्वयत्रैव निश्चिन्तमुपविश्यताम् । गत्वाहमेव तं प्रैषं करोमीतिसुत्तोत्तमः ॥ ६६ ॥ राज्यमस्यैव मे स्नेहाद् भ्रात्राऽदायित्यतर्कयन् । वनार्थमतिसंधित्सुरभूतं धिग्दुराशयम् ॥ १०० ॥ ततः स्वानुमते तस्मिन् स्वाबलेन समं रिपून् । निर्जंतु विहितोद्योगं गते विक्रमशालिनि ॥ १०१ ॥ वनं विशाखनन्दाय स्नेहादन्यायकांङ क्षिणे । विशाखभूतिरुल्लङध्य क्रमं गतमतिर्ददौ ।। १०२ ।। विश्वनन्दो तदाकर्ण्य सद्यः क्रोधाग्निदोपितः । पश्य मामतिसंघाय प्रत्यन्तनृपतीन् प्रति ॥ १०३ ॥ प्रहित्यमद्वनं दत्तं पितृव्येनात्मसूनवे । देहीति वचनान्नाह किं ददामि कियद्वनम् ॥ १०४ ॥ विदधात्यस्य दुश्चेष्टा मम सौजन्यभब्जनम् । इतिमत्रा निवृत्तयसौ हन्तु ं स्ववनहारिणम् ॥ १०५ ॥ प्रारब्धवान् भयाद्गत्वा स कपित्थमहीरुहम् । कृत्वावृतिं स्थितः स्फीतं कुमारोऽपि महीरुहम् ॥ ११६।। - उत्तपु० पर्व ७४ इसी मगधदेश में और इसी राजगृह नगर में विश्वभूति नाम का राजा राज्य करता था । उसकी जैनी नाम की वल्लभा रानी थी। उन दोनों के वह देवस्वगं से आकर विश्वनन्दी नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ। वह प्रसिद्ध पुरुषार्थं वाला, दक्ष एवं पवित्र लक्षणों से भूषित था । fareभूति महीपति के अतिप्यारा विशाखभूति नाम का छोटा भाई था । उसकी लक्ष्मणा नाम की प्रिया थी । उन दोनों के कुबुद्धि वाला विशाखनन्द नाम का एक पुत्र हुआ । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश कामभोग समस्त दुःखों के निधानभूत है-ऐसा विचार करा और अपने चचेरे भाई विशाखनन्द को बुलाकर वह उद्यान उसे ही देकर और सब राजलक्ष्मी छोड़कर वह विश्वनन्दी शीघ्र ही संभूतगुरु के समीप गया और मुनिराज के चरणों को मस्तक से नमस्कार कर तथा सर्व परिग्रह को छोड़कर एवं देह, भोग, संसार आदि सभी में वैराग्य को प्राप्त होकर विश्वनन्दी ने तप को ग्रहण कर लिया। विश्वनन्दी मुनि पक्ष-मास आदि तपों के करने से अतिकृश शरीर एवं निर्बल होकर नानादेश, ग्राम, वनादिक में बिहार करते ओठ, मुख और शरीर के सूख जाने पर भी ईर्यापथ पर दृष्टि रखे हुए अपने शरीर की स्थिति के लिए मथुरापुरी में प्रविष्ट हुए। उस समय निन्द दुध्यसनों के सेवन से राज्यभ्रष्ट हुआ और किसी अन्य राजा का दूत बनकर मथुरापुरी में आकर किसी वेश्या के भवन के अग्रयाग पर बैठा हुआ वह कुबुद्धि विशाखनन्द सद्यः प्रसूता गाय के सोंग के आघात से अतिकृशदेह और क्षीणपराक्रम दुर्बल उन विश्वनन्दी मुनि को गिरता हुआ देखकर हास्यपूर्वक अपना घात करने वाले दुर्वचन इस प्रकार बोला । +++। इस प्रकार के उसके दुर्वचन सुनकर, क्रोध और मान कषाय के उदय से यह मुनि कोप से रक्तनेत्र होकर मन में बोला-अरे दुष्ट, मेरे तप के माहात्म्य से तू इस प्रहास्य का स्वमूलनाशक महान् कटुक फल पायेगा, इसमें कोई सदेह नहीं है। इस प्रकार ज्ञानियों द्वारा निन्दित निदान उसके विनाश के लिए वह मुनि करके अपने तप से अंत में संन्यास के साथ मरा वह महाशुक्र देवलोक में उत्पन्न हुआ जिसकी स्थिति सोलह सागर थी। बल, वीर्य, लक्ष्मी और नयनीति से युक्त तथा श्रेष्ठ ऐरावत हाथी की सूड के समान दीर्घभुजाओं वाले उस यवराज विश्वनन्दि ने अपनी चाचा की आज्ञा का उल्लंघन कर अपना स्थान (अलग ) बनवाया। किसी दिन विश्वनन्दी कुमार अपने मनोहर नामक उद्यान में अपनो स्त्रियों के साथ क्रीड़ाकर रहा था। उसे देख, विसाखनन्द उस मनोहर नामक उद्यान को अपने अधीन करने की इच्छा से पिता के पास जाकर कहने लगा कि मनोहर नाम का उद्यान मेरे लिए दिया जाये अन्यथा मैं देश परित्याग कर दूंगा-आपका राज्य छोड़कर अन्यत्र चला जाऊंगा। पुत्र के वचन को सुनकर तथा हृदय में धारणकर स्नेह से भरे हुए पिता ने कहा कि वह वन जितनी-सी वस्तु है, मैं तुझे अभी देता हूं। इस प्रकार अपने पुत्र को संतुष्ट कर उसने विश्वनन्दी को बुलाया और (छल कपट से) कहा कि "इस समय राज्य का भार तुम ग्रहण करो, मैं समीपवर्ती विरुद्ध राजाओं पर आक्रमण कर उनके द्वारा किये गये क्षोभ को शान्त कर कुछ ही दिनों में वापस आ जाऊंगा। राजा के वचन सुनकर श्रेष्ठ पुत्र विश्वनन्दी ने उत्तर दिया कि 'हे पूज्यपाद ! आप यहीं निश्चित होकर रहिए, मैं ही जाकर उन राजाओं को दास बनाये लाता हूँ।' आचार्य कहते हैं कि देखो ! राजा ने यह विचार नहीं किया कि राज्य तो इसी का है, भाई ने स्नेहवश मुझे दिया है। केवल धन के लिए ही वह उस श्रेष्ठ पुत्र ठगाने के लिए उद्यत हो गया सो ऐसे दुष्ट अभिप्राय को धिक्कार हैं। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश तदन्तर पराक्रम से सुशोभित विश्वनन्दी जब काका की अनुमति ले, शत्र ओं को जीतने के लिए अपनी सेना के साथ उद्यत करता हुआ चला गया तब बुद्धिहीन विसाखभूति ने क्रम का उल्लंघन कर वह वन अन्याय की इच्छा रखने वाले विशाखनन्द को दे दिया । विश्वनन्दी को इस घटना का तत्काल ही पता चल गया। वह क्रोधाग्नि से प्रज्ज्वलित हो कहने लगा कि देखो काका ने तो मुझे धोखा देकर शत्रु राजाओं के प्रति भेज दिया और मेरा वन अपने पुत्र के लिए दे दिया। क्या 'देखो' इतना कहने से ही मैं नहीं दे देता ? वन है कितनी चीज ? इसकी दुच्येष्टा मेरी सज्जनता का भंग कर रही है। ऐसा विचार कर वह लोट पड़ा और अपना वन हरण करने वाले को मारने के लिए उद्यत हो गया। इसके भय से विशाखनन्द वहाँ से भागा और एक पत्थर के खम्भा के पीछे छिप गया परन्तु बलवान विश्वनन्दी ने अपनी हथेलियों के प्रहार से उस पत्थर के खम्भे को शीघ्र हो तोड़ डाला। विशाखनन्द वहां से भी भागा। यद्यपि वह कुमार का अपकार करने वाला था परन्तु उसे इस तरह भागता हआ देखकर कुमार को सौहार्द्र और करुणा दोनों ने प्रेरणा दी जिससे प्रेरित होकर कुमार ने उसे कहा कि डरो मत । यही नहीं, उसे बुलाकर वह वन भी उसे दे दिया तथा स्वयं ससार को दुःखमय स्थिति का विचार कर संभूत नामक गुरु के समीप दीक्षा धारण करली सो ठीक ही है क्योंकि नीच जनों के द्वारा किया हुआ अपकार भी सज्जनों का उपकार करने वाला ही होता है । उस विशाखभूति को भी बड़ा पश्चाताप हुआ। 'यह मैंने बड़ा पाप किया है-ऐसा विचार कर उसने प्रायश्चित स्वरूप संयम धारण कर लिया। १८ महाशुक्र कल्प देव भव में (क) xx+ महसुक्के उववन्नो xxx । -आव० निगा ४४६ उत्तरार्ध मलयटीका-xxx मृत्वा च सनिदानोऽनालोचिताप्रतिक्रान्तः अंते मासिकेन भक्त न महाशुक्र कल्पे उपपन्न उत्कृष्टस्थितिर्देव इति । भगवान महावीर का जीव विश्वभूति क्षत्रिय भव से सनिदान मर कर महाशुक्र कल्प देवलोड में उत्कृष्ट स्थिति के देव के रूप में उत्पन्न हुआ ? (ख) भ मिष्ठवीर्यो भयासं मृत्यवेऽस्य भवान्तरे । अनेन तपसोग्रेण निदानमिति सोऽकरोत् ।। १०६ ।। संपूर्य कोटिवर्षायुरनालोच्य च तन्मृतः । विश्वभ तिर्महाशुक्र प्रकृष्टायुः सुरोऽभवत् ।। १०७ ।। -त्रिशलाका० पर्व १० । सर्ग १ (ग) विस्सभ तो वि अणगारो + + + कालमासे कालं काऊग महासुक्के देवलोए उकोसहिईओ देवो समुप्पण्णो। -चउप्पन्न० पृ०६६ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश ईदशं स तदुच्छित्त्यै निदान बुधनिन्दितम् । कुत्वा स्वतपसा प्रान्ते संन्यासेनाभवद्व्यसुः ॥ ५५ ॥ ततस्तपः फलेनासौ तब्रवाभूत्सुरो दिवि । यत्रास्ति सुखसंलीनो विसाखभ तिसन्मुनिः ॥ ५६ ॥ - वीरच० अधि ३ स निदानोऽभवत् प्रान्ते कृतसंन्यासनक्रियः। स्वयं विशाखभ तिश्च महाशुक्रमुपाश्रितो ।। ११८ ॥ तत्र षोडशवाराशिमानमेयायुषौ चिरम् । x ॥ ११६ ॥ -उत्तपु० पर्व ७४ घत्ता-मगहे सरजुत्त देह-विउत्तु सोलहि जलहि समाउ । महसुक्कि सतेउ जायउ देउ सो सुन्दरयर काउ ।। ५६ ।। तस्थवि विसाण दी पहूउ, सुउ जिणवर-तउ विरइ विसरउ -वड्डमाणच० संधि ३/कड १७, १८ इस प्रकार ज्ञानियों द्वारा निन्दित निदान विसाखनन्द के विनाश के लिए वह मुनि करके अपने तप के अन्त व्यास के साथ मरा और उस तप के फल से उसी स्वर्ग में ( महाशुक ) देव उत्पन्न हुआ, जहाँ पर विसाखभति नियाज का जीव सुख में मग्न देव था। वहाँ पर उन उत्तम दोनों देवों की आयु सोलह सागर प्रमाण थी। त्रिपृष्ठ वासुदेव के भव में विष्ठ वासुदेव का समय-काल| पंचऽरहते वदंति केसवा पंच आणुपृथ्वीए। सिज्जंस तिविट्ठाई धम्म पुरिससीहपेरंता ।। -आव• निगा ४१६ मलय टीका-x + + 'आनुपूयां' परिपाट्या, 'सेन्जंस तिविट्ठाइ धम्म पुरिससोहपेरता' श्रेयांसादीन् तिपृष्ठादयः धर्मपर्यन्तान् पुरुषसिंहपर्यन्ता इति । प्रथम पांच घासुदेव-अनुक्रम से श्रेयांसनाथ यावत् धर्मनाथ तीर्थ कर के काल में हुए अर्थात् प्रथम त्रिपृष्ठ वि-श्रेयांसनाथ तीर्थकर के काल में हुए यावत् पांचवे वासुदेव पुरुषसिंह-धर्मनाथ तीर्थकर के काल में हुऐ । तिविठ्ठ, णं वासुदेवे यउरासीई वाससचसहस्साई सम्वाउय पालइत्ता अप्पइहाणे नरए नेरइयत्ताए -सम० सम ८४/५० ८६६ | टीका-'तिविट्ठ,' त्ति प्रथमवासुदेवः श्रेयांसजिनकालभावीति अप्रतिष्टानो नरकः-सप्तमपृथिव्या जानां मध्यम इति । त्रिपृष्ठ वासुदेव ग्यारह तीर्थ कर श्रेयांसनाथ के समय-काल में हुए। आयुष्यपूर्ण कर सातवीं नरक के विष्ठान नरकावास में समुत्पन्न हुए । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश .२+++प्रथम दो चक्रवर्ती के बाद-त्रिपृष्ठ वासुदेव चक्किदुगं हरिपणगं I+++ -आव० निगा ४२१ मलयटीका-प्रथममुक्तलक्षणकाले चक्रवर्तिद्वय भविष्यत्यभवद्धा, ततस्त्रिपृष्ठादिहरिपंचकं । . प्रथम दो चक्रवर्ती भरतचक्रवर्ती व सागर चक्रवर्ती के बाद त्रिपृष्ठादि पंच धासुदेव हुए। अर्थात् तीसरे चक्रवर्ती पांचवें वासुदेव के बाद हुए। .३ त्रिपृष्ठ वासुदेव के माता-पिता का नाम(क) जंबुद्दीवेणं दीवे भारहे वासे इसीसे ओसप्पिणीए नवबलदेव-वासुदेव पियरो होत्था, तंजहा पयावई य बंभे, रोद्दे सोमे सिवेतिय । महसिहे अग्गिसिहे, दसरहे नवमेय वसुदेवे ॥ जंबुद्दीवेणं दीवे भरहे वासे इमीसे ओस प्पिणीए णव वासुदेवमायरो होस्था, तंजहा. मियावई उमाचेव, पुहवी सीया य अम्मया। लच्छिमई सेसवई, केकई देवई इय ॥ -सम० सू २३८, २३६ चूंकि इस अवसर्पिणी काल के भरतक्षेत्र में त्रिपृष्ठ वासुदेव-प्रथम वासुदेव थे। उनके पिता का ना प्रजापति तथा माता का नाम मृगावती था। ४ त्रिपष्ठ बासुदेव का निदान-पूर्वभव का(क) एएसि नवण्ह वासुदेवाणं पुब्वभविया नव धम्मायरिया होत्या, तंजहा–संभूय सुभद्दे सुदंससे य सेयंसेकण्ह गगदत्त य । सागरसमुद्दनामे, दुमसेणे य णवमए । एए धम्मायरिया कित्तीपुरिसाण वासुदेवाणं । पुव्वभवे आसिह, जत्थ नियाणाई कासी य । एएसिं नवण्ह वासुदेवाणं पुत्वभवे नव नियाणभूमिओ होत्था, तंजहा - महुरा य xx हस्थिणपुर च। एएसि ण नवण्ह वासुदेवाण नवनियाणकारणा होत्था, तंजहा-गावी जुवे जाव माउया इय । - सम० सू० २४३-२४ त्रिपृष्ठ वासुदेव के पूर्वभव के आचार्य का नाम संभूति था। पुरुषों में प्रधान कीर्तिवाले वासुदेव के पूर्व भव में संभूति धर्माचार्य के पास चारित्र ग्रहणकर निदान किया । त्रिपृष्ठ वासुदेव-पूर्वभष में गाय के कारण से निदान किया। (क) एएसिण णवण्ह बलदेववासुदेवाण पुठवभविया नव-नव नामज्जा होत्या, तंजहा "विस्सभूई पव्वइए' धणदत्त समुद्ददत्त सेवाले। पियमित्त ललियमित्त पुणव्वसु गंगदत्तेय ॥१॥ एयाई नामाई पुव्वभवे आसि वासुदेवाण । -सम० ० २४२ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश चूकि त्रिपृष्ठ-प्रथम वासुदेव थे। उनके पूर्व भव का नाम-विश्वभूति था। त्रिपृष्ठ वासुदेव के प्रतिशत्रु एएसि नवण्ह वासुदेवाण नव पडिसत होत्या, तंजहा-अस्सग्गीवेजावजरासंधे। एए खलु पडिसत्तू जाव सचको हिं । -सम० सू. २४६ त्रिपृष्ठ वासुदेव का प्रतिशत्र - अश्वग्रीव था। अर्थात् अश्वग्रीव प्रथम-प्रतिवासुदेव था। त्रिपृष्ठ वासुदेव के पिता का पुत्री से विवाह तस्थ य भुजिऊण जहिच्छिए भोए, चइऊण देवलोगाओ पोयणपुराहिहाणे, णयरे फ्यावइस्स पाहिवस्स मिगावईए भारियाए पुत्तत्तण समुप्पण्णो । तस्स य राइणो रिपडिसत्तू णामं पसिद्ध। का ध्याए पडिलग्गो, तओ ‘पयाए णियध याए चेव पई' त्ति लोएणं पयावइत्ति णामं कयं । तस्व बाणो विस्सभूई अणगारो महासुक्काओ चविऊ पुत्तो समुप्पण्णो । दिट्ठा य जणणीए सत्त गा। णेमित्तिएण साहियं-पढमो वासुदेवो भविस्सइ त्ति । जाओ य सोभणे दिवसे । संवडियो पणमणुपत्तो। -चउप्पण्ण० पृ०६६ ताहे महासुक्काओ चइऊणं तीए मियावतीए कुच्छिसि उववण्णो, सत्त सुविणादिहा, सुमिणपाढगेहिं वासुदेवो आइट्टो, कालेण जातो, तिण्णि य से पिट्टिकरंडका तेण से तिविठ्ठ, नाम कयं, मायाए मक्खिओ उण्हतेल्लेणंति, जोओणगमणुप्वत्तो । -भाव निगा ४४५ । मलय टीका में उद्धृत ततो चइऊण पोयणपुरे नगरे पुत्तो पयावइस्स मिगावईए देवीए कुच्छिंसि उवणण्णो, तस्स कह वती नामं ? तस्स पुचि रिउपडिसत्त तिनामं होत्था, तस्स य भद्दाए देवीए अयलेनामं कुमारे होत्था, य अयलस्स भगिणी मियावती नाम दारिया अतीव रूववती, सा य उम्मुक्कबालभावा सव्वालंविभूसिया पिउपाय दिया गया, तेण सा उच्छगे निवेसिया सातीसे रूबे जोव्वणे य अंगफासे य छओ, विसज्जेत्ता पउरजग वय वाहरइ, ताहे भणइ-जं एत्थ रयणं उप्पज्जइ त कस्स ? ते भणति, एवं तिन्निवोरा साहिते सा चेडी उवहि ( ढवि ) या, ताहे लज्जिया निग्गया, तेसि सव्वेसिं कूव पाणं गंधव्वेण विवाहेण सयमेव वियाहिया, उप्पाइया ऽणे भारिया सा, भहा पुत्रोण अयलेण समं खणापहे माहिस्सिरिं पुरिं निवेसेइ, महंतीए इसरीएत्ति माहेस्सरी, अयले माय ठवेऊण पिउमूलगो, ताहे लोएण पयावती नाम कय पया अणेण पडिवण्णा पयावतित्ति, वेदेऽप्युक्तम्-"प्रजापतिः स्वां हितरमकोमयत ।' -आव० निगा ४४५/मलय टीका में उद्धृत Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन कोश (घ) अस्थि इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे पोयणपुरं णामं णयरं । तत्थ य राया पसाहियासेसदिसा बलओ पयावई णामेणं परिवसइ । तस्स य महादेवी सवंगसुंदरी मिगावई णाम, अविय +++ एवंच राइणो विसयसुहमणुहवन्तस्स अइक्कंतो कोइ काले । ___ अण्णया य मिरिइजीवो संसारमाहिडिऊण अणंतरमवे महासुक्काओ चुओ इमोए गम्भम्मि समुप्पण्णो। दिट्ठा य तीए रयणीए सत्त महासुमिणा। साहिया दइयस्स । तेण वि समासासिया पुत्तजम्मेणं। तओ पुण्णेसुण वसुमासेसु अट्टहमेसु राईदिएसु सुहसुहेणं दारयं पसूया। कयंवद्वावणयं मुक्काणि सव्वबंधणाणि । तस्स च पट्ठोए वंसतियं दठ्ठ - माया-पितीहिं तिविठु त्ति णाम कय । तस्य य जेट्ठभाउओ अयलो णाम बलदेवो त्ति। सोय तिविठु वज्जरिसहणारायसंघयणो महाबल परक्कमो सम्वमेवलोय अभिभवन्तो वडिउमाढत्तो। उम्मुक्कबालभावोय विक्कमेकरसिओ सुहडावले वहिउमाढत्तो । xxx -चउप्पण० पृ०६५, । (च) इतश्चात्र व भरते नगरे पोतनाभिधे । अभूद्रिपुप्रतिशत्र र्नाम राजामहाभुजः ॥ १०८॥ तस्य भद्रेति पत्न्यासीत्तस्यां सूनुरजायत। चतुभिः सूचितः स्वप्नैर्बलभद्रोऽचलाभिधः ।। १०६ । मृगावतीति नाम्नाऽभूत् पुत्री च मृगलोचना। सोद्यौवना रूपवती प्रणन्तु पितरंययौ ॥ ११ ॥ जातानुरागस्तां प्रेक्ष्य निजोत्संगे न्यधत्त सः। तत्पागि ग्रहणोपाय विचिन्त्य व्यसृजच्च ताम् ॥११११ पौरवृद्धानथाहूय पप्रच्छेदं महीपतिः । यदन जायते रत्नं तत्कस्य बत निर्णयम् ॥ ११२ । तवेति ते समाचख्युस्त्रिरूपादाय तद्वचः । मृगावतीं परिणेतु तत्र चानाययन्नृपः ॥ ११३ । जग्मुस्ते लज्जिताः सर्वे पार्थिवोऽपि मृगावतीम् । गान्धर्वेण विवाहेन स्वयमेव ह युपायत ॥ १६४। लज्जाक्रोधाकुला भद्रादेवो मुक्त्वा महीपतिम् । सहाचलेन निर्गस्य प्रययौ दक्षिणापथे ॥ ११५ ॥ पुरी माहेश्वरी तत्र विरचय्याचलो नवाम् । मातरं तत्र संस्थाप्य जगाम पितुरन्तिके ।। ११६ ॥ तस्पितापि स्वप्रजायाः पतित्वेनाखिलैर्जनैः । प्रजापतिरिति प्रोचे बलीयः कर्म नाम हि ॥ ११ ॥ "-त्रिशलाका पर्व १० सर्ग। - इस भरतक्षेत्र में पोतनपुर नामक नगर में रिपुप्रति शत्र नामक एक पराक्रमी राजा था। उसकी स्त्री का ना भद्रा था। उसने रात्रि में चार स्वप्न देखे - फलस्वरूप बलभद्र (अचल कुमार नामक एक पुत्र उत्पन्न हुआ। और मृगावती नामक मृगलोचना पुत्री हुई। एक समय यौवनवती और रूपवती मृगावती बाला पिता को प्रणाम करने गयी। उस समय राजा रिपुपति शत्रु ने अपनी पुत्री को उत्संग में बैठायो । तत्पश्चात् उसके साथ 'पाणिग्रहण' करने का उपाय सोचा और ज वापस भेज दिया। एक दिन रिपुप्रतिशत्रु राजा नगर के वृद्धजनों को बुलाकर पूछा-अपने स्थान में जो रत्न उत्पन्न होता वह किसका कहा जाता है। इसी का निर्णयकर बताओ। उन्होंने कहा-''वह रत्न आपका कहा जाता है। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश इस प्रकार तीन बार बात को टकराकर पका किया। मृगावती के साथ विवाह करने के लिए राजा ने राज्य सभा में उसे बुलाया । यह देखकर नगर के लोग लज्जित हुए। राजा ने गांधवं विधि से मृगावती के साथ स्वयंमेव विवाह किया। यह देखकर लज्जा और क्रोध से आकुल होकर भद्रादेवी राजा को छोड़कर-अचलकुमार को साथ लेकर नगर के बाहर निकलो तथा दक्षिण की ओर प्रस्थान किया। अचलकुमार ने वहां माहेश्वरी नामक नवीन नगरी को बसाया। उसमें स्वयं की माता को रखकर स्वयं पिता के पास आया । उसका पिता (रिपुप्रतिशत्रु ) स्वयं ही पुत्रीरूप प्रजा का पति हुआ। इससे सर्वलोक उसे प्रजापति नाम से पुकारने लगे-"अहो ! कर्म की गति बड़ी बलवान है ? ७ त्रिपृष्ठ वासुदेव का अवतरण (क) महासुक्क उववन्नौ तओं चुओ पोअणपुरम्मि । पुत्तो पयावइस्सा मिगावई [देवी कुच्छिसंभवोभयवं ॥ नामेण तिविठ्ठ,त्ति आई आसी दसाराणं ।। -आव० निगा ४४६ उत्तरार्ध/४४७ मलयटीका-ततो महाशुक्रात च्युतः, पोत्तनपुरे नगरे पुत्रः प्रजापतेः राज्ञः मृगावतीदेवीकुक्षिसम्भूतो. नाम्राः त्रिपृष्ठः, आदि:-प्रथम आसीत् दसाराणां ॥ तत्र वासुदेवत्वं च चतुरशीति वर्षशतसहस्राणि पालयित्वा अधः सप्तमनरकपृथिव्यामप्रतिष्ठाने नरके त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमस्थिति रकः संजात इति । भगवान महावीर का जीव महाशुक्र कल्प से च्युत होकर पोत्तनपुर नगर में प्रजापति राजा की मृगावती रानी के पुत्र रूप में जन्म लिया और त्रिपृष्ठ नामक प्रथम वासुदेव हुए और चौरासी लाख वर्ष का आयुष पाल कर सप्तम नरक के नारकी के रूप में उत्पन्न हुए। (ख) विश्वभूतिश्च्युतः शुक्रान्मृगावस्या अथोदरे । सप्तस्वप्नसमाख्यातविष्णु भावः समागमत् ।। ११८ ।। तया च काले सुषुवे सुनुः प्रथमशाङ्गभृत् । त्रिकरंडकपृष्ठत्वात् त्रिपृष्ठ इति संज्ञितः ॥ ११६ ।। अशीतिधनुरुत्तुगो रममाणोऽचलेन सः । अधीतसकलकल क्रमेण प्राप यौवनम् ॥ १२० ।। -त्रिशलाका० पर्व १०/सर्ग १ गभं के आगमन के समय मृगावती ने सात स्वप्न देखे । पृष्ठ भाग में तोन पासली थी अतः उसका नाम त्रिपृष्ठ रखा । शरीरावगाहना अस्सी धनुष की थी। (ग) अथास्मिन्नादिमे द्वीपे सुरम्यविषये शुभे । पोदनाख्ये पुरे भूपः प्रजापतिरभूच्छुभात् ॥ ६१ ।। देवी जयावती तस्य तयोश्च्युत्वा दिवोजनि । विशाखभूतिराजाचरोऽमरो विजयाख्यतुक् ।। ६२ ॥ विश्वनन्दिचरोदेवः स्वर्गादेत्याभवरसुतः। तस्य राज्ञो मृगवत्यां त्रिपृष्ठाख्यो महाबली ॥ ६३ ॥ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन कोष चन्द्रन्द्रनीलवर्णाङ्गौ दीप्तिकांतिकलाङ्कितो | न्यायमार्गरतौ दक्षौ सप्रतापौ श्रुतान्वितौ ॥ ६४ ॥ खभूचर सुराधीशैः सेव्यमानपदाम्ब दिव्याभरणमंडितौ ।। ६५ ।। क्रमात्सद्योनं संप्राप्तपरमोदयौ || ६६ ॥ महाविभवसंपन्नौ प्राय लक्ष्मीक्रीडागृहोपमौ । प्राङ महापुण्यपा दिव्य भोगोपभोगाढ्यौ दानादिगुणशालिनौ । इन्द्वादित्याविव भातस्तावाद्यौ रामकेशवौ ।। ६७ ।। - वीरवर्धच० अधि ३ (घ) तत्रषोडशवाराशिमानमेयायुषौ चिरम् भोगान्भुक्त्वा ततश्च्युत्वा द्वीपेऽस्मिन्नेव भारते ।। ११६ ।। सुरम्यविषये रम्ये पोदनाख्यपुरे नृपः । प्रजापरिमहाराजोऽजनि देवी जयावती ॥ १२० ।। तस्यासीदनयोः सूनुः पितृव्या विश्वनन्दिनः विजयाख्यस्ततोऽस्य व विश्वनन्द्यप्यनन्तरम् ।। १२१ ।। मृगावत्यामभूत् पुत्रस्त्रिपृष्ठो भाविचक्रभृत् । त्रिखण्डाधिपतित्वस्य स पूर्वगणनां गतः ।। १२२ ।। उद्गमेनैव निघूतरिपुचक्रोऽयमक्रमात् । अर्कस्येव प्रतापोऽस्य व्याव्य विश्वमनुस्थितः ।। १२३ ।। अनन्य गोचरा लक्ष्मीरसंख्येय समाः स्वयम् । इममेव प्रतीक्ष्यास्त गाढौत्सुक्याध चक्रिणम् ।। १२४ ।। लक्ष्मीला नमेवास्य चक्र' विक्रमसाधितम् । मागधाद्यमरारक्ष्य ससमुद्र महीतलम् ॥ १२५ ॥ सिंहशौर्योऽयमित्येषोऽशेमुषी कैरभिष्टुतः ॥ कि सिंह इवनिर्धीको नमितामरमस्तकः ।। १२६ ।। जित्वा ज्योत्स्नां मितक्षेत्रीं वृद्धिहानिमतीं चिरम् । कीर्तिरस्या खिलं व्याप्य ज्ञातिर्वा वेधसः स्थिताः॥ १२७॥ - उत्तपु० पर्व ७४ (च) इत्थंतरि अइ-विस्थिन्न खेत्ति तरु- गिरि-सुरु- पूरिय-भरह खेत्ति । सुरणामेण देसु गोहण-भूसिय-काणण-पए । णिवस X ÷ तत्थस्थि विलु पुरु पोयणक्खु । सुरपुरु व सुमोहिय-सुरयणक्खु ॥ X X तहि असिवर निरसिय-रिङ · कवाल । नामेण पयावर भूमिपालु | X X नामेण जयावइ पढम भज्ज । तहु अवर मयावर हुअसलज्ज | आय दोहिम सोइ केम । तिणयणु गंगा गौरीहिं जेम | + X + + अवयरिवि सदवासहो सरूउ हुउ पढमु विजउ निवइहे तणू | सो जाउ जयावइ हरिस हेउ जो चिरु मगहाहिउ गुण- णिकेउ । धत्ता - जिह नियम जमेण साहु समेण उववणु कुसुमचरण | पाउसु कंदेश नहु चंद्रेण हि सोहिउ कुलुतेण । - वड्ढमाणच० संधि ३ / कड२१ - वड ढमाणच० संधि ३ / कड़ २२ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश गएहि दिणेहि करहिं पियाहि थगंधउ जाउ मयावइ आहि । पुरा-जइणी-सुउ-जो पुण सग्गे। सुहासिव हूउ सुहोह-समग्गि । + करेवि जिणेसर-पायहँ पूज सुभत्तिए अट्ठपयार मणोज्ज । किओ दहमें दियहें तहु नामु तिविठ्ठ, अणि हरो कय-कामु । तओ कढिणत्त सरीरवलेण पवुड, ढि गओ गुणसारि कमेण । रमंतउ भूहर रक्खइ केम अणग्य मणी जलरासिहि जेम । पत्ता-बालेगवि तेण विलयवरेण सयलवि कल निरवज्ज । तिरयण सुद्धिए थिर बुद्धिए परियाणिय निव-विज्ज ॥ ६२ ॥ - वड्डमाणच० संधि ३/कड २३ महाशुक्र स्वर्ग में चिरकाल तक वहाँ के सुख भोगकर दोनों ही ( विशाखभूति-विश्वनंदी का जीव ) वहाँ से च्युत हुए। उनमें से विश्वनंदो के काका विशाखभूति का जीव सुरम्य देश के पोतनपुर नगर में प्रजापति महाराज की जयावतो रानी से विजय नाम का पुत्र हुआ और उसके बाद ही विश्वनन्दी का जीव इन्हीं प्रजापति महाराज की दूसरी रानी मृगावती के त्रिपृष्ठ नाम का पुत्र हुमा। यह होनहार अधं चक्रवर्ती था। उत्पन्न होते ही एक साथ समस्त शत्र ओं को नष्ट करने वाला इसका प्रताप, सूर्य के प्रताप के समान समस्त संसार में व्याप्त होकर भर गया था। अधं चक्रवर्तियों में गाढ उत्सुकता रखने वाली तथा जो दूसरी जगह नहीं रह सके ऐसी लक्ष्मी असंख्यात वर्षे से स्वय इस त्रिपृष्ठ की प्रतीक्षा कर रही थी। पराक्रम के द्वारा सिद्ध किया हुआ उसका चक्र रत्न क्या था-मानो लक्ष्मी का ही चिन्ह था और मागध आदि जिसकी रक्षा करते है ऐसा समुद्र पयस्त का समस्त महीतल उसके अधीन था। यह त्रिपृष्ठ 'सिंह के समान शूरवीर है। इस प्रकार जो लोग उसकी स्तुति करते थे-वे मेरी समझ से बुद्धिहीन ही थे क्योंकि देषों के भी मस्तक को नम्रीभूत करने वाला यह त्रिपृष्ठ क्या सिंह के समान निर्बुद्धि भी था ? उसकी कांति ने परिमित क्षेत्र में रहने वाली हानि-वृद्धि सहित चन्द्रमा को चांदनी भी जीतली थी तथा वह ब्रह्मा की जाति के समान समस्त संसार में व्याप्त होकर चिरकाल के लिए स्थित हो गयी थी। .८ त्रिपृष्ठ वासुदेव के प्रतिशत्रु -अश्वग्रीव प्रतिवासुदेव (क) तिविठ्ठो य दुविठ्ठो य सयंभु पुरिसुत्तमे पुरिससीहे। तह पुरिसपुंडरीए दत्ते नारायणे कण्हे ॥४०॥ -आव• मूल भाष्य गा ४० पृष्ठ २३७ .६ नव वासुदेवों में त्रिपृष्ठ प्रथम वासुदेव था (क) वासुदेवशत्र प्रतिपादनायाह आसग्गीवे तारय मेरय महुकेढवे निसुभे य। बलि पल्हाए तह रावणे य नवमे जरासिंध ।। १२ ॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षमान जीवन-कोश एए खलु पडिसत्त, कित्तीपुरिसाण वासुदेवाणं । सव्वेऽवि चक्केजोही सव्वेऽवि हया सचक्केहिं ॥४३॥ -आव० मूलभाष्य । गा ४२, ४३ __ मलयटीका-गमनिका-एते खलु प्रतिशत्रवः, एत एव खलु शब्दस्यावधारणार्थत्वात् , नान्ये, कीर्तिपुरुषार्ण -वासुदेवानां, सर्वेच चक्रयोधिनः, सर्वेच हताः स्वचक्ररिति, यतस्तान्येव चक्राणि वासुदेवव्यापत्तये क्षिप्तानि तैः पुण्योदयाद्वासुदेवं प्रणम्य तानेव ब्यापादयन्तीति । वासुदेव के प्रतिज्ञत्रु भी नव होते है-प्रथम प्रतिशत्रु प्रतिवासुदेव-अश्वग्रीव था। प्रथम प्रतिवासुदेव वासुदेव को मारने के लिए स्वरहस्त से चक्र चलाते है । चक्र चक्रवासुदेवों को प्रणाम करता है । उसी चक्र को वासुदेव स्वहस्त से ग्रहण करते हैं तथा स्वहस्तचक्र से वासुदेव के द्वारा प्रतिवासुदेव मारे जाते है। त्रिपृष्ठ वासुदेव के द्वारा-प्रतिशत्रु-प्रतिवासुदेव अश्वग्रीव माग गया। .१० त्रिपृष्ठ वासुदेव द्वारा केशरी सिंह का मारा जाना(क; विशाखनन्दिजीवोऽथ भवं भ्रान्स्वा मृगाधिपः जातस्तुगगिरौ शंखपुरदेशमुपाद्रवत् ॥ १२१ ।। तदानीताश्वप्रीवेण भूभुजा प्रविविष्णुना। मम मृत्युःकुतः इति पृष्टो नैमित्तिकोऽवदत् ॥ १२२ ॥ हन्ता स ते चन्डवेगं यो दूतं धर्षयिष्यति । मारयिष्यति यस्तुगगिरिसिंह च हेलया ।। १२३ ॥ अश्वग्रीवस्ततः शंखपुरे शालीनवापयत् । तद्रक्षार्थं चादिदेश वारिकेण महीपतोन् ॥ १२४ ।। सोऽऔषीच्च महावीर्यो पुत्रौ राज्ञः प्रजापतेः । तस्मै द्रतं चंडवेगं प्रेषीत् चार्थेन केनचित् ॥ १२५ ॥ प्रजापतेः कारयतः संगीतं निजपर्षदि। अकस्मात्प्राविशचंडवेगः स्वामिबलोन्मदः ।। १२६ ॥ आगमाध्ययनस्येवाकालविधुत्समुद्गमः । स विघ्नभूतो गीतस्याभ्युत्तस्थे तेनभूभुजा ॥ १२७ ।। मन्त्रिणश्च कुमाराभ्यां पृष्टा आख्यन् पुमानयम् । प्रधानभूतोऽश्वग्रीवमहाराजस्य दोष्मतः ।। १२८ ॥ यदा व्रजत्ययं दूतो ज्ञापनीयस्तदा हिनौ । इति स्वकीयानचलत्रिपृष्ठावूचतुर्नरान ॥ १२६ ।। स प्रजापतिनान्येा विसृष्टोऽभ्यर्च्य गौरवात् । ययौ कुमारयोराशु ज्ञापितश्च निजैर्नरः ॥ १३० ।। गत्वा कुमारौ मार्गार्धे तमकुट्टयतां भटैं। पलायांचक्रिरे सद्यस्तत्सहायास्तु काकवत् ।। १३१ ।। तत्प्रजापतिना ज्ञात्वा भीतेनानायितो गृहे। सत्कृत्य चाधिकं चंडवेग एवमभाष्यत ।। १३२ ।। कुमारयोदु विनयं मा स्माख्यः स्वामिनः खलु । अज्ञानजाद् दुर्विनयान्न कुप्यन्ति महाशयाः ॥ १३३ ।। आमेत्युक्त्वा ययौ दृत स्नत्यौस्नात्त्वग्रतो गतात् । विदाञ्चकाराश्वग्रीवस्तद्धर्षणमशेषतः ॥ १३४ ।। तद्विदं च हयग्रीवं ज्ञात्वा दूतो यथातथम्। स्वधर्षणं तदाचख्यावलीकाख्यानकातरः ॥ १३५ ।। अश्वग्रीवेण शिष्ट्वाऽन्यः प्रहितो ना प्रजापतिम् । गत्वावोचद्रक्ष सिंहाच्छालीनाज्ञा प्रभोरियम् ॥१३६।। प्रजापतिः सुतावूचे युवाभ्यां कोपितः प्रभुः । प्रददौ यदवारेऽपि शासनं सिंहरक्षणे ॥ १३७ ।। इस्युक्त्वा प्रस्थितं भूपं कुमारौ प्रतिषिध्य तौ। प्रजग्मतुः शंखपुरं सिंहयुद्धसकौतुकौ ॥ १३८ ।। . Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वधमान जीवन-कोश अन्येऽरक्षन्नृपाः सिंहं कथंकारं कियच्चिरम् । इति पृष्टस्त्रिपृष्ठेन शशंसुः शालिगोपकाः ॥१३६ ।। चतुरंगचमूवप्र कृत्वाऽरक्षन् क्षमाभुजः। आशालिग्रहणमहो वर्षवारक्रमागताः ॥ १४०॥ ऊचे त्रिपृष्ठस्तानेवं स्थास्यतीयश्चिरंहि कः । तदर्शयत मे सिंहं यथैकाकी निहन्मितम् ॥ १४१ ।। ततस्तेऽदर्शयन् सिंहं तुगाचलगुहागतम् । जग्मतुश्च रथारूढौ तां गुहां रामशाङ्गिणौ ।। १४२ ।। चक्र: कलकलं चौच्चैतद्गुहापार्श्वयोजना । तं श्रुत्वा निर्ययौ जम्भादीर्णवक्र: स केसरी ॥ १४३ ॥ रथिकोऽहमसौ पत्तिरित्याजिन समाऽऽवयोः। इति त्रिपृष्ठः फलकासिधरोऽवातरद्रथात् ।। १४४ ।। दंष्ट्राकरजशस्त्रोऽयं फलकासिधरस्वहम् । नैतदप्युचितमिति चर्मासी व्यमुचद्धरिः ।। १४५ ॥ तत्प्रेक्ष्य केसरी जातजातिस्मृतिरचिन्तयत् । एकं धाष्यमहो एको यदागान्मद्गुहामसौ ॥ १४६ ॥ अन्यद्रथादुत्तरणं तृतीयं शस्त्रमोचनम्। दुर्मदं तन्निहन्म्येष मदान्धमिव सिन्धुरम् ।। १४७ ।। विचिन्त्यैवं क्षणं व्यात्ताननः पंचाननाग्रणीः। दत्वा फालामुत्पपातोपत्रिपृष्ठ पपात च ।। १४८ ॥ एकेन पाणिनोभ॑ष्ठमपरेणाधरं पुनः। धृत्वा विष्ठस्तं सिंह जीर्णवात्रमिवाहणात् ॥१४६ ॥ पुष्पाभरणवस्त्राणि ववृषदेवता हरौ । लोकाश्च विस्मयस्मेरा: साधु साध्विति तुष्टुवुः ॥ १५ ॥ अहो कथमनेनाह कुमारेणाद्य मारितः । इत्यमर्षात् स्फुरंस्तस्थौ द्विधाभूतोऽपि केसरी ।। १५१ ।। गणभृद्गौतमजीवोन्स्याहज्जीवस्य शाङ्गिणः । तदानीं सारथिः सिंह तं स्फुरन्तमदोऽवदत् ॥१५२॥ नृष्वेषसिंहः पशुषु त्वं तु तन्मारितोऽमुना। मुधापमानं किंधत्से न होनेन हतोऽसि यत् ॥ १५३ ।। सुधयेव तया वाचा प्रोतो मृत्वा स केसरी। चतुर्था नरकावन्यां नारकः समजायतः ॥ १५४ ।। तच्चर्मादाय कुमारौ चलितौ स्वपुरं प्रति। ग्राम्यानित्यूचतुर्वा जिग्रीवस्यैतद्धि कथ्यताम् ।। १५५ ।। शालीन् खाद यथेष्टं स्वं विश्वस्तस्तिष्ठ संप्रति । असौ हृदयशल्यं ते केसरी यन्निपातिनः ।। १५६ ॥ इत्युक्त्वा पोतनपुरे तौ कुमारावुपेयतुः । ग्रामीणास्तेऽपि गत्वाऽऽल्यन हयग्रीवस्य तत्तथा ।। १५७ ।। –त्रिशलाका पर्व १०/सर्ग १ (ख) हत्येण उवरिल्लो उट्ठो एगेणं हे हिलो गहिओ, तओ तेण जुन्नपडगोविव दुहा काऊण मुक्को, ताहे लोगेण कलयलो कओ, अहासन्निहियाए देवयाए आभरणवत्थकुसुमवरिसं वरिसियं, ताहे सीहो तेण अमरिसेण फुरफुरेंतो अच्छइ. एवं नाम अहं कुमारएण जुद्धेण मारिओत्ति, तं च किरकालं भगवओ गोयमसामी रइसारही आसि, तेण भण्णति-मा तुमं अमरिसं वहाहि, एस नरसीहो तुम मियाधिराओ, ता जति सीहो सोहेण मारिओ को एत्थ अवमाणो ?, ताणि सो वयणाणि मधुमिव पिबति, सो मरित्ता नरए उववण्णो, सो कुमारो तं चम्मं गहाय नगरस्सपहाविओ, ते य गामेल्लए भणइ-गच्छहभो ! आव० निगा ४४५/मलय टीका में उद्धृत (ग) इओ य महामंडलियो आसग्गीवोराया, सो निमित्तियं पुच्छइ-कतो मम भयंति ? तेण भणियंजो चंडमेहदूयं आध रसेहित्ति, अवरंतेय महाबलवगं सीह मांरेहिति, ततो ते भयंति, तेण सुय, जहा पयवतिपुत्ता महाबलवना, ताहे तत्थ दूयं पेसेइ, तत्थ य अंतेपुरे पेच्छणय वट्टइ, तत्थ य दूओ पविट्ठो, राया उडिओ पेच्छणयं भग्गं, कुमारा पेच्छणगेण अक्खित्ता भणंति Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ वर्धमान जीवन-कोश को एस ? तेहिं भणियं-जहा आसग्गीवरण्णो दूओ, ते भणंति-जाहे त वच्चेन्जा ताहे कहेज्जह, सो राइणा पूएऊण विसज्जिओ, पधाविओ अप्पणोविसयस्स, कहियं कुमाराणं, तेहिं गंतूण अद्धप्पहे हओ, तस्स जे सहाया ते सव्वेवि दसोदिसि पलाया, रण्णा, सूर्य-जहा आहरिसिओ दूओ, संभंतेणं नियत्तिओ, ताहेरण्णा बिउणतिउणं दाऊण मा हु रण्णो साहिज्जसु जं कुमारेहिं कयं, तेण भणियं-न साहेमि, ताहे जे ते पुरओ गया तेहिं सिह जहा आधरिसिओ दूओ, ताहे सो राया कुविओ, तेण दूएण नायं-जहा रन्नो पुव्वं कहिएल्लयं, जहावत्तं सिंह, ततो अस्सग्गीवेण अन्नो दूओ पेसिओ वच्च पयावइ गंतूण भणाहि-मम सालिं रक्खाहि कसिज्जमाणं, गओ दूओ, रन्ना कुमारा उबलद्धा- किह अकाले मच्चू खवलिओ ? तेण अम्ह अवारएचेव जत्ता आणत्ता, राजा पहाविओ, ते भणंति-अम्हे वच्चामो, ते रुभंता मड्डाए गता, गंतूणं खेत्तए भणंति-किह अन्ने रायाणो रक्खियाइया ? ते भणंति-आसहत्थिरहपुरिसपागारं काऊणं, केच्चिरं ?, जाव करिसणं पविट्ठ, तिवट्ठ, भणति-को एच्चिरमच्छइ ? मम तं पएसं दरिसेह, तेहिं कहियं-एयाए गुहाए, ताहे कुमारो रहेण तं गुह पविठ्ठो, लोगेण दोहिवि पासेहिं कलयलो कओ, सीहोऽविय असंभंतो निग्गओ, कुमारो चिंतेइ-एसपादेहिं अहरण विसरिसं जुद्धं, असिखेडगहत्थो रहाओ उइन्नो, ताहपुणोऽविचितेइ-एस दाढाणखायुधो अहम सिखेडगेण, एवमवि असमंजसं तंपिऽणेण असिखेडगं छड्डियं, सीहस्स अमरिसो जाओ-एगंता ता रहेण गुहमतिगतो एगागो, बितियं भूमि ओइण्णो, ततियं आयुधाणि विमुक्काणि, अज्जणं विणिवाएमित्ति महया, अवतालिएणं वयणे उक्कदं काऊण संपत्तो, ताहे कुमारेण एगेण xxx । -आव० निगा ४४५-मलय टीका में उद्धृत विशाखनन्दी का जीव अनेक भवों में परिभ्रमण कर तुगगिरि में केशरी सिंह हुआ। वह शंखपुर के प्रदेश में उपद्रव करने लगा। __ उस समय अश्वग्रीव नामक प्रतिवासुदेव एक निमित्तज्ञ को कि पूछा---''मेरी मृत्यु किसके द्वारा होगी। प्रत्युत्तर में निमितज्ञ ने कहा-जो तुम्हारे चंडवेग नामक दुत पर गुस्सा करेगा और तुगगिरि पर स्थित केशरी सिंह को एक लीला मात्र में हनन करेगा वह आपको मारने वाला होगा। इसके बाद अश्वग्रीव राजा शंखपुर में शाली के क्षेत्रों को तैयार करवाया और उसकी रक्षार्थ स्वयं के अधीनस्थ राजाओं को क्रमशः रहने की आज्ञा की। एक समय किसी से सुना कि प्रजापति राजा के दो पुत्र बड़े पराक्रमी है। इस कारण किसी प्रकार के स्वाथ के लिए उसके पास उन्होंने स्वयं के चंडवेग दूत को भेजा। राजा प्रजापति स्वय' की सभा में बैठकर संगीत कराता था। वहां स्वयं के स्वामी के बल से उन्मत्त हुआ चंडवेग दूत अकस्मात आकर पहुंचा। जिस प्रकार आगमन का अध्ययन करते हुए-अकाल में बिजली होती है और विधन उत्पन्न हो जाता है उसी प्रकार वह संगीत में विध्नभूत हुआ और तत्काल राजा खड़ा हुआ। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बर्धमान जीवन कोश ६७ दोनों कुमारों ने मन्त्री से पूछा-यह कौन है ? प्रत्युत्तर में मन्त्री ने कहा-यह दूत महापराक्रमी अश्वग्रीव राजा का प्रधान रूप है । तत्पश्चात् अचल और त्रिपृष्ठ स्वयं के पुरुषों को आज्ञा की-जब यह दूत यहां से चला जाय तब मुझे सूचित करना । प्रजापति राजा कुछ दिन दूत को अपने पास रखा-बाद में उसे सत्कार-सम्मान देकर बिदा किया । दूत ने वहाँ से प्रस्थान किया। इसकी सूचना कुमार के व्यक्तिओं ने आकर दोनों कुमारों को दी। कुमारों ने उस दूत को अर्धमार्ग में आडा किया और स्वय के सुभटों के पास से उसे सम्यग् प्रकार मारमरायी। उस समय उसकी सहायता करने बाले सुमट साथ में थे परन्तु वे सब काक पक्षी की तरह भाग गये।' यह खबर प्रजापति राजा को मालूम हई फलस्वरूप उस चडवेग दूत को वापस स्वय के पास बुलाया भौर अधिक सत्कार कर कहा-" हे चण्डवेग । ये मेरे कुमार का अविनय अपने स्वामी अश्वग्रीव को मत कहना-क्योंकि अज्ञान से हुए दुर्विनय से महाशय पुरुष कोप नहीं करते हैं। प्रत्युत्तर में दुत ने कहा 'बहुत अच्छा । ( आमेति )-ऐसा कहकर दूत चला परन्तु उसके साथ जो सुभट थेउन्होंने आगे जाकर अश्वग्रीव राजा को यह सर्व वृत्तांत सूचित किया । 'अश्वग्रीव यह वाती जानी है. ऐसा समझ में आने से असत्य बोलने से भय को प्राप्त चण्डवेग भी स्वयं के ऊपर जो उपद्रव हआ था उसकी वार्ता यथार्थ रूप से कही। तत्पश्चात् अश्वग्रीव राजा दूसरे मनुष्यों को समझा कर प्रजापति राजा के पास भेजकर सदेश भेजा-तुम तुगगिरि जाकर सिंह से शाली को रक्षा करो-यह अश्वग्रीष राजा की आज्ञा है। दूसरे मनुष्यों से यह वृत्तांत सुनकर प्रजापति राजा ने स्वय के कुमारों को कहा-तुमने अपने स्वामी आश्वग्रीव को कृपित किया है इस कारण उसने वारी बिनाभी सिंह से शालीक्षेत्र की रक्षा करने की मुझे आज्ञा दी है। इस प्रकार कहकर प्रजापति राजा वहां जाने के लिए तैयारी की परन्तु दोनों कुमार उन्हें निवारण कर सिंह के युद्ध में कौतुको होकर स्वय शंखपुर की ओर प्रस्थान किया। वहां पहुँचकर बाद में त्रिपृष्ठ ने शालीक्षेत्र के रक्षक गोपलोगों को पूछा कि-अन्य राजा गण जब यहाँ आते है तब वे इस सिंह से किस प्रकार रक्षा करते है। और उस वक्त वे कहाँ रहते हैं। प्रत्युत्तर में गोपलोगों ने कहा-दूसरे-दूसरे राजा प्रत्येक वर्ष बारी-बारी से आते हैं। वे जहाँ तक रहते है वहां तक शालो की रक्षा के लिए चतुरंग सेना को शाली क्षेत्र पर किलाकर रक्षा करते है। त्रिपृष्ठ घासुदेव ने कहा- "इतनी देर तक यहाँ कौन रहेगा अतः मुझे आप सिह बताइये-जिसको में एकेला ही उसे मार दूंगा। तत्पश्चात् उन्होंने तुगगिरि की गुफा में सिंह को बताया। राम और वासुदेव अश्वरथ में बैठकर उस गुफा के पास आये। गफा के पास लोगों ने कोलाहल किया । फलस्वरूप गफा से मुंह को फाड़ता हुआ केशरी सिंह बाहर निकला। उसे देखकर कहा-यह सिंह पैदल बिहारी है और मैं रथी हूं अतः हम दोनों का युद्ध एक समान नहीं कहा जा सकता। ऐसा धारकर त्रिपृष्ठ हाथ में ढाल-तलवार लेकर रथ से नीचे उतर गया। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ वर्धमान जीवन कोश इसके बाद फिर विचार किया - इस सिंह को दाढ और नख मात्र ही शस्त्र रूप है और हमारे पास ढालतलवार है— इस कारण यह भी उचित नहीं हैं । ऐसा धारण कर त्रिपृष्ठ ने ढाल-तलवार को भी छोड़ दिया । यह देखकर उस केशरी सिंह को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ । इस कारण उसने चिंतन किया - प्रथम तो यह पुरुष अकेला हमारी गुफा के पास आया - यह उसकी धृष्टता है, दूसरा रथ से नीचे उतरा यह भी उसकी धृष्टता है और तीसरा इसने शस्त्र को छोड़ दिया है यह और भी कीउस की घृष्टता है । अतः मुझे उचित है कि मदांध हाथी की तरह अतिदुमंद ऐसे त्रिपृष्ठ को मार देना चाहिए । ऐसा विचारकर मुख को निकालकर वह सिंह फाल भरकर त्रिपृष्ठ के ऊपर कूद पड़ा । त्रिपृष्ठ ने एक हाथ ऊपर का और दूसरा हाथ नीचे का होठ पकड़कर जीर्णवस्त्र की तरह उस सिंह को फाड़ दिया - मार दिया । तत्काल देवों ने वासुदेव पर पुष्प, आभरण और वस्त्रों की दृष्टि की । लोग विस्मय को प्राप्त हुए । 'साधुसाधु' ऐसे शब्दों का उच्चारण करते हुए स्तुति करने लगे । उस समय अहो ! यह नाना बालककुमार मुझे आज कैसे मारा - ऐसे असमर्थ से वह सिंह - दो भाग होने पर भी धूजने लगा । उस समय चरम तीर्थ कर का जीव वासुदेव का सारथि गौतम गणधर का जीव था । उसने स्फुरणमान होते हुए सिंह को कहा - "अरे सिंह । जैसे तुम पशुओं में सिंह हो वैसे ही यह त्रिपृष्ठ मनुष्यों में सिंह है । उसने तुम्हें माया है— कारण तुम वृथा अपमान क्यों मानते हो ? क्योंकि किसी दीन पुरुष ने तुम्हें नहीं मारा है । इस प्रकार अमृत जैसी सारथी की वाणी को सुनकर प्रसन्न होकर वह सिंह मृत्यु को प्राप्त हुआ । और चतुर्थं नरक में नारकी रूप में उत्पन्न हुआ । उसका चर्म लेकर दोनों कुमार स्वयं के नगर की ओर चले और पहले गांव के लोगों को कहा- तुम यह खबर अश्वाग्रीव को दो और कहो कि - अब तुम इच्छानुसार शाली खाना और विश्वास धरकर रहना । क्योंकि तुम्हारे हृदय में शल्प रूप है—जो केशरी सिंह था उसे मार दिया। इस प्रकार कहकर दोनों कुमार पोदनपुर गये और पहले गांव के लोगों ने यह सब वृत्तांत अश्त्रग्रीव को सूचित किया । * ११ त्रिपृष्ठ वासुदेव द्वारा अश्वग्रोव प्रतिवासुदेव का मारा जाना (क) हयग्रीवोऽपि साशंको जिवांसुर्माययापि तौ । अनुशिष्या दिशद् दूतं प्रजापतिनृपं प्रति ।। १५८ गत्वा स दूतस्तं स्माहोपस्वामि प्रेषयात्मजौ । राज्यं यदनयोः स्वामी प्रदास्यति पृथक् पृथक् ।। १५६ प्रजापतिर्बभाषेऽहं यास्यामि स्वामिनं स्वयम् । कृतं मम कुमाराभ्यां तत्र सुन्दर ! ।। १६० दूतो भूयोऽवदत्पुत्रौ न चेत्त्वं प्रेषयिष्यसि । तत्सज्जीभव युद्धाय मा वादीः कथितं न यत् ।। १६१ इत्युक्तवन्तं तं दूतं तौ कुमारावमर्षणौ । धर्षयित्वा निजपुरान्निरवासयतां क्षणात् ।। १६२ दूतो गत्वा तदाचख्यौ हयग्रीवाय घर्षणम् । हयग्रीवोऽपि कोपेन हुताशन इवाज्वलतू ।। १६३. हयग्रीवः ससैन्योsपि त्रिपृष्ठश्चाचलोऽपि । युयुत्सवः समभ्येयू रथावर्तमहा गिरौ ।। १६४ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन - कोश ६६ मिथो युयुधिरे सैन्याः पक्षयोरुभयोरपि । सांवर्तिका इवाम्भोदा आस्फलन्तः परस्परम् ।। १६५ ।। क्षीणक्षीणेषु सैन्येषु सैन्ययुद्ध' निषिध्य तौ । अश्वमीवस्त्रिपृष्ठश्चायुध्येतां रथिनौ स्वयम् ।। १६६ ।। मोघीकृतास्त्रोऽश्वत्रवोऽरिग्रीवोच्छेदलम्पटम् । त्रिपृष्ठायामुचच्चक्र हाहाकारिजनेक्षितम् ।। १६७ ।। त्रिपृष्ठरःस्थले चक्र तुम्बेन निपपात तत् । शरभो रभसोद्भ्रान्त इव पर्वतसानुनि ।। १६८ ।। वीरप्रष्ठस्त्रिपृष्टोऽथ तेन चक्रेण लीलया । चकर्त हयकंठस्य कंठमंभोजनालवत् ॥ १६६ ॥ - त्रिशलाका० पर्व १० / सर्ग १ (ख) तस्स घोडयग्गीवरस कहेह, जहा अच्छसु वीसस्थो, तेहिं गंतूण सिट्ठ रूडो, दूय विसज्जेइ एए पुत तुमं मम अलग्गार पट्ठवेहि, तुमं महल्लो, जाहे पेच्छामि सक्कारेमि रज्जाणि य देमि, तेणभणियंअच्छंतु कुमारा, सयं चेत्र णं ओलग्गामित्ति, ताहे सो भणति किं न पेसेसि ? पेसेहि आउ जुज्झसज्जो निग्गच्छेति, सो दूओतेहिं आधरिसित्ता धाडिओ, ताहे सो आसग्गीवोसव्वबलेणउवडिओ, इयरेऽवि देसंते ठिया, सुबहु कालं जुज्झिऊण हयगय रहनरादिक्खयं च पिच्छिऊण कुमारेण दूओ पेसिओ, जहाsह च तुमंच दोन्निवि जुद्धं संपलग्गामो किं च बहुएणअकारिजणेण मारिएण ? एवं होऊन्ति, बिइयदिवसे रहेहिं संपलग्गा, जाहे आउहाणि खीणाणि ताहे चक्कं मुख्यइ, तं तिविट्ठ, स्स तु बणउरे पडियं, तेणेव सीसं छिन्नं । xxxतिविट्ठ, चुलसीति वाससय सहस्साई सव्वाउवं पालइत्ता कालमासे कालं काऊ सत्तमा पुढत्रीए अप्पतिट्ठाणे नरए तेत्तीस सागरोवमहितीओ नेरइओ उववन्नो । - आव० निगा ४४५ / मलयटीका में उद्धृत (ग) XXX | तओ जुज्झिऊण सञ्चाहेहि ओहा मज्जन्तेण आसग्गीवेण गहियं चक्करयणं करयलेणं । भभाडिऊणं च संपेसियं तिविट्ठणो । तं च देववाणुहावेण भवियन्वयाणिओएण य पयाहिणी काऊण ठियं दाहिणकरयले तिविणो । तेणावि अमरिसवसाबूरियहिएणं पेसियं आसग्गीवरस | तेणावि चक्केणं तालफलं व पाडियं सोसं पडिवासुदेवस्स त्ति । उच्छलिओ जयजयारखो । तुहिय तियसा-सुरेहिं मुक्कं कुसुमवरिसं । साहुक्कारिओ सयलजणेणं । भणियंच सुरसमूहेहिं - एस पढमो वासुदेव समुप्पण्णो । अश्वग्रीव राराजा अब त्रिपृष्ठ की शंका को प्राप्त होने लगा। फलस्वरूप को मारने की इच्छा से उसने एक दूत को समझाकर प्रजापति राजा के पास भेजा । हे राजन् | तुम्हारे दोनों पुत्रों को अश्वग्रीव राजा के पास भेजो। हमाया राज्य देगा । प्रत्युत्तर में प्रजापति राजा ने कहा - हे सुन्दर दुत ! हमारे कुमारों की क्या जरूरत है— मैं स्वयं ही स्वामी के पास आऊ गा । दुत ने फिर कहा यदि तुम कुमारों को नहीं भेजते हो तो युद्ध करने की तैयारी करो । - चउप्पण० पृ० १०२ कपटपूर्वक उन दोनों भाइयों वह दूत वहां जाकर बोलास्वामी दोनों को अलग-अलग Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० बाद में कहा - नहीं है - ऐसा मत कहना । उसे तत्काल नगर के बाहर निकाला । दूत आकर उन सब वार्ता को अश्वग्रीव राजा को कही । फलस्वरूप अश्वग्रीव क्रोध में अग्नि की तरह प्रज्वलित हुआ । हयग्रीव राजा और त्रिपृष्ठ और अचल युद्ध की इच्छा से स्वयं स्वयं के सैन्य को लेकर रथावतं गिरि के पास मेघ की तरह परस्पर अथड़ाते हुए दोनों के पक्ष के सैनिक परस्पर युद्ध करने लगे । जब सैनिकगण का क्षय होने लगा तब अश्वग्रीव और त्रिपृष्ठ दोनों ने संन्यों के युद्ध रोक कर स्वयं ही रथी होकर युद्ध करने लगे । अश्वग्रीव के सर्व अस्त्र-शस्त्र निष्फल होने से उसने शत्रु की ग्रीवा को छेदने में संपट ऐसा चक्र त्रिपृष्ठ के ऊपर छोड़ा | उस समय लोगों ने हाहाकार किया। वह चक्र जैसे अष्टापद पशु पर्वत के शिखर पर पड़ता है - वेसे हो तु भाग से त्रिपृष्ठ के उरस्थल पर पड़ा । बाद में वीर श्रेष्ठ त्रिपृष्ठ उस चक्र को हाथ में लेकर उससे कमलनाड की तरह लीलामात्र में अश्वग्रीव के कंठ को छेद डाला । चौरासो लाख वर्ष का सर्वायु का पालन करा त्रिपृष्ठ वासुदेव सातवीं नारकी के अप्रतिष्ठान नरकावास में समुत्पन्न हुआ । (घ) अह विजयार्धोत्तर श्रेण्यामलकापुरे । मयूरग्रीवराजाभूद् राज्ञी नीलाब्जनास्य च ।। ६८ ।। तयोर्विशाखनन्दः स चिरं भ्रान्त्वा भवार्णवे । स्वर्गादेत्य सुतो जातः क्वचित्पुण्यविपाकतः ॥ ६६ ॥ अश्वग्रीवाभिधो धीमांस्त्रिखण्डश्रीविमंण्डितः । अर्धचक्री सुरैः सेव्यः प्रतापी भोगतत्परः ॥ ७० ॥ + + वर्धमान जीवन - कोश इस प्रकार कहते हुए दूत पर कुमार क्रोधित होकर घसीट कर + ।। ६८ ।। तो संपविवाहादिवार्ताश्रवणवह्नितः । चरास्याच्च ज्वलिताशु सोऽश्वग्रीवो नराधिपः ॥ ६७ ॥ बहुभिः खगपैः सैन्येनावृतः सङ्गराय च । रथावर्ताचलं प्राप चक्ररत्नाद्यलंकृतः तदागमनमा चतुरंगबलान्वितः । प्रागेवागल्य तत्रास्थास्त्रिपृष्ठः सह बंधुना ॥ ६६ ॥ ततोऽद्भूततरणे तत्र निर्जितो भाविचक्रिणा । मायेतरादि संग्रामैहयग्रीवोऽतिविक्रमात् । १०० ।। चक्ररनं क्रुधादायासन्नमृत्युर्व्यघोदयात् । परीत्य प्रेषयामास त्रिपृष्ठ प्रति निष्ठुरम् || १०१ || तत्तं प्रदक्षिणीकृत्य तस्थौ तद्दक्षिणे भुजे । तस्य पुण्यविपाकेन त्रिखंडश्रीवशीकरम् ॥ १०२ ॥ त्रिपुष्ठो द्रुतमादाय चक्र शत्र भयंकरम् | उद्दिश्य स्वरिपु कोपाद क्षिपन्निष्ठुराशयः ।। १०३ ।। अश्वोवाऽपि तेनाप्य मृत्ति रौद्राशयोऽशुभात् । बहारम्भघनाथः प्राग्बद्धश्वभ्रायुरेव च ॥ १०४ ॥ कृल्नदुःखाकरीभूतं शमेदूर घृणास्पदम् । महापापोदयेनागात्सप्तमं नरकं कुधीः ।। १०५ ॥ वीरवर्ध मानच० संधि३/ तस्याभूत्तयोरलकापुरे । १२८ ॥ (च) उदक्छ ेण्यां खगाधीशो मयूरग्रोवनामभाक् । नीलकजना प्रिया विशाखनन्दः संसारे चिरं भ्रान्त्रातिदुःखितः । अश्वग्रीवाभिधः सूनुरज निष्टापचारवान् ।। १२६ ॥ ते सर्वऽपि पुरोपात्तपुण्यपाकविशेषतः । अभीष्टकामभोगोपभोगैस्तृप्ताः स्थिताः सुखम् ॥ १३० ॥ + + + Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बर्धमान जीवन - कोश ७१ चरोपनीततद्वार्ता ज्वलनज्वलिताशयः । विद्या त्रितयसंपन्नैर्विद्याधरधराधिपे ॥ १५६ ॥ युयुत्सया ।। १५७ ॥ रिपुनिष्ठुरः ।। १५८ ।। शरसंघातवर्षणैः ॥ १५६ ॥ महाबलौ । १६० ।। अध्वन्यैरभ्यमित्रीणैरायुधीयैर्भटैर्वृतः रथावर्ताचल प्रापदश्वग्रीवो तदागमनमाकर्ण्य चतुरंगबलान्वितः । प्रागेवागत्य तत्रास्थास्त्रिपृष्ठो क्रुध्वा तौ युद्धसंनद्धावृद्धतौ रुद्धभास्करौ । स्वयं स्वधन्वभिः सार्धं अश्वे रथैर्गजेन्द्रश्च पदातिपरिवारितैः । यथोक्तविहितन्यू है रयुध्ये तां गजः कण्ठीरवेणेव वज्रणेव महाचलः । भास्करेणान्धकारोवात्रिपृष्ठेन पराजितः || १६१ ।। स विक्षो हयग्रीवो मायायुद्धेपि निर्जितः । चक्र संप्रेषयामास तत्तं प्रदक्षिणोकृत्य मङक्ष तदक्षिणे भुजे । तस्थौ सोऽपि तदादाय रिपुं खण्डद्वयं हयग्रीवग्रीवां सद्यो व्यधाददः । त्रिखंडाधिपतित्वेन त्रिपृष्ठ + + (छ) घत्ता - करे कलेवि चक्कु विजयाणुवेण णेमिचंद कुंदुज्जलु । इतिहो सिसचक्कें खुडिउउच्छलंत सोणियजलु । त्रिपृष्ठमभिनिष्ठुरम् ।। १६२ ।। प्रत्यक्षिपत् क्रुधा ।। १६३ ।। चार्ध चक्रिणम् ॥ १६४ ॥ - उत्तपु० पर्व ७४ - वडूमाणच० संधि ५ / कड २३ भरत क्षेत्र के विजयार्थं पर्वत को उतर श्रेणी में अलकापुर नाम के नगर में मयूरग्रीव (मोरवंठ) नामका राजा राज्य करता था । उसकी रानी निलांजना ( कनकमाला ) थी । वह विशाखनन्द चिरकाल तक संसार सागर में परिभ्रमण कर पुण्य के विपाक से स्वर्ग में गया । और फिर वहाँ से चयकर उक्त राजा-रानी के अश्वग्रीव नाम का बुद्धिमान्, त्रिखंड की लक्ष्मी से मंडित, देवों से सेव्य प्रतापी, भोग में तत्पर, अर्धचक्री ( प्रतिनारायण ) पुत्र उत्पन्न हुआ । + त्रिपृष्ठ वासुदेव का विवाह विजयार्थ पर्वत की उत्तर श्रेणी में यथनूपुरचक्रवाल नाम की नगरी के ज्वलनजटी की पुत्री स्वयंप्रभा के साथ हुआ— बात के श्रवण रूप अग्नि से प्रज्वलित हुआ। वह नरपति अश्वग्रीव शीघ्र ही विद्याधरों से और सेना से संयुक्त होकर तथा चक्ररत्न आदि से अलंकृत होकर युद्ध के लिए रथमपुर के पवंश पर आया । उसका आगमन सुनकर चतुरंगिणी सेना से युक्त हो अपने भाई विजय के साथ त्रिपृष्ठ पहले से ही वहाँ पर आकर ठहर गया । तत्पश्चात् अद्भूत युद्ध में भावी चक्रवर्ती त्रिपृष्ठ ते विद्योपनत मायाबी एवं अन्य शस्त्रास्त्रों के द्वारा अति पराक्रम से अश्वग्रीव को जीत लिया। तब आसन्नमृत्यु उस अश्वग्रीव ने पापोदय से क्रोधित होकर चक्ररत्न को निष्ठुरता पूर्वक त्रिपृष्ठ ऊपर चलाया। वह चक्ररत्न त्रिपृष्ठ को प्रदक्षिणा देकर पुण्योदय से उसको दाहिनी भुजा पर आकर विराजमान हो गया । तब त्रिपृष्ठ ने तोनखण्ड की लक्ष्मी को वश में करने वाले और शत्रुओं के लिए भयंकर उस चक्र को शीघ्र लेकर निष्ठुर हृदय होके क्रोध से अपने शत्रु को लक्ष्य करके फेंका। रौद्रपरिणामी कुबुद्धि अश्वग्रीव भी उस चक्र के द्वारा मरण को प्राप्त होकर तथा बहुत आरम्भ परिग्रहादि के द्वारा पूर्व में नरका के Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन कोश ७२ बांधने के महाअशुभ पापोदय से समस्त दुःखों की खानिभूत, सुख से दूर, घृणास्पद सातवें नरक को प्राप्त हुआ । त्रिखण्ड का अधिपति होने से त्रिपृष्ठ को अर्धचक्रवर्ती का पद मिला । • १२ त्रिपृष्ठ वासुदेव का राज्याभिषेक (क) अचलश्च त्रिपृष्ठश्च प्रथमौ हलिशाङ्क्षिणौ । इत्याघोप सुरेव्योम्नि पुष्पवृष्टिपुरस्सरम् || १७० ।। तयोः सर्वेऽपि राजानः सद्योपि प्रणति ययुः । ताभ्यां चासाधि भरतक्षेत्रयाम्यार्ध मोजसा || १७१ ।। शिलां कोटिशिलां दोष्णोपाय मून्यतपत्रवत् । प्रथमः पुंडरीकाक्षो धारयामास लीलया ।। १७२ ।। विक्रमाक्रांतभूचक्रः पोतनपुरं ययौ । अभिषिक्तश्चार्ध चक्रिपदे देवैर्नृ पैरपि ।। १७३ ।। नंदुरतोऽपि त्रिपुष्ठ तत्तदाश्रयत् । रत्नीभूतां गायनेषु तमेयुः केऽपि सुस्वराः ॥ १७४ | - त्रिशलाका० पर्व ० १० / सर्ग १ स (ख) xxxदेवेहिं च घुट्ठ जहेस तिविट्ठ, पढमो वासुदेवोउपन्नोति, ता सवे रायाणी पणिवाय मुवगया, अवतियं अद्भभरहं, कोडियसिला दंडवाहाहिं धारिया, एवं रहावत्तपञ्वयसमीवे जद्धमासि, एवं परिहायमाणे बले कण्हेण किरजष्णुमाणि जाव किवि पाविया । - आव० निगा ४४५ / मलयटीका से उद्धृत त्रिपृष्ठ ने अश्वग्रीव को चक्ररत्न के द्वारा मार गिराया - तब "यह अचल और त्रिपृष्ठ प्रथम बलभद्र और वासुदेव है - ऐसी देवों ने पुष्पवृष्टि द्वारा आघोषना की । तत्काल सर्व राजागण आकर उन्हें प्रणाम किये । बाद मैं दोनों वीरों ने स्वयं के पराक्रम से दक्षिण भरतार्द्ध को साध लिया। बाद में प्रथम वासुदेव स्वयं की भुजा से कोटि शिला का उपाड़न कर छत्र की तरह लीला मात्र में मस्तक तक ऊँची की। बाद में सर्वभूचक्र को पराक्रम से दबाकर वह पोतनपुर गया । वहाँ देवों और राजाओं ने उसका अर्धचक्रीपन का अभिषेक किया । जो जो रत्नवस्तु उनसे दूर थी— वे सर्व त्रिष्ठ के पास आकर उनके आश्रित हुई । उनमें वे गायकों में से यत्नरूप कितनेक मधुर स्वर वाले गायक भी त्रिपृष्ठ के पास आये । • १३ त्रिपृष्ठ भव में कर्मों का गठबन्धन (क) X X X रत्नीभूता गायनेषु तमेयुः केऽपि सुस्वराः ।। १७४ ।। एकदा तेषु गायत्सु शय्यापाल हरिर्निशि । ऊचे मयि शयाने मी विस्रष्टव्यास्त्वया खलु || १७५ ।। आमेत्यूचे तापाल आगान्निद्रा च शार्ङ्गिणः । तद्गीतलुब्धो व्यस्राक्षीद्गायनान् सोऽपि तान्नहि ॥ १७६ ॥ । तेषु गायत्सु चौत्तस्थौ विष्णुरूचे च ताल्पिकम् । त्वया विसृष्टाः किं नामी सोऽप्यचे गीतलोभतः ॥ १७॥ तच्छवा कूपितो विष्णुः प्रभाते तस्य कर्णयोः । अक्षेपयस्त्रप, तप्तं शय्यापालो मृतश्च सः ।। १७८ ।। त्रिपृष्ठः कर्मणा तेन वेद्य कर्मन्यकाचयत् । प्रभुत्वादन्यदप्यु कर्माऽवनाद् दुरायति ॥ १७६ ॥ - त्रिशलाका० पर्व ० १० / सगँ १ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश एक समय गायक गान कर रहे थे और वासुदेव शयन कर रहा था। उस समय उसने स्वयं के शय्यापाल को आज्ञा दी कि ये जो गायक गाना गा रहे हैं जब मुझे निद्रा आ जाय तब उन्हें वारण कर देना। प्रत्युत्तर में शय्यापाल ने कहा-बहुत ठीक है-ऐसा कहा। बाद में त्रिपृष्ठ निद्रित हो गया परन्तु गायकों के मधुरगान में लुब्ध हुआ शय्यापाल ने गायकों को बिदा नहीं किया । ऐसा करने से प्रातःकाल हो गया । फलस्वरूप वासुदेष को निद्रा भंग हुई–ठठा। उसने गायकों का गान देखकर शय्यापाल को कहा-इन गायकों को तुमने विदा क्यों नहीं किया । प्रत्युत्तर में वह बोला-स्वामी! गायन के लोभ से विदा नहीं किया। शय्यापाल का यह उत्तर सुनकर त्रिपृष्ठ कुपित हुआ। इस कारण प्रातःकाल उसके कान में तपा हआ शीशा डाला फलस्वरूप शय्यापाल तुरन्त मृत्यु को प्राप्त हुआ। इस कुकृय से त्रिपृष्ठ ने असाता बेदनीय कर्म का निकाचित 'बंधन किया। इसके सिवाय उस भव में भगवान महावीर के जीव ने अन्यान्य भी घनीभूत महा बुरे परिणाम वाले उनकर्म भी बंधन किया। .२. सप्तम नरक के नारकी के भव में (क) तत्र वासुदेवत्वंच चतुरशीति-( ग्रंथाप्र० ६६०० ) वर्षशतसहस्राणि पालयित्वा अधः सप्तमनरकपृथिव्यामप्रतिष्ठाने नरके त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमस्थिति रकः संजात इति, अमुमेवार्थं प्रतिपादयन्नाहचुलसीइमप्पइ8 - -आव० निगा ४४८ का अंश मलय टीका-चतुरशीतिवर्षशतसहस्राणि वासुदेवभवे खल्वायुष्कमासीत् , तमनुभूय अप्रतिष्ठाने नरके समुत्पन्नः xxx | भगवान महावीर का जीव चौरासी लाख वर्ष का त्रिपृष्ठ वासुदेव का भव क्षय करके सप्तम नरक में समुत्पन्न हए। (ख) तच्छ्र त्वा कुपितो विष्णुः प्रभाते तस्य कर्णयोः । अक्षेपयस्त्रपु तप्तं शैय्यापालोमृतश्च सः ।। १७८ ।। त्रिपृष्ठः कर्मणा तेन वेद्य कर्मन्यकाचयत् । प्रभुत्वादन्यदप्युग्रं कर्माबध्नाद् दुरायति ॥ १७६ ।। अहिंसादिष्वविरतो महारंभपरिग्रहः। चतुरशीत्यब्दलक्षी प्राजापत्योऽत्यवायत् ।। १८० ।। मृत्वाच सप्तमावन्यामुदपद्यत नारकः । तद्वियोगात्प्रवजितोऽचलो मृत्वा शिवंययौ ॥ १८१ ।। -त्रिशलाका० पर्व० १०/सर्ग १ (ग) अइकसायुक्कडयाए य तेण बद्धं अप्पइट्ठाणे णरए आउयंति । पालिउण चुलसीतिवरिससयसहस्सा सवाउयं कालमासे कालं काऊण उववण्णो अहे सत्तमाए अपइट्ठाणे णरए तेत्तीससागरोवमाऽऽऊ णारगोत्ति। -चउप्पण्ण० पृ० १०३ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश ७४ त्रिपृष्ठ वासुदेव ने शय्यापाल के कान में तपा हुआ शीशा डाला-फलस्वरूप शय्यापाल मरण को प्राप्त हुआ। इस कृत्य से अर्थात् अतिकषायोदय से त्रिपृष्ठ वासुदेव ने असात्ता वेदनीय कर्म का निकाचित बंध किया। इसके अतिरिक्त उस भव में अन्य महा उग्र कर्म किये। हिंसादिक में अविरत रूप में, महा-आरंभ, महापरिग्रह में तत्पर त्रिपृष्ठ वासुदेव-चौरासी लाख वर्ष का आयुष्य समाप्तकरा-मरण को प्राप्त होकर सप्तम नरक में नारकी रूप में समुत्पन्न हुआ। (घ) एक्को य सत्तमाए, पंच य छठ्ठीए पंचमी एक्को । एक्को य चउत्थीए, कण्होपुण तच्चपुढवीए । -सम० सू० २४७ त्रिपृष्ठ वासुदेव अपने आयुष्य को पूर्ण कर सप्तम नरक में नारको रूप में उत्पन्न हुआ। कहा है प्रथम वासुदेव ( त्रिपृष्ठ वासुदेव ) सप्तम नरक में, दूसरे से छठे तक वासुदेव छठ्ठी नरक में, सातवां वासुदेव पांचवीं नरक में, आठवां वासुदेव ( लक्ष्मण ) चतुर्थ नरक में तथा नववां कृष्ण वासुदेव तीसरी नरक में समुत्पन्न (च) मृत्युपर्यन्तमेवातिगृड्या वृत्तांशदूरगः। धर्मदानार्चनादीनां नाममात्र विहाय च ॥ ११२ ।। ततः श्वभ्रायुरेवासौ बह्वारम्मपरिग्रहैः। अतीवविषयासक्त्या बध्वा दुर्ध्यानलेश्यया ॥११३ ।। शैद्रध्यानेन मुक्त्वासून् पापमारेण पापधीः । धर्मादृते पपातान्ते सप्तमे नरकार्णवे ॥ ११४ ।। -वीरच० अधि ३ (छ) राज्यलक्ष्मी चिरं भुक्त्वाप्यतृप्त्या भोगकांङ क्षया । मृत्वागात्सप्तमी पृथ्वी बह्वारम्भपरिग्रहः ॥१६७।। -उत्तपु० पर्व ७४ (ज) भुजिऊण चक्कवइ - लच्छिया महि तिखंड जुत्ता समिच्छिया। णिय-णियाण-वसु-कन्हु सुत्तओ। मरेवि रुद्द झाणेण पत्तओ। घत्ता-दुत्तरदुक्खोहे सत्तम णरइ सपाउ । __तक्खणे मेत्तेण तेतीसंबुहि - आउ ॥ -वड्डमाणच० संधि ६/कड ह तीनों खंडवाली पृथ्वी से युक्त चक्रवर्ती-पदरूपी लक्ष्मी का समिच्छित भोग करके सोते-सोते ही अपने निदान के वश से रौद्रध्यानपूर्वक मरकर पापी त्रिपृष्ठ-तत्काल ही दुस्तर दुःखों के गृह-स्वरूप तेतीस-सागर की आयुवाले सातवें नरक में जा पहुंचा। २१ सिंह के भव में (क) xxxअप्पइसीहो xxx -आव निगा ४४८ का अंश Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश मलय टीका-(अप्रतिष्ठात् नरकात् ) तस्मात् अपि उद्धृत्य सिंहो बभूव xxxi (ख) त्रिपृष्ठजीवो नरकादुद्धृत्याऽजनि केसरी। –त्रिशलाका० पर्व १०/सर्ग ११ श्लो०१८२ पूर्वार्ध (ग) अथैषनारकः श्वभ्रान्निर्गत्य स्वायुषः क्षये । वनिसिंहगिरौ सिंहो बभूवाशुभपाकतः ॥ २ ॥ -वीरच० अधि ४ वह त्रिपृष्ठ नारायण का नारकी जीव आयु के क्षय होने पर वहाँ से निकलकर वनिसिंह नामक पर्वत पर पापोदय से सिंह हुआ। (घ) एत्यंतरे परइ विचिन्तु दुहु अणुहुंजे विणु अलहंतु सुहु । कह-कहव विणिग्गउ कय हरिसे सरि-सर-सिहरिहिं भारह वरिसे। सोचक्कपाणि पिंगल-णयणु । भंगुर-दाढा भासुर - वयणु । सीहयरिहिं भीसणु सीहु हुओ। णं वइवसुसइ अवयरिउ दुओ। -वड्डमाणच० संधि ६ कड ११ इसी मध्य में त्रिपृष्ठनारायण ने नरक में विचित्र दुःखों को भोगा, वहाँ पर लेश मात्र भी सुखानुभव न कर सका। जिस किसी प्रकार वह चक्रपाणि नदी और तालाबों से हर्षिल भारतवर्ष में एक पर्वत शिखर पर पिंगल-नेत्र, भयानक दाड़ों एवं तमतमाये वदनवाला तथा सिंहों में भी भयानक सिंह योनि में उत्पन्न हुमा । (च) परस्परकृतं दुःखमनुभूय चिरायुषा । स्वधात्रीकृतदुःखं च तस्मान्निर्गत्य दुस्तरात् ॥ १६८ ॥ द्वीपेऽस्मिन् भारते गङ्गानदीतटसमीपगे । वने सिंहगिरौ सिंहो भुन्वाऽसौ बृहितांहसा ॥१६६ ॥ -उत्तपु० पर्व ७४ पर वहाँ परस्पर किये हए दुःख को तथा प्रथिवी संबंधी दु:ख को चिरकाल तक भोगता रहा। अन्त में उस दुस्तर नरक से निकल कर वह तीव्र पाप के कारण इस जबूद्वीप के भरतक्षेत्र में गंगानदी के तट के समीपवर्ती धन में सिंहमिरि पर्वत पर सिंह हुआ । २२ चतुर्थ नरक अथवा प्रथम नरक के नारको के भव में (क) xxxसीहो नरएसुx -आव० निगा ४४८ का अंश मलय टीका-xxxसीहो बभूव, मृत्वा च पुनरपि नरक एवोत्पन्न इति । (ख) केसर्यपि विपन्न: संश्चतुर्थ नरकं ययौ /१८२ -त्रिशलाका० पर्व० १०/सर्ग १ भगवान महावीर का जीष सिंह भव क्षय करके चतुर्थ नरक में नारकीप उत्पन्न हुए। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ वर्धमान जीवन - कोश (ग) तत्राप्येन उपायच्चर्हि सादिक्र रकर्मभिः । तस्योदयेन सप्रापनिन्द्यां E - वीरच० अधि० ४ घ) रत्नप्रभां प्रविश्यैव प्रज्वलद्वह्निमाप्तवान् । दुःखमेकाब्धिमेयायुस्ततश्च्युत्वा पुनश्च सः ॥ १७० ॥ उत्तपु० पर्व ७४ (च) अविरय दुरियासउ पुणुवि हरि । गउ पढमणरइ करि पाउ मरि || - वडूमाणच० संधि ६ / कड ११ निरन्तर दुरिताशय वह हरि- त्रिपृष्ठ का जीव ( सिंह ) पापकारी कार्य करके पुन: प्रथम नरक में जा पहुँचा । . २२ क कतिपय तिर्यग् - मनुष्य भव में (क) x x x नरपसु तिरिअमणुएस्सु रत्नप्रभाव निम् ॥ ३ ॥ F - आव० निगा ४४८ का अंश मलय टीका — × × × ‘तिरियमणुसु' त्ति पुनः कतिचिद्भवग्रहणानि तिर्यङ्मनुयेषूत्पद्यxxx । (ख) सोऽथ तिर्यङ मनुष्यादिभवान् बभ्राम भूरिशः । - त्रिशलाका० पर्व १० / सर्ग १ / श्लो० १८३ / पूर्वार्ध भगवान महावीर का जीव सिंह भव से मरकर नरक ( प्रथम ) में उत्पन्न हुए और वहाँ से आकर कतिपय भव तिर्यञ्च और मनुष्य के किए । नोट :- दिगम्बर ग्रन्थों में इन तिर्यञ्च - मनुष्य भवों का इस प्रकार वर्णन है । • २३ सिंह के भव में - २४ सौधर्म स्वर्ग देव के भव में * २५ कनकोज्ज्वल राजा के भव में * २६ लांतक स्वर्ग देव के भव में - २७ हरिषेण राजा के भव में २३. सिंह के भव में (क) अनुभूय महादुःखमेकाब्ध्यन्तं ततोहि सः । च्युत्वा दुःकर्मबद्धात्मा द्वीपेऽस्मिन्नादिमे शुभे ॥ ४ ॥ भारते सिद्धकूटस्य प्राग्भागे हिमवगिरेः । सानावभून्मृगाधीशस्तीक्ष्णदंष्ट्रो मृगान्तकः ॥ ५ ॥ - वीरच० अधि ४ (ख) इय नरय- दुक्खाइँ सहिऊण तुहुँजाउ । खर- नहर - निद्दलिय करिकुंभ मयराउ || - वडूमाणच० संधि ६ / कड १३ (ग. द्वीपेऽस्मिन् सिन्धुकुटस्य प्राग्भागे हिमवगिरेः । सानावभून्मृगाधीशो ज्वलत्केसरभासुरः ॥ ७१ ।। - उत्तपु० पर्व ७४ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वधमान जीवन-कोश ७७ प्रथम नरक से च्युत होकर इसी जम्बू द्वीप में सिन्धु कूट की पूर्व दिशा में हिमवत् पर्वत के शिखर पर देदीप्यमान बालों से सुशोभित सिंह हुआ। २४ सौधर्म स्वर्ग का देव (क कदाचित्तं मृगैकस्य भक्षयन्तं ददर्शखे । गच्छन् भव्यहितोद्य तो यमी नाम्नाजितं जयः ॥ ६॥ चारद्धिपरिप्राप्तो ह्यनेकगुणसागरः । सहामितगुणाख्येन मुनिना व्योमगामिना ।। ७ ।। स्मृत्वा तीर्थकरोक्त सोऽवतीर्यनमसोमहीम् । उपविश्य शिलापीठे कृपया चारणाप्रणीः ।। ८ ।। मृगाधिपं समासाद्य तद्धितायेत्युवाच वै। भो भो भव्य मृगाधीश शृणु पथ्यं मयोदितम् ॥ ६ ॥ + अतो दुर्गतिनाशाय त्यक्त्वा क्रौर्य त्वमञ्जसा । गृहाणानशनं सारं व्रतपूर्व शुभार्णवम् ।। २२ ।। + इतोऽस्मिन् भारते क्षेो दशमे भाविजन्मनि । तीर्थकृदन्तिमो नूनं भविष्यसि जगद्धितः ।। ३५ ।। जंबूद्वीपस्थपूर्वाख्यविदेहे श्रीधराह्वयः। तीर्थकृतेति संपृष्टः केनचित्सदसिस्थितः ।। ३६ ।। भगवन्नादिमे द्वीपे भरतेयो भविष्यति। चरमस्तीर्थकृत्तस्य जीवः क्वाद्यप्रवर्तते ॥ ३७ ।। इति तत्प्रश्नतोऽवादीजिनेन्द्रः स्वगणान् प्रति । त्रिकालगोचरां सर्वां त्वदीयां सुकथामिमाम् ।। ३८ ॥ जिनेशश्रीमुखादेतच्छ्र त्वा दिव्यं कथानकम् । भूतं भावि मया कृत्स्नं ते हिताय निरुपितम् ॥ ३६ ।। -वीरच० अधि ४ (ख) तीक्ष्णद्रष्ट्राकरालाननः कदाचिद्विभीषणः। कंचिन्मृगमवष्टभ्य भक्षयन् स समीक्षितः ॥ १७२ ॥ अभ्रेऽमितगुणेनामा गच्छतातिकृपालुना। अजितंजयानामाग्रचारणेन मुनीशिना ।। १७३ ।। स मुनिस्तीर्थनाथोक्तमनुस्मृत्यानुकम्पया । अवतीर्य नभोमार्गात् समासाद्य मृगाधिपम् ।। १७४ ।। शिलातले निविश्योच्चधयां वाचमुदाहरत् । + अहो प्रवृद्धमज्ञानं तत्ते तस्य प्रभावतः। पापिस्तत्त्वे न जानासीत्याकर्ण्य तदुदीरितम् ॥ १६४ ॥ सद्यो जातिस्मृति गत्वा घोरसंसारदुःखजात् । भयाच्चलितसर्वाङ्गो गलद्वाष्पजलोऽभवत् ॥ १६५ ।। + + इतोऽस्मिन्दशमे भावी भवेऽन्स्यस्तोर्थकृद्भवान् । सर्वमश्रावि तीर्थेशान्मयेदं श्रोधराह्वयात् ।। २०४ ॥ विधाय हृदि योगीन्द्रयुग्मं भक्तिभराहितः। मुहुः प्रदक्षिणीकृत्य प्रप्रणम्य मृगाधिपः ।। २०७ ।। तत्त्वश्रद्धानमासाद्य सद्यः कालादिलब्धितः । प्रणिधाय मनःश्रावकवतानि समाददे । २०८ ।। एवं व्रतेन संन्यस्य समाहितमतिय॑सुः। सद्यः सौधर्मकल्पेऽसौ सिंहकेतुः सुरोजनि ।। २१६ ।। -उत्तपु• पर्व ७४ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ वर्धमान जीवन-कोष (ग) यावज्जीवं प्रपाल्योच्चैरित्थं व्रतकदम्बकम् । संन्याससहितं प्रान्ते त्यक्त्वा प्राणान् समाधिना। व्रतादिजफलेनाभूत्कल्पे सौधर्मनामनि । सिंहोमहद्धिकः सिंहकेतुनामामरो महान् ।। ५६ ॥ -वीरच० अधि ४ (घ) भो गय - भय तुहुं एयहो भवहो हो होसि भरहे पाउन्भवहो। दहमइ भरि जिणेवरु सुरमहिउ। कमलायरेण मुणिणा कहिउ ।। तुह वोहणस्थु तहो वयणु सुणि अम्हेत्थ समागय एउ मुणि। मुणिवर मणु णिप्पड हुइ जइवि। भव्वत्थे होइ सप्पिहु तइवि । वयविरु अणुसासेवि तच्च पहु । हरि-तणु फसेवि स-यरेण लहु । घत्ता-समणिच्छिय वाणि गण - मुणिवर गयणेण अवलोविजंत हरिणा थिर • गयणेण । -वड्माणच. संधि ६/कड १७ सुह-धम्म-फलेण मइंदु गउ सोहम्मसग्गे करिपाव खउ । अमरहरे मणोरमे देउ हुउ णामेण हरिद्धउ पबल - भुउ । घत्ता-सत्त - रयणि - देहु णिरुवम - रुव - णिवासु । सम्मत्त हो सुद्धि पयणई सोखु न कासु - वड्डमाणच० संधि ६/कड १८ किसी समय भव्यों के हित में तत्पर, अनेक गुणों के सागर, चारण ऋद्धि के धारक अमितगुण नामक आकाशगामी मुनि के साथ आकाश में जाते हुए अजितंजय नाम के मुनिराज ने उसे एक मृग को लाते हुए देखा। तीर्थङ्करा देवभाषित वचन का स्मरण कर वे चारणऋद्धि धारियों में अग्रणी मुनिराज दया से प्रेरित होकर पृथ्वी पर उसके हिताथं इस प्रकार बोले-भो भो ! भव्य मुनिराज, मेरे हितकारी पचन सुन । xxx। अत: तू शीघ्र ही दुर्गति के नाश के लिए क्रूरता को छोड़कर व्रतपूर्वक पुण्य के सागरस्वरू। अनशन को ग्रहण कर। अब इससे आगे दसवें भव में तुम इस भारतवर्ष में जगत का हित करने वाले अंतिम तीर्थकर नियम से होओगे। जम्बूद्वीपस्थ पूर्व विदेह नामक क्षेत्र में (कमलाकर मुनि) श्रीधर नामक तो कर समवसरण में विराजमान है। उनसे किसी ने पूछा-हे भगवन् । इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में जो अंतिम तीथ कर होगा-वह आज कहाँ पर है। इस प्रकार के प्रश्न करने पर जिनेन्द्र देव ने अपने गणों के प्रति तुम्हारी यह त्रिकाल विषयक कथा कही। जिनेन्द्र देव के श्री मुख से सुनकर मैंने तेरे हित के लिए भूत और भावी सर्व दिव्य कथानक तुझे कहा है। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन - कोश ७६ यावज्जीवन इस प्रकार उत्कृष्ट रीति से सभी व्रत समूह का संन्यास सहित पालन कर और अंत में समाधि के साथ प्राणों का त्याग कर वह सिंह व्रतादि पालन करने से उत्पन्न हुए पुण्य के फल से सौधर्मं नामक कल्प में सिंह केतु (हरिध्वज) नाम का महाऋद्धि वाला महान् देव हुआ । .२५ कनकोज्ज्वल राजा- -कनकप्रभ राजा (क) अथ प्राग्धातकीखण्डे विदेहे पूर्वसंज्ञके । देशोऽस्ति मंगलावत्याख्येयमाङ्गल्यकारकः ।। ७२ ।। विजयार्धाद्रिर्गव्यूत्येकशतोन्नतः । भाति कूट जिनागार वनश्रेणिपुरादिषु ।। ७३ ।। कनकप्रभम् । राजते कनकप्राकारप्रतोली जिनालयैः ॥ ७४ ॥ तन्मध्ये तस्याद्ररुत्तरश्रेण्यां नगर पतिः कनकपुङ्खाख्यस्तस्यासीत् खेचराधिपः । प्रिया कनकमालाख्यास्याभवत् कनकोज्ज्वला ॥७५॥ तयोश्च्युत्वा स सौधर्मात् सिंहकेतुसुरः शुभात् । कनकोज्ज्वलनामाभूत् सुनुः कनककोन्तिमान् ।। ७६ ।। x x X ततोsस्मै यौवने तातो विवाहविधिना मुदा । कन्यां कनकवत्याख्यां ददौ गृहिवृषाये ॥ ८१ ॥ अन्येद्य ुर्भार्यया सार्धं कुमारः क्रीडितुं ययौ । महामेरु जिनार्चादीन् वन्दितु ं च शुभाय सः ॥ ८२ ॥ तत्र वीक्ष्यावधिज्ञानवीक्षणं मुनिपुङ्गवम् । नभोगाम्याद्यनेकद्धिभूषितं त्रिः परीत्य सः ॥ ८३ ॥ प्रणम्य शिरसाप्राक्षीद्धर्मार्थीति तदाप्तये । भगवन्मेऽनघ धर्मं ब्रूहि येनाप्तते शिवम् ॥ ८४ ॥ आकर्ण्य तद्वचो योगी जगावित्थं तदीप्सितम् । दक्ष त्वमेकचित्तेन शृणु धर्मं दिशाम्यहम् ।। ८५ ।। X X X विचिन्त्येति हृदा घीमांस्त्यक्त्वा बाह्याभ्यन्तरोपधीन् । पिशाचीमिव तां कान्तां वाराध्य यतिसत्क्रमौ ॥ १०३ ॥ मनोवाक्कायसंशुद्धया प्रवर्ज्या त्रिजगन्नुताम्। जग्राह मुक्तये सारां स्वमुक्तिसुखमातरम् ॥ १०४ ॥ X X X तपोत्रतर्जिता येन स्वर्गे लान्तवनामनि । महर्द्धिकोऽमरो जातोऽनेक कल्याणभूतिमाक् ॥ ११३ ॥ - वीरवर्धमानच० अधि ४ (ख) ततो द्विसागरायुको निर्विष्टामरसौख्यकः । निष्क्रम्य धातकीखंडपूर्वमंदर पूर्वगे ।। २२० ।। विदेहे मंगलावत्यां विषये खेचराचले । परार्ध्यमुत्तरश्रेण्यां नगरं कनकप्रभम् ॥ २२१ ॥ पतिः कनकपुङ्खाख्यस्तस्य विद्याधराधिपः । प्रिया कनकमाला भूत्तयोस्तुक्कन को ज्ज्वलः ॥ २२२ ॥ सार्धं कनकवत्यासौ मन्दरं क्रीडितुं गतः । समोक्ष्य प्रियमित्राख्यमवधिज्ञानवीक्षणम् ॥ २२३ ॥ प्रदक्षिणीकृत्य कृती कृतनमस्कृतिः । ब्रूहि धर्मस्य सद्भावं पूज्येति परिपृष्टवान् ॥ २२४ ॥ X X X इत्यवोदसौ सोऽपि निधाय हृदि तद्वचः । तृषितो वा जलं तस्मात् पीतधर्मरसायनः ॥ २२८ ॥ भोगनियोगेन दूरीकृतपरिग्रहः । चिरं संयम्य संन्यस्य कल्पेऽभूत् सप्तमेऽमरः ॥ - उत्तपु० पर्व ७४ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश (ग) पुवामरगिरि-पुत्व विहाइए विउल-विदेहंतरि विक्खायए। वच्छा विसउ मणोहरु णिवसइ। जहिं मुणि गणु भवियण मणु हरिसइ ।। सीया - सरि - तड - माय - विलग्गउ घर - सिहरावलि - णयल - लग्गउ । पंचवीस जोयण - उत्त गउ कीलमाण - गय - जयरहिं चंगउ ।। तो उत्तरसेणिए सुर - मणहरु णिवसइ पुरु कणयरु तिमिरहरु ।। जिहिं णिवडंतु खयरि · मुह • पंकए सासाणिल - वसेण - णिप्पंकए। -वड्माणच० संधि ७ । कड १ । तहिं विजाहरवइ कणयप्पहु जेण जिणिवि अरियण किउ णिप्पहु। + तहो पिय पीवर - पीण - पओहर कणयमाल णामेण मणोहर । पविमल - सीलाहरण - विहूसिय लावण्णालंकरिय अदूसिय ।। एहहँ सग्गु मुएवि हरिद्धउ सुउ जायउ णामें कणयद्धउ ।। -वड्डमाणच संधि ७ कड २ तेण सजणणा एसें सुन्दरि भार-मइंद - महीहर - कंदरि । मणि गण जडियाहरण पसाहिय वर कण्णप्पह कण्ण विवाहिय -वड्डमाणच० संधि ७ । कड ३ एक्कहिँ दिणे देविणु णिव - सिरि तहो भव भीएण नरिंदे पुत्तहो । सुमइ - मुणीसर • पय पणवेप्पिणु लक्ष्य दिक्खकरणारि जिणेप्पिणु ।। -वड्डमाणच० संधि ७/कड ४ एत्यंतरे एक्कहिँ दिणिकंतए सहिउ खयर वइ-गउ अइकंतए । कीलणत्थु णामेण सुदंसणे वर - गंदणे खयरालि - विहिय - सणि । तहिँ असोय तरु - मूले निविट्ठउ विमल - सिलायले साहु विसिहउ । सुव्वउ णामे सुव्वय - वंतउ दुप्पयारु तउ तिव्वु तवंतउ ।। x x खयराहिउ तं देक्खि पहिट्ठउ । -वड्डमाणच० संधि ७/कड ५ पुण खयरें दे पणविवि पुच्छिउ । सुव्वय - मुणिवरु हियय - समिच्छिउ । धम्म-मग्गु सो पुणि आहासइ। -वड्डमाणच० संधि ७/कड ६ x Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश इय जपेवि मुणिसरु जावहिं विरमिउ खयरे देणवि तावहिं । तं पडिवज्जिवि परियाणिवि भउ । वहु-दुहु वित्थारणु तज वि मर सहूं खयरेण सिरिए तह कंतए कणय-मया-ऽऽहरणहि दिप्पतए। धत्ता-सोसिवि वउ दुवदस विहितउ, करि सो मरिसुरु हूवउ । कापिट्ठए कप्पि विसिट्टए देवाणंद सुरुवउ । १४४ ।। -वड्डमाणच० संधि ७/कड ८ पूर्वधातकी खण्ड में पूर्व विदेह में मंगलावती नाम का मंगलकारक देश है, उसके मध्य में एक सौ कोश ऊँचा या पर्वत है, वह कूट, जिनालय, धनश्रेणी और नगर आदि से शोभायमान है। उस पर्वत की उत्तर श्रेणी में मप्रभ नामका एक नगय है, जो सुवर्णमय प्राकार, प्रतोली और जिनालयों से शोभित है। उसका स्वामी कनकनामका एक विद्यानरेश था। उसकी सुवर्ण के समान उज्ज्वल देहकोति को धारण करने वाली कनकमाला की प्रिया थी। उन दोनों के वह सिंहकेतु देव सौधर्म स्वर्ग से च्युत होकर पुण्य से स्वर्ण कांति का धारक कनको. बाल नामका पुत्र हुआ। यौवन अवस्था में उसके पिता ने गृहस्थ धर्म की प्राप्ति के लिये हर्ष से कनकवती नामकी कन्या साथ उसका विवाह कर दिया । किसी एक दिन वह अपनी भार्या के साथ क्रीड़ा करने और जिन प्रतिमाओं का पूजन-वंदन करने के लिये बामेरु पर्वत पर मया। वहां पर अवधिज्ञान रूप नेत्र के धारक, आकाशगामी आदि अनेक ऋद्धियों से भूषित उत्तम नराज को देखकर उसने तीन प्रदक्षिणाएं देकर और मस्तक से नमस्कार करके धर्म प्राप्ति के लिए धर्म के इच्छुक ने धर्म का स्वरूप पूछा-हे भगवन् ! मुझे धर्म का स्वरूप कहिए, जिससे कि शिवपद की प्राप्ति होती है। । उसके वचन सुनकर योगीश्वर ने उसको अभीष्ट वचन इस प्रकार कहे....हे चतुर, में धर्म का स्वरूप कहता हूं, एकाग्र चित्त से सुन । । मुनिराज से धर्म का तत्त्व सुनकर-ऐसा हृदय में विचारकर और अपनी कान्ता को पिशाची समझकर बुद्धिमान कनकोज्ज्वल विद्याधर ने बाह्य और आम्यंतर दोनों प्रकार के परिग्रह को छोड़कर एवं साधु के नों को आराधना कर मन, वचन, कार्य को शुद्धि पूर्वक तीन लोक से पूजनीय स्वर्ग और मुक्ति के सुखों की जननी की सारभूत जिन-दीक्षा को मुक्ति के लिए ग्रहण कर लिए। अंततः तपश्चरण और व्रत पालन से उपानित पुण्य के यह लान्तव नामक स्वर्ग में अनेक कल्याण युक्त विभूति का धारक महद्धिक देव हुआ। १६ लान्तव स्वर्ग का देव ) तपोव्रताजिता येन स्वर्गे लान्तवनामनि। महद्धिकोऽमरो जातोऽनेककल्याणभूतिभाक् ।। ११३ ॥ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ वर्धमान जीवन-कोश त्रयोदशसमुद्रायुः पञ्चहस्तोच्छ्रितांगधृत् । त्रयोदशसहस्राब्दैः सुधाहारं हृदा भजन् ।। ११६ ।। x सप्तधातुमलस्वेदातिगदिव्यशरीरभाक। सम्यग्दृष्टिः शुभयानजिनपूजारतो महान् ।। ११८ ॥ -वीरवर्धमानच० अधि ४ (ख) भोगनिगयोगेन दूरिकृतपरिग्रहः चिरं संयम्य संन्यस्य कल्पेऽभूत् सप्रमेऽमरः ।। २२६ ।। त्रयोदशाब्धिमानायुरात्मसात्कृततत्सुखः । --उत्तपु० पर्व ७४ (ग) सोसिवि वउ दुवदस विहितउ, करि सो मरि सुरु हूवउ । कापिट्ठए कप्पिविसिट्ठए देवाणंद सुरूवउ - वडमाणचः संधि ७ कड ८ कनकोज्ज्वल ( कनकध्वज ) राजा उसी समय भोगों से विरक्त होकर समस्त परिग्रह का त्याग कर दिया था चिरकाल तक संयम धारण कर अंत में संन्यास मरण किया-जिसके प्रभाव से वह सातवें स्वर्ग में ( लान्त कापिष्ठ ) देव हुआ। वहां तेरह सागर की आयु थी। पाँच हस्त प्रमाण शरीर था । तेरह हजार वर्षों से हर द्वारा अमृत आहार को सेवन करता था । सप्तधातु, मल-मूत्र, प्रस्वेदादि से रहित दिव्य शरीर का धारक था, महः सम्यग्दृष्टि, शुभध्यान और जिनपूजन में निरत रहता था। २७ हरिषेण राजा (क) अथ जम्बूमति द्वीपे विषये कोशलाह्वये । अयोध्या नगरी रम्या विद्यते सज्जन ता ।। १२१ ॥ वज्रसेनो नृपस्तस्याः पतिरासीच्छुभोदयात् । शीलवत्याहया तस्य कान्ताभूच्छीलशालिनी ॥ १२२ सोऽमरो नातकश्च्युत्वा हरिषेणाभिधः सुतः । दिव्यलक्षणपूर्णाङ्गस्तयोः पुण्यादजायत ।। १२३) -वीरच० अधि-४ दीक्षा-श्रुतसागरनामानं योगोन्द्र श्रुतपारगम् । आसाद्य शिरसा नत्वा त्रि:परीत्यजगन्नुतम् ॥१॥ बाह्यान्तः स्थाखिलान् संगस्त्रि शुद्ध्या प्रविहाय सः। मुमुक्षभुक्तये जैनी दीक्षां भूपो मुदाददौ ॥१॥ - वीरच० अधि ५ (ख) सुखेनास्मात् समागत्य सुसमाहितचेतसा ।। २३० ।। द्वीपेऽस्मिन् कोशले देशे साकेतनगरेशिनः । वज्रसेनमहीपस्य शीलवत्यामजायत ।। २३१ ॥ हरिषेणः कृताशेषहर्षी नैसर्गिकैगुणैः। वशीकृत्य श्रियं स्वस्य चिरं कुलवधूमिव ।। २३२ ॥ माला वा लुप्रसारी तां परित्यज्य ययौ शमम् । सुत्रतं सुश्रुतं श्रित्वा सद्गुरु श्रुतसागरम् ।। २३॥ वर्षमानतः प्रान्ते महाशुक्रऽजनिष्टस -उत्तपु० पर्व ७४ (ग) एत्थंतरे इह जंबूदीवए Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XXX xxx Xxx वर्धमान जीवन-कोश अमरालय - दाहिण - दिसि - भायए भरह - वरिसि सरि - सरयर - सुन्दरेx अइ - विस्थिणु अवंती णामें तहिं उज्जेणिपुरी परि - णिवसइ जा देवाह मि माणइ हरसइ -वड्डमाणच० संधि ७/कड ह तहिं वज्जसेणु णामेण णिओ हुवउ वज्जपाणि - सम भूरि सउ । वज्जगु सवंधव सोक्खयरो सुन्दरू वज्जालंकरिय · करो। -वड्डमाणच० संधि ७/ कड १० तहो संजाय सुसीला गेहिणि सोलालय न चंदहो रोहिणि । हंसिणीव वेयक्ख - समुज्ज्वल कुडिलालय - जिय - अलिउल - कज्जल। मुत्तिवंत जे काल - वसं गय जग्गु मुएविणु सो सुरु जायउ । एयहँ तणतणउ विक्खायउ। अवलोइवि गुणसिरिसंजुत्तउ सइजणणे हरिसेणु पवुत्तउ । एक्कहिं दिणि णिवेण सहुं पुत्तं अंतेउर - परियण - संजुत्त । सुयसायर - मुणि - पाय णवेविणु जिणणाहेरिउ धम्मु लएविणु। घत्ता-णिव्वेए जाय - विवेए तेण रज्जे धरि तणुरुहु । पुणु दिक्खिउ उवलक्खिउ तहो समीवे जिणि मणरुहु ।। -वडमाणच संधि ७/कड ११ सावय-वय -लेविणु मुणिणाहहो पणवेप्पिणु णिज्जिय-रइणाहहो । सम्मईसण - रयण - विराइउ हरिसेणु वि णिय · णिलइ पराइउ ।। महमइ - मंति उग्ग परिवारिउ अरि ण जाउ सो उगु णिरारिउ । घत्ता-सुह कायउ जो वसु जायउ परिणिओ वि ण उ कामहो। जसु ण रमई मणु परि विरमइ रमएविममे उद्दामहो । -वड्डमाणच० संधि ७/कड १२ इय तहो राय - लच्छि भुजंतही णरणाहहो वुह - यण - रंजंतहो । सुहयर - सावय - वित्ति - धरंतहो गय - वहु - वरिस हरिसु पजणंतहो । एत्थंतरे विहरंतु समायउ पमय - वणंतरे मुक्क - पमायउ । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षमान जीवन-कोश सुप्परइट्ठ णामेण मुणीसरु मोहरहिउ णिम्महिय रईसरु तहो पय - पंकय जुवलु णवेविणु णरणाहँ उवसमु भावेविणु लेवि दिक्ख उवलक्खिवि सत्थई भव्वयणई वोहेइ पसत्थइँ -वड्डमाणच० संधि ७/कड १७ जम्बूद्वीप में सुमेरु पर्वत के दक्षिण दिशा भाग में भारतवर्ष में अवंती नाम का देश है। उस अबन्ती देश उज्जयिनी नामकी एक पुरी है। उसी उज्जयिनी नगरी में वज्रसेन नामक एक राजा (राज्य करता) था जो वचपाणि-इन्द्र के समान बने विभूतियों वाला था। वह वज्रशगीरी अपने समस्त बन्धुओं को सुख देने वाला सुन्दर एवं बच-चिन्ह से भला हाथों वाला था। उस राजा वज्रसेन की गृहिणी-पट्टशानी का नाम सुशीला था, जो शीलकी निधि के समान थी। वह है प्रतीत होती थी मानों चन्द्रमा की प्रिया रोहिणी ही हो । हंसिनी के समान उसके ( मातृ-पितृ एवं ससुराल ) दो हो पक्ष समुज्जवल थे। काल के वशीभूत होकर वह लान्तवदेव स्वर्ग से चयकर इन दोनों के यहाँ एक विख्यात पुत्र के रूप हुआ। उसे गुणश्री से युक्त देख कर पिता ने स्वयं ही उसका नाम 'हरिषेण' घोषित किया। एक दिन राजा ( वज्रसेन अपने ) पुत्र को अपने साथ में लेकर अंतःपुर के परिजनों सहित श्रुतसागर मुनि । चरणों में प्रणाम कर तथा उनसे जिननाथ द्वारा कथित धर्म ग्रहण कर विवेकशील बनकर वह वैराग्य से भर गया उसने काम-भावना को जीतकर तथा पुत्र को शाज्य सौंप कर उनके समीप दीक्षा ग्रहण कर ली। काम को जीत लेने वाले मुनि नाथ से श्रावकों के व्रतों को लेकर ( तथा उन्हें ) प्रणाम कर सम्यग् दर्शन रत्न से विराजित वह हरिषेण भी अपने घर लौट आया। वह महामति मंत्रियों और उग्र परिवार से निरंतर घिरा हुआ होने पर शत्रुओं पर वह कभी उग्र नहीं हुवा सुन्दर काय वाले उस ( राजा हरिषेण ) ने युवावस्था में विवाह किया था। तो भी वह उद्दाम-काय के का भूत न हुआ। उस उपशांत वृत्ति वाले का मन विषयों में नहीं रमता था। वह उनसे एक दम विरुद्ध रहता था। इस प्रकार राज्यलक्ष्मी का सुखभोग करते हुए, बंधुजनों का मनोरंजन करते हुए, सुखकारी श्रावकवृत्ति आचरण करते हुए उस नरनाथ हरिषेण के अनेक वर्ष व्यतीत हो गये। इस बीच में अप्रमादी, मोहजाल से रहित एवं काम-विजेता सुप्रतिष्ठ नामक मुनिश्वर विहार करतेप्रमद धन में पधारे। उन मुनिराज के पद-पंकज युगल को प्रणाम कर यह नरनाथ उपशम भाष भाकर, दीक्षा ग्रहण कर प्रशस्त शास्त्रों को उपलक्षित कर भव्यजनों को प्रतिबोधित करने लगा। •२८ महाशुक्र स्वर्ग का देव (क) ततो दृग्ज्ञानचारित्रतपसां मुक्तिदायिनाम्। आराधनां विधायोच्चैः शोषयित्वानिवपुः । २ । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वधमान जीवन-कोश तपोऽग्निना परित्यज्य प्राणान् सर्वसमाधिना । तत्फलेने महाशुक्र सोऽभून्महद्धिकोऽमरः ॥ २४ ॥ -वीरच० अधि ५ (ख) तउ दुच्चरु चिरु चरिवि पयत्तें मुणिणाहेण तेण विगयते । अंतयाले सल्लेहण भावेवि हिययं कमले जिणवर - गुण - थाइवि। मेल्लिवि पाणइ सोक्ख - णिहाणे किउ महुसुक्कि गवणु सुविहाणे । पीयंकरु णाम सुरु जायउ तहिं देवंगण - माणिय - कायउ। सोलह - सायर - आउ - पमाणउ । -वड्डमाणच• संधि ७/कड १७ (ग) वर्धमानवतः प्रान्ते महाशुक्र जनिष्ट सः । षोडशाम्भोधिमेयायुराविर्भूतसुखोदयः ।। २३४ ।। -उत्तपु० पर्व ७४ जिसके व्रत निरन्तर बढ़ रहे हैं-ऐसा हरिषेण आयु का अंत होने पर महाशक स्वर्ग में देव उत्पन्न हुआ। वहाँ वह सोलह सागर की आयु प्रमाण उत्तम सुख भोगता रहा। •२६ प्रियमित्र- प्रियदत्त चक्रवर्ती के भव में •१ जन्म + + लब्ध्वा च मानुषं जन्म शुभंकमै कदाऽर्जयत् ।। १८३ ।। ततोऽपरविदेहेषु मूकायां पूरिभूपतेः। धनंजयस्य धारिण्याः पन्यां कुक्षाववातरत् ।। १८४ ।। चतुर्दशमहास्वप्नाख्यातचक्रधरद्धिकः। काले तया च सुषुवे सूनुः संपूर्णलक्षणः । १८५ ।। प्रिय मित्र इति नाम पितरौ तस्य चक्रतुः। पित्रोमनोरथैः साधं क्रमेण ववृधेच सः ।। १८६ ।। अथ संसारनिविण्णो धनञ्जयमहीपतिः। प्रियमित्र' सुतं राज्ये निधायव्रतमाददे । १८७ ।। प्रियामिवभुवं पातुः प्रिय मित्रस्य भूपतेः। चतुर्दशमहारत्नान्युदपद्यन्त च क्रमात् ।। १८८ ।। षटखंड विजयं जेतु चक्रमार्गानुगोऽचलत्। गत्वाचपूर्वाभिमुखंमागध तीर्थमासदत् ।। १८६ ।। -त्रिशलाका० पर्व १०/सर्ग १ तिथंच और मनुष्यों के अनेक भव कर बाद में शुभ कर्म उपार्जन कर अपर विदेह में मूकानगरी में धनजयराजा की धारिणी नाम की रानी की कुक्षि में पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ। रानी ने चौदह स्वप्न देखे जिसमें चक्रवति होने की सचना थी।-ऐसे संपूर्णलक्षण वाले उस पुत्र को धारिणी ने योग्य समय में जन्म दिया। माता-पिता ने पत्र का नाम-प्रियमित्र रखा । माता-पिता के मनोरथ के साथ अनुक्रम से वृद्धि को प्राप्त हआ। संसार से निर्धद को प्राप्त धनंजय राजा ने प्रियमित्र को राज्य पर बैठा कर दीक्षा ग्रहण की। प्रिया को तरह भूमिका पालन करता हुआ प्रियमित्र राजा को अनुक्रम से चौदह महारत्न उत्पन्न हुए । Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ वर्धमान जीवन कोष तत्पश्चात् चक्र के मार्ग के अनुसार छह खण्ड पर विजय करने के लिए चला । प्रथम पूर्वाभिमुख चलकर मागध तीर्थ आया । •२ प्रियमित्र चक्रवर्ती की छह - खंड पर विजय (क) — मागध तीर्थ पर विजय प्रियामिव भुवं पातुः प्रियमित्रस्य भूपतेः । चतुर्दश महारत्नान्युदपद्यन्त च क्रमात् ॥ १८८ ॥ षट्खंड विजयं जेतु चक्रमार्गानुगोऽचलत् । गत्वा च पूर्वाभिमुखं मागधं तीर्थमासदत् ॥ १८६ ।। कृत्वाऽष्टमतपस्तत्र चतुरङ्गचमूवृतः । चतुर्थान्ते रथारूढः किञ्चिद् गत्वाऽग्रहीद्वनुः ॥ १६० ॥ मागधतीर्थकुमारं समुद्दिश्य महाभुजः । कंकपत्र स्वनामांक गरुमन्तमिवाक्षिपत् ॥ १६९ ॥ योजनानि द्वादशेषः सलंघित्वा विहायसा । पुरो मागधदेवस्य पपातोत्पातवत्रवत् ।। १६२ ।। बाणो मुमूर्षुणा केन क्षिप्त इत्यभिचिन्तयन् । मागवेशो रुषोत्थाय तं जग्राह शिलीमुखम् || १६३ ।। चक्रिनामाक्षर श्रेणीं वीक्ष्य शान्तीभवन् क्षणात् । उपायनान्युपादाय प्रियमित्र स आययौः ।। १६४ । आज्ञाधस्तवास्मीति जल्पन् व्योमस्थितो नृपम् । पूजयामास विविधोपायनैः स उपायवित् । ६५ ।। तं सत्कृत्य विसृज्याथ वलित्वा पारणं व्यधात् । चक्री मागधदेवस्य चक्रे चाष्टाह्निकोत्सवम् ।। १९६ ।। त्रिशलाका० पर्व १० / सर्ग १ प्रिया की तरह भूमिका पालन करता हुआ प्रियमित्र राजा को अनुक्रमतः चतुर्दश महारत्न उत्पन्न हुए। बाद में चक्र के मार्गानुसार षट्खण्ड पर विजय करने के लिए चल पड़ा । सर्वप्रथम पूर्वाभिमुख चालकर मागध तीर्थं आया। वहाँ अष्टम तप कर चतुरंग सेना सहित पड़ाव किया। अष्टम तप के अंत में यथारूढ़ होकर थोड़ी दूर जाकर उसने धनुष्य हाथ में लिया। बाद में महाभुज मागध तीर्थं कुमार का उद्देश कर स्वयं के नाम से अंकित गरूड़ की तरह एक बाण उसके ऊपर फेंका। वह बाण बाहर आकाश में योजनपर्यन्त जाकर मागध देव के सामने उत्पात वज्र को तरह पड़ा । उस समय " मरण की इच्छा रखने वाला यह वाण किसने फेंका है ऐसा चिन्तन करता हुआ मागध देव क्रोध से उठकर उस बाण को हाथ में ग्रहण किया । फलस्वरूप उस बाण के ऊपर चक्रवर्ती के नाम की अक्षर की श्रेणी देखकर वह क्षणभर में शांत हो गया ।" - बाद में बहुत सारी भेंट लेकर वह प्रियमित्र चक्रवर्ती के पास आया और 'मैं तुम्हारा आज्ञाधारी हूं' ऐसा बोलता हुआ आकाश में उभा रहा। उपाय जानने वाला उसने विविध प्रकार की भेंटों से चक्रवर्ती की पूजा की। बाद में चक्रवर्ती ने उसे सम्मानित कर विदा किया और स्व प्रियमित्र चक्रवर्ती वापस आकर अष्टम भक्त का पारण किया । उसी प्रकार उसने मागध देव के निमित्त वहाँ अट्ठाई उत्सव किया । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षमान जीवन कोश (ख) वरदाम तीथ-आदि पर विजय ततो जगाम याम्यायां कर्कस्थितइवार्यमा। वरदामानममरं नृपः प्राग्वदसाधयत् ।। १६७ ॥ गत्वा प्रतीच्यां प्रभासतीर्थशमपि चक्रभत । विधिना साधयामास प्रति सिन्धु जगाम च ।। १६८ ।। कृताष्टमस्य प्रत्यक्षीभूय सिन्धुर्महीपतेः । रत्नभद्रासने दिव्ये प्रददौ भूषणानि च ॥ १६६ ।। तां विमृज्य स वैताढ्य चक्ररत्नानुगो ययौ । वैताढ्याद्रिकुमारं चासाधयद्विहिताष्टमः ।। २०० ।। गतस्याभितमिस्र चाष्टमस्थस्य महीपतेः । कृतमालः स्त्रीरत्नार्हमन्यच्चाभरणं ददौ ।। २०१ ।। उत्तीर्य चर्मणा सिन्धु सेनानीश्चक्रिशासनात् । लीलया साधयामास सिन्धोः प्रथमनिष्कुटम् ॥२०२।। भूयोऽप्यभ्येत्य सेनानीः प्रिय मित्रस्य शासनात्। कृताष्टमो दंडघातात्तमिस्रामुदघाटयत् ।। २०३ ।। चक्र यारूढो गजरत्नं तत्कुभे न्यस्य दक्षिणे । मणिरत्नं प्रकाशाय तमिस्रां प्राविशद् गुहाम् ।। २०४ ।। काकिण्या मंडलान्यर्कमंडलाभानि पाश्वयोः । लिखन् गुहायां द्योतायचक्री चक्रानुगो गयौ ।। २०५ ।। पद्ययोन्मग्ननिमग्ने नद्यौ तीर्खा महीपतिः। स्वयमुद्धटितेनोदगद्वारेण निरयागिरेः । २०६ ।। आपातनाम्नः किरातानजेषीत्तत्र चक्रभृत् । असाधयञ्च सेनान्या द्वितीयं सिंधुनिष्कुटम् ।। २०७ ।। चक्रानुगो निवृत्याथ भूपो वैताढ्यमभ्यगात् । वशीचक्र द्वयोः श्रेण्योस्तत्र विद्याधरांश्च सः ॥ २०८ ।। साधयित्वा स सेनान्यां गांगं प्रथमनिष्कुटम् । स्वयमष्टमभक्त न गंगादेवीमसाधयत् ।। २०६ ।। खंडप्रपातया सेनान्युद्घाटितकपाटया । वैताठ्याद्रनिर्जगाम ससैन्योऽपि महीपतिः ।। २१० ।। अथाष्टमतपःस्थस्य प्रिय मित्रस्य चक्रिणः। नवापि निधयोऽभूवन्नैसपीद्या वशंवदाः ।। २११ ॥ जितषटखंडविजयश्चक्री मूकां पूरी ययौ। चक्रीमत्त्वाभिषेकोऽस्य चक्र द्वादशवार्षिकः ।। २१३ ।। अमरैन वरैश्चापि महोत्सवपुरःसरम्। नीत्या पालयतस्तस्य पृथिवीं पृथिवीपतेः ।। २१४ ।। --त्रिशलाका० पर्व १०/सर्ग १ तत्पश्चात् कर्माशी के सूर्य की तरह चक्रवर्ती दक्षिण दिशा की ओर चला । वहाँ वरदाम नामक देव को पूर्व ( मागध देव की तरह ) तरह साध लिया । वहां से पश्चिम की तरफ जाकर प्रभासपति को साधा। इसके बाद सिंधु नदी के समीप आया। वहाँ जित मन से अष्टम तप किया-ऐसे चक्रवर्ती के पास सिंधु नदी प्रत्यक्ष होकर दो दिव्य रत्नमय भद्रासन और दिव्य आभूषण दिये। उस देवो को विदाई कर चक्र के मार्गानुसार चक्रवर्ती वेताह्यगिरि के पास आया। वहाँ अष्टम तप कर वेताढ्यादि कुमार नामक देव को साधा। - इसके बाद तमिस्रा गुफा के पास जाकर अष्टम तप किया। फल स्वरूप वहाँ स्थित कृतमाल देव स्त्रीरत्न के योग्य ऐसे दूसरे आभूषणों को दिये । बाद में सेनापति चक्रवर्ती की आज्ञा से चर्मरत्न के द्वारा सिंधुनदी को पारकर लीला मात्र में उसकी प्रथम निष्कुट साध लिया। __ वहाँ से वापस आकर चक्रवर्ती की आज्ञा से अष्टम तप कर दण्ड रत्न के घात से उसने तमिस्रा गुफा का द्वार खोला। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षमान जीवन कोश इसके बाद प्रियमित्र चक्रवर्ती गजरत्न पर आरूढ़ होकर उसके दक्षिण कुम्भ-स्थल के ऊपर प्रकाश के लिए मणिरत्न को छोड़कर तमिस्रा गुफा में बैठा। वहाँ काकणी रत्न से गुफा की दोनों बाजु की तरफ प्रकाशाथं सूर्यमण्डल-ऐसा मांडले करता हुआ चक्रवर्ती चक्र के अनुसार चला । इसके बाद उन्मग्ना और निमग्ना नदी पर पाज ( पाल ) बंधायी। वह नाप से नदी पार कर स्वयं के मेल उधड़ी गया हआ वह गफा के उत्तर द्वार से चक्रवर्ती बाहर निकला। वहाँ चक्रवर्ती ने आपात जाति के किरात लोगों को जीत लिया और सेनापति के द्वारा गंगानदी की प्रथम निष्कूट संधाया। स्वयं अष्टम भक्त कर गंगादेवी को साधा। इसके बाद गुफा के अधिष्टायकदेव को सेनापति के पास से सिंधु नदी का दूसरा निष्कूट सधाया । चक्ररत्न के अनुसार वहाँ से वापस फिरकर वेताब्यगिरि के पास आया। वहाँ पैताठ्यगिरि के ऊपर की दोनों श्रेणी के विद्याधरों को वशीभूत किया। बाद में खंडप्रपाता गुफा के अधिष्टायक देव को साधकर सेनापति के पास से गुफा के द्वार खोलकर चक्रवर्ती सैन्य सहित वैताड्यगिरि के बाहर निकला। तत्पश्चात् प्रियमित्र चक्रवर्ती ने अष्टम तप किया--जिससे नैसर्प आदि नवनिधि उसके वशीभूत हुई। इसके बाद सेनापति के पास से गंगा का दुसरा निष्कूट साधकर-छः खंड पर विजय प्राप्तकरा प्रिय मित्र चक्रवर्ती मूका नगरी आये। वहाँ देवों और राजाओं ने एकत्रित होकर बारह वर्ष के महोत्सवपूर्वक उसका चक्रवर्तित्व का अभिषेक किया। तत्पश्चात् राजा ने नीतिपूर्वक पृथ्वी का पालन करने लगा। .३- एक विवेचन (क) अथ सद्धातकीखण्डे द्वीपे पूर्वाभिधानके । विदेहे पूर्वसंज्ञऽस्ति विषयः पुष्कलावती ।। ३५ ।। प्रागुक्तवर्णना तत्र नगरी पुण्डरीकिणी। महती शाश्वता दिव्याचक्रिभोग्याहिविद्यते ।। ३६ ।। पतिस्तस्याः सुमित्राख्यो नरेशोऽभूत् सुपुण्यवान् । राज्ञीतस्याभवद्रम्या सुव्रताख्या व्रताङ्किता ॥३७॥ महाशुक्रास आगत्य देवोऽतिदिव्यलक्षणः । प्रियमित्राभिधो जातस्तयोः पुत्रोजगत्प्रियः ।। ३८ ।। यौवनं तु महामण्डलेश्वरश्रीसमन्वितम् । पितुः पदं समाप्यैष भुनक्ति सुखमुल्वणम् ॥ ४४ ।। तदास्याद्भुतपुण्येन प्रादुरासन् स्वयं क्रमात् । चक्रादि सर्व रत्नानि निधयोनव चोजिताः ।। ४५ ।। अस्यासन् परपुण्येन खभूचरनृपात्मजा। षण्णवति-सहस्राणि रूपलावण्यखानयः ॥ ५० ॥ - + i Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जोवन-कोश अथैकदा नरेशोऽसौ क्षेमकर जिनेश्वरम् । वंदितु परिवारेण विभूत्यामा ययौ मुदा ।। ७४ ।। तद्धिताय जिनाधीशोऽसो दिव्यध्वजिनानघम् । गणान् प्रतीत्यनुप्रेक्षापूर्वकं धर्ममादिशत् ।। ७६ ।। इयन्ति मे दिनान्यत्र संयमेन विना वृथा । गतानि विषयासक्तस्यातः किंकाललंघनम् ॥ १०४ ।। विचिन्त्येति पदं दत्त्वा सर्वमित्राख्यसूनवे । निधिरत्नादिभिः सार्ध श्रियंहत्वा तृणादिवत् ।। १०५ ॥ मिथ्यात्वाद्य पधीन् सर्वानन्तरे च नराधिपः । जग्राहाश्वाहतीं मुद्रां मुक्तये मुक्तिकारिणीम् ।। १०६ ॥ दुर्लभां त्रिजगल्लोके देवतिर्यक्कुजन्मिनाम् । सहस्रभूमि पैः साकं संवेगादिगुणान्वितैः ॥ १० ॥ -वीरच० अधि ५ (ख) अस्तमभ्युद्यतार्को वा प्रान्तकालं समाप्तवान् । धातकीखंडपूर्वाशा विदेहे पूर्वमागगे ॥ २३५ ॥ विषये पुष्कलावत्यां धरेशः पुण्डरीकिणी । पतिः सुमित्रविख्यातिः सुव्रतास्य मनोरमा ॥ २३६ ।। प्रियमित्रस्तयोरासीत्तनयो नयभूषणः । नाम्नैव नमिताशेषविद्विषश्चक्रवर्तिताम् ॥ २३७ ॥ संप्राप्य भुक्तभोगाङ्को भगुरान्सर्वसंगमान्। क्षेमंकरजिनाधीशवक्त्राम्भोजविनिर्गतात् ॥ २३८ ।। तत्त्वगर्भगम्भीरार्थवाक्यान्मत्वा विरक्तवान् । सर्वमित्राख्यसूनौ स्वं राज्यभारं निधाय सः ।। २३६ ।। भव्यभूपसहस्रण सह संयममाददे । प्रतिष्ठानं यमास्तस्मिन्नवा पंस्तेऽष्टमातृभिः ।। २४० ।। -उत्तपु० पर्व ७४ उत्तम धातकी खण्ड द्वीप के पूर्वभागवर्ती पूर्व विदेह में पुष्कलावती नाम का देश है। वहां पर पुण्डसीकिणी नगरी है जो विशाल शाश्वती, दिव्य और चक्रवर्ती द्वारा भोग्य है। उस नगरी का स्वामी सुमित्र नाम का पतिपुण्यवान् राजा था। उसकी व्रत भूषित सुनता नामकी सुन्दर रानी थी। उन दोनों के महाशुक्र विमान से माकर वह देव दिव्य लक्षण वाला, जगत्प्रिय, प्रियमित्र नाम का पुत्र हुआ। यौवन अवस्था में महामंडलेश्वर को राज्य लक्ष्मी से युक्त पिता के पद को पाकर वह उत्तम सुख को भोगने लगा तत्पश्चात् उसके अद्भुत पुण्य से स्वयं ही चक्रादि सभी चौदह रत्न और उत्कृष्ट नव निधियां क्रमशः प्रकट हुई। इस प्रियमित्र चक्रवर्ती के परम पुण्य से विद्याधर और भूमि गोचरी राजाओं से उत्पन्न हुई, रूप और लावण्य की खानी ऐसी छियान हजार रानियाँ थी। इसके पश्चात् एक दिन वह चक्रवर्ती अपने परिवार के साथ बड़ो धिभूति से हर्षित होता हुआ क्षेमं कर जिनेश्वर की वंदना करने के लिये गया। तब जिनेश्वर देव ने उसके हित के लिये दिव्य-धनि द्वारा सर्व गणों को लक्ष्य करते हुए प्रतीति (श्रद्धा) और अनुप्रेक्षापूर्वक धर्म का उपदेश दिया। मेरे विषयासक्त से इतने दिन यहाँ पर संयम के बिना व्यथं चले गये हैं। अतः अब समय बिताने से क्या लाभ है ? ऐसा विचार कर और सर्वमित्र नाम के पुत्र के लिए राज्य पद देकर नौ निधि ( पद्म, काल, महाकाल, सर्वरन पाण्डक, नैसर्प, माणष, शंख और पिंगल ) और चौदह रत्नों के साथ सारी राज्यलक्ष्मी को तृणादि के समान छोड़कर तथा मिथ्यात्व आदि रूपी आन्तरिक परिग्रहों को भी छोड़कर उस नरेश ने मुक्ति प्राप्ति के लिए मुक्तिकारिणी तोन लोक में देव, तिर्यञ्च एवं कुजन्म वाले नारकियों को दुर्लभ ऐसी आहती ऐसी जिनमुद्रा को संवेग-वेराग्य आदि गुणो से युक्त एक हजार राजाओं के साथ उस नराधिप प्रियमित्र चक्रवर्ती ने शीघ्र ग्रहण कर लिया। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० वर्धमान जीवन कोश (ग) इय दीवइँ पुत्र्व विदेहवरु सीया सरि तडि संविय विवरु । कच्छा णा णिवस विसउ संपयणिय सयलिंदिय विसउ | तहि खेमापुरि णिवसइ विसाल णाणामणि णिम्मिय तुरंग साल | X X X तहि हुबउ घणज्जउ धरणिणाहु णायर जण मणहरु कंचणाहु | X X X णं मणसिय-विजयहो वइजयंति । जा कलहंसि व सोहइ वयंति ।। णामेण पहावइ पुरिसिरीय | अवयस विग्गह विणसs हिरीव || रयणि विरामे सयणयले ताए । णिद्दावस मडलिय लोयणाइँ || दिक्खेवि सुह सुइणावलि भणेवि । पिययमहो पुरउ विभउ जणेवि ॥ + + + धत्ता— तह सुक्कामरु आउस खत्रिवि संजाउ पुत्तु सग्गहो चविवि । रूबाइ गुणेहिं अलंकरिउ णं मुत्तिवंतु जसु अवयरिउ ।। १५४ ।। वडाच संधि ८ । कड १ पियदत्त भणिउ सो सज्जणेहिं रुंदाणं दाऊश्यि - मणेहिं । + + - + - दधिणज्जएण । ससिहर सम जस धवलिय - जएण पणवेणि खेमंकर- पयाइँ भवियण पयणिय सिव संपयाइँ । णिसुणेवि धम्मु एक्के मणेण वइराइल्ले पुणु तक्खणेण । घत्ता - णिय रज्जु समप्पेवि णिय सुवहो अइरावइ करि कर सम भुवहो । तहो जिणहो मूलि दिक्खा गहिय व ति विसय तव्हा महिय ।। १५५ ।। - वडमाणच० संधि ८ / कड २ णीसेस - रिदाहीस लच्छि दुल्लह पावेविण, पिय समच्छु । राह णिहिल मणे किंकरत्त । धारंत वइरि सम्वाहरत्त । सच्चरणायड्डिय भक्ति तेम फुल्लिय सयदल दलि भसलु जेम । - वडमाणच० संधि ८ । कड ३ asar - दिवसहि चक्केण तेण छक्खंड - वसुह वसुकिय सहेण । + + + बत्तीस सहास णरेसरेईि सोलह - सहास पवर मरेहि छन्नवइ सहस वर कामिणीहि मयणाणल हुववह सामिणीहि । परियरि सहइ चक्कवइ तेम । देवी- गणेहिं सुर राउ जेम || - वहुमाणच ० संधि ८ । कड ५ · - - • - . - Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन - कोश . रज्जु करते कय सुद्देण पुव्वह तेयासी - लक्ख तेण । णीयइँ जिण धम्मुक्कंठिएण विसयंभोणिहे परिसं ठिपण | घता - अण्णहि दिणे परे लो 'लय रयण, दप्पणि देवखते णिय वयण । चक्करें संतरे लुलिउ सुइ मूलि णिहालिङ लव- पलिउ ।। १६० । - वडूमाणच० संधि ८ । कड ७ तं देवखवि चिंतइ चक्कवट्टि अरिखेत्त विमद्दण मइयवट्टि । - हउँ जिम को परु मइवंतु एम वसु विहिउ विसय विसएहि तेम । - वडूमाणच संधि ८ कड वियाणेवि मुक्ख-पह चक्कणाहो मुएऊण लच्छी महीकंचणाहो । ortऊण खेमंकरं तिरथणाह अकोह अमोह अलोह अणाहौं । घत्ता - अदेवि अरिं जयणिय सुबहो महु हुवउ दियंवरु बहुसुवहो । सहुं सोलह सहसाहिं णरंवरेहिं अवलोइज्जत सुखरेहिं ।। १६३ ।। -वढमाणच० संधि ८ । कड १० इस जम्बूदीप में श्रेष्ठ एक पूर्व विदेह नामक क्षेत्र है जहाँ सीता नदी के तट पर विशेष वरदानों से संचित तथा समस्त इन्द्रियों के विषय पदार्थों सहित कच्छा नाम का एक देश अवस्थित है । उसी कच्छा देश में नाना प्रकार के मणि-समूहों से निर्मित उत्तन एवं विशाल परकोटों वालो क्षेमापुरी नामकी एक नगरी स्थित है । उसो नगबी में नागरिक जनों के मन को हरण करने वाला, कांचन की प्रभा वाला पृथ्वीनाथ धनंजय ( नाम का राजा ) हुआ । उस राजा को प्रेमानुराग प्रभावती नामकी एक भार्या थी । जो ऐसी प्रतीत होती, मानों कामविजय की वैजयंती - पताका ही हो, जो गमन करते समय कलह हसिनी की तरह सुशोभित होती थो, जो शोभा सौन्दर्य में प्रधान अपयश एव विग्रह से दूर रहने वालो तथा लज्जा की मूर्ति के समान थी। रात्रि के अंत में शय्यातल पर निद्रावश मुकुलित नेत्रों वाली उस प्रभावती ने एक शुभ स्वप्नावली देखी तथा उसे उसने अपने प्रियतम के सम्मुख आश्चर्य उत्पन्न करते हुए कह सुनाया । तभी वह महाशुक्र देव अपनी आयुष्य पूर्णकर तथा स्वर्ग से चयकर उस रानी के यहाँ पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ, जो रूपादि गुणों से अलंकृत था और ऐसा प्रतीत होता था मानों यश ही मूर्तिमान होकर अवतरा हो ।। १ । महानन्द से परिपूरित मनवाले सज्जनों ने उस बालक का नाम प्रियदत्त रखा । - ६१ अन्य किसी एक दिन चन्द्रमा के समान यश से संसार को धवलित करने वाले उस याजा धनञ्जय ने भव्यजनों के लिए शिव संपदा प्रकट करने वाले मुनिराज क्षेमंकर के चरणों में प्रणाम कर उनसे एकाग्र मन होकर धर्म सुना जिस कारण उसे तत्काल ही घेराभ्य हो गया । ऐरावत हाथी की सूंड के समान भुजाओं वाले अपने उस पुत्र प्रियदत्त को राज्य सौंपकर बढ़ती हुई विषय तृष्णा का मंचन कर उस धनञ्जय ने उन मुनिराज के चरणों में दीक्षा ग्रहण कर ली ॥ २ ॥ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन - कोश समस्त नरेन्द्राधोशों की प्रिय, समर्थ एवं दुर्लभ लक्ष्मी को प्राप्त कर निखिल नरनाथों के मन में किंकरत्व का भाव जगा दिया । किन्तु जो वैर धारण किये हुए थे उनका सर्व स्थापहरण कर अपने सदाचरण से उन पर तत्काल ही वह उसी प्रकार छा गया, जिस प्रकार की भ्रमर विकसित शतदल कमल पर ॥ ३ ॥ દર कुछ ही दिनों में राजा प्रियदत्त ने उस चक्ररत्न द्वारा बड़ी ही मरलता पूर्वक पृथ्वो के छहों खण्डों को अपने वश में कर लिया । बत्तीस सहस्र नरेन्द्रों, सोलह सहस्र देवेन्द्रों और मदनानल में झोंक देनेवालो श्रेष्ठ छयानबे सहल श्यामा कामिनियों से परिवृत्त वह चक्रवर्ती प्रियदत्त उसी प्रकार सुशोभित रहता था जिस प्रकार देवी समूह से सुरराज इन्द्र ||५|| इस प्रकार सुख पूर्वक राज्य करते हुए तथा विषय सुख रूपी समुद्र में स्थित रहते हुये भी जिन धर्म में उत्कंठित उस चक्रवर्ती ने तेणासी लाख पूर्व व्यतीत कर दिये । अन्य किसी एक दिन देदीप्यमान रत्नों से सेवित उस चक्रवर्ती ने दर्पण में अपना मुख देखते हुए श्रुतिमूल ( कान के पास ) में केशों से छिपा हुआ एक नव पलित श्वेत केश देखा || ७ || शत्रु समूह के विमर्दन से प्रवृत्त बुद्धिवाला वह चक्रवर्ती उस श्वेत केश को देख कर विचार करने लगा - "मुझे छोड़कर ऐसा कौन बुद्धिमान होगा, जो विषय विषयों में इस प्रकार उलझा रहता हो ॥ ८ ॥ वह चक्रनाथ मोक्ष का पथ जान कर राज्यलक्ष्मी एवं धन-धान्यादि को छोड़कर अक्रोधी, निर्मोही, अलोभी एवं अकिंचन तीर्थनाथ क्षेमंकर को नमस्कार कर अपने अरिंजय नामक बहुश्रुत पुत्र को पृथ्वी सौंपकर वह चक्रवर्ती सोलह सहस्र नचनयों के साथ सुरनरों के देखते-देखते ही दिगम्बर मुनि हो गया ॥ १० ॥ * २६४ पोट्टिलभव (प्रियमित्र चक्रवर्ती) में - ( श्वे० व दिग्० मान्यता ) (क) समणे भगवं महावीरे तित्थगरभवग्गहणाओ घट्ट पोट्टिलभवग्गहणे एगं वासकोडिं सामण्णपरियागं पाउणत्ता सहस्सारे कप्पे सवट्ठविमाणे देवत्ताए उववण्णे । - सम० पइसम / सू ८६ / पृ ६११६१२ मलय टीका—'समणे' श्यादि, यतो भगवान् पोट्टिलाभिधानराजपुत्रो बभूव, तत्र वर्षकोटि प्रव्रज्यां पालितवानित्येको भवः, ततो देवोऽभूदिति द्वितीयः ततो नन्दनाभिधानो राजसूनुः छत्रामनगर्यां जज्ञ इति तृतीयः तत्र वर्ष लक्षणं सर्वदा मासक्षपणेन तपस्तप्त्वा दशमदेवलोके पुष्पोत्तरवर विजय पुण्डरिकाभिधाने विमाने देवोऽभवदिति चतुर्थस्ततो ब्राह्मणकुंडग्रामे ऋषभदत्तब्राह्मणस्य भार्याया देवानन्दाभिधानायाः कुक्षावुत्पन्न इति पंचमस्ततस्त्र्यशीतितमे दिवसे क्षत्रियकुंडग्रामे नगरे सिद्धार्थमहाराजस्य त्रिशला - भिधानभार्यायाः कुक्षा विन्द्रवचनकारिणा हरिनैगमेषिनाम्ना देवेन संहतस्तीर्थकरतया च जात इति षष्ठः । उक्तभवग्रहणं हि विनानान्यद्भवग्रहणं षष्ठ श्रूयते भगवत इत्येतदेव षष्ठभवग्रहणतया व्याख्यातं यस्माच भवणादिदं पठतदप्येतस्मात् षष्ठमेवेति सुष्ठुच्यते तीर्थकर भवग्रहणात्षष्ठे पोट्टिलभवग्रहणे इति । श्रमण भगवान् महावोर तीर्थंकर का भव ग्रहण करते के पूर्व छट्टु पोट्टिलभव ( प्रियमित्र चक्रवर्ती ) में एक कोढ़ वर्ष मण- पर्याय का पालनकर सहस्त्राय नामक देवलोक में सर्वार्थं नाम के विमान में देवरूप में उत्पन्न हुए । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षमान जीवन-कोश ६३ टीकार्य-भगवान महावीर स्वामी पूर्व भव में पोट्टिल नाम के राजपुत्र थे- उस भव में एक करोड़ वर्ष प्रव्रज्या सन किया। (प्रथम भव ) -वहां से देव हुए ( दूसरा भव) -वहाँ से नन्दन नाम के राजपुत्र छत्राग्रनगरो में हुए-(तीसरा भव ) -उस भव में लाख वर्ष तक सबंदा मास क्षमण तप कर दशवे देवलोक में पुष्षोत्तर-वरविजयपुण्डरीक नाम न में देव हुए ( चतुर्थ भव ) -वहाँ से ब्राह्मणकुण्डग्राम में ऋषभदत्त ब्राह्मण की पत्नी-देवानदा की कुक्षि से उत्पन्न हुए (पांचवां भघ ) 1-और वहाँ से तिरास दिन क्षत्रिय कुण्डग्राम नगर में सिद्धार्थ महाराजा को त्रिशला नामकी भार्या की | इन्द्र के वचन को पालन करने वाला हरिणेगमेषी नामक देव ने संहरण किया और तीर्थंकर रूप में उत्पन्न हुए भव ) अतः तीर्थकर के भव ग्रहण करने से छट्ठा पोट्टिल का भब ग्रहण किया गया है। प्रियमित्तचक्कवट्टी मुया विदेहाइ चुलसीइ ॥ -आव• निगा ४४८ उत्तरार्ध मलय टीका-अपर विदेहे मूकायां राजधान्यां धनञ्जयनृपतेर्धारणिदेव्याः प्रियमित्राभिधानश्चक्रवर्ती संमः, तत्र चतुरशीतिपूर्वसहस्राण्यायुष्कमासीदिति । पुत्तो धणंजयस्सा पुट्टिल परियाउ को डि सव्वट्ठ । -आव० निगा ४४६ पूर्वार्ध मलय टीका-तत्रासौ प्रियमित्रः पुत्रो धनब्जयस्य धारणिदेव्याश्च भूत्वा चक्रवर्तिभोगान् मुक्त्वा चित् सब्जातसंवेगः सन 'पोट्टिल' इति प्रौष्टिलाचार्यसमीपे प्रव्रजितः, 'परियाओ कोडि सव्वट्ठ'त्ति बापर्यायो वर्षकोटिबभूव xxx। । भगवान महावीर का जीव कतिपय तिर्यञ्च-मनुष्य भव करके अपर विदेह में मूका साजधानी के राजा धनञ्जय गारणि रानी की कुक्षि में उत्पन्न हुए। वहाँ प्रियमित्र नाम से चक्रवर्ती राजा हुए और भोग भोगे तथा कदा उत्पन्न होने से प्रौष्टिलाचार्य के समीप दीक्षित हुए तथा एक कोटि वर्ष की श्रमण-पर्याय का पालन किया । चौरासी लाख पूर्व का आयुष्य था। एकदा पोट्टिलाचार्य उद्याने समवासरत् । धर्म तदन्तिके श्रुत्वा राज्ये न्यस्य स्वमात्मजम् । स प्रवत्राज तेपे च वर्षकोटी तपः परम् । पूर्वलक्षचतुरशीत्यायुः संन्यासपूर्वकम् । मृत्वा शुक्रस सर्वार्थविमाने त्रिदशोऽभवत् ॥ २१६ ॥ -त्रिशलाका० पर्व १०/सर्ग १/श्लो० २१४ उत्तरार्ध २१५, २१६ एक समय मुकानगरी के उद्यान में पोट्टिल नामक आचार्य का पदार्पण हुआ। उनके पास से धर्म सुना फल -पुत्र को राज्य पर बैठा कर उमसे दोक्षा ग्रहण को । और एक कोटि षष तक उत्कृष्ट तप किया। सर्वायुष्य सी लाख पूर्व का क्षयकर महाशुक्र देवलोक के सर्वार्थ नामक विमान में देव हुए। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश ३० सहस्रार स्वर्ग का देव-अथवामहाशुक्र का देव क) समणे भगवं महावीरे तिस्थगरभवग्गणाओ छ? पोट्टिलभवग्गहणे एगं वासको डि साम पाउणित्ता सहस्सारे कप्पे सव्व? विमाणे देवत्ताए उववण्णे। -- सम०/पइसम/सू ८६/१० १११ ११२ श्रमण भगवान महावीर का जीव-प्रोष्टिलकेभव ( प्रियमित्र चक्रवर्ती ) में एक कोटि वर्ष का प्रभाव का पालन कर सहस्त्रार नामके देवलोक में सर्वार्थ नाम के विमान में देवं रूप में उत्पन्न हुआ। (ख! मलयटीका -xxx मृत्वा प्रिय मित्र चक्रवर्ती ) महाशुक्र कल्पे सर्वार्थविमाने सप्तदशम स्थितिर्देवोऽभवत्। -आव० निगा ४४६ मलयटीका भगवान महावीर का जीव प्रियमित्र चक्रवर्ती के भव से मरकर महाशुक्र कल्प के सर्वार्थ विमान सागरोपम मायुष के देषरूप में उत्पन्न हुआ। (देखो क्रमांक २३) (ग) पूर्वलक्षचतुरशीत्यायुः संन्यासपूर्व कम्। मृत्वा शुक्र स सर्वार्थविमाने त्रिदशोऽभवत् ।। २६ -त्रिशलाका० पर्व १० सर्ग १ (घ) प्रिय मित्रमुनीन्द्रोऽसौ तदर्जितशुभोदयात् । सहस्रारेऽभवदेवो महासूर्यप्रभाभिधः ॥ ११५ -वीरच. अधि ५ (च) वे पढम-झाण मणि परिहरेवि तउ चरइ घोरु उवसमु धरेवि । दसह तवेण सोसिवि सरीरु अवसाणकाले मणुकरवि धीरु। करि पाणचाउ सण्णासणेण पव्वजिय पाव सण्णासणेण ' सहसार • कप्पे सहसत्ति जाउ सहजाहरणालंकरिय-काउ । दिवट्ठ - गुणामल - सिरि समेउ णामेण सूरपहु सूरदेउ । -वड्डमाणच संधि ८/कड ११ मनमें प्रथम दो - आतं और रौद्र ध्यानों का त्याग कर तथा उपशमभावों को धारण कर वह पानी करने लगा और दुस्सह तप से शरीर का शोषण कर अवसान के समय मन को धीर बनाकर पूर्वोपावित विधिपूर्वक नाशकर, संन्यासमरण पूर्वक प्राण-त्याग करके वह सहसा ही सहस्त्राय स्वर्ग में सहज प्राप्त की अलंकृत कामयुक्त तथा दिव्या अणिमा, महिमा आदि आठ गुणों को निर्मल श्री से समृद्ध सूर्यप्रभ नामक ए (छ) प्रान्ते प्राप्य सहस्रारमभूत् सूर्यप्रभोऽमरः। सुखाष्टादशवाायुद्धदिभुक्तभोगकः ॥ -उत्तपु० पर्व ७४ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश नन्दन राजा छत्तम्गाए पणवीसाउ सयसहस्सा ।। -आव० निगा ४४६ उत्तराध टीका-सर्वार्थसिद्धान्च्युत्वा ( महाशुक्र कल्पात् ) छत्रायां नगर्या जितशत्र नृपतेर्भद्रादेव्या जो नामकुमार उत्पन्न इति, पञ्चविंशतिवर्षशतसहस्राण्यायुष्कमासिदिति । तत्र च बाल एव विकार, चतुर्विशतिवर्षशतसहस्त्राणि राज्यं कृत्वा ततःज पुट्टिले सयसहस्स सव्वस्थ मासभत्तेणं । -आव० निगा ४५० पूर्वाध टीका-राज्यं विहाय प्रव्रज्यां कृतवान् 'पोहले ति प्रोष्टिलाचार्यान्तिके, 'सयसहस्स' त्ति तसहस्त्र यावदिति, कथं-सर्वत्र मासभक्त ने' ति अनवरतमासोपवासेनति, अस्मिन् भवे तिभिः कारणैस्तीर्थकरनामगोत्र कर्मनिकाचयित्वा मासिकयासँल्लेखनयाऽस्मानं क्षपयित्वा। भक्तानि विहाय आलोचितप्रतिक्रांती मृत्वा + + + । घ्युत्वेह भरते छत्रायां पुर्यां जितशत्रु तः । भद्रादेव्यां सोऽजनिष्ट नन्दनो नाम नन्दनः ।। २१७ ।। + + ज्यस्योद्यौवनं राज्ये जितशत्र महीपतिः। संसारवासनिविण्णः परिव्रज्यामुपाददे ।। २१८ ।। जाना हृदयानन्दो नन्दनोऽपि वसुन्धराम् । यथाविधि शशासैना पाकशासनशासनः ।। २१६ ।। सत्यब्दलची जन्मतोऽतीत्य नन्दनः। विरक्तः पोट्टिलाचार्यसमीपे व्रतमाददे ।। २२० ॥ पोपवासैः सततैः श्रामण्यं सप्रकर्षयन्। व्यहार्षीद् गुरुणा साधं प्रामाकरपुरादिषु ॥ २२१ ।। भ्यामपध्यानाभ्यां बंधनाभ्यां च वर्जितः । त्रिभिर्द डेगौरवैश्च शल्यश्च रहितः सदा ॥ २२२ ।। चतुष्कषायश्चतुःसंज्ञा विवर्जितः। चतुर्विकथारहितश्चतुर्धर्मपरायणः ।। २२३ ।। वरुपसगैरपरिस्खलितोद्यमः । व्रतेषु पंचसूद्युक्तो द्वषो कामेषु पंचसु ॥ २२४ ।। प्रकारस्वाध्यायप्रसक्तः प्रतिवासरम् । बिभ्राणः समितीः पंचजेता पंचेन्द्रियाणि च ।। २२५ ।। ... जीवनिकायनाता सप्तभोस्थानवर्जितः। विमुक्ताष्टमदस्थानः स नवब्रह्मगुप्तिकः ।। २२६ ।। शविध धर्म सम्यगेकादशांगभृत् । तपो द्वादशधा कुर्वन् द्वादशप्रतिमारुचिः ॥ २२७ ।। महामपि सहिष्ण : परीषहपरंपराम् । निरीहो नन्दनमुनिर्वषला' तपोकरोत् ।। २२८ ।। भक्त्यादिभिः स्थानविंशत्यापि महातपा । दुरर्जमजेयामास तीर्थकृन्नामकर्म तः ॥ २२६ ॥ निष्कलंक श्रामण्यं चरित्वा मूलतोऽपिहि। आयुःपर्यन्तसमये व्यधादाराधनामिति ॥ २३० ॥ -त्रिशलाका० पर्व १० । सग १ कर्मगह णां जन्तुक्षमणां भावनापि। चतुःशरणं च नमस्कारं चानशन तथा । २६६ ॥ माराधनां षोढा स कृत्वा नन्दनो मुनिः । धर्माचार्यानक्षमयत् साधन साध्वीश्च सर्वतः ।। २६७ ॥ टिदिणांन्यनशन पालयित्वा समाहितः : पंचविंशत्यब्दलक्षपूर्णायुः सोऽममो मृतः । २६८ ॥ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ वर्धमान जोवन-कोश अथाधिप्राणतं पुष्पोत्तरनामनि विस्तृते । विमाने स उपपेदे शय्यायामुदपद्यत ॥१ –त्रिशलाका० पर्व १० । सर्ग १ । महाशुक्र देवलोक से च्यवन कर भगवान महावीर का जीष भरतक्षेत्र में छत्रा नामकी नगरी में राजा को भद्रा नामको रानी से नन्दन नामक पुत्र हुए ॥ २१७ ॥ यौवनावस्था के प्राप्त होने पर उसे गा बैठा कर जित शत्रु राजा संसार से निर्वेद को प्राप्त होकर दीक्षा ग्रहण को। लोगों को आनन्द उत्पन्न करने वे नन्दन राजा समृद्धि से इन्द्र को तरह होकर यथा विधि पृथ्वी पर राज्य करने लगे ॥ २१८, २१६ ॥ चौधोस लाख वर्ष राज्य का भोग कर-विरक्त होकर वह नन्दन राजा पोट्टिलाचार्य के पास दीक्षा ग्रहा निरन्तर मासोपवास करने से स्वयं के श्रामण्य की उत्कृष्ट स्थिति में पहुंचते हुए नन्दन मुनि गुरु के साथ में आकर, पुरा आदि में विहार करने लगे ।। २२०-२२१ ।। दोनों प्रकार के अपध्यान (आत्त-रौद्र ) से और द्विविध बंधन ( राग-द्वेष ) से वजित थे। तीन प्रक दंड ( मन, वचन, काय ), तीन प्रकार के गौरव ( ऋद्धि-रस सता ) और तोन जाति के शल्य ( माया-निदान दर्शन ) से रहित थे। चाय कषायों को उन्होंने क्षीण किया, चार संज्ञा से वर्जित थे, चार प्रकार की विका वजित थे, चतुर्विध धर्म में परायण थे और चार प्रकार के उपसर्गों से भो उनका उद्यम स्खलित था । पंचविष बत में सदा उद्यमी थे और पंचषिध काय ( पाँच इन्द्रियों के विषय ) के प्रति सदा द्वेषी थे। प्रतिदिन पाँच प्रक स्वाध्याय में आसक्त थे। पांच प्रकार की समिति को धारण करते थे और पांच इन्द्रियों के विजेता थे।। वनिकाय के रक्षक थे। सात प्रकार के भय के स्थान से वर्जित थे। आठ मद के स्थान से विमुक्त थे। नवविध चयं गप्ति का पालन करते थे और दश प्रकार के यति-धर्म को धारण करते थे। सम्यग् प्रकार एकादश अध्ययन करते थे। बारह प्रकार की यतिप्रतिमा को वहन करने से रूचि वाले थे। २२२ से २२७ । दुःसह ऐसो परीषह की परम्परा को वे सहन करते थे। उन्हें किसी भी प्रकार को स्पृधा नहीं थी, नन्दन मुनि ने एक लाख वर्ष तप किया। वे महातपस्वी मुनि-अहत् भक्ति आदि बीस स्थानकों की आराक दुःकर तीर्थकर नाम कर्म का उपार्जन किया । २२८ से २१० इस प्रकार मूल से निष्कल क साधुत्व का आचरण कर आयुष्य के अंत में उन्होंने इस प्रकार आराधना दृष्कर्म की ग्रहणा, प्राणियों की क्षमणा, शुभभावना, चतु:शरण, नमस्कार स्मरण एवं अनशन-इस प्रकार प्रकार की आराधना कर, स्वयं के धर्माचार्य, साधुओं, साध्वियों को क्षमत-क्षामना करने लगे। साठ दिन । प्रत का पालन कर, पचोस लाख वर्ष का आयुष्य पूर्ण करा, मृत्यु प्राप्त कर, प्राणत नाम के दशवे देवलो पुष्पोत्तर नाम के विस्तार वाले विमान में उपपाद शय्या में उत्पन्न हुए ।। २६६.२६६ ।।। (घ) एएसि चउवोसाए तित्थगराणं चउवीसं पुव्वभविया णामधेज्जा होत्था, तंजहा पढमेत्थ वइरणामे विमले तह विमलवाहणे चेव । तत्तो य धम्मसीहे सुमित्त तह धम्ममित्ते य । अदोणसत्त संखे सुदंसो नंदणे य बोद्धव्वे । ओसप्पिणीए एए तित्थकराणं तु पुव्वभवा ।। -सम० पइसम सू २२३ । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ - वर्धमान जीवन-कोश चौबीस तीर्थ करों के चौबोस पूर्व भव के नाम इस प्रकार थे। ऋषभ देव तीर्थ कर के पूर्व भव का नाम ( मनुष्यगति की अपेक्षा ) वचनाभ था तथा वर्धमान तीर्थकर के । का नाम नन्दन था। नंदन-मांडलिक राजा थे। जंबूदीवे णं दीवे इमीसे ओसप्पिणीए तेवीसं तित्थगरा पुव्वभवे एक्कारसंगिणो होत्था, तंजहा अजिए संभवे अभिणंदणे जाव पासे वद्वमाणे य । उसभे गं अरहा कोसलिए चोदसपुव्वी होत्था --सम० सम० २३ । सू० ३ । पृ० ८६० पढमस्स बारसंग सेसाणिक्कारसंगसुयलाभो । -आव० निगा २५८/पूर्वाध मलयटोका-प्रथमस्य-भगवत ऋषभस्वामिनः पूर्वभवेश्रुतलाभः परिपूर्ण द्वादशाङ्गम् , अवशेषाणाम् अजितस्वामिप्रभृतीनामेकादशाङ्गानि, यस्य च यावान् पूर्वभवे श्रुतलाभः तस्य तावान् तीर्थकरजन्मन्यपि अनुवर्तते। xxx सम्यगेकादशाङ्गमत् xxx। -त्रिशलाका० पर्व १० । सर्ग १ । श्लो २२७ पूर्वाध अजितनाथवादत् वर्धमान तीर्थ कर ने (नन्दन राजा का भव ) अपने पूर्व भव में एकादशांगों का अध्ययन किया। ऋषभनाथ ने चतुदंश पूर्व का अध्ययन किया। १ नंदनराजा-नंदोवधन राजा-मांडलिक राजा थे। जंबूद्दीवे णं दीवे इमोसे ओसप्पिणीए तेवीसं तित्थगरा पुत्वभवे मंडलियरायाणो होत्था तंजहाअजिए संभवे अभिणंदणे जाव पासे वद्धमाणे य। -सम० सम २३ । सू ४ । पृ०.८६० वर्धमान पूर्वभव में ( नन्दन राजा के भव में ) मोडलिक राजा थे। २ नन्दराजा-नंदीवधन राजा के-तीर्थ कर प्रकृति का बंध अथ जम्ब्बाह्वये द्वीपे क्षेत्रो भरतसंज्ञके । छात्राकारपुरं रम्यमस्ति धर्मसुखाकरम् ॥ १३४ ।। तस्य स्वामी शुभादासीन्नन्दिवर्धन भूपतिः। राज्ञी वोरमती तस्य बभूव पुण्यशालिनी ॥ १३५ ।। च्युत्वा सनिजेरो नाकात्तयोः सूनुरजायत । नन्दनामा सुरूपाद्यर्जगदानन्दकारकः ।। १३६ ।। ततोऽसौ यौवने लब्ध्वा राज्यं पितुः श्रिया सह । दिव्यान् भोगान् हि भुजान इतिधर्म मुदाचरेत् ॥ १३६ ॥ -धीरच० अधि ५ अर्थकदा सधर्मार्थ प्रोष्ठिलं योगिसत्तमम्। वन्दितु मतिमान् भक्तत्या ययौ भव्यगणावृतः ।। २॥ तत्राभ्याटभिव्यदिभक्त्या मुनीश्वरम्। मूर्ना नत्वा स धर्माय तत्पादान्तमुपाविशत् ।। ३ ।। इत्यादि चिन्तनादाप्य वैराग्यं द्विगुणं नृपः। तमेव योगिनं कृत्वा हत्वा द्विविधोपधीन् ॥ २८ ॥ अन्तजन्मसंतानघातकं मुनिसंयमम् । आददे परयाशुद्धया सिद्धये सिद्धिकारणम् ।। २६ ॥ गुरूपदेशपोतेनाश्वेएकाशाङ्गवारिधेः । पारं जगाम नन्दोऽसौ निःप्रमादेन सद्धिया ॥ ३० ॥ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ वर्धमान जीवन - कोश त्रिशुद्ध्या भावयन्नित्यं षोडशेमाः सुभावनाः । तद्गुणार्पितचित्तोऽसौ तीर्थनाथ विभूतिदाः ।। ६१ । X X अस्तीर्थशसद्भूतिकरान् षोडशकारणान् । शुद्धैर्मनो वचः कायैर्भावयित्वा स प्रत्यहम् ॥। ६७ । तत्फलेन बबन्धाशु तीर्थकुन्नामकर्म हि । अनंत महिमोपेतं त्रिजगत्क्षोभकारणम ।। ६८ । - वीरच० अधि (ख) मेघाद्विद्य द्विशेषो वा ततः स्वर्गाद्विनिर्गतः । छत्राकारपुरेऽत्रैव नन्दिवर्धनभूभुजः ॥ २४२ । वीरवत्याश्च नन्दाख्यस्तनूजः सुजनोऽजनि । निष्ठाप्येष्टमनुष्ठानं स श्रेष्ठ प्रोष्ठिलं गुरुम् ।। २४३ । संप्राप्य धममाण्ये निर्णीता प्तागमार्थकः । संयमं संप्रपद्यातु स्वीकृतैकादशाङ्गकः ।। २४४ । भावयित्वा भवध्वंसि तीर्थकृन्नामकारणम् । बद्ध्वा तीर्थकरं नाम सहोच्चैर्गोत्रकर्मणा || २४५ । - उत्तपु० पर्व ७४ (ग) अट्ठारह - सायर परमियाड सो तुहुँ संजायउ णंदणक्खु धत्ता - धम्महरहो णिय पुत्तहो ससिरि णंदणु अप्पेविणु महिस गिरि । दिक्खि सहुँ दह सय णरहिँ पणवेवि पोढिसु मुणि मणहरहिँ । - वडमाणच० संधि ८ / कड १३ वत्ता - णाणा विहाण विहिणा करइ सद्दंसण णाणा गुण धरइ । छावासह विहिमणे संभरइ संकाइय दोसइँ परिहरइ | वडूमाणच० संधि ८/कड १४ - अहरेण तेण मूलहो मयइँ णिरसियइँ तटय हियहो भयइँ । गय संग समायरणेण तिहँजिण्णावणिरुह पवणेण जिहँ । - वडूमाणच० संधि ८/कड १५ धत्ता माणेविणु सुर सुंदरि पियाउ । अवयरिङ एत्थु णीरय - दलक्खु । - वडमाणच० संधि ८/कड ११ आराहइ सोलह कारणाइँ भवसायर भवण - •णिवारणाइँ । बंध तित्थयरहो गुत्तु णामु मुणिवरहो करइ भत्तिए पणामु -वड्ढमाणच० संधि ८ / कड १६ - - इयसो त दुच्चरु चरह जाम ठिउ मास मेत्त तहो आउ ताम । हिँ अवसर सो समियंतरंगु थिरयरु मयरहरु व णित्तरंगु । fast सिसिहरे मणु जिण पयेसु । विणिवेसि समप्पिय सिव परसु । - वड्डूमाणच० संधि ८ / कड १७ - Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षमान जीवन-कोश 88 इसी जम्बू नामक द्वीप के भरत नामक क्षेत्र में छत्र के आकारवाला, धर्म और सुख का भंडार एक रमणीक सुर नाम का नगर है। पुण्योदय से उसका स्वामी नन्दीवघंन नामका राजा था। उसकी पुण्यशालिनी वीरमती की रानी थी। उन दोनों के वह देव स्वर्ग से च्युत होकर नंद नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ। वह अपने सुन्दर रूप दि के द्वारा जगत को आनन्द करने वाला था । तत्पश्चात यौवनावस्था में लक्ष्मी के साथ पिता के राज्य को पाकर ( और अपनी स्त्रियों के साथ) दिव्य भोगों हर्ष से भोगता हुआ धर्म का आचरण करने लगा। । एक बास भव्यजनों से घिरा हुआ वह बुद्धिमान नंदराजा धर्म प्राप्ति के निमित्त से प्रोष्ठिल नामक योगीराज बन्दना के लिये भक्ति के साथ गया। वहाँ पर दिध्य अष्ट द्रव्यों से भक्तिपूर्वक मुनिश्वर की पूजा करके और वक से नमस्कार करके धर्म श्रवण करने के लिये उनके चरणों के समीप बैठ गया । सद् चितवन से दुगुने वैराग्य को प्राप्त होकर राजा ने उन्हीं योगीराज को गुरू बनाकर, दोनों प्रकार के परिगों को छोड़कर अनंत संसार-संतान के नाशक सिद्धि का कारण ऐसा मुनियों का सकल संयम परम शुद्धि से ग्रहण कर लिया। गुरु के उपदेश रूप जहाज से यह नन्द मुनि निःप्रमाद और उत्तम बुद्धि के द्वारा शीघ्र ही ग्यारह अङ्गरूप भूतनागर के पार को प्राप्त हो गया। वे मुनिराज तीथङ्कर की विभूति को देने वाली इन वक्ष्माण सोलह उत्तम भावनाओं का तीथङ्करों के गुणों में समर्पित चित होकर निरंतर मन, वचन, काय की शुद्धि से भावना भाने लगे। इस प्रकार तीर्थ कर को सद्विभूति को देनेवाली इन सोलह कारण भावनाओं की शुद्ध मन, वचन, काय से प्रतिदिन भावना करके उसके फलद्वारा तीर्थ कर नाम कम का शीघ बध किया। यह तीर्थ कर नाम कम अनन्त महिमा से संयुक्त है और तीन लोक में क्षोभ का कारण है। इस प्रकार जब वह नन्दन दुश्चर तप कर रहा था। तभी उसकी आयु मात्र एक मास की शेष रह गयी। उसो अवसर पर उसने तरंग विहिन स्थिरतर समुद्र की तरह अपने अंतरंग का शमन किया तथा विध्यागिरि के शिखर पर जिन पदों में अपना मन विनिवेशित ( संलग्न ) कर शिवपद में समर्पित कर दिया। नोट :-कहा जाता है कि श्रमण भगवान महावीर अपने पूर्वभव में (नंदराजा) थे-वहां ११ लाख-८१ हजार पासक्षमण कर गोथ कर गोत्र का उपार्जन किया। ३२ अच्युत स्वर्ग-प्राणत स्वर्ग का देव ३२.१ देवरुप में उत्पन्न क पुप्फत्तरे उववन्नो तओ चुओ माहणकुलम्मि । -आव० निगा ४५० उत्तरार्ध मलयटीका-x x ( नन्दननृपभवात् ) मृत्वा 'पुप्फ त्तरे उववन्नो' त्ति प्राणतकल्पेषु पुष्पोत्तरावंतसके विंशतिसागरोपमस्थितिर्देव उत्पन्न इति । ख) षष्टिं दिनान्नवशनं पालयित्वा समाहितः। पंचविंशत्यब्दलक्षपूर्णायुः सोऽममो मृतः ।। २६८ ॥ अथाधिप्राणतं पुष्पोत्तरनामनि विस्तृते । विमाने स उपपेदे शय्यायामुदपद्यतः ।। २६६ ।। -त्रिशलाका० पर्व १० । सर्ग १ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० वर्षमान जीवन कोश नन्दन मुनि साठ दिन अनशन व्रत का पालन कर, पचीस लाख वर्ष का आयुष्य पूर्णकर, मृत्यु प्राम प्राणत नामक दश देवलोक में पुष्पोत्तर विमान में बोस सागरोपम की स्थिति वाले देव रूप में उत्पन्न हुए। (ग. समणे भगवं महावीरे x x x महाविजयसिद्धन्थपुप्फुत्तर-पवर-पुण्डरीय-दिसासोवस्थिय वद्धमा महाविमाणाओ वीसं सागरोवमाइं आउयं पालइत्ता x x x | -आया. श्रु २ । अ १५ । सू० ३ । पृ.२ (घ) आयुविंशतिसागरोपममितं सोऽपूरि देवाग्रणीः, पर्यन्तेऽपि विशेषतः प्रतिकलं देदीप्यमानः श्रिया॥ मुह्यन्ति ह्यपरे त्रिविष्टपसदः षण्मासशेषायुषः। काप्युच्चैनं तु तीर्थकृदिविषदोऽत्यासन्नपुण्यो ।। २८४॥ -त्रिशलाका० पर्व १० । सम वर्षमान महावीर बीस सागरोपम का मायुष्य पूर्ण किया-अन्य देव ६ मास के आयुष्य के शेष रहने मोह को प्राप्त होते हैं परन्तु तीर्थकर होने वाले देवों के अतिशय पुण्योदय होता है नजदोक होने पर भी बिल्कुल । को प्राप्त नहीं होते है।। ३२२ अच्युत स्वर्ग का इन्द्र अथवा प्राणत स्वर्ग का इन्द्र (क) ततस्तद्योगपाकेन सोऽच्युतेन्द्रोऽभवद्यतिः। दिवि षोडशमेऽनेकभूतिवाधौं सुरार्चितः ।। १०४ ॥ त्रिकरोच्चातिदिव्याङ्गधरो नेत्रप्रियो महान् । स्वेदधातुमलातीतो नयनस्पन्दवर्जितः ॥ १६॥ षटप्रभावनिपर्यन्तान् रूपिद्रव्यांस्त्रिधात्मकान्। जानन् स्वावधिबोधेन विक्रिय द्धिप्रभावतः ।। १६६) गमनागमनं कर्तु क्षमः क्षेत्र स्वचित्समे। द्वाविंशत्यब्धिमानायुविश्वाभरणभूषितः ।। १६० द्वाविंशतिसहस्राब्दगतैः सर्वाङ्कतृप्तिदम्। दिव्यं सुधामयाहारमाहरन्मनसोर्जितम् ॥ १६८ एकादशप्रमैर्मासनिष्क्रांतश्च मनाग्भजन् । सुगन्धिदिव्यमुच्छवासं सुरभीकृतदिक्चयम् ॥ १६९ -वीरच० अधि (ख) जीवितान्ते समासाद्य सर्वमाराधनाविधिम् । पुष्पोत्तरविमानेऽभूदच्युतेन्द्रः सुरोत्तमः ।। २४६ द्वाविंशत्यब्धिमेयायुररस्नित्रयदेहकः। शुक्लेश्याद्वयोपेतो द्वाविंशत्या स निःश्वसन् ॥ २४७ पक्षैस्तावत्सहस्राब्दैराहरन् मनसामृतम् । सदा मनःप्रवीचारो भोगसारेण तृप्तवान् ।। २४८ आषष्ठपृथिवीभागाद्व्याप्तावधिविलोचनः स्वावनिक्षत्रसंमेयबलाभाविक्रियावणिः ।। २४६ -उत्तपु० पर्व नन्दन मुनिराज उस समाधि योग के फल से अनेक प्रकार की विभूति के समुद्र ऐसे सोलहवें अच्युतकल्प देवों से पूजित अच्युतेन्द्र उत्पन्न हुए। वह इन्द्र तीन हाप उन्नत, अति दिव्य देह का धासक, नेत्रों को अतिप्रिय स्वेद पातु आदि सब मलों से रहित और नेत्र-टिमकार से रहित था। छट्ठी पृथ्वी तक के तोन प्रकार के रूपी द्रव्य को अपने अवधि ज्ञान से जानता हुआ वह देव अवधि ज्ञान प्रमाण क्षेत्र में विक्रिया ऋद्धि के प्रभाव से गमनागम करने में समर्थ था। बाइस सागर प्रमाण आयु थी और सब उत्तम आभरणों से भूषित था। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन - कोश १०१ बाइस हजार वर्ष बीतने पर सर्वाग से तृप्त करने वाला अमृतमय दिव्य आहार मन से ग्रहण करता था । ग्यारहमास बीतने पर दिङ्मंडल को सुरभित करनेवाला सुगन्धिवाला दिव्य उच्छ्वास नाम मात्र को लेता था । (ग) पावोवओग - विहिणा मुणिंदु पाणाईँ गाणं अणि । मेल्लेविणु पाणय- कप्पे जाउ पुष्कोत्तरे सुरहरे तियस-राउ | विमलंगु वीस- सायर समाउ - वडूमाणच संधि ८ । कड १७ उन अनिन्द्य नन्दन मुनिराज ने पादोपगमन विधि से धर्मध्यान पूर्वक प्राण छोड़े तथा प्राणत-स्वर्ग के पुष्पोत्तर विमान में त्रिदशयराज इन्द्र हुआ । चिमल अंग वाले उस इन्द्र की आयु बीस सागर की थी । '३२३ आहार - श्वासोच्छ्वास- ज्ञान दुवई - धुवणीसासु मुयइ सो तेन्तिय पक्खहिं दुह - विहंजणो । आणइ ताम जाम छट्ठावणि वडिय - ओहि दंसणो ॥ परमागम - साहिय - दिव्व - माणि । णिवसंतहु पुष्फुत्तर - पुष्पोत्तर स्वर्ग में देवरूप से रहते हुए वह सहस्र वर्ष में एक बार आहार करता था और उतने ही पक्षों में श्वासोच्छ्रवास लेता था । वह समस्त दुःखों का विनाश कर अपने अवधि दर्शन द्वारा छुट्टी पृथ्वी तक की बातें जान लेता था । विमाणि ॥ * ३२४ पुष्पोत्तर विमान में भगवान महावीर का जीव और भाविजन्म क्षेत्र में धन-वर्षा क) जइयहुँ वट्ट छम्मासु तासु । परमाउ - माउ परमेसरासु । तइयहुँ सोहम्म सुराहिवेण । पभणिउ कुबेरु इच्छिय - सिवेण ॥ इह जंबुदोवि भरहंतरालि । रमणीय विसइ सोहा - विसालि ॥ कुंडउरि राउ सिद्धत्थु सहिउ । जो सिरिहरु मग्गण-वेस रहिउ || X X X - - वीरजि० संधि १ । कडवक६ - वीरजि० संधि १ / कड ६ इस प्रकार परमागम में कहे हुए गुणों से युक्त दिव्य प्रमाण वाले उस पुष्पोत्तर विमान में रहते हुए जब अपनी उत्कृष्ट षायु प्रमाण के छह मास शेष रहे तभी सौधर्म स्वर्ग के इन्द्र ने जगत्-कल्याण की कामना से प्रेरित होकर कुबेर से कहा – इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में विशाल शोभाधारी विदेह प्रदेश में कुण्डपुर नगर के राजा सिद्धार्थ राज्य करते हैं । वे आत्म- हितैषी है और श्रीधय होते हुए भी विष्णु के समान बामनावतार सम्बन्धी याचक वेष से रहित हैं । Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ वर्धमान जीवन-कोश घत्ता-पहुपंगणि तेत्थु वंदिय-चरम - जिणिदें । छम्मास विरहय रयणविट्ठि जक्खिंदें ।। ७ ।। -वीरजि० संधि १/कड ७ ऐसे उस राजभवन के प्रांगण में अन्तिम तीर्थ कर की बन्दना करने वाले उन यक्षों के राजा कुबेर ने छह मास तक रत्नों की दृष्टि की। (ख) तस्मिन्षण्मासशेषायुष्यानाकादागमिष्यति । भरतेऽस्मिन्विदेहाख्ये विषये भवनाङ्गणे ॥ २५१ ।। राज्ञः कुडपुरेशस्य वसुधारापतत्पृथुः। सप्तकोटिमणिः सार्धा सिद्धार्थस्य दिनं प्रति ।। २५२ ।। -उत्तपु० पर्व ७४ जब उसदेव की आयु छः मास की बाकी रह गयी और स्वर्ग से आने को उद्यत हुआ तब इसी भरत क्षेत्र के विदेह नामक देश सम्बन्धी कुण्डपुर नगर के राजा सिद्धार्थ के भवन के आंगन में प्रतिदिन साढ़े सात करोड़ रत्नों की बड़ी मोटी धारा बरसने लगी। (ग) अथ सौधर्मकल्पेशो ज्ञात्वाच्युतसुरेशिनः। षण्मासावधिशेषायुः प्राहेति धनदं प्रति ।। ४२ ॥ पीदात्र भारते क्षेत्र सिद्धार्थनृपमन्दिरे। श्रीवर्धमानतीर्थेशश्चरमोऽवतरिष्यति ॥४३ ।। अतो गत्वा विधेहि त्वं रत्नवृष्टि तदालये। शेषाश्चर्याणि पुण्याय स्वान्यशर्माकराणि च ॥ ४४ ।। इत्यादेशं स यक्षेशो मूर्नादायामरेशिनः। द्विगुणीभूतसद्भाव आजगाम महीतलम् ।। ४५ ।। ततः प्रत्यहमारेभे मणिकाञ्चनवर्षणैः। रत्नवृष्टि मुदा कतु भूपधामनि सोऽमरः ।। ४६ ।। नानारत्नमयाधारा सैरावतकराकृतिः। पतन्ती श्रोरिवायान्त्यभात् पुण्यकल्पशाखिनः ।। ४७ ।। दीप्राहिरण्यमयी वृष्टिः पतन्ती खाङ्गणाद् बभौ ज्योतिर्मालेव सायान्ती सेवितु पितरौ गुरोः।४।। -वीरवर्धच अधि ७ सौधर्म स्वर्ग के इन्द्र ने उक्त अच्युतेन्द्र की छह मास प्रमाण शेषायु को जानकर कुबेर के प्रति इस प्रकार कहा-हे धनद, इस भरतक्षेत्र में सिद्धार्थ राजा के राजमन्दिर में अन्तिम तीर्थ कर श्री वर्धमान स्वामी अवतार लेंगे, अतः तुम जाकर के उनके भवन में रत्नों की वृष्टि करो, तथा पुण्य प्राप्ति के लिए स्व-पर को सुख करने वाले शेष आश्चर्यों को भी करो । वह यक्षेश अमरेन्द्र के इस आदेश को शिरोधार्यकर द्विगुण हर्षित होता हुआ महीतल पर आया। तत्पश्चात् उस यक्षेश ने सिद्धार्थ राजा के भवन में प्रतिदिन मणिसुवर्ण बरसाते हुए हर्ष से रत्न वृष्टि आरंभ कर दी। ऐशावत हाथी की गुंड़ के समान आकारवालो नाना रत्नमयी वह धारा आकाश से गिरती हुई ऐसी शोभती थी, मानो पुष्परूपो कल्पवृक्ष से लक्ष्मी ही आ रही हो । गगनांगण से गिरती हुई वह देदीप्यदान हिरण्यमयी वृष्टि इस प्रकार शोभा दे रही थी मानो त्रिजगद्-गरु के माता-पिता की सेवा करने के लिए ज्योतिर्मय नक्षत्र माला ही आ रही हो। घ) प्राग्गर्भाधानतः षण्मासान्त सिद्धार्थमंदिरे। साधु कल्पद्र मोद्भूतपुष्पगंधाम्बुवृष्टिभिः ।। ४६ ।। रत्नवृष्टि चकारोच्चमहाय॑मणिकाञ्चनैः । धनदोऽनुदिनं भूत्या सेवया श्रीजिनेशिनः ।। ५० ।। -वीरवर्षच. अधि७ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णमान जीवन-कोश १०३ गर्भाधान से पूर्व छह मास तक सिद्धार्थ नरेश के मन्दिर में कल्पवृक्षों से उत्पन्न हुए पुष्पों के और सुगन्धित जलवर्षा के साथ, तथा बहुमूल्य धाले मणियों और सुवर्णों के द्वारा श्री जिनेश्वर देव की विभूति से सेवा करने के लिए प्रतिदिन महारत्नवृष्टि करने लगा। (च) सक्काण लेवि भत्तिए णविवि । णिहि • कलस - हत्थु धणवइ महत्थु । मण - भंति तोडि आहुट्ठ - कोड़ि। वर मणि · गणेहिँ गयणंगणेहिं । वरिसियउ ताम छम्मास जाम। x x x -वड्डमाणच० संधि , कड ६ महाधनपति-कुबेर अपने मन की भ्रांति को तोड़कर तथा भक्तिपूर्वक नमस्कार कर साढ़े तीन करोड़ श्रेष्ठ मणिगणों से युक्त निधि कलश हाथ में लेकर गगन रूपो आँगन से ( कुण्डपुर में ) उस समय तक बरसाता रहा, जब तक कि छः मास पूरे न हो गये हो । ३३ वर्धमान तीर्थंकर-भगवान् महावीर १ गर्भ प्रवेश (क) इह जंबुदीवि भरहतरालि। रमणीय - विसइ सोहा-विसालि ॥ कुंडउरि राउ सिद्धत्थु सहिउ । जो सिरिहरु मग्गण-वेस रहिउ ।। दो - बाहु वि जो रणि सहसबाहु । सुहि - दिण्ण - जीउ जीमूयबाहु । दालिदहारि रायाहिराउ । जो कप्परुक्खु णउकट्ठभाउ । पत्ता-पियकारिणि देवि तुग - कुभि कुभत्थणि। तहु रायहु इट्ट णारीयण • चूडामणि ।। -वीरजि० संधि १/कड ६ इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में विशाल शोभाघारी विदेह प्रदेश में कुडपुर के राजा सिद्धार्थ राज्य करते हैं । वे आत्म-हितैषी है और श्रीधर होते हुए भी विष्णु के समान धामनावतार संबंधी याचक वेष से रहित हैं। उनकी भुजाएं तो दो ही थीं, किन्तु युद्ध में वे सहस्रबाहु जैसी वीरता दिखलाते थे। वे सुधी अर्थात् विद्वानों को जीविका प्रदान करते थे, अतएव वे साक्षात् जीमूतवाहन थे जिन्होंने अपने मित्र के लिए अपना जीवनदान कर दिया। वे राजाधिराज लोगों के दारिद्रय को दूर करने वाले कल्पवृक्ष थे, तथापि कल्पवृक्ष के समान वे काष्ठ और कटुभाव-युक्त नहीं थे। __ ऐसे उन सिद्धार्थ राजा की रानो प्रियकारिणी देवी थी जो विशाल हाथियों के कुभस्थलों के समान पीनस्तनी होती हुई समस्त नारी-समाज की चूड़ामणि थी। (ख) दुवई-एयह बिहिं मिजक्ख कमलक्ख । सलक्खणु रक्खियासवो ॥ चउर्व समु जिणिंदु सुउ सोही। पय - जुय - णविय - वासवो ।। -वीरजि.संधि१ । कड ७ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ वधमान जीवन-कोश __इन्द्र कुबे य स कहते हैं कि हे कमल-नयन यश, इन्हीं राजा सिद्धार्थ' और रानी प्रियकारिणी के शुभ लक्षणों से युक्त मदिरादि व्यसनों का त्यागो पुत्र चौबीसवाँ तीर्थ कर होगा, जिसके चरणों में इन्द्र भो नमन करेंगे। (ग) आसाढ - मासि ससिहर - पयासी । पक्खंतरालि हय - तिमिर - जालि ।। दिस · णिम्मलम्मि छट्ठी - दिणम्मि। संसार - सेउ थिउ गब्भि देउ । संपण्ण - हिहि कण - कणय - विट्टि। जक्खेण ताम णव · मास - जाम । -वीरजि० संधि १ । कड६ आषाढ़ मास के चन्द्र से प्रकाशमान व अन्धकार समूह को दूर करने वाले शुक्ल पक्ष में छट्ठी तिथि के दिन जब दिशाएं निर्मल थीं, तब संसार के सेतुभूत भगवान महावीर, माता के गर्भ में आकर स्थित हुए। तब से नव मास तक धरणन्द्र यक्ष आनन्ददायी स्वर्ण की दृष्टि करता रहा । (घ) अथेह भारते क्षेत्र विदेहाभिध ऊर्जितः। देशः सद्धर्मसंघाद्य विदेह इव राजते ॥ २ ॥ x इत्यादि वणनोपेतदेशस्याभ्यन्तरे पुरम् । कुण्डाभिधां विराजेत नाभिवद्धाभिकैमहत् ॥ १० ॥ पतिस्तस्य महीपालः श्रीमान् सिद्धार्थसंज्ञकः । आसीत् काश्यपगोत्रस्थो हरिवंशनभोंऽशुमान् ॥ २२ ॥ X x तस्याभवन् महादेवी सन्नाम्ना पिकारिणी। अनौपम्यगुणवातैर्जगतां पुण्यकारिणी ।। २८ ।। गजेन्द्राकारमादाय भवस्यास्यप्रवेशनात् । त्वद्गर्ने निर्मले तीर्थेऽन्तिमोऽवतरिष्यति ।। १०३ ॥ तदैवाषाढमासस्य शुक्ल षष्ठी दिने शुचौ। उत्तराषाढनक्षत्र शुभे लग्नादिक सति ।। ११० ।। सोऽमरेन्द्रोऽच्युताच्च्युत्वा धर्मध्यानेन धर्मकृत् । सुगर्भ प्रियकारिण्याः शुचौ पुण्यादधातरत् ॥ १११ ।। -वीरवध मानच० अधि ७ इस भारत वर्ष में विदेह नामक एक विशाल देश है, जो श्रेष्ठ धर्म और मुनिश्वरों के संघादि से विदेह क्षेत्र के समान शोभायमान है । इत्यादि वर्णन से संयुक्त उस देश के भीतर नाभि के समान मध्यभाग में कुण्डपुर नामक महान नगर विराजमान है। उस कुण्डपुर के स्वामी श्रीमान् सिद्धार्थ नामवाले महिपाल थे, जो काश्यप गोत्री, हरिवंश रूप गगन के सूर्य थे। उस सिद्धार्थ नरेश की रानी 'प्रियकारिणी' इस उत्तम नामवाली महादेवी थी। जो अपने अनुपम गुण समूह से जगत् की पुण्यकारिणी थी। सिद्धार्थ ने प्रियकारिणी को कहा-मुख में प्रवेश करते हा गजेन्द्र के देखने से आपके निर्मल गर्भ में अन्तिम तीर्थकर गजेन्द्र के आकार को धारण करके अवतरित होगा। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश उसी समय आषाढ मास के शुक्ल पक्ष की पवित्र षष्ठी के दिन उत्तराषाढ़ नक्षत्र में शुभ लग्नादिक होने पर मा देवेन्द्र धर्मध्यान के साथ अच्युत स्वर्ग से च्युत होकर पुण्योदय से प्रियकारिणी के पवित्र गर्भ में मतfa पण्णदसदिवसेहि अहहि मासेहि य अहियपंचहत्तरिवासासेसे पउत्थकाले ७५-८-१५ पुष्पचर. विमाणादो आसाढ-जोण्हपक्ख छट्ठीए महावीरो वाहत्तरवासासो तिण्णाणहरो गम्भमोइण्णो। xxx । एत्थुवउज्जंतीओ गाहाओसुर महिदोच्चुदकप्पे भोगं दिव्वाणुभागमणुभूदो । पुप्फुत्तरणामादो विमाणदो जो चुदो संतो। -कसापा० भाग १/गा १, २/ टीका सव्वसिद्धिठाणा अवइण्णा उसहधम्मपहुदितिया। xxx पुप्फोत्तराभिधाणा अणंतसेयंसंवड्माणजिणा। -तिलोप० अधि गा ५२२ पूर्वार्ध, ५२४ उत्तराध सा तं षोडशसुस्वप्नदर्शनोत्सवपूर्वकं । दध्र गर्भेश्वरं गर्भ श्रीवीरं प्रियकारिणी॥ -हरिपु० खंड १ । सर्ग २ । श्लो २१ y xxx इह भारहवरे संतरे xxx णिवसइ विदेहु णामेण देसु खयरामरेहिं सुहयर-पयसु xxx तहिं णिवसइ कुण्डपुराहिहाणु -वड्डमाणच० संधि । कड १ ___ उसी भारतवर्ष में विद्यापों एवं अमरों से सुशोभित प्रदेशवाला विदेह नामक एक सुप्रसिद्ध देश है। विदेह देश में कुण्डपुर नामक एक नगर है। ) सुणेऊण एयं कमेणं मुहाओ स - कंतस्स धारेवि साणंदभाओ। गया सुन्दरे मंदिरे जाम देवी तुरंती तिलोए गणासार सेवी। तो सो सुराहीसु पुप्फुत्तराओ विमाणाय भावेवि सोक्खायराओ। पत्ता-सिविणए पवरु गय-रूव-धरु णिसि पविठ्ठ, देवी-मुहे। मुणिषर भणिया सावण तणिया सिय छहिहे जिय-सररहे॥ -पडमाणच० संधि/कड ७ राजा सिद्धार्थ के मुख से स्वप्नों के फल को क्रमशः सुनकर उसकी कान्ता प्रियकारिणी बानन्दलही से भर है। त्रिलोक में महिला गणों की सारभूत महिलाओं द्वारा सेवित वह देवी शीघ्र ही जब अपने सुन्दर भवन में भी वह सुराधीश सुखकारी पुष्पोत्तय विमान से चयकर रात्रि के समय प्रवर स्वप्न में देवी प्रियकारिणी के में गज के रूप में प्रवेश हुआ। ( उसे ) मुनिवरों ने कमलों को जीतने वाली श्रावण संबन्धी शुक्ल षष्ठी (विधि) धणवइ वसु परिसिउ पुणुवि तेम णव मासु सुपाउसे मेहु जेम। गम्भडिओवि णाणत्तएण सोमुक्कु ण मुणिय-जयत्तएण। --बड्डमाणच० संधि/माड ८ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश .... जिस प्रकार वर्षा ऋतु के नव ( आषाड ) मास में मेघ बरसते हैं, उसी प्रकार पनपति -कुबेर भी पुनः नौमास तक रत्मवृष्टि करता रहा । गर्भ में स्थित रहने पर भी वे भगवान् मति श्रुत एवं अवधि कप तीन ज्ञानों से मुक्त न थे। २ प्रियकारिणी ( त्रिशला ) के गर्भ के समय धन - वर्षा(क) घत्ता-घरपंगणि तासु रायहु सुह-पब्भारहिं । बुट्टउ धणणाहु अविहंडिय-धण-धारहि । -वीरजि० संधि १ । कड८। पृ० १६ (ख) आसाढ - मासि ससियर - पयासी पक्खंतरालि हय - तिमिर - जालि। दिस - णिम्मलम्मि छट्ठो - दिणम्मि । संसार - सेउ थिउ • गम्भि देउ । संपण्ण - हिट्टि कय कणय - विट्ठि। जक्खेण ताम णव - मास जाम । -वीरजि० संधि १ । कड६ । पृ० १८ (ग) धणवइ वसु वरिसिउ पुणुवि तेम व मासु सुपाउसे मेहु जेम __-वड्ढमाणच० संधि है । कड ८ (घ) यस्यावतारतः पूर्वं पित्रोः सौधे धनाधिपः। मासान् षण्णवसंपूर्णाश्चक्र रत्नादिवर्षणम् ।। -वीरवर्धच. संधि १ । श्लो २ भगवान महावीर के जीव के रानी प्रियकारिणी के गर्भ में आने के पश्चात् नव मास तक धनपति-कुबेर या यक्ष ने राजा सिद्धाथ' के प्रसाद के प्रांगण में प्रचुर रत्नादि की वृष्टि की। ३३ क-भगवान् महावीर-देवानंदा गर्भ १. समणे भगवं महावीरेxxx तस्सणं आषाढ़सुद्धस्स छट्ठीपखेणं हत्युत्तराहि नक्खखत्तणं जोगमुवागएणं, महाविजय - सिद्धत्थ - पुप्फुत्तर - पवर - पुण्डरीय · दिसासोवस्थिय वद्धमाणाओ महाविमाणाओ वीसं सागरोवमाई आउयं पालयित्ता आउक्खएणंभवक्खणं ठिइक्खएणं चुए चइत्ता इह खलु ... जंबुहीवे दीवे, भारहे वासे, दाहिणड्ढभरहे दाहिणमाहणकुण्डपुरसन्निवेसंसि उसभदत्तम्स .. माणस्स कोडाल-सगोत्तस्स देवाणंदाए माहणीए जालंधरायण-सगोत्ताए सीहोभूवभूरण ... . अप्पाणेणं कुच्छिसि गब्भं वक्ते । -आया० १२ । अ १५ । सू३ । पृ० २३१ २ तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरेxxx तस्सणं आसाढसुद्धस्स छट्ठीपक्खेणं महा विजयपुप्फुत्तरपवरपुंडरीयाओ महाविमाणाओ वीसं सागरोवमट्टिईयाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं अणंतर चई चइत्ता इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे xxx समगे भगवं महावीरे चरिमे तिस्थकरे पुव्वतित्थकरनिहिढे माहणकुण्डग्गामे नगरे उसभदत्तस्स माहणस्स Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन - कोश १०७ कोडालसगुत्तस्स भारियाए देवाणंदाए माहणीए जालंधरसगोत्ताए पुब्वरत्तावरत्तकालसमयं सि हथुत्तराहि नक्वत्तेगं जोगमुवागणं आहारवक्कतीए भववक्कतीए सरीरवक्कतोए कुच्छिसि भत्ताए वक्कते । ---कप० सू २ | पृ० ४ ३ अस्थि इव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे माहणकु डग्गामो णाम गामो । तत्थ कोडालसगोत्तो ( उ सहदत्तो णाम ) बंभणो । तरस देवाणंदा भारिया । तीएसह जहासुहं वसन्तस्स गच्छति दिया । इयो य तओ पुप्फुत्तरविमाणाओ आसाढसुद्धछट्टीए हत्थुत्तराहि चइऊण अणेय - भवायमिरी जीवसुरवरो 'अहो उत्तमं मह कुलं ति दुरुत्तवायावइयरावज्जियकम्मकिंचावसेसराणओ समुप्पण्णो तीए बम्भणीए उदरम्मि | -चप्पन० पृ० २७० ४ इतश्च जंबूद्वीपेऽस्मिन् क्षेत्र ेऽस्ति भरताभिधे ब्राह्मणकुंडग्रामाख्यसंनिवेशो द्विजन्मनाम् ॥ १ ॥ तत्र वर्षभदत्तोऽभूत् कौडालसकुलोद्विजः । देवानंदा च तद्भार्या जालन्धरकुलोद्भवा ।। २ ।। च्युत्वा च नन्दनो हस्तोत्तरक्षस्थे निशाकरे | आषाढस्य श्वेषष्ठ्यां तस्याः कुक्षाववातरत् । ३ ॥ x 1 X X ११ ॥ १२ ॥ देवानन्दा गर्भगते प्रभौ तस्य द्विजन्मनः । बभूव महती ऋद्धिः कल्पद्रुम इवागते ॥ ६ ॥ त्रिजगद्गुरवोऽर्हन्तो नोत्पद्यन्ते कदाचन । तुच्छकुले रोरकुले भिक्षावृतिकूलेऽपि वा ॥ ६ ॥ इक्ष्वाकुवंशप्रभृतिक्षत्रवंशेषु किं त्वमी । जायन्ते पुरुषसिंहा मुक्ताः शुक्त्यादिकेष्विव ॥ १० ॥ तसंगतमापन्नं जन्म नीचकुले प्रभोः । प्राध्यं कर्मान्यथा कर्तुं यद्वार्हन्तोऽपि नेशते ॥ मरीचिजन्मनि कुलमदं नाथेन कुर्वता । अर्जितं नीचकैर्गोत्रकर्मद्यापि ह्य ुपस्थितम् ॥ कर्मवशान्नीच कुलेषूपन्नानर्हतोऽभ्यतः । क्षेप्तुं महाकुलेऽस्माकमधिकारोऽस्ति सर्वदा ॥ १३ ॥ - त्रिशलाका० पर्व १० / सर्ग २ भय तिनाणो गएचुए, सोचइम्सामित्ति जाणइ, चयमाणे न जाणइ- समयस्य छद्मस्थोपयोगाविषयवात्, चुएमित्ति जाणइ, जरयणि देवाणंदाए कुच्छिसि गभत्ताए उववन्ने तं स्यणि सा सयणिज्जंसि सुतजागरा इमे चोदस महासुमिणे पासइ x x x 1 उपण्णे खलु समणे भगवं महावीरे देवाणंदाए माहणीए कुच्छिसि तन्न एयं भूयं वा भवइ वा भविस्सइवा xxx। - आव० निगा० ४५८ / मलयटीका पुप्फुत्त उववन्नो तओ चुओ माहणकुलम्मि | - आव० निगा ४५० 1 टीका - xxx 'ततो चुतो माहणकुलंमि' त्ति ततः - पुष्पोत्तरात् च्युतो ब्राह्मणकुंडग्रामे नगरे सोमिलस्य ब्राह्मणस्य देवानन्दायाः पत्न्याः कुक्षौ समुत्पन्नः । x x x माणक डग्गा को डालसगुत्तमाहणो अस्थि । तस्स घरे उववन्नो देवाणंदाइ कुच्छिसि ॥ - आव० निगा ॥। ४५७ ।। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ वर्षमान जीवन-कोश मलयटोका-अस्या व्याख्या--पुष्पोत्तराच्च्युतो ब्राह्मणकुडप्रामे नगरे कोडालसगोत्रो ब्राह्मणः सोमिला भिधानोऽस्ति, तस्य गृहे उत्पन्नः देवानन्दायाः कुक्षाविति । इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में ब्राह्मणकुण्ड नामक एक ब्राह्मण लोगों का ग्राम पा। वहां कोडाल गोत्र में उत्पा ऋषभनाप सोमिल नामक एक ब्राह्मण रहता था। उसके देवानन्दा नामक एक जालंधर कुल की स्त्री थी। आषाड मास की शुक्ल षष्ठी-हस्तोत्तरा नक्षत्र में नन्दन मुनि का जोव दश देवलोक से च्यवन कर देवानन्द की एक्षि में अवतरित हुआ। जिस दिन वे देवानन्दा के गर्भ में आये तभी से ऋषभदत्त को मोटी ऋद्धि की प्राप्ति हुई। तीन जगत् के गुरू महत् कभी भी तुच्छ कुल में, दारिद्र कुल में या भिक्षुकुल में उत्पन्न नहीं होते परन्तु पुरुष सिंह समान शीप में मोती के समान इक्ष्वाकु आदि क्षत्रिय वंश में ही उत्पन्न होते हैं । भगवान् नीच कुल में उत्पन्न हुए है-यह असगत बात है। परन्तु प्राचीन कर्मों को जन्यथा करने में भगवान भी समर्थ नहीं है। भगवान ने मरीचि के भव में कुलमद किया था-इस कारण नीच गोत्र कर्म का उपार्जन किया था। अस्तु शकेन्द्र ने सोचा कि कर्म के वशीभूत हुए नीच कुल में उत्पन्न हुए अर्हतो को किसी महा कुल में ले जाने का पवंदा हमारा अधिकार है। ३३ ख-त्रिशला गर्भ ( सिद्धार्थ राजा की पत्नी) १ गर्भ विवेचन १ एवंच पवढमाणम्मि गम्भे गएसु वासीदिणेसु ताव चलियासोहिप्पओएणमुराहिवइणा मुणिओ भयवो गब्भसंभवो। चिंतिउंच पयतो-एवं बिहा महाणुभावा ण तुच्छकुलेषु जायन्ति । ति चितिऊण अवहरिओ बंभणीओ ( ए ) गम्भाओ भयवं। पक्खित्तो इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे उत्तुङ्गधवलपासायसिहरोवसोहीए तीर ( ? खत्तिय ) णगराहिहाणे पुरवरे xxx। अण्णया य गामाणुगाम गच्छमाणो कीलाणिमित्तमागओ णियभुत्तिपरिसंठियं कुंडपुरं णाम जयरं। जहाविहावयारेण पविट्ठो णिययमंदिरं। आगओ सयलो वि पुरजणवओ दंसणत्थं । सम्मागियविसज्जियम्मि पउरलोए विसिढविणोएण अइवाहिऊण दिणसेसं पसुत्तो वासभवणम्मि । णिवण्णा तयन्तिए देवी । समागया सुहेणणिद्दा । तओ पहायप्पायाए रमणीए चउद्दसमहासुविणाणुकूललाभरांसूइओ समुप्पण्णो आसोयतेरसीए हत्थुत्तराहिं तिसलादेवीए गब्भम्मि। -चउप्पण्ण पृ० २७० २ ताओ गं समणस्स भगवओ महावीरस्स अणुकंपए णं देवेगं 'जीयमेय' ति xxx तस्सणं भासोयबहुलस्स तेरसीपक्खेणं xxx जेवि य से तिसलाए खत्तियाणीए कुच्छिंसि गम्भे, तंपि य दाहिणमाहणकुडपुरसन्निवेसंसि उसभदत्तस माहणस्स कोडाल-सगोतस्स देवाणंदाए माहगीए जालंधरायणसगोताए कुच्छिसि साहरइ। -भाया० श्रु २/ अ १५/सू ५, ६ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ वर्षमान जीवन कोश ३ तथा गर्भस्य उदरसत्वस्स हरणं उदरान्तरं • संकामणं गर्भहरणं एतदपि तीर्थकरापेक्षयाऽभूतपूर्व सद्भगवतो महावीरस्य जातं पुरन्दरादिष्टेन हरिणेगमेषिदेवेन देवानन्दाभिधानब्राह्मण्युदरास्त्रिशलाभिधानाया राजपल्या उदरे संक्रमणाद्, एतदप्यनन्तकालभावित्वादाश्चर्यमेविति । -ठाण स्था० १० । सू. १६० । टीका४ ‘समणे' इत्यादि आषाढस्य शुक्लपक्षषष्ठ्या आरभ्य व्यशीत्यां रात्रिन्दिवेष्वतिक्रांतेषु ज्यशीतितमे वर्तमाने अश्वयुजः कृष्णत्रयोदश्यामित्यर्थः गर्भात-गर्भाशयादेवानंदाब्राह्मीणीकुक्षित इत्यर्थः गर्भ -त्रिशलाभिधानक्षत्रियाकुक्षि संहृतो-नीतो देवेन्द्रवचनकारिणा हरिणेगमेष्यभिधानदेवेनेति । -सम० सम० ८२ । सू २ । टीका हरिणेगमेसिं पायत्ताणियाहिवई देवं x x x जे से वासाणं तच्चे मासे पंचमेपक्खे आसोयबहुलतेरसी तमि देवाणंदाए माहणीए कुच्छीतो तिसलाए खत्तियाणीए कुच्छिसि अव्वाबाहं साहरइ, जे से तिसलाए गब्भे तं देवाणंदाए कुच्छिसि साहरइ, xxx जं रयणि च गं भगवं देवाणंदाए कुच्छीतो तिसलाए कुच्छिसि साहरिए तं रयणिं सादेवाणंदा तेसुमिणे तिसलाए हडे पासित्ताणं. पडिबुद्धा, तिसलावि य ण मणोरमंसि सयणिज्जंसि सुत्तजागरा ते चोहस महासुमिण पासित्ताण पडिबुद्धा। -आव• निगा ४५८/मलयटोका ६ तए ण से हरिण गमेसी पायत्ताणियाहिवई देवे xxx जे से वासाण तच्चे मासे पंचमेपक्खे आसोयबहुले, तस्सणं आसोयबहुलस्स तेरसोपखेण + + + हियाणुकंपएण देवेणं हरिण गमेसिणा सकवयणसंदिहण माहणकुडग्गामाओ नयराओ उसभदत्तस्स माहणस्स कोडालसगोत्सस्स भारियाए देवाणदाए माहणीए जालंधरसगोत्ताए कुच्छीओ खत्तियकुडग्गामे नयरे नायाण खत्तियाण सिद्धत्थस्स खत्तियस्स कासवसगोत्तस्स भारियाए तिसलाए खत्तियाणीए वासिहसगोत्ताए पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि हत्युत्तराहिं नक्खत्तणं जोगमुवागएणं अव्वाबाहं अव्वाबाहेणं कुच्छिसि साहरिए । ४ -कप्प० स २७, ३० विध नैगमेषी च तथैव स्वामिशासनम् । देवानन्दात्रिशलयोर्गर्भव्यत्ययलक्षणम् ॥ २६ ॥ देवानन्दा ब्राह्मणी सा शयिता पूर्ववीक्षितान् । मुखानिःसरतोऽद्राक्षीन्महास्वप्नांश्चतुर्दश ।। २७ ॥ उस्थाय वक्ष आघ्नाना निःस्थामा ज्वरजर्जरा। केनापिजह मे गर्भ इति चुक्रोश सा चिरम् ॥ २८॥ कृष्णाश्विनत्रयोदश्यां चन्द्रे हस्तोत्तरास्थिते । स देवस्त्रिशलागर्भे स्वामिनं निभृतं न्यधात् ।। २६ ।। -त्रिशलाका• पर्व १० । सर्ग २ देवानन्दा ब्राह्मणी की कुक्षि में भगवान महावीर का गर्भ है-यह विचारकर इन्द्र के स्वयं के पायदल सेनापिति हरिणगमेषी देव को बुलाकर कहा कि त्रिशलादेवी की कुक्षि में उस गर्भ को रखो तथा देवानन्दा ब्राह्मणी की कुक्षिमें सभं को रखो। यह कार्य सत्वस करो । हरिणगमेषी देव भी तुरन्त स्वामी की आज्ञानुसार देवानन्दा और Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन कोश त्रिशला के गर्भ को अदल-बदल किया। उस समय शय्या में सोई हुई देवानन्दा ब्राह्मणी ने पूर्व देखे हुए चौदह महास्वप्नों को स्वयं के मुख से निकलते हुए देखा। वह तुरन्त बैठी परन्तु शरीर निबल और ज्वर से जर्जरित हो गया और छाती कटती-"किसी ने हमारे गर्भ का हनन किया है।" इस प्रकार बारम्वार पुकार करने लगी। आश्विन कृष्णा त्रयोदशी, चन्द्र हस्तोतरा नक्षत्र के आवागमन होने पर उस देव ने भगवान को त्रिशला के गर्भ में स्थापित किया। २ गर्भ का प्रभाव-त्रिशला के गर्भ के समय धन-वर्षों १ ज रयणि भयवं तिसलाए गब्भे साहरिते तं रयणि सक्कवयणेणं तिरियजंभगा देवा विविहाई मणि निहाणाई सिद्धस्थरायभवणंसि साहरंति, तं च नायकुलं हिरणेणं सुवण्ण्णं धन्नेणं रज्जेणं बडले वाहणेणं कोठागारेणं पुरेण अंतेउरेणं जणवयपुत्तेहिं पसूहि सावइज्जण य अतीव अतीव अभिवणइ । सिद्धत्थरायस्सविय सामंतरायाणो सव्वे वसमागया। -श्राव.निगा ४५८/मलयटीका २ गर्भस्थेऽथ प्रभौ शक्राऽऽज्ञया जभकनाकिनः । भूयो भूयो निधानानिन्यधुः सिद्धार्थवेश्मनि ॥ ३४ ।। सवं ज्ञातकुलं भूरिधनधान्यादिऋद्धिभिः । गर्भावतीर्णभगवत्प्रभावावृधेतराम् ॥ ३५ ।। सिद्धार्थस्यापि नृपतेर्दादप्रणताः पुरा । प्रणेमुभूभुजोऽभ्येत्य स्वयं प्राभूतपाणयः ॥ ३६ ।। -त्रिशलाका० पर्व १० । सर्ग २ भगवान जब त्रिशला के गर्भ में आये तब शकेन्द्र को आज्ञा से जभक देवों ने सिद्धार्थ राजा के गृह में बारंबार धन का समूह ला लाकर स्थापित किया। गभ में अवतरित भगवान के प्रभाव से उसका समूचा कुल धनधान्य की समृद्धि से वृद्धि को प्राप्त हुआ। जो राजा गर्ष के कारण पहले सिद्धार्थ राजा की नमन नहीं करते थे-वे हस्त में स्वयं भेंट लेकर वहां आकर नमने लगे। '३ त्रिशला के गर्भ में अभिग्रह पित्रोविज्ञाय तद् दुःखं ज्ञानत्रयधरः प्रभुः । अंगुलिं चालयामास गर्भज्ञापनहेतवे ।। ४४ ।। मद्गर्भोऽक्षत एवेति ज्ञात्वा स्वाभिन्यमोदत। अमोदयच्च सिद्धार्थ गर्भस्पन्दनशंसनात ॥ ४५ ।। अचिन्तयच्च भगवान्मय्यदृष्टेऽपि कोऽप्यहो। मातापित्रोर्महान् स्नेहो जीवतोरनयोर्यदि ॥ ४६ ।। प्रव्रजिष्याम्यहं स्नेहमोहादेतौ तदा ध्वम् । आर्तध्यानगतौ कर्माशुभं बह्वर्जयिष्यतः ।। ४७ ।। अथैवं सप्तमे 'मासि जग्राहाभिग्रहं प्रभुः। उपादास्ये परिव्रज्यां न पित्रोर्जीवतोरहम् ।। ४८ ।। -त्रिशलाका पर्व १०/सर्ग २ ___ For Private &Personal use only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश १११ '२ अह सत्तमम्मि मासे गन्भत्थो चेवऽभिग्गहं गेण्हे । नाहं समणो होहं अम्मापियरंमि जीवंते ।। ५६ ।। -आव० निगा• ४५८ पर भाष्य गा० ५६ मलयटीका- xxx अथ गर्भादारभ्य सप्तमे मासे तयोर्मातापित्रोर्गर्भप्रयत्नकरणेनात्यन्तं स्नेहमवबुद्ध्य अहो ममोपर्यतीवानयोः स्नेहो, यद्यहमनयोर्जीवितोः प्रव्रज्यां गृह णामि नूनं न भवत एवैतावित्यतो गर्भस्थ एवाभिग्रहं गृह णाति, ज्ञानत्रयोपेतत्वात्, किंविशिष्टमित्याह-नाहं श्रमणो भविष्यामि मातापित्रो जीवतोरिति ३ तए णं समणे भगवं महावीरे गब्भत्थे चेव इमेयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हा नो खलु मे कप्पइ अम्मापिएहिं जीवतेहिं मुडे भवित्ता अगारवासाओ अणगारि पव्वइत्तए -कप्प० सूहा तोन ज्ञान के धारक (गर्भ में स्थित ) वर्धमान ने माता-पिताको दुःखित जानकर गर्भज्ञापन कराने के लिए एक अंगुली को चलायमान किया। इससे माता ने जाना कि मेरा गर्भ क्षति को प्राप्त नहीं हुआ है। हर्षित हुई । गर्भ की स्फरणा को जानकर सिद्धार्थ राजा भी बहुत खुशी हुआ। फलस्वरूप बर्धमान ने विचार किया कि में अदृष्ट हूं फिर भी माता-पिता का मेरे पर कितना स्नेह है। यदि मैं माता पिता के जीवित रहते हुए दीक्षा ग्रहण करू गा तो वे स्नेह के मोह से अति आतंध्यान को प्राप्त होंगे।-अशुभ कर्म उपार्जन करेंगे। अतः मुझे उचित है कि मैं उनके जीवित काल में दीक्षा ग्रहण नहीं करूगा-यह अभिग्रह भगवान् ने सात मास में ग्रहण किया। ४ वर्धमान का वंश इक्ष्वाकवः सुखक्षेत्र संभवंति दिवश्च्युताः। वीरेऽवतरति त्रातु धरित्रीमसुधारिणः ॥ -हरि० खंड १ । सर्ग २/श्लो ४'उत्तरार्ध/२० पूर्वार्ध वर्धकान का इक्ष्वाकु वंश था। '५ वर्धमान भगवान का शरीर ( समणे भगवं महावीरे ) सत्त हत्थूस्सेहे समचउरंस-संठाण - संठिए वज्ज - रिसह-नारायसंघयणे अणुलोम - वाउवेगे कंकग्गणी कवोय - परिणामे सउणि - पोस - पितरोरु - परिणए पउमुप्पल गंध - सरिस - निस्सास - सुरभिवयणे, छवो निरायंक - उत्तम - पसत्थ - अइसेय - निरुवय - पले जल्ल-मल्ल - कलंक - सेय - रय - दोस - वज्जिय - सरीर - निरुवलेवे छाया - उज्जोइयंग - मंगे। -ओव० सू० १६ श्रमण भगवान महावीर की ऊँचाई सात हाय को थी। आकार समचौरस (उचित एवं श्रेष्ठ माप से युक्त सुन्दर) था। उनकी हड्डियों की संयोजना अत्यन्त मजबूत थी। शरीरस्थित बायु का वेग अनुकूल था। कंकपक्षो के समान गुदाशय था। कबूतर के आहार परिणमन की शक्ति के समान पाचन शक्ति थी। पक्षियों के समान अपान-देश निर्लेप रहता था। पीठ, अन्तर (पीठ और पेट के बीच के दोनों तरफ के हिस्से पाश्र्व और जंघाए विशिष्ट परिणाम Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ वर्षमान जीवन कोश चाली थी अर्थात् सुन्दर थी। पद्म और उत्पल की सुगन्ध के समान निःश्वास से सुरभित मुख था। उनकी चमड़ी सुन्दर और कोमल थी। रोग से रहित उत्तम, शुभ, अति सफेद और अनुपम प्रभु की देह का मांस था। अत: जल्ल, मल्ल, कलंक, पसोने और रज के दोष से रहित (भगवान का) शगीर था-उस पर मैल जम ही नहीं सकता था। अतः अंग-अंग उज्ज्वल कौति से प्रकाशमान थे। ६ वर्धमान भगवान के शरीर के अवयवों का विवेचन (क) शिख-नख विवेचन घण-निचिय-सुबद्ध-लक्खण प्रणय-कूडागार-निपिंडि-अग्ग सिरए सामलि-बोंड घण-निचियच्छोडियमिउ विसय-पसत्थ-सुहम-लक्खण सुगंध-सुन्दर-भुअमोअग - भिंग-नेल कज्जल पहि-भमर-गण-णिद्ध णिकुरंब-निचिय-कुचिय-पयाहिणावत्त मुद्ध सिरए दालिम-पुप्फप्पगास-तवणिज्ज-सरिस निम्मल-सुणिद्ध केसंत-केसभूमी घण-निचिय-छत्तागारुत्तमंगदेसे णिवण-समलह-मट्ठ चन्दद्ध-सम-णिडाले उडुवइ पडिपुण्ण-सोमवयणे, अल्लीण-पमाण जुत्त-सवणे सुस्सवणे, पीण-मंसल कवोल-देसभाए आणामिय चाव-रुइल-किण्डब्भराइ तणु-कसिण-णिद्ध भमुहे अनदालिय पुण्डरीय-यणे कोआसिअ-धवल पत्तलच्छे गरु लायत-उज्जु-तुङ्गणासे उवचिअ-सिल पवाल-बिंबफल सण्णिभाहरोह, पंडुर-ससि-सअल-विमल णिम्मल संख. गोक्खीर-फेग-कुन्ददगरय मुणालिआ-धवल-दंत सेढो अखंडदंते अप्फुडिअदंते अविरलदंते सुणिद्धदंते सुजायदंते एगदंतसेढीविव अणेगदंते, हुयवहणिद्धत-धोय-तत्त-तवणिज्ज रत्त-तल-तालु-जीहे अवडिय-सुविभत्त-चित्त मंसू मंसल-संठिय-पसत्थ सहूल विउल हणूए, चउरंगुल-सुप्पमाण-कंबु-वर-सरिस-गोवे, वर-महिस वराह-सीह-सूद्दल उसम-नाग - वर - पडिपुण्ण. विउलक्खंधे जुग-सन्निभ-पीण रइय पीवर-पउट्ठ सुसंठिय-सुसिलिट्ठ विसिठ्ठ-घण-थिर-सुबद्ध-संधि पुर वर-फलिह-वट्टिय भुए-भुय-ईसर-विउल-भोग आदाण पलिह उच्छूढ दोह बाहू-रत्त - तलोवइय मउअ मंसल सुजाय लक्खण-पसत्थ अच्छिद्द-जाल पाणी पीवर कोमल वरंगुली आयंब- तंब - तलिण - सुइ रुइल-णिद्ध-णक्खे चंदपाणिलेहे सूरपाणिलेहे संखपाणिलेहे चक्कपाणिलेहे दिसासोस्थिक्ष पाणिलेहे चंद-सूर-संख-चक्क-दिसा-सोस्थिय-पाणिलेहे, कणग सिलातलुज्जल पसस्थ समतल उवचिय विच्छिण्ण पिहुल वच्छे सिरिवच्छंकियवच्छे अकरंडअकणग-रुयय-निम्मल-सुजाय निरुवहय-देहधारी-अठ्ठ-सहस्स - पडिपुण्ण - वर - पुरिस-लक्खण-धरेसण्णयपासे संगयपासे सुन्दरपासे सुजायपासे मिय-माइअ-पीण-रइय-पासे उजुअ-सम-संहिय-जच्च-तणु-कसिण-णिद्ध-आइज्ज-लडह-रमणिज्ज-रोम राई झस विहग सुजायपीण-कुच्छी झसोदरे सुइकरणे पउमविअडणाभे गंगावत्तक पयाहिणावत्त तरंग-भंगुर-रवि-किरण तरुण-बोहिय-अकोसायंत-पउम-गंभीर वियड-णाहे (भे) साहय-सोणंद-मुसल-दप्पण-णिकरिय-वरकणगच्छरू-सरिस-वर-वर-वलिअ-मज्झे-पमुइय-वर-तुरग-सीह-वर-वट्टिय-कडी Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बर्षमान जीवन-कोश वर-सुरग-सुजाय-सुगुज्म-देसे आइण्ण-हउव्व-णिरुवलेवे, वरवारण-तुल्ल विक्कम विलसिय-गई गयससण-सुजाय-सन्निभोरु समुग्ग-णिमग्ग-गूढजाणू एणी - कुरूविंदावत्त - वट्टाणुपुब्व - जंघे संठिय सुसिलिट्ठ गूढगुप्फे सुप्पइट्ठिय कुम्भचारूचलणे अणुपुव्व सुसंहयंगुलीए उण्णय-तणु-तंब-णिद्ध-णक्खे भरतप्पलपत्त-मउय-सुकुमाल-कोमलतले अट्ठसहस्सवरपुरिसलक्खणधरे, नग-नगर-मगर-सागर चक्कंक-वरंक मंगलंकिय-चलणे विसिट्ट-रूवे हुयवह निख़्म-जलिय - तडितडिय-तरूण रवि-किरण-सरिस-तेए, अणासवे अममे अकिंचणे छिन्नसोए निरूवलेवे ववगय-पेम-राग-दोस-मोहे, निग्गंथस्स पवयणस्स देसए सस्थनायगे पइट्टावए, समणगपई समणग विंद परिअट्टए, चउतीस बुद्ध यणतिसेस पत्ते पणत्तीस-सच्च वयणतिसेस पत्ते, -आव० सं० २० - अत्यन्त ठोस या सघन, स्नायुओं से अच्छी तरह से बंधा हुआ, श्रेष्ठ लक्षणों से युक्त, पर्वत के शिखर, के बाकार वाला और पत्थर की गोल पिण्डी के समान (भगवान् का) शिर था। सेमल वृक्ष के फल जो कि रूई भरा हुआ हो, उसके फटे हुए अंश से रूई बाहर निकाली हुई हो उसके समान कोमल, सुलझे हुए, स्वच्छ और से या पतले-सूक्ष्म, लक्षणयुक्त सुगन्धित, सुन्दर, भुजमोचक रत्न भृगकोट, नील-विकार, काजल और अत्यन्त मोरे के समान काले और लटों के समूह से एकत्रित पूंघराले छल्लेदार बाल (प्रदक्षिणावतं ) शिरपर थे। समीप में केश के उत्पत्ति के स्थान की त्वचा दाडिम के फूल के समान प्रभायुक्त की, लाल सोने के समान "निर्मल पी और उत्तम तेल से सिञ्चित-सी थी। उनका उत्तमांग धन, भरा हुआ और छत्राकारा था। ललाट आधे वांद के समान, घाव आदि के चिह्न से रहित मनोज्ञ ओर शुद्ध था। नक्षत्रों के स्वामी पूर्ण चन्द्र के समान सौम्य मुख था। मनोहर या संलग्न या मालीन से युक्त कान थे, अत: वे सुशोभित थे। दोनों गाल मांसल और भरे हुए थे। भौंहे कुछ झुके हुए धनुष के ( टेडी ) सुन्दर और काले बादल की रेखा के समान पतली, काली और कांति से युक्त थी। नेत्र खिले हुए किमल के समान थे। आँखें बरौनी से युक्त धवल थीं। इस प्रकार शोभित थीं मानों कुछ भाग में पत्तों से सले हुए कमल हों। नाक गरुड़ के समान लम्बा, सीधा और ऊँचा था। संस्कारित-शिलाप्रवाल और के समान अधरोष्ठ थे। दातों की श्रेणि निष्कलंक चन्द्रकला, निर्मल से भी निर्मल शंख गाय के दूध, के फूल, जलकण और कमलनाल के समान सफेद थो। दांत अखण्ड, अजर्जर ( मजबूत ), अविरल (परहै हुए दो दांतों के बोच का अन्तर अधिक नहीं हो ऐसे ), सुस्निग्ध और सुन्दराकार थे। एक दांत की श्रेणि दांत थे। तालु और जीभ के तले अग्नि के ताप से मल रहित, जल से धोए हुए और तपे हुए सोने के समान । भगवान् को दाढ़ी-मूछे कभी न बढ़ती थो-सदा एक सी रहती और सुन्दर ढंग से छटी हुई सी राम्य थी। ( ठुड्डो ) मांसल, सुन्दशाकार, प्रशस्त और व्याघ्र को चिबुक के समान विस्तीर्ण थी। द्विीता श्रेष्ठ शंख समान ( सुन्दर ) और चार अंगुल की उत्तम प्रमाण से युक्त थी। स्कंध-खंधे श्रेष्ठ भैसे, सूअर, बाघ, प्रधान हाथी और वृषभ (खंधे ) के समान प्रमाण से युक्त सभी विशेषताओं से सम्पन्न और विशाल उनके बाहू गाड़ी के जुड़े के समान, मोट, देखने में सुखकर और दुर्बलता से रहित-पुष्ट पोंचों से युक्त थे। बाहू Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ वर्षमान जीवन-कोश का भाकाय सुन्दर था, संगत था, अतः वे विशिष्ट थे-घन, स्थिर और स्नायुओं से ठीक ढंग से बंधी हुई ( हड्डियों के जोड़) से युक्त थे । वे पूरे बाहू ऐसे दिखाई देते थे कि मानों इच्छित वस्तु को प्राप्त करने के लिए ने अपना महान देह फैलाया हो। प्रभु के हाथ के तले लाल, उन्नत, कोमल, भरे हुए, सुन्दर और शुभ लक्षा युक्त थे और अंगुलियों के बीच में छिद दिखाई नहीं देते थे। अंगुलियां पुष्ट, कोमल और श्रेष्ठ थीं। ( अंगुर नख ताम्बे के समान कुछ-कुछ लाल, पवित्र, दीप्त और स्निग्ध और रूक्षता से रहित थे। हाथ में चन्द्राकार, सूब शंखाकार, चक्राकार और दक्षिणावतं स्वस्तिकाकार रेखायें थी । इन सभी रेखामों के सुसंगम से सुशोभित थे। भगवान् का वक्ष ( = छाती, सीना ) सुवर्ण शिलातल के समान उज्ज्वल, प्रशस्त, समतल, मांसल, और घोड़ा था । उस पर 'श्रीवत्स' स्वस्तिक का चिह्न था। मांसलता के कारण पांसलियों की हड्डियां नहीं देती थीं। स्वणं कांतिसा ( सुनहरा ), निर्मल, मनोहर और रोग के पराभवसे ( = आघात से) रहित (भर का) देह था। जिसमें पूरे एक हजार आठ, श्रेष्ठ पुरुषों के लक्षण थे । उनके पाश्वं ( = बगल ) नीचे की ओर क्रमशः धेरे वाले हो गये थे, देह के प्रमाण के अनुकूल थे सुन्दर थे । उत्तम बने हुए थे, और मितमात्रिक पुष्ट-रम्य थे (वक्ष और उदर पर ) सीधे और सम रूपसे एक दूसरे से मिले हुए, प्रधान, पतले, काले, स्निग्ध, मन को वाले, सलावण्य और रमणीय रोमों की पंक्ति थी। मत्स्य और पक्षीकी सी उत्तम और दृद्ध मांसपेशियों के कुक्षि थो। मत्स्य का-सा उदर था। पावन इन्द्रिय थी या पेट के करण पावन थे। गंगा के भंवर के मन दाहिनी और घूमतो हुई तरंगों के भंगुर अर्थात् चंचल सूर्य की तेज किरणों से विकसित कमल के मध्यभाग के गम्भीर और गहन नाभि थी। त्रिदण्ड, मूशल, सार पर चढ़ाये हुए श्रेष्ठ स्वर्ण दर्पणक और खड्ग-मुष्टि के श्रेष्ठ, वयवत् क्षीण मध्य भाग था। रोग-शोकादि से रहित श्रेष्ठ अश्व और सिंह के समान घे पाली कटि थी। श्रेष्ठ घोड़े के समान अच्छी तरह बना हुआ उत्तम गृह य भाग था। जातिवान् घोड़े के समान (का ) शरीर लेप से लिप्त नहीं होता था। श्रेष्ठ हाथो के समान पराक्रम और विलास युक्त चाल थी। हाथी के समान जंघाएँ थी। गोल डिब्बे के ढक्कन के समान निमग्न और गुप्त घुटने थे। हरिणी ( की जंघा ) के और 'कुरुपिंद' नामक तृण के समान तथा सूत्र बनाने के पदार्थ के समान क्रमशः उतार सहित गोल जंघाएं ( अथवा पिंडलियाँ थीं)। सुन्दराकार, सुगठित और गुप्त पैर के मणिबंध (= टखने, थे। शुभरीति से स्पा कछुए के समान चरण थे। क्रमशः बढ़ी-घटी हुई अगुलियाँ थीं। ऊंचे उठे हुए, पतले, ताम्र वर्ण और स्निग्ध ना लाल कमल दल के समान कोमल और सुकुमार पगतलियां थीं। देहयष्टि में श्रेष्ठ पुरुषों के १००८ लक्षण थे। पर्वत, नगर, मगर, समुद्र और चक्र रूप श्रेष्ठ चिन्हों और स्तस्तिक आदि मंगल चिन्हों से अंकित कम भगवाम् का रूप विशिष्ट था। धुएं से रहित जाज्वल्यमान अग्नि फैली हुई बिजली और तरुण सूर्य किरन समान भगवान का तेज था। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वधमान जीवन-कोश ११५ भगवान ने कर्म के आत्म-प्रदेश के द्वारों को रूप दिया था। मेरेपन की बुद्धि त्याग दी थी। अतः मिनी मालिकी में कोई भी वस्तु नहीं रखी थी। भष-प्रवाह को छेद दिया था । या (परिग्रह संज्ञा के अभाव 1) शोक से रहित थे। निरुपलेप थे। प्रेम, राग, द्वेष और मोह से अतीत हो चुके थे। निम्रन्थ प्रवचन के उपदेशक, शास्ता, नायक और प्रतिष्ठायक थे । अतः साधु-संघ के स्वामी थे और इन्द के वर्द्धक ( उन्नतिकर्ता या पूर्णता की ओर ले जाने वाले ) थे। जिनवर के वचन आदि चौंतीस अतिशेष अय = तीव्र और उत्कृष्ट पुण्योदय से सर्वजन हितङ्करता की भावना से पूर्व भव में बद्ध पुण्य के उदय से होने | बिनसाधारण के लिए दुर्लभ पौद्गलिक रचनादि विशेष ) और पैंतीस सत्य-धचन के अतिशयों के पारक थे। ल्यावस्था में अध्ययन अधितअहवासजाते भगवं x x x अम्मापिऊहिं लेहायरियस्स । x x x ताहे सक्को करतल. कतंजलिपुडो पुच्छति ( उपोद्घात्पदपदार्थक्रमगुरूलाघवसमासविस्तरसंक्षेपविषयविभागपर्यायवचना क्षेपपरिहारलक्षणया व्याख्यया व्याकरणार्थं ) अकारादीण य पज्जाए भंगे गमे य पुच्छति, ताहे सामी वागरेति अणेगप्पगारं"तप्पभिति च णं एन्द्र व्याकरणं संवृत्त ते य विमिता,"तिणाणो मातोत्ति। -आव० चूर्णी पूर्व भाग पृ० २४६, ४६ । भगवान के माता-पिता ने आठ वर्ष की अवस्था होने पर वर्धमान को लेखाचार्य के पास भेजा। साह्मण विष में शक्रेन्द्र आया। उसने कुमार वर्धमान से कुछ प्रश्न पूछे-अक्षरों के पर्याय कितने हैं। उपोद्घात क्या माशेप और परिहार क्या है ? वधमान ने इन प्रश्नों के समुचित उत्तर दिये । शाला आदि में जाकर व्याकरण आदि का अध्ययन न महावीर करते हैं और न बुद्ध । महावीर एक दिन ये शाला में जाते हैं और इन्द्र के व्याकरण सम्बन्धी प्रश्नों का निरसन कर अपनी ज्ञान-गथिमा का परिचय हमारादिपर्यायतीसा य वद्धमाणे बायालीसा य परियाओ। -आव० निगा ३२१ टीका-वर्द्धमाने वर्द्धमानस्वामिनो गृहवासस्त्रिंशद्वर्षाणि, व्रतपर्यायः द्विचत्वारिंशद्वर्षाणि । वर्धमान स्वामी की गृहषास-पर्याय का कालमान तीस वर्ष का था तथा वतपर्याय अर्थात् दीक्षापर्याय का मान बयालीस वर्ष का था। मामलकी क्रीडा भगवं च पमदवणे चेडरूवेहि समं सुकलिकडएण (सं० वृक्षक्रीडया अभिरमति ।) x x x ताहे Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ वधमान जीवन-कोश . सामिणा अमूढणं वामहत्थेणं सत्ततले उच्छूढो । -आव० चू० पूर्वभाग, पृ०।। प्रमदधन में भगवान् आमलकी क्रीड़ा-खेल खेलते थे। सांप को पकड़कर एक ओर डाल दिया। तिसक खेल दो-दो बालकों के बीच यह खेल खेला जाता था। दोनों बालक लक्षित वृक्ष की ओर पड़ते। जो बालक लक्षित वृक्ष को सबसे पहले छ लेता, वह विजयी होता । विजयी पराजित पर सवार प्रस्थान स्थान पर आता। १० चक्रवर्ती की कल्पना पच्छा सामिणंदिवद्धणसुपासपमुहं सयणं आपुच्छति""ताहे सणियपज्जोयादयो कुमारा पडिय वा एस चक्कित्ति। -आव• चू० पूर्वभाग पृ० सुपाश्व, नन्दिवद्धन प्रमुख वद्ध'मान के चक्रवर्ती होने का साक्ष्य दे रहे थे। ११ भगवान् के अभिनिष्क्रमण का विचार और नंदिवईन पच्छा सामी पंदिवद्धणसुपासपमुहं सयणं आपुच्छति, समत्ता पतिन्नत्ति, ताहे ताणि बिगुणसोग भणति मा भट्टारगा, सव्वजगदपिता परमबंधू एक्कसराए चेव अणाहाणि होमुन्ति, इमेहिं कालगं तुब्भेहि विणिक्खमवन्ति खते खारं पक्खेवंता अच्छह कंचि कालं जाव अम्हे विसोगाणि जाता, -आव० चू० पूर्वभाग. पृ० नन्दिवर्धन सुपास प्रमुख वद्ध'मान के पास आकर बोले, भैया ! इधर माता-पिता का वियोग और। तुम्हारा घर से अभिनिष्क्रमण | क्या मैं इस शोक को सहन कर सकूगा। •१२ नंदिवद्धन के आग्रह पर दो वर्ष और गृहस्थावास में (क) अम्ह' परं बिहिं संवत्सरेहिं रायदेविसोगो णासिज्जति । -आव० चू० पूर्वभाग पृ० (ख) अम्ह परं बिहिं संघच्छरेहिं रायदेविसोगा णासिज्जिति। -आया० च्० पृ०॥ मंदिवर्द्धन के आग्रह पर भगबान दो वर्ष और विरक्तभाव से गृहवास में रहे । १३ साधिक दो वर्ष में विविध-नियम १ रात्रि-भोजन न करने तथा सचित्त जल न पीने को प्रतिज्ञा ताहे पडिस्सुत्तं तो णवरं अच्छामि जति अप्पच्छ देण भोयणादिकिरियं करेमि ताहे समार Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णमान जीवन - कोश ११७ अतिसयरूवंपि ताव सेकंचि कालं पसामो, एवंसयं निक्खमणकाल णच्चा अवि साहिए दुवे वासे सीतोदगमभोच्चा विखते अष्फासुगं आहारं राइभत्तं च अणाहारेतो बंभयारी असंजमवाररहितो ठिओ, ण य फासुगेणवि पहातो हाथफदसोयणं आयमणं च परं णिक्खमणमहाभिसेगे अफसुगेणं हाणितो, जय बंधवेहिवि अतिणेह कतवं । - आव० चू० पूर्वभाग / पृ० २४६ अन्न नहीं खाया, सजीव पानो नहीं केवल हस्त पाद अप्रासुक जल से धोते बंधवों पर भी अति स्नेह नहीं किया । अभिनिष्क्रमण काल को जानकर साधिक दो वर्ष वद्धमान ने सचित्त पीया और न रात्रि भोजन किया । अचित्त जल से भी स्नान नहीं किया, थे । केवल निष्क्रमणाभिषेक के अवसर पर आप्रासुक जल से स्नान किया । २ एकत्व भावना एगत्तिगतोणाम णमे कोति णाहमवि कस्सइ । मैं अकेला हूं दूसरा कोई किसी का नहीं है-ऐसी भावना का षद्ध मान चिंतन करते । * १४ जीव- सचित्त - अचित्त का ज्ञान पुढवि च आउकायं, ते कार्यं च वाडकायं च । पणगाई बीय-हरियाई, तसकायं च सव्वसो णच्चा एयाई संति पडिले, चित्तमताई से अभिण्णाय । परिवज्जिया ण विहरित्था, इति संखाए से महावीरे ॥ - आया० श्रु १ / अ ६ / उ१ गा १२, १३ / पृ० ७३ टीका - xxx । पुढविच इत्यादि इयाई इत्यादिश्लोकद्वयस्याप्ययमथं एतानि पृथिव्यादीनि चित्तमत्यभिज्ञाय तदारंभ पर विज विहरति स्म क्रियाकारक संबंधः । x x x । (यहां पृथ्वीकाय, अप्काय, ते काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय पनक-बीज - हरित) तथा त्रसकाय के भेदों का वर्णन है । ) xxx एतानि पृथिव्यादीनि भूतानि संति विद्यत इत्येवं प्रत्युपेक्ष्य तथा चित्तमन्ति सचेतनान्यभिज्ञाय ज्ञात्वा इत्येतत्संख्यावगम्य स भगवान्महावीरस्तदारंभं परिवर्ज विहृतवानिति - आया०श्रु १ / अ ६ / उ१/गा १२, १३ पृथ्वीकाय, अपूकाय, अग्निकाय, वायुकाय, पनक, बीज, हरितादि वनस्पतिकाय तथा सकाय को सबंधा - सर्व प्रकार - भेदविभेदों को जानकर, ये सभी काय अस्ति विद्यमान है - ऐसा देखकर तथा ये काय सचित्तसचेतन होती हैं इससे अभिज्ञात होकर तथा इन सभी भेद- विभेदों से, अस्तित्व से तथा सचेतनत्व से अवगम्यपरिज्ञात होकर भगवान ( इन कार्यों के आरम्भ ) का परिहार कर विहरण करते थे । XXX I - आया० चू० पृ० ३०४ '१५ दीक्षा - पर्याय X X X उसभस्स पुव्वलक्खं पुब्वं गूणमजियस्स तं चेव । सरी बितवासा दिक्खाकालो जिणिदाणं । -- आव० निगा २६४ / पूर्वार्ध, २६८ / उत्तरार्ध मलयटीका - ऋषभस्य भगवतः श्रमणपर्याय एकं पूर्वलक्षम्, XXX पार्श्वनाथस्य सप्ततिर्वर्षाणां वर्द्धमानस्वामिनो द्वाचत्वारिंशत् - xxx । ऋषभादीनां दीक्षाकालो---व्रतपर्यायः । ऋषभनाथ भगवान् की श्रमणपर्याय का कालमान एक लाख पूर्वका था । वर्धमान स्वामी की श्रमणपर्याय का कालमान बयालीस वर्ष का था । Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ वर्धमान जीवन-कोश १६ प्रथम-मिक्षा-दाता ने कैसे भिक्षा दी एए कयंजलिउडा भत्तीबहुमाणसुक्कलेसागा । तक्कालपहठ्ठमणा पडिला सु जिणवरिंदे ।। -आव० निगा ३३० पृ० २२७ मलयटीका-एते श्रेयांसप्रभतयः कृताञ्जलिपुटाः भक्तिः-उचितप्रतिपत्त्या विनयकरणं बहुमानः आन्तरः प्रीतिविशेषस्ताभ्यां शुक्ला-अतीव शोभना लेश्या-परिणामविशेषो येषां ते भक्तिबहुमानशुक्ललेश्याकाः तत्कालं-तस्मिन् प्रथमभिक्षादानकाले प्रहृष्टमनसो यथा क्रममृषभादीन् जिनवरेन्द्रान् प्रतिलाभितवन्तः प्रथम भिक्षा-दाता श्रेयांस यावत् बहुल ब्राह्मण कृतांजलि जोड़कर, विनयपूर्वक प्रीतिषश-शुक्ललेश्यापरिणाम में स्थित अवस्था में भगवान् ऋषभदेव यावत् भगवान् महावीर को भिक्षा दी। १७ जृम्भक देवों द्वारा प्रथम-पारणे में वृष्टि घुट्टच अहोदाणं दिव्वाणि य आहयाणि तूराणि। देवा य संनिवइया वसुहारा चेव वुट्ठाय ।। -आव० निगा० ३४४ पृ० २१७ मलयटीका-देवैराकाशस्थितैघुष्टं यथा-अहोदानमिति, अहोशब्दो विस्मये, अहोदानमहोदानम् अस्यायमर्थः एवं दीयते, एवं हि दत्तं भवतीति, तथा दिव्यानि तूराणि त्रिदशैराहतानि, देवाश्च तदैवसन्निपतिताः, वसुधारानिपातार्थमाकाशे जम्भकादेवाः समागताः, ततो वसुधारा वृष्टा, द्रव्यवृष्टिरभूदित्यर्थः । एवं सामान्येन पारणकालभाव्युक्तम् । सभी तीर्थकरों के दीक्षा के बाद प्रथम पारणे में देवों द्वारा आकाश में अहोदान ! अहोदानं शब्द गुजित हुआ। अभंक देवों द्वारा द्रव्य-वृष्टि हुई। १८. भगवान के छमस्थ-अवस्था का ज्ञान •१ कर्म और कर्मफल का ज्ञान(क) अदु थावरा तसत्ताए, तसजीवा य थावरत्ताए। अदु सव्वजोणिया सत्ता, कम्मुणा कप्पिया पुढोबाला ॥ भगवंच एवं मन्नेसिं, सोवहिए हु लुप्पति बाले । कम्मं च सव्वसो णच्चा, तं पडियाइक्खे पावगं भगवं ।। -आया० श्रु० १ । अ६ । उ १ । गा १४, १५ । पृ. ७३ मलयटीका-अदु थावरा इत्यादि अथानन्तर्यस्थावराः पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः ते त्रसतया द्वीन्द्रिया दितया षिपरिणमंते कर्मवशाद् गच्छन्ति च शब्द उतरापेक्षया समुच्चयार्थस्तथा त्रसजीवाश्च कृम्यादयः स्थावरतया पृथिव्यादित्वेन कमनिघ्नाः समुत्पद्यन्ते; x x x अथवा सर्वा योनयः उत्पत्तिस्यानानि येषां सत्त्वानां ते सर्व योनिकाः सत्वा सर्वगतिभाजस्ते च Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन - कोश ११६ बालारागद्वेषाकलिताः स्वकृतेन कर्मणा पृथक्तया सर्वयोनि भोक्त ेन च कल्पिता व्यवस्था - पिता इति । × × ×1 किवच भगवं च इत्यादि भगवांश्चवीरवर्द्धमान स्वाम्येवमवगम्य ज्ञातवान् सह उपधिनावर्तत इति सोपधिकः द्रव्यभावोपधियुक्तः ज्हरवधारणे लुप्यत एव कर्म्मणो क्लेशमनुभवत्येवाज्ञो बाल इति, यदि तस्मात् सोपधिकः कर्मणा लुप्यते बालस्तस्मात्कर्म च सर्वशो ज्ञात्वा तत्कर्म्म प्रत्याख्यातवांस्तदुपादानं च पापकर्मानुष्टानं भगवान् वर्द्धमानस्वामीति । कर्मों के वशीभूत होकर स्थावर जीव ( पृथ्वो- अप्-तेजस - वायु-वनस्पत्तिकाय ) सरूप में द्वीन्द्रियादि जीव रूप में उत्पन्न होते हैं तथा सजीव - कुमी आदि भी पृथ्वी आदि स्थावर रूप में उत्पन्न होते हैं । जो जीव सर्वयोनि में उत्पन्न हुए है वे जीव सर्वयोनिक कहलाते हैं तथा वे सर्वयोनिक जीव भजना से सर्वगतियों में उत्पन्न हुए हैं । बाल-अज्ञानी जीव राग-द्वेष से युक्त होकर, अपने किये हुए कर्मों के अनुसार भिन्न २ योनियों में उत्पन्न होते हैं यह योन्यान्तर का कथन कोई कल्पित नहीं है तथा व्यवस्थित नहीं भजना से होता हैं । भगवान श्री बर्द्धमान स्वामी ने स्वयमेव स्वज्ञान से यह जान लिया था कि बाल अज्ञानी जीव द्रव्य और भाव रूप उपधि के कारण कर्म से लिप्त होकर ( एक योनि से अन्य योनि में जन्म लेता हुआ ) क्लेश को पाता है । कर्मों को सब प्रकार से कर्म और कर्मफल को सर्वप्रकार - सर्वथा उपादान जानकर भगवान ने कर्म और उसके कारण पाप का प्रत्याख्यान कर दिया । '१६ वर्धमान को चतुर्थ प्रहर में केवल ज्ञान की उपलब्धि (क) उग्गं च तवोकम्मं विसेसतो वद्धमाणस्स । अन्य सब तीर्थङ्करों की अपेक्षा महावीर के तपको उग्रतप कहा गया है । (ख) वैशाखे मासि सज्योत्स्नदशम्यामपराण्हके । - उत्तपु० पर्व / ७४ / श्लो० ३५० वैशाख शुक्ला दशमी के दिन अपराह्नकाल में वर्धमान को केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ । (ग) तेबीसाए नाणं उत्पन्नं जिणवराण पुब्वण्हे । वीरस्स पच्छिमण्हे पमाणपत्ताए चरमाए । २७५ ।। - आव० निगा० २७५ मलयटीका - त्रयोविंशति (तेः) जिनवराणां तीर्थंकृतां ज्ञानमुत्पन्नं पुर्वांहे, सूरोद्गमनमुहूर्त्ते इत्यर्थः' तथा चोक्त' चुर्णौ - " तेवीसाए तिल्थगराणं सुरुग्गमणमुहुत्ते एगराइयाए पडिमाए नाणमुत्पन्न मिति, वीरस्य भगवतः अपश्चिमतीर्थकृतः पश्चिमाण्डे, तत्रापि प्रमाणप्राप्तायां चरमायां पौरुष्यामिति, अन्ये त्वभिदधति - द्वाविंशतेः पूर्वान्हे ज्ञानमुत्पन्नं मल्लिस्वामिमहावीरयोः पुनरपराण्हे इति । बीस तीर्थंकरों को पुर्खाह - सूर्य के उद्गमन के समय में केवलज्ञान उत्पन्न हुआ तथा वर्धमान को पश्चिम प्रहर - चतुर्थ प्रहर में केवलज्ञान उत्पन्न हुआ । अन्य लोगों की यह मान्यता है कि बाइस तीर्थकरों को पूर्वान्ह में केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ तथा मल्लिनाथ व महावीर स्वामी को अपरान्ह में केवलज्ञान उत्पन्न हुआ । - आव० निगा २६२ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० वर्धमान जीवन-कोश २० ज्ञान-कल्याणक •१ देवों द्वारा महोत्सव(क) विज्ञायाऽऽसनकंपेन केवलज्ञानमीशितुः। इन्द्राः सह सुरैस्तत्र समाजग्मुः प्रमोदिनः ।। ५ ।। केऽप्युत्पेतुः केपि पेतुर्ननृतुः केऽपि केऽपि च । जहसुः केपि च जगुबूच्चक्र: केपि सिंहवत् ।। ६ ।। केऽप्यश्ववदहेषन्त बहुः केऽपि हस्तिवत् । रथवत् केऽपि चीच्चक्र : पूच्चक : केऽपि नागवत् ॥ ७ ॥ स्वामिनः केवलोत्पत्या हृष्टात्यानोऽपरेऽपि हि । चतुर्विधा दिविषदो विविधं विचिचेष्टिरे ॥ ८ ॥ -त्रिशलाका० पर्व १०/सर्ग ५ जब भगवान् महावीर को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ तब इन्द्रों के आसन कंपित हुए । भगवान् को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है -ऐसा जानकर देवों के साथ हर्ष को प्राप्त कर वहां आये । उस अवसर पर कतिपय देवगण नाचने लगे,कतिपय कुदने लगे, कतिपय हंसने लगे, कतिपय गाना गाने लगे । कतिपय देव सिंह की तरह गर्जने लगे । कतिपयदेव अश्व की तरह हेषारव करने लगे। कतिपय देव हस्ति की तरह नाद करने लगे, कतिपय रथ की तरह चोरकार करने लगे, कोई सर्प की तरह पुकार मारने लगे। अस्तु भगवान को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है अत: केवल ज्ञान से हर्ष को प्राप्त हुए चारों निकाय के देव अभ्य भी विविध चेष्टा करने लगे। (ख) इति भगवति वृत्तान्निर्जितारौ तदैव नभसि जयनिनादो देवसंधैर्जजम्भे । सुरपटहरवौघ रुदमासीत्खलोकं भुवनपतिविमानेच्छादितं यात्रयास्य ॥ १३३ ।। धनकुसुमवृष्टिश्चापतत्खात्सुरेन्द्राः असमपरमभक्त याश्रीपति प्राणमंस्तम् । विगतमलविकाराः संबंभूबुर्दिशोऽष्टौ गगनममलमासीत् केवलश्रीप्रभावात् ।। १३४ ॥ मृदुशिशिरतरोऽस्मान्मातरिश्वा ववौ च सकलसुरपतीनां कम्पिरे विष्टराणि।। समवसरणभूतिं यक्षराडाशु चक्र ह्यसमगुणनिधे श्रीवर्धमानस्य भक्त्या ॥ १३५ ॥ -वीरवर्धच० अधि १३ इस प्रकार चारित्र के प्रभाव से भगवान् के कर्मशत्रु ओं के बीत लेने पर आकाश में उसी समय देषसमूह के द्वारा जय-जयकार शब्द हो गया। तथा देव-दुन्दुभियों के शब्दों से आकाश व्याप्त हो गया। भगवान की दर्शनयनत्रार्थ आने वाले भुवनपत्ति देवों के विमानों से आकाश अच्छादित हो गया। केवल लक्ष्मी के प्रभाव से आकाश में सघनपुष्प-वृष्टि होने लगी। और देवेन्द्रों ने बाकर उन श्रीपति महावीर जिनेन्द्र को अनुपम परम भक्ति से नमस्कार किया। उस समय पाठों ही दिशाएँ मल-विकार से रहित (निर्मल ) हो गयी धौर आकाश भी निर्मल हो गया। उस समय मृदु शीतल समीच मन्द-मन्द बहने लगी और सभी देवन्द्रों के आसन कम्पायमान हुए। तभो यक्षराज ने आकर अनंत गुणों के निधान श्री वर्धमान जिनेन्द्र को भक्ति सकवसरण की रचना की। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन - कोश ल ज्ञानोत्पत्ति के समय आसनकंपन सुवणस्स ताहे अइसयकोडीय हो दिपक्खोहो । सोहम्मपहुदिई दाण आसणाइ पि कंपंति ||७०६ || -तिलोप• अधि ४ केवलज्ञान उत्पन्न होने पर तीनों लोकों में अतिशय क्षोभ उत्पन्न होता है और सौधर्मादि इन्द्रों के आसन मान होते हैं । वर्धमान की अंतक्रिया और परिनिर्वाण अहं च णं इमीसे ओसप्पिणाए चडवीसाए तित्थंकराणं चरिमे तिस्थंकरे सिज्झिरस जावअंत करेस्सं ति -भग० श १५. इस अवसर्पिणी काल में ऋषभदेव यावत् चरम तीर्थ कय- वर्धमान सिद्ध हुए, बुद्ध हुए यावत् अंतक्रिया की । भगवान् महावीर के पर्यायवाची नाम महामाहण XXX सद्दालपुत्तं समणोवासयं एवं वयासी - आगए णं देवाणुपिया ! इहं महामाहणे ? तणं से सद्दालपुत्त समणोवासए गोसालं मंखलिपुत्त एवं वयासी - के णं देवाणु पिया ! महामाहणे ? तए णं से गोसाले मंखलिपुत्त सद्दालपुत्त' समणोवासयं एवं वयासी समणे भगवं महावीरे महामाहणे ! से केणडणं देवाणुप्पिया ! एवं वुच्चइ - समणे भगवं महावीरे महामाहणे ? एवं खलु सद्दालपुत्ता ! समणे भगवं महावीरे महासमणे उप्पण्णणाणदंसणघरे जाव महियपूइए, जाव तच्चकम्मसम्पया संपत्त े से तेणटुणं देवाणुप्पिया ! एवं वुच्चइ समणे भगव महावीरे महामाहणे । १२१ · - उवा० अ ७ / सू ४४ से ४६ श्रमण भगवान् महावीर - महामाहण है; क्योंकि उत्पन्न हुए ज्ञान-दर्शन को धारण करने वाले याचत -स्तुति कराये हुए और पूजित है यावत् तथ्य कर्म की संपत्ति से युक्त है । महागोप आगए णं देवाण पिया ! इहं महागोवे ? के देवाणुप्पिया । महागोवे ? समणे भगवं महावीरे महागोवे । से ग ेणं देवाणुपिया | जाव महागोवे ? एवं खलु देवाणुपिया । समणे भगवं महावीरे संसाराडवीए बहवे जीवे नस्समाणे विणस्समाणे खज्जमाणे छिज्जमाणे भिज्जमाणे लुप्पमाणे विलुप्पमाणे धम्ममरणं दंडेण सारक्खमाणे संगोवेमाणे निव्वाणमहावाडं साहस्थिं संपावेइ, से तेण सद्दालपुत्ता ! एवं वुच्चइ - समणे भगवं महावीरे महागोवे | - उवा० अ । सू ४६ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णमान जीवन कोश श्रमण भगवान् महावीय महागोप है; क्योंकि श्रमण भगवान् महावीय संसाराटची में नाश को हुए, विनाश को प्राप्त होते हुए, भक्षण करते हुए, छेदाते हुए, भेदाते हुए, लुप्त होते हुए बहुत से जीवों को (ग्रा तरह ) धर्म रूप दण्ड से संरक्षण करते हुए, संगोपन करते हुए निर्वाण रूप महाटवी में स्वयं के हाथ से पहुंचा देते विवेचन - महागोप - अर्थात् गोप-गाय का रक्षक और अन्य गाय की रक्षा करने की अपेक्षा विशिष्ट होने के कारण महान् है अतः महागोप है । १२२ ३ महासार्थवाह आगए देवाण पिया ! इह महासत्थवाहे ? के देवाण पिया ! महासत्यवाहे ? सद्दा समणे भगवं महावीरे महासत्थवाहे, से केण ेणं ? एवं खलु देवाणुप्पिया । समणे भगवं मह संसाराडवीए बहवे जीवेनस्समाणेविणस्समाणे जाव विलुप्पमाणे धम्ममएणं पन्थेणं सारक् निव्वाणमहापट्टणाभिमुहे साहत्थिं संपावेइ, से तेणटुणं सद्दालपुत्ता । एवं वुच्चइ- समणे महावीरे महासत्थवाहे । - उवा० अ० ७/ श्रमण भगवान् महावीय महासार्थवाह है; क्योंकि श्रमण भगवान् महावीर संसाराटवी में नाश को होते हुए, विनाश को प्राप्त होते हुए यावत् विलुप्त होते हुए बहुत से जीवों को धर्ममय मार्ग से संरक्षण करते निर्वाण रूप महापट्टण - नगर के सन्मुख स्वयं के हाथ से पहुंचाते हैं । ४ महाधर्मकथ आगएणं देवाणुपिया । इह महाधम्मकही ? केणं देवाणुपिया । महाधम्मकही ? समणे महावीरे महाधम्मकही। से केणं णं xxx समणे भगवं महावीरे महाधम्मकही ? एवं खलु दे पिया । समणे भगवं महावीरे महइमहालयंसि संसारंसि बहवे जीवे नस्समाणे विणस्समाणे माणे छिज्जमाणे भिज्जमाणे लुप्पमाणे विलुप्पमाणे उम्मग्गपडिवणे सप्पहविप्पण्टु मि लाभिभू अहिम्मतम पडलपडोच्छ बहूहिं अट्ठहिय जाव वागरणेहि य चाउरन्ताओ सं कन्ताराओ साहस्थि निस्थारेइ, से तेणटुणं देवाणुपिया ! एवं वुच्चइ - समणे भगवं महावीरे धमकी | - उवा० अ० / श्रमण भगवान् महावीर महाघमंकथी है; क्योंकि वास्तव में श्रमण भगवान् महावीर अत्यंत मोटे में नाश को प्राप्त होते हुए, विनाश को प्राप्त होते हुए, भक्षण कराते हुए, छेदाते हुए, भेदाते हुए, लुप्त हुए, हुए उन्मार्ग को प्राप्त हुए, सन्मार्ग से भूले हुए, मिध्यात्व के बल से पराभव को प्राप्त हुए और आठ प्रकार के रूप अंधकार के समूह से ढके हुए बहुत जीवों को बहुत अर्थों, यावत् व्याकरण - उत्तर से चार गति रूप संस टवी से स्वयं के हाथ से पार उतारते हैं । इस प्रकार से हे देवानुप्रिय श्रमण भगवान् महावीर महाधर्मकथी है। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन कोश १२३ मुनिर्यामक मागए णं देवाणुप्पिया ! इह महानिज्जामए ? केणं देवाणुप्पिया । महानिज्जामए ? समणे भगवं हावीरे महानिजामए । से केण?णं ? एवं खलु देवाणुप्पिया। समणे भगवं महावीरे संसारमहासमुद्दे बहवे जीवे नस्समाणे विणस्समाणे जावविलुप्पमाणे बुडमाण निबुडमाणे उप्पियमाणे अम्मईए नावाए निव्वाणतीराभिमुहे साहत्थिं सम्पावेइ, से तेणणं देवाणुप्पिया! एवं वुच्चइसमणे भगवं महावीरे महानिजामए ।। -उवा० अ ७ । सू ४६ श्रमण भगवान् महावीर महानिर्यामक हैं; क्योंकि श्रमण भगवान् महावीर संसार रूप महासमुद्र में नाशको होते हुए, विनाश को प्राप्त होते हुए यावत् विलुप्त होते हुए, बुडते हुए, अत्यन्त बुडते हुए 'उप्पियमाण गोथा हत जीवों को धर्म बुद्धिरूप नौका से निर्वाण रूप तीर के सन्मुख स्वयं के हाथ से पहुंचाते हैं -इस कारण गवान् महावीर को महानिर्यामक कहा है। मंगल और तप शन्दों में वर्धमान बढमाणक ( वर्द्धमानक) आठ मंगल में से एक मंगल का नाम । अट्ठमंगलया पुरओ अहाणुपुठवीए संपढ़िया । तंजहा -सोवस्थिय १, सिरिवच्छ २, णंदियावत्त ३ बदमाणक ४, भद्दासण ५, कलस ६, मच्छ ७, दप्पणया ८। -ओव० सू ६४ भाठ मंगल के नाम इस प्रकार हैं- १- स्वस्तिक, २-श्रीवत्स, ३-नन्याधत्तं, ४-बद्ध मानक, द्वाप्सन, ६- फलश, ७-मत्स्य और ८-दर्पण । आयंबिलवद्धमाणं (आयंबिल वर्द्धमान) (भगवओ महावीरस्स अंतेवासी निग्गंथा ) भदंपडिम महाभद्दपडिमं सव्व ओभद्दपडिमं आयंबिलवद्धमाणं तवोकम्म पडिवण्णा ।-ओव०स २४ । भगवान महावीर के बहुत से निग्रन्थ भद्र प्रतिमा, महाभद्र प्रतिमा, सर्वतोभद्र प्रतिमा और आयम्बिल न तपः कर्म करनेवाले थे। तीर्थप्रवर्तन काल ाि सया अडहत्तरिजुत्ता वासाण पासणाहस्स, इगिवीससहस्साणि दुदाल वीरस्स सो कालो। -तिलोप० अधि ४/गा १२७४ । वीर भगवान् का तीर्थकाल इक्कीस हजार व्यालीस वर्ष प्रमाण है। वर्धमान के समय चारित्र पञ्चक्खाणमिणं संजमो य पढमंतिमाण दुविगप्पो। सेसाणं सामइतो सत्तरसंगो अ सव्वेसि ॥ -आव० निगा-२५६ मलयटीका-संयमोऽपि-सामायिकादिरूपा प्रथमान्तिमजिनयोढिविकल्पः, इखरं सामायिक दोपस्थानीयं चेत्यर्थः, शेषाणां-मध्यमामा द्वाविंशतितीर्थकृता यावत्कधिकमेवैक सामायिक, न शेषं Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ वर्धमान जोवन-कोश छेदोपस्थापनादि, तथाकल्पत्वात्, सप्तदशाङ्गः - सप्तदशभेदः पुनः, चः पुनरर्थे, सर्वेषां तीर्थकृता भूत् । संयम का अर्थ सामायिक रूप होता है। प्रथम तथा अंतिम तीर्थकर ( ऋषभदेव-धद्धमान ) के शासन दो प्रकार का विकल्प था-१. इत्वरिक सामायिक चारित्र रूप तथा छेदोपस्थापनीय चारित्र रूप । मध्यम न तीर्थ करों के शासन में यावत्कथिकम् सामायिक चारित्र होता है किन्तु छेदोपस्थापनीय चारित्र नहीं होता। २ हिंसादिपंचपापानां सामस्त्येन च सर्वदा । त्यजनं यस्त्रिगुप्त्यापंचधा समितिपालनैः ॥ १६ चारित्र व्यवहाराख्यं भुक्तिमुक्तिनिबंधनम् । तज्ज्ञ यं शर्मद सारं कर्मागमनिरोधकम् ॥१॥ चारित्रण विना जातु तपोऽङ्गक्लेशकोटिभिः। कर्मणां संवरः कतुं शक्यते न जिनैरपि ॥२ संवरेण बिना मुक्ति कुतो मुक्त विना सुखम् । कथं च जायते पुसां शाश्वतं परमं यतः ॥ २१ -वीरवर्धच० अधि १८/श्लो १८ से हिंसादि पाँच पापों का समस्त रूप से, अर्थात् कृत, कारित और अनुमोदना से सर्वदा के लिए त्रियोग शुद्धिपूर्वक तीन गुप्ति और पाँच समिति के परिपालन के साथ त्याग करना व्यवहार चारित्र है, यह भक्ति ( सांसा भोगसुख) और मुक्ति का कारण है। इसे ही कर्मों के भास्रव का रोकने वाला और सारभूत सुख का देनेवाला बा चाहिए। औरों की तो बात ही क्या है, तीर्थङ्कर भी चारित्र के बिना शरीर को कष्ट देने वाले कोटि-कोटि तपों द्वारा कर्मों का संवर नहीं कर सकते हैं। संधर के बिना मुक्ति कैसे प्राप्त हो सकती है और कर्मों से मुक्त हुए कि जीवों को शाश्वत स्थायी परम सुख कैसे प्राप्त हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता। २६ भगवान् महावीर और दीपालिका ततस्तु लोकः प्रतिवर्षमादरात् प्रसिद्धदीपालिकयात्र भारते। समुद्यतः - पूजयितु जिनेश्वरं जिनेन्द्रनिर्वाणविभूतिभक्तिभाक् ॥ -हरिवंशपुराण ६६ भगवान् महावीर के निर्वाण के उपलक्ष्य में भारत में प्रतिवर्ष लोगों के द्वारा दीपालिका पर्व मना जाता है। '२७ वर्धमान-महावीर भगवान् की स्तुति •१ सूयगडो (सूत्रकृतांग सूत्र ) से (क) पुच्छिसु णं समणा माहणा य, अगारिणो यापरतिस्थिआ य । से के 'इमं णितियं धम्ममाहु अणेलिसं ? साहुसमिक्खयाए ॥१॥ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ वर्धमान जीवन-कोश कह व णाणं ? कहं दंसणं से ? सीलंकह णायसुयस्स आसी ? जाणासि णं भिक्खु जहातहेणं, अहासुयं ब्रूहि जहा णिसंतं ॥२॥ खेय ए से कुसले मेहावी, अणंतणाणी य अणंतदसी। जसंसिगो चक्खुपहे ठियस्स, जाणाहि धम्मं च धिइंच पेह ॥ ३ ॥ -सूय०/श्रु १/अ ६/गा १ से ३/ पृष्ठ ३०१ टोका-सः भगवान् चतुस्त्रिंशदतिशयसमेतः खेदः – संसारान्तर्वतिनां प्राणिन कर्मविपाकर्ज दुःखं जानातीति खेदज्ञो दुःखापनोदनसमर्थोपदेशदानात् , यदिवा 'क्षेत्रज्ञो' यथावस्थितात्मस्वरूपपरिज्ञानादात्मज्ञ इति, अथवा-क्षेत्रम्-आकाशं तज्जानातीति क्षेत्रज्ञो लोकालोकस्वरूपपरिज्ञातेत्यर्थः, तथा भावकुशान् - अष्टविधकर्मरूपान् लुनातिछिनतीति कुशलः प्राणिनां कर्मोच्छित्तयेनिपुण इत्यर्थः, आशु-शीघ्र प्रज्ञा यस्यसावाशुप्रज्ञः, सर्वत्र सदोपयोगाद्, न छद्मस्थ इव विचिन्त्य जानातीति भावः महर्षिरिति क्वचित्पाठः, महाश्चासावृषिश्च महर्षिः अत्यन्तोग्रतपश्चरणानुष्ठायित्वादतुलपरीषहोपसर्गसहनाच्चेति, तथा अनन्तम् - अविनाश्यनन्तपदार्थपरिच्छेदकं वा ज्ञान-विशेषग्राहकं यस्यासावनन्तज्ञानी, एवं सामान्यार्थ परिच्छेदकत्वेनानन्तदर्शी, तदेवम्भूतस्य भगवतो यशोनृसुरासुराति शाय्यतुलं विद्यते यस्य स यशस्वी तस्य, लोगस्य 'चक्षुःपथे' लोचनमार्गे भवस्थकेवल्यवस्थायां स्थितस्य, लोकानां सूक्ष्मव्यवहितपदार्थाविर्भावनेन चक्षुर्भूतस्य वा 'जानीहि' अवगच्छ 'धर्म' संसारोद्धरणस्वभावं, तत्प्रणीतं वा श्रुतचारित्राख्यं, तथा तस्यैव भगवतस्तथोपसगितस्यापि निष्प्रकम्पाचारित्राचलन स्वभावां 'धृति' संयमे रति तत्प्रणीतां वा 'प्रेक्षस्व' सम्मक्कुशाग्रीयया बुद्ध्या पर्यालोचयेति, यदिवा-तैरेव श्रमणादिभिः सुधर्मस्वाम्यभिहितो यथात्वं तस्य भगवतो यशस्विनश्चक्षुष्पथे व्यवस्थितस्य धर्म धृति च जानीषे ततोऽस्माकं 'पेहि' त्ति कथयेति । नरक के दुःखों को सुनकरा- संसार के भय से भयभीत बने हुए श्रमण, ब्राह्मण, गृहस्थ और परतीथिकसुधर्मा स्वामी को पूछते थे कि यह एकांत हित को करने वाला प्रधान धर्म-साधु-समीक्षा से किसने कहा है श्री वीर प्रभु का ज्ञान, दर्शन और यम-नियम रूप शील कैसा था ? हे स्वामिन् ! जो जो मैंने पूछा है उसे आप यथातथ्य जानते हो-इसलिये जैसा आपने सुना तथा अवधारण किया-वैसा कहो । ऐसा पूछने पर सुधर्मास्वामी वीर प्रभु के गुण का वर्णन करते हैं ॥२॥ श्री महावीर प्रभु-संसारी जीवों को कर्मों से उत्पन्न हुआ जो खेद-उसके जानने वाले, महर्षि कुशल, अनंत ज्ञानी और अनंत दर्शी थे। ऐसे यशस्वी केवलज्ञानी के धर्म को तुम जानो; वैसे ही उनकी घृति को देखो।(ख) 'उड्ड' अहेयं' तिरिय दिसासु, तसा य जे थावर जे य पागा। 'सेणिच्चणिच्चेहि' समिक्खपण्णे, 'दीवे व धम्म समियं उदाहु ।। -सूय० ८ १/ अ ६/ गा ४/ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ वर्धमान जीवन-कोश टीका-xxx। स भगवांस्तान् प्राणिनः प्रकर्षण केवलज्ञानित्वात् जानातीतिप्रज्ञः स एव प्राज्ञो, नित्यानित्याभ्यां द्रव्यार्थपर्यायार्थाश्रयणात् 'समीक्ष्य' केवलज्ञानेनार्थान परिज्ञाय प्रज्ञापनायोग्यानाहेत्युत्तरेण संबंधः, तथा स प्राणिनां पदार्थाविर्भावनेन दीपवत् दीपः यदिवा-संसारार्णवपतितानां सदुपदेशप्रदानत आश्वासहेतुत्वात् द्वीप इव द्वीपः स एवम्भूतः संसारोत्तारणसमर्थ 'धर्मः' श्रुतचारि. बाख्यं सम्यक् इतं-गतं सदनुष्ठानतया रागद्वेषरहितत्वेन समतया वा, तथा चोक्तम्-"जहापुण्णस्स कथइतहा तुच्छस्स कत्थई" इत्यादि समंवा धर्मम्उत्-प्राबल्येन आह-उक्तवान् प्राणिनामनुग्रहार्थं न पूजासत्कारार्थमिति । ऊर्ध्व, अधो और तिर्यक् दिशा में त्रस और स्थावर प्राणी रहे हुए है उनको सम्यग् जानने वाले श्री महावीर देवने नित्य, अनित्य, द्रव्य, पर्यायादि भेदों से दीपक-द्वीप समान समता धर्मे कहा है। (ग) से सव्वदसी अभिभूयणाणी, पिरामगंधे धिइमं ठियप्पा । अणुत्तरे सव्वजगसि विज्ज, गंथा अतोते अभए अणाऊ॥ -सूय० श्रु १ । अ६ । गा ५। पृ० ३०१ टीका-'स' भगवान् सर्व-जगत् चराचरं सामान्येन द्रष्टुशीलमस्य स सर्वदर्शी, तथा अभिभूय पराजित्य मत्यादीनि चत्वार्यपि ज्ञानानि यद्वर्तते ज्ञानं केवलाख्यं तेन ज्ञानेन ज्ञानी । xxx | श्री पीय प्रभु-सवं लोक के देखने वाले, बावीस परीपह के सम्मुख हो--उनको जीतकर केवल ज्ञानी बने । मूल और उत्तम गुणों को विशुद्ध पालने वाले, धैर्यवंत, स्थिरात्मा, प्रधान, सर्वजगत में निरुपम ज्ञाता, बाह्याभ्यंतर प्रन्थि से रहित, सप्त प्रकार के भय से रहित तथा आयुकम से रहित थे। (घ) से भूइपण्णे अणिएयचारी, ओहंतरे धीरे अणंतचक्खू। अणुत्तरं तवति सूरिए वा, वइरोयणिदे व तमं पगासे ॥ -सूय• श्र• १ । अ६ । गा ६ । पृ० ३०१ टीका-xxx । यथा-सूर्यः 'अनुत्तर' सर्वाधिकं तपतिन तस्मादधिकस्तापेन कश्चिदस्ति,एवमसावपि भगवान् ज्ञानेन सर्वोत्तम इति, तथा 'वेरोचनः' अग्निः स एव प्रज्वलितत्वात् इन्द्रो यथाऽसौ तमोऽपनीय प्रकाशयति, एवमसावपि भगवानज्ञानतमोऽपनीय यथावस्थितपदार्थप्रकाशनं करोति । वीर प्रभु-भूतिप्रज्ञ अर्थात् अनंत ज्ञानी तथा अप्रतिबंध बिहारी थे, भवोध तीरने वाले, धीर ज्ञान रूप चक्षु के धारक थे। -जैसे सूर्य सबसे अधिक तपता है-वैसे ही भगवान् ज्ञान करके उत्तम थे। जेसे अग्नि अन्धकार को नाशकर अधिक प्रकाश करती है वैसे ही महावोश-यथावस्थित पदार्थ के प्रकाशक थे।(च) अणुत्तरं धम्ममिणं जिणाणं, णेता मुणी कासवे आसुपण्णे इंदेव देवाण महाणुभावे, सहस्सणेता 'दिविणविसिह' ॥ -सूय० शु. १ । अ६ । गा ७ । पृ० ३०२ टीका-नास्योत्तरोऽस्तीत्यनुत्तरस्तभिममनुत्तरं धर्म 'जिनानाम्' ऋषभादितीर्थकृतां संबंधिनमयं मुनिः श्रीमान वर्धमानाख्यं 'काश्यपः' गोत्रोण 'आशुप्रज्ञः, केवलज्ञानी उत्पन्नदिव्यज्ञानो 'नेता' प्रणेतेति, xxx। यथा चेन्द्रो 'दिवि' स्वर्ग देवसहस्राणां 'महानुभावो' महाप्रभाववान् xxx तथा 'नेता' प्रणायको 'विशिष्टो' रूपबलवर्णादिभिः प्रधान एवं भगवानपि सर्वभ्यो विशिष्टः प्रणायको महानुभावश्चेति । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन - कोश १२७ श्री काश्यप गोत्रीय केवल ज्ञानी महावीर श्री ऋषमदेव स्वामी से प्ररूपित प्रधान धर्म के नेता थे। जैसे इन्द्र सहस्त्रों देवों का नायक तथा महा प्रभावान् देवों में प्रधान है वैसे ही श्री महावीर प्रभु सहस्र मनुष्यों में इन्द्र के सम्मान महानुभावबाले थे । (छ) से पण्णया अक्खयसागरेवा, महोदही वावि अनंतपारे । अणाइले या अक्साइ मुक्के सक्के व देवाहिवई जुईमं ॥ - सूय० श्रु १ / अ ६ / गा ८ / पृ० ३०२ टीका - असौ भगवान् प्रज्ञायतेऽनयेति प्रज्ञा तया 'अक्षयः' न तस्य ज्ञातव्येऽर्थे बुद्धिः प्रतिक्षीयते प्रतिहन्यते वा तस्य हि बुद्धिः केवलज्ञानाख्या | xxx । यथा 'सागर' इति, अस्यचाविशिष्टत्वात् विशेषणमाह - 'महोदधिरिव' स्वयंभूरमण इवानन्तपारः यथाऽसौ विस्तीर्णो गंभीरजलोऽक्षोभ्यश्च एवं तस्यापि भगवतो विस्तीर्णा प्रज्ञा स्वयम्भूरमणनन्तगुणा गम्भीराऽक्षोभ्या च x x x सत्यपि निःशेषान्तक्ष सर्वलोक च तथापि भिक्षामात्र - जीवित्वात् भिक्षुरेवासौ, नाक्षीणमहानसादिलब्धिमुपजीवतीति, तथा शक्र इव देवाधिपतिः 'द्य तिमान्' दीप्तिमानिति श्री वीर प्रभु का ज्ञान विस्तीर्ण जलवाला स्वयंभूरमण समुद्ध के समान अक्षय प्रज्ञा वाला था वैसे ही भगवान् कालुष्यता रहित थे । ( अकषायी होने पर भिक्षा से आजीविका करने वाले थे ।) जैसे देवों का स्वामी शकेन्द्र दीप्तिमान है वैसे ही श्री वीरप्रभु दीप्तिवान् थे । सेatfreणं पडिपुण्णवीरिए, सुदंसणे वा नगसव्वसे । सुराल' वावि मुदारे से, विरायए णेगगुणोववे || (ar) - सूय० श्र० १ / ६ /गा ६ टीका - 'स' भगवान 'वीर्येण' औरसेन बलेन धृतिसंहनादिभिश्च वीर्यान्तरायस्य निःशेषतः क्षयात् प्रतिपूर्णवीर्यः, तथा 'सुदर्शनो' मेरुर्जम्बूद्वीपनाभिभूतः स यथा नगानां - - पर्वतानां सर्वेषां श्रेष्ठः-प्रधानः तथा भगवानपि वीर्येणान्यैश्च गुणैः सर्वश्रेष्ठ इति । जैसे सुदर्शन (मेरु) पर्वत सर्व पर्वतों में श्रेष्ठ है और देवलोक के देवों को वह पर्वत आनन्द करने वाला है और भी ऐसे अनेक गुणों से सहित है— वैसे हो श्री वोरप्रभु वीर्यान्तराय कर्म के क्षय से प्रतिपूर्ण वीर्यवान् थे अर्थात् संहननादि में बलवान थे । (झ) सयं सहस्साण उजोयणाणं, तिकंडगे पंडगवेजयंते । से जो उति सहस्से, उद्धस्सिए हेट्ठ सहरसमेगं ॥ १० ॥ पुट्ठेभे चिट्ठ भूमिवट्ठिए, जं सूरिया अणुपविट्टति । से मवणे बहुणंदणे य, जंसी रई वेययई महिंदा ॥ ११ ॥ से पव्व सहमहापगासे, विरायती कंच अणुत्तरे गिरिसु य पव्वदुग्गे, गिरोवरे से जलिए व भोमे ॥ १२ ॥ मही मज्झमि ठिए णगिदे, पण्णायते सूरियसुद्धले से । एवं सिरिए उ स भूरित्रण्णे, मणोरमे 'जोयति अश्चिमाली ।। १३ ।। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ वर्धमान जीवन-कोश सुदंसणस्सेस जसो गिरिस्स, पच्चती महतो पव्वतस्स । एतोवमे समणे णातपुत्ते, जाती-जसो-दसण-णाण-सीले ॥ १४ ।। -सूय० श्रु १ / अ ६/गा १० से १४ पृ० ३०३ मेरुपर्वत सब मिलाकर एक लाख योजन का है। उसके तीन काण्ड है-~१. भूमिमय, २ सुवर्णमय और ३. पैडूर्य मणि । उसमें पंडगवन ध्वजा के समान शोभित होता है । वह मेरुपवंत निनानवें हजार योजन ऊंचा है और नीचे एक सहस्त्र योजन है ।। १० ।। मेरुपर्वत पृथ्वी से लगाकर आकाश को अड़ककर रहा हुआ है। उसके चारों ओर ११२१ योजन के अंतर पर सूर्य प्रमुख ज्योतिषी देव परिभ्रमण कर रहे हैं। वह मेरुपर्वत सुवर्णमय है और उसमें चार घन स्थित हैं अर्थात् भ मितल में भद्रशाल वन है-उससे पांच सो योजन ऊपर नन्दनधन है । उससे ६२५०० योजन ऊपर सोमनसवन है और उससे ३६००० योजन ऊपर शिखर पर पंडगवन है। वहां पर देवेन्द्र क्रीड़ा करने के लिए आते हैं और रतिसुख भोगते हैं। और भी वह पर्वत मन्दर, मेरु, सुदर्शन, सुरगिरि इत्यादि नामों से प्रसिद्ध होता हुआ शोभायमान है तथा सुषणं के समान देदीप्ययान सुकुमाल है- उसमें प्रधान मेखला रही हुई हैं जिससे सामान्य जीवको चढ़ने में बड़ा विषम है और अच्छी मणि और औषधियों से देदीप्यमान भूमी के समान है ॥ १२ ॥ यह नगेन्द्र [ मेरु पर्वत ] पृथ्वी के मध्यभाग में स्थित है और सूर्य के समान कांतिवान् है। वैसे ही लक्ष्मी से सुमेरू पर्वत अनेक वर्णवाला और मन को आनन्द देने वाला है तथा जैसे सूर्य सब दिशा में प्रकाश करता है वेसे ही वह पर्वत दशों दिशाओं को प्रकाशमान करता है ॥ १३ ॥ सुदर्शन, सुमेरु आदि नामों ये प्रसिद्ध महान् मेरु पर्वत का यश जैसे कहते है वैसे ही ज्ञातपुत्र श्री वोरप्रभु जाति, यश, दर्शन, ज्ञान और शील करके समस्त धर्ममार्ग के प्रकाशकों में प्रधान थे ॥ १४॥ ब) गिरिवरे वा णिसढायताणं, रुयगे व से? वलयायताणं । ततोवमे से जगभूतिपण्णे, मुणीण 'मज्झे तमुदाहु' पण ॥ --सूय० श्रु १ / अ६ / गा १५ । पृ० ३०२ टोका-xxx। यथा तावाय तवृतताभ्यां श्रष्टौ एवं भगवानपि जगति-संसारे भूतिप्रज्ञःप्रभूतज्ञानः प्रज्ञया श्रेष्ठ इत्यर्थः तथा अपर मुनीना मध्ये प्रकर्षण जानातीति प्रज्ञः एवं तत्स्वरूपविदः 'उदाहुः' उदाहृतवंत उक्तवंत इत्यर्थः । जैसे समस्त पर्वतों की लम्बाई में निषेध पर्वत श्रेष्ठ है और वतु'लाकार में हचक नामक पर्वत श्रेष्ठ है वैसे ही सर्व जगत में महावीर प्रभु प्रज्ञा से श्रेष्ठ है और समस्त मुनियों में तत्व स्वरूप जानने में अत्यन्त ज्ञानवान् जानना । (ट) अणुत्तरं धम्ममुदीरइत्ता, अणुत्तरं झाणवरंझियाई । सुसुक्कसुक्कं अपगंडसुक्कं, संखेंदुवेगंतवदातसुक्कं ।। -सूय० श्रु१/ अ६ / गा १६ / पृ० ३०३ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जोवन-कोश १२६ टीका-xxx। ‘अनुत्तरं प्रधान ध्यानवरं' ध्यानश्रेष्ठ ध्यायति, तथाहि-उत्पन्नज्ञानो भगवान् योगनिरोधकाले सूक्ष्म काययोगं निरुन्धन् शुक्लध्यानस्य तृतीयं भेदं सूक्ष्म क्रियमप्रतिपाताख्यं तथा निरुद्धयोगश्चतुर्थ शुक्लध्यानभेदं व्युपरतक्रियमनिवृत्ताख्यं ध्यायति, xxx शुक्लं-शुक्लध्यानोत्तरं भेदद्वयं ध्यायति । श्री महावीर प्रभु सर्वोत्तम धर्म को प्ररुपित कर सर्वोत्तम शुक्लध्यान ध्याते थे। वह शुक्लध्यान श्रेष्ठ-शुक्ल तु के समान सफेद दोष रहित-सुवर्ण के समान प्रकाशमान, जल के फेन के समान उपलब, शंख और चन्द्र के समान त अवदांत ( स्वच्छ ) शुक्लध्यान है। भगवान् महावीर योगनिरोधकाल में सूक्ष्मकाययोग के निरोध के समय में शुक्लध्यान का तीसरा भेद -क्रिया-अप्रतिपाति नामक शुक्ल ध्यान ध्याते थे। योग निरोध होने के बाद शुक्लष्यान का चतुर्थ भेद-न्युपरातक्रियाअनिवृति ध्यान व्याते थे । अणुत्तरगं परमं महेसी, असेसकम्मं स विसोहइत्ता। सिद्धि गति साइमणंत पत्ते, गाणेण सीलेण य दंसणेण ।। -सूय० श्रु १ / अ६ / गा० १७ समस्त ज्ञानावरणीय कर्म आदि अष्ट कर्मों का क्षय कर महर्षि महावीर प्रभु ज्ञान, दर्शन और शील नवाचार ) से सर्वोत्तम और लोक के अग्रभाग में स्थित आदि-अंत-रहित मुक्ति में गये । ४) 'रुक्खेसु णाते जह सामली वा, जंसी रति वेययंती सुवण्णा । वणेसु या गंदणमाहु सेढ, णाणेण सीलेण य भूतिपण्णे ।। -सूय० श्रु १ । अ६ । गा १८ टोका-xxx । वनेषु च मध्ये यथा नन्दनं वनं देवानां क्रीडास्थानं प्रधानं एवं भगवानपि 'ज्ञानेन' केवलाख्येन समस्तपदार्थाविर्भावकेन 'शीलेन' च चारित्रण - यथाख्यातेन 'श्रेष्ठः' प्रधानः, “भूतिप्रज्ञः' प्रवृद्धज्ञानो भगवानिति । सर्ववृक्षों में देवकुरु-उत्तरकुरु में स्थित सामली वृक्ष बड़ा है क्योंकि वहां सुवर्णकुमारादि देव आकर का अनुभव करते है। और वनों में नन्दनवन श्रेष्ठ है-वैसे ही ज्ञान, दर्शन और शील से श्री महावीर प्रभु श्रेष्ठ थे । ) थणितं व सह ण अणुत्तरं उ, चंदेव ताराण महाणुभावे । गंधेसु वा चंदणमाहु सेट, एवं मुणोणं अपडिण्णमाहु ।। सूय० श्रु १ । अ६ । गा १६ टोका-यथा शब्दानां मध्ये 'स्तनितं' मेघगजितं तद् 'अणु त्तर' प्रधानं, xxx। तारकाणां च' नक्षत्राणां मध्ये यथाचंद्रो महानुभावः सकलजननिर्वृत्तिकारिण्या कान्स्या मनोरमः श्रेष्ठः 'गन्धेषु' इति गुणगुणिनोरभेदान्मुतुबलोपाद्वा गंधवत्सु मध्ये यथा 'चन्दनं' गोशीर्षकाख्यं मलयजं वा तज्ज्ञाः श्रेष्ठमाहुः, एवं 'मुनीनां' महर्षीणां मध्ये भगवन्तंतास्य प्रतिज्ञा इहलोकपरलोकाशंसिनी विद्यते इत्यप्रतिज्ञस्तमेवम्भूतं श्रेष्ठमाहुरिति । Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० वर्धमान जीवन कोश ___ सब शब्दों में जैसे मेघगर्जन प्रधान है तथा नक्षत्रों के मध्य में जैसे सब को आनन्द देने वाले कांति के । महानुभाव चन्द्रमा प्रधान है तथा गंध (गुण और गुणी के अभेद से) अर्थात् गन्धवाले पदार्थों में जैसे गोशीर्ष भयधा चन्दन श्रेष्ठ है इसी तरह मुनियों के मध्य में इसलोक तथा परलोक के सुख की कामना नहीं करने वाले भर महावीर स्वामी को श्रेष्ठ कहते है। (m) जहा सयंभू उदहीण से8. णागेसु वा धरणिंदमाहु से?' । खोओदए वा रस वेजयंते, तवोवा मुणि वेजयंते ।। -सय० श्रु १ । अ६ । गा २० । पृ० ___ जैसे सब समुद्रों में स्वयंभूरमण समुद्र प्रधान है तथा जैसे नागों में धरणेन्द्र सर्वोत्तम हैं एव जैसे सब रस में इक्षुरसोदक समुद्र श्रेष्ठ है इसी तरह सब तपस्वियों में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी श्रेष्ठ है । (त) हत्थीसु एरावणमाहु जाते सीहो मीगाणं सलिलाण गंगा। पक्खीसु या गरुले वेणुदेवे, णिव्वाणवादीणिह णायपुत्ते !! -सूय० श्र. १ अ६ / गा २१ । पृ० ३०३ । टीका-+ + + । निर्वाण-सिद्धिक्षेत्राख्यं कर्मच्युतिलक्षणं वा स्वरुपतस्तदुपायप्राप्तिहेतुतो वदितु शीलं येषांते तथा तेषां मध्ये ज्ञाता:-क्षत्रियास्तेषां पुत्रः अपत्यं ज्ञातपुत्रः-श्रीमन्महावीरवर्धमा स्वामी स प्रधान इति, यथावस्थितनिर्वाणार्थवादित्वादित्यर्थः । जैसे हस्ति में ऐरावण हस्ति प्रधान है, पशुओं में सिंह, नदियों में गगा, पक्षिओं में गरुड़ प्रधान है बेहे मोक्षमार्ग की स्थापना करने वालों में महावीर प्रभु श्रेष्ठ थे। (थ) जोहेसु णाए जह वीससेणे, पुप्फेसु वा जह अरविंदमाहु । खत्तीण से? जह दंतवक्के, इसीण से? तह वद्धमाणे ।। -सूय० श्रु १। अ६ । गा २२ टीका-योधेसु मध्ये 'ज्ञातो' विदितो दृष्टांतभूतो वा विश्वा-हस्त्यश्वरथपदातिचतुरंग समेता सेना यस्य स विश्वसेनः-चक्रवर्ती यथाऽसौ प्रधानः, पुष्पेषु च मध्ये यथा अरविन्दं प्रधानमा तथा क्षतात् त्रायन्त इति क्षत्रियाः तेषां मध्येदान्ता-उपशान्ता यस्य वाक्येनैव शत्रवः स दान्तवाक्या चक्रवर्तीयथाऽसौ श्रेष्ठः । तदेव बहून् दृष्टांतान प्रशस्तान प्रदाधुना भगवन्तं दार्टान्तिकं स्वनामग्राहमा तथा ऋषीणां मध्ये श्रीमान वर्धमानस्वामी श्रेष्ठ इति ।। जैसे योद्धाओं में वासुदेव प्रसिद्ध है, पुष्प मैं अरविन्द और क्षत्रिय में चक्रवर्ती श्रेष्ठ है -वैसे ही ऋषि में वर्धमान स्वामी श्रेष्ठ थे। द) दाणाण सेट्ठ अभयप्पयाणं, सच्चेसु या अणवज्जं वयंति । तवेसु या उतम बंभचेरं, लोगुतमे सर्व णायपुत्ते ।। -स्य० श्रु १ । अ ६ । गा २३ । पृ०३ टीका-xxx तथा सर्वलोकोत्तमरूपसंपदा-सर्वातिशायिन्या शक्त्या क्षायिकज्ञानदर्शनाए शीलेन च ज्ञातपुत्रो' भगवान् श्रमणः प्रधान इति । जैसे दान में अभयदान श्रेष्ठ है, सत्यवचन में निरवद्यवचन और तप में ब्रह्मचर्य श्रेष्ठ है-वैसे ही लोक में न श्रमण ज्ञातपुत्र थे। For Private & Personal use only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जोवन-कोश १३१ ठितीण सेट्ठा लवसत्तमा वा, सभा सुहम्मा व सभाण सेट्ठा । णिव्वाणसेट्ठा जह सव्वधम्मा, ण णायपुत्ता परमस्थि णाणी ॥ -सूय श्रु १ । अ६ । गा २४ । पृ० ३०३ टीका-स्थितिमतां मध्ये यथा 'लवसत्तमाः' पंचानुत्तरविमानवासिनो देवाः सर्वोत्कृष्टस्थितिवर्तिनः मा: +++ । सभानां च पर्षदां च मध्ये यथा सौधर्माधिपपर्षच्छष्ठा बहुभिः क्रीडास्थानैरुपेतत्वात्तथा सर्वेऽपि धर्मा: 'निर्वाणश्रेष्ठाः' मोक्षप्रधाना भवन्ति, कुप्रावनिका अपि निर्वाणफलमेव स्वदर्शनं । यतः एवं 'ज्ञातपुत्रात्' वीरवर्धमानस्वामिनः सर्वज्ञात् सकाशात् 'पर' प्रधानं अन्यद्विज्ञानं नास्ति. व भगवानपरज्ञानिभ्याऽधिकज्ञानो भवतीति भावः। । जैसे स्थिति में लवसप्तमदेव-पंचानुत्तर-विमान-वासीदेव श्रेष्ठ है, सर्वसभाओं में सौधर्म सभा तथा सर्व में निर्वाण श्रेष्ठ है वैसे ही ज्ञातपुत्र महावीर से अन्य कोई ज्ञानी नहीं है। पुढोवमे धुणती विगयगेही, ण सणिहिंकुव्वइ आसुपण्णे । तरिउ समुदं व महाभवोघं, अभयंकरे वीर तचक्खू -सूय० श्रु • १/१ ६ / गा २५ / पृ० ३०३ अ. टीका-स हि भगवान् यथा पथिवी सकलाधारा वतते तथा सर्वसत्त्वानामभयप्रदानतः सदुपदेशजहा सत्त्वाचार इति. यदि वा-यथा पृथ्वो सर्व सहा एवं भगवान् परीषहोपसर्गान् सम्यक् सहत तथा 'धुनाति' अपनयत्यष्टप्रकारं कर्मेति शेषः, तथा-विगता प्रलीना स बाह्याभ्यन्तरेषुवस्तुषु गाय मभिलाषो यस्य स विगत गृद्धिः, तथा सन्निधानं सन्निधिः, स च द्रव्य सन्निधिःनात्यहिरण्यद्विपदचतुष्पदरूपः भावसन्निधिस्तु माया क्रोधादयो वा सामान्येन कषायास्तमुभयरूपमपि धि न करोति भगवान. तथा 'आशुप्रज्ञः' सर्वत्र सदोषयोगात् न छद्मस्थवन्मनसा पर्यालोच्य पदार्थच्छित्ति विधत्ते, स एवम्भूतः तरित्वा समुद्रमिवापारं 'महाभवौघ" चतुर्गतिक संसारसागरं बहुव्यसनासर्वोत्तमं निर्वाणमासादितवान् पुनरपि तमेव विशिनष्टि-'अभयं' प्राणिनः प्राणरक्षारूपं स्वतः रच सदुपदेशदानात् करोतीत्यभयंकरः, तथाऽष्टप्रकारं कर्मविशेषेणेरयति-प्रेरयतीति वीरः तथा नंतम्' अपर्यवसानं नित्यं ज्ञेयानन्तत्वाद्वाऽनन्त चक्षुरिव चक्षुः-केवलज्ञानं यस्य स तथेति ।। । जैसे पृथ्वी सर्व पदार्थों को आधारभूत है-ऐसी उपमा वाले श्री महावीर प्रभु अष्ट प्रकार के कर्मों को करते थे और वे विगत गृद्धि थे और वे केवलज्ञानी किंचिन्मात्र संचय नहीं करने वाले थे। और अनन्त ज्ञान पक्षवाले श्री महावीर प्रभु भवोध रूपी समुद्र को तीरकर सर्वजीवों का भय दूरा करने वाले थे।) कोहं च माणं च तहेव माय, लोभं चउत्थं अज्झत्तदोसा । एताणि चत्ता अरहा महेसो, ण कुव्वई पाव ण कारवेइ ॥ -सूय० श्रु १ । अ६ । गा २६ । पृ० ३०४ टीका-++ + क्रोधादयः कषाया: कारणमत एतान् अध्यात्म-दोषांश्चतुरोऽपि क्रोधादीन् कषायान् + + + परित्यज्य असौ भगवान् ‘अर्हन्' तीर्थकृत् जातः, तथा महर्षिः, एवं परमार्थतो महर्षि। कत्वं भवति यद्यध्यात्मदोषा न भवन्ति, नान्यथेति, तथान स्वतः 'पाप' सावद्यमनुष्ठानं कशेति नाप्यन्यैः कारयतीति Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन - कोश क्रोध, मान, माया और लोभ- इन चार अध्यात्म दोषों को दूर कर श्री वीर प्रभु कुछ भी पाप । करते से ही कराते भी नहीं । (फ) किरिया करियं वेणइयाणवायं, अण्णाणियाणं पडियच ठाणं । से सव्ववायं इह वेयइत्ता, उवहि सम्म स दोहरायें ॥ - सूय० श्रु १ । अ ६ । गा टीका - तथा स भगवान् क्रियावादिनामक्रियावादिनां वैनयिकानामज्ञानिकानां च 'स्थानं, पा मभ्युपगतमित्यर्थः, यदिवा- स्थीयतेऽस्मिन्निति स्थानं दुर्गतिगमनादिकं 'प्रतीत्य' परिच्छिद्य सम्य बुध्येत्यर्थः । + + +। इत्येवंरूपं तेषामभ्युपगमं परिच्छिद्य-स्वतः सम्यगवगम्य सम्यगवबोधे Taaraान स्वामी सर्वमन्यमपि बौद्धादिकं यं कंचन वादमपरान् सत्त्वान् यथा स्थित् तत्त्वोपदेशेन " वेदयित्वा" परिज्ञाप्योपस्थितः सम्यगुत्थानेन संयमे व्यवस्थितो न तु ++ भगवान् महावीर स्वामी ने क्रियावादी, अक्रियावादी, विनयवादी और अज्ञानवादियों के मतों को ज कर अथवा ये सभी मतवादी दुर्गति में जाते हैं यह जानकर यावज्जीवन संयमपालन किया था । १३२ इस प्रकार सभी मतवादियों के मतों को अच्छी तरह समझकर तथा दूसरे बौद्ध आदि मतों को जानकर भगवान् महावीर स्वामी प्राणियों को वस्तु के यथार्थ स्वरूप का उपदेश देते हुए संयम में स्थित रहे । वे मतवादियों की तरह नहीं थे- कहा है- ( वीतराग प्रभु की स्तुति करते हुए जैनाचार्य कहते हैं कि हे प्रभो ! धर्मं वाले आचार्यों में जो चक्र व दोष अर्थात् बोलने के दोष है वे आपमें नहीं है क्योंकि दूसरे भगवान उपदेश देनेवा में बड़े कुशल है अतः उन्होंने लघुता को प्राप्त किया है, कारण यह है कि उनके शिष्य तथा वे, जो दूसरे पुरुषों उपदेश करते हैं उसके अनुसार स्वयं आचरण नहीं करते है परन्तु आपने आजीवन के लिए संयम धारण किया था। (ब) से वारिया इत्थि सराइभत्तं, उवहाणवं दुक्खखयझ्याए । लोगं विदित्ता 'अपरं परं च सव्वं प वारिय सव्ववारी ॥ - सूय० श्रु ९ । अ ६ । गा २८ । पृ० ३ टीका - स भगवान, वारयित्वा - प्रतिषिध्य किं तदित्याह - 'स्त्रियम्' इति स्त्रीपरिभोगं मैथून त्यर्थः, सह रात्रिभक्त ेन वर्तत इति सरात्रिभक्त उपलक्षणार्थत्वादस्यान्यदपि प्राणातिपातनिषेधार द्रष्टव्यं तथा उपधानं तपस्तद्विधते यस्यासौ उपधानवान - तपोनिष्टप्त देहः, + + + भगवान् महावीर स्वामी ने स्त्रीभोग तथा रात्रिभोजन त्याग दिया था । यह उपलक्षण माना है इसि भगवान् ने दूसरे पापों को अर्थात् प्राणातिपात आदि को भी छोड़ा था । भगवान् ने तप से अपने शरीर तपा दिया था । १२ कसाय पाहुड से तम्हा सेय-मल-र-रत्तणयण - कदक्ख सरमोक्खादिसरीर गयदो सविरहिएण समचउरस्संठा वज्जरि सहसंघडण - दिव्वगंध पमाणणहरोमणिराहरणभासुरसोम्मवयण - णिरंबर- मणोह णिराउअ - सुणिब्भयादिणाणागुणस हियदिव्वदेहधरेण, दोस दियचवसम बाबीसपरीसहादिसयलदोसविरहिएण, जोयनंतर दूर समीवत्थट्ठा रसदेसभा सकुभासा - जुद तिरिक्ख मणुस्सा सगसगभा साजुद- होणाहियभावविरहिय महुर-मणोहर- गम्भीर-विसदवा · - Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षमान जीवन-कोश १३३ (ग) दिसयसंपण्णेण, भवणवासिय-वाणवेंतर-जोदिसिय-सोहम्मीसाणादिकप्पवासिय-चक्कवट्टि-बल. णारायण-विज्जाहर-रायाहिराय - मंडलीय-महामंडलीय इंदग्गि-वाउभूदि-सिंघ-वालादि-देव - मण व. मुणि-मई देहितो पत्त-पूजादिसयेण सम्मत्त-णाणे दंसण-वीरियावगाह-णागुरुवलहुअ-अव्वाबाहसुहुमत्तादिगुणेहि सिद्धसारिच्छेण वड्ढमाणभडारएण उवइत्तादो पमाणे वागमो । उत्त च । णिस्संसयकरो वीरो महावीरो जिण त्तमो। राग-दोस-भयादीदो धम्मतित्थस्स कारओ ।। -कसापा० भा १/ गा १ । टीका । पृ०७१ से ७३ वर्धमान तीर्थकर-- पसीना, मल, रज अर्थात् बाह्य कारणों से शरीर पर चढ़ा हुआ मैल, नयन और कटाक्ष रूप वों का छोड़ना आदि शीरगत समस्त दोषों से रहित, समचतुरस्र संस्थान, घच ऋषभ नाराच सहनन, दिव्यगन्ध म्य प्रमाण रूप से स्थित नख और रोम, आभरणों से रहितपना, देदीप्यमान और सौम्य मुख, वस्त्र से रहितपना बोहर, आयुध से रहितपना, और अत्यन्त निर्भयपना आदि नाना गुणों से युक्त दिव्य देह को धारण करने वाले उग, द्वेष, कषाय और इन्द्रियों से तथा देव, मनुष्य, तिर्यच और अचेतनकृत चार प्रकार के उपमर्ग और बाइस जोषह आदि समस्त दोषों से रहित, एक योजन के भीतर दूस या समीप बैठे हुए नानादेश सम्बन्धी अठारह महा आषा और ( सात सौ) लघु भाषाओं से युक्त ऐसे देव, तिर्यञ्च और मनुष्यों को, अपनी २ भाषा रूप से परिणत तथा न्यूनता और अधिकता से रहित, मधुर, मनोहर, गम्भीर और विशद इन भाषाओं के अतिशयों से युक्त, भवनबासी, व्यंतर, ज्योतिषक और सौधर्म, ऐशान आदि कल्पवासी, चक्रवर्ती, बलदेव, नारायण, विद्याधर, राजा, अधिराजा, मंडलीक, महामंडलीक, इन्द्रभूति, अग्निभूति, वायुभुति सिंह, व्याल आदि देव-मनुष्य-मुनि और तियंचों के इन्द्रों से पूजा के अतिशयों को प्राप्त हुए और क्षायिक सम्यक्त्व, केवल ज्ञान, केवल दर्शन, अनंत वीयं, अवगाहनत्व बगुरुलघु अव्याबाध और सूक्ष्मत्वादि गुणों से सिद्ध के समान वर्धमान भट्टारक के द्वारा उपदिष्ट होने से द्रव्यगम प्रमाण है । कहा भी है जिन्होंने धर्मतीथं की प्रवृति करके समस्त प्राणियों को निःसंशय किया, जो वीर हैं अर्थात् जिन्होंने विशेष से समस्त पदार्थ समूह को प्रत्यक्ष कर लिया है, जो जिनों में श्रेष्ठ है तथा राग, द्वेष और भय से रहित हैं ऐसे भगवान् महावीर धर्मतीर्थ के कर्ता है। ३ अन्यान्य आगमों से (क) इह खलु समणण भगवया महावीरेणं आदिगरेणं तित्थगरेण सयंसंबुद्ध पुरिसोत्तमेग पुरिस सीहेण पुरिसवरपोंडरीएण पुरिसवरगन्धहस्थिणा लोगोत्तमेण लोगनाहेण लोगहिएण लोगपईवेणं लोगपज्जोयगरेण अभयदएण चक्खुदएणं मग्गदएण सरणदएंण जीवदएण धम्मदएण धम्मदेसएण धम्मनायगेण धम्मसारहोणा धम्मवरचाउरंतचक्वट्टिणा अप्पडिहयवरणाणदसणधरेण वियदृच्छउमेण जिणण' जावएण' तिण्णेण तारएणं बुद्धण बोहएण मुत्तण मोयगेण सव्वण्णुणा सव्वदरिसिणा सिवमयलमरुयमणंत - मक्खय - मव्वाबाहमपुणरावत्तयं सिद्धिगइनामधेय ठाणं संपाविउकामेणं । -सम० सम १/सू २/-अण त्त० व ३/अ १०/सू ७५-नाया० श्रु १/१/सू ७जंबू० वक्खार ५ sikanemal Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ वर्धमान जोवन-कोश (ख) तेणं कालेणं तेण समएण समणे भगवं भगवं महावीरे आइगरे तित्थगरे सहसंबुद्धे पुरिसुत्तमे पुरिससीहे पुरिसवरपोंडरीए पुरिसवरगन्धहत्थी लोगुत्तमे लोगनाहे लोगपदोवे लोगपज्जोयमरे अभयदए चक्खुदए मग्गदए सरणदए धम्मदेसए धम्मसारही धम्मवरचाउरतचाकवट्टी अप्पडिहयवरनाणदंसगधरे वियट्टछउमे जिगे जाणए बुद्धे बोहए मुत्ते मोयए सवण्णू सव्वदरिसी सिवमयलमरुयमणंतमक्खयमव्वाबाहं सिद्धगतिनामधेयं ठाण संपाविउकामे xxx। ७ ।। -भग० श १ / उ १ (ग) xxx / समणेणं भगवया महावीरेणं आइगरेगं तित्थगरेणं सयंसंबुद्धणं जाव सिद्धिगइनामधेन्ज । xxx -"नाया० श्र. १ / अ १६ / स ४८ (घ) समणेणं भगवया महावीरेणं आइगरेणं तित्थगरेणं जावसिद्धिगइनामधेनं ठाणं संपत्तेणं । -नाया० श्रु १ / अ६/ सू १ (च) तेणं कालेणं तेणं समए णं समणे भगवं महावीरे, आइगरे तित्थगरे सहसंबुद्धे, पुरिसोत्तमे पुरिससीहे पुरिसवर-पुडरीए पुरिसवरगन्धहत्थी. अभयदए चक्खुदर मग्गदए सरणदर जीवदए, दीवोताणं सरणं गई पइट्ठा. धम्म-वर-चाउरंत-चक्क वट्टी अप्पडिहयवरनाण-दंस ग-धरे वियदृच्छउमे जिणे जगाए तिण्णे तारए मुत्ते मोयए बुद्धे बोहए, सवण्णू सव्वदरिसी सिव-मयल मरुअ-मणंतमक्खय-मव्वाबाहमपुगरावत्तिगं सिद्धिगइ-नामधेज्जं ठाणं संपाविउकामे (अरहा जिणे केवली ) । -राय० सू८ । ओव० सू० १६ उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर ( चंपा के समीप ) पधारे। वे घोर तपस्या करने से 'श्रमण' नाम से प्रसिद्ध थे। समस्त ऐश्वयं के युक्त होने के कारण भगवान कहे जाते थे । देव आदि के द्वारा उपद्रव किये जाने पर भी अपने मार्ग पर वीरता से डटे रहे. अत: देवों ने उन्हें महावोस नाम से प्रतिष्ठित किये थे। ( केवल ज्ञान होने पर पहले पहले श्रुत धर्म के करने वाले होने से ) वे आदि कर्ता थे और ( साधु साध्वी-श्रावकश्राविका रूप चतुर्विध संघ के होने के कारण ) तीर्थ कर थे। स्वयमेव किसी की सहायता या निमित्त के बिना ही उन्होंने बोध प्राप्त किया था। वे पुरुषों में उत्तम थे, क्योंकि उनमें सिंह के समान शौर्य का उत्कृष्ट विकास हुआ था। पुरुषों में रहते हुए भी श्रेष्ठ सफेद कमल के समान सभी प्रकार की अशुभताए-मलिनताए उनसे दूर रहती थी और श्रेष्ठ गन्धहस्ती के समान, किसी क्षेत्र के उनके प्रविष्ट होते ही सामान्य हाथियों के समान परचक्र, दुर्भिक्ष, महामारी आदि दुरितों का विनाश हो जाता था । वे प्राणों को हरण करने में रसिक और उपद्रव करने में रसिक और उपद्रव करने वालों को भी भयभीत नहीं करते थे अथवा सभी प्राणियों के भय को हरण करने वाली दया के थारक थे-निर्भयता के दाता थे। चक्षु के समान श्रुतज्ञान के देने वाले थे। सम्यग्दर्शन आदि मोक्ष मार्ग के प्रदाता थे। उपद्रव से रहित स्थान के दायक थे। और जीवन ( = अमरता रूप भाव प्राण के ) दानी थे। वे दीपक के समान समस्त वस्तुओं के प्रकाशक अथवा द्वीप के समान संसार-सागर में नाना प्रकार के दुःखों की लहरों के थपेड़ों से पीड़ित व्यक्तियों के लिए आश्वासन धयं के कारण रूप, अनर्थों के नाशक होने से त्राणरूप, उद्देश्य की प्राप्ति में कारण होने से शरण रूप, खराब अवस्था से उत्तम अवस्था में लाने वालो गति रूप और Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षमान जीवन-कोश १३५ संसार रूपी खड्ड में गिरते हुए प्राणियों के लिए आधार रूप थे। चार अन्तों ( = तीन दिशाओं में समुद्र और उत्तम दिशाओं में हिमालय पर्वत रूपी किनारे ) वाली पृथ्वी के मालिक चक्रवर्ती के समान धर्म में श्रेष्ठ थे। क्योंकि वे अधिसंवादक-अचक ज्ञान के और दर्शन के घटक थे, कारण उनके ज्ञान आदि के आवरण (ज्ञानादि गुणों को दबाने वाले कर्म ) हट गये थे। (अत: निश्चय ही) राग-द्वष को जीत लिया था। ज्ञायिक भाव में रागादि के स्वरूप, उनके कारण और फल के ज्ञात भाव में स्थित थे। इसलिए मुक्त थे. मुक्त करने वाले थे। समझे हुए थे ) समझाने वाले थे। वे सर्वदा सर्वदर्शी उपद्रव से रहित, स्वाभाविक और प्रयोगजन्य चलन से रहित, नीरोग, अनंत, सादि होते हुए भी नाश से रहित, अक्षय, बाधा-पीड़ा से रहित और जहाँ ये पुन: आगमन नहीं हो ऐसे 'सिद्धगति' नाम वाले स्थान को पाने के लिए सहज भाव में ( विचरण कर रहे थे ) अर्थात् अभी ऐसे स्थान को प्राप्त नहीं हए थे। किन्तु उसे प्राप्त करने को प्रवृत्ति चाल थी। (छ। अणासवे अममे अकिंचणे छिन्नसोए निरुवलेवे ववगय-पेम-राग-दोस-मोहे निग्गंथस्स पवयणस्स देसए सत्थनायगे पइट्ठावए, समणगपई समणग-विंद-परिअट्टए, चउतीसबुद्ध-वयणातिसेस पत्तेपणतीस-सच्चं वयणातिसेस-पत्त । -ओव० सू० १६ भगवान् ने कर्म के आत्म-प्रवेश के द्वारों को रूँध दिया था। मेरे पन की बुद्धि त्याग दी थी। अत: उन्होंने अपनी मालिकी में कोई भी वस्तु नहीं रखी थी । भव-प्रधाह को छेद दिया था या शोक से रहित थे । निरूपलेप थे। प्रेम, राग, द्वेष और मोह से अतीत हो चुके थे। निगन्थ प्रवचन के उपदेशक, शास्ता, नायक और प्रतिष्ठायक थे । अतः साधु-संघ के स्वामी थे और श्रमणवृन्द के वर्द्धक थे। जिनघर के वचन आदि चौंतस अतिशय के और पैतीस वचन के अतिशयों के धारण थे। ४ अन्यान्य ग्रन्थों से (क) विद्धंसिय - रयवइ सुरवइ - परवइ - फणिवइ - पयडिय - सासणु । पणवेप्पिणु सम्मइ जिंदिय - दुम्मइ जिम्मल - मग्ग - पयासणु ॥ विणासो भवाणं मणे संभवाणं । दिणेसो तमाणं पहू उत्तमाणं । खयग्गी-णिहाणं तवाणं णिहाणं । थिरो मुक्क-माणो वसी जो समाणो। अरीणं सुहीणं सुरीणं सुहीणं । समेणं वरायं पमत्तं सराय । चलं दुविणीयं जयं जेणं णीयं । णीयं णाण मग्गं कयें सासमग्गं । सया णिक्कसाओ सया चत्त-माओ। सया संपसण्णो सया जो विसण्णो । पहाणो गणाग सुदिव्वं गणा: । ण पेम्मे णिसण्णो महावीरसष्णो । तमोसं जईण जए संजईणं । दमार्ण जमाणं खमा राजमाणं । उहाणं रमाणं पबुद्धस्थ-माणं । दया-वड्डमाणं जिणं वडमाणं सिरेणं णमामो चरितं भणामो । -वीरजि० सधि १ मैं उन सन्मति भगवान को प्रणाम करता है जिन्होंने कामदेव का विध्वंस किया है, जिनका शासन सुरपति, नरपति तथा नागपति द्वारा प्रकट किया गया है। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षमान जीवन-कोश जिन्होंने कुशान की निन्दा की है और निर्मल मोक्षमार्ग का प्रकाशन किया है। वे भगवान जन्म-मरण की परंपरा के विनाशक है तथा मनुष्यों के मन में उत्पन्न हुए अज्ञान रूपो अन्धकार को दूर करने के लिए सूर्य-समान हैं। वे प्रभ पाप रूपी ईन्धन को नष्ट करने के लिए अग्नि समान उत्तम तपों के निधान हैं । वे स्थिर हैं, मान से मुक्त है और इन्द्रियों को वश में करने वाले हैं, तथा शत्रु और मित्र, सुरी और सुधोजनों पर समान दृष्टि रखते हैं। उन्होंने अपने समता भाव द्वारा, प्रमादी राग युक्त तथा दुविनीत चंचल मन को पराजित कर दिया है। उन्होंने इस जगत को ज्ञान के मार्ग पर लगाया है, तथा शाश्वत मार्ग की स्थापना की है। ये सर्वदा कषाय रहित हैं और विषाद रहित है। उनके हर्ष भी नहीं है और माया का भी अभाव है।। वे सदैव सुप्रसन्न रहते हैं । आहाय, भय आदि संज्ञाएं उनके नहीं होतीं। वे उन तपस्विगणों के प्रधान हैं, जिन्होंने दिव्य द्वादश अंगों का ज्ञान प्राप्त किया है । वे महावीर नामक तीर्थङ्कर, उत्तम देवांगनाओं के प्रेम में आसक्त नहीं हुए। ऐसे उन जगतभर के मुनियों और मजिकाओं के स्वामी दम, यम, क्षमा, संयम एवं अभ्युदय और निःश्रेयस रूप दोनों प्रकार के लक्ष्मी और समस्त द्रव्यों के प्रमाण के ज्ञानी, दया से वृद्धिशील वर्धमान जिनेन्द्र को मैं अपना मस्तक धूमाकर नमन करता हूं और उनके चरित्र का वर्णन करता हूं। (ख) सम्यक्त्व क्षायिक चास्य प्राक्तनं मलदूरगम् । अस्ति तेनाखिलार्थानां स्वयं सुनिश्चयोऽभवत् ।। -वीरवर्धमान अधि १०/श्लो १२ बीरप्रभु के निर्मल क्षायिक सम्यक्त्व पूर्वभव से ही प्राप्त था, उससे उनके सवंतत्त्वों का यथार्थ निश्चय स्वयं हो गया। (ग) जिनवरमुखजाता सत्कथां धर्मखानि चरमजिनपतेर्वच्मीह कर्मारिशान्त्यै ।। ८६ ।। -वीरच अधि १ / श्लो ८६ जिनेन्द्र देव के मुख से उत्पन्न हुई, धर्म की खानि स्वरूप अन्तिम जिनपति महावीर स्वामी को सत्कथा अपने कमंशत्रुओं को शांत करने के लिए है। (घ) वीरोडौष नुतः स्तुतः किल मया वीरश्रयाम्यन्वहं । वीरेणानुचराम्यमा शिवपथं वीराय कुर्को नुति । वीरान्नास्त्यपरो ममातिहितकृद्वीरस्य पादौ श्रये । वोरे स्वस्थितिमातनोमि परमां मां वीरतेऽन्तं नय। -वीरवर्धच० । अधि १७ / श्लो २०६ वीरप्रभु के साथ मैं भी शिवमार्ग का अनुसरण करता हूं। तथा वीरप्रभु के लिये नमस्कार करता हूं। वीर से अतिरिक्त अन्य कोई मेरा हित करने वाला नहीं है, इसलिये मैं वीर जिनेन्द्र के चरणों का आश्रय लेता हूँ। मै वीर भगवान में अपने चित को परम स्थिति करता हूं। हे वीर भगवान, आप मुझे अपने समीप ले जाये। Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७ वर्धमान जीवन-कोश अन्थों में ब्राह्मणग्रन्थों में - मातिथ्यं रूपमासर महावीरस्य नग्नहु । रूप मुपसदामेत्तिस्रो रात्रीः. सुरासुता । -यजु० / अ १६, मं १४ । अतिथि स्वरूप पूज्य मासोपवासी नग्न ( दिगम्बर ) महावीर की उपासना करो, जिसमें (संशय-विपर्ययखाय रूप ) तोन अज्ञान, अथवा ( धन-शोर-विद्या रूप ) मदत्रय की उत्पत्ति नहीं होती। बौद्धग्रन्थों में निगंठो आवुसो नातपुत्तो सब्वज़ सम्वदरस्सी । अपरिसेसे णाण दस्सण परिजानाति ।। -मज्झिनि० भाग १ . आयुष्मान निर्ग्रन्थ ज्ञातृपुत्र ( भगवान महावीर ) सर्वज्ञ और सर्वदर्शी है। अपने अपरिमेष ( अनंत ) ज्ञानका वह सब कुछ जानते और देखते हैं । दिगम्बर परम्परा में पुरुरवा भील से लेकर महावीर होने तक भगवान् के गणनीय ३३ भवों का उल्लेख है श्वेताम्बर परम्परा में २७ ही भव मिलते हैं। उनमें प्रारम्भ के २२ भव कुछ नाम परिवर्तनादि के साथ t, जो कि दिगम्बरा-परम्परा में बतलाये गये हैं । मेष भवों में से कुछ को नहीं माना है। उनकी स्पष्ट गरी के लिए, यहाँ पर दोनों परम्पराओं के अनुसार भगवान महावीर के पूर्व भव दिये जाते हैंअगम्बर मान्यतानुसार श्वेताम्बर मान्यतानुसार ० अनन्त संसार-भ्रमण पुरुरवा भिल्ल १. ग्रामचिंतक - नयसार मिल्ल जोधर्म देव २. सौधर्म कल्प का देव गीचि कुमार ३. मरीचि ह्यस्वर्ग का देव ४, ब्रह्मलोककल्प देव टिल ब्राह्मण ५. कौशिक ५क चतुगंति संसार-भ्रमण (अपर) धर्म स्वर्ग का देव ६. ईशान अथवा सौधर्म स्वर्ग का देव ध्यमित्र श्राह्मण ७. पुष्यमित्र ब्राह्मण ७क संसार भ्रमण (अपर) धर्म देव अथवा ईशान देव ८. सौधर्म कल्प देव ८.क संसार भ्रमण अग्निसह (अग्निशिख) ब्राह्मण ६. अग्नद्योत ब्राह्मण ६.क संसार भ्रमण (अपर) For Private & Personal use only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ वर्षमान जीवन-कोश १०. सनत्कुमार देव ११. अग्निमित्र ब्राह्मण १२, माहेन्द्र देव १३. भारद्वाज ब्राह्मण १४. माहेन्द्र देव १४क त्रस - स्थावर योनि के असंख्यात भव १५. स्थावर ब्राह्मण १६. माहेन्द्र कल्प देव १० ईशान देव १०क संसार-भ्रमण (अपर) ११ अग्निभूति ब्राह्मण ११क संसार भ्रमण (अपर) १२. सनत्कुमार देव १२क संसार भ्रमण (अपर) १३. भारद्वाज ब्राह्मण १३क संसार भ्रमण १४, माहेन्द्र देव १४क संसार भ्रमण १५. स्थावर ब्राह्मण १६. ब्रह्मलोक कल्पदेव १६.क संसार-भ्रमण (प्रभूत) १७. विश्वभूति-प्रव्रज्या-सनिदान १८ महाशुक्र देव १६. त्रिपृष्ठ वासुदेव (प्रथम दसा २०. सप्तम नरक का नारकी। २१. सिंह २२. चतुर्थ नरक का नारकी २२. क कश्चिद् तियंग मनुष्य भी १७. विश्वनन्दी मुनिपद में निदान) १८. महाशुक्र स्वर्ग का देव . १६. त्रिपृष्ठ नारायण २०. सातवें नरक का नारकी २१. सिंह २२. प्रथम नरक का नारको x xxx x २३. सिंह (मृग-भक्षण के समय चारण मुनि के द्वारा सम्बोधन) २४. सौधर्म स्वर्ग का देव २५. कनकोज्ज्वल राजा-कनकप्रभ राजा २६. लान्तव स्वर्ग का देव २७. हरिषेण राजा २८. महाशुक्र स्वर्ग का देव २६. प्रिय मित्र-प्रियदत्त चक्रवर्ती x xxxxx xxx xx xx x x ३., सहस्त्रार स्वर्ग का देव ३१. नन्दराज (तीर्थकर प्रकृति का बंध) xxx २३. पोट्रिल या प्रियमित्र चक्रा प्रजित प्रौष्टिल आचार्य के । २४. महाशुक्र कल्प देव सर्वार्थ वि अथवा सहस्रार कल्प-सर्वार्थ । २५ नन्दन राजा प्रवज्याती प्रकृति का बंध २६ प्राणत स्वर्ग का देव ( पुष्पों धिमान) २७ क- भगवान् महावीर-देवां गर्भ ( सोमिल को पनि ख-त्रिशला गर्भ ३२. अच्युत स्वर्ग का इन्द्र ३३. भगवान् महावीर Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन - कोश १३६ नोट - 'चउप्पन्न महापुरिसचरियं' में कहा है कि कोशिक परिब्राजक मरकर सौधर्मं देवलोक में गया । वहां से कब अग्नोद्योत ब्राह्मण हुआ । परन्तु अन्यान्य ग्रन्थों में लिखा है कि कौशिक परिव्राजक ईशान देवलोक अथवा देवलोक में उत्पन्न हुआ। वहां से व्यवन कर पुष्यमित्र ब्राह्मण के रूप में उत्पन्न हुआ । [ दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्पराओं में भगवान महावोर के जीवन वृत्त विषयक अम्नाय भेद इस प्रकार है ! श्वेताम्बर दिगम्बर भगवान महावीर की माता त्रिशला चेटक की बहिन थी । राजकुमार महावोर का विवाह बसंतपुर नगर के महासामंत समरवीरा की पुत्री यशोदा के साथ हुआ । दीक्षा के पूर्व भगवान् के माता-पिता देवंगत हो चुके थे । भगवान् महावीर का प्रथम धर्मोपदेश बैशाख शुक्ला एकादशी मध्यम पावापुरी में हुआ । भगवान् महावीर वाणी द्वारा उपदेश देते थे । भगवान् महावीर केवली होने के पश्चात् भी आहार करते थे । भगवान् महावोर के निर्वाण के पश्चात् प्रथम आचार्य सुधर्मा हुए। वर्धमान की जन्म कुण्डली युधिष्ठर सं० २६६१ को तिथि चैत्र शुक्ला १३ वार मंगलवार उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र 99 t १२ शु १ सू वु 3 जन्म ईस्वी पूर्व ५६६ - १० मं के श्रक भगवान् महावीर की माता त्रिशला चेटक की पुत्री थी। राजकुमार महावीर के सामने कलिंग नरेश जितशत्रु की पुत्री यशोदा के साथ विवाह करने का प्रस्ताव आया पर उन्होंने विवाह नहीं किया । दोक्षा के समय भगवान् के माता-पिता विद्यमान थे । भगवान् महावीर का प्रथम धर्मोपदेश श्रावण कृष्णा एकम विपुलाचल पर्वत पर हुआ । भगवान् महावीर दिव्यप-ध्वनि द्वारा उपदेश देते थे । भगवान् महावीर केवली हाने के पश्चात् आहार नहीं करते थे । वृ श भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् प्रथम आचार्य गोतम हुए । 296 श ५ निर्वाण ईस्वी पूर्व ५२७ L चं उम्र ७२ वर्ष Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० %Dramananews वर्षमान जीवन-कोश ३४ वर्धमान-महावीर और समवसरण-देशना १ चतुर्विधा दिविषदो विविधं विचिचेष्टिरे ।। ८ ॥ प्रतिवप्रचतुर्दारं वप्रत्रितयभूषितम् । चक्र : समवसरणं यथाविधि दिवौकसः ॥ ६ ।। न सर्वविरतेरहः कोऽप्योति विदन्नपि । कल्प इत्यकरोत्तंत्र निषण्णो देशनां विभुः ॥ १० ॥ तत्तीर्थजन्मा मातंगो यक्षः करिरथोऽसितः । बीजपूरं भुजे वामे दक्षिणे नकुलं दधत् ।। ११॥ सिद्धायिका तथोत्पन्ना सिंहयाना हरिच्छविः। समातुलिंगवल्लक्यौ वामबाहू च बिभ्रती ॥ १९ पुस्तकाऽभयदौ चोभौ दधाना दक्षिणौ भुजौ। अभूतां ते प्रभुनित्याऽऽसन्ने शासनदेवते । । –त्रिशलाका० पर्व १०/ चूंकि ज भक ग्राम के बाहर जुवालिका नदी के तट पर शामाक नामक किसी गृहस्थ के क्षेत्र में महावोग को केवलज्ञान-( केवल दर्शन ) उत्पन्न हुआ । भगवान के केवलज्ञान के उत्पन्न होने से हर्ष को प्राप्त चार प्रकार के देव दूसरी तयह भी अन्य चेष्टा लगे। तत्पश्चात् देवों ने तीन किला वाला और प्रत्येक किले में चार-चार दरवाजे वाले समवसरण की रचना यहाँ सवं विरती के कोई योग्य नहीं है-ऐसा जानते हुए भी भगवान् समवसरण में बैठकर देशना दी उनके तीर्थ में हाथी के वाहन चाला, कृष्णवर्णी वाम भुजा में बीजपूर ( बीजोरा ) और दक्षिण भा नकुल का धारण करता हुआ मातंग नामक यक्ष और सिंह के आसनवाली नीलवर्ण वाली, दो वाम भुजा में कि और वोणा और दा दक्षिण भुजा में पुस्तक और अभय को धारण करतो हुई सिद्धायिका नामक देवी-ये दोनों प्रभु के पास रहनेवाले शासन देव हुए। नोट-यह भगवान् को प्रथम देशना निष्फल गयो। क्योंकि वहां सिर्फ देव थे। देवों के व्रत नहीं होता तीर्थकर की देशना निष्फल नहीं जाती है परन्तु वीर भगवान् की प्रथम देशना किसी के भी विरदि का ग्रहण न होने से निष्फल गयी। २ पुज्वविणिम्मियभाग, जोयणपरिवेढमंडलाभोयं । पायारतिउणमणिमय-गोउरविस्थिण्णकयस अह दोणि य वक्खारा, अट्ठमहापाडिहेरसंजुत्ता। अट्ठइ नाडयाइ, दारे दारे य नच्च सोलस वरवावीओ, कमलुप्पलविमल सलिलपुण्णाओ। चउसु विदिसासु मज्झे हवंति चत्तारि चई भयवं पि तिहुयणगुरू, विचितसोहासणे सुहनिविट्ठो। छत्ताइछत्त-चामर-असोग-भामण्डलसणा पढम्म य वक्खारे, परिसा निग्गन्थमहरिसोणं तु ? तयणन्तरं पिबीए, सोहम्माईसुरवहूणं ॥२॥ तइयम्मि य वक्खारे, परिसा अजाण गुणमहन्तीणं ॥ ३ ।। तत्तो परं तु नियमा, जोइसर्व परिसा य ॥ ४ ॥ ५६ ॥ वन्तरवहूण तत्तो ५ परिसा उण भवणवासियवहूर्ण ॥ ६ ॥ तत्तो परं तु नियमा, जोइसि सुरवराणं ॥ ७॥ ५७ ।। Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४१ वर्धमान जीवन कोश वन्तरभवणिन्दाणं ८, वक्खारेसु य हवंति परिसाओ । सोहम्माईण तओ, देवाणं कप्पवासीणं १० ।। ५८॥ अवरम्मि य वक्खारे, परिसा मणुयाण नरवरिन्दाणं ११ । होइ तिरिक्खाण पुणो, परिसा पुव्वुत्तरे भागे।। १२ ।। ५६ ।। एवं पसन्नचित्त, सुरवरमेलीणपस्थिवसमूहे । पुच्छइ धम्मा-ऽधम्म, तित्थयरं गोयमो नमिउ।। ६० ।। तो अद्धभागहीए, भासाए, सव्वजीवहियजणणं । जलहरगंभीरखो, कहेइ धम्मं जिणवरिंदो ॥ ६१ ।। -पउच० अधि० २/ गा ५० से ६१ एकयोजनविस्तीर्ण सुवृत्तं भ्राजते तराम् । सुरेन्द्रनीलरत्नौधैस्तस्याद्य पीठमूर्जितम् ॥ ६६ ॥ भो विंशतिसहस्राङ्कमणिसोपानराजितम् । मुक्त्वा सार्धद्विगब्यूति भूमेनभसि संस्थितम् ॥ ७० ।। तस्य पर्यन्तभूभागमलंचक्रऽतिदीप्तिमान् । धूलोशालपरिक्षेपो रत्नपांशुमयो महान् ॥ ७१ ।। क्वचिद्-विद्रुभरम्याभः क्वचित्काञ्चन संनिभः। क्वचिदञ्जनपुञ्जाभः क्वचिच्छुकच्छदच्छविः ।। ७२ ।। नानासुवर्णरत्नोत्थपांसुतेजश्चयः क्वचित् । तन्वन्निवेन्द्रचापानि हसन वा खे स राजते ।। ७३ ।। चतुर्दिश्वस्य दीप्त्याढ्या हेमस्तम्भाप्रलम्बिताः तोरणा मकरास्फोटमणिमाला विमान्यहो ।। ७४ ।। ततोऽन्तरान्तरं किंचिद्गत्वा_म्बुपवित्रिताः । स्युश्चतस्रो जगत्यो हि वीथीनां मध्यभूमिषु ॥ ७५ ।। चतुर्गापुरसंयुक्तप्राकारत्रयवेष्टिताः। हेमषोडशसोपानयुता दीपा मनोहराः ॥ ७६ ।। तासां मध्येषु भान्त्युच्चस्तत्प्रमाः पीठिकाः पराः। जिनेद्रप्रतिमायुक्ता मणितेजोऽर्चनादिभिः ॥ ७७ ।। -वीरवध च० अधि १४/ श्लो ६६ से ७७ कुबेर आदि महाशिल्पियों द्वारा निर्मित समवसरण मंडल वह समवसरण गोलाकार एक योजन विस्तार वाला था, उसका प्रथम पीठ उत्तम इन्द्र नीलमणियों से रचा गया था-अतः वह अत्यन्त शोभायमान हो रहा था। हे भव्यों, वह बीस हजार मणिमयो सोपानों ( सीढ़ियों ) से विराजित था और भूतल से अढाई कोश ऊपर आकाश में अवस्थित था। उसके किनारे के भू-भाग के सवं ओर अतिदीप्तिमान रत्नधूलि से निर्मित विशाल धूलि. शाल नामका पहला परकोटा था। वह कहीं पर विद्र म ( मूगा ) की सुन्दर कांति वाला था, कहीं सुवर्ण आभावाला था, कहीं अंजनपुञ्ज के समान काली आभावाला था और कहीं पर शुक ( तोता ) के पंखों के समान हरे रंग बाला था। कहों पर नाना प्रकार के रत्न और सुवर्णोत्पन्न धूलि के तेजपुञ्ज से आकाश में इन्द्रधनुषों की शोभा को विस्तारता अथवा हंसता हुआ शोभित हो रहा था। उसको चारों दिशाओं में दीप्ति-युक्त सुवर्ण स्तंभों के अग्रभाग पर मकराकृति मणिमालावाले चार तोरण द्वारा सुशोभित हो रहे थे। उसके भीतर कुछ दूर चल कर घोथियों की मध्य भूमि में पूजन-सामग्री से पषित्रित चार वेदियाँ थी। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ वधमान जोवन-कोश __वे चार गोपुर द्वारों से संयुक्त, तीन प्राकारों ( कोटों ) से वेष्टित, सुवर्णमयो सोलह सोढ़ियों से भूषित देदीप्यमान और मन को हरण करने वाली थी। ___ उन वेदियों के मध्य भाग में जिनेन्द्र देव को प्रतिमासहित, मणियों को कांति और पूजनसामग्री से युक्त चार ऊँचे पीठ ( सिंहासन ) शोभायमान थे। तस्या मध्ये व्यधाद् रेदः पराध्यमणिभूषितम् । हैम सिंहासनं दिव्यं स्वप्रभाजितभास्करम् ॥ ११ ॥ विष्टरं तदलं चक्र कोट्या दित्याधिकप्रभः । भगवान् श्रीमहावीरस्त्रिजगद्भव्यवेष्टितः ॥ १८२ ।। अनंतमहिमारूढो विश्वाङ्ग युद्धरणक्षमः । चतुर्भिरङ्गलैः स्वेन महिम्नाऽस्पृष्टतत्तलः ॥ १८३ ।। -वीरवर्धमानच० अधि १४/श्लो १८१ से १८३ उस गंधकुटी के मध्य में यक्षराज ने अनमोल उत्कृष्ट मणियों से भूषित, अपनी प्रभा से सूर्य को प्रभा को जोतने वाला, स्वर्णमयो दिव्य सिंहासन बनाया था। ___ उस सिंहासन को कोटिसूर्य की प्रभा से अधिक पभावाले और तीनलोक के भव्यजीवों से वेष्ठित श्री महावीर प्रभु अलंकृत कर रहे थे। उस पर अनंत महिमाशालो, विश्व के सर्व प्राणियों के उद्धार करने में समर्थ और अपनो महिमा से सिंहासन के तलभाग को चार अंगुलों से नहीं स्पर्श करते हुए भगवान अंतरिक्ष में विराजमान थे । '५ विभोः प्राग्दिशमारभ्य सत्कोष्ठे प्रथमे शुभे । गणीन्द्राद्या मुनीशोधाः स्थितिं चक्र शिवाप्तये ।। २०।। द्वितोये कल्पनार्यश्चाद्य न्द्राणीप्रमुखाश्चिदे । तृतीये चार्यिकाः सर्वाः श्राविकाभिः समं मुदा । २१ ।। चतुर्थ ज्योतिषां देव्यः पंचमे व्यन्तराङ्गनाः । षष्ठे भावनदेवानां पद्मावत्यादिदेवताः ॥ २२ ॥ सप्तमे धरणेन्द्राद्याः सर्वे च भावनामराः। अष्टमे व्यन्तरा: सेन्द्राः नवमे ज्योतिषां सुराः ।। २३ ।। चन्द्रसूर्यादयः सेन्द्राः दशमे कल्पवासिनः। एकादशसरकोष्ठे च खगेशप्रमुखा नराः॥ २४ । कोष्ठे द्वादशमे तिर्यञ्चोऽहिसिंहमृगादयः । इति द्वादशकोष्ठेषु परीत्य त्रिजगद्गुरुम् ।। २५ ।। द्विषड्भेदा गणा भक्त्या कृताञ्जलिपुटाः शुभाः । तिष्ठन्त्यग्निदाहार्ताः पातु तद्वचनामृतम् ।। २६ ।। वेष्टितस्तैर्जगद्भर्ता भासतेऽत्यन्तसुन्दरः। सर्वेषां धर्मिणां मध्ये धममूर्तिरिवोच्छ्रितः ॥ २७ ।। __ -वीरवर्धच० अधि १५ श्लो २० से २७ इस समवसरण सभा में बारह कोठे हो। उनमें से भगवान की पूर्व दिशा से लेकर प्रथम शुभ प्रकोष्ठ में गणधरादि मुनिश्वरों का समूह शिवपद की प्राप्ति के लिए विराजमान था। दूसरे कोठे में इन्द्राणो आदि कल्पवासिनी देवियाँ विराजमान थीं। तीसरे कोठे में सर्व आथिकाएँ श्राविकाओं के साथ हर्ष से बैठो हुई थों। चोथो कोठे में ज्योतिषी देवों की देवियाँ बैठी थीं। पांचवे कोठे में व्यंतर देवों को देवियाँ और छ? कोठे में भवनवासी देवों की पद्मावती आदि देवियों बैठो थों। सातवें कोठे में धरणेन्द्र आदि सभी भवनवासो देव बैठे थे। आठवें कोठे में अपने इन्द्रों के साथ ध्यंतर देव बैठे थे। Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षमान जीवन-कोश १४३ नवचे कोठे में चन्द्र-सूर्यादि ज्योतिषी देष बठे थे। दसवे कोठे में कल्पवासी देव बैठे थे। ग्यारह कोठे में विद्याधर आदि मनुष्य बठे थे और बारह कोठे में सर्प, सिंह, मृगादि तियञ्च बठे थे। इस प्रकार बारह कोठों में बारह गणवाले जीव भक्ति से हाथों की अंजलि बाँधे हुए, संसार ताप की अग्नि से पीड़ित होने से उसकी शांति के लिए भगवान के वचनामृत का पान करने के इच्छुक होकर त्रिजगद्-गुरू को घेरकर बैठे हुए थे। उक्त बारह गणों से वेष्ठित, अत्यन्त सुन्दर, जगभर्ता श्री वर्धमान भगवान् सर्व धर्मीजनों के मध्य में उन्नत धर्ममूर्ति के समान शोभायमान हो रहे थे। '६ चउभागेण विरहिदा पासस्स य वड्डमाणस्त -तिलोप. अधि ४/गा ७१७ वर्धमान तीर्थकर के समवसरण की सामान्य भूमि योजन के चतुर्थ भाग से कम थी। इह केई आइरिया पण्णारसकम्मभूमिजादाणं । तित्थयराणं बारसजोयणपरिमाणमिच्छति ॥ ७१६ ।। -तिलोप० अधि ४ । गा ७१६ यहां कोई आचार्य पन्द्रह कर्मभूमियों में उत्पन्न हुए तीर्थ करों की समवसरण भूमि को बारह योजन प्रमाण मानते हैं। पासम्मि पंच कोसा चउ वीरे अट्ठताल हरिदा। इगिहत्थुच्छेहा ते सोवाणा एकहत्थवासाय ॥७२२॥ -तिलोप अधि ४/ गा ७२२ भगवान पार्श्वनाथ के समवसरण में सीढ़ियों को लम्बाई अड़तालीस से भाजित पाँच कोश और वीरनाथ के अड़तालीस से भाजित चार कोश प्रमाण थी। वे सीढ़ियां एक हाथ ऊँची और एक हाथ ही विस्तार वाली थी। पण्णारसेहि अहियं कोसाण सयं च पासणाहम्मि । देवम्मि पड्डमाणे बाणउदी अतालहिदा ॥७२७ वीहीदोयासेसु णिम्मलपलिहोवलेहि रइदाओ। दो बेदोओ वीहीदीहत्तसमाणदीहत्ता ।। ७२८ -तिलोप० अधि ४ । गा ७२७, २८ वर्धमान के समवसरण में वीथियों की दीर्घता अडतालीस से भाजित वानवे कोश प्रमाण थी। वीथियों के दोनों पाश्र्व भागों में वीथियों की दीर्घता के समान दीर्घता से युक्त और निर्मल स्फटिकपाषाण से रचित दो वेदियां होती है। कोदंडछस्सयाई पणवीसजुदाई अट्ठहरिदाई। पासम्मि वड्डमाणे पणघणदंडाणि दलिदाणि ।। ७३० -तिलोप० अधि४ वर्धमान स्वामी के समवसरण में वेदियों का विस्तार दो से भाजित पांच के धन अर्थात् एक सौ पच्चीस धनुष प्रमाण था। ७ एक्को य वड्डमाणे कोसो बाहत्तरीहरिदो। -तिलोप० अधि ४ । ७४६ भगवान वर्धमान के समवसरण में धूलिसालका मूल विस्तार बहतर से भाजित एक कोस प्रमाण था । Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ ८ पणवण्णासा कोसा पासजिणे अट्ठसीदिदुसयहिदा । -तिलोप• अधि ४ / गा ७५५ वीरनाथ भगवान के समवसरण में प्रथम पृथिवी का विस्तार बारह के वर्ग अर्थात् एक सौ चवालीस भाजित बाईस कोस प्रमाण था । ६ पासे पंचच्छहिदा तिदयहिदा दोण्णि वडमाणजिणे । सेसाण अद्धमाणा आदिमपीढस्स उदद्याओ || ७७० ।। -तिलोप० अधि ४ / गा ७७० वर्धमान जिन के समवसरण में प्रथमपीठ की ऊंचाई तीन से भाजित दो धनुष प्रमाण थी । शेष दो पीठों की ऊंचाई प्रथम पीठ की ऊंचाई से आधी थी । दंडाणं पंचसदा छक्कहिदा वीरणाहम्मि । ॥ ७७४ || -तिलोप• अधि ४ वीरनाथ के समवसरण में तृतीय पीठ का विस्तार छह से भाजित पांच सौ धनुष प्रमाण था । १० पंचसया रूऊणा छक्कहिदा वडमाणदेवम्मि । णियणिय जिणउदयेहिं बारसगुणिदेहि थंभउच्छे हो || -तिलोप० अधि० ४ / गा ७७७ वर्धमान तीर्थंकर के समवसरण में मानस्तभों का बाहुल्य छह से भाजित एक कम पांच सौ धनुष प्रमाण था । इन मान स्तम्भों की ऊँचाई अपने-अपने तीर्थ करा के शरीर की ऊँचाई से बारह गुणी होती है । वर्धमान जीवन कोश * ११ चउदालच्छक्कहिदा णिदिट्ठा वडूमाणम्मि | -तिलोप० अधि ४ / गा ८२३ वर्धमान स्वामी के समवसरण में मान स्तम्भों का विस्तार छह से भाजित चवालोस अंगुल प्रमाण बतलाया गया है । धयदंडाणं अंतरमुसहजिगे छस्सयाणिचावाणि ।। ८२४ ।। वीरजिणे एक्कसय तेत्तियमेत्तेहि अवहरिदं ।। ८२५ ।। -तिलोप, अधि ४ / गा ८२४,८२५ वीर - जिनेन्द्र के समवसरण में ध्वज दंडों का अन्तर अड़तालीस से भाजित एक सौ धनुष प्रमाण था । '१२ पणवीसाधियछस्सयदंडा छत्तीस संविभत्ताय । पासम्मि वडमाणे णवहिदपणवीस अधियसयं ॥ -तिलोप० अधि- ४ / गा ८५१ भगवान् वर्धमान स्वामी के समवसरण में कोट का विस्तार नौ से भाजित एक सौ पचोस धनुष प्रमाण था । * १३ कोठों का विस्तार वीरजिणि दंडा पंचघणा दसहदा य णवभजिदद्य -तिलोप० अधि ४ / गा ८५५ वीराजिनेन्द्र के समवसरण में कोठों का विस्तार पांच के धनको दशसे गुणा करके नौका भाग देने पर जो लब्ध हो उतने धनुष प्रमाण था । एकोच्चि छक्aहिदे देवेसिश्विड्डूमाणम्मि । वर्धमान के समवसरण में प्रथम पीठ का विस्तार छह से भाजित एक कोस प्रमाण था । एक्कसयं पणवी सम्भहियं वीरम्मि दोहि हिदं । -तिलोप• अधि ४ / गा ८६८ -तिलोप० अधि ४ /गा ८७ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन - कोश १४५ वीर भगवान के समवसरण में पीठ की मेखला का विस्तार दो से भाजित एक सौ पच्चीस धनुष प्रमाण था । •१४ पास जिणे पणदंडा बारसभजिदा य वीरणाहम्मि । एक्कोचिय तियभजिदा णाणावर रयणणिलयइला || -तिलोप० अधि ४ / गा ८७६ पार्श्वनाथ तीर्थंकर के समवसरण में प्रथम पीठ का विस्तार बारह से भाजित पाँच धनुष और वीरनाथ के तीन से भाजित एक धनुष मात्र था। ये द्वितीय पीठिकायें नाना प्रकार के उत्तम रत्नों से खचित भूमियुक्त होती है। एकसयं पणवीसब्भहियं वीरम्मि दोहिहिदं || -तिलोप० अधि ४ / गा ८७८ I वीरनाथ स्वामी के समवसरण में द्वितीय पीठ की मेखला का विस्तार दो से भाजित एक सौ पच्चीस धनुष प्रमाण था । पंचश्चि वीर जिणे पवित्ता अट्ठता लेहिं || -तिलोप० अधि ४ /गा ८८३ वीरजिनेन्द्र के समवसरण में द्वितीय पीठ का विस्तार अड़तालीस से भाजित पाँच कोस मात्र था । * १५ ताणोवरि दिया पीढाई विविहरयणरइदाइ । नियणियदुइज्जपी दुच्छेधसमा ताण उच्छेधा ॥ आदिमपीढाणं वित्थारचउत्थ भागसारिच्छा । एदाणं वित्थारा तिउणकदे तत्थ समधिए परिधी ॥ -तिलोप० अधि ४ / गा ८८४-८८५ द्वितीय पीठों के ऊपर विविध प्रकार के रत्नों से रचित तीसरी पीठिकायें होती है । इन तीसरी पीठिकाओं की ऊँचाई अपनी-अपनी पीठिकाओं को ऊंचाई के समान होती है । इनका विस्तार अपनी प्रथम पीठिकाओं के विस्तार के चतुर्थ भाग प्रमाण होता है । और तिगुणे विस्तार से कुछ अधिक इनकी परिधि होती है । * १६ गंधकुटी विगुणियपणवीसाई तित्थयरे वड्ढमाणम्मि । भगवान वर्धमान के समवसरण में गंधकुटी की चौड़ाई और लंबाई पचास धनुष प्रमाण थी । पणुवीसोणं च सयं जिणप वरे वीरणाहम्मि | वर्धमान जिनेन्द्र के समवसरण में गंधकुटी की ऊँचाई पश्चीस कम सौ धनुष प्रमाण थी । -तिलोप० अधि ४ / गा ८६० • १७ सिंहासनाणि मज्झे गंधउडोणं सपादपीढाणि । वरफलि हणिम्मिदार्णि घंटा जालादिरम्माणि ॥ रयणख चिदाणि ताणि जिनिंदउच्छे हनोग्गउदयाणि । इत्थ तित्थयराणं कहिदाइ समवसरणाई ॥ - तिलोप० अधि ४/ गा ८६३-६४ गंध कुटियों के मध्य में पादपीठ सहित उत्तम स्फटिक मणियों से निर्मित और घंटाओं के समूहादिक से रमणीय सिहासन होते हैं । रत्नों से खचित उन सिंहासनों की ऊंचाई तीर्थंकरों के ही योग्य हुआ करती है । • १८ एत्यंतरे हरिणा भणिउ जाम, किउ समवसरणु जक्खेण ताम । पविल वारह - जोयण-पम णीलमउ गयणउलु भासमाणु । -तिलोप० अधि ४ /गा ८६२ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश वलय समु रयणमय धूलिसारु, चउदिसहि माण-थंभेहिं चारु । चउसरवरु जललहरीहिं मंजु, परिहा - पाणिय - पायडिय कंजु । मणिमय वेइय-बल्ली-वणेहिं, वेदिउ जण - णयण सुहावणेहिं । पत्ता-वरविहि रइय मणिगण खइय कणय परिहे परिपुन्नउँ । रुप्पय मयहिं णहयल गयहिं गोडर मुहहिं रवण्णउँ । --वड्ढमाणच संधिह/कड २२ भगवान् को केवलज्ञान उत्पन्न होने के बाद जब हरि-इन्द्र ने आदेश दिया तब यक्ष ने एक समवशरण की रचना की। वह १२ योजन प्रमाण विशाल था, जो गगन तल में नीला-नीला भासता था। तथा जो रत्नमय धूलि से बने बलय के समान शाल (परकोटों), चतुर्दिक निर्मित चार मानस्तंभों से सुशोभित मंजुल जल-तरंगों वाले चार सरोवरों, जल से परिपूर्ण तथा कमल पुष्पों से समृद्ध परिखाओं तथा लोगों के मन को सुहावनी लगने वाली वल्ली-वनों से वेष्टित मणिमय वेदिका-(से वह समवशरण शोभायमान था) और घत्ता-उत्तम विधियों से रचित, मणियों द्वारा खचित (जटित), कनक मय परिधि से परिपूर्ण, रौप्यमय और गगनचुम्बी गोपुर मुखों से रमणीक जयइ सुयाणं पभवो तित्थयराणं अपच्छिमो जयइ । जयइ गुरू लोगाणं जयइ महप्पा महावीरो॥ भदं सव्वजगुज्जोयगस्स भई जिणस्स वीरस्स । भई सुराऽसुरणमंसियस्स भई धुयरयस्स ।। -नन्दी• गा २, ३/पृ०२ समग्र श्रुत ज्ञान के मूल स्रोत जयवंत है। २४ तीर्थंकरों में अंतिम तीर्थकर जयशील है, जगवंत होने से ही लोकमात्र के गुरु है। महात्मा महावीर अपने आत्मगुणों से सर्वोत्कृष्ट है-छतः जयवंत है। समस्त जगत में ज्ञान का प्रगश करने वाले का कल्याण हो, राग-द्वेष रहित परम विजयी जिन महावीर का भद्र हो। देव-असुरों के द्वारा वन्दित का भद्र हो। अष्टविध कर्म-रज को सर्वथा नष्ट करने वाले महावीर का सदैव भद्र हो। तोरणहिं विहंसिय घंधलेहि वर अट्ठोत्तर सय मंगलेहि ण उ सालि वीहि घउ उववणेहिं x x x तिपयार वावि मणि मंडवेहिं कीला महिहर लय मंडवेहिं । अमरा जंतेहिं विहिय रईहे पासाय सुहालय घर तईहे अट्ठोत्तर - अट्ठोत्तर सएहिं एक्केक्कु अलंकरियउ धएहिं दह भेय महा धुव्विर धएहिं किंकिणि रव तासिय रवि-हएहिं । किकिणि - णिम्मिय - साले सुहेण पर पउमराय - गोउर - मुहेण मणिमय थूहहिं फंसिय पहेहिं । किरणावलि पिहिय महागएहिं । फलिहामल - पायारें वरेहिं हरि मणमय णेउर सिरिहरेहि •१६ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश तिपयारहिं पीढहिं सुन्दरेहिं बारह - कोहहिं मणोहरेहिं । रयणमय-धम्म-चक्कर्हि फुरन्तु । गंधउ इहिं सुरहर - सिरिहरन्तु ॥ -वड्ढमाणच. संधि ६/कड २३ मेघ-समूह का विध्वंस कर देनेवाले तोरणों पर उत्तम १०८.१०८ अंकुश, चंवर मादि मंगल द्रव्य सुरक्षित थे-जो भगवान् की विभूति को प्रकट कर रहे थे। तथा (गोपुरों के भीतर) नाट्यशालाए, वीथियाँ अशोक, सप्तच्छद्र, चम्पक एवं आम्र नामक चार उपवन ( अशोक बादि चार प्रकार के वृक्ष ? ) चन्दा, नन्दवती एवं नन्दोत्तर नामक तीन प्रकार की वापियाँ तथा मणिमंडप, क्रीड़ा पर्वत एवं लता-मंडप बने हुए थे। देव यन्त्रों द्वारा विधिपूर्वक रचित प्रासाद, सभामंडप, भवन बादि की पंक्तियाँ भी सुशोभित थीं। (वीथियों के चारों ओर) एक-एक (वीथी) परमयूर, माला आदि दस भेदवाली तथा किंकिणी रवों से सूर्य के घोड़ों को भी त्रस्त कर देनेवाली ऊंची-ऊंची फहराती हुई १०८-१०८ ध्वजा पताकाएं थीं। किकिणियों द्वारा निर्मित सुन्दर शाल बनाये गये जो कि पद्मराग मणियों के द्वारा बनाये गये गोपुर मुखों से युक्त थे। गगन चुम्बी मणिमय स्तूप बने हुए थे-जो अपनी किरणावलि से महागजों को भी ढंक देनेवाले थे। स्फटिक के निर्मल एवं श्रेष्ठ प्राकार हरिन्-मणियों से निर्मित तथा नूपुरों से युक्त श्रीगृह (श्रीमंडप) तीन प्रकार के सुन्दर पौठ एवं मनोहर १२ कोठे बने हुए थे। इसी प्रकार रत्नमय चक्र से स्फुरायमान तथा स्वर्गश्री का हरण करने वाली गंधकुटी से वह समवशरण शोभायमान था। २० भगवान महावीर और चतुर्विध संघ की उत्पत्ति . द्वितीय समवसरण में - तीर्थोत्पत्ति (क) तित्थं चाउव्वण्णो संघो सो पढमए समोसरणे । उप्पण्णो उजिणाणं वीरजिणिदस्स बीयंमि ॥२८७।। -आव०/नि/गा २८७ मलय टीका-तीर्थ नाम प्रवचनं, तच्च निराधारं न भवतीति चतुर्वर्णः, संघं उच्चते, स जिनानाम् ऋषभादीनां प्रथम एव समवसरणे उत्पन्नः, वौरजिनेन्द्रस्य पुनर्द्वितीये समवसरणे, मध्यमापांपुरि, यत्र हि केवलज्ञानयांमुत्पन्नं, तत्र तथाकल्पत्वात् समवसरणमभूत् यावतान तत्र संघो जातः। सामान्यतः तीर्थंकरों के प्रथम समवसरण में ही चतुर्विध संघ की उत्पत्ति हो जाती है। भगवान ऋषम आदि के प्रथम समवसरण में ही चतुर्विध संघ की उत्पत्ति हो गई लेकिन भगवान महावीर के चतुर्विध संघ की उत्पत्ति द्वितीय समवसरण में हुई। उनका प्रथम समवसरण निराधार-निष्फल गया। (ख) जिण्णं दिवसं समणम्स भगवओ महावीरस्स णिव्वाणे कसिणे जाव समुप्पण्णे, तण्णं दिवसं भवण वइवाणमंतरजोइसियविमाणावासिदेवेहि य देवीहि य ओवयंतेहिं य जाव उप्पिजलगभूए यावि Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ वर्धमान जीवन-कोश होत्था ॥ तओ णं समणे भगवं महावीर उप्पण्णवरणाणदंसणधरे अप्पाणं च लोगं च अभिसमेक्ख पुव्वं देवाणं धम्ममाइक्खति, तओ पच्छा मणुस्साणं ॥ -आया० श्रु० २/अ १५/सू० ४०.४१ जिस दिन श्रमण भगवान् महावीर को अन्तिम परिपूर्ण केवलज्ञान-केवल दर्शन उत्पन्न हुआ, उस दिन भवनपति. वाणण्यंतर, ज्योतिष्क, वैमानिक देवों में तथा देवियों में उनके नीचे आने-जाने से चहल-पहल हो गयी। तत्पश्चात सर्वज्ञ सर्वदर्शी श्रमण-भगवान् महावीर ने आत्मा और लोक के स्वरूप को जानकर पहले देवों को और फिर मनुष्यों को धर्म का उपदेश दिया। (ग) तओणं समणे भगवं महावीरे उप्पण्णणाणदंसणधरे गोयमाईणं समणाणं णिग्गंथाणं पंच महव्वयाई सभावणाई छज्जीवनिकायई आइक्खइ भासइ परूवेइ, तंजहा--पुढविकाए आउकाए, तेउकाए, वाउकाए, वणस्सइकाए, तसकाए। -आया० २/अ १५/सू ४०/पृ० २४१ भगवान् ने द्वितीय देशना में भावना सहित पंच महाव्रत, छज्जीवनिकाय का उपदेश दिया-यथा-पृथ्वीकाय, अपकाय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय तथा त्रसकाय२१ मगवान महावीर और दिव्यध्वनि (क) णिग्गंथाइय समेड भरंतह, केवलि किरणहो धरविरहंतह । गय छासट्टि दिगंतर जामहि, अमराहिउमणि चिन्तइ तामहि ।। इम सामग्गि सयल जिणणाहहो, पंचमणाणुग्गम गयबाहहो । किंकारणु ण उ वाणि पयासइ, जीवाइय तच्चाइ ण भासइ । -वड्ढमाण च० (जयमित्तल) भगवान् महावीर केवलज्ञान उत्पन्न होने के पश्चात इन्द्रभूति गौतम के समागम नहीं होने तक ६६ दिन दिव्य-ध्वनि नहीं खिरने पर भी भूतल पर विहार करते रहे। यथा केवलज्ञान रूपी सूर्य की किरणों के धारण कर लेने पर निर्गुन मुनि आदि के साथ भारतवर्ष में विहार करते हुए छयासठ दिन बीत जाने पर भी जब भगवान् को दिव्य वाणी प्रकट नहीं हुई, तब अमरेश्वर इन्द्र के मन में चिन्ता सामग्री के होने पर भी क्या कारण है कि भगवान् अपनी वाणी से जीवादि तत्त्वों को नहीं कह रहे हैं। दिगम्बर परम्परा के अनुसार भगवान् महावीर ने केवलज्ञान प्राप्ति के ६५ दिन बाद श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के दिन पहला प्रवचन किया था। इसके विपहीत श्वेताम्बर परंपरा के अनुसार भगवान महावीर को जिस दिन केवलज्ञान उत्पन्न हुआ उस दिन देवों के मध्य में प्रथम प्रवचन किया था। (ख) दिगम्बर मतानुसार प्रस्तावेऽस्मिन् विलोक्याशु गणान् द्वादशसंख्यकान् । स्वस्वकोष्ठेषु चासीनान् सद्धर्मश्रवणोत्सुकान् ।।७८।। यामत्रये गतेऽप्यस्याहतो न ध्वनिनिर्गमः । हेतुना केन जायेतादीन्द्रो हृदीत्यचिन्तयत् ।।६।। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बर्धमान जीवन - कोश ततः स्वाधिना गणेशाचरणाक्षमम् । मुनिवृन्दं पुनश्चेत्थं देवेन्द्रश्चिन्तयेत्सुधीः ॥ ८० ॥ मुनीन्द्रः कोऽपि तादृशः । अहो मध्ये मुनीशानां नास्ति योऽईन्मुखोद्भूतान् विश्वतत्त्वार्थ संचयान् ॥८१॥ श्रुत्वा सकृत्करोत्यत्र द्वादशांगश्रुतात्मनाम् । सम्पूर्णा रचनां शीघ्रं योग्यो गणभृतः पदे ॥ ८२॥ विचिन्त्येत्यनुविज्ञाय गौतमं विप्रमूर्जितन् । गणेन्द्रपद योग्यं च गोतमान्वयभूषणम् ॥८३॥ सोऽप्यत्रागमिष्यति नोपायेन द्विजोत्तमः । इति चिन्तां कारोच्चैः सौधर्मेन्द्रः प्रसन्नधीः ||८४ | | अहो एष मयोपायो ज्ञात आनयनं प्रति । विद्यादिगर्वितस्यास्य किंचित्पृच्छामि दुर्घटम् ||८५|| काव्यादिमङ्क्षु गत्वाहं पुरं ब्रह्माभिधं किल । तदज्ञानात्से वादार्थी स्वयमत्रागमिष्यति ॥ ८६ ॥ इत्यालोच्य धीमान् यष्टिकान्वितसत्करम् । वृद्धब्राह्मणवेषं स कृत्वा विद्यामदोद्धतं मौनालम्बी वीक्ष्य विप्रौत्तमात्र विद्वांस्त्वं मद्गुरुश्री वर्धमानाख्यो व्रते मया समं नाहं काव्यार्थार्थी त्विहागतः ॥८६॥ काव्यार्थी नात्र जाताजीविका मम पुष्कला । उपकारश्च भव्यानां तब ख्यातिर्भविष्यति ॥६०॥ ज्ञात्वा तन्निकटं ॥८७॥ प्रत्युवाच सः । विचारय ||८८|| स विद्यते । गौतमं मत्काव्यैकं १४६ - वीरवर्धमानच० अधि १५ / श्लो० ७८ से ६० देखकर, इसी अवसर में सम्यग् धर्म को सुनने के लिए और अपने-अपने कोठों में बैठे हुए बारह गणों को शीघ्र तथा तीन प्रहर काल बीत जाने पर भी इन अर्हन्तदेव की दिव्य ध्वनि किस कारण से नहीं निकल रही है, इस प्रकार से इन्द्र ने अपने हृदय में चिन्तवन किया । तब अपने अवधिज्ञान से बुद्धिमान इन्द्र ने गणधरपद का आचरण करने में असमर्थ मुनिवृन्द को जानकर इस प्रकार विचार किया । अहो, इन मुनीश्वरों के मध्य में ऐसा कोई भी मुनीन्द्र नहीं है, जो कि अर्हन्मुख कमल - विनिर्गत सर्व तत्त्वार्थ संचय को एक बार सुनकर द्वादशमिश्रुत की संपूर्ण रचना को शीघ्र कर सके और गणधर पद के योग्य हो । Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश ऐसा विचार कर गौतम गोत्र से विभूषित गौतम विप्र को उत्तम और गणधर पद के योग्य जानकर किस उपाय से वह द्विजोत्तम गौतम यहाँ पर आयेगा, इस प्रकार प्रसन्न बुद्धि सौधर्मेन्द्र ने गंभीरतापूर्वक चिन्तवन किया। कुछ देर तक चिन्तवन करने के पश्चात् वह मन ही मन बोला-अहो ! उसके जाने के लिए मैंने यह उपाय जान लिया है कि विद्या आदि गर्व से युक्त उससे कुछ दुर्घट (अति कठिन) काव्यादि के अर्थ को शीघ्र उस ब्राह्मण के आगे जाकर कहूँ ? उस काव्य के अर्थ को नहीं जानने से वह वाद ( शास्त्रार्थ ) का इच्छुक होकर स्वयं ही यहां पर भा जायेगा। हृदय में ऐसा विचार कर वह बुद्धिमान् सौधर्मेन्द्र लकड़ी हाथ में लिए हुए वृद्ध ब्राह्मण का वेष बना करके उस गौतम के निकट गया। विद्या के मद से उद्धत गौतम को देखकर उसने उनसे कहा-हे विप्रोत्तम! आप विद्वान हैं, अता मेरे इस एक काव्य का अर्थ विचार करे। मेरे गुरु श्री वर्धमान स्वामी है, वे इस समय मौन धारण करके विराज रहे हैं और मेरे साथ नहीं बोल रहे हैं। अतः काव्य के पर्व को जानने की इच्छा वाला होकर मैं आपके पास यहाँ आया हूँ । काव्य का अर्थ जान लेने से यहाँ मेरी बहुत अच्छी आजीविका हो जायेगी-भव्यजनों का उपकार भी होगा और बापकी ख्याति भी होगी। २ गौतम के प्रश्न अथासौ गौतमस्वामी प्रणम्य शिरसा मुदा । हितं जगत्सतामिच्छन् स्वस्य श्रीतीर्थनायकम् ।।२।। अज्ञानोच्छित्तये ज्ञानप्राप्त्यै सर्वज्ञगोचराम् । प्रश्नमालामिमामप्राक्षीद् विश्वांगिहितां पराम ॥३॥ देवादेर्जीवतत्त्वस्य लक्षणं कीदृशं भुवि । कावस्था च कियन्तो हि गुणाभेदा द्विधात्मकाः ॥४॥ के पर्यायाः कियन्तो बा सिद्धसंसारिगोचराः। अजीवस्यापि तत्त्वस्य के प्रकारा गुणादयः ॥५॥ किमत्र बहुनोक्तन भूतं भावि च साम्प्रतम् । त्रिकालविषय ज्ञानं द्वादशांगभवं चयत् ॥२४॥ तत्सर्व त्वं कृपानाथ दिव्येन ध्वनिना दिश । भव्यानामुपकाराय स्वर्गमुक्तिवृषाप्तये ॥२५॥ -बीरवर्धमानच० अधि १६ उन गौतम स्वामी ने तीर्थनायक श्री महावीर प्रभु को हर्ष के साथ सिर से प्रणाम करके अपने तथा जगत के संतजनों के हितार्थ अज्ञान के विनाश और ज्ञान की प्राप्ति के लिए समस्त प्राणियों का हित करने वाली यह सर्वज्ञ-गम्य उत्तम प्रश्नावली पूछी। हे देव ! सात तत्त्वों में जो संसार में जीव तत्त्व है, उसका कैसा लक्षण है, केसी अवस्था है, कितने गुण है, उनके विभागात्मक कितने भेष हैं, कितनी पर्याय हैं, सिद्ध और संसारी विषयक उसके कितने भेद हैं ? इसी प्रकार अजीव तत्त्व के भी कितने भेद, गुण और पर्याय आदि हैं। *३ गौतम के प्रश्न करने पर-प्रथम देशना भगवान द्वारा-दिव्यध्वनि के द्वारा उपदेश इति प्रश्नवशाहवो विश्वभव्यहितोद्यतः । तत्त्वादिप्रश्नराशीनां सद्भावं च तदीप्सितम् ॥२६॥ दिव्येन ध्वनिना तीर्थेद् स्वर्गमुक्तिसुखाप्तये । प्रारेमे वक्तुमित्थं च मुक्तिमार्गप्रवृत्तये ॥२७॥ शृणुधीमन् मनः कृत्वा स्थिरं सर्वगणैः समम् । प्रोच्यमानमिदं सर्व त्वदभिप्रेतसाधनम् ॥२८॥ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश प्रोक्तुर्विभोर्मनाग नासीदोष्ठादिस्पन्दविक्रिया। मुखाब्जे साम्यतापन्ने तथापि तन्मुखाम्बुजात् ॥२६॥ निर्ययो भारती रम्या सर्वसंशयनाशिनी । मंदराद्रिगुहोत्पन्न प्रतिच्छन्दनिभा शुभा ॥३०॥ अहो तीर्थे शिनामेषा योगजा शक्तिरूर्जिता। यथा जगत्सतामत्रोपकारः क्रियते महान् ।।३१।। -वीरवर्धच० अधि १६/श्लो २६ से ३१ इस प्रकार गौतम स्वामी के प्रश्न के वश से संसार के समस्त भन्य जीवों के हित करने के लिए उद्यत, तीर्थकर वर्धमान देव ने मुक्तिमार्ग की प्रवृत्ति के लिए सप्त तत्त्वादि विषयक समस्त प्रश्न-समूहों का सद्भाव और उनका अभीष्ट अभिप्राय जीवों को स्वर्ग और मोक्ष के सुख प्राप्त कराने के लिए दिव्यध्वनि से इस प्रकार कहता प्रारंभ किया हे धोमन् ! सर्व गण के साथ मन को स्थिर करके तुम्हारे सर्व अभीष्ट साधक मेरा यह वक्ष्यमाण (उत्तर) सुनो। जब भगवान ने उत्तर देना प्रारंभ किया, तब बोलते समय प्रभु के सान्यता को प्राप्त मुख-कमल में रंच मात्र भी ओष्ठ बादि चलने की विक्रिया (विशेष क्रिया) नहीं हुई। तथापि उनके मुख-कमल से सर्व संशयों का नाश करने पालो मंदराचल की गुफाओं में से निकली प्रतिध्वनि के समान गंभीर, शुभ और रमणीय वाणी निकली। आचार्य कहते हैं कि अहो! तीर्थंकरों की यह योगजनित ऊर्जस्विनी शक्ति है कि जिसके द्वारा इस संसार में समस्त सज्जनों का उपकार होता है ॥३१॥ अपापप्राप्तितन्विज्यास्थायिकातिशयोर्जितः। परमात्मपदं प्रापत्परमेष्ठी स सन्मतिः ॥३५५।। अथ दिव्यध्वनेहेतुः को भावीत्युपयोगवान् । तृतीयज्ञाननेत्रण ज्ञात्वा मां परितुष्टवान् ॥३५६।। तदैवागत्य मद्नाम गौतमाख्यं शचीपतिः । तत्र गौतमगोत्रोत्थमिन्द्रभूतिं द्विजोत्तमम् ॥३५७।। महाभिमानमादित्यविमानादेस्य भास्वरम् । शेषः पुण्यैः समुत्पन्नं वेदवेदांगवेदिनम् ॥३५८।। दृष्ट वा केनाप्युपायेन समानीयान्तिकं विभोः । स्वपिपृच्छिषितं जीवभावं पृच्छेत्य चोदयत् ॥३६॥ अस्ति किं नास्ति वा जीवस्तत्स्वरूपं निरूप्यताम् । इत्यप्राक्षमतो मह यं भगवान्मव्यवत्सलः ॥३६०॥ अस्ति जीवः चोपात्तदेहमात्रः सदादिभिः । किमादिभिश्च निर्देश्यो नोत्पन्नो न विनङ क्ष्यति ।।३६१।। द्रव्यरूपेण पर्यायैः परिणामी प्रतिक्षणम् । चैतन्यलक्षणः कर्ता भोक्ता सर्वैकदेशवित् ।।३६२।। इति जीवस्य याथात्म्यं युक्त्या व्यक्तं न्यवेदयत् । द्रव्यहेतुं विधायास्य वचः कालादिसाधनः ॥३६६॥ विनेयोऽहं कृतश्राद्धो जीवतत्त्वनिश्चये। x x x भट्टारकोपदेशेन श्रावणे बहुले तिथौ ।।३६६॥ पक्षादावर्थरूपेण सद्यः पर्याणमन् स्फुटम् । पूर्वाण्हे पश्चिमे भागे पूर्वाणामप्यनुक्रमात् ॥३७०॥ -उत्तपु० पर्व ७४ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ वर्धमान जीवन कोश पुण्य रूप परम औदादिक शरीर की पूजा और समवसरण की रचना होना आदि अतिशयों से संपन्न श्री वर्धमान स्वामी परमेष्ठी कहलाने लगे और परमात्मा पद को प्राप्त हो गये। तदनन्तर इन्द्र ने भगवान् की दिव्य-धवनि का कारण क्या होना चाहिए-इस बात का विचार किया और अवधिज्ञान से मुझे (इन्द्रभूति) उसका कारण जानकर वह बहुत ही संतुष्ट हुआ। वह उसी समय मेरे गाँव में आया। में वहाँ पर गौतम गोत्रीय इन्द्रभूति नाम का उत्तम ब्राह्मण था। महाभिमानी था. आदित्य नामक विमान से आकर शेष बचे हुए पुण्य के द्वारा वहाँ उत्पन्न हुआ था, मेरा शरीर अतिशय देदीप्ययान था और मैं वेदवदांग का जानने वाला था। मुझे देखकर वह इन्द्र किसी उपाय से भगवान के समीप ले आया और प्रेरणा करने लगा कि तुम जीव तत्त्व के विषय में जो कुछ पूछना चाहते थे पूछ लो। . इन्द्र की बात सुनकर मैंने भगवान् से पूछा कि हे भगवन् ! जीव नामक कोई पदार्थ है या नहीं? उसका स्वरूप कहिए। इसके उत्तर में भव्यवस्सल भगवान् कहने लगे कि जीव नामक पदार्थ है और वह ग्रहण किये गये शरीर के प्रमाण है, सत्संख्या आदि सदादिक और निर्देश आदि किमादिक से उसका स्वरूप जाना जाता है। वह द्रव्य रूप से न कभी उत्पन्न हुआ है और न कभी नष्ट होगा किन्तु पर्याय रूप से प्रतिक्षण परिणमन करता है। चेतना उसका लक्षण है, वह कर्ता है, मोक्ता है और पदार्थों के एक देश तथा सर्व देश का जानकार है। इस प्रकार भगवान् ने युक्तिपूर्वक जीव तत्त्व का स्पष्ट स्वरूप कहा । भगवान् के वचन को द्रव्य-हेतु मानकर तथा काललब्धि आदि की कारण सामग्री मिलने पर मुझे जीव तत्त्व का निश्चय हो गया। और मैं उसकी श्रद्धाकर भगवान् का शिष्य बन गया। तदनन्तर भट्टारक वर्धमान स्वामी के उपदेश से मुझे श्रावण वदी प्रतिपदा के दिन पूर्वाह्न काल में समस्त अंगों के अर्थ और पद स्पष्ट जान पड़े। इसी तरह उसी दिन अपराह्न काल में अनुक्रम से पूर्वो के अर्थ व पदों का भी स्पष्ट बोध हो गया। नोट-अतः दिगम्बर मतानुसार भगवान् को प्रथम देशना-केवलज्ञान की प्राप्ति के छयासठवें दिन श्रावण वदी प्रतिपदा को हुई। '४ गणैर्द्वादशभिः प्रोक्तः परीतेन जिनेशिना ।।३८०॥ सिंहविष्टरमध्यस्थेनार्धमागधभाषया । षड्द्रव्याणि पदार्थाश्च सप्तसंसृतिमोक्षयोः ॥३८१॥ प्रत्ययस्तत्फलं चैतत्सर्वमेव प्रपञ्चतः। प्रमाणनयनिक्षेपाचू पायैः सुनिरूपितम् ॥३८२॥ औत्पत्तिक्या दिधीयुक्ताः श्रतवन्तः सभासदाः। केचित्संयमापन्नाः संयमासंयम परे ॥३८३।। सम्यक्त्वमपरे सद्यः स्वभव्यत्वविशेषतः एवं श्रीवर्धमानेशो विदधद्धर्मदेशनाम् ॥३८४॥ क्रमादुराजगृहं प्राप्य तस्थिवान् विपुलाचले। श्रुत्वैतदागर्म सद्यो मगधेशत्वमागतः ॥३८॥ -उत्तपु० पर्व ७४ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश इस प्रकार ऊपर कथित बारह गणों से परिवृत्त भगवान् के सिंहासन के मध्य में स्थित हो अर्धमागधी भाषा के द्वारा छह द्रव्य, सात तत्त्व, संसार और मोक्ष के कारण तथा उनके फल का प्रमाण नय और निक्षेप आदि के द्वारा विस्तारपूर्वक निरूपण किया। भगवान् का उपदेश सुनकर स्वाभाविक बुद्धिवाले कितने शास्त्रज्ञ सभासदों ने संयम धारण किया, कितनों ही ने संयमासंयम धारण किया और कितनों ने अपने मव्यत्व गुण की विशेषतायें शीघ्र ही सम्यग्दर्शन धारण किया। इस प्रकार वर्धमान स्वामी धर्म देशना करते हुए अनुक्रम से राजगृह नगर आये और वहाँ विपुलाचल नामक पर्वत पर स्थित हो गये। हे मगधेश ! जब तुमने भगवान् के आगमन का समाचार सुना-तब तुम शीघ्र ही यहाँ आये। .५ सेणिय हउँ आणिउ दिय पमुहु । महु संसयेण संभिण्णमइ । जिणु पुच्छिउ जीवहु तणिय गइ । गाहें महु संसउ णासियउ । मई अप्पउ दिक्खई भूसियउ। मइँ समउ समण-भावहु गय। पावइय दियहँ पंचसय घत्ता-पत्ते मासे सावणि बहुले पाडिवए दिणि । उप्पण्णउ चउ-बुद्धिउ महु सत्त वि रिसि-रिद्धिउ ।। -वीरजि० संधि २/कड ६ इन्द्र प्रसन्न मुख होकर मुझ (इन्द्रभूति) द्विज प्रमुख को भगवान् के समवसरण में ले आया। उस समय मेरी मति संशय से भ्रांत थी, अतएव मैंने जिनेन्द्र से जीव की गति के विषय में प्रश्न किया। भगवान ने मेरे संशय को दूर कर दिया, तब मैंने अपने आपको मुनि-दीक्षा से विभूषित किया। मेरे साथ अन्य पाँचसो द्विज भी प्रव्रज्या लेकर श्रमण बन गये। तत्पश्चात श्रावण मास के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा के दिन आने पर मुझे चारों प्रकार की बुद्धि तथा सातों ऋषि-ऋद्धियाँ भी उत्पन्न हो गयीं। १-वर्धमान-महावीर को ऋजुकूला नदी के तीर पर केवलज्ञानोत्पत्ति २-तत्पश्चात ही इन्द्र के आदेश से यक्ष द्वारा समवशरण की रचना ३-भगवान् की दिव्यध्वनि झेलने के लिए इन्द्र की खोज ४-इन्द्र अपना वेष बदलकर गौतम के यहां पहुँचता है णिडहेवि घाइ-कम्मेधंणाई भाणाणले जालोहिं घणा॥ घाइक्खइ दह-अइसय धरेहिं । x x x एत्थंतरे हरिणा भणिउ जाम किउ समवसरणु जक्खेणताम । पविउलु वारह-जोयण-पमाणु। x x -वड ढमाणच. संधिह/कड २३ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ वर्धमान जीवन-कोन इय वारह-विह-गणु उवविट्ठउ । हरे विट्ठरे ठिउ सहइ जिणेसर, भामंडल जुइणिज्जिय णेसरू। x x x एत्यंतरे णिण्णासिय मारवे अण उप्पज्जमाण दिव्वारवे । घता-तहो जिणणाहहो अवहिए मुणेवि गोतम-पासे तुरंतउ । गउ सुरवइ गणियाणण लइवि मउड-मणीहि फुरंतउ ॥ -वड ढमाणच० संधि १०/कड १ तब ध्यान रूपी अग्निज्वाला से गहन घातिया कर्म रूपी ईधन जलाकर सिद्धार्थ नरेन्द्र के उस स्तनन्धय-पुत्र (वर्षमान-महावीर) को केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। उस समय वे उत्तम दश अतिशयों को धारण कर सुशोभित हुए। इसी बीच में जब हरि-इन्द्र ने आदेश दिया तब यक्ष ने एक समवसरण की रचना की। वह १२ योजन प्रमाण विशाल बा। इस प्रकार १२ सभाओं में १२ प्रकार के गण (साधु-१, साध्वियाँ-२, भवनपति-वाणध्यंतर-ज्योतिषीवैमानिक देव-देवियाँ-३ से १०, मनुष्य-११ तथा तियंच-१२) उपविष्ट थे। भामंडल की युति से सूर्य को भी जीत लेने वाले जिनेश्वर सिंहासन पर बैठे हुए सुशोभित हो रहे थे। (किन्तु) उस समय जिननाथ को मिथ्यात्व एवं मार-कामनाशक दिव्यध्वनि नहीं खिर रही थी। तब मुकुट-मणियों से स्फुरायमान इन्द्र ने अपने अवधि ज्ञान से (उसका कारण) जाना और (विक्रिया ऋद्धि से) गणितानन-गणितज्ञ-देवज्ञ ब्राह्मण का वेष बनाकर वह तुरन्त ही गौतम के पास पहुँचा । सुरेन्द्र ने गौतम गोत्ररूपी नंभागण के लिए चन्द्रमा के समान तथा गुण-समूह के निवासस्थल उस इन्द्रभूति गौतम को देखा तथा उसे वह स्वयं ही ले आया, जहाँ कि स्वामी-जिन विराजमान थे। उस गौतम ने नत-शिर होकर जीव-स्थिति पर प्रश्न किया, जिसका उत्तर परमानन्द जिनेश्वर ने स्पष्ट किया। उस उत्पन्न दिव्यधवनि को उस गौतम ने समझ लिया, जिससे उस (गौतम) का सन्देह दूर हो गया। अपने ५०० विज पुत्रों के साथ मिलकर उस गौतम विप्र ने सब कुछ त्याग कर जिन-दीक्षा ले ली। उसी दिन अपराह्न में उस गौतम नामक ऋषि ने महावीर-जिन के मुख से निर्गत अर्थों से अलंकृत सांगोपांग द्वादशांग श्रुतपदों की रचना की। •७ तहिं अवलोएविणु गुण - गणहरु, गोत्तम गोत्तणहंगण - ससहरु । विप्पवडूव वेण सुरेंदें, मेरु महीहरे हविय जिणेंदें। सइँ वासवेण पुराणिउ तित्तहे, इंदभूइ जिणुसामिउँ जेत्तहे । माणथंभु अवलोएवि दूरहो विहडिउ माणु तमोहु व सूरहो । पणय - सिरेण तेण गय - माणे, गोत्तमेण महियले असमाणे । पुच्छिउ जीव - छिदि परमेसरु। पयणिय - परमाणंदु जिणेसरु । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश सोविजाय - दिव्यज्झणि भासइ। तहो संदेहु असेसु विणासइ । पंच सयहिं दिय - सुयहें सम्मिल्लें। लइय दिक्ख विप्पेण समेल्लें। तम्मि दिवसे अवरणहए तेणवि। सोवंगा गोतम णामेणवि । जिण - मुह - णिग्गय अत्थालंकिय । वारहंगं सुय - पय रयणंकिय । -वड्ढमाणच० संधि १०/कड २ भासइ अहर - फरण - परिवजिउ, खयरामर नर नियरहिं पुजिउ । दोविह जीव सिद्ध - संसारिय। संसारिय णिय - कम्में भारिय ।। -वड्ढमाणच० संधि १०/कड ४ सुमेरु पर्वत पर जिनेन्द्र कान्हवन करने वाले तथा विप्र वहुक के वेषधारी उस सुरेन्द्र ने गौतम गोत्ररूपी नंभागण के लिए चन्द्रमा के समान तथा गुण-समूह के निवास-स्थल उस इन्द्रभूति गौतम को देखा तथा उसे वह स्वयं ही ले आया, जहाँ कि स्वामी जिन विराजमान थे। दूर से मानस्तम्भ देखकर उस (गौतम) का मान-अहंकार उसी प्रकार नष्ट हो गया, जिस प्रकार कि सूर्य के सम्मुख अंधकार-समूह नष्ट हो जाता है। उस गौतम ने निरहंकार भाव से नतशिर होकर पृथिवी-मंडल पर असाधारण उन परमेश्वर के जीव-स्थिति पर प्रश्न किया, जिनका उत्तर परमानन्द जिनेश्वर ने स्पष्ट किया। उस उत्पन्न दिव्य-ध्वनि को उस गौतम ने समझ लिया, जिससे उस (गौतम) का सम गया। अपने ५.० द्विज-पुत्रों के साथ मिलकर उस गौतम विप्र ने सब कुछ त्यागकर जिन-दीक्षा ले ली। पूर्वाह्न में दीक्षा लेने के साथ ही उसे (गौतम को) ७ विख्यात (अक्षीण) लब्धियाँ (बुद्धि, क्रिया, विक्रिया, बल) उत्पन्न हो गयों तथा उसी दिन अपराह्न में उस गौतम नामक ऋषि ने महावीर-जिन के मुख से निर्गत अर्थो से अलंकृत सांगोपांग द्वादशांग श्रुतपदों की रचना की। विद्याधरों, देवों और मनुष्यों द्वारा पूजित महावीर जिनेंद्र ने ओष्ठ-स्फुरण के बिना ही सप्त तत्त्वों पर इस प्रकार प्रवचन किया सिद्ध और संसारी के भेद से जीव दो प्रकार के होते हैं। अपने कर्मों के भार को ढोनेवाले जीव संसारी कहलाते हैं। •८ णिस्तंसयकरो वीरो महावीरो जिणुत्तमो । राग-दोस-भयादीदो धम्मतित्थस्स कारओ ॥१६॥ ५१. कत्थं कहियं ? सेणियराए सचेलणे महामंडलीए सयलवसुहामंडल भुजंते मगहामंडल-तिल ओवमरायगिहणया रयिदिसमहिट्ठिय - विउल - गिरिपव्वए सिद्धचारणसेविए बारहगणपरिवेड्ढिएण कहियं । उत्तं च"पंचसेलपुरे रम्मे, विउले पव्वदुत्तमे। णाणादुमसमाइण्णे, सिद्धचारणसेविदे ॥१७॥ ऋषिगिरिरैन्द्राशायां चतुरस्रो याम्यदिशि च वैभारः। विपुलगिरिनैऋत्यामुभौ त्रिकोणो स्थिती तत्र ।।१८।। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश धनुषा (रा) कारच्छिन्नो वारुण-वायव्य-सोमदिक्षु ततः। वृत्ताकृतिरीशाने पांडुस्सर्वे कुशाग्रवृताः ॥१६॥ कम्हि काले कहियमिदि पुच्छिदे सिस्साणं पच्चयजणण8 कालपरूवणा कीरदे । तंजहा- दुषिहो कालो उस्सप्पिणी ओसप्पिणी चेदि । जत्थ बलाउउस्सेहाणमुस्सप्पण्णं बुड्ढी होदि सो कालो उस्सप्पिणी । जत्थ तेसिं हाणी होदि सो ओसप्पिणी । तत्थ एक को सुसमसुसमादिभेएण छविहो । तत्थ एदस्स भरहखेत्तस्स ओसप्पिणीए चउत्थे दुस्समसुसमकाले णवहि दिवसेहि छहि मासेहि य अहियतेत्तीसवासावसेसे। तित्थुप्पत्ती जदा । उत्तंचइम्मिस्सेवसप्पिणीए चउत्थकालस्स पच्छिमेभाए। चोत्तीसवासावसेसे किंचि विसेसूण कालम्मि ॥२०॥ -कसापा० भा २/गा/५/टीका/पृ० ७३-७४ एदम्हि छावट्ठिदिवसूणकेवलिकाले पक्खित्ते णवदिवसछम्मासाहिय तेत्तीसवासाणि चउत्थकाले अवसेसाणि होति । छासहिदिवसावणयणं केवलकालम्मि किमट्ट कोरदे । केवलणाणे समुप्पण्णेवि तत्थ तित्थाणुष्पत्तीदो। दिव्यज्माणीए किमलु तत्थापउत्ती ? गणिदाभावादो। सोहमिदादेण तक्खणे चैव गणिदो किण्ण ढोइदो ? ण; काललद्धीए विणा असहेजस्स देविंदस्स तड ढोयणसत्तीए अभावादो । सगपादमूलम्मि पडिवण्णमहव्वयं मोत्तण अण्णमुदिस्सिय दिवज्झुणी किण्ण पयट्टदे ! साहावियादो। ण च सहाओ पर पज्जणिओगारुहो; अव्ववत्थावत्तीदो । तम्हा चोत्तीसवासावसेसकिंचिविसेसूणचउत्थकालम्मि तित्थुप्पत्ती जादेत्ति सिद्ध। - कसापा० गा १/टीका/भाग १/पृ० ७५-७६ पटवष्टि दिवसान् भूयो मौनेन विहरन् विभू: । आजगाम जगत्ख्यातं जिनो राजगृहं पुरम् ।। आरुरोह गिरि तत्र विपुलं विपुलश्रियम् । प्रबोधार्थ स लोकानां भानुमानुदयं यथा ।। श्रावणस्यासि ते पक्षे नक्षत्रेऽभिजिति प्रभुः। प्रतिपद्यह्नि पूर्वाह्न शासनार्थमुदाहरत् ।। -हरिपु० २, ६१ आदि जिन्होंने धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति करके समस्त प्राणियों को नि संशय किया, जो वीर है अर्थात् जिन्होंने विशेष रूप से समस्त पदार्थ-समूह को प्रत्यक्ष कर लिया है, जो जिनों में श्रेष्ठ है तथा राग, द्वेष और भय से रहित है-ऐसे भगवान महावीर धर्मतीर्थ के कर्ता है। प्र०-भगवान् महावीर ने धर्मतीर्थ का उपदेश कहाँ पर दिया। समाधान-जब महामंडलीक श्रेणिक राजा अपनी चेलना रानी के साथ सकल पृथिवी मंडल का उपभोग करता था। जब मगध देश के तिलक के समान राजगृह नगर की नैऋत्य दिशा में स्थित तथा सिद्ध और चारणों के द्वारा सेवित विपुलगिरि पर्वत के ऊपर बारह गणों अर्थात् सभाओं से परिवेष्टित भगवान महावीर ने धर्मतीर्थ का कथन किया। कहा भी है। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५७ "पंचशैल में अर्थात् पाँच पहाड़ों से शोभायमान राजगृह नगर के पास स्थित, नाना प्रकार के वृक्षों से व्याप्त, • सिद्ध तथा चारणों से सेवित और सर्व पर्वतों में उत्तम ऐसे अति रमणीक विपुलाचल पर्वत के ऊपर भव्यजनों के लिए भगवान् महावीर ने धर्म तीर्थ का प्रतिपादन किया । ऐन्द्र अर्थात् पूर्व दिशा में चौकोर आकार वाला ऋषिगिरि नाम का पर्वत है । दक्षिण दिशा में बेभार और नैऋत्य दिशा में विपुलाचल नाम के पर्वत है । ये दोनों पर्वत त्रिकोण आकार वाले हैं । पश्चिम, वायव्य और उत्तर दिशा में धनुष के आकार वाला छिन्न नाम का पर्वत है । ऐशान दिशा में गोलाकार पांडु नाम का पर्वत है । ये सब पर्वत कुश के अग्रभागों से ढंके हुए हैं । वर्धमान जीवन - कोश किस काल में धर्म तीर्थ का प्रतिपादन किया — ऐसा पूछने पर शिष्यों को काल का ज्ञान कराने के लिए आगे काल की प्ररूपणा की गयी है । वह इस प्रकार है- उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के भेद से काल दो प्रकार का है । जिस काल में बल, आयु और शरीर की ऊचाई का उत्सर्पण अर्थात् वृद्धि होती है वह काल उत्सर्पिणी काल है । तथा जिस काल में बल, आयु और शरीर की ऊंचाई की हानि होती है वह अवसर्पिणी काल है । उनमें से प्रत्येक काल सुषमसुषमादि के भेद से छह प्रकार का होता है। उनमें से इस भरत क्षेत्र सम्बन्धी अवसर्पिणी काल के चौथेदुःषभ-सुषमा काल में नौ दिन और छः मास अधिक तेतीस वर्ष अवशिष्ट रहने पर धर्मतीर्थ की उत्पत्ति हुई ! कहा भी है। इस अवसर्पिणी काल के दुषभसुषमा नामक चौथे काल के पिछले भाग में कुछ कम चौतीस वर्ष बाकी रहने पर धर्म तीर्थ की उत्पत्ति हुई । (ग) श्वेताम्बर मतानुसार भगवान् की द्वितीय देशना - अपापा नगरी में ( भगवान् महावीर और समवसरण ) द्वितीय समवसरण में तीर्थ की स्थापना परोपकारैकपरः १ च प्रभुः । उपकारार्हलोकानामभावात्तत्र तीर्थकृन्नामगोत्राऽख्यं कर्म वेद्यं महन्मया । द्यसन्निकाय नि कोटीभिरसंख्याताभिरावृतः । सुरैः संचार्यमाणेषु स्फुटे मार्गे दिन इव देवोघोतेन निश्यपि । द्वादशयोजनाध्वनां भव्य सत्त्वैर लंकृताम् ॥१७॥ गौतमाद्यः प्रबोध हैर्भूरिशिष्य समावृतैः । यज्ञाय मिलितैर्जुष्टामपापामगमत्पुरीम् ||१८|| तस्या अदूरे पुर्याश्च महासेनवनाभिघे । उद्याने चारुसमसरणं विबुधाव्यधुः ||१६|| सञ्जातसर्वातिशयः स्तूयमानः सुरासरैः । पूर्वद्वारेण समवसरणं प्राविशत्प्रभुः ||२०| द्वात्रिंशद्धनुरुत्तुंगं रत्नच्छंदच्छं विर्निभम् । ततः प्रदक्षिणीकृत्य चैत्यवृक्षं जगद्गुरुः ॥२१॥ नमस्तीर्थामेत्युदित्वा पालयन्नर्हतीं स्थितिम् । सपादपीठे न्यषदत्पूर्व सिंहासने प्रभुः ||२२|| स्वामिनः प्रतिरूपाणि तन्महिम्नैव नाकिनः । विचक्रिरे भक्तिमन्तस्तिसृष्वन्यासु दिक्ष्वपि ||२३|| यथाद्वारं प्रविश्याथ यथास्थित्यत्रतस्थिरे । पश्यन्तः स्वामिवदनं सर्वे सुरनरादयः ||२४|| नमस्कृत्य जगन्नार्थं द्य सन्नाथः कृताञ्जलिः । रोमाञ्चितवपुर्भक्तया स्तोतुमेवं प्रचक्रमे ||२५|| - त्रिशलाका० पर्व १० / सर्ग ५ प्रक्षीणप्रेमबंधनः || १४॥ भव्यजंतुप्रबोधेनानुभाव्यमितिभावयन् ॥१५॥ स्वर्णाब्जेषु दधत्क्रमौ ॥ १६॥ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ वर्धमान जीवन-कोश इत्यभिष्टुत्य विरते बिडोजसि जगद्गुरुः । सर्वभाषाजुषा वाचा विदधे देशनामिति ॥३८॥ . अहो अपारः संसारः सरस्वानिव दारुणः । कारणं तस्य कर्मैव हन्त बीजं तरोरिव ।।३।। कर्मर्णा स्वकृतेनैव विवेकपरिवर्जितः।। कूपकारइवाधस्ताद्गतिमाप्नोति देहभृत् ॥४०॥ अप्यूर्ध्वगतिमाप्नोति निजनैव हि कर्मणा । प्रासादकारक इव शरीरी विशदाशयः ॥४॥ प्राणातिपातं नो कुर्यात् कर्मबंधनिबंधनम्। स्वप्राणवत् परप्राणपरित्राणपरो भवेत् ॥४२॥ न मृषा जातु भाषेत किं तु भाषेत सूनृतम् । परपीडां परिहरन्नात्मपीडामिवांगवान् ॥४३।। अदत्तं नाददीऽतार्थ बाह्यप्राणोपमं नृणाम् । अर्थ हि हरता तेषां वध एव कृतो भवेत् ॥४४॥ मैथुनं म विदध्याच्च बहुजीवोपमर्दकम् । ब्रह्मव कुर्यात्तत्प्राज्ञः परब्रह्मनिबंधनम् ॥४५॥ परिग्रहं न कुर्याच्च परिग्रहवशेन हि। गोरिवाधिकनारेण विधुरो निपतत्यधः ।।४६॥ एतान्प्राणातिपातादीन् सूक्ष्मांस्त्यक्तं न चेत्क्षमाः । त्यजेयुर्बादरांस्तर्हि सूक्ष्मत्यागेऽनुरागिणः ॥४७॥ इत्थं च देशनां भर्तुः शृण्वन्तोऽवहिता जनाः। तस्थुरानन्दनिस्पन्दा आलेख्यलिखिता इव ॥४८॥ -त्रिशलाका० पर्व १८/सर्ग ५ उप्पन्नंमि अणते नटुम्मि अ छाउमथिए नाणे । राईए संपत्तो महसेणवणम्मि उज्जाणे ।। -आव० नि गा ५३८ मलय टीका-उत्पन्ने-प्रादुर्भूते अनन्ते- अनंतज्ञ यविषये, कस्मिन् ?- ज्ञाने केवलज्ञाने नष्टे च छाद्मत्थिके मत्यादिरूपे ज्ञाने, देशज्ञानव्यवच्छेदेन केवलज्ञानसभावाद्, भावितं चैतत् प्रथमपीठिकायां, रात्रौ सम्प्राप्तो महसेनवने उद्याने, किमिति चेत् ? उच्यते भगवतो ज्ञानरत्नोत्पत्तिसमनन्तरमेव देवाश्चतुर्विधा अप्यागता आसन् , अत्यद्भुतां च प्रहर्षवन्तो ज्ञानोत्पादमहिमां चक्र, तत्र भगवान् अवबुध्यते-नात्र कश्चित्प्रव्रज्याप्रतिपत्ता विद्यते, तत एतद् विज्ञाय न विशिष्टधर्मकथनाय प्रवृत्तवान् , केवलं कल्प एषः-यत्र ज्ञानमुत्पद्यते तत्र जघन्यतोऽपि मुहूर्त्तमात्रमवस्थातव्यं देवकृता च पूजा प्रतीच्छनीया धर्मदेशना च कर्त्तव्येति संक्षेपतो धर्मदेशनां कृत्वा द्वादशसु योजनेष मध्यमानाम नगरी, x x x । अमरनररायमहिओ पत्तो वरधम्मचक्कवट्टित्तं । बीअंपि समोसरणं पावाए मज्झिमाए उ ।। -आव: नि गा ५३६ मलय टीका-अमरा-देवाः नरा-मनुष्याः तेषां राजानस्तैर्महितः- पूजितः प्राप्तो धर्मवरचक्रवत्तित्वं धर्मवरप्रभुत्वं, द्वितीयं पुनः समवसरणं, अपिशब्दः पुनरर्थे, पापायां मध्यमायां प्राप्त इत्यनुत्तते । ज्ञानोत्पत्तिस्थानकृतपूजापेक्षया चास्य द्वितीयता। x x x एवं जाव मज्झिमाए णगरीए महसेणवणं उजाणं संपत्तो। तत्थ देवा बितियं समोसरणं करेंति, महिमंच सुरुग्गमणे, एग जत्थ नाणं बितियं इमं चेव । -आव० चू० पूर्व भाग/पृ० ३२३-३२४ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक ग्राम में भगवान् ने प्रथम देशना दी । फलस्वरूप उस समय वहाँ उपकार के योग्य ऐसे जीवों का बिल्कुल अभाव होने से परोपकार में तत्पर और जिनका प्रेमबंधन क्षीण हो गया है— ऐसे वर्धमान महावीर ने अपापा नगरी की ओर विहार किया मेरे तीर्थंकर नाम गोत्र नाम का मोटा कर्म वेदने के अनुभव करने योग्य है। ऐसा विचार कर असंख्प कोटि देवों से पर चरण छोड़ते हुए भगवान् दिवस की तरह देवों के उद्योत से वाली भव्य प्राणियों से अलंकृत और यथार्थ बुलाये हुए, विमों से सेवित अपापा नगरी में भगवान आये। पहुँचे । महासेन उद्यान में ठहरे । योग्य है। उन भव्य जीवों को प्रतिबोध देने के योग्य परिवारित और देवों के द्वारा संचारित सुवर्ण कमल रात्रि में भी प्रकाश करते हुए बारह योजन के विस्तार प्रबोध के योग्य बहुत से शिष्यों से परिवारित, गौतमादिक अर्थात् भगवान् महावीर वैशाख शुक्ला एकादशी को मध्यम पावा उस पुरी के नजदीक महासेन वन नामक उद्यान में देवों ने एक सुन्दर समवसरण की रचना की । तत्पश्चात सर्व अतिशयों से संपन्न, सुर असुरों से स्तवित भगवान् ने पूर्वद्वार से उस प्रवेश किया । वर्धमान जीवन कोश बतीस धनुष ऊंचे रन के प्रतिच्छंद चेत्य वृक्ष को तीन प्रदक्षिणा कर 'तीर्थाय नमः' ऐसा कहकर आती मर्यादाओं को पालन कर भगवान् पादपीठ युक्त पूर्व सिंहासन पर बैठे। भक्ति वाले देवों ने प्रभु की महिमा से हो अन्य तीन दिशाओं में प्रभु के प्रतिरूप किये। सत्य ही बोलना चाहिए । - १५६ उस अवसर पर सर्व देवों तथा मनुष्यादि योग्य द्वार से समवसरण में प्रवेश कर प्रभु के शरीर को देखते स्वयं स्वयं के योग्य स्थान में बैठे 1 तत्पश्चात् शकेन्द्र भक्ति से रोमाञ्चित शरीर से प्रभु को नमस्कार कर अंजलि जोड़कर स्तुति की। कर्म के बंध का कारण ऐसी प्राणी की हिंसा कदाचित् भी नहीं करनी चाहिए । हमेशा स्वयं के प्राणी की तरह दूसरों के प्राणी की रक्षा करने में तत्पर रहना चाहिए । आत्म पीड़ा की तरह पर जीव को पीड़ा को दूर करने की इच्छा रखता हुआ प्राणी असत्य नहीं बोलते हुए मनुष्य के बहि:प्राण लेने की तरह अदत्त द्रव्य कदाचित् भी ग्रहण नहीं करना चाहिए। क्योंकि उसके द्रव्य का हरण करने से उसका वध किया हुआ हो कहा जाता है । बहुत जीवों का उपमर्दन करने वाला मैथून का कभी भी सेवन नहीं करना चाहिए। प्रशापुरुष को परब्रह्म (मोक्ष) को देने वाला ब्रह्मचर्य को ही धारण करना चाहिए । परिग्रह का ग्रहण नहीं करना चाहिए। अति परिग्रह के ग्रहण करने से अधिक भार से बलद की तरह प्राणी विधुर होकर अधोगति में गिरते है । इन प्राणातिपातादि के दो भेद हैं- सूक्ष्म और बादर । इनमें से यदि सूक्ष्म को नहीं छोड़ा जा सकता है तो सूक्ष्म के त्याग में अनुरागी होकर बादर का त्याग अवश्य ही करना चाहिए । इस प्रकार की भगवान की देशना सुनकर सर्व लोक आनन्द में मग्न होकर चित्रवत् स्थिर हो गये । Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश भगवान् भी स्तुति कर इन्द्र विराग को प्राप्त हुआ। तत्पश्चात् प्रभु सर्व भाषा में समझा जाय--ऐसी वाणी से देशना दी। यह भगवान् महावीर को द्वितीय देशना थी। ___ "अहो ! यह संसार समुद्र की तरह दारुण है और उसका कारण वृक्ष में बीज की तरह कर्म ही है। .... स्वयं के ही किये कर्म से विवेक रहित हुआ प्राणी कूप खोदने वाले की तरह अधोगति को प्राप्त होता है और शुद्ध हृदय वाला पुरुष, स्वयं के हो कर्म से महत् बांधने वाले की तरह ऊर्ध्वगति को प्राप्त होता है। •३ भगवान महावीर और समवसरण द्वितीय समवसरण में तीर्थ की स्थापना हुई-ग्यारह गणधर दीक्षितमलय टीका-xx x तत्र भगवान् x x x संक्षेपतो धर्मदेशनां कृत्वा द्वादशसु योजनेष मध्यमानाम नगरी, तत्र सोमिलाख्थो नाम ब्राह्मणः, स यज्ञ यष्टुमभ्युद्यतः, तत्र चैकादशोपाध्यायाः, खल्वागताः, ते च चरमशरीरा भवान्तरोपा जितगणधरलब्धयश्च, तान् विज्ञायासंख्येयाभिवकोटिभिः परिवृतो देवोद्योतेन दिवस इवा शेषं पंथानमुद्योतयन् देवपरिकल्पितेष सहस्रपत्रेषु नवनीतस्पशेष पमेष चरणन्यासं विदधानो मध्यमनगर्या महसेनवनोद्यानं सम्प्राप्तः ॥ x x x तत्थ किरसोमिलज्जोत्तिमाहणो तस्स दिक्खकालम्मि । पउरा जणजाणवया समागया जन्नवाडम्मि ।। एगते अ विवित्ते उत्तरपासम्मि जन्नवाडस्स । तो देवदाणविंदा करिति महिमं जिणिदस्स ।। भवणवइवाणमंतर जोइसवासी विमाणवासी य । सव्विड्ढीइ सपरिसा कासी नाणुप्पयामहिमं ।। -आव० नि गा ५४० से ५४२ टीका-तत्र पापायां मध्यमायां किलशब्दः पूर्ववत्, सोमिल: आर्य इति-व्राह्मणः तस्य दीक्षाकाले यागकाले पौरा-विशिष्टनगरनिवासिलोका जनाः-सामान्यलोका जनपदा-नानाजनपदभवा लोका समागता यज्ञ पाटे ॥ xxx भगवान महावीर ने अपापा नगरी के नजदीक महासेन उद्यान में संक्षेपतः धर्म देशना दी। अपापा नगरी में सोमिल नामका एक धनाढ्य ब्राह्मण रहता था। उसने यज्ञकर्म में विचक्षण ग्यारह द्विज को यज्ञ करने के लिए आमंत्रित किया। एकादश उपाध्यायों का समागत हुआ। वे चरम शरीरी थे। उन्होंने अनेक देवों को आकाश मार्ग से भगवान् महावीर के समवसरण की ओर जाते हुए देखा। ग्यारह ही गणधरों ने ४४०० शिष्यों के साथ भगवान के पास दीक्षा ग्रहण की ! .४ देशना का निष्कर्ष-अपापा नगरी के दूसरे समवसरण में-चतुर्विध संघ की स्थापना महाकुला महाप्राज्ञाः संविग्ना विश्ववंदिताः। एकादशाऽपि तेऽभूवन्मूलशिष्या जगद्गुरोः ॥१६॥ इतश्च चन्दना तत्र शतानीकगृहस्थिता। पश्यन्ती यान्तमायान्तं दिविषजनमम्बरे ॥१६॥ स्वामिनः केवलोत्पत्तिनिश्चयाद्वतकांक्षिणी। त्रिदशैरदवीयोभिनिन्ये श्रीवीरपर्षदि ॥१६२।। Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन - कोश १६१ सा त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य नत्वा चोपास्थित प्रभुम् । प्रव्रज्यार्थं नृपाऽमात्यपुत्र्यो बहूयोऽपराअपि ॥ १६३॥ चन्दन धुरि कृत्वा ताः स्वयं प्राव्राजयत् प्रभुः । अस्थापयच्छ्रावकत्वे नृन्नारीश्च सहस्रशः ॥ १६४ ॥ जाते संवे चतुर्थेषं धोब्योत्पादव्ययात्मिकाम् । इन्द्रभूतिप्रभृतीनां त्रिपदी व्याहरत् प्रभुः || १६५ ॥ - त्रिशलाका० पर्व १० / सर्ग ५ ( भगवान् के पास अपने प्रश्नों का समाधान किया ) इस प्रकार महान् कुल में उत्पन्न हुए महाप्राज्ञ, संवेग को प्राप्त और विश्व को वंदित - ऐसे इन्द्रभूति आदि ग्यारह प्रसिद्ध विद्वान श्री वीर प्रभु के मूल शिष्य हुए । इस समय शतानिक राजा के घर में स्थित चंदना ने आकाश मार्ग में आते-जाते हुए देवों को देखा। इससे प्रभु को केवलज्ञान की उत्पत्ति होने का निश्चय होने से उसको व्रत लेगे की इच्छा हुई । तत्पश्चात् पास में स्थित कोई देव उसे श्री वीर प्रभु की परिषद् में लाकर रखा । प्रभु को तीन प्रदक्षिणा कर नमस्कार कर चंदना दीक्षा लेने के लिए तत्पर हुई और खड़ी रही । उस समय दूसरे भी अनेक राजा तथा अमात्य की पुत्रियाँ दीक्षा लेने के लिए तैयार हुई । भगवान् ने चंदना को आगे कर उन सर्व को दीक्षा दी और हजारों नर-नारी श्रावकपन में स्थापित किये । इस प्रकार प्रथम (द्वितीय) देशना के बाद चतुविध संघ की स्थापना हुई । ५ आर्य चंदना को प्रवर्तिनी पद पर स्थापित - भगवान् महावीर की धर्म देशना - द्वितीय धर्म देशना - साध्वीनां संयमोद्योगघटनार्थं तदैव च । प्रवर्तिनीपदे स्वामी स्थापयामास चन्दनाम् ॥ १८२ ॥ पूर्णप्रथम रुयां देशनां व्यसृजत् प्रभुः । राजोपनीतस्तत्र प्रागद्वारेण प्राविशदुबलिः || १८ || - त्रिशलाका० पर्व १० / सर्ग ५ भगवान् महावीर ने सत्री चंदना को संयमोद्योग के घटनार्थ प्रवर्तिनी पद पर स्थापित किया । इस प्रकार प्रथम पौरुषी पूर्ण हुई । भगवान् ने देशना समाप्त की '६ भगवान् की अन्तिम देशना के समय इन्द्रभूति (गौतम) भगवान् के निकट नहीं थे । * १ भगवान् बहत्तरवें वर्ष में चल रहे थे । उस अवस्था में भी वे पूर्ण स्वस्थ थे । वे राजगृह से विहार कर आपापापुरी में आये । वहाँ की जनता और राजा हस्तिपाल ने भगवान् के पास धर्म का तत्त्व सुना । भगवान् के निर्वाण का समय बहुत समीप आ रहा था । भगवान् ने गौतम को आमंत्रित कर कहा- गौतम ! पास के गांव में सोमशर्मा नाम का ब्राह्मण है । उसे धर्म का तत्त्व समझाना है । तुम वहाँ जाओ और उसे संबोधि दो । गौतम भगवान् का आदेश शिरोधार्य कर वहाँ चले । भगवान् ने दो दिन का उपवास किया । वे दो दिन तक प्रवचन करते रहे । भगवान् ने अपने अन्तिम प्रवचन में पुण्य और पाप के फलों का विशद् विवेचन किया। भगवान् प्रवचन करते-करते ही निर्वाण को प्राप्त हो गये । उस समय रात्रि चार घड़ी शेष थी । " १ – सौभाग्यपचयादि पर्व कथा संग्रह, पर्व १०० २ -- समवाओ, ५५/४ ३—कल्पसूत्र, सूत्र १४७, सुबोधिका टीका, चतुर्थघटिकावशेषायां सत्रौ । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन - कोश सोमशर्मा ब्राह्मण प्रतिबुद्ध हो गया । गौतम अपने कार्य में सफल होकर भगवान् के पास आ रहे थे । उनका मन प्रसन्न था । वे सोच रहे थे – मैं भगवान् को अपने उद्देश्य में सफल होने की बात कहूँगा । उन्हें इसका पता हो, फिर भी मैं अपनी ओर से बताऊंगा । वे अपनी कल्पना का ताना-बाना बुन रहे थे । इतने में उन्हें संवाद मिला कि भगवान् महावीर का निर्वाण हो गया । भगवान् महावीर की अन्तिम देशना सोलह प्रकार की थी। भगवान् छुट्ट भक्त से अन्तर्गत अनेक प्रश्न- चर्चाएं हुई। राजा पुण्यपाल ने अपने आठ स्वप्नों का फल पूछा । विरक्त हुआ और दीक्षित हुआ । हस्तिपाल राजा भी प्रतिबोध पाकर दीक्षित हुआ । ર २ भगवान की अन्तिम देशना ( अन्तिम रात्रि में ) - समणे भगवं महावीरे अंतिमराइयंसि, पणपण्णं अज्मयणाई कल्लाणफल विवागाइ, पणपण्णं अज्झणाणि पावफलविवागाणि वागरिता सिद्धे बुद्ध े मुत्ते अंतगडे परिणिन्वडे सव्यदुक्खपणे - समः सम ५५/०४/१० ८८६ टीका- 'अन्तिमरायंसि ' त्ति सुर्वायुःकालपर्यवसानरात्रौ रात्रेरतिमे भागे पापाय मध्यमाय नगर्यां हस्तिपालस्य राज्ञः करणसभायां कात्तिकमासामावास्यायां स्वातिनक्षत्रेण चंद्रमसा युक्त नागकरणे प्रत्युषसि पर्यं कासननिषण्णः पञ्चपञ्चाशदध्ययनानि 'वल्लाणफलविषागाइ " त्ति कल्याणस्य - पुण्यस्य कर्मणः फलं कार्य विपाच्यते - व्यक्ती क्रियते यैस्तानि वल्याणफलविपाकानि, एवं पापफलविपाकानि व्याकृत्य प्रतिपाद्य सिद्धो बुद्धः यावत्करणात् 'मुत्ते अंतकडे परिनिबुडे दुक्खनहीणे ति दृश्यं । 'पढ' त्यादि प्रथमायां त्रिंशन्नर कलक्षाणि द्वितीयायां पंचविंशतिरिति पंचपंचाशत् । 'दंसणे' त्यादि, दर्शनावरणीयस्य नव प्रकृतयो नाम्नोद्विचत्वारिंशत् आयुषश्चतस्र इत्येकं पंचपं नाशदिति उपोसित थे । देशना के उत्तर सुनकर संसार से श्रमण भगवान् महावीर अन्तिम रात्रि में पचपन अध्ययन पुण्यफल के विपाक वाले और पचपन अध्ययन पापफल के विपाक वाले प्ररूपित कर सिद्ध हुए, बुद्ध हुए यावत् सर्व दुःखों से रहित हुए । 'अंतिमरामं सित्ति' सर्व आयुष्य के काल की अन्तिम रात्रि में, रात्रि के अन्तिम प्रहर पापा नाम की मध्यमा नगरी में हस्तिपाल राजा को कार्य सभा में कार्तिक मास की अमावस्या में, स्वाति नक्षत्र में चन्द्र के रहते हुए, नाग नामक करण के रहते हुए, प्रातःकाल पर्यं कासन में बैठे हुए भगवान ने पचपन अध्ययन कल्याण के पुण्य कर्म के फल का, कार्य को प्रगट करने वाले कहे अध्ययन कहकर सिद्ध बुद्ध याक्त सर्व दुःखों से और इसी प्रकार पापफल को प्रगट करने वाले पचपन मुक्त हुए । '३ अथ तत्र सुराश्चक्र ुर्वप्रत्रितयभूषितम् । रम्यं ज्ञात्वा निजायु पर्यन्तमन्तिम देशनां प्रभुः । कर्त्तुं स्वामिनं समवसृतं ज्ञात्वाऽपापापुरीपतिः । हस्तिपालः समागत्य नत्वा च समुपाविशत् ||३|| समवसरणं स्वामिनो देशनासदः ॥ तस्मिन्नुपाविक्षत् सुरासुरनिषेवितः ||२|| Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश शुश्रूपमाणास्तत्रास्थुर्यथास्थानं सुरादयः। एत्य नत्वा सहस्राक्ष इति स्वामिनमस्तवीत् ॥४॥ -त्रिशलाका० पर्व १०/सर्ग १५ अपापानगरी में देवों ने तीन वनों से विभूषित रमणीक समवसरण भगवान् की देशना देने के लिए रचित किया। सुर-असुर सेवित प्रभु स्वयं के आयुष्य का अंत जानकर अन्तिम देशना देने के लिए बैठे। भगवान् पधारे हैं-ऐसा जानकर अपापापुरी का राजा हस्तिपाल वहाँ आया और भगवान् को नमस्कार किया और भगवान् की देशना सुनने के लिए बैठा। देव भी देशना सुनने के लिए वहां आये। उस समय इन्द्र आकर भगवान को नमस्कार किया। फिर भगवान ने ऐसी देशना दीसमणे भगवं महावीरे एगदिवसेणं एगनिसिजाए चउप्पण्णाईवागराई वागरित्था । -सम० सम ५५/सू३ श्रमण भगवान् महावीर ने एक ही दिवस में एक ही आसन पर बैठकर चौपन व्याकरण (प्रश्नोत्तर) कहे थे। ७ मगवान् महावीर की अन्तिम देशना एवं स्तुत्वा हस्तिपाल विरतेऽईन्नपश्चिमः । अपश्चिमामित्यकरोद्भगवान् धर्मदेशनाम् ॥२४॥ पुमर्था इहयत्वारः कामार्थी तत्र जन्मिनाम् । अर्थभूतो नामधेयादनी परमार्थतः ॥ ५॥ अर्थस्तु मोक्ष एको धर्मस्तस्य च कारणम् । संयमादिर्दशविधः संसाराम्भोधितारणः ॥२६।। अनन्तदु खः संसारो मोक्षोऽनन्तसुग्वः पुनः । तयोस्त्यागपरिप्राप्तिहेतुर्धर्म विना न हि ॥७॥ मार्ग श्रितो यथा दूरं क्रमात् पंगुरपि ब्रजेत् । धर्मस्थो घनकर्माऽपि तथा मोक्षमवाप्नुयात् ॥२८॥ एवं च देशनां कृत्वा विरते त्रिजगद्गुरौ। मण्डलेशः पुण्यपालः प्रभुं नत्वा व्यजिज्ञपत् ॥६॥ -त्रिशलाका० पर्व १०/सर्ग १३ हस्तिपाल राजा ने भगवान् की स्तुति की। तत्पश्वात् चरमतीर्थकर भगवान महावीर ने इसप्रकार देशना दी "इस जगत में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-ये चार पुरुषार्थ हैं। उनमें काम और अर्थ-प्राणियों के लिए नाम से ही अर्थ रूप हैं, परमार्थ रूप में अनर्थ रूप है। चार पुरुषार्थ में, सम्यग् रूप से, अर्थ रूप एक मोक्ष रूप है और उसका कारण धर्म है। वह धर्म-संयमादि दश प्रकार का कहा है। और संसार-सागर से तारने वाला है। अनंत दःख रूप संसार है और अनंत सुख रूप मोक्ष है। इसका कारण संसार का त्याग और मोक्ष की प्राप्ति का हेतु धर्म के बिना अन्य कोई नहीं है।" पंगु मनुष्य भी वाहन के आश्रय से दूर जा सकता है उसी प्रकार धनकर्मी होने पर भी धर्म के आश्रय से मोक्ष जा सकता है। ८ भगवान् को अन्तिम देशना की समाप्ति पर राजा हस्तिपाल ने देखे गये आठ स्वप्नों का अर्थ पूछाअथ तत्र सुराश्चक र्वप्रत्रितयभूषितम् । रम्यं समवसरणं स्वामिनो देशनासदः ॥॥ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोय ज्ञात्वा निजायुपर्यन्तमन्तिमा देशनाप्रभुः। कर्तु तस्मिन्नुगविक्षत् सुरासुरनिषेवितः ॥२॥ स्वामिनं समवसृतं ज्ञात्वाऽपापापुरीपतिः । हस्तिपालः समागत्य नत्वाच समुपाविशत् ॥३॥ शुश्रूषमाणास्तत्रास्थुर्यथास्थानं सुरादयः। x x x एवं स्तुत्वा हस्तिपाल विरतेऽईन्नपश्चिमः । अपश्चिमामित्यकरोद् भगवान् धर्मदेशनाम् ॥२४॥ एवं च देशनां कृत्वा विरते त्रिजगद्गुगै। मण्डलेशः पुण्यपालः प्रभुं नत्वा व्यजिज्ञपत् ।।२।। स्वामिन् स्वप्ना मयाऽद्याष्टो दृष्टास्तत्र गजःकपिः । क्षीरदुः काकसिंहाब्ज बीजकुंभाइमे क्रमात् ॥३०॥ तदाख्याहि फलं तेषां भीतोऽस्मि भगवन्नहम् । इति पृष्टो जगन्नाथो व्याचकारेति तत्फलम् ।।३।। १. विवेकौंग्याद् भूत्वाऽपि हस्तितुल्याअतः परम् । वत्स्यन्ति श्रावका लुब्धाः क्षणिकर्डिसुखेगृहे । ३२॥ न दौस्थ्ये पाचक्र वा प्रजिष्यन्त्युपस्थिते । आत्तामपि परिव्रज्यां त्यक्ष्यन्ति च कुसंगतः ॥३३॥ विरलाः पालयिष्यन्ति कुसंगेऽपि व्रतं खलु। इदं गजस्वप्नफलं कपिस्वप्न फलं त्वदः ॥३४।। २. प्रायः कपिसमा लोलपरिणामाऽल्पसत्त्वकाः । आचार्यमुख्या गच्छस्थाः प्रमादं गामिनो व्रते ॥३५॥ ते विपर्यासविष्यन्ति धर्मस्थानितरानपि । भाविनो विरला एव धर्मोद्योगपराः पुनः ॥३६॥ . धर्मश्लथेषु ये शिक्षा प्रदास्यन्त्यप्रमादिनः। ते तैरुपहसिष्यन्ते प्राम्यैामस्थपोरवत् ॥३७॥ इत्थं प्रवचनाऽवज्ञाऽतः परंहि भविष्यति । प्लवंगमस्वप्नफलमिदं जानीहि पार्थिवः ! ॥३८॥ ३. क्षीरद्र तुल्पाः सुक्षेत्रे दातारः शासनाचकाः। श्रावकास्ते तु रोत्स्यन्ते लिगिभिवचनापरैः ।।३।। तेषां न प्रतिभास्यन्ति सिंहसत्त्वभूतोऽपि हि। महर्षयः सारमेया इवासारमतिस्पृशम् ॥४०॥ आदास्यन्ते सुविहितविहारक्षेत्राद्धतिम् । लिंगिनो बब्बूलसमाः क्षी' द्रुफलमीदृशम् ॥४१॥ ४. धृष्टस्वभावा मुनयः प्रायो धर्माथिनोऽपि हि । रंस्यन्ते न हि गच्छेषु दीपिकांमःस्थिव द्विकाः ॥४२॥ ततो अन्यगच्छिकैः सुरिप्रमुख चना परैः। मृगतृष्णानिभैः सार्ध चलिष्यन्ति जडाशया ॥४३।। न युक्रमेभिर्गमन मिति तत्रोपदेशकान् । बाधिष्यन्ते नितान्तं ते काकस्वप्नफलं ह्यदः ॥४४॥ ५. सिंहतुल्यं जिनमतं जातिस्मृत्याद्यनूज्झितम् । विपत्स्यतेऽसिन् भरतवने धर्मज्ञवजिते ॥४॥ न कुत थिरुतिर्य चोऽभिभविष्यन्ति जातु तत् । स्त्रोत्पन्नाः कृमिव त्किं तु लिंगिनोऽशुद्धबुद्धयः । ४६।। लिगिनोऽपि प्राक्प्रभावात् श्वापदाभैः कुतीथिकैः । न जात्वभिभविष्यन्ते सिंहस्वप्नफलं ह्यदः ॥४७॥ ६. अजाकरेचंबुजानि सुगन्धीनीव देहिनः । धार्मिका न भविष्यन्ति संजाताः सुकुलेष्वपि ।।८।। अपि धर्मपरा भूत्वा भविष्यन्ति कुसंगतः। ग्रामावकरकोत्पन्न गर्दभाब्जवदन्यथा ।।४६।। कुदेशे कुकुले जाता धर्मस्था अपि भाविनः। हीना इत्यनुपादेयाः पद्मस्वप्नफलं ह्यदः ॥५०॥ ७. यथा फलायाबी नानि बीजबुद्ध्योखरे वपेत् । तथा वप्स्यन्त्यकलानि कुपात्रे कल्पबुद्धितः ।।५।। यद्वा घुणाक्षरन्यायाद्यथा कोऽपि कृषीवलः । अबीजान्तर्गतं बीजं वपेत् क्षेत्रे निराशयः ।।५२॥ अकल्पान्तर्गतं कल्पमज्ञानाः श्रावकास्तथा । पात्रे दानं करिष्यन्ति बीजस्वप्नफलं ददः ॥५३॥ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश क्षमा दिगुणपाकाः सुचरित्राम्बुपूरिताः। रहःस्था भाविनः कुम्भा इव स्तोका महर्षयः ॥५४॥ श्लथाचारचरित्राश्च कलशा मलिना इव । यत्र तत्र भविष्यन्ति बहवो लिंगिनः पुनः ।।५।। समत्सराः करिष्यन्ति कलहं ते महर्षिभिः । उभयेषामपि तेषां साम्यं लोके भविष्यन्ति ॥५६॥ गीतार्था लिगिनश्च स्युः साम्येन व्यवहारिणः । जनेन प्रहिलेनेवाग्रहिलपहिलो नृपः ॥५४॥ कथा-तथाहि पृथिवीपुर्या पूर्णोनाम महीपतिः। सुबुद्धिस्तस्य चामात्यो निधानं बुद्धिसंपदः ।।८।। कालं तेनागमिष्यन्तं पृष्टोऽन्येद्य : सुबुद्धिना । लोकदेवोऽभिधानेन नैमित्तिकवरोऽवदत् ।।५।। मासादनन्तरं मेघो वर्षिता तज्जलं पुनः। यः पास्यति स सर्वोऽपि प्रहप्रस्तो भविष्यति ॥६॥ कियत्यपि गते काले सुवृष्टिश्च भविष्यति । पुनः सज्जा भविष्यन्ति तत्पयःपानतो जनाः ॥६॥ राज्ञ मंत्री तदाचख्यौ राजाऽप्यानकताडनात् । आख्यापयजने वारिसंग्रहार्थमथाऽऽदिशत् ॥६२।। सर्वोऽपि हि तथाचक्र ववर्षोक्तेऽह्नि चाम्बदः। कियत्यपि गते काले संगृहीताम्बु निष्ठितम् ॥६३।। अक्षीणसंग्रहाम्भस्को राजामात्यौ तु तो विना। नवाम्बु लोकाः सामन्तप्रमुत्खाश्चपपुस्ततः ॥६४| तत्तानाद् प्रहिलाः सर्वे ननृतुर्जहसुर्जगुः । स्वैरं चिचेष्टिरेऽन्यत्र बिना तौ राजमंत्रिणौ ।६।। राज मात्यो विसदृशौ सामन्ताद्या निरीक्ष्य ते । मंत्रयाञ्चक्रिरे नूनं प्रहिलो राजमंत्रिणौ ॥६६॥ अस्मद्विलक्षणाचाराविमकापसार्य तत् । अपरौ स्थापयिष्यामः स्वोचितौ राजमंत्रिणौ ॥६॥ मंत्रो ज्ञात्वेतितन्मंत्रं नृपायाख्यन्नृपोऽवदत् । आत्मरक्षा कथं कार्या तेभ्यो वृन्दं हि राजवत् ॥६८॥ मंन्यूचे पहिलोभूग स्थातव्यं प्रहिलैः सह । त्राणोपायो न कोऽप्यन्य इदंहि समयोचितम् ॥६६॥ कृत्रिमं प्रहिलीभूय ततस्तौ राजमंत्रिणौ। तेषां मध्ये ववृताते रक्षन्तौ निजसंपदम् ॥७॥ ततः सुममये जाते ‘शुभवृष्टौ नबोदके। पीते सर्वे भवन् स्वस्था मूलप्रकृतिधारिणः ॥७॥ एवं च दुःषमाकाले गीतार्था लिंगिभिः सह । सदृशीभूय वत्स्यंति भाविस्वसमयेच्छवः ॥७२॥ इति श्रुत्वा स्वप्नफलं पुण्यपालो महामनाः। प्रबुद्धः प्राबजत्तत्रक्रमान्मोक्षमियाय च ॥७३॥ -त्रिशलाका० पर्व १८/सर्ग १३ भगवान् की अन्तिम देशना की समाप्ति पर हस्तिपाल राजा के आठ स्वप्नों का अर्थ स्वयं पूछना ___ भगवान् की अन्तिम देशना समाप्त हुई। तत्पश्चात् हस्तिपाल राजा ने भगवान् को नमस्कार किया और कहा-'हे स्वामिन् ! मैं आज स्वप्न में अनुक्रमतः-हाथी, कपि, क्षीर-वाला वृक्ष, काकपक्षी, सिंह, कमल, बीज और कुंभ-ये आठ बातें देखी है, उनका क्या फल होगा। भगवान् ! इन स्वप्नों को देखने से मुझे भय लगता है। इस प्रकार हस्तिपाल ने पूछा। तत्पश्चात् भगवान् बोले-हे राजन् ! इन स्वप्नों का अर्थ सुन १-वर्तमान में क्षणिक समृद्धि के सुख में लुब्ध हुए श्रावक वर्ग विवेक बिना की जड़ता से हाथी जैसे होने १-इन स्वप्नों में हाथी, कपि आदि मात्र स्पष्ट नहीं देखे परन्तु अलग-अलग स्थिति में देखे। इस कारण उनका विशेष फल-वर्णन 'दिवालीकल्प' में जानना चाहिए। Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ वधमान जीवन-कोश पर भी घर में पड़े रहेंगे। महा दुःखी स्थिति अथवा परचक का भय उत्पन्न होगा-तो भी दीक्षा ग्रहण नहीं करेंगे। यदि कदाचित् दीक्षा ग्रहण करेंगे तो उन्हें भी कुसंग होने के कारण छोड़ देंगे। फलस्वरूप कुसंग होने के कारण लिए हुए व्रतों को पालने वाले विरले होंगे-इस प्रकार प्रथम देखे हुए हाथी-स्वप्न का फल है। २-दूसरे कपि के स्वप्न का फल यह है-बहुधा गच्छ के स्वामीभूत आचार्य कपि की तरह चपल परिणामी, अल्प सत्त्ववाले और व्रत में प्रमादी होंगे। इतना ही पर्याप्त नहीं है-परन्तु धर्म में स्थित दूसरों को भी विपर्यास भाव करायेंगे। धर्म के उद्योग में तत्पर तो कोई विरले ही निकलेंगे। जो प्रमादी होते हुए धर्म में शिथिल अन्यों को शिक्षा देंगे। उनकी गांवों में रहे हुए-शहरों की तरह ग्राम्यजन भी हांसी करेंगे। हे राजन् ! इस रीति से आगामी काल में प्रवचन के अज्ञात पुरुष होंगे। यह कपि के देखे गये स्वप्न का फल है। ३-जो क्षीर वृक्ष का स्वप्न देखा- इससे सातों क्षेत्र में द्रव्य देनेवाले दातार और शासन पूजक क्षीर वृक्ष तुल्य श्रावक वर्ग होंगे। उनको ठगी लिंगधारी लोग रोक देंगे। ऐसे पासत्थों की संगति से सिंह जैसे सत्त्ववाले महर्षि गण भी उनको श्वान की तरह सार बिना लगेंगे। __ सुविहित मुनियों की विहार भूमि में लिंगधारी शुली जैसे होकर उपद्रव करेंगे। क्षीर वृक्ष जैसे श्रावक ऐसे मुनियों की संगति नहीं करने देंगे। इस प्रकार क्षीर वृक्ष के स्वप्न का फल है। ४-चौथे स्वप्न का फल इस प्रकार है-वृष्ट स्वभावो मुनिगण धर्मार्थी होने पर काकपक्षी की तरह विहारवापिका में रमण नहीं करते हैं। वे प्रायः स्वयं के गच्छ में नहीं रहेंगे। इस कारण अन्य गच्छ के सूरिगण की तरह वंचना करने में तत्पर और मृग-तृष्णिका की तरह मिथ्याभाव दिखाने वाले होंगे। उनके साथ में जड़ाशय की तरह चलेंगे। उनके साथ गमन करना उपयुक्त नहीं है। ऐसे उपदेश करने वालों को वे सम्मुख होकर विपरीत बंधन करेंगे। इस प्रकार काक पक्षी के स्वप्न का फल है। ५-श्री जिनमत के जो सिंह जैसा है-वह जाति-स्मरण आदि से रहित-ऐसा धर्मज्ञ रहित-ऐसा भरत क्षेत्ररूपी वन देखने में आयेंगे। उस पर तीर्थीरूपी तिथंच तो पराभव कर नहीं सकेंगे। परन्तु सिंह के कलेवर में जैसे कीड़े पड़ते हैं और वे उपद्रव करते हैं उसी तरह वे लिंगी कृमि की तरह स्वयं में ही उत्पन्न हुए वे उपद्रव करेंगे और शासन की हीलना करायेंगे। कितनेक लिंगधारी तो जैन शासन के पूर्व के प्रभाव को लिये हुए श्वापदों की तरह अन्य दर्शनियों से कभी भी पराभव को प्राप्त नहीं होंगे। .... इस प्रकार सिंह के स्वप्न का फल है। - ६-जैसे कमलाकर में कमल सुगंध को प्राप्त होता है वैसे ही उत्तम कुल में उत्पन्न हुए सर्व प्राणी धार्मिक होने चाहिए। परन्तु वर्तमान में वैसे नहीं होते हैं। Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बर्धमान जीवन - कोश धर्मपरायण होकर वापस वे कुसंग से भ्रष्ट होते हैं और उकरड़े में कमल पैदा होने की तरह कुदेश और कुकुल में उत्पन्न हुए कोई-कोई प्राणी धर्मी होंगे । तथापि वे हीन-जाति के होने से अनुपादेय होंगे। इस प्रकार कमल के स्वप्न का फल जानना चाहिए । ७ - जैसे फल प्राप्ति के लिए बीज उषर भूमि में बोये जाते हैं उसी प्रकार कुपात्र में सुपात्र बुद्धि से अकल्य वस्तु बोयेंगे। अथवा जैसे कोई निराशय खेहुत घूणाक्षर न्याय से उत्तम क्षेत्र में अबीज के अन्तर्गत बीज बोते हैं उसी प्रकार कोई श्रावक - अकल्प्य के अंतर्गत कल्प्य रूप पात्र दान करेंगे -यह बीज स्वप्न का फल है । ८- क्षमादि गुण रूप कमलों से अंकित और सुचरित्र रूप जल से पूरित ऐसे एकांत में रखे हुए कुंभ की तरह महर्षिगण कोई एक स्थान में और वे भी बहुत थोड़े दिखाई देंगे । 1 और मलिन कलश की तरह शिथिलाचार और चारित्र वाले लिंगी - जहाँ वहाँ बहुत देखने में आयेंगे। वे मत्सर भाव से महर्षियों के साथ कलह करेंगे और वे दोनों लोक में सरिखे मिने जायेंगे गीतार्थ और लिंगी नगरलोव ला होने से जैसे देंगे उसके ऊपर एक कथा है-वह इस प्रकार है राजा भी बेला हुआ बेसे व्यवहार पक्ष में सरिखे दिखाई 'पृथिवीपुरी में पूर्ण नाम का राजा था। उसके सुबुद्धि नामक बुद्धि संपत्ति वाला मंत्री था । सुखमें काल निर्गमन करते हुए सुबुद्धि मंत्री ने देवलोक नामक निमित्तज्ञ को भविष्यत् काल संबंधी प्रश्न पूछा । तत्पश्चात् उस निमितज्ञ ने कहा- एक मास के बाद में मेघवृष्टि होगी। उसके जल का जो पान करेगा उन सबों के ग्रहिल (धेला) हो जायेगा । तत्पश्चात् किवनेक काल के बाद में दूसरी बार मेप वृष्टि होगी। उसके जल का पान करने से लोक वापस ठीक हो जायेंगे । मंत्री ने यह सब वृत्तान्त राजा को कहा तत्पश्चात् राजा ने पडह फिराकर लोगों को जल संग्रह करने की आज्ञा की । सा किया। तत्पश्चात् निमितज्ञ के कथित दिन को मेघ वृष्टि हुई। तुरंत संग्रहित जल को लोगों ने नहीं पिया परन्तु कितनेक काल-निर्गमन होने से लोगों का संग्रह किया हुआ पानी रिक्त हो गया । फलस्वरूप उनके सिवाय अन्य सामंत आदि लोगों मात्र राजा और मंत्री का वहाँ जब रिक्त नहीं हुआ । ने नये वर्पे हुए जल का पान किया । हंसने लगे। जैसे-तैसे बोलने लगे। गाने लगे और उसका पान करते ही वे लोग ना होकर नाचने लगे। स्वेच्छा से अनेक प्रकार की चेष्टा करने लगे । मात्र राजा और मंत्री दो ही ठीक रहे । तत्पश्चात् अन्य सामंत आदि राजा और मंत्री को स्वयं के ही विपरीत प्रवृत्तिवाला देखकर निश्चय किया कि जरूर यह राजा और मंत्री दोनों ऐसा हो गया ऐसा जाना जाता है। क्योंकि वे अपने से विलक्षण आचार वाले हैं। इस कारण उनको उनके स्थान से दूर कर अन्य राजा और मंत्री को अपने लोगों के लिए स्थापित करना चाहिए। फलस्वरूप सर्व लोगों ने Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन - कोश उनका यह विचार मंत्री के जानने में आया । उसने राजा को सूचित किया । फलस्वरूप राजा ने मंत्री को पूछा कि - अपने को अब उनसे आत्म रक्षा किस रीति से करनी चाहिए ? क्योंकि जनवृन्द राजा के समान है । मंत्री ने कहा कि हे देव ! अपने को भी उनके साथ धेला होकर उनकी तरह रहना चाहिए । तत्पश्चात् राजा और मंत्री कृत्रिम घेला होकर इसके सिवाय अन्य कोई उपाय इस समय योग्य नहीं है । उनके मध्य में रहने लगे । और स्वयं की संपत्ति का भोग करने लगे । વ जिस समय वापस शुभ समय आया और शुभ वृष्टि हुई उस समय वे नवीन वृष्टि के जलपान के करने से सर्व मून प्रकृति वाले हो गये । इस प्रकार दुःषम काल में गीतार्थ मुनि श्री वेषधारियों के साथ उनकी तरह होकर रहेंगे । परन्तु भविष्यत् में स्वयं के समय की इच्छा रखेंगे । अस्तु इस प्रकार स्वयं के स्वप्नों का फल सुनकर महाशय हस्तिपाल राजा प्रतिबोध को प्राप्त हुआ । दीक्षा ग्रहण कर मोक्ष स्थान प्राप्त किया । नोट - अपापा नगरी में समवसरण में भगवान् देशनार्थ बैठे । सुरासुर सेवित प्रभु स्वयं के आयुष्य का अन्त जानकर अंतिम देशना के लिए बैठे । भगवान् का पदार्पण सुनकर हस्तिपाल राजा भगवान् के निकट आया और भगवान् की देशना सुनने के लिए बैठा । * भगवान् महावीर की राजगृह में धर्म देशना - ( मेघकुमार के दीक्षित वर्ष में ) विचित्तं धम्ममाइकखइ । २१ तए णं समये भगवं महावीरे मेहणस्स कुमारस्त तीसेय महइ महालियाए परिसाए मज्म गए नाया० श्रु १/अ ४ / सू० १०० २ इतश्च विहरन् भव्यावबोधाय जगद्गुरुः । सुरासुरपरीवारोययौ राजगृहं पुरम् ।।३६२ ।। तस्मिन् गुगशिले चैत्ये चैत्यवृक्षोपशोभितम् । सुरप्रकूल समवसरणं शिश्रिये प्रभुः || ३६३|० x x पीयूपवृष्टिदेशीयां विदधे धर्मदेशनाम् ||३७५ || श्रुत्वा तां देशनां भर्तुः सम्यक्त्वं श्रेणिक्रोऽश्रयत् । श्रावकधर्म स्वभयकुमाराद्याः प्रपेदिरे ||३७६॥ - त्रिशलाका • पर्व १० / सर्ग ६ वीर भगवान् अमृत - x भगवान् महावीर राजगृह में गुणशीलक चैत्य में पधारकर वहाँ समवसरण में पधारे । सृष्टि जैसी धर्म देशना दो ! प्रभु की देशना सुनकर श्रेणिकराजा सम्यत्रत्व को प्राप्त किया और अभयकुमारादि ने श्रावक धर्म अंगीकार किया । १०. ब्राह्मण कुंडग्राम में धर्म देशना - ( ऋषभदत्त देवानन्दा दीक्षित हुए) ०२ तर णं समणे भगवं महावीरे उसभदन्तस्स माहणस्स देवाणंदाए महालियाए X X X धम्मं परिवइ । १२ विहरन् ब्राह्मकुंडग्रामे गात् परमेश्वरः । पुदात्तस्माद्वहिः स्थिते । बदुशालाभिवाद्याने चक्रः समवसरणं X 2x माहणीए तीसे य मइति भग० श / उ ३३ / सू १४६ त्रिदशोत्तमाः ॥२॥ त्रिवनं x Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश १६६ ३ पितरौ दुःप्रतीकारावीदग्धीभगवानपि । तावुद्दिश्य जनांश्चापि विदधे देशनामिति ॥१४॥ –त्रिशलाका० पर्व १०॥सर्ग - अन्यदा भगवान् ब्राह्मणकुंड ग्राम पधारे। उसके बाहर बहुशाल नामक उद्यान में देवों ने तीन गढ़वाले समवसरण की रचना की। भगवान सिंहासन पर बैठे। देवानंदा ब्राह्मणी तथा ऋषभदत्त ब्राह्मण को लक्षित कर और अन्य लोगों को लक्षित कर भगवान ने देशना दी। ११ चंपानगरी में धर्म देशना—(कूणिक राजा, सुभद्रादि देवियों के समक्ष) तएणं समणे भगवं महावीरे कूणियस्स रण्णो भिंभसारपुत्तस्स सुभद्दापमहाण य देवीणं तीसेय महतिमहालियाए इसिपरिसाए मणिपरिसाए जइपरिसाए देवपरिसाए अणेगसयाए अणेगसयवंदाए अणेगसयमवंदपरियालाए ओहबले अइबले महब्बले अपरिमियबल - वीरिय - तेय - माहप्पकंतिजुत्ते सारयणवत्थणिय - महुरंगभीर - कोंचणिग्घोस - दुदुभिस्सरे उरे वित्थडाए कंठे वट्टियाए सिरे समाइण्णाए अगरलाए अमम्मणाए 'सुव्यत्तक वर - सण्णिवाइयाए पुण्णरत्ताए सव्वभासाणुगामिणीए सरस्सईए जोयणणीहारिणासरेणं अद्धमागहाए भासाए भासइ-अरिहा धम्म परिकहेइ। तेसिं सव्वेसिं आश्यिमणारियाणं अगिलाए धम्म आइक्वइ। सावि यणं अद्धमागहा भासा तेसिं सव्वेसिं आरियमणारियाणं अप्पणो सभासाए परिणमेणं परिणमइ। x x x ॥७१॥ धमममइक्खइ-इणमेव णिग्गंथे पावयणे सच्चे अणुत्तरे केवलिए संसुद्ध, पडिपुण्णे णेयाउए सल्लकत्तणे सिद्धिमग्गे मुत्तिमग्गे ‘णिज्जाणमग्गे णिव्वाणमग्गे' अवितहमविसंधि सव्वदुक्खप्पहीणमग्गे। इत्थंठिया जीवा सिझंति बुझं ति मुच्चंति परिणिव्यायंति सव्वदुक्खाणामंतं करेंति । -ओव० सू०७१, ७२ तब ओघबली ( सदा समान बल वाले ), महाबली ( प्रशस्त बल वाले ), अपरिमित शारीरिक शक्ति ( बल शारीरिक प्राण ) वीर्य ( आत्म जनित बल ), तेज, माहत्म्य ( महानुभावता ) और कांति से युक्त और शरद ऋतु के नव-मेघ की मधुर गंभीर ध्वनि, क्रच पक्षी के निर्घोष और दुदभि नाद के समान स्वर वाले उन श्रमण भगवान् महावीर ने भभसारपत्र कूणिक को, सुभद्रा आदि देवियों को, कई सौ और कई सौ वृन्द परिवार वाली उस अति विशाल परिषद् को, ऋषि ( अतिशय ज्ञानी साधु ) परिषद् को, मुनि ( मौनधारी साधु परिषद् को ), यति ( चरण में उद्यत साधु ) परिषद् और देव परिषद् को, हृदय में विस्तृत होती हुई, काठ में ठहरती हुई, मस्तक में व्याप्त होती हुई अलग-अलग नीच स्थानीय उच्चारण वाले अक्षरों से युक्त, अस्पष्ट उच्चारण से रहित ( या हकलाहट से रहित ), उत्तम स्पष्ट वर्ण संयोगों से युक्त, स्वर कला से संगीतमय और सभी भाषाओं में परिणत होने वाली सरस्वती के द्वारा, एक योजन तक पहुँचने वाले स्वर से, अर्धमागधी भाषा में धर्म को पूर्ण रूप से कहा । उन सभी आर्य-अनार्यों को अग्लानि से ( तीर्थंकर नाम कर्म के उदय से अनायास बिना थकावट के) धर्म हा। वह अर्द्धमागधी भाषा भी, उन सभी आर्य-अनार्यो की अपनी-अपनी स्वभाषा में परिवर्तित हो जाती थी। Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश ( भगवान् प्रकारान्तर से ) धर्म की प्ररूपणा करने लगे-यह निर्ग्रन्थ प्रवचन ( जड़ चेतन की ग्रंथि को छुड़ाने वाला उपदेश-आत्मानुशासन ) सत्य है। अनुत्तर ( सर्वोत्तम अलौकिक ) है। केवल ( अद्वितीय या केवलि प्रणीत तथा अनंत अर्थ की विषयता के कारण अनंत ) है। प्रतिपूर्ण ( अल्प ग्रंथतादि प्रवचन गुणों से सर्वांग संपन्न ) है। संशुद्ध ( कषादि से शुद्ध स्वर्ण के समान गुण पूर्णता के कारण निर्दोष ) है। नैयायिक ( प्रमाण से बाधित नहीं होने वाला ) है। शल्य कर्तन ( मर्यादि शल्य का निवारक ) है । सिद्धि मार्ग ( कृतार्थता का उपाय ) है। मुक्ति मार्ग ( कर्म रहित अवस्था का हेतु ) है। निर्माण मार्ग (पुनः नहीं लौटने वाले गमन का हेतु ) है । निर्वाण मार्ग ( सकल संताप रहितता का पंथ ) है। अवितथ ( सद्भूतार्थ वास्तविक ) और अविसंधि अर्थात् महाविदेह क्षेत्र की अपेक्षा से इसका न कभी विच्छेद होता है और न कभी विच्छेद होगा और सर्व दुःख प्रहीण मार्ग ( सकल दुःखों को निःशेष करने का पंथ अथवा जहाँ सभी दुःख प्रहीण है ऐसे मोक्ष का यह मार्ग है। इस ( प्रवचन में ) स्थित जीव सिद्ध ( सिद्धि गमन के योग्य अथवा इस लोक में अणिमादि महासिद्धियों को प्राप्त ) होते हैं। बुद्ध ( केवल ज्ञानी-पूर्ण ज्ञानी ) होते हैं। मुक्त ( भवोपनाही कर्मांश से रहित ) होते हैं। परिनिवृत ( कर्म कृत सकल संताप से रहित आनंद घन ) होते हैं और सभी दुःखों का अंत करते हैं। अनन्तविज्ञानमतीतदोषमबाध्यसिद्धान्तममर्त्य पूज्यम् । श्रीवर्धमानं जिनमाप्तमुख्यं स्वम्भुवं स्तोतुमहं यतिष्ये ॥१॥ -अन्ययो० अनन्त ज्ञान के धारक, दोषों से रहित, अबाध्य सिद्धांत से युक्त, देवों द्वारा पूजनीय, यथार्थ वक्ताओं में प्रधान और स्वयम्भू-ऐसे श्री वर्धमान जिनेन्द्र को स्तुति करूगा। वाग्वैभवं ते निखिलं विवेक्त माशास्महे चेद् महनीयमुख्यं । लंघेम जंघालतया समुद्र वहेम चंद्रद्युतिपानतृष्णाम ॥३१॥ हे पूज्य शिरोमणि ! आपके संपूर्ण गुणों की विवेचना करना वेग से समुद्र को लांघने अथवा चन्द्रमा की चांदनी का पान करने को तृष्णा के समान है। इदं तत्त्वातत्त्वव्यतिकरकरालेऽन्धतमसे। जगन्मायाकारैरिव हतपरैर्दा विनिहितम॥ तदुद्धर्त शक्तो नियतमविसंवादिवचनस्त्वमेवातस्त्रातस्त्वयि कृतसपर्याः कृताधियः ॥३२॥ __ -अन्ययो० इन्द्रजालियों की तरह अधम अन्य दर्शनवालों में इस जगत् को तत्व और अतत्त्व के अज्ञान में भयानक गाड अंधकार में डाल रखा है। अतः आप ही इस जगत् का उद्धार कर सकते हैं क्योंकि आपके वचन विसंवाद से रहित हैं। अतः हे जगत् के रक्षक ! बुद्धिमान लोग आपकी सेवा करते हैं । १२ तेणं कालेणं तेण समएणं साहंजणी नामं नयरी होत्था। x x x तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसरिए। परिसाराया य निग्गए। धम्मो कहिओ। परिसा गया। -विवा० श्रु १/अ ४ सू २, ११ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश १७१ उस काल उस समय में श्रमण भगवान महावीर साहंजनी नगरी में देवरमणोद्यान में पधारे। वहाँ पर धर्मदेशना दी। तेणं कालेणं तेणं समएणं कोसंबीनामं नयरी होत्था-रिद्धथिमियसमिद्धा । बाहिं चन्दोतरणे उज्जाणे। सेयभद्दे जक्खे । x x x तेणं कालेणं तेणं समएणं भगवं महावीरे समोसढे । -विवा० श्रु० १/अ ५/सू० २,६ ___ उस काल उस समय में कौशाम्बी नगरी में भगवान महावीर पधारे तथा वहाँ परिषद् के बीच धर्मदेशना दो। तेणं कालेणं तेणं समएणं महुरा नाम नगरी x x x तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे। परिसा निग्गया राया निग्गओ जाव परिसा पडिगया। -विवा० श्रु० १/अ ६ सू० २, ६ उस काल उस समय में मथुरा नाम की नगरी थी। उस नगरी में श्रमण भगवान महावीर पधारे। परिषद् और राजा भगवान के दर्शनार्थ आये तथा भगवान ने धर्मदेशना दी। तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणियगामे णामं नयरे होत्था x x x । तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसढे (वाणियगामे)। परिसा निग्गता। रायानिग्गओ x x x | धम्मो कहिओ। परिसा पडिगयारायाय गओ।।-विवा० श्रु० २/अ २/सू० ११ श्रमण भगवान् महावीर वाणिज्यग्राम पधारे। वहाँ का मित्र नामक राजा था। भगवान् ने वहाँ धर्मदेशना दी। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे पुरिमताले नगरे समोसढे। परिसा निग्गया, राया-निग्गओ, धम्मो कहिओ, परिसा राया य पडिगओ। -विवा० श्रु १/अ ३/सू २, १२ उस काल उस समय में श्रमण भगवान महावीर पुरिमताल नगर में पधारे । परिषद्-जनता निकली। महावील राजा भी दर्शनार्थ आया। भगवान् ने धर्म का उपदेश दिया । तेणं कालेणं तेणं समएणं हस्थिसीसे णामं णयरे होत्था x x x तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसढे। परिसानिग्गया। अदीणसत्त जहा कूणिए तहानिग्गए। सुबाहुवि जहा जम ली तहा रहेण निग्गए जाव धम्मो कहिओ। राया परिसा गया। -विवा० श्रु० १/अ १/सू १२ हस्तिशीर्ष नगर में भगवान महावीर का पदार्पण हुआ। परिषद् में भगवान् ने धर्मदेशना दी। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसरिए। परिसा निग्गया। तएणं तीसे कालीए देवीए, इमीसे कहाएलट्ठाए समाणीए अयमेयारूवे अज्झस्थिए जाव समुप्पज्जित्था। -निर० व १/अ १ उस काल उस समय में श्रमण भगवान महावीर चंपा नगरी में पधारे। देव और मनुष्यों की सभा में भव्यों को धर्मदेशना देने लगे। धर्म कथा श्रवण करने के लिए परिषद् निकली। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ वर्धमान जीवन-कोश तएणं समणे भगवं महावीरे सुबाहुस्स कुमारस्स इमं एयारुवं अज्झतियं x x x हत्थिसीसे णगरे जेणेव पुप्फकरंडयउजाणे जेणेव कयवणमालषियस्स जक वस्स जक्वायतणे तेणेव उवागच्छइ, xxx । परिसा राया निग्गए। ४.४ ४ । धम्मो कहिओ। परिसा राया पडिगया । -विवा० श्रु २/अ १/सू ३२, ३३ तदनन्तर भगवान् महावीर क्रमशः ग्रामानुग्राम विहार करते हुए हस्तिशीर्ष नगर के पुष्पकरण्डक उद्यानान्तर्गत कृतवन मालप्रिय नामक यक्ष के यक्षायतन में पधारे । भगवान् ने परिषद् को धर्म का उपदेश दिया। .१३ श्रमण भगवान् महावीर के विविध विशेषण मम धम्मायरिए, धम्मोवदेसए, समणे भगवं महावीरे उप्पण्णनाण-दसणधरे अरहा जिणे केवली तीय-पच्चुप्पन्न-मणागयचियाणए, सव्वण्णू, सव्वदरिसी xx x | -भग० श २।उ १/सू ३८ धर्माचार्य, धर्मोपदेशक, श्रमण भगवान महावीर उत्पन्न ज्ञान-दर्शन के धारक हैं, अरिहंत हैं, जिन हैं, केवली हैं । भूत, भविष्यत् और वर्तमान के ज्ञाता हैं, सर्वज्ञ-सर्वदर्शी है । १४ भगवान महावीर और दुर्गम स्थान . पंचहिं ठाणेहिं पुरिम-पच्छिमगाणं जिणाणं दुग्गमं भवति. तंजहा-दुआइक्खं, दुविभज्जं दुपस्सं, दुतितिक्खं, दुरणुचरं । -ठाण० स्था ५/उ १/सू ३२/पृ० १८४ प्रथम तथा अंतिम तीर्थंकर के शासन में पाँच स्थान दुर्गम होते हैं१-धर्म तत्व का आख्यान करना । २-तत्व का अपेक्षा दृष्टि से विभाग करना। ३–तत्व का युक्ति पूर्वक निदर्शन करना । ४-उत्पन्न परीषहों को सहन करना। ५-धर्म का आचरण करना । नोट-वर्धमान तीर्थंकर-अन्तिम तीर्थंकर-जिन थे। •१५ भगवान महावीर और उनका प्रवचन •१ भगवात महावीर से उपदिष्ट और अनुमत पांच वस्तुए। पंच ठाणाई समणेणं भगवता महावीरेणं समणाणं निग्गंथाणं णिचं वण्णिताई णित्वं कित्तिताई णित्त्वं बुइयाई णिचं पसत्थाई णिञ्चमब्भणुण्णाताई भवंति तंजहा-खंती, मुत्ती, अजवे, मद्दवे, लाघवे। -ठाण० स्था ५/उ १सू ३४/पृ० ६५ श्रमण भगवान महावीर ने श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए पाँच स्थान सदा वजित किये हैं, कीर्तित किये हैं, व्यक्त किये हैं, प्रशंसित किये हैं । अभ्यनुज्ञात ( अनुगत ) किये हैं (१) क्षांति, (२) मुक्ति, (३) आर्जव, (४) मार्दव और (५) लाघव । Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश १७३ '२ भगवान से उपदिष्ट एवं अनुमत पाँच स्थान पंच ठाणाई समणेणं भगवता महावीरेणं समणाणं णिग्गंथाणं णिच्चं वण्णिताइं णिचं कित्तिताई णिच्चं बुइयाई णिच्चं पसत्थाई णिच्चं अब्भगुण्णाताई भवंति, तंजहा-सच्चे, संजमे, तवे, चियाए, बंभचेरवासे। –ठाण० स्था ५/उ १/सू ३५/पृ० ६८५ श्रमण भगवान् महावीर ने श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए पाँच स्थान सदा वर्णित किये हैं, कीर्तित किये हैं, व्यक्त किये हैं, प्रशंसित किये हैं, अभ्यनुज्ञात (अनुमत) किये हैं सत्य, संयम, तप, त्याग, और ब्रह्मचर्य-वास । '३ भगवान से उपदिष्ट एवं अनुमत पाँच स्थान पंच ठाणाई समणेणं भगवता महावीरेणं समणाणं णिग्गंथाणं णिच्चं वण्णिताई णिच्वं कित्तिताई णिचं बुइयाइं णिचं पसत्थाई णिच्चं अब्भणुण्णाताई भवंति, तंजहा-उक्खित्तचरए, णिक्खित्तचरए, अंतचरए, पंतचरए, लूहचरए । -ठाण० स्था ५/उ १/सू ३६।पृ० ६८५ श्रमण भगवान महावीर ने श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए पाँच स्थान सदा वर्णित किये हैं, कीर्तित किये हैं, व्यक्त किये हैं, प्रशंसित किये हैं, अभ्यनुज्ञात किये हैं (१) उत्क्षिप्तचरक-पाक-भाजन से बाहर निकाले हुए भोजन को ग्रहण करने वाला। (२) निक्षिप्तचरक-पाक-भाजन में स्थित भोजन को ग्रहण करने वाला। (३) अन्त्यचरक-बचा-खुचा भोजन ग्रहण करने वाला। (४) प्रान्त्यचरक-बासी भोजन ग्रहण करने वाला। (५) रूक्षचरक-रूखा भोजन ग्रहण करने वाला। .४ भगवान से उपदिष्ट एवं अनुमत पाँच स्थान पंच ठाणाई समणेणं भगवता महावीरेणं समणाणं णिग्गंथाणं णिचं वण्णिताई णिच्वं कित्तिताई णिचं बुइयाई णिचं पसस्थाइ णिचं अब्भगुण्णाताई भवंति, तंजहा-अण्णातचरए, अण्णइलायचरए, मोणचरए, संसट्टकप्पिए, तज्ज. तसंसट्ठकप्पिए । -ठाण० स्था ५/उ १/सू ३७/पृ० ६८५ श्रवण भगवान महावीर ने श्रमण निग्रंथों के लिए पाँच स्थान सदा वणित किये हैं, कीर्तित किये हैं, व्यक्त किये हैं, प्रशंसित किये है, अभ्यनुज्ञात किये हैं १-अज्ञात परक-जाति, कुल आदि को बताये बिना भोजन करनेवाला । २-अन्नगलाय चरक-विकृत अन्नको लानेवाला ३-मौनचरक-बिना बोले भिक्षा लेनेवाला ४- संसृष्ट कल्पिक-लिप्त हाथ या कड़छी आदि से लेनेवाला। ५-सज्जातसंसृष्टकल्पिक-देय द्रव्य से लिप्त हाथ या कड़छी से भिक्षा लेनेवाला । Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ वर्धमान जीवन-कोश .५ भगवान महावीर से उपदिष्ट एवं अनुमत पाँच स्थान पंच ठाणाई समणेणं भगवता महावीरेणं समणाणं णिग्गंथाणं णिच्चं वण्णिताइं णिचं कित्तिताई णिचं बुइयाइं णिचं पसत्थाई णित्त्वं अब्भणुण्णाताई भवंति, तंजहा-उवणिहिए, सुद्धसणिए, संखादत्तिए, दिट्ठलाभिए, पुठ्ठलाभिए । -ठाण० स्था ५/उ १/सू ३८/पृ० ६८५ श्रमण भगवान महावीर ने श्रमण निर्ग्रथों के लिए पाँच स्थान सदा वणित किये हैं, प्रशंसित किये हैं, अभ्यनुज्ञात किये हैं। १-औपनिधिक-पास में रखे हए भोजन को लेनेवाला। २-शुद्धषणिक-निर्दोष या व्यंजन रहित आहार लेनेवाला। ३-संख्यादत्तिक–परिमित दत्तियों का आहार लेनेवाला। ४-दृष्टलाभिक-सामने दीखने वाले आहार आदि को लेनेवाला । ५-पृष्टलाभिक-'क्या भिक्षा लोगे' यह पूछे जाने पर ही भिक्षा लेनेवाला। .६ भगवान महावीर से उपदिष्ट एवं अनुमत पाँच स्थान पंच ठाणाई समणेणं भगवता महावीरेणं समणाणं णिग्गंथाणं णिच्चं वण्णिताई णिच्वं कित्तिताई णिच्चं बुइयाई णिच्वं पसत्थाई णिच्चं अन्भणुण्णाताई भवंति, तंजहा-आयंबिलिए, णिव्विइए, पुरिमड्ढिए, परिमितपिंडवातिए, भिण्णपिंडवातिए। -ठाण० स्था ५/उ १/सू ३६/पृ० ६८५ श्रमण भगवान महावीर ने श्रमण निम्र थों के पाँच स्थान सदा वर्णित किये हैं-कीर्तित किये हैं, प्रशंसित किये हैं, अभ्यनु ज्ञात किये हैं। १-आचाम्लिक-ओदन, कुल्माष आदि में से कोई एक अन्न खाकर किया जानेवाला तप २-निविकृतिक-घृत आदि विकृति का त्याग करनेवाला ३-पूर्वाधिक-दिन के पूर्वार्ध में भोजन नहीं करनेवाला । ४-परिमित द्रव्यों की भिक्षा लेनेवाला ५-भिन्नपिंडपातिक-भोजन के टुकड़ों की भिक्षा लेनेवाला। .७ भगवान महावीर से उपदिष्ट एवं अनुमत पाँच स्थान पंच ठाणाई समणेणं भगवता महावीरेणं समणाणं णिग्गथाणं णिच्चं वण्णिताइं णिचं कित्तिताई णिचं बुइयाई णित्त्वं पसत्थाई णिच्चं अब्भगुण्णाताई भवंति, तंजहा-अरसाहारे, विरसाहारे, अंताहारे, पंताहारे, लूहाहारे ।। ठाण० स्था५/उ १/सू ४०/पृ०६८५-८६ श्रमण भगवान् महावीर ने श्रमण निग्रंथों के लिए पाँच स्थान सदा वणित किये हैं--कीर्तित किये हैं, व्यक्त किये हैं, प्रशंसित किये हैं, अभ्यनुज्ञात किये हैं १-अरसाहार-हींग आदि के बाधार से रहित भोजन लेनेवाला। २-विरसाहार-पूराने धान्य का भोजन करनेवाला । Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश १७५ ३-अन्त्याहार ४-प्रान्त्याहार ५-रूक्षाहार .८ भगवान महावीर से उपदिष्ट और अनुमत पाँच स्थान पंच ठाणाई समणेणं भगवता महावीरेणं समणाणं णिग्गथाणं णिच्चं वण्णिताई णिच्चं कित्तिताई णिच्च बुइयाई णिच्च पसत्थाई णिच्च अब्भणुण्णाताई भवंति, तंजहा-अरसजीवी, विरसजीजी, अंतजीवी, पंतजीवी, लूहजीवी। -ठाण० स्था ५/उ १/सू ४१/पृ० ६८६ श्रमण भगवान महावीर ने श्रमण निग्रन्थों के लिए पाँच स्थान सदा वर्णित किये हैं, कीर्तित किये हैं, व्यक्त किये है, प्रशंसित किये हैं, अभ्यनुज्ञात किये हैं। १-अरसजीवी-जीवन भर अरस आहार करने वाला। २-विरसजीवी-जीवन भर विरस आहार करने वाला। ३-अन्त्यजीवी ४-प्रान्त्यजीवी ५-रूक्षजीवी .६ भगवान महावीर से उपदिष्ट और अनुमत स्थान पंच ठाणाई समणेणं भगवता महावीरेणं समणाणं णिग्गथाणं णिच्च वण्णिताई णिच्च कित्तिताई णिच्च बुइयाई णिचं पसत्थाई णिच्च अब्भगुण्णाताई भवंति तंजहा-ठाणातिए, उक्कुडुआसणिए, पडिमट्ठाई, वीरासणिए, णेसज्जिए। -ठाण० स्था ५/उ १/सू ४२/पृ० ६८६ भगवान् महावीर ने श्रमण निग्रंथों के लिए पाँच स्थान सदा वणित किये हैं, कीर्तित किये है, व्यक्त किये हैं, प्रशंसित किये हैं, अभ्यनुज्ञात किये है १-स्थानायतिक ~ कायोत्सर्ग मुद्रा से युक्त होकर दोनों बाहुओं से घुटनों की ओर झुकाकर - खड़ा रहने वाला। २-उत्कुटुकासनिक-उकडू बैठने वाला ३-प्रतिमास्थायी-प्रतिमाकाल में कायोत्सर्ग की मुद्रा में अवस्थित ४- वीरासनिक-वीरासन की मुद्रा में अवस्थित ५-नैषधिक-विशेष प्रकार से बैठने वाला .१० भगवान महावीर से उपदिष्ट और अनुमत पाँच स्थान पंच ठाणाई समणेणं भगवता महावीरेणं समणाणं णिग्गथाणं णिच्च वण्णिताई णिच्च कित्तिताई णिञ्च बुइयाई णिच्च पसत्थाई णिच्चं अब्भणुण्णाताई भवंति, तंजहा-दंडायतिए, लगंडसाई, आतावए, अवाउडए, अकंडूयए। -ठाण० स्था ५/उ १/सू ४३/पृ० ६८६ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश श्रमण भगवान महावीर ने श्रमण निन्थों के लिए पांच स्थान सदा वणित किये हैं, कीर्तित किये हैं, अभ्यनुज्ञात किये हैं १- दंडायतिक-पैरों को पमारकर बैठने वाला। २- लगंड शायो- सिर और एडी भूमि से संलग्न रहे और शेष सारा शरीर ऊपर उठ जाये । अथवा पृष्ठ भूमि भाग से संलग्न रहे । और सारा शरीर ऊपर उठ जाए-इस मुद्रामें सोने वाला। ३-आतापक-शीतताप सहने वाला। ४-अप्रावृतक-वस्त्र त्याग करने वाला ५-अकण्डूयक-खुजली नहीं करने वाला। .१६ भगवान महावीर के शासन और अन्य तीर्थकरों के शासन में अन्तर पंचहिं ठाणेहिं पुरिम-पच्छिमगाणं जिणाणं दुग्गमं भवंति, तंजहा–दुआइक्खं, दुविभज्ज', दुपस्सं, दुतितिक्खं. दुरणुचरं । पंचहिं ठाणेहिं मज्झिमगाणं जिणाणं सुग्गम भवंति, तंजहा-सुआइक्खं, सुविभज्ज, सुपरसं, सुतितिक्खं, सुरणुचरं ।। -ठाण० स्था ५/उ १/सू ३२, ३३ प्रथम तथा अंतिम तीर्थकर के शासन में पाँच स्थान दुर्लभ होते हैं :१- धर्म तत्त्व का आख्यान करना । २-तत्त्व का अपेक्षा दृष्टि से विचार करना । ३-तत्त्व का युक्ति पूर्वक निर्दशन करना । ४ उत्पन्न परीषहों को सहन करना ५- धर्म का आचरण करना मध्यवर्ती तीर्थ करों के शासन में पाँच स्थान सुगम होते हैं। १-धर्म तत्त्व का का आरूयान करना २- तत्त्व का अपेक्षा दृष्टि से विभाग करना ३-तत्त्व का युक्ति पूर्वक निदर्शन करना ४- उत्पन्न परीषहों को सहन करना ५- धर्म का आचरण करना ४०/६६ वर्धमान (महावीर) और शासन संपदा ४०/४६ वर्धमान के ग्यारह गणधरों का विवेचन ४०/१ औधिक गणधर विवेचन Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन - कोश . १ सोमिल ब्राह्मण द्वारा यज्ञ और गणधर × × × तत्र सोमिलाख्यो नाम ब्राह्मणः, स यज्ञ यष्दुमभ्युद्यतः, तत्र चैकादशोपाध्यायाः खल्वागताः, ते च चरमशरीरा भवान्तरोपार्जितगणधरलब्धयश्च तान् विज्ञायासंख्येयाभिद्दे वकोटिभिः परिवृत्तो देवोद्योतेन दिवस इवाशेषं पंथानमुद्योतयन् देवपरिकल्पितेषु सहस्रपत्रेषु नवनीतस्पशेषु पद्मेषु चरणन्यासं विदधानोमध्यमनगर्यां महसेनवनोद्यानं संप्राप्तः । गणधरों के नाम(क) - आव० निगा ५३८ / मलय टीका जब भगवान् महावीर मध्यमा अपापा में महसेन वन में पदार्पण किया तब वहाँ सोमिल नामक ब्राह्मण यज्ञार्थ इन्द्रभूति आदि ग्यारह ब्राह्मणों को बुलाया था । वे चरम शरीरी थे - भवान्तर उपार्जित गणधर लब्धि भी प्राप्त की। उन्होंने आकाश मार्ग से देवों के आवागमन देखा | तं दिव्वं देवघोसं सोऊणं माहणा तहिं तुट्ठा । अहो ! जन्निएण जट्ठ देवा किरआगया इहयं ॥ ५६१ || मलय टीका - तं दिव्यं देवघोषं श्रुत्वा मनुष्यास्तत्र यज्ञपाटके तुष्टाः, अहो विस्मये, यज्ञ ेन याजयति लोकानिति याज्ञिकः तेन इष्टं यतो देवाः किलआगता अत्रेति, किलशब्दः संशयएव तेषामन्यत्र गमनात्, तत्र यज्ञपाटके वेदार्थविद एकादशापि गणधराः ऋत्विजः समन्वागताः । तथा चाह— इक्कारसवि गणहरा सव्वे उन्नयविसालकुलवंसा । पावाइ मज्झिमाए समोसढा जन्नवाडम्मि || ५६२ || मलय टीका— एकादशापि गणधराः समवसृता यज्ञपाटे इतियोगः किम्भूता इत्याह- सर्वे निरवशेषाः उन्नताः प्रधानजातित्वात् विशालाः पितामहपितृपितृव्याद्यनेकजनसमाकुलाः कुलान्येव वंशा-अन्वया येषां ते तथाविधाः, १७७ पापायां मध्यमायां समवसृता — एकीभूता यज्ञपाटे || आह- किमाद्या किनामानो वा ते गणधरा इति । उच्यतेपढमित्थ इंदभूई बीए पुण होइ अग्गिभूइति । तइए अ वाभूई तओ विअत्ते सुहम्मे अ || ५६३॥ मंडिअ मोरिपुत्ते अकम्पिए चेव अयलभाया य । मेअज्जे अ पभासे गणधरा हुति वीरस्स || ५६४ || - आव० भाग २ / निगा ५६१ से ५६४ तइए पढमित्थ इंदभूई, बीए पुण होइ अग्गिभूइत्ति । वाई, तओ वियत्ते सुहम्मे अ ॥ मंडिअ मोरियपुत्ते, अकंपिए चेव अयलभाया य । मेअज्जे य पहासे, गणहरा हुंति वीरस्स । - नंदीसुत्त० स्तुतिपद, आव० निगा ५६४ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ वर्धमान जीवन-कोश (ख) समणस्स णं भगवओ महावीरस्स एकारस गणहरा होत्था,-तंजहा-इंदभूई, अग्गिभूई, वायुभूई, विअत्ते, सोहम्मे मंडिए, मोरियपुत्ते, अकंपिए, अयलभाया, मेतज्जे, पभासे । -सम० सम ११/सू ४ प्रथमोऽत्र गणधरमध्ये इन्द्रभूतिः, द्वितीय पुनर्भवति अग्नित्रभूतिस्तृतीयो वायुभूतिश्चतुर्थो व्यक्तः पंचमः सुधर्मस्वामी, षष्ठो मण्डिकपुत्र सप्तमो मौर्यपुत्रः. पुत्रशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते, अष्टमोऽकम्पिकः, नवमोऽचलभ्रातादशमो मेतार्यः एकादशः प्रभासः एते गणधरा भवन्ति वीरस्य। -आव० निगा५६४/टीका श्रमण भगवान् महावीर के ग्यारह गणधर थे, यथा (१) इन्द्रभूति (२) अग्निभूति (३) वायुभूति (४) व्यक्त (५) सुधर्मा (६) मंडित (७) मौर्यपुत्र (८) अकंपित () अचलभाता (१०) मेतार्य और (११) प्रभास .२ गणधर-परिवार (गणधर के साथ दीक्षित) साम्प्रतं गणधरपरिवारमानप्रदर्शनार्थमाहपंचण्हं पंच सया अधुट्ठसया च हुंति दुण्हगणा । दुण्हतु जुअलयाणं तिसओ तिसओ हवइ गच्छो -आव० निगा ५६७ मलय टीका-पंचानामाद्यानां गणधराणां प्रत्येक परिवारः पंचशतानि, तथा अद्धं चतुर्थस्य येषु तानि अर्द्धचतुर्थानि अर्द्धचतुर्थानि शतानि मानं ययोस्तौ अर्द्धचतुर्थशतौ भवतोद्वयोः प्रत्येकं गणौ, इह गणः समुदाय एवोच्यते, नपुनरागमिकः, तथा द्वयोर्गणधरयुगलकयोः प्रत्येकं त्रिशतस्त्रिशतो गच्छः, किमुक्त भवति ?-उपरिस्थितानां चतुर्णा गणभृतां प्रत्येकं प्रत्येकं त्रिशतमानः परिवारः। __प्रथम पाँच गणधरों का परिवार अर्थात् इन्द्रभूति से सुधर्मा गणधर का - प्रत्येक के परिवार की ( शिष्यसंख्या ) ५००-५०० थो। मंडित दो का अर्थात् मंडित तथा मौर्यपुत्र की शिष्यसंख्या ( प्रत्येक प्रत्येक को ) ३५०३५० थी। दो युगल का अर्थात् ऊपर के चार गणधर अकम्पित, अचलभाता, मेतार्य-प्रभास इन चारों काप्रत्येक प्रत्येक की ३००-३०० शिष्य-संख्या थी। कुल शिष्य-संख्या काजोड़ ४४०० होता है । .३ गणधर - व्याख्या (क) स गणधरः क्व निषण्णः कथयति ? उच्यते राओवणीयसीहासणोवविट्ठो च पादपीढे वा। जिट्ठो अन्नयरो वा गणहारि कहेइ बीयाए । --आव० भाग २/गा ५८ मलय टीका-x x x तदभावे तीर्थकरपादपीठे बा उपविष्टो ज्येष्ठोऽन्यतरो वा गणं-साध्वादिसमुदायलक्षणं धारयितुं शीलमस्येति गणधारी कथयति । तीर्थकर की पादपीठ में उपविष्ट हो तथा ज्येष्ठ हो तथा साधु आदि समुदाय को शील-आचार विशेष में स्थापित करते हैं व गणधर कहलाते Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन - कोश १७६ (ख) × × × द्वितीयायां पौरुष्याम || आह स कथयन् कथं कथयति ? उच्यते । × × × यथा एष गणधरश्छद्मस्थ इति, अशेषप्रश्नोत्तरप्रदानसमर्थत्वात् तस्य, एवं तावत् समवसरणवक्तव्यता सामान्ये- आव० भाग २ / निगा ५८६, ६०/ टीका नोक्ता, सम्प्रति प्रकृतमभिधीयते, गणधर छमस्थ होते हुए भी अशेष प्रश्नों के उत्तर देने में समर्थवान् होते हैं । इन्द्रभूति आदि एकादश गणधर यज्ञ विशेष के लिए मध्यम पापा नगरी में सोमिल ब्राह्मण द्वारा आमंत्रित होने पर आये थे । वे यज्ञ में तल्लीन थे । उन्होंने देवों को उधर आकाश से जाते हुए देखा । हमारी तरफ आ रहे हैं— उन्होंने ऐसा सोचा । परन्तु वे देव अन्यत्र पापा नगरी में जा रहे थे 1 उनकी नोट- ग्यारह गणधरों के निम्नलिखित आशंकाएं थी जिनका समाधान भगवान् महावीर से मिला । आशंकाओं का विवरण इस प्रकार है १ इन्द्रभूति - आत्मा का अस्तित्व है या नहीं ? २ - अग्निभूति - कर्म है या नहीं ? ३ - वायुभूति — जो जीव है, वही शरीर है या अन्य ? ४- व्यक्त - पंचभूत है या नहीं ५ – सुधर्मा — इस भव में जो जैसा है, परभव में वह वैसा ही होता है ? ६ - मण्डित - कर्मों का बंध व मोक्ष कैसे हैं ? ७ -- मौर्यपुत्र – स्वर्ग देव है या नहीं ? ८ - अकम्पित—– नरक है या नहीं ? ६ - अचल भ्राता - पुण्य-पाप है या नहीं । १० - मेतार्य - परलोक है या नहीं ११ प्रभास - निर्वाण है या नहीं ? या नहीं । . ४ गौतम गणधर के संशय तत्र जीव।दिसंशय।पनोदनिमित्तं गणधर निष्क्रमणमितिकृत्वा यो यस्य संशयस्तदुपदर्शनार्थमाह जीवे कम्मे तज्जीव भूअ तारिसय बंध मुक्खे च । देवा नेरइया वा पुन्ने परलोअ निव्वाणे ॥ यज्ञ की महीमा से ये देव भगवान् महावीर के दर्शनार्थ मलय टीका— आद्यस्य गणभृतो जीवे संशयः, किमस्ति नास्तिति । ग्यारह गणधरों के जीवादि का संशय उनकी दीक्षा में हेतुभूत बने । प्रथम गणधर के यह संशय था कि जीव है - आव० निगा ५६६ /टीका Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० वर्धमान जीवन-कोश .५ अग्निभूति के संशय : xxx द्वितीयस्य कर्मणि, यथा ज्ञानावरणीयादिलक्षणं कर्म किमस्ति किंवा नास्तीति -आव० निगा ५६६/मलय टीका द्वितीय गणधर-अग्निभूति के यह संशय था कि कर्म हे या नहीं। .६ वायुभूति के संशय : तृतीयस्य 'तज्जीवे'ति किं तदेवं शरीरं स एव जीवः किं वाऽन्य इति, न पुनर्जीवसत्तायां तस्य संशयः। आव० निगा ४६/टीका तृतीय अग्निभूति के यह संशय था कि शरीर ही जीव है या अन्य । .७ व्यक्त गणधर के संशय चतुर्थस्य भूतेषु संशयः, किं पृथिव्यादीनि भूतानिसन्ति किंवा नेति ? -आव० निगा ५६६/टीका चतुर्थ गणधर-व्यक्त गणधर के भूत में संशय था; पृथ्वी आदि भूत होते हैं या नहीं। .८ सुधर्म गणधर के संशय पञ्चमस्य 'तारिसय' त्ति किं यो यादृश इहभवे सोऽन्यस्मिन्नपि भवेताद्दश एव उतान्यथापीति संशयः। -आव० निगा ५४६/टोका पंचम गणधर-सुधर्मा गणधर के यह संशय था कि जो इस भव में जैसा है वह अन्य भव में वैसा ही होगा या अन्यथा होगा। .६ षष्ठम गणधर-मंडित के संशय षष्ठस्य बन्धश्च मोक्षश्च बंधमोक्षं तस्मिन् संशयो यथा बन्धमोक्षौ स्त किंवा नेति आहकर्मसंशयादस्य कोविशेषः ? –उच्यते, सकर्मसत्तागोचरः, अयंतु तदस्तित्वे सत्यपि जीवकर्मसंयोग विभागगोचरइति । -आव० निगा ५४६/टीका षष्ठम गणधर-मंडित गणधर के यह संशय था कि बन्ध और मोक्ष है या नहीं। .१० सप्तम गणधर-मौर्यपुत्र के संशय सप्तमस्य किं देवाः सन्ति किंवान सन्तीतिसंशयः -आव० निगा ५६६/टोका सप्तम गणधर-मौर्यपुत्र के संशय था कि देव है या नहीं। .११ अष्टम गणधर अकम्पित के संशय : अष्टमस्य नारकाः संशयगोचरः, किं ते सन्ति किंवा न सन्तीति। -आव०निगा ५६६/टीका अष्टम गणधर का यह संशय था कि नारकी है या नहीं। Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश १८१ २ नवम गणधर-अचलभ्राता के संशय : नवमस्य पुण्ये संशयः, कर्मणि सत्यपि किं पुण्यमेव प्रकर्षप्राप्त प्रकृष्टसुखहेतुः तदेव चापचीयमानअन्तस्वल्पावस्थं दुःखस्य, उत तदतिरिक्तं पापमस्ति, आहोस्विदेकमेवोभयरूपमुत स्वतन्त्रमुभयमिति । -आवनिगा ५६६/टीका नवम गणधर-अचलभ्राता के संशय था कि पुण्य है या नहीं। पृण्य और पाप एक रूप है या दो रूप । ३ दशम गणधर—मेताय के संशय दशमस्य परलोके संशयः, सत्याप्यात्मनि परलोको-भवान्तरलक्षणः, किमस्ति किंवा नास्तीति -आव० निगा ५६६/टीका दशम गणधर—मेतार्य क परलोक में संशय था। परलोक है या नहीं। १४ एकादशम् गणधर-प्रभास गणधर के संशय एकादशस्य निर्वाणे संशयः, निर्वाणकिमस्ति किंवा नेति-आह-बंधमोक्षसंशयादस्य को विशेषः ?, न्यते-स ह्यु भयगोचराः, अयं तु केवलविभागविषय एव तथा किं संसाराभावमात्र एव, मोक्षः किं साऽन्यः इत्यादि। -आव० निगा ५६६/टीका एकादशम गणधर-प्रभास गणधर के निर्वाण है या नहीं—यह संशय था। संसार का अभाव ही मोक्ष है या अन्य .१५ गणधरों का सामान्य विवेचन महंतो महाणाणवंतो सभुई। गणी वाउभूई पुणो अग्गिभूई ।। सुधम्मो मुणिंदो कुलायास-चंदो। अणिंदो णिवंदो चरित्ते अमंदो।। इसी मोरि मुंडी सुओ चत्त-गावो। समुप्पण्ण - वीरंघि - राईव-भावो । सया सोहमाणो तवेणं खगामो। पवित्तो सचित्तेण मित्तेय णामो॥ सयाकंपणो णिच्चलको पहासो। विमुक्कंग-राओ रई-णाह-णासो॥ इमे एवमाई गणेसा मुणिल्ला। जिणिंदस्स जाया असल्ला महल्ला ॥ __ -वीरजि० संधि २/कड ७/पृ० ३४ महाज्ञानवान् एवं विभूतियुक्त इन्द्रभूति गौतम महावीर भगवान् के श्रेष्ठ गणधर हुए। दूसरे-वायुभूति, तीसरे-अग्निभूति, चौथे -सुधर्म मुनीन्द्र जो अपने कुलरूपी आकाश के चन्द्रमा थे । पाँचवे-ऋषि मौर्य । छठे-मुण्डि (मौण्य)। सातवें-सुत (पुत्र) जो इन्द्रियों की आसक्ति से रहित तथा वोर भगवान् के चरण कमलों के भक्त थे। आठवें-मैत्रेय जो महातप से शोभायमान, इन्द्रियजित् व शुक्लध्यानी और चित्त Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ वर्धमान जीवन-कोश से पवित्र थे। नक्वें-अकम्पन जो सदैव तपस्या में अकम्प रहते थे। दसवें-अचल और ग्यारहवें-प्रभास जो देह के अनुराग से रहित और कामदेव के विनाशक थे । अस्तु भगवान महावीर जिनेन्द्र-के-ये ग्यारह गणधर मुनि हुए जो शल्यरहित और महान थे। xxx इति श्रुतद्धिभिः पूर्णोऽभूवं गणभृदादिमः ॥३७२।। ततः परं जिनेंद्रस्य वायुभूत्यग्निभूतिको। सुधर्ममौयौँ मौंद्राख्यः पुत्रमैत्रेयसंज्ञकौ ॥३७३॥ अकंपनोऽन्धवेलाख्यः प्रभासश्च मया सह । एकादशेंद्रसंपूज्याः सम्मतेर्गणनायकाः ॥३७४।। -उत्तपु०/पर्व ७४/श्लो ३७२-३७३-७४ एयारह गणधर तहो जायई, इंदभुइ धुरिधरि तणुकायई। -वड्ढच० संधि १०/कड ४० अथेन्द्रभूतिरेवाद्यो वायुभूत्यग्निभूतिको। सुधर्ममौर्यमौण्ड्याख्यपुत्रमैत्रेयसंज्ञकाः॥ अकम्पिनोऽन्धवेलाख्यः प्रभासोऽमी सुरार्चिताः एकादश चतुर्ज्ञानाः सन्मतेः स्युर्गणाधिपाः॥ -वीरवर्धच० अधि १६/श्लो २०६-७ वीर जिनेंद्र के ग्यारह गणधरों में इन्द्रभूति गौतम प्रथम गणधर थे। दूसरे वायुभूति, तीसरे अग्निभूति, चौथे-सुधर्मा, पाँचवे - मौर्य, छठे-मौड्य (मण्डिक), सातवें -पुत्र (?), आठवें-मैत्रेय, नववें-अकम्पन, दसवें-अंधवेल और ग्यारहवें-प्रभास गणधर हुए। ये वीर भगवान् के सभी गणधर देवपूजित और चार ज्ञान के धारक थे। (ग) तंदालं छत्तीसा पणतीसा तीस अट्ठवीसाय। अट्ठारस-सत्तरसेक्कारस-दस-एक्कास य वीरंतं ।। ध ४३, संति ३६, कथु ३५, अर ३०, म २८, मु १८, ण १७, णे ११, पा १०, वीर ११ । -तिलोप० अधि ४/गा ६६३ धर्मनाथ तीर्थ कर से लेकर महावीर पर्यन्त क्रमशः तेतालीस, छत्तीस, पैंतीस, तीस, अट्ठाईस, अट्ठारह, सत्तरह, पारह, दस और ग्यारह गणधर थे। अतः वीर भगवान् के ग्यारह गणधर थे। (घ) इत्तश्च मगधे देशे गोवरग्रामनामनि। ग्रामे गोतमगोत्रोऽभूद्वसुभूतिरिति द्विजः ॥४६॥ तस्येन्द्रभूत्यग्निभूतिवायुभूत्यभिधाः सुताः। पत्न्यां पृथिव्यामभवंस्तेऽपि गोत्रेण गोतमाः ॥५०॥ कोल्लाकेऽभूद्धनुमित्रो धमिल्लश्च द्विजस्तयोः। पुत्रौ व्यक्तः सुधर्मा च वारुणीभद्रिलाभवौ ॥५॥ धनदेवश्च मौर्यश्च मौर्याऽख्ये सन्निवेशने। द्वावभूतां द्विजन्मानौ मातृष्वस्र यकौ मिथः ॥५२॥ पत्त्यां विजयदेवायां धनदेवस्य नन्दनः। मंडिकोऽभूत्तत्र जाते धनदेवो व्यपद्यत ॥५३॥ लोकाचारो ह्यसौ तत्रेत्यभार्यो मौर्यकोऽकरोत् । भायो विजयदेवां तां देशाचारो ति त हिये ॥४॥ क्रमाद्विजयदेवायां मौर्यस्य तनयोऽभवत्। स च लोके मौर्यपुत्र इति नाम्नैव पप्रथे ॥५५॥ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश १८३ तथैव मिथिलापुर्या देवनाम्नो द्विजन्मनः। अभूदकंपितो नाम जयंतीकुक्षिजः सुतः ॥५६।। अभूञ्च कोशलापूर्या वसुनाम्नो द्विजन्मनः । सूनुर्नाम्नाऽचलभ्राता नन्दाकुक्षिसमुद्भवः ॥५णा वत्सदेशे तुंगिकाऽख्ये सन्निवेशे द्विजन्मनः। दत्तस्य सूनुर्णातार्यों वरुणाकुक्षिभूरभूत् ॥५८। तथा पुरे राजगृहे बलनाम्नो द्विजन्मनः। प्रभासो नाम पुत्रोऽभूदतिभद्रोदंरोद्भवः ॥५६॥ एकादशापि तेऽभूवश्चतुर्वेदाब्धिपारगाः। गौतमाद्याः उपाध्यायाः पृथक् शिष्यशतवृताः ॥६॥ –त्रिशलाका० पर्व १०/सर्ग ५ भगवान महावीर के समय में मगध देश में गोबर नामक ग्राम में वसुभूति नामक एक गौतम गोत्रीय ब्राह्मण रहता था। उसके पृथ्वी नाम की स्त्री से इन्द्रभूति, अग्निभूति और वायुभूति नामक तीन गौतम गोत्रीय पुत्र थे। कोल्लाक ग्राम में धनुभित्र और धम्मिल्ल नामक दो ब्राह्मण थे। उनके वारुणी और भद्दिला नाम की स्त्रियों से व्यक्त और सुधर्मा नामक दो पुत्र थे । मौर्य ग्राम में धनदेव और मौर्य नामक दो विप्र थे। वे परस्पर मासी के पुत्र भाई थे। उनमें धनदेव को विजयदेवी नाम की पत्नी से मंडिक नाम एक पुत्र हुआ था। उसके जन्म होते ही धनदेव मृत्यु को प्राप्त हो गया। उसका लोकाचार विधि से स्त्री विना का मौर्य विजयदेवी के साथ विवाह किया। देशाचार लज्जा के लिए नहीं होता। अनुकमतः मौर्य से विजयदेवी के एक पुत्र हुआ वह लोक में 'मौर्यपुत्र' नाम से प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ। इसी प्रकार विमलापुरी में देव नामक ब्राह्मण को जयंती नाम की स्त्री से अकंपित नामक एक पुत्र हुआ। कोशलानगरी में वसु नामक ब्राह्मण को नंदा नाम की स्त्री के उदर से अचलभाता नामक एक पुत्र हुआ। वत्सदेश में तुंगिक नामक ग्राम में दत्त नामक ब्राह्मण को करुणा नाम को स्त्री से मेतार्य नामक पुत्र हुआ। राजगृह नगर में बल नामक ब्राह्मण को अतिभद्रा नामको स्त्री से प्रभास नामक पुत्र हुआ। ये ग्यारह वित्र मार चार वेद रूपी सागर के पारगामी हुए और गौतमादिक उपाध्याय होकर अलग-अलग सैंकड़ों शिष्यों से विचरते रहते थे । अपापा नगरी में सोमिल नामक एक धनाढ्य ब्राह्मण यज्ञकर्म में विचक्षण-ऐसे ग्यारह ब्राह्मणों को यज्ञ करने के लिए बुलाया था । .१६ भगवान महावीर के गण और गणधर (क) समणस्स णं भगवतो महावीरस्स णवगणा हुत्था, तंचहा-गोदासगगे, उत्तरबलिस्सहगणे, उहे हगणे, चारणगणे, उद्दवाइयगणे, विस्सवाइयगगे, कामड्ढियगगे, माणवगगे, कोडियगणे । –ठाण० स्था/सू २६/पृ० ७८२-३ भगवान् महावीर के एक क्रिया और वाचना वाले साधुओं के समुदाय रूप नव गण थे-यथा१-गोदास गण, २-उत्तरबलिस्सह गण, ३-उद्देह गण, ४-चारण गण, ५-उड्डुपाटिक गण ६-वेशपाटित गण, ७-कामद्धिक गण, ८-मानव गण, ९-कोटिक गण । Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ वर्धमान जीवन-कोश (ख) तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स नव गणा एकारस गणहरा होत्था। २०१॥ से केणतुणं भंते ! एवं बुच्चइ-समणस्स भगवओ महावीरस्स नव गणा एकारस गणहरा होत्था ? समणस्स भगवओ महावीरस्स जे? इंदभूई अणगारे गोयमे गोत्तेणं पंच समणसयाई वातेड, मज्झिमे अणगारे अग्गिभूई नामेणं गोयमे गोत्तेणं पंच समणसयाई वातेइ, कणीयसे अणगारे वाउभूई नामेणं गोयसे गोत्तेणं पंच समणसयाई वाएइ, थेरे अजवियत्ते भारदाये गोत्तेणं पंच समणसयाई वाएइ, थेरे अज्जसुहम्मे अग्गिवसायणे गोत्तेणं पंच समणसयाई वाएइ, थेरे मंडियपुत्ते वासिट्ठ गोत्तेणं अद्भुट्ठाई समणसयाइं वाएइ, थेरे मोरियपुत्ते कासवगोत्तेणं अद्भुट्ठाई समणसयाई वाएइ, थेरे अकंपिए गोयमे गोत्तेणं थेरे अयलभाया हारियायणे गोत्तेणं ते दुन्नि वि थेरा तिन्नितिन्नि समणसयाइं वाइंति, थेरे मेयज्जे थेरे य प्पभासे एए दोन्निवि थेरा कोडिन्ना गोत्तेणं तिन्नि तिन्नि समणसयाई वाएंति, से एतेणं अट्ठणं अज्जो ! एवं बुञ्चइ-समणस्स भगवओ महावीरस्स नव गणा एक्कारस गणहरा होत्था। -कप्प० सू२०१-२०२०६० श्री श्रमण भगवान महावीर के नव गण और ग्यारह गणधर थे। प्रश्न हो सकता है कि श्रमण भगवान् महावीर के ग्यारह गणधर थे परन्तु नौ गण थे। ऋषभादिक तेइस तीर्थंकरों के जितने गणधर थे-उतने ही गण थे । गणधर-मूलसूत्र के कर्ता-धारक होते हैं। ग्यारह गणधरों में से दो-दो गणधर को एक वाचना आचारक्रिया थी। अतः नौ गण थे । आगे समाधान इस प्रकार है१-श्रमण भगवान् महावीर के ज्येष्ठ इन्द्रभूति गणधर जिनका गौतम गौत्र था। उन्होंने पांच सौ श्रमणों को वाचना दी थी। २-मध्यम-द्वितीय गणधर-अग्निभूति-जिनका भी गौतम गौत्र था। उन्होंने पांच सौ श्रमणों को वाचना दी थी। ३---सबसे छोटे-तीसरे गणधर-वायुभूति-जिनका भी गौतम गोत्र था। उन्होंने पांच सौ श्रमणों को वाचना दी थी। ४--भारद्वाज गोत्रीय स्थविर आर्य व्यक्त ने पांच सौ श्रमणों को वाचना दी थी। ५-- अग्निवेशायन गोत्रीय स्थविर आर्य सुधर्मा ने पाँच सौ श्रमणों को वाचना दी थी। ६-वासिष्ठ गोत्रीय स्थविर मंडित पुत्र ने तीन सौ पचास श्रमणों को वाचना दी थी। ७-काश्यप गोत्रीय स्थविर मौर्यपुत्र ने तीन सौ पचास श्रमणों को वाचना दी थी। Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश १८५ -08-गौतम गोत्रीय स्थविर अकंपित तथा हारितायन गोत्रीय स्थविर अचलभाता-इन दोनों स्थविरों ने प्रत्येक ने तीन-तीन सो श्रमणों को वाचना दी थी। १०/११.-कोडिन्न गोत्रीय स्थविर आर्य मेइज्ज ( मेतार्य ) और स्थविर प्रभास-इण दोनों स्थविरों ने तीन-तीन सौ श्रमणों को वाचना दी थी। ___ उपरोक्त कारण से हे आर्यों ! ऐसा कहा जाता है कि श्रमण भगवान महावीर के नव गण और ग्यारह गणधर थे । गोदास आदि नौ गण का संबंध ग्यारह गणधर से नहीं है परन्तु गोत्री आर्य भद्रबाहु स्थविर के शिष्य गौदास आदि शिष्य परम्परागत से है । (ग) चुलसीइ पंचणउई बिउत्तरं सोलसुत्तरसयं च । xxx एक्कारसदसनवगं गणाण माणं जिणिंदाणं ॥ -आव० निगा २८८/पूर्वार्ध व २६०/उत्तरार्ध मलय टीका-भगवत आदि तीर्थकरस्य चतुरशीतिर्गणा, गणो नामेह एकवाचनाचारक्रियास्थानां समुदायो, न कुलसमुदाय इति पूर्वसूरयः, अजितस्वामिनः पंचनवतिर्गणाः संभवनाथस्य ह्युत्तरं शतम् अभिनन्दनस्य षोडशोत्तरं शतं x x x अरिष्ठनेमेरेकादश पार्श्वनाथस्य वर्द्धमान स्वामिनो नव, एतत् जिनेन्द्राणाम-ऋषभादीनां जिनानां यथाक्रमं गणानां मान-परिमाणं । गण अर्थात् एक वाचना-आचार क्रियावाले साधुओं का समुदाय । परन्तु कुल समुदाय को गण नहीं कहा जाता है। एक समाचारी का पालन करने वाले साधु-समुदाय को गण कहा जाता है। __ भगवान् ऋषभदेव के चौरासी गण थे तथा वर्धमान तीर्थंकर के नौ गण थे। (घ) मलय टीका-भगवत आदितीर्थकरस्य चतुरशीतिर्गणा, गणो नामेह एकवाचनाचारक्रियास्थानां समुदायो, न कुलसमुदाय इति पूर्वसूरयः xxx वर्द्धमानस्वामीनो नव । x x x । सम्पति गणधरप्रतिपादनार्थमाह___ एक्कारस उ गणधरा वीरजिणिंदस्स सेसयाणंतु। जावइया जस्स गणा तावइया गणधरा तस्स ॥२६॥ __-आव० निगा २६१ मलय टीका-गण धरा नाम मूलसूत्रकर्तारः, ते च वीरजिनस्य एकादश, गणास्तु नव, द्वयोर्युगल सोरैकवाचनाच रक्रिया स्थत्वात्, शेषाणां तुजिनवरेन्द्राणां यस्य यावन्तो गणस्तस्य तावन्तो गणधरा, प्रतिगणधरं भिन्न-भिन्न वाचनाचारक्रियास्थत्वात् । भगवान् ऋषभदेव के चौरासी गण थे तथा चौरासी ही गणधर थे। चूंकि भगवान् महावीर को बाद देकर शेष तीर्थंकरों के जितने गण होते हैं, उतने गणधर होते हैं लेकिन भगवान् महावीर के नौ गण तथा ग्यारह गणधर थे । Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ वर्धमान जीवन-कोश गण अर्थात् एक वाचना-आचार-क्रियास्थान समुदाय होता है, किन्तु कुल समुदाय नहीं। भगवान् महावीर के दो युगलों का एक समान वाचना-आचार-क्रियास्थान था । अतः गण ६ व गणधर ११ थे। (च) सूत्रितानि गणधरैरंगेभ्यः पूर्वमेव यत् । पूर्वाणोत्यभिधीयन्ते तेनैतानि चतुर्दश ॥१७२।। एवं रचयतां तेषां साप्तानां गणधारिणाम्। परस्परमजायन्त विभिन्नास्तत्र वाचनाः ॥१७३|| अकंपिताऽचलभ्रात्रोः श्रीमेतार्यप्रभासयोः। परस्परमजायन्त सदृक्षा एव वाचनाः ।।१७४।। श्रीवीरनाथस्य गणधरेष्वेकादशस्वपि। द्वयोर्द्व योर्वाचनयोः साम्यादासन् गणा नव ॥१७५।। -त्रिशलाका० पर्व १०/सर्ग ५ गणधरों ने उत्पाद आदि चतुर्दश पूर्वो को अंगों के पूर्व रचना की फलस्वरुप उसे पूर्व कहा गया है। इस प्रकार रचना-प्रथम सात मणधरों की सूत्र-वाचना परस्पर अलग-अलग हुई और अकंपित तथा अचलभाता की; मेतार्य और प्रभास की परस्पर एक समान वाचना हुई। अस्तु श्री वीरप्रभु के ग्यारह गणधर होने पर उनकी दो एक समान वाचना होने के कारण गण (मुनि समुदाय) नौ हुए। .१७ अंग-पूर्वो की रचना और गणधर : (क) जाते संघे चतुधेवं ध्रौव्योत्पादव्ययात्मिकाम्। इन्द्रभूतिप्रभृतीनां त्रिपदी व्याहरत् प्रभुः ॥१६५॥ आचारांगं सूत्रकृतं स्थानांगं समवाययुक्। पंचमं भगवत्यंग ज्ञाताधर्मकथापि च ॥१६६।। उपासकांतकृदनुत्तरोपपातिकादशाः। प्रश्नव्याकरणं चैव विपाकश्रुतमप्यथ ॥१६७|| दृष्टिवादश्चेत्यंगानि तत्त्रिपद्या कृतानि तैः। पूर्वाणि दृष्टिवादान्तः सूत्रितानि चतुर्दश ३।१६८।। तत्रोत्पादाऽऽग्रायणीये वीर्यप्रवादमित्यपि। अस्तिनास्तिप्रवादं च ज्ञानप्रवादनाम च ॥१६६।। सत्यप्रवादमात्मप्रवादं कर्मप्रवादयुक् । प्रत्याख्यानं च विद्याप्रवादकल्याणके अपि ॥१७०|| प्राणावायाऽभिधानं च क्रियाविशालमित्यपि। लोकबिंदुसारमथ पूर्वाण्येवं चतुर्दश ॥१७१।। –त्रिशलाका० पर्व १०/सर्ग ५ इस प्रकार चतुर्विधि संघ की स्थापना होने के बाद भगवान् ने इन्द्रभूति आदि को धौब्य, उत्पादक और व्ययात्मक त्रिपदी का कथन किया। उन्होंने त्रिपदो के द्वारा आचारांग, सूत्रकृतांग, ठाणांग, समवायांग, भगवती, ज्ञाताधर्म कथा, उपासकदशांम, अंतकृद्दशांग, अनुत्तरोपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण, विपाकसूत्र और दृष्टिवाद-इन बारह अंगों की रचना की । और दृष्टिवाद के अन्तर्गत चौदह पूर्वो की भी रचना की। उसके नाम इस प्रकार है - १-उत्पाद, २-आग्रायणीय, ३-वीरप्रवाद, ४-अस्ति नास्ति प्रवाद, ५–ज्ञानप्रवाद, ६- सत्यप्रवाद, ७-आत्मप्रवाद, -कर्म प्रवाद, ६-प्रत्याख्यान प्रवाद, १०-विद्या प्रवाद, ११- कल्याण, १२-प्राणावाय, १३-क्रियाविशाल और १४- लोकबिंदुसार । Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश १८७ (ख) उसभाइ-जिणिंदाणं सब्वेसिं गणहरे य थेरे य। पढमाणुओगभणिया अहभणियो वीरनाहस्स ॥२॥ नमिऊण महावीरं सह सुयदेवीए गणहरे थुणिमो॥ देसाओ (ऊ)-जणय-जणणी-कम-नामत्त्थएण सुय-विहिणा -धर्मोप० पृ० २२६ .१८ गणधरों का श्रुत : धम्मोवाओ पवयणमहवा पुवाइं देसया तस्स । सव्वजिणाण गणहरा चोइसपुवी उ ते तस्स -आव० निगा २६२ टीका-धर्मोपायो नाम प्रवचनं, तदन्तरेण धर्मास्यासंभवात्, अथवा पूर्वाणि, तस्य-धर्मोपायस्य देशकाः सर्वजिनानां गणधराः, तेषां मूलसूत्रकर्तृत्वात् , अथवा ये यस्य तीर्थकृत श्चतुई शपूर्विणस्ते धर्मोपायस्य देशकाः, पूरिपूर्णश्रुततया तेषां यथावस्थितवस्तुदेशकत्वात् । गणधर मूलसूत्र के कर्ता होते हैं । भगवान महावीर के ग्यारह गणधर थे। ये गणधर धर्मोपाय के देशक होते हैं। धर्म के उपाय का नाम प्रवचन है। उसके बिना धर्म संभव नहीं है। गणधर चतुर्दशपूर्वधारी होते हैं। वे परिपूर्णश्रत के एक देश को उपदेशित करते है। .१६ गणधर और तीर्थ तित्थं च सुहम्माओ निरवच्चा गणहरा सेसा । -आव० निगा ५६५ मलय टीका- x x x तथा तीर्थं सुधर्मात्-पञ्चमात् गणधरात् जातं, यतो निरपत्याः-शिष्य रहिताः शेषाः इन्द्रभूत्यादयो गणधराः। चंकि वर्धमान तीर्थंकर के परिनिर्वाण होने के पश्चात् पंचम गणधर सुधर्मा पाट पर विराजमान हुए थे अतः गणधरों में सुधर्मा गणधर से तीर्थ की उत्पत्ति हुई परन्तु शेष गणधरों से नहीं। .२० गणधरों की प्रमुखता : एक्कारसवि गणहरे पवायए पवयणस्स वंदामि। सव्वं गणहरवंसं वायगवंसं पवयणं च ॥२॥ . -आव० निगा २ टीका- एकादशेति संख्यावाचकः शब्दः, अपिः समुच्चये, अनुत्तरं ज्ञानदर्शनादिधर्मगणं धारयन्तीति गणधर स्तान , प्रकर्षेण प्रधाना आदौ वा वाचकाः प्रवाचकास्तान , कस्य प्रवाचकाः ? प्रवचनस्य-द्वादशाङ्गस्य, वन्दे, एवं तावत् मूलगणधरवन्दनं कृतं, तथा सर्व-निरवशेष गणधरा-xxx । तीर्थकृतो मूलगणधराश्च वन्द्याः- x x x उच्यते, इह यथा अर्थवक्तारोऽर्हन्तो वन्द्याः सूत्रवक्तारश्च गणधरास्तथा x x ४ । भगवान के गौतमादि ग्यारह गणधर थे । अनुत्तर ज्ञानदर्शनादि धर्मगण को गणधर धारण करते हैं। तीर्थकृत मूल गणधर होते है। अरिहंत भगवान अर्थ को कहते है उसे सूत्ररूप में गणधर गंथते है। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन - कोश • २१ गणधर और वर्षावास : जहा णं समणे भगवं महावीरे वासाणं सवीसइराए मासे वीइक्कंते (सत्तरिए राई दिएहिं सेसेहिं) वासावासं पज्जोसवेइ तहाणं गणहरा वि वासाणं सवीसइराए मासे विइक्कंते वासावासं पज्जोसविंति । - सम० सम ७० / सू १, कप्प० सू २२६ / १०६६ जिस प्रकार श्रमण भगवान महावीर वर्षा ऋतु के बीस दिन रात सहित एक मास व्यतीत होने पर वर्षावास किया उसी प्रकार गणधरोंने भी वर्षाऋतु के बीस दिन-रात सहित एक मास व्यतीत होने पर वर्षावास किये । . २२ भगवान के गणधरों का परिनिर्वाण : सव्वे एए समणस्स भगवओ महावीरस्स एक्कारस वि गणहरा दुवालसंगिणो चोद्दसपुव्विणो समत्तगणिपिडगधरा रायगिहे नगरे मासिएणं भत्तिएण अपाणएणं कालगया जाव सव्वदुक् बप्पहीणा । थेरे इंदभूई थेरे अज्ज हम्मेसिद्धिंगए महावीरे पच्छा दोन्नि वि परिनिव्वुया । - कप्प० सू० २०३ श्रमण भगवान महावीर के इन्द्रभूति आदि ग्यारह गणधर द्वादशांगी के ज्ञाता थे और चतुर्दश पूर्वी के वेत्ता थे और समग्र गणिपिटक के धारक थे । वे सर्व गणधर राजगृह नगर में एक महिना का अनशन कर कालधर्म को प्राप्त हुए यावत् सर्व दुःखों का अन्त किया । नोट -- भगवान महावीर के परिनिर्वाण के बाद स्थविर इन्द्रभूति तथा आर्य सुधर्मा दोनों गणधर परिनिर्वाण को प्राप्त हुए । .२३ भगवान् के अंतिम समय - काल में - सिर्फ दो गणधर थे 11 यातेषु गौतमसुधर्म मुनीन्द्रवर्ज । मोक्षश्रियं गणधरेषु नवस्वथोच्चैः । स्वामी सुरासुरनभचर सेव्यमान । पादो जंगाम भगवान्नगरीमपापाम् ॥ - त्रिशलाका० पर्व १० / सर्ग १०२ / श्लो ४४० वर्धमान जब अंतिमकाल में अवापा नगरी पधारे थे उस समय गौतम और सुधर्म गणधर के अतिरिक्त अन्य गणधर मोक्ष प्राप्त कर चुके थे । Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश १८४ .२४ गणधरों की जन्मभूमि मगहा गुब्बरगामे जाया तिन्नेव गोयमसगुत्ता। कुल्लागसन्निवेसे जाउ वियत्तो सुहम्मो अ॥६४३॥ मोरीअसंनिवेसे दोभायर मंडि-मोरिआ जाया । अयलो अकोसलाए मिहिलाए अकंपिओ जाओ॥६४४॥ तुंगीअसंनिवेसे मेअज्जो वच्छभूमिए जाओ। भगवंपि य पभासो रायगिहे गणहरो जाओ ॥६४५॥ __-आव० निगा ६४३ से ६४५=भाग-२ मलय टीका-मगधेषु जनपदेषु गोब्बरनामे जातास्त्रय एवाद्या गणधराः, कथम्भूता एते त्रयोऽपीत्याह 'गौतमसगोत्राः' सह गोत्रं येषां ते सगोत्राः गौतमेन गोत्रेण सगोत्रा गौतमसगोत्राः, गौतमाभिधगोत्रयुक्ता इत्यर्थः, तथाकोल्लाकसन्निदेशे जातोऽव्यक्तः सुधर्मश्च, मौर्यसनिवेशे द्वौ भ्रातरौ मण्डिकमौ? जातो, अचलश्च कोशलायां मिथिलायामकम्पिको जात इति, तुङ्गिके सन्निवेशे, वत्सभूमौ कौशाम्बीविषये इत्यर्थः, मेतार्यों जातः, भगवानपि च प्रभासो राजगृहे गणधरो जातः । इन्द्रभूति, अग्निभूति तथा वायुभूति-ये तीनों गणधर सहोदर भाई थे तथा जन्मभूमि-गोब्बर ग्राम थी। व्यक्त और सुधर्म-ये दो गणधर को जन्मभूमि -कालाकसन्नि वेश थी। मंडित और मौर्यपुत्र-ये दो गणधर की जन्मभूमि मोर्य सन्निवेश थो। अवनभाता को जन्मभूमि कौशल, अकम्पित गणधर को जन्मभूमि-मिथिला थी। मेतार्य तथा प्रभास गणधर की जन्मभूमि क्रमशः तुंगिकासन्निवेश, राजगृह थी। .२५ गणधर और काल-नक्षत्रचंद्र-योग (जन्म के समय-गणधरों का-नक्षत्रचंद्र-योग) जेट्ठा कत्तिय साई सवणो हत्थुत्तरा महाओअ । रोहिणि उत्तरसाढा मिगसिर तह अरिसणी पुस्सो॥६४६॥ -आव० निगा ६४६ मलय टीका- इन्द्रभूतेर्जन्मनक्षत्रं ज्येष्ठा अग्निभूतेः कृत्तिकाः वायुभूते स्वातिय॑क्तस्य श्रवणः सुधर्मास्य हस्त उत्तरो यासां ता हस्तोत्तरा उत्तराफाल्गुन्य इत्यर्थः, मण्डिकस्यमघाः, मौर्यस्यरोहिणी, अकम्पिकस्य उत्तराषाढ़ाः, अचलभ्रातुः मृगशिरः मेतायस्य अश्विनी, प्रभासस्य पुष्यः । इन्द्रभूति आदि गणधरों के जन्म के समय इस प्रकार नक्षत्र चंद का योग रहा है । १-इन्द्रभूति के जन्म के समय ज्येष्ट नक्षत्र चंद्र का योग । २-अग्निभूति , कृत्तिका , ३-वायुभूति , स्वाति , ४-व्यक्त " श्रवण , Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० वर्धमान जीवन-कोश ५-सुधर्म के जन्म के समय हस्तोत्तरा-उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र चन्द्र का योग ६-मंडित मघा ७-मौर्यपुत्र रोहिणी ८-अकंपित उत्तराषाढा -अचलभाता मृगशिर १०-मेतार्य अश्विनी ११-प्रभास , पुष्प .२६ गणधरों के पिता के नाम वसुभूई धणमित्तो धम्मिल धनदेव मोरिए चेब। देवे वसू अ दत्ते बले अ पिअरो गणहराणं ॥६४॥ -अ.व० निगा ६४७ मलय टीका- आद्यानां त्रयाणां गणभृतां पिता वसुभूतिः, व्यक्तस्य धनमित्रः, सुधर्मस्य धम्मिलः, मंडिकस्य धनदेवः, मौर्यस्य मौर्यः अकम्पिकस्य देवः, अचलभ्र तुर्वसुः, मेतार्यस्य दत्तः, प्रभासस्य बलः, एवं पितरो गणधराणां भवन्ति । इन्द्रभूति, अग्निभूति वायुभूति- इन तीनों आद्य गणधरों का पिता के नाम वसुभूत्ति था, व्यक्त गणधर के पिता का नाम धनमित्र, सुधर्म गणधर के पिता के नाम धम्मिल, मंडित के पिता का नाम धनदेव, मौर्यपुत्र के पिता का नाम मौर्य, अकंपित के पिता का नाम देव, अचलभाता के पिता का नाम वसु, मेतार्य के पिता का नाम दत्त तथा प्रभास गणधर के पिता नाम बल था। .२७ गणधरों की माता के नाम पुहवी अ वारुणी भहिला य विजयदेवा तहा जयंती य। नंदा य वरुणदेवा अईभद्दा य मायरो॥६४८॥ -अव० निगा ६४८ मलय टीका- आद्यानां त्रयाणां गणभृतां माता पृथिवी, व्यक्तस्य वारुणी. सुधर्मस्य भद्रिला, मण्डिक मौर्यपुत्राणां विजयदेवा पितृभेदेन, धनदेवे, पञ्चत्वमुपागते मण्डिकपुत्रसहिता मौर्येण धृता ततो मौर्योजाता, अविरोधश्चतस्मिन् देशे इत्यदूपणं, जयन्ती माता अकम्पिकस्य, नन्दा अचलभ्रातुः, वरुणदेवा मेतायस्य अतिभद्रा प्रभासस्य । आद्य तीन गणधर-इन्द्रभूति, अग्निभूति, वायुभूति को माता का नाम पृथ्वी, रक्त की माता का नाम वारुणी. सधर्म की माता का नाम भदिला, मंडित तथा मौर्य पुत्र की माता का नाम विजयदेवा मंडित के पिता धनदेव का स्वर्गवास होने के बाद मंडित पुत्र सहित विजयदेवा को मौर्य ने ग्रहण किया। उसके मौर्यपुत्र उत्पन्न हुआ चूंकि उस देश में अविरोध था। अकंपित की माता का नाम जयन्ती, अचलभूाता की माता का नन्दा मेतार्य को माता का नाम वरुणदेवा तथा प्रभास को माता का नाम अतिभद्रा था। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश १६१ .२८ गणधरों का गोत्र तिन्नि य गोयमगुत्ता भारदा अग्गिवेस वासिट्ठा। कासव गोअम हारिअकोडिन्नदुग्गं च गुत्ताई ॥६४६।। -आव० निगा ६४६ मलय टीका-त्रय आद्या गणभृतो गौतमगोत्रा, भारद्वाजो व्यक्तः, अग्निवेश्यायनः सुधर्मः, वासिष्ठो मण्डिकः, कायश्पो मौर्यिकः. गौतमोऽकम्पिक: हारितोऽअचलभ्राता. कौन्डिन्यौ मेतार्य प्रभासश्च । आद्य इन्द्रभूति आदि तीन गणधरों-का गोत्र-गौतम गोत्र था। व्यक्त गणधर का गोत्र-भारद्वाज, सुधर्म का गोत्र-अग्निवेश्यायन मंडिक का वशिष्ठ, मौर्यपुत्र का काश्यप, अकंपित का गौतम, अचलभाता का हारित, मेतार्य तथा प्रभास का गोत्र कौडिन्य था । .२६ गणधरों की अगारपर्याय - गृहस्थपर्याय अधुना अगारपर्यायद्वारप्रतिपादनार्थमाह पन्ना छायालीसा बायाला होइ पन्न पन्ना य । तेवन्न पंचसट्ठी अडयालीसा य छायाला ॥६५०॥ छत्तीसा सोलसगं अगारवासो भवे गणहराणं । __ - आव० निगा ६५०-५१ पूर्वार्ध मलय टीका- इन्द्रभूतेरगारपर्यायः पंचाशद्वर्षाणि, अग्निभूतेः पट्चत्वारिंशद् वायुभूतेज्चत्वारिंशत् : व्यक्तस्य पंचाशत् , सुधर्मणः पञ्चाशत् , मण्डिकस्य त्रिपंचाशत् . मौर्यस्य पंचषष्टिः, अकम्पितस्याष्टाचत्वारिंशत् , अचलभ्रातुः षट्चत्वारिंशत् , मेतार्यस्य षट्त्रिंशत् , प्रभासस्य पोडश। इन्द्रभूति पचास वर्ष, अग्निभूति छयालीस वर्ष, वायुभूति बयालीस वर्ष, व्यक्त पचास वर्ष, सुधर्मा पचास वर्ष मंडित वेपन वर्ष, मौर्यपुत्र पैंसठ वर्ष, अकम्पित अड़तालीस वर्ष, अचलभाता छयालीस वर्ष, मेतार्य छतीस वर्ष और प्रभास सोलह वर्ष गृहस्थ पर्याय में रहे । .३० गणधरों का छदमस्थकाल छउमत्थं परियागं अहक्कम कित्तइत्सामि ॥६५१।। तीसा बारस दसगं बारस बायाल चउदसदुगं च । नवगं बारस दस अट्टगं च छ उमत्थपरिआओ ॥६५२॥ -आव० निगा ६५१-६५२/भाग २ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ वर्धमान जीवन-कोश मलय टीका- अत ऊवं छद्मस्थपर्यायं यथाक्रम कीर्तयिष्यामि ॥ प्रतिज्ञातमेवाह ___ इन्द्रभूतेश्छद्मस्थपर्यायस्त्रिंशद्वर्षाणि, अग्निभूतेदश, वायुभूतेवर्षदशक, व्यक्तस्यद्वादश सुधर्मणो द्वाचत्वारिंशत् मण्डिकस्यचतुर्दश मौर्यस्यापि चतुर्दश अकम्पितस्यवर्णनवकं अचलभ्रातुदश वर्षाणि मेतार्यस्य दश प्रभासस्य वर्षाष्टकमेषामेव यथाक्रमं छद्मस्थपर्यायः । ग्यारह गणधरों की छमस्थ पर्याय इस प्रकार थी, यथा १-इन्द्रभूति ३० वर्ष, २–अग्निभूति १२ वर्ष, ३-वायुभूति १० वर्ष, ४-व्यक्त १२ वर्ष, ५ - सुधर्मा ४२ वर्ष, ६-मंडित १४ वर्ष, ७-मौर्यपुत्र १४ वर्ष, ८-अकंपित ६ वर्ष, ६-अचलभाता १२ वर्ष, १०–मेतार्य १० वर्ष तथा ११ - प्रभास ८ वर्ष छमस्थ पर्याय में रहे । .३१ गणधरों का केवलिकाल-जिनपर्याय केवलिपर्यायपरिज्ञानोपायमाहछउमत्थप्परियागं अगारवासं च वुक्कसित्ताणं। सव्वाउअस्स सेसं जिणपरियागं वियाणा हि ॥६५३॥ ब.रस सोलस अट्ठारसेव अट्ठारसेव अट्ठव । सोलस सोलसइकवीस चउदस सोले अ सोले अ॥६५४॥ -आव० भाग २/निगा ६५३-५४ मलय टीका-छद्मस्थपर्यायमगारवासं च व्यवकलय्य यत् सर्वायुष्कस्य शेषं तत् जिनपर्यायं विजानीहि, सचायं जिनपर्यायः इन्द्रभूतेः केवलिपर्यायो द्वादशवर्षाणि, अग्निभूतेः षोडशः, वायुभूतेरष्टादश, व्यक्तस्याष्टादश, सुधर्मणोऽष्टौ, मण्डिकस्य षोडश, मौर्य पुत्रस्य षोडश, अकम्पितरय एकविंशतिः, अचलभ्रातुश्चतुर्दशः, मेतार्यस्य षोडश, प्रभासस्य षोडश । गणधरों को सर्वायु में छमस्थ पर्याय और अगारवास को घटाने से जिन पर्याय-केवलि काल जानना चाहिए। इन्द्रभति की जिन पर्याय बारह वर्ष, अग्निभूति की सोलह वर्ष, वायुभूति को अठारहवर्ष, व्यक्त की अठारह वर्ष. सधर्मा की आठ वर्ष, मंडित की सोलह वर्ष, अकंपित की इक्कीस वर्ष, अचलभाता की चौदह वर्ष, मेतार्य को सोलह वर्ष तथा प्रभास की सोलह वर्ष थी। .३२ गणधरों की आयु-सर्वायु सम्प्रति सर्वायुष्कमाहबाणउई चउहतरि सत्तरि तत्तोभवे असीई य । एग च सयं तत्तो तेसीई पंचनउई आ ॥६५॥ अत्तरिं च वासा तत्तो बावत्तरिं च वासाई। बावट्ठी चत्ता खलु सव्वगणहराउअं एअं॥६५६।। -आव० भाग २/निगा ६५५-५६ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमानजीवन-कोश मलय टीका-इन्द्रभुतेः सर्वायुर्द्विनवतिवर्षाणि, अग्निभूतेश्चतुः सप्ततिः. वायुभूतेः सप्ततिः व्यक्तस्यअशीतिः, सुधर्मस्य एक वर्षाशतं मंडिकस्य न्यशीतिः, मौर्यपुत्रस्य पंचनवतिर्वाणि, अकम्पिकस्याष्टसप्ततिः, अचलभ्रातुर्दासप्ततिः, मेतार्यस्य द्वाषष्टिः, प्रभासस्य चत्वारिंशत् , एवं क्रमेण गणधराणां सर्वायुष्कमिति । ग्यारह गणधरों की सर्वायु क्रमश: निम्न प्रकार थी - इन्द्रभूति की सर्वायु बाणवें वर्ष, अग्निमूति की चौहत्तर वर्ष, वायुभूति की सत्तर वर्ष, व्यक्त की अस्सी वर्ष सुधर्मा की एक सौ वर्ष, मंडित की व्यासो वर्ष, मौर्यपुत्र की पंचानवें वर्ष, अकम्पित की अठहत्तर वर्ष, अचलभाता की बहत्तर वर्षा, मेतार्य को बासठ वर्ण तथा प्रभास की चालीस वर्ष थी। .३३ सब गणधरों के शरीर के संहनन और संस्थान वजऋषभनाराच संहनन तथा समचतुरस्र संस्थान युक्त था। वजरिसहसंघयणा समचउरंसा य संठाणे। -आव० निगा ६५६ मलय टीका- सर्व एव गणधरा- x x x तथा वज्रर्षभसंहननाः समचतुरस्राश्च संस्थाने संस्थानविषये। इन्द्रभूति आदि सब गणधर समचतुरस्र संस्थान तथा वज्र ऋषभनाराच संहनन के धारक थे-युक्त थे। .३४ सब गणधर-लब्धि सम्पन्न थे। x x x सव्वेऽवि य सव्वलद्धिसंपन्ना। -आव० निगा ६५६/पूर्वार्ध--- मलय टीका-सर्वेऽपि सर्वलब्धिसम्पन्ना-आमाँपध्याद्यशेषलब्धिसम्पन्नाः। सर्व गणधर-सर्वलब्धि-आमर्षीषधि आदि अशेष लब्धि संपन्न थे। .३५ परिनिर्वाण के समय तप मासं पाओवगया सव्वेऽवि य मव्वलद्धिसम्पन्ना। --आव० निगा ६५६ मलय टीका-सर्व एव गणधरा मासं यावत् पादपोगमनगताः। परिनिर्वाण के समय इन्द्रभूति आदि सर्व गणधरों ने एक मास का तप किया-पादोपगमन संथारा ग्रहण किया । .३६ गणधरों की श्रुत साधना-आगम अध्ययन आगमद्वारप्रतिपादनाथमाहसव्व य माहणा जचा, मध्ये अज्झावयाविऊ। सव्वे दुवालसंगीआ, सव्वे चउदसपुग्विणो ॥६५७॥ -आव०निगा ६५७/भाग २ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन - कोश १६४ मलय टीका - सर्वे ब्राह्मणा जात्याः -- प्रशस्तजातिकुलोत्पन्नाः, तथा सर्वेऽध्यापका- उपाध्याया विदन्तीति विदो - विद्वांसः, चतुर्दशविद्यास्थानपारगमनात्, तानि चतुर्द्दश विद्यास्थानान्यमूनि: - “अङ्गानि वेदाश्चत्वारो, मीमांसा न्यायविस्तरः । धर्मशास्त्रं पुराणं च विद्या ह्येताश्चतुर्द्दशः ॥ १॥” तत्राङ्गनि षट्, तद्यथा - शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्त छन्दो ज्योतिषं चेति, एष गृहस्था गम उक्तः, लोकोत्तरागमप्रतिपादनार्थमाह सर्वे द्वादशाङ्गिनः, तत्र स्वल्पेनापि द्वादशाङ्गाध्ययनेन द्वादशाङ्गिनोऽभिधीयन्ते ततः सम्पूर्णद्वादशाङ्गज्ञापनार्थमाह-सर्वे चतुर्द्दशपूर्विणः ॥ इन्द्रभूति आदि सब गणधर ब्राह्मण थे-जिन का कूल प्रशस्त था । सब अध्यापक - उपाध्याय विद्वान थे। चतुर्दश विद्यास्थान के पारगत थे । लोकोत्तर आगम में सब गणधर द्वादशांगी के ज्ञाता थे- सब गणधरों ने स्वल्परूप से द्वादशांगी का अध्ययनः किया । इसके बाद संपूर्ण द्वादशांगी के चतुर्दश पूर्व के ज्ञाता थे । . ३७ भगवान् के परिनिर्वाण के समय — इन्द्रभूति और सुधर्म गणधर थे । परिनिब्बुया गणहरा जीवंते नायए नव जणा उ । इंदभूई सुहम्मो अ रायगिहे निव्वुए वीरे ॥ ६५८| - आव० निगा ६५८ - मलय टीका - जीवति ज्ञातके - ज्ञातकुलोत्पन्ने वीरे भगवति नव जनाः - इन्द्रभूतिसुधर्म्मस्वामिवर्णाः परिनिर्वृताः, इन्द्रभूतिः सुधर्मश्च स्वामिनी वीरे निवृते परिनिर्वृतिः, तत्रापि प्रथममिन्द्रभूतिः पश्चात्सुधर्म्मस्वामी, यश्च यश्च कालं करोति स स सुधर्म्मस्वामिनो गणं ददाति, तेषां तथाविधसन्तानप्रवृत्तिहेतुभूताचार्यासम्भवात्, सुधर्म्मस्वामी तु कालं कुर्वन् निजशिष्याय जम्बूस्वामिने गणं समर्पितवान् । श्रमण भगवान महावीर के समय में ही गौतम तथा सुधर्म गणधर को छोड़कर अवशेष गणधर का परिनिर्वाण हो चुका था । भगवान के परिनिर्वाण के बाद इन्द्रभूति तथा सुधर्म गणधर का परिनिर्वाण हुआ । फिर भी पहले इन्द्रभूति का तथा बाद में सुधर्म गणधर का परिनिर्वाण हुआ । जैसे जैसे काल गया—वैसे वैसे सुधर्म स्वामी गण देते रहे । सुधर्म स्वामी ने काल निकट जानकर जंबू स्वामी को गण का भार दिया । Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन - कोश ४१ प्रथम इन्द्रभूति (गौतम) गणधर • १ गौतम गणधर और सौधर्म इन्द्र का प्रश्न : (क) यामत्रये न प्रस्तावेऽस्मिन् विलोक्याशु गणान् द्वादशसंख्यकान् । स्वस्वकोष्ठेषु चासीनान् सद्धर्मश्रवणोत्सुकान् ||८|| यस्तो ध्वनिनिर्गमः । हेतुना केन जायेतादीन्द्रो हृदीत्यश्चिन्तयत् ||७|| ततः स्वावधिना ज्ञात्वा गणेशाचरणाक्षमम् । मुनिवृन्दं पुनश्चेत्थं देवेन्द्रश्चिन्तयेत्सुधीः || अहो मध्ये मुनीशानां मुनीन्द्रः कोऽपि तादृशः । नास्ति योऽर्हन्मुखोद्भूतान् विश्वतत्त्वार्थ संचयान् ॥८१॥ श्रुत्वा सुकृत्करोत्यत्र द्वादशाङ्गश्रुतात्मनाम् । संपूर्णा रचनां शीघ्र योग्यो गणभृतः पदे || २ || विचिन्त्येत्यनुविज्ञाय गौतमं विप्रमूर्जितम् । गणेन्द्रपदयोग्यं च गोतमः न्वयभूषणम् ॥८३॥ केनोपायेन सोऽप्यत्रागमिष्यति द्विजोत्तमः । इति चिन्तां चकारोच्चैः सौधर्मेन्द्रः प्रसन्नधीः ॥ ८४ ॥ अहो एप मयोयायो ज्ञात आनयनं प्रति । विद्यादिगर्वितस्यास्य किंचित्पृच्छामि दुर्घटम् ॥८५॥ काव्यादिमङ्क्षु गत्वहं पुरं ब्रह्माभिधं किल । तदज्ञानात्स वादार्थी स्वयमत्रागमिष्यति ॥ ८६ ॥ इत्यालोच्य हृदाधीमान् यष्टिकान्वित सत्करम् । बृद्धब्राह्मणवेषं स कृत्वा तन्निकटं ययौ ॥८॥ विद्यामदोद्धतं वीक्ष्य गौतमं प्रत्युवाच सः । सद्गुरु श्रीवर्धमानाख्यो मौनालम्बी स विद्यते । काव्यार्थी जान जायेताजीविका मम पुष्कला । विप्रोत्तमात्र विद्वांस्त्वं मत्काव्यैकं विचारय ||८|| ब्रूते मया समं नाहं काव्यार्थार्थी त्विहागतः ||८|| उपकारश्च भव्यानां तव ख्यातिर्भविष्यति ||१०|| - वीरवर्धच० अधि १५/ श्लो ७८ से ६० १६५ अपने-अपने कोठों में बैठे हुए बारह गणों को इस अवसर में सम्यक धर्म को सुनने के लिए उत्सुक और शीघ्र देखकर तथा तीन प्रहर काल बीत जाने पर भी इन अर्हन्तदेव ( वर्धमान तीर्थंकर ) की दिव्यध्वनि किस कारण से नहीं निकल रही है, इस प्रकार से इन्द्र ने अपने हृदय में चिन्तवन किया ॥७८ ७६॥ तब अपने अवधि ज्ञान से बुद्धिमान इन्द्र ने गणधर पद का आचरण करने में असमर्थ मुनिवृद्ध को जानकर इस प्रकार विचार किया ॥८०॥ अहो, इन मुनिश्वरों के मध्य में ऐसा कोई भी मुनीन्द्र नहीं है, जो कि अर्हन्मुख कमल-विनिर्गत सर्व तत्त्वार्थ संचय को एक बार सुनकर द्वादशांगश्रुत की सम्पूर्ण रचना को शीघ्र कर सके और गणधर पद के योग्य हो ।।८१-८२ ॥ ऐसा विचार कर गौतम गोत्र से विभूषित गौतमविप्र को उत्तम एवं गणधर पद के योग्य जानकर किस उपाय से वह द्विजोत्तम गौतम यहाँ पर आयेगा, इस प्रकार प्रसन्नबुद्धि सौधर्मेन्द्र ने गंभीरतापूर्वक चिन्तवन किया ॥ ८३-८४॥ कुछ देर तक चिन्तवन करने के पश्चात् वह मन ही मन बोला- अहो ! उसके लाने के लिए मैंने यह उपाय जान लिया है कि विद्या आदि गर्व से युक्त उसने कुछ दुर्घट ( अति कठिन ) काव्यादि के अर्थ को शीघ्र उस ब्राह्मण के आगे जाकर पूछू ? उस काव्य के अर्थ को नहीं जानने से वह वाद ( शास्त्रार्थ ) का इच्छुक होकर स्वयं ही यहां पर आ जायेगा ।। ८५-८६॥ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ वर्धमान जीवन-कोश हृदय में ऐसा विचारकर वह बुद्धिमान सौधर्मेन्द्र लकड़ी हाथ में लिये हए वृद्ध ब्राह्मण का वेष बनाकर के उस गौतम के निकट गया ॥८७|| विद्या के मद से उद्धत गौतम को देखकर उसने उनसे कहा-हे विप्रोत्तम ! आप विद्वान हैं, अतः मेरे इस एक काव्य के अर्थ का विचार करे ॥१८॥ मेरे गुरु श्री वर्धमान स्वामी है, वे इस समय मौन धारण करके विराज रहे हैं और मेरे साथ नहीं बोल रहे हैं । अतः काव्य के अर्थ को जानने की इच्छा वाला होकर मैं आपके पास यहाँ आया हूँ ॥८॥ काव्य का अर्थ जान लेने से यहां मेरी बहत अच्छी आजीविका हो जायेगी-भव्यजनों का उपकार भी होगा और आपको ख्याति भी होगी ॥१०॥ .२ गणधर गौतम का भगवान महावीर के पास आगमन : (क) विचिन्त्येति स कालादिलब्धिप्रेरित आह वै । वादं वित्रं त्वया साधं न कुर्व त्वद्गुरु विना ।।११४॥ इत्युक्त्वासौ सभामध्ये शिष्यैः पंचशतवृतः। भातृभ्यां च ततो वेगान्निर्ययौ सन्मतिं प्रति ॥११॥ क्रमात्सुधीर्वजन् मार्गे हृदये चिन्तयेदिति। असाध्योऽयमहो विप्रो गुरुः साध्योऽस्य मे कथम ॥११६।। अथवा महती योगाभावि यत्तत्ममास्तु भोः। किन्तु वृद्धिर्न हानिर्म श्रीवर्धमानसंश्रयान् ।।११७॥ इत्थं स चिन्तयन् दूरान्मानस्तंभान्महोन्नतान् । ददर्श पुण्यपान जगदाश्चर्यकारिणः ॥११८।। सेषां दर्शनवज्रण मानाद्रिः शतचूर्णताम। अगात्तस्य शुभो भावः प्रादुरासीच्च मार्दवः ॥११॥ ततोऽतिशुद्धभावेन पश्यन् साश्चर्यमानसः। विभूतिं महती दिव्यां प्राविशत्तत्सभां द्विजः ॥१२॥ तत्रान्तःस्थं जगन्नाथं विश्वर्धिगणवेष्टितम्। दिव्यविष्टरमासीनमपश्यत्स द्विजोत्तमः ॥१२१।। ततोऽसौ परया भक्त्या त्रिः परीत्य जगद्गुरुम् । स्वकरौ कुड्मलीकृत्य नत्वा ।तच्चरणाम्बुजौ ॥१२॥ मूर्जी भक्तिभरेणैव नामायैः पविद्यैः परैः। सार्थकैः स्तुतिनिक्षेपैः स्वसिद्ध यै स्तोतुमुद्ययौ ॥१२३॥ -वीरवर्धच० अधि १५/श्लो ११४ से १२३ इस प्रकार विचार कर और काललब्धि से प्रेरित हआ वह गौतम बोला-हे विप्र, निश्चय से तेरे गुरु के बिना मैं तेरे साथ वाद-विवाद नहीं करता हूँ । अर्थात तेरे गुरू के साथ ही बात करुगा ॥११४।। __ इस प्रकार सभा के मध्य में कहकर अपने पांच सौ शिष्यों और दोनों भाइयों से घिरा हआ वह गौतम विन सन्मति प्रमु के समीप जाने के लिए वहां से वेगपूर्वक निकला ॥११५॥ वह बद्धिमान क्रमशः मार्ग में जाते हुए हृदय में इस प्रकार सोचने लगा कि जब यह बूढ़ा ब्राह्मण ही असाध्य है तब इसके गुरु साध्य कैसे हो सकता है ॥११६॥ अथवा महापुरुष के वेग से जो कुछ होनेवाला है, वह मेरे होवे। किन्तु श्री वर्धमान स्वामी के आश्रम में मेरी वृद्धि हो होगी, हानि नहीं हो सकती है ॥११७॥ ___ इस प्रकार चिन्तवन करते और जाते हुए गौतमने दूसरे ही संसारमें आश्चर्य करनेवाले अति उत्तम मान स्तंभों को पूण्योदय से देखा ॥११८॥ उनके दर्मनरूप वज्र से उसका मानसरूपी पर्वत शतधा चूर्ण-चूर्ण हो गया और उसके हृदय में शुभ मृदुभाव उत्पन हुआ ।।११।। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश तब वह गौतम आश्चर्य युक्त चित्तवाला होकर अति शुद्ध भाव से महान् विभूति को देखता हुआ उस समवसरण सभा में प्रविष्ट हुआ। वहां पर सभा के मध्य में स्थित, समस्त ऋद्धिगण से वेष्टित और दिव्य सिंहासन पर विराजमान श्री वर्धमान स्वामी को उस द्विजोत्तम गौतम ने देखा। __ तब वह परम भक्ति से जगद्-गुरू की तीन प्रदक्षिणा देकर और अपने दोनों हाथों को जोड़कर उनके चरण-कमलों को मस्तक से नमस्कार कर भक्तिभार से अवनत हो नाम, स्थापनादि छह प्रकार के सार्थक स्तुति-निक्षेपों के अर्थ स्तुति करने के लिए उद्यत हुआ। (ख) अथ दिव्यध्वनेतुः कोभावीत्युपयोगवान् । तृतीयज्ञाननेत्रेण ज्ञात्वा मां परितुष्टवान् ॥३५६॥ तदेवागत्य मद् ग्राम गौतमाख्यं शचीपतिः। तत्र गौतमगोत्रोत्थमिंद्रभूतिं द्विजोत्तमम् ॥३५७।। महाभिमानमादित्यविमानादित्यभास्वरम। शेषैः पुण्यैः समुत्पन्नं वेदवेदांगवेदिनम् ॥३५८।। दृष्ट्वा केनाप्युपायेन समानीयान्तिकं विभोः। स्वपिपृच्छिषितं जीवभावं पृच्छेत्यचोदयत् ।।३५६।। अस्ति किं नास्ति वा जीवस्तत्स्वरूपं निरूप्यताम् । इत्यप्राक्षमतो मह्य भगवान् भव्यवत्सलः ॥३६०॥ अस्ति जीवः स चोपात्तदेहमात्रः सदादिभिः। किमादिभिश्च निर्देश्यो नोत्पन्नो न विनंक्ष्यति ॥३६१।। दिव्यरूपेण पर्यायैः परिणामी प्रतिक्षणम्। चैतन्यलक्षणः कर्त्ता भोक्ता सर्वेकदेशवित् ॥३६२॥ इति जीवस्य यथात्म्यं रक्त्या व्यक्त न्यवेदय । द्रव्यहेतुं विध.यास्य वचः कालादिसाधनः ॥३६३।। विनेयोऽहं कृतश्राद्धो जीततत्त्वविनिश्चये। सौधर्मपूजितः पंचशतब्राह्मणसूनुभिः ॥३६४॥ श्रीवर्धमानमानस्य संयम प्रतिपन्नवान्। तदैव मे स त्पन्नाः परिण.मविशषतः ॥३६५।। -उत्तपु० पव ७४/श्तो ३५६ से ३६५ जब वर्धमान तीर्थकर सर्वज्ञ हो गये तब इसके बाद इन्द्रने भगवान की दिव्यध्वनि का कारण क्या होना चाहिए इस बात का विचार किया और अवधि ज्ञान से मुझे (गौतम-इन्द्रभूति ) को इसका कारण जानकर बहुत ही संतुष्ट हुआ। वह उसी समय मेरे गांव आया। मैं वहां पर गौतम गोत्रीय नाम का उत्तम ब्राह्मण था, महाभिमानी था, आदित्य नामक विमान से आकर शेष बचे हुए पुण्य के द्वारा वहाँ उत्पन्न हुआ था। मेरा शरीर अतिशय देदीप्यमान था। और मैं वेद-वेदांग का जानकार था। मुझे देखकर वह इन्द्र किसी उपाय से भगवान् के पास ले आया और प्रेरणा करने लगा.कि तुम जीव तत्त्व के विषय में जो कुछ पूछना चाहते थे-पूछ लो। ___इन्द्र की बात सुनकर मैंने भगवान् से पूछा कि हे भगवान् ! जीव नाम का कोई पदार्थ है या नहीं ? उसका स्वरुप कहिए। इसके उत्तर में भव्यवत्सल भगवान् कहने लगे कि जीव नाम का पदार्थ है और वह ग्रहण किये हुए शरीर के प्रमाण है, सत्संख्यादि सदादिक और निर्देश आदि किमादिक में उसका स्वरूप कहा जाता है। वह द्रव्य रूप से न कभी उत्पन्न हआ है और न कभी नष्ट होगा किन्तु पर्याय रूप से प्रतिक्षण परिणमन करता है। चेतना उसका लक्षण है, वह कर्ता है, भोक्ता है और पदार्थो के एक देश तथा सर्व देश का जानकर है इस प्रकार भगवान् से युक्तिपूर्वक जीव तत्त्व का स्पष्ट स्वरूप कहा। भगवान् के वचन को द्रव्य हेतु मानकर तथा काल लब्धि आदि को कारण सामग्री मिलने पर मुझ जीव तत्व का निश्चय हो गया और मैंने पाँच सौ ब्राह्मणों के साथ श्री वर्धमान स्वामी को नमस्कार कर संयम धारण कर लिया। परिणामों की विशेष शूद्धि होने से मुझे उसी समय सात ऋद्धियाँ प्राप्त हो गयी। Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ (ग) वर्धमान जीवन - कोश हरे विट्ठरे ठिउ सहइ जिणेसरु, भामंडल जुड़ णिजिय णेसम । X X एत्यंतरे णिण्णासिय मारवे, अण उप्पज्जमाण दिव्वाखं । धत्ता - तहो जिणणाहहो अवहिए मुणेवि गोतम-पासे तुरंत । गउ सुरवइ गणियाणण लइवि मउड - मणीहिं फुरंत || -वड्ढच० X संधि १० / कड ९ भामंडल की ति से सूर्य को भी जीत लेनेवाले जिनेश्वर सिंहासन पर हो बैठे हुए सुशोभित हो रहे थे । किन्तु उस समय जिननाथ का मिथ्यात्व एवं भार-कामनाशक दिव्यध्वनि नहीं खिर रही थी । तब इन्द्र ने पास पहुँचा । अपने अवधि ज्ञान से जाना और गणितज्ञ देवज्ञ ब्राह्मण का वेष बनाकर वह तुरंत गौतम के तहिं अवलोएविणु गुण-गणहरु, गोत्तमु गोत्तणहंगण - ससहरु । विप्प वडूव रूवेण सुरेंदें, मेरुमहीहरे हविय जिणेदें । सइँ वासवेण पुराणि तित्तहे, इंदभूइ जिणु सामि जेत्त । माथंभु अवलोएव दूरहो, विहडिउ मा तमोहु व सुरहो । पणय - सिरेण तेण गय-माणें. गोत्तमेण महियले असमाणें । पुच्छिउ जीव-ट्ठिदिपरमेसरु, पयणिय- परमाणंडु जिणेसह | सो विजाय दिव्वज्झणि भासइ, तहो संदेहु असेसु विणास | पंच सयहिं दिसु हे समिल्ले, लइय दिक्ख विप्पेण सम्मेल्लें ! yasइँ सहुँ दिक्खए जायर, लद्धिउ सत्त - जासु विक्खायउ । तम्मि दिवसे अवरण्हए तेण वि सोवंगा गोत्तम णामेण वि । जिण-मुह - णिग्गय - अत्थ, लंकिय वारहंग सुय-पय रयणंकिय । सुमेरु पर्वत पर जिनेन्द्र का न्हवन करने वाले तथा विप्र वटुक वेषधारी उस सुरेन्द्र ने गौतम गोत्र रूपी नाभांगण के लिए चद्रमा के समान तथा गुण-समूह के निवासस्थल उस इन्द्रभूति गौतम को देखा तथा उसे स्वयं हो ले आया, जहां कि स्वामी जिन विराजमान थे। दूर से ही मान स्तंभ देख कर उस ( गौतम ) का मान अहंकार उसी प्रकार नष्ट हो गया, जिस प्रकार कि सूर्य के सम्मुख अंधकार-समूह नष्ट हो जाता है । उस गौतम ने निरहंकार भाव से नतशिर होकर पृथिवी मंडल पर असाधारण उन परमेश्वर से जीव-स्थिति पर प्रश्न किया, जिसका उत्तर परमानंद जिनेश्वर ने स्पष्ट किया । उस उत्पन्न दिव्य ध्वनि को उस गौतम ने समझ लिया, जिससे उस (गौतम) का समस्त संदेह दूर हो गया । अपने ५०० द्विज-पुत्रों के साथ मिलकर उस गौतम विप्र ने ( तत्काल ही ) सब कुछ त्याग कर जिन दीक्षा ले ली। - वडूढच० संधि १०/कउ २ पूर्वाह्न में दीक्षा लेने के साथ ही गौतम को ७ विख्यात ( अक्षीण ) लब्धियाँ ( बुद्धि, किया, विक्रिया, रस ) तप, औषधि एवं बल ) उत्पन्न हो गयीं तथा उसी दिन अपराह्न में उस गौतम नामक ऋषि ने महावीर जिनके मुख निर्गत अर्थो से सांगोपांग द्वादशांग श्रुतपदों की रचना की से Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश १६६ .३ अपापा नगरी में दीक्षा-ग्रहण : विप्रः पुर्यामपापायां यष्टुमाठ्योऽथ सोमिलः। आनिनाय श्रद्धया तान् यज्ञकर्मविचक्षणान् ॥६१॥ तदा च तत्र समवसृतं वीरं विवन्दिषून ॥ सुरानापततः प्रेक्ष्य बभाषे गौतमो द्विजान ॥६॥ मंत्रेणास्माभिराहूताः प्रत्यक्षा नन्वमी सुराः। इह यज्ञ समायान्ति प्रभावं पश्यत क्रतोः ॥६३॥ त्यक्त्वा चण्डालवेश्मेव यज्ञवाट सुरेषुतु। प्रति समवसरणं यात्सु लोकोऽब्रवीदिति ॥६४॥ उद्याने समवसृतः सर्वज्ञोऽतिशयान्वितः। तं वन्दितुं सुराः यान्ति पौराश्चामी प्रमोदिनः ॥६५॥ सर्वज्ञ इत्यक्षराणि श्रुत्वाऽऽक्रोशमिवोच्चकैः। इन्द्रभूतिः प्रकुपितः स्वानेवमवदन्जनान् ॥६६।। मां त्यक्त्वा किममी यान्ति पाखण्डिनममं जनाः। त्यक्त्वा चूतमिवाऽविज्ञाः करीरं मरमानुपाः ॥६॥ ममापि पुरतोऽत्रास्ति सर्वज्ञ इति कोऽपि किम्। पंचाननस्य न ह्यग्रे भक्त्यन्यः पराक्रमी ॥६॥ मनुष्या यद्यमी मूर्खा यान्त्येनं यान्तु तन्ननु। देवाः कथममी यान्ति दम्भः कोऽप्यस्यतन्महान् ।।६।। यादृशो वैष सर्वज्ञो देवा अपि हि तादृशः। यदि वा यादृशो यक्षो जायते तादृशो बलिः ॥७०।। अस्य सर्वज्ञतादपमसावयहराम्यहम् । देवानां मानवानां च पश्यतामेव सम्प्रति ।।७।। सोऽहंकारादुदीर्यैवं शिष्यपंचशतीवृतः । ययौ समवसरणे वीरं सुरनरावृतम् ॥७२।। तत्रद्धिं स्वामिनं प्रेक्ष्य रूपं तेजश्च तादृशम् । किमेतदिति साश्चर्य इन्द्रभूतिरवा स्थित ॥७३।। भौ गौतमेन्द्रभुते ! किं तव स्वागतमित्यथ । सुधामधुरया वाचा तं बभाषे जगद्गुरुः ।।७४|| गौतमोऽचिन्तयन्मेऽसौ गोत्रं नाम च वेत्ति किम् ? जगत्प्रसिद्धमथवा को जानाति न मामिह ।।५।। संशयं हृदयस्थं मे भाषते च छिनति च। यद्यसौ ज्ञानसंपत्त्या तदाऽऽश्चर्यकरः खलु ॥७६।। इत्यन्तः संशयधरं तमूचे परमेश्वरः। अस्ति जीवो न वेत्युच्चैर्विद्यते तव संशयः ॥७॥ अस्त्येव जीवः स पुन:यो गौतम ! लक्षणैः। चित्तचैतन्यविज्ञानसंज्ञाप्रभृतिभिः खलु ||७|| न जीवोऽवस्थितश्चेत्स्याद्भाजनं पुण्यपापयोः। यागदानादिकं तहिं किंनिमित्तं तवाप्यहो ॥७४।। इति स्वामिवचः श्रुत्वा मिथ्य त्वेन सहैव सः । उज्झाश्चकार संदेहं स्वामिनं प्रणनामच ||८|| ऊचे च त्वत्परीक्षार्थ दुर्बुद्धिरहमागमम् । उत्तुंगवृक्षमुद्युक्तः प्रमातुमिव वामनः ।।८।। बोधितोऽस्मि त्वया साधु दुष्टोऽप्येषोऽहमद्य तत् । भवाद्विरक्त प्रव्रज्यादानेनानु गृहाण माम ॥२॥ आद्य गणधरं ज्ञात्वा भाविनं तं जगद्गुरुः । स्वयं प्रव्राजयामास पंचशिष्यशतीयुतम् ।।३।। -त्रिशलाका० पर्व १०/सर्ग ५ (ख) उक्त मानुषङ्गिक, प्रकृतमुच्यते-ते हि देवास्तं यज्ञपाट परिहत्य समवसरणभुवि निपतितवन्तः, ताश्च तथादृष्ट्वा लोकोऽपि तत्रैव जगाम, भगवन्तं त्रिदशलोकेन पूज्यमानं दृष्ट्वा अतीव हर्ष चक्र प्रवादश्च सजातः - सर्वज्ञोऽत्र समवमृतस्तं देवाः पूजयन्तीति, अत्रान्तरे खल्या कर्णितसर्वज्ञश्यादोऽमाध्मात इन्द्रभूतिर्भगवन्तं प्रति प्रस्थितः, तथा चाह Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश २० सोऊण कीरमाणिं महिमं देवेहिं जिणवरिंदस्स । अह एइ अहंमाणी अमरिसिओ इंदभूइत्ति ।।५६८।। मलप टीका-श्रुत्वा-जनपरम्परात आकर्ण्य, पाठान्तस्तो। दृष्ट्वा वा, महिमां-पूजा-देवैः क्रियमाणां जिनवरेन्द्रस्य भगवतो वर्द्धमानस्वामिनः, अथास्मिन् प्रस्ताव एति - आगच्छति भगवत्समीपम, अहमेव विद्वानिति मानोऽस्येति अहंमानी अमर्षितोऽमर्पो-मत्सरविशेषः स सजातोऽस्य सोऽमर्षितः, मयि सति कोऽन्यः सर्वज्ञ इत्यपनयाम्यद्य सर्वज्ञवादमित्यादिसंकल्पकलुषितान्तरात्मा, कोऽसावित्याह-इन्द्रभूतिरिति नाम्ना प्रथितः, स भगवत्समीपं प्राप्य भगवन्तं च चतुस्त्रिंशदतिशयसमन्वितः देवसुरनरेश्पर परिवृतं दृष्ट्वा साशङ्कस्तदप्रतस्तस्थौ। -आव० निगा ५६८ मुत्तूण मम लोगो, किं वच्चइ एरु तस्स पामूले ? अन्नोऽवि जाणइ मए ठिअम्मि कत्तुच्चियं एयं ? ॥१२०॥ मलय टीका-मां सकलशास्त्रपारगं मुक्त्वा किमेष लोकस्तस्य पादमूलं व्रजति ? न चासौ मदपेक्षया किमपि जानाति, तथाहि-मयि प्रतिवादिनि स्थितेऽन्योऽपि किमपि जानातीति कौतस्त्यमेतत् ? न चेतत्संभवतीति भावः । पुनरप्याहः - वञ्चिन्न व मुक्खजणो देवा कहऽणेण विम्हयं नीया ? वंदंति संथुणंति अ जेणं सवनुबुद्धीए ॥१२॥ मलय टीका-व्रजेद्धा तत्पादमूलं मूर्खजनो, मूर्खतया युक्तायुक्तविवेकविकलत्वात् , देवास्तु कथमनेन विस्मयं नीताः ? येन विस्मयनयनेन सर्वज्ञबुद्घया तं वन्दन्ते संस्तुबन्ति च । अहवा जारिसओ च्चिय सो नाणी तारिस्सा सुरातेऽवि । अणुसरिसो संजोगो गामनडाणं व मुक्खाणं ॥१२।२। मलय टीका-अथवा यादृश एव स ज्ञानी तेऽपि सुरास्तादृशा एव, मूर्खा इत्यर्थः। ततोऽनुसदृशं-अनुरूपः संयोगस्तस्य ज्ञानिनः एतेषां च देवानां, कयोरवेत्याह-ग्रामनटयोरिव मूर्खयोः, यथा ग्रामो मूर्यो नटोऽपि च तथाविधविद्याविकलत्वात् मूर्ख इति परस्परं तयोः संयोगोऽनुरूपः, एवमेषोऽपीति। काउं हयप्पयावं पुरतो देवाण दाणवाणं च। नासेहं नीसेसं खणेण सव्वन्नुवायं से ॥१२३।। मलय टीका- देवानां दानवानां च पुरतः - अग्रे तथाविधप्रश्नजालैहतप्रतापं कृत्वा क्षणेन-क्षणमात्रेण 'से' तस्य सर्वज्ञवादं निःशेषमहं नाशयामि । इअ वुत्तूर्ण पत्तो दटुं तेलुक्कपरिवुडं वीरं। चउतीसाइसयनिहिं स संकिओ चिट्ठिओ पुरओ ॥१२४|| मलय टीका- इति पूर्वोक्तमुक्त्वा प्राप्तो भगवत्समीपं, दृष्ट्वा च भगवन्तं वीरं त्रैलोक्यपरिवृत्तं चतुर्विंशदतिशयनिधिः स शङ्कितः पुरतोऽवस्थितः॥ अत्रान्तरे -आव० भाष्य गा Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमानजीवन-कोश २०१ आभट्ठो य जिणेणं जाइ-जरा-मरणविप्पमुक्केणं । नामेण य गुत्तेण य सव्वन्नू सव्वदरिसिणा ॥५६६॥ -आव० निगा ५६६ मलय टीका-आभापितः --संलप्तो जिनेन भगवता महावीरेण जातिः - प्रसूतिर्जराः वयोहानिलक्षणा मरणं-दशविधप्राणविप्रयोगरूपं एभिर्विप्रमुक्तस्तेन, कथमाभाषित इत्याह-नाम्ना-हे इन्द्रभूते ! इत्येवंरूपेण तथा गोत्रेण च-यथा हे गौतमगोत्र ! किंविशिष्टेन जिने नेत्याह-सर्वज्ञन सर्वदर्शिना ॥ आह-यो जरामरणविप्रमुक्तः स सर्वज्ञ एवेति गतार्थमिदं विशेषणं, न नयवादपरिकल्पितजात्यादिविप्रमुक्तनिरासार्थत्वात् , तथाहि-कैश्चिद् गुणविप्रमुक्तमोक्षवादिभिरचेतना मुक्ता इष्यन्ते ऽतस्तन्निरासार्थमूचे सर्वज्ञोन सर्वदर्शिनेति ।। ___ इत्थं नाम गोत्राभ्यां संलप्तस्य तस्यचिन्ता अभवत्-तथा चाहहे ! इंदभूइ ! गोअम ! सागवमुत्ते जिणेण चिंतेइ। नामंपि मे विआणइ, अहवा को मं न याणेइ ? ॥१२५॥ टीका- हे इन्द्रभुते ! गौतम ! स्वागतमिति जिनेनोक्त स चिन्तयति-अहो नामापि मे विजानाति, अथवा सर्वत्र प्रसिद्धोऽहं को मां न जानाति । जइ वा हि अयगयं मे संसय मनिज्ज अव छिदिज्जा। ता हुन्ज विम्हओ मे इय चिंतंतो पुणो भणिओ ॥१२६।। टीका- यदि मे हृद्गतं संशयं मन्येत-जानीयात् , अथवा छिन्द्यात्-अपनयेत् , ततो मे विस्मयोभवेत् --भविष्यति इति चिन्तय र पुनरपि भगवता भणितः। किं भणित इत्याह किं मन्नि अस्थि जीवो उयाहु नत्थित्ति मंसयो तुज्झ । वेय पथाण य अत्थं न याणसी तेसिमो अत्थो ॥६००॥ . टीका-हे गौतम ! किं मन्यते-अस्ति जीवः उत नास्तीति, नन्वयमनुचित एव तव संशयः, यतोऽयं संशयस्ते विरुद्धवेदपदश्रुतिनिबंधनः, तेषां न च वेदपदानामर्थं न जानासि यथा न जानासि तथा वक्ष्यामः, तेषामयमों-वक्ष्यमाणस्वरूपः, अन्ये तु किं शब्दं परिप्रश्नार्थे व्याचक्षते, तच्चन युज्यते, भगवतः सकलसंशयातीतत्वात् , संशयवतः परिप्रश्नार्थः किंशब्दप्रयोगो, यथा किमित्थमन्यथा वेति, अथवा किमस्ति जीव उत नास्ति इति मन्यसे, अयं तव संशय इत्येवं व्याख्येयं, शेषं तथैव, यदुक्तं संशयस्तव विरुद्धपदश्रुतिनिबन्धन इति, तान्य नि वेदपदानि-विज्ञानधन एवैतेभ्यो भुतेभ्यः समुत्थाय पुनस्तान्येवानु विनश्यति न प्रेत्य संज्ञास्ती 'त्यादि, तथा स वै अयमात्मा ज्ञानमय इत्यादीनि च, एतेषां च वेदपदानामयमों भवच्चेतसि विपरिवर्त्तते-विज्ञानमेव-चैतन्यमेव घनो-नीलादिरूपत्वान् विज्ञानघनः x x x अमूर्त आत्मेत्यर्थः, x x x वेदपदानामयमर्थः Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश विज्ञानघन एवेति ज्ञानोपयोगदर्शनोपयोगरूपं विज्ञानं ततोऽन्यन्यत्वात आत्मा विज्ञानधनः, प्रतिप्रदेशमनन्तविज्ञानपर्यायसंघातात्मकत्वाद्वा विज्ञानघनः ।xxx। आत्मनः प्रत्यक्षसिद्धत्वात् , तद्गुणस्य ज्ञानस्य स्वसंवेदनप्रमाणसिद्धत्वात् , तथाहि-स्वसंविदिता एवाग्रहेहावायादयः उत्पद्यन्ते व्ययन्ते वा, ततस्तद्गुणस्य स्वसंविदितत्वात सिद्धत्मात्मनः प्रत्यक्षत्वं । x x x ततः प्रत्यक्षानुमानागमप्रमाणसिद्धत्वावेदप्रतिष्ठितत्वाच्च सौम्य । अस्ति जीव इति प्रतिपत्तव्यम्। छिन्नम्मि संसयम्मि अ जिणेण जर-मरणविप्पमुक्केणं । सो समणो पव्वइओ पंचहिं सह खंडियसएहि ॥६०१।। टीका- उक्तप्रमाणेन जिनेन-भगवता वर्द्धमानस्वामिना जरामरणाभ्यामुक्तलक्षणाभ्यां विप्रमुक्तइव विप्रमुक्तः तेन छिन्ने-निराकृते संशये स इन्द्रभूतिः पंचभिः खण्डिकशतैः-छात्रशतैः सह श्रमणः प्रव्रजितः सन् साधुः संवृत्त इत्यर्थः॥ अपापा नगरी में सोमिल नामक एक धनाढ्य ब्राह्मण यज्ञकर्म में विचक्षण ऐसे इन्द्रभूति आदि ग्यारह विनों को यज्ञ करने के लिए बुलाया। उस समय वहां भगवान महावीर पधारे हुए थे। वीर प्रभु को वंदन करने की इच्छा से आते हुए देवों को देखकर गौतम.-इन्द्रभूति ने अन्य ब्राह्मणों को कहा-'इस यज्ञ के प्रभाव को देखो। अपने मंत्रों से बुलाये हए ये देव प्रत्यक्ष होकर इस यज्ञ में आ रहे हैं। उस समय चंडाल के गृह की तरह यज्ञ की वाट को छोड़कर देव समवसरण में जाते हुए देखकर लोग कहने लगे-हे नगरजनो ! अतिशय सहित सर्वज्ञ प्रभु उद्यान में पधारे है । उन्हे वंदनार्थ ये देव हर्षपूर्वक जाते हैं । "सर्वज्ञ' ऐसा अक्षर सुनकर जानो कोई आक्रोश किया हो वैसा इन्द्रभूति कोपकर स्वजन के प्रति बोला-अरे धिक्कार ! अरे धिक्कार ! मरुदेश के मनुष्यों की तरह आम्र को छोड़कर करीर पास में जाता है उसी प्रकार ये लोग मुझे छोड़कर इस पाखंडी के पास जाते हैं। क्या मेरे से आगे कोई दूसरा सर्वज्ञ है। सिंह के आगे दूसरा कोई पराक्रमी होता ही नहीं है। कदाचित् मनुष्य तो मूर्ख होने से उनके पास जाते हैं तो भले ही जायें-परन्तु ये देव कैसे जाते हैं ? इससे उस पाखंडी का दम्भ अपेक्षा से महान् लगता है- परन्तु वे जैसे सर्वज्ञ हैं वैसे देव भी जाने जाते हैं। क्योंकि जैसे यक्ष होता है वैसे ही बलि होता है । - अब इन देवों और मनुष्यों को देखते हुए मैं उसके सर्वज्ञपन का गर्व हनन कर लाऊ गा। इस प्रकार अहंकार से बोलता हुआ गौतम पांच सौ शिष्यों के साथ पदार्पण किया - जहाँ वीर प्रमु सुर-नरों से आवृतथे--वहां समवसरण में आया। प्रमु की समृद्धि और तादृश तेज को देखकर-'यह क्या है ? इसप्रकार इन्द्रभूति आश्चर्य को प्राप्त हुआ । उसी समय तो हे गौतम-इन्द्रभूति । तुम्हारा स्वागत है। इस प्रकार भगवान महावीर ने अमृत जैसी वाणी से कहा। यह सुनकर गौतम विचार में पड़ गया। क्या यह मेरा नाम और गोत्र भी जानता है। अथवा हमारे जैसे जगत्प्रसिद्ध Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन - कोश २०३ मनुष्यों को कौन नहीं जानता ? परन्तु जो हमारे हृदय में स्थित संशय को जानता है और उसे स्वयं की ज्ञानसंपत्ति से छेद डालता है तो वह वास्तव में आश्चर्यकारी है - ऐसा मैं मानता हूँ । इस प्रकार हृदय में विचार करते हुए — ऐसे संशययुक्त इन्द्रभूति को भगवान् ने कहा- हे विप्र ! जीव है या नहीं। ऐसा तुम्हारे हृदय में संशय है । परन्तु हे गौतम! जीव है, वह चित्त; चैतन्य, विज्ञान और संज्ञादि लक्षणों से जाना जा सकता है। यदि जीव नहीं होता तो पुण्य-पाप का पात्र कौन होता ? और तुम्हारे इस याग, दानादि करने का निमित्त भी क्या होता ? इस प्रकार भगवान् के वचन सुनकर इन्द्रभूति मिध्यात्व के साथ संदेह को छोड़ दिया और भगवान के चरणों में नमस्कार करबोला कि - हे स्वामी । ॐचे वृक्ष को माप लेने के लिए नीचे पुरुष की तरह मैं दुर्बुद्धि आपकी परीक्षा लेने आया था । हे नाथ ! मैं दोषयुक्त हूँ । ऐसा होते हुए भी सम्यग् प्रकार से मुझे प्रतिबोधित किया । अब मैं संसार से विरक्त हुआ -- मुझे दीक्षितकर अनुग्रहित करो । फलस्वरूप जगत्गुरू वीरप्रभुने — इन्द्रभूति को स्वयं का प्रथम गणधर होगा - ऐसा जानकर पाँच सौ शिष्यों के साथ स्वयं दीक्षित हुआ । (ग) उपनीतं कुबेरेण धर्मोपकरणं ततः । त्यक्तसंगोऽप्याददानो गौतमोऽथेत्यचिन्तयत् ||८४|| निरवद्यत्रतत्राणे यदेतदुपयुज्यते । वस्त्रपात्रादिकं ग्राह्यं धर्मोपकरणं हितत् ||८५|| छद्मस्थैरिह षड्जीवनिका ययतनापरैः । शक्येत कथमन्यथा ॥ ८६ ॥ जलज्वलनवायूर्वीतरुत्रसतया बहून् ! धर्मोपकरणं विना ॥१॥ गृहीतोपकरणोऽपि करणत्रयदूषितः । असंतुष्टः स आत्मानं प्रतारयति केवलम् ||१२|| इन्द्रभूतिर्विभव्यैवं शिष्याणां पंचभिः शतैः । समं जग्राह धर्मोपकरणं त्रिदशार्पितम् ||१३|| - त्रिशलाका० पर्व १० / सर्ग ५ सम्यक् प्राणिदयां कर्तुं जीवांस्त्रातुं कथमलं ग्रहण उसी समय इन्द्रभूति की दीक्षा के समय कुबेरने चारित्रधर्म के उपकरणों को लाकर दिये । निसंग होते उसे करते हुए गौतम ने विचार किया "निरवद्य व्रत की रक्षा करने में ये वस्त्र पात्रादिक उपयोग में आते हैं फलस्वरूप ग्रहण करने के योग्य हैं। क्योंकि वे धर्म के उपकरण है । उसके बिना छह प्रकार की जीवनिकाय की यतना करने में तत्पर ऐसे छद्मस्थ मुनियों की सभ्यग्रूप से जीव दया का कैसे प्रतिपालन हो सकता है । पृथ्वीकाय आदि जीवों की धर्मोपकरण के बिना कैसे रक्षा हो सकती है । उपकरण ग्रहण करने पर भी जो स्वयं को आत्मा को मन, वचन - काल से दूषित और असंतोषी रखता है तो वह केवल आत्मा के साथ धोखेबाजी करता है । इस प्रकार विचार कर इन्द्रभूति पाँच सौ शिष्यों के साथ देवों के द्वारा अर्पित किये हुए धर्मोपकरणों को ग्रहण किया। (घ) मिथ्यात्वारातिसंतानं हन्तुं मोहादिशत्रुभिः । सार्धं विप्राग्रणीर्मुक्त्यै दीक्षामादातुमुद्ययौ || १४७|| ततस्त्यक्त्वान्तरे संगान् दश बाह्य चतुर्दश । त्रिशुद्ध या परया भक्त्यार्हतीं मुद्रां जगन्नुताम ॥ १४८ ॥ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश . भातृभ्यां स जग्राह तत्क्षणं च द्विजोत्तमः । शतपंचप्रमैश्छात्रः प्रबुद्धस्तत्त्वमजसा ॥१४॥ अन्ये च बहवो भव्या जिनवा किरणोत्करैः। मोहसङ्गतमो हत्वा जगृहुर्मुनिसंयमम् ॥१५०।। -वीरवर्धमानच० अधि १८ ( भगवान को दिव्यवाणी सुनकर ) ब्राह्मणों का नेता गौतम वैराग्यपूर्वक मोहादि शत्रुओं के साथ मिथ्यात्वरूपी वैरी की सन्तान को मारने और मुक्ति पाने के लिए दीक्षा लेने को उद्यत हुआ। तत्पश्चात् निश्चय तत्त्व के प्रबोध को प्राप्त उस गौतम ने अपने दोनों भाइयों ( अग्निभूति, वायुभूति ) के साथ पाँच सौ छात्रों के साथ चौदह अंतरंग और दशबाहय परिग्रहको छोड़कर त्रियोग शुद्धिपूर्वक परम भक्ति से जगत्पूज्य जिनमुद्रा को तत्काल ग्रहण किया । .४ गौतम गणधर को सात ऋद्धियाँ व चतुर्दश पूर्वो का ज्ञान : (क) तत्क्षणं श्रीगणेशस्य सप्तवास्य महर्धयः। प्रादुर्बभूवुरत्यन्तपरिणामसुशुद्धितः ॥१६॥ सद्य श्रीवर्धमानार्हत्तत्वोपदेशेन च । सर्वाङ्गार्थपदान्येव हृदा परिणतिं ययुः ।।१६३॥ अर्थरूपेण पूर्वाह्ने श्रावणे बहुले तिथौ। पक्षादौ योगशुद्ध यास्य हीन्द्रभूतिगणेशिनः ॥१६४॥ ततः पूर्वाणि सर्वाणि भागेऽस्य पश्चिमे धिया। दिवसस्यार्थरूपेण प्रादुरासन् विधेः क्षयात् ॥१६॥ ततोऽसौ ज्ञातसर्वाङ्गपूर्वो धीचतुष्कवान् । तीक्ष्णप्रज्ञोमवुद्ध याखिलांगनां रचनांपराम !!१६६।। चकार विश्वभव्यानामुपकारप्रसिद्धये । पूर्वरात्रे मुभक्त्या पदवस्तुप्राभृतादिभिः ॥१६७।। पूर्वाणां पश्चिमे भागे यामिन्या रचनां शुभाम्। पदग्रन्थादिरूपेण चक्रेऽसौ तीर्थवृत्तये ॥१६८ इति वृपपरिपाकाद् गौतमः श्रीगणेशः। सकलयति गणानां मुख्य आसीतसुरायः ॥१६६ पूर्वार्ध ।। वीरवर्धमानच० अधि १८ जिन-दीक्षा ग्रहण करने पर श्री गौतम गणधर को परिणामों की अत्यन्त विशुद्धि से तत्काल सातों ही महाऋद्धियाँ प्रकट हो गयी। श्री वर्धमान जिनके तत्त्वोपदेश से सर्व अंगश्रुतके बीज पद इन्द्रभूति गौतम गणधर के हृदय में श्रावण कृष्णपक्ष के आदि दिन अर्थात् प्रतिपदा के पूर्वाह ण कालमें योगशुद्धि के द्वारा अर्थरूप से परिणत हो गये । - तत्पश्चात् उसी दिन के पश्चिम भाग में श्रुतज्ञानावरण कर्म के विशिष्ट क्षयोपशम से प्रकट हुई बुद्धि के द्वारा सभी (चौदह) पूर्व अर्थरूप से परिणत हो गये। भावार्थ-श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के पूर्वाह ण काल में तो गौतम अंगश्रुत के वेत्ता हए और अपराह्न काल में चतुर्दश पूर्वो के वेत्ता बने। इसके पश्चात् सर्व अंग-पूर्व के ज्ञाता और चार ज्ञान के धारी गौतम गणधर ने अपनी तीक्ष्ण प्रज्ञा और विशाल बुद्धि के द्वारा समस्त अंगों की उत्कृष्ट रचना समस्त भव्यजनों के उपकार की सिद्धि के लिए पूर्व रात्रि में सुभक्ति से की । और रात्रि के पश्चिम भाग में पद, वस्तु, प्राभृत आदि के द्वारा सर्व पूर्वो की शुभरचना पद-ग्रं से धर्मतीर्थ को प्रवृत्ति के लिए की। इस प्रकार धर्म के परिपाक से देवों से पूज्य श्री गौतम गणधर सर्वसाधु समूह के प्रमुख हुए और सकलश्रुत के विधाता बने। | Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश सेणिय हउँ आणिउ दिय - पमुहु ।। महु संसयेण संभिण्ण मइ। जिणु पुच्छिउ जीवहु तणिय गइ ॥ णाहें महु संसउ णासियउ। मइँ अप्पउ दिक्खइ भूसियउ ।। मइँ समउ समण-भावहु गयइँ। पावइयइँ दियहँ पंचसयइँ ।। घत्ता–पत्ते मासे सावणि बहुले पाडिवए दिणि । उप्पण्णउ चउ-बुद्धिउ महु सत्तवि रिसि-रिद्धिउ । -वीरजि० संधि २/कड ६/पृ०३२ गौतम गणधर राजा श्रेणिक से कहते है कि हे श्रेणिक ! उस समय इन्द्र प्रसन्नमुख होकर मुझ द्विजप्रमुख को यहां ले आया ( भगवान् महावीर के पास ) उस समय मेरी मति संशय से भ्रांत थी, अतएव मैंने जिनेंद्र से जीव के गति के विषय में प्रश्न किया। भगवान् ने मेरे संशय को दूर कर दिया, तब मैंने अपने आपको मुनि-दीक्षा से विभूषित किया। मेरे साथ अन्य पाँच सौ द्विज भी भगवान के पास प्रव्रज्या लेकर श्रमण बन गये। तत्पश्चात् श्रावण मास के कृष्णपक्ष की प्रतिपदा का दिन आने पर मुझे चारों प्रकार की बुद्धि तथा सातों ऋषि-ऋद्धियाँ भी उत्पन्न हो गयीं। (ग) श्रीवर्धमानमानम्य संयम प्रतिपन्नवान् तदैव मे समुत्पन्नाः परिणामविशेषतः ॥३६॥ मृद्धयः सप्तसर्वाङ्गानामप्यर्थपदान्यतः। भट्टारकोपदेशेन श्रावणे बहुले तिथौ ॥३६६।। पक्षादावर्थरूपेण सद्यः पर्याणमन् स्फुटम्। पूर्वाह्ने पश्चिमे भागे पूर्वाणामप्यनुक्रमात् ।।३७०।। इत्यनुज्ञातसर्वाङ्गपूर्वार्थों धीचतुष्कवान् । अंगानां ग्रंथसंदर्भ पूर्वरात्रौ व्यधामहम् ।।३७१।। पूर्वाणां पश्चिमे भागे प्रथकर्ता ततोऽभवम् । इति श्रुतद्धिभिः पूर्णोऽभवं गणभृदादिमः ॥३७२।। -उत्तपु०/पर्व ७४/श्लो ३६६ से ३७२ दीक्षा के बाद-परिणामों की विशेष शुद्धि होने से मुझे ( इन्द्रभूति ) उसी समय सात ऋद्धियाँ प्राप्त हो गयीं। तदनन्तर भट्रारक वर्धमान स्वामी के उपदेश से मुझे श्रावण बदी प्रतिपदा के दिन पूर्वाह्न काल में समस्त अंगों के अर्थ और पद स्पष्ट जान पड़े। इसी तरह उसी दिन अपराल काल में अतुकम से पूर्वो के अर्थ तथा पदों का भी स्पष्ट बोध हो गया। इस प्रकार जिसे समस्त अंगों तथा पूर्वो का ज्ञान हुआ है और जो चार ज्ञान से सम्पन्न हैं ऐसे मैंने रात्रि के पूर्वभाग में अंगों की रचना और पिछले भाग में पूर्वो की अन्य रचना की । उसी समय से मैं ( इन्द्रभूति ) ग्रन्यकर्ता हुआ । इस प्रकार श्रुत ज्ञान रूपी ऋद्धि से पूर्ण ।। मैं भगवान् महावीर स्वामी का प्रथम गणधर हो गया। .५ गौतम का दूसरा नाम इन्द्रभूति : तदैवास्य गणेशस्य सौधर्मेन्द्रोऽतिभक्तितः। दिव्यार्चनैः प्रपूज्यैष पादाब्जौ त्रिजगन्नुतौ ॥१५६।। नत्वा कृत्वा स्तुतिं दिव्यैर्गुणमध्ये जगत्सताम् । इन्द्रभूतिरयं स्वामीत्युक्त्वा नामान्तरं व्यधात् ।।१६०।। -वीरवर्धमानच० अधि १८ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश उसी समय सौधर्मेन्द्र ने द्वादश गणों के स्वामीपद को प्राप्त हुए गौतम गणधर की अति-भक्ति से दिव्य पूजनद्रव्यों के द्वारा त्रिलोक-नमस्कृत चरण-कमलों को पूजकर, नमस्कार कर और दिव्य गुणों के द्वारा स्तुति करके सब सत्पुरुषों के मध्य में 'ये इन्द्रभूति स्वामी हैं' ऐसा कहकर उनका इन्द्रभूति यह दूसरा नाम रखा । •६ इन्द्रभूति के माता-पिता का नाम : (क) इतश्च मगधे देशे गोवरग्रामनामनि। ग्रामे गोतमगोत्रोऽभूद्वसुभूतिरिति द्विजः ।।४।। तस्येन्द्रभूत्यग्निभूतिवायुभूत्यत्रिधाः सुताः। पत्न्यां पृथिव्यामभवंस्तऽपि गोत्रेण गोतमाः ।।५०।। --त्रिशलाका० पर्व १० मग ५ - मगध देश में-गोवर नामक ग्राम में वसुभूति नामक एक गौतम गोत्रीय ब्राह्मण रहता था। उसके पृथ्वी नाम की स्त्री थी। उसके तीन पुत्र हुए-इन्द्रभूति, अग्निभूति और वायुभूति । जिनका गौत्र गोतम था। (ख) पुहई-वसुभूई-सुओ गणहारी जयड इंदभुइ त्ति। बाणउई-वासाऊ गोव्वरगामुब्भवो पढमो ।। ---धर्मोप० पृ. २०७ इन्द्रभूति की माता का नाम पृथ्वी व पिता का नाम वसुभूति ब्राह्मण था। जन्मस्थान गोवर ग्राम (मगध देश) था । वाणवें वर्ष की आयु थो । .७ गौतम गणधर-प्रथम गणधर : (क) पढमो हु उसहसेणो कसरिसेणो य चारुदत्तो य। वजचमरो य वजो चमरो बलदत्तवेदभा।। ___णागो कुंथू धम्मो मंदिरणामा जओ अरिट्ठो य। सेणो चक्कायुधयो सयंभु कुंभो विसावो य ।। मल्लीणामो सुप्पहवरदत्ता सयंभुईदभूदोओ। उसहादीणं आदिमगणधरणामाणि एदाणि ।। ---तिलोप० अधि ४/गा ६६४ से ६६ पढमित्थ इंदभूई बीए पुण अग्गिभूइत्ति -आव- भाग २ निगा ५६३ मलय टीका-प्रथमोऽत्र गणधरमध्ये इन्द्रभूतिः इन्द्रभूति-भगवान महावीर के आदि-प्रथम गणधर थे। . (ग्व) एयारह गणहर तहो जायई, इंदभूइ धुरि धरि तणु कायई । -~-वढमाणच० मंधि १०/कड४० उन वीरप्रभु के के संघ में ग्यारह सुप्रसिद्ध गणधर हुए। उन सब में इन्द्रभूति-गौतम सर्व प्रथम गणधर थे। .८ साधु-समुदाय में प्रमुख इन्द्रभूति : .. श्रमणम्य भगवतो महावीरस्य इन्द्रभूतिप्रमुखाणि चतुर्दशश्रमणसहस्राणि १४००० - आव० निगा २८६ श्रमण भगवान् महावीर के १४००० साधुओं में प्रमुख–इन्द्रभूति थे । Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश .६ गौतम स्वामी के छद्मस्थावस्था का एक विवेचन : (क) तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्ठ अंतेवासी इंदभूतीनामं अणगारे 'गोयमसगोत्ते णं' सत्तूस्से हे समचउरंससंठाणसंठिए वज्जरिसभनारायसंघयणे कणगपुलगनिघसपम्हगोरे उग्गतवे दित्तनवे तत्ततवे महातवे ओर ले घोरे घोरगुणे घोरतवस्सी घोरबंभचेरवासी 'उच्छृढसरीरे संवित्तविउत्ततेयलेसे चोद्दसपुव्वी चउनाणोवगए सव्वक्वरसन्निवाती समणस्म भगवओ महावीरस्म अदूरसामंते उड्ढंजाणू अहोसिरे झाणकोट्टोवगए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहग्इ ॥८। -भग० श १/उ १/ (ख) तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जे? अंतवासी इंदभूई णामं अणगार गोतमगोत्तेणं उत्तुस्सेहे समचउरंस-संठाण-संठिए वइररिसहणाराय-संघयणे कणग-पुलग-णिघस-पम्हगोरे उग्गतवे दित्ततवे तत्ततवे महातवे उरले घोरे घोरगुगे घोरतवस्सी घोरबंभचेरवासी उच्छूढसरीरे संखित्त-विउल-तेयलेस्से समणस्स भगवओ महावीरस्त अदूरसामंते उड्ढंजाणू अहोसिरे झाणकोट्ठोवगए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ । -~-ओव० सू ८२ उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के ज्येष्ठ अर्थात् सबसे बड़े प्रथम शिष्य इन्द्रभूति अनगार थे। उनका गोत्र गौतम था। उनका शरीर सात हाथ ऊँचा था। उनका संस्थान-समचतुरस्र समचौरस था । उनका संहनन-वज्रऋषभ नाराच श । कसौटी पर खींची हुई सोने की रेखा के समान तथा कमल को केशर के समान गौर वर्ण के थे। वे उग्र तपस्वी, दिप्त तपस्वी, तप्त तपस्वी, महा तपस्वी, उदार, कर्म शत्रुओं के लिए घोर, घोर गुणवाले, घोर तपस्वी, घोर ब्रह्मचर्य के पालन करने वाले, अतएव शरीर-संस्कार के त्यागी थे। । दूर दूर तक फैलने वाली विपुल तेजोलेश्या को उन्होंने अपने शरीर में संक्षिप्त कर रखी थी। वे चौदह पूर्व के ज्ञाता थे। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्यव-इन चार ज्ञान के धारक थे और और सर्वाक्षर सन्निपाति थे। वे श्रमण भगवान् महावोर स्वामी के न बहुत दूर, न बहुत नजदीक, उर्ध्वजानु और अधः शिर होकर अर्थात् दोनों घुटनों को खड़े करके एवं शिर को कुछ नीचे की ओर झुकाकर ध्यान रूपी कोष्ठक में प्रविष्ट होकर संयम और तप ले अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरते थे। (ग) x x x । तेण महावीर भडारएण इंदभूदिस्स अज्जस्त अजखेत्तुप्पण्णस्स चउरमलबुद्धिमंपण्णम्स दितुग्गतत्ततवस्स अणिमादिअट्ठविहविउव्वणलद्धिसंपण्णस्त सव्वट्ठसिद्धिणिवासिदेवेहिंतो अणंतगुणवलस्स मुहुत्तेणेक्केण दुवालसंगत्थगंथाणं सुमरणपरिवादिकरणक्खमस्स सपाणिपत्तणिवदिदग्व्वं पि अमियसरूवेण पल्लट्टावणसमत्थस्स पत्ताहारवसहि-अक्खीणरिद्धिस्स सव्वोहिणाणेण दिवासेसपोग्गलदव्वस्स तवोबलेण उप्पायिदुक्कस्स विउलमदिमणपज्जवणाणस्स सत्तभयादीदस्स खविदचदुकसायरस Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ वर्धमान जीवन-कोश जियपंचिंदियस्स भग्गतिदंडस्स छज्जीवदयावरस्स णिवियअट्ठमयस्स दसधम्मुज्जयस्स अट्ठमाउगणपरिवालियस्स भग्गबाबीसपरीसहपसरस्स सच्चालंकारस्स अत्थो कहिओ। तदो तेण गोअमगोत्तेण इंदभूदिणा अंतोमुहुत्तेणावहारियदुवालसंगत्थेण तेणेव कालेण कयदुवालसंगगंथरयणेण गुणेहि सगसमाणस्स सुहमा इरिस्स गंधो बक्खाणिदो। ततो केत्तिएणवि कालेणकेवलणाणमुप्पाइय बारसवासाणि केवलविहारेण विहरिय इंदभूदिभडारओ णिबुई संपत्तो ।१२॥ -कसापा०/गा १/टीका भाग १/पृ० ८३/८४ जो आर्य क्षेत्र में उत्पन्न हुए है, मति, श्रुति, अवघि ओर मनःपर्यय :-इन चार निर्मल ज्ञानों से संपन्न है, जिन्होंने दीप्त, उग्र और तप्त तप को तपा है, जो अणियादि आठ प्रकार की वैक्रियक लब्धियों से संपन्न है, जिनकी सर्वार्थ सिद्धि में निवास करने वाले देवों से अनन्त गुण बल है, जो एक मुहूर्त में बारह अंगों के अर्थ और द्वादशांग रूप ग्रंथों के स्मरण और पाठ करने में समर्थ है, जो अपने पाणिपात्र में दी गई खीर को अमृत रूप से परिवर्तित करने में या अक्षय बनाने में समर्थ है, जिन्हें आहार और स्थान के विषय में अक्षीण ऋद्धि प्राप्त हैं, जिन्होंने सर्वावधि ज्ञान से अशेष पुद्गल द्रव्य का साक्षात्कार कर लिया है, तप के बल से जिन्होंने उत्कृष्ट विपुतमति मनःपर्यवज्ञान उत्पन्न कर लिया है, जो सात प्रकार के मद से रहित है, जिन्होंने चार कपायों का क्षय कर दिया है, जिन्होंने पांच इन्द्रियों को जीत लिया है। जिन्होंने मन, वचन, कायरूप तीन दण्डों को भग्न कर दिया है, जो छह कायिक जीवों की दया पालने में तत्पर है, जिन्होंने कुलमद आदि आठ मदों को नष्ट कर दिया है। जो क्षमादि दस धर्मों में निरन्तर उद्यत है। जो आठ प्रवचन मातृक गणों का अर्थात् पांच समिति और तीन गुप्तियों का प्रतिपालन करते है। जिन्होंने क्षुधादि बाइस परीषहों के प्रसार को जीत लिया है। और जिनका सत्य ही अलंकार है-ऐसे आर्य इन्द्रभूति के लिए उन महावीर भट्टारक ने सर्वथा उपदेश दिया। उसके अनन्तर उन गौतम गोत्र में उत्पन्न हुए इन्द्रभूतिने एक अंतर्मुहूर्त में द्वादशांग के अर्थ का अवधारण कर के उसी समय बारह अंग रूप ग्रंथों की रचना की और गुणों से अपने समान ही सुधर्माचार्य को उसका व्याख्यान किया। तदनन्तर कुछ काल के पश्चात् इन्द्रभूति भट्टारक केवल ज्ञान को उत्पन्न करके और बारह वर्ष तक केवलि-विहार रूप से विहार करके मोक्ष को प्राप्त हुए। .१० छद्मावस्था में गौतम गणधर ने छट्ठ-तप-बेले २ की तपस्या अनेक बार की। (क) तेणं कालेणं तेणं समएणं रोहीडएनामं नयरे होत्था। x x x तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे जाव परिसा पडिगया। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जे? अंतेवासी छ?क्खमणपारणगंसि तहेव जाव रायमग्गमोगाढे x x x । -विवा० श्रु २/अ ६/सू २, ५, ६ जब श्रमण भगवान् महावीर रोहितक नगर पधारे थे। उस समय भगवान् के ज्येष्ठ शिष्य गौतम स्वामी षष्ठ क्षमण-बेले के पारणे के लिए भिक्षार्थ गये और रागमार्ग पधारे । Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमानजीवन-कोश २०६ (ख) तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ समोसरणं जाव परिसा पडिगया l x x x ६॥ ततेणं से भगवं गोयमे दोच्चंपि छटुक्खमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए जाव पाडलिसंडं णगरं दाहिणिल्लेणं दुवारेणं अणुप्पविसति ।८।। -विवा० श्रु १/अ ७/सू ६, ८ तदनन्तर भगवान् गौतम ( प्रथम बार प्रवेश करने के पश्चात् ) दूसरी बार षष्ठ क्षमण के पारणे में भी अर्थात लगातार दो दिन के उपवास के अनन्तर पारणा के निमित्त प्रथम पौरुषी-प्रहर में यावत् पाटलिषंड नगर में दक्षिण दिशा के द्वार से प्रवेश करते हैं। (ग) तए णं से भगवं गोयमे तच्चपि छट्ठक् खमण पारणगंसि तदेव जाव पाडलिसंडं नयरं पञ्चत्थिमिल्लेणं दुवारेणं अगुपविसमाणे तं चेव पुरिसं पासइ-कच्छुल्लं ॥६॥ तएणं से भगवं गोयमे चउत्थं पि छटुक्खमणपारणगंसि तहेव जाव पाडलिसंडं नयरं उत्तरेणं दुवारेणं अणुपविसमाणे तं चेव पुरिसं पासइ-कच्छुल्लं ॥१०॥ गौतम-तीसरी बार षष्ठ क्षमण के पारणे में उसी नगर के पश्चिम द्वार से, चौथीवार षष्ठ क्षमण के पारणे में निमित्त पाटलिषंड नगर के उत्तर दिशा के द्वार से प्रविष्ट हुए। नोट : - चारों बार एक पुरुष को कंडू के रोग से अभिभूत हुआ देखा। (घ) तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणियगामे नामं नयरे होत्था । x x x ॥२॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसढे ररिसा निग्गया । x x x ||१|| तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगपओ महावीरस्स जेठे अंतेवासी इंदभूई नामं अणगारे गोयमगोत्तेणं जाव संवित्तविउलतेयलेसे हटुंछटणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरइ ॥१२॥ -विवा० श्रु १/अ २/सू ८, ११, १२ उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर वाणिज्य ग्राम नगर में पधारे। उस काल उस समय में श्रमण भगवान महावीर के प्रधान शिष्य इन्द्रभूति अनगार तेजो लेश्या को संक्षिप्तकर अपने अन्दर धारण किये हुए हैं तथा षष्ठ तप-बेले-बेले की तपस्या करते थे। .११ गौतम की जिज्ञासा : तते णं भगवं गोयमे जायसड्ढे जायसंसए जायकोउहल्ले उप्पन्नसड्ढे उप्पन्नसंसए उप्पन्नकोउहल्ले संजायसड्ढे संजायसंसए संजायकोउहल्ले समुप्पन्नसड्ढे समुप्पन्नसंसए समुप्पन्नको उहल्ले उट्ठाए उठेति, उट्टेत्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता णच्चासन्नेणातिदूरे सुस्सूसमाणे णमंसमाणे अभिमुहे विणएणं पंजलियडे पज्जुवासमाणे एवं वयासी..... ||१०|| -भग० श १/३१ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश जिनको श्रद्धा, संशय और कुतूहल उत्पन्न हुआ है-ऐसे गौतम स्वामी अपने स्थान से उठकर श्रमण भगवान् महावीर के पास आये और श्रमण भगवान महावीर स्वामी को तीन बार प्रदक्षिणा करके वंदन-नमस्कार किया। भगवान् के न अति नजदीक न अतिदूर किन्तु यथोचित स्थान पर रहकर भगवान् के सम्मुख विनयपूर्वक हाथ जोड़कर इस प्रकार बोले विवेचन-'जायसडढ, अर्थात् गौतम स्वामी को श्रद्धा-अर्थ तत्त्व जानने की इच्छा उत्पन्न हुई। 'जायसंसए' उन्हें संशय पैदा हआ कि भगवान् ने 'चलमाण चलिए', अर्थात् चलते हुए को चलित-चला हुआ कहा है तो वर्तमान कालिक प्रयोग भूतकालिक कसे कहा गया है। इसका निर्णय कर। इस प्रकार निर्णय करने की बुद्धिरुप संशय पैदा हुआ। 'जायकोऊहल्ले' उन्हें कोतुहल उत्पन्न हुआ कि भगवान् इसका समाधान किस प्रकार फरमावेंगे। .१२ केशी और गौतम-संवाद : [केशी कुमार श्रमण-भगवान् पार्श्वनाथ के संतानीय शिष्य थे। तथा ग्रामानुग्राम विचरते हुए श्रावस्थी नगरी पधारे। वहाँ उनका मिलन गणधर गौतम से हुआ और गौतम स्वामी से संवाद-प्रतिसंवाद हुआ। तथा चतुर्याम और पंचयाम धर्म के भेद का स्पष्टीकरण हुआ। अनगार केशी कुमार ने पंचयाम धर्म को भाव से अंगीकार किया। भगवान् जब ५८ वर्ष के थे, उस समय उनके शिष्य गौतम और भगवान पार्श्व के शिष्य केशीमें वाद हुआ था। उसमें धर्म, वेशभूषा आदि अनेक विषयों पर चर्चा हुई थी। बहुत सम्भव है कि पिटकों में यही घटना काल की विस्मृति के साथ उल्लिखित हुई हो। .१ केशी-गौतम मिलन : (क) जिणे पासित्ति णामेणं, अरहा लोगपूइओ। संबुद्धप्पा य सव्वण्णू , धम्म-तित्थयरे जिणे ॥१॥ तस्स लोगपईवस्स, आसि सीसे महायसे। केसीकुमार समणे, विज्जाचरण - पारगे ॥२॥ ओहिणाणसुए बुद्धे, सीससंघसमाबले। गामाणुगामं रीयंते, सावत्थि पुरमागए ॥३॥ तिंदुयं णाम उज्जाणं, तिम्म णगरमंडले। फासुए सिज्ज-संथारे, तत्थ वासमुवागए ॥४॥ अह तेणेव कालेणं, धम्मतित्थयरे जिणे। भगवं वद्धमाणित्ति, सव्वलोगम्मि विस्सुए ॥५॥ तस्स लोगपईवस्स, आसि सीसे महायसे। भगवं गोयमे णाम, विज्जाचरण-पारगे ॥६॥ बारसंविऊ बुद्धे, सीससंघसमाउले। गामाणुगामं रीयंते, सेऽवि सावत्थिमागए ।।७।। कोठूगं णाम उज्जाणं, तम्मि णगरमंडले। फासुए सिज्जसंथारे, तत्थ वासमुवागए Et केसीकुमार समणे गोयमे य महायसे । उभओऽवि तत्थ विहरिंसु, अल्लीणा सुसमाहिया ॥६॥ उभओ सीस-संघाणं, संजयाणं तवस्सिणं। तत्थ चिंता समुप्पण्णा गुणवंताण ताइणं ॥१०॥ -उत्त० अ २३/गा १ से १० (ख) तंजहा-पाससामिणो तेवीसइम-तित्थयरस्स केसिनामो अणेग-सीस-गण-परिवारो ससुरासुरनरिंद-पणय-पव-पंकओ बोहिंतो भव्व-कमलायरे, नासिंतो मिच्छत्तमन्धयारं, अवणेतो मोह-निइं, मासकप्पेण विहरमाणो समोसरिओ सावत्थीए नयरीए मुणि-गणपाओगे फासुए तिंदुगाहिहाणे उज्जाणे। Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वधमान जीवन - कोश विरुव्वियं तियसेहिं दिव्वमच्चंत-मणाभिरामं कंचर्ण-सयवत्तं । ठिओ तत्थ । समादत्ता धम्म कहा । संपत्ता देव-दाणव नरिंदाइणो त्ति । अवि य । तियसासुर-नय-चलणो धम्मं साहेइ गणहरो केसी । दट्ठब्व-दिट्ठ-सारो मोक्ख फलं सव्व-सत्ताणं ॥ तीय चिय नयरीए उज्जाणे कोट्ठगम्मि वीरस्स। सीसो गोयमगोत्तो समोसढो इंदभूइति ॥ कंचण-पउम- निसण्णो धम्मं साहेइ सो वि सत्ताण । पुव्ववराविरुद्धं पमाण - नय हेउ-सय-सलियं ॥ नाणा विह-व-धरा सिसा केसिरस सियवड - समेया गोयम - गणहर - सीसा मिलिया एत्थ चिंतंति ॥ - धर्मोप० पृष्ट १४० 1 । २११ जिन ( राग-द्वेष के विजेता ), अरहा ( नरेन्द्र-देवों से वंदित), लोक में पूजित, तत्त्वज्ञान से युक्त आत्मावाले, सर्वज्ञ, धर्मतीर्थंकर, समस्त कर्मों को जीतनेवाले पार्श्वनाथ नाम के भगवान् ( तेइसवें तीर्थंकर) थे । 1 लोक में दीपक के समान उन पार्श्वनाथ भगवान् के ज्ञान और चारित्र के पारगामी, महायशस्वी केशीकुमार श्रमण, शिष्य थे । मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान से युक्त, तत्त्वों को जाननेवाले, शिष्यों के परिवार सहित ग्रामानुग्राम विचरते हुए वे केशीकुमार श्रमण श्रावस्ती नामक नगरी में पधारे । उस श्रावस्ती नगरी के समीप तिन्दुक नाम का एक उद्यान था । स्थान में वे केशीकुमार श्रमण ठहरे । वहाँ प्रासुक (जीव रहित ) संस्तारक युक्त अस्तु — उसी समय धर्मतीर्थ की स्थापना करनेवाले, राग-द्वेष के विजेता भगवान् वर्धमान स्वामी समस्त संसार में सर्वज्ञ सर्वदर्शी तीर्थंकर रूप से प्रसिद्ध थे । लोक में दीपक के समान उन भगवान् वर्धमान स्वामी के ज्ञान और चारित्र के पारगामी, महायशस्त्री भगवान् गौतम (अपर नाम – इन्द्रभूति - प्रथम गणधर थे ) शिष्य थे । बारह अंगों के ज्ञाता, तत्त्वज्ञानी, शिष्यों के परिवार सहित, ग्रामानुग्राम विचरते हुए, गौतम स्वामी श्रावस्ती नगरी में भी पधारे। उस श्रावस्ती नगरी के समीप कोष्ठक नाम का एक उद्यान था । वहाँ प्रासुक (जीव रहित ) संस्तारक युक्त स्थान में ठहरे गये । मन-वचन-काय युक्त, ज्ञान- दर्शन - चारित्र की समाधिवंत, महायशस्वी केशीकुमार श्रमण और गौतम स्वामी दोनों ही वहाँ सुख-शांतिपूर्वक विचरते थे । केशीकुमार श्रमण ओर गौतम स्वामी दोनों के संयंती, तपस्वी, ज्ञान दर्शन- चारित्र आदि गुण सम्पन्न, छः काय जीवों के रक्षक, शिष्य - समुदाय के मन में वहाँ शंका उत्पन्न हुई । नोट- गोचरी के लिए निकले हुए उन दोनों के शिष्य समुदाय को एक ही धर्म के उपासक होने पर भी एक दूसरे के वेषादि में अन्तर दिखाई देने के कारण एक-दूसरे के प्रति शंका उत्पन्न हुई । (ग) केरिसो वा इमो धम्मो ? इमो धम्मो व केरिसो ? आयार - धम्मप्पणिही, इमा वा सा व केरिसी १११ ॥ चाज्जामो य जो धम्मो, जो इमो पंच- सिक्खिओ । देसिओ वद्धमाणेणं, पासेण य महामुनी ||१२|| अचेलगो य जो धम्मो, जो इमो संतरुत्तरो । एगज्जपवण्णा, विसेसे किंणु कारणं ||१३|| अह ते तत्थ सीसाणं, विष्णाय पवितक्कियं । समागमे कयमई, उभओ केसिगोयमा ॥ १४ ॥ गोयमो पडवणू, सीससंघसमाउले | जेटलं कुलमवेक्खंतो, सिंदुयं वणमागओ ॥ १५॥ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश केसीकुमार समणे, गोयम दिस्समागयं । पडिरूवं पडिवत्ति, सम्मं संपडिवजई ॥१६॥ पलालं फासुगं तत्थ, पंचमं कुसतणाणि य। गोयमस्स णिसेज्जाए, खिप्पं संपणामए ॥१७॥ केसीकुमार-समणे, गोयमे य महायसे। उभओ णिसण्णा सोहंति, चंदसूरसमप्पभा ॥१८॥ समागया बहू तत्थ, पासंडा कोउगा मिया। गिहत्थाण अणेगाओ, साहस्सीओ समागया ॥१६॥ देव - दाणव - गंधव्वा, जक्ख-रक्खस-किण्णरा। अदिस्साणं च भूयाणं, आसी तत्थ समागमो ॥२०॥ --उत्त० अ २३/गा ११ से २० . (घ) अव्वो ! मोक्ख-कज्जे साहेयव्वे किं पुण कारणं पास-सामिणा चत्तारि महव्वया णि निद्दिट्टाणि ? कारणं णाए य पडिक्कमणं ? अणस्स मुणिणो कयमण्णस्स कप्पइ। नाणाविहवत्थ-गहणं, सामाइय-संजमाईणिय। कोस वद्धमाणसामिणा पंच महव्वयाणि, . उभयकाल-पडिक्कमणमवस्सं, सियवत्थ-गहणं, एगस्स मुणिणो कयं आहाकम्माइ सव्वेसि न कप्पणिज्ज सेज्जायरपिंड-विवज्जं, सामाइयं-छेदोवत्था [व] णाईणि त्ति ? ___ इय एवं विहचित्तं (न्तं) सीसाणं जाणिऊण ते दो वि। मिच्छत्त - नासणत्थं संगम - चिंताउरा जाया ॥ तओ जेठं कुलमवेक्खमाणे अणेग-सीस-गण-परिवारो वुच्चंतो विज्जाहर ईहिं संपटिठओ गोयमो तिंदुगुज्जाणे भगवओ केसिगणहरस्स वंदण-वडियाए। भणियं च परममुणि णा। - “गोयमो पडिवण्ण [रूवण्णू ] सीस-संघ-समाउलो। जेठं कुलमवेक्खंतो तिंदुर्ग व मागओ। केसी कुमारसमणो गोयमं दिस्समागयं । पडिरूवं पडिवत्तिं खिप्पं सो पडिवज्जड ॥" तक्षणं च सीसेहि रयाउ निसेज्जाओ कय-जहारिहविणयकम्मो गोयमो केसी यत्ति । "केसी कुमार-समणे गोयमे य महायसे । दुइओ निसण्णा सोहंति चंद-सूर-सम-प्पभा ॥" तओ ताण भगवंताण समागमं सोऊल-विन्नाण-हेउं पूयाइ दंसणस्थमागया सव्ये पासंडिणो, गिहत्था, भवणवइ-वाणमंतर-जोइस वेमाणिया [f] य देवाणमणेगाउ कोडीउ त्ति । -धर्मोप० पृ० १४०-१४१ वे शिष्य इस प्रकार शंका करने लगे कि यह हमारा धर्म कैसा है और यह इनका धर्म कैसा है तथा यह हमारी आचार-धर्म की व्यवस्था अर्थात् बाह्यवेष धारणादि क्रिया कैसी है और उनकी आचार-धन की व्यवस्था कैसी है ? - महामुनि पार्श्वनाथ भगवान् ने जो चतुर्याम अर्थात् चार महाव्रत वाला धर्म कहा है और वर्धमान स्वामी ने जो यह पाँच महाव्रत वाला धर्म कहा है तो इस भेद का क्या कारण है ? भगवान् वर्धमान स्वामी ने जो परिमाणोथेत श्वेत एवं अल्प मूल्यवाले वस्त्र रखने का धर्म कहा है। और भगवान् पार्श्वनाथ ने जो यह विशिष्ट एवं बहुमूल्य वस्त्र रखने रूपधर्म कहा है, तो मोक्ष प्राप्ति रूप एक कार्य के लिए प्रवृत्ति करनेवालों के बाह्याचार में इतना अन्तर होने का क्या कारण है ? Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश २१३ इसके बाद वहाँ पर अपने-अपने शिष्यों की शंका को जानकर उसकी निवृत्ति के लिए उन केशीकुमार श्रमण और गौतम स्वामी दोनों महापुरुषों ने एक स्थान पर मिलने का विचार किया। - केशीकुमार श्रमण तेवीसवें तीर्थंकर भगवान् पार्श्वनाथ के सन्तानिये (शिष्यानुशिष्य) थे। इसलिए उनके कुल को ज्येष्ठ मानकर विनय धर्म के ज्ञाता गौतम स्वामी अपने शिष्य समुदाय सहित तिदुक उद्यान में जहाँ केशीकुमार श्रमण थे-वहाँ आये। ___ केशीकुमार श्रमण गौतम स्वामी को आते हुए देखकर बहुमान भक्ति के साथ उनके योग्य सत्कार-सम्मान करने लगे। केशीकुमार श्रमण ने वहाँ गौतम स्वामी के बैठने के लिए प्रासुक, पलाल अर्थात् शाली, ब्रीहि, कोद्रव राख-ये चार और पांचवां डाभ के तृण-ये पाँच प्रकार के पलाल दिये - चन्द्र सूर्य के समान कान्तिवाले महायशस्वी केशीकुमार श्रमण और गौतम स्वामी, दोनों आसन पर बैठे हुए चंद्रमा और सूर्य के समान शोभित हो रहे थे। - उन दोनों मुनियों की चर्चा-वार्ता को सुनने के लिए अनेक हजारों गृहस्थ वहाँ तिंदुक वन में आये और बहुत से मृग के समान अज्ञानी पाखंडी लोग और कुतूहली लोग भी वहाँ आकर इकट्ठे हुए। ज्योतिषी और वैमानिक देव, दानव (भवनपति, गन्धर्व) यक्ष, राक्षस, किन्नर आदि देव भी वहाँ आये और दिखाई न देनेवाले भूतों का भी वहाँ समागम था अर्थात् अदृश्य भून भी वहाँ आये थे। (च) पुच्छ: मि ते महाभाग ! केसी गोयममब्बवी। तओ केसिं बुवंतं तु, गोयमो इणमब्बवी ॥२॥ पुच्छ भंते ! जहिच्छं ते. केसिं गोयम-मब्बवी। तओ केसी अणुण्णाए, गोयमं इणमब्बवी ॥२२॥ -उत्त० अ २३/गा २१, २२ केशीकुमार श्रमण ने गौतम स्वामी से कहा कि, 'हे महाभाग ! आपो वुछ पूछना चाहता हूँ ।' तब इस प्रकार बोलते हुए केशी कुमार श्रमण को गौतम स्वामी इस प्रकार कहने लगे। गौतम स्वामी ने केशीकेमार श्रमण को कहा कि, 'हे भगवन् ! आपकी जैसी इच्छा हो वैसा प्रश्न करो।' इसके बाद गौतम स्वामी की अनुमति प्राप्त होने पर केशी मार श्रमण गौतम स्वामी से इस प्रकार पूछने लगे। (छ) कालाणुरूव - किरियं सुयाणुसारेण कुरु जहा-जोग।। जह केसिगणहरेणं गोयम - गणहारिणो विहिया ॥५२॥ __-धर्मोप० गा ५२/पृ० १४० टीका - कालानुरूप - क्रियां पंचमहाव्रतादिलक्षणामागमानुसारेण यथा -- गौतम-समीपे पार्श्वनाथीयकेसि (शि) गणधरेण कृतेति । Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ वधमान जीवन-कोश (ज) तओ तित्थाहिव-गणहरो त्ति काऊण सीसाईण बोहणत्थं सविणयं जाणमाणेणावि पुच्छिओ गोयमसामी केसीगणहरेण पवुत्त-संसर (ए)। गोयमेण भणियंउसभसामी [तित्थ-साहु] णो अत्त्वंतमुज्ज (ज्जु) य-जडा, वद्धमाणसामि-तित्थ-साहुणो पुण अच्चंत-वक्क-जडा। अओ पुव्विल्ल-साहूण दुव्विसोहओ, पच्छिमाण पुण दुरणुपालओ। इमिणा कारणेण दोण्हंपि पंचमहव्वयाइलक्खणो। मज्झिम-जिण-तित्थसाहुणो पुण उजुया विसेसण्णुणो, तेण धम्मे दुहा कए त्ति । निच्छएण पुण सम्मदंसण-नाण-चरित्ताणि निव्वाण-मग्गो, ताणि य सव्वेसि पि तित्थयरं सोसाणं सरिसाणि त्ति। -धर्मोप० पृ० १४१, १४२ .२ केशी-गौतम-संवाद : (क) चारयाम ( महाव्रत) के संबंध में : चाउजामो य जो धम्मो, जो इमो पंचसिक्खिओ। देसिओ वद्धमाणेण, पासेण य महामुणी ।।२३।। एगकज पवण्णाणं, विसेसेकिण्णु कारणं !! धम्ने दुविहे मेहावि ! कहं विप्पच्चओ ण ते २४|| तओ केसिं बुवंतं तु, गोयमो इणमब्बवी। पण्णा समिक वए धम्म, तत्तं तत्तविणिच्छियं ॥२५॥ पुरिमा उज्जुजडा उ, वक्कजडा य पच्छिमा। मज्झिमा उज्जुपण्णा उ, तेण धस्मे दुहा कए ॥२६॥ पुरिमाण दुव्विसोज्झो उ, चरिमाणं दुरणुपालओ। कप्पो मज्झिमगाणं तु, सुविसोझो सुपालओ ॥२॥ -उत्त० अ २३/गा २३ से २७ पहला प्रश्न-महामुनि पार्श्वनाथ भगवान् ने जो यह चार महावत वाला धर्म कहा है और भगवान् वर्धमान स्वामी ने जो यह पाँच महाव्रत वाला धर्म कहा है। एक ही कार्य ( मोक्ष प्राप्ति कार्य रूप ) के लिए प्रवृत्ति करने वालों में परस्पर विशेषता का क्या कारण है अर्थात् हम दो प्रकार के धर्म के विषय में हे बुद्धिमन् ! क्या आपको संशय नहीं होता ? अर्थात् भगवान् पार्श्वनाथ और भगवान् वर्धमान स्वामी दोनों सर्वज्ञ हैं, तो फिर मतभेद का क्या कारण है ? इसके बाद इस प्रकार कहते हुए केशीकुमार श्रमण से गौतम स्वामी इस प्रकार कहने लगे कि जीवादि तत्त्वों समें निश्चय किया जाता है-ऐसे धर्म तत्त्व को बुद्धि ही ठीक समझ सकती है अर्थात् बुद्धि द्वारा ही तत्त्वों का निर्णय होता है। पहले तीर्थंकर के साधु ऋजुजड़ होते हैं और अन्तिम तीर्थंकर के साधु वक्रजड़ होते हैं और मध्य के बाइस तीर्थंकरों के साधु ऋजप्राज्ञ होते हैं इसलिए धर्म दो प्रकार का कहा गया है। नोट-प्रथम तीर्थंकर के साधु ऋजुजड़ होते हैं। वे तत्त्वों के अभिप्राय को शीघ्र नहीं समझ पाते हैं । अन्तिम तीर्थंकर के साधु वक्रजड़ होते हैं, उन्हें हितशिक्षा दी जाने पर भी वे अनेक प्रकार के कुतों के द्वारा परमार्थ की अवहेलना करने में उद्यत रहते हैं, तथा वक्रता के कारण छलपूर्वक व्यवहार करते हुए अपनो मूर्खता को चतुरता के रूप में प्रदर्शित करने की चेष्टा करते हैं। मध्य के बाइस तीर्थंकरों के साधु ऋजुप्राज होते हैं अर्थात् सरल और Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुद्धिमान होते हैं । वे सरलतापूर्वक समझाये वे उस तत्त्व के मर्म तक पहुँच जाते हैं । तीर्थंकर के साधुओं के लिए पाँच महाव्रतों का चार महाव्रतों का कथन किया गया है । वर्धमान जीवन - कोश २१५ जा सकते हैं और ऐसे बुद्धिमान होते हैं कि संकेत मात्र कर देने से ही इसलिए धर्म के नियमों में भेद किया गया है अर्थात् प्रथम और अन्तिम विधान किया गया है और मध्य के बाइस तीर्थंकरों के साधुओं के लिए पहले तीर्थंकर के साधुओं का आचार दुर्विशोध्य है और अन्तिम तीर्थंकर के साधुओं का आचार दुरनुपालक है और मध्य के बाइस तीर्थंकरों के साधुओं का आचार सुविशोध्य और सुपालक है । अर्थात् प्रथम तीर्थंकर के साधु अपने कल्प ( आचार ) को शीघ्र समझ नहीं पाते हैं । उनकी प्रकृत्ति सरल होती है, इसलिए उनकी बुद्धि शीघ्रता से पदार्थों के अवधारण करने में समर्थ नहीं होती । अन्तिम तीर्थंकर के साधु वक्रजड़ होते हैं, वे किसी बात को सरलतापूर्वक समझते नहीं और समझ जाने पर भी उसका सरलता से पालन नहीं करते, क्योंकि इस काल के जीव कुतर्क उत्पन्न करने में बड़े कुशल होते हैं । मध्य के बाइस तीर्थंकरों के मुनियों को शिक्षित करना या साधु कल्प का बोध देना और उनके द्वारा उसका पालन किया जाना — ये दोनों बातें सुलभ होती है, इसलिए इनके लिए चार महाव्रतों का विधान किया गया है और प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों के मुनियों के लिए पाँच महाव्रतों का विधान किया गया है । (ख) सचेलक - अचेलक के सम्बन्ध में : साहु गोयम ! पण्णा ते, छिष्णो मे संसओ इमो । अचेलगो य जो धम्मो, जो इमो संतरुत्तरो । एगज्जपवण्णणं, विसेसे किण्णु कारणं । सिमेवं बुवाणं तु, गोयमो इणमन्त्रवी । पच्चयत्थं च लोगस्स, णाणाविह विगप्पणं । अह भवे पइण्णा उ, मोक्ष- सब्यसाहणा । अण्णो वि संसओमज्झं, तं मे कहसु गोयमा ||२८|| सिओ वद्धमाणेण, पासेण य महाजसा ||२६|| लिंगे दुविहे मेहावी ! कह विप्पच्चओ ण ते ||३०|| विष्णाणेण समागम्म, धम्म- साहण - मिच्छियं ||३१|| जत्तत्थं गहणत्थं च, लोगे लिंगपओयणं ||३२|| गाणं च दंसणं चेव, चरितं चेव णिच्छए ||३३|| - उत्त० अ २३ /गा २८ से ३३ हे गौतम! आपकी बुद्धि श्रेष्ठ है । आपने मेरा यह संशय दूर कर दिया है । मेरा और भी संशय है इसलिए हे गौतम! उसके विषय में भी मुझे कहिए अर्थात् मेरा जो दूसरा संशय है उसे भी दूर कीजिये । दूसरा प्रश्न - महायशस्वी महामुनिश्वर भगवान् वर्धमान स्वामी ने जो यह अचेलक ( परिमाणोपेत श्वेत और अल्प मूल्यवाले वस्त्र रखने ) रूप धर्म कहा है और भगवान् पार्श्वनाथ स्वामी ने जो यह मानोपेत रहित, विशिष्ट एवं बहुमूल्य वस्त्र रखने रूप धर्म कहा है, तो एकही कार्य के लिए अर्थात् मोक्ष प्राप्ति रूप कार्य के लिए प्रवृत्ति करनेवालों में परस्पर विशेषता होने में क्या कारण है ? हे मेधाविन् ! बाह्यवेश के दो भेद हो जाने पर क्या आपके मन में संदेह उत्पन्न नहीं होता है ? जब दोनों बाते सर्वज्ञ कवित है तो फिर मतनेद का क्या कारण है ? इस प्रकार कहते हुए केशीकुमार श्रमण को गौतम स्वामी इस प्रकार कहने लगे । भगवान् पार्श्वनाथ स्वामी और भगवान् वर्धमान स्वामी ने विज्ञान द्वारा अर्थात् केवलज्ञान द्वारा जानकर यथायोग्य धर्म-उपकरणों की आज्ञा दी Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ वर्धमान जीवन-कोश है। अनेक प्रकार के उपकरणों की कल्पना, लोगों की प्रतीति एवं विश्वास के लिए है और संयम-यात्रा का निर्वाह करने के लिए तथा ज्ञानादि ग्रहण के लिए लोक में लिंग (वेश) का प्रयोजन है। नोट-'यह साधु है' लोक में ऐसी प्रतीति ही इसके लिए लिंग का प्रयोजन है। अन्यथा प्रत्येक व्यक्ति अपनी पूजा के लिए अपनी इच्छानुसार वेश धारण करके साधु कहलाने का ढोंग कर सकता है। संयम-यात्रा के निर्वाह के लिए तथा ज्ञानादि के ग्रहण के लिए भी वेश को आवश्यकता है। कदाचित् कर्मोदय से संयम के प्रति अरूचि अथवा मन में किसी प्रकार का विकार उत्पन्न हो जाय तो यह विचार करना चाहिए कि मेरा साधु-वेश है। मुझे इसके अनुसार ही प्रवृत्ति करनी चाहिए। ___ भगवान् पार्श्वनाथ और भगवान् वर्धमान स्वामी की दोनों तीर्थंकरों की प्रतिज्ञा तो यही है कि निश्चय में मोक्ष के वास्तविक साधन ज्ञान, दर्शन और चारित्र ही है। इसलिए निश्चय में दोनों महापुरुषों की प्रतिज्ञा एक ही है, इसमें कोई मतभेद नहीं है। व्यावहारिक दृष्टि से बाह्यवेश में उपरोक्त कारणों से भेद है। (ग) अंतरंग शत्रुओं के सम्बन्ध में : साहु गोयम ! पण्णा ते, छिण्णो मे संसओ इमो। अण्णोऽवि संसओ मज्झ, तं मे कहसु गोयमा ॥३४॥ अणेगाणं सहस्साणं, मज्झे चिट्ठसि गोयमा !। ते य ते अहिगच्छति, कहं ते णि जिया तुमे ? ॥३५॥ एगे जिए जिया पंच, पंच जिए जिया दस। दसहा उ जिणत्ताणं. सव्व-सत्तू जिणामहं ॥३६॥ -उत्त० अ २३/गा ३४ से ३६ हे गौतम ! आपको बुद्धि श्रेष्ठ है। आपने मेरा यह संशय दूर कर दिया है। मेरा और भी संशय है। इसलिए हे गौतम ! उसके विषय में भी मुझे कहिये अर्थात् मेरा जो तीसरा संशय है उसे भी दूर कीजिये । तीसरा प्रश्न-हे गौतम ! आप अनेक हजारों शत्रुओं के बीच में खड़े हो और वे शत्रु आप पर आक्रमण कर रहे हैं। आपने उन सब शत्रुओं को कैसे जीत लिया है ? एक के जीतने पर पाँच जीते गये और पाँचों को जोतने पर दस जीते गये और दसों शत्रुओं को जीतकर मैंने सभी शत्रुओं को जीत लिया है अर्थात् वश में न किया हुआ आत्मा ही शत्रु है। उस एक शत्रु को जीत लेने पर पाँच (चार कषाय और एक आत्मा) शत्रु जीत लिये जाते हैं और पाँच को जीत लेने पर दस (पाँच इन्द्रियाँ, चार कषाय और एक आत्मा) शत्रु जोत लिये जाते हैं। इनको जीत लेने पर नोकषाय आदि समस्त शत्रु जीत लिये जाते हैं । सत्तू य इइ के वुत्ते ? केसी गोयम मब्बवी। तओ केसि बुवंतं तु, गोयमो इणमब्बवी ॥३७॥ एगप्पा अजिए सत्तू , कसाया इंदियाणि य। ते जिणित्तु जहाणायं, विहर मि अहं मुणि ॥३८॥ -उत्त० अ २३/गा ३७, ३८ । उपरोक्त विषय को स्पष्ट करने के लिए केशीकुमार श्रमण गौतम स्वामी से इस प्रकार पूछने लगे कि वे शत्र कौन-से कहे गये हैं ? इस प्रकार उक्त प्रकार से प्रश्न करते हुए केशीकुमार श्रमण को गौतम स्वामी इस प्रकार कहने लगे। ___ गौतम स्वामी कहते हैं कि हे मुने! वश में न किया हुआ एक आत्मा ही शत्रु है, कषाय और इन्द्रियाँ भी शत्रु है। उनको न्यायपूर्वक जीतकर मैं विचरता हूँ। Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमानजीवन-कोश २१७ (६) प.स (राग-द्वेषादि) के सम्बन्ध में : साहु गोयम ! पण्णा ते, छिण्णो मे संसओ इमो। अण्णोऽवि संसओ मज्झं, तं मे कहसु गोयमा ॥३६॥ दीसंति बहवे लोए, पासबद्धा सरीरिणो। मुक्क-पासो लहुब्भूओ, कहं तं विहरसि मुणी ॥४०॥ ते पासे सव्वसो छित्ता, णिहंतूण उवायओ। मुक्कपासो लहुब्भूओ, विहरामि अहं मुणी ॥४१॥ पासा य इइ के वुत्ता ? केसी गोयममब्बवी। केसिमेवं बुवंतं तु, गोयमो इणमब्बवी ॥४२॥ रागद्दोसादओ तिव्वा, णेहपासा भयंकरा। ते छिंदित्तु जहाणायं, विहरामि जहक्कम ॥४३॥ -उत्त० अ २३/गा ३६ से ४३ हे गौतम ! आपकी बुद्धि श्रेष्ठ है। आपने मेरा यह संशय दूर कर दिया है। मेरा और भी संशय है। इसलिए हे गौतम ! उसके विषय में भी मुझे कहिये अर्थात् मेरा जो चौथा संशय है उसे भी दूर कीजिये। चौथा प्रश्न-केशीकुमार श्रमण पूछते हैं कि लोक में बहुत से प्राणी पाश में बंधे हुए दिखाई देते हैं किन्तु हे मुने ! आप बंधन से मुक्त होकर तथा वायु के समान लभूत होकर (हलके होकर) कैसे विचरते हैं ? गौतम स्वामी कहते हैं कि हे मुने! उपाय द्वारा उन बंधनों को सर्वथा प्रकार से काटकर एवं उनका सर्वथा नाश करके मैं बंधनरहित होकर तथा अप्रतिबद्धविहारी होने से वायु के समान लघुभूत होकर विचरता हूँ। उपरोक्त विषय को स्पष्ट करने के लिए केशीकुमार श्रमण गौतम स्वामी से इस प्रकार पूछने लगे कि वे पाश कौन-से कहे गये हैं। इस प्रकार प्रश्न करते हुए केशीकुमार श्रमण को गौतम स्वामी इस प्रकार कहने लगे गौतम स्वामी कहते हैं कि रागद्वषादि तथा मोह और तीव्र धन-धान्य-पुत्र कलत्र आदि के स्नेह रूपी पाश बड़े भयंकर है उनका यथान्याय छेदन करके मैं यथाक्रम अर्थात शांतिपूर्वक बिचरता हूँ। (च) लता के सम्बन्ध में : साहु गोयम ! पण्णा ते, छिण्णो मे संसओ इमो। अण्णोऽवि संसओ मज्झं, तं मे कहसु गोयमा ॥४४॥ अंतो - हिययसंभूया, लया चिट्ठइ गोयमा। फलेइ विसभक्खीणि, सा उ उद्धरिया कहं ॥४॥ तं लयं सव्वसो छित्ता, उद्धरित्ता समूलियं। विहरामि जहाणायं, मुक्को मि विसभक्खणं ॥४६॥ लया य इइ का वुत्ता ? केसी गोयममब्बवी। केसिमेवं बुवंतं तु, गोयमो इणमब्बवी ॥४॥ भवतण्हा लया वुत्ता, भीमा भीमफलोदया। तमुद्धित्तु जहाणायं, विहरामि महामुणी ॥४॥ उत्त० अ २३/गा ४४ से ४८ हे गौतम ! आपकी बुद्धि श्रेष्ठ है। आपने मेरा यह संशय दूर कर दिया है। मेरा और भी संशय है इसलिए हे गौतम ! उसके विषय में भी मुझे कहिये अर्थात् मेरा जो पांचवां संशय है उसे भी दूर कीजिये । पाँचवाँ प्रश्न-हे गौतम ! हृदय के अन्दर उत्पन्न हुई एक लता है। वह लता विष के समान जहरीले फल देती है, उस लता को आपने किस प्रकार उखाड़कर समूल नष्ट कर दिया है। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ वर्धमान जीवन-कोश गौतम स्वामी कहने लगे कि मैंने उस लता को सर्वथा काटकर मूल सहित उखाड़कर फेंक दिया है इसी कारण उसके विष समान फल खाने से मैं मुक्त हूँ। अतः मैं जिनेश्वर देव के न्याययुक्त मार्ग में शांतिपूर्वक विचरता हूँ। केशीकुमार श्रमण गौतम स्वामी से इस प्रकार पूछने लगे कि वह लता कौन-सी कही गयी। उपरोक्त प्रकार से प्रश्न करते हुए केशीकुमार श्रमण को गौतम स्वामी इस प्रकार कहने लगे हे महामुने ! संसार में तृणारूपी लता कही गयी है। वह अत्यन्त भयंकर है तथा भयंकर फल देनेवाली. है, उसको यथान्याय (जिन शासन की रीति के अनुसार) उच्छेदन कर के सुखपूर्वक विचरता है । (छ) अग्नि ( क्रोध-मान-माया-लोभ) के सम्बन्ध में : साहु गोयम ! पण्णा ते, छिण्णो मे संसओ इमो। अण्णोऽवि संसओ मज्झं, तं मे कहसु गोयमा !!४६।। संपज्जलिया घोरा, अग्गी चिट्टइ गोयमा !। जे डहंति मरीरत्था, कहं विज्झाविया तुमे ? ||५|| महामेहप्पसूयाओ, गिज्झ वारि जमुत्तमं । मिंचामि सययं ते उ, सित्ता णो व डहंति में ॥५१॥ अग्गी य इइ के वुत्ता ? केसो गोयममब्बवी। कसिमेवं बुवंतं तु, गोयमो इणमब्बवी ॥५२॥ कसाया अग्गिणो वुत्ता, सुय-सील-तवो जलं। सुयधाराभिहया संता, भिण्णा हु ण डहं ति मे ॥५३।। उत्त० अ २३/गा ४६ से ५३ हे गौतम ! आपकी बुद्धि श्रेष्ठ है। आपने मेरा यह संशय दूर कर दिया है। मेरा और भी संशय है, इसलिए हे गौतम ! उसके विषय में भी मुझे कहिये अर्थात् मेरा छट्ठा संशय है उसे भी दूर कीजिये । छट्ठा प्रश्न-हे गौतम ! भयंकर जलती हुई एक अग्नि है, जो शरीर में रहकर आत्मगुणों को जलाती है । आपने किस प्रकार उसे बुझाया है ? गौतम स्वामी कहते हैं कि महामेघ से उत्पन्न हुए उत्तम जल को ग्रहण करके में शरीर में रही हई उस अग्नि को निरंतर बुझाता रहता हूँ। इस प्रकार बुझाई हुई वह अग्नि मुझे अर्थात् मेरे आत्मगुणों को जलाती नहीं है। केशीकुमार श्रमण गौतम स्वामी से इस प्रकार पूछने लगे कि, वह अग्नि कौन-सी कही गयी है और महामेघ और जल कौन-सा कहा गया है ? उपरोक्त प्रकार से प्रश्न करते हुए केशीकुमार श्रमण से गौतम स्वामी इस प्रकार कहने लगे क्रोध-मान-माया-लोभ-ये कषाय रूप अग्नि कही गयी है और श्रुत-शील तप रूप जल कहा गया है। उस श्रुत रूप जल से सिचित की जाने पर नष्ट हुई वह अग्नि मुझे नहीं जलाती है। नोट-श्री तीर्थंकर देव, महामेघ के समान है। जिस प्रकार मेघ से जल उत्पन्न होता है, उसी प्रकार तीर्थकर भगवान् के मुखारविन्द से श्रुत-आगम उत्पन्न होता है। उसमें वर्णित श्रुतज्ञान, शील और तप रूप जल है। उस श्रुत... शील और तप रूप जल के छिड़कने से कषाय रूपी अग्नि शांत हो जाती है, फिर वह आत्मगुणों को नहीं जला सकती। Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ वर्धमान जीवन-कोश : (ज) (मनरूपी) दुष्ट अश्व के विषय में : साहु गोयम ! पण्णा ते, छिण्णो मे संसओ इमो। अण्णोऽवि संसओ मज्झं, तं मे कहसु गोयमा ॥५४॥ अयं साहस्सिओ भीमो. दुट्ठस्सो परिधावई। जंसि गोयम ! आरूढो, कहं तेण ण हीरसि ? ॥५५।। पहावंतं णिगिण्हामि, सुयरस्सीसमा हियं। ण मे गच्छइ उम्मग्गं, मग्गं च पडिवज्जई ॥५६॥ आसे य इइ के वुत्ते ? कसी गोयममव्ववी। कसिमेवं बुवंतं तु, गोयमो इणमब्बवी !!५७|| मनो माहम्सिओ भीमो, दुट्टस्सो परिधावई। तं सम्म णिगिण्हामि, धम्मसिक्वाइ कंथगं !!५८।। उत्त० अ०३/गा ५४ से ५८ हे गौतम ! आपकी बुद्धि श्रेष्ठ है। आपने मेरा यह संशय दूर कर दिया है। मेरा और भी संशय है। इसलिए हे गौतम ! उसके विषय में भी मुझे कहिये अर्थात् मेरा जो सातवाँ संशय है उसे भी दूर कीजिये । सातवाँ प्रश्न-हे गौतम ! यह साहसिक और भयानक दुष्ट घोड़ा चारों ओर भागता-फिरता है। उस पर चढ़े हुए आप उस घोड़े द्वारा उन्मार्ग में क्यों नहीं लिए जाते हो-अर्थात् वह दुष्ट घोड़ा आपको उन्मार्ग में क्यों नहीं ले जाता है ? गौतम स्वामी कहते हैं कि हे मुने ! उन्मार्ग की ओर जाते हुए उस दुष्ट घोड़े को श्रुतरूपी लगाम से बांधकर मैं वश कर लेता हूं। इससे वह मुझे उन्मार्ग में नहीं ले जाता है, किंतु सन्मार्ग में ही प्रवृत्ति करता है । केशीकुमार श्रमण गौतम स्वामी से इस प्रकार पूछने लगे कि वह घोड़ा कौन-सा कहा गया ? इस प्रकार प्रश्न करते हुए केशीकुमार श्रमण से गौतम स्वामी इस प्रकार कहने लगे मनरूपी साहसिक और भयानक दुष्ट घोड़ा चारों ओर भागता रहता है। जिस प्रकार जातिवान घोड़ा शिक्षा द्वारा सुधर जाता है। उसी प्रकार मनरूपी घोड़े को सम्यग् प्रकार से धर्म की शिक्षा द्वारा मैं वश में रखता हूँ। (झ) सन्मार्ग-कुमार्ग के सम्बन्ध में : साहु गोयम ! पण्णा ते, छिण्णो मे संसओ इमो। अण्णोऽवि संसओ मज्झं, तं मे कहसु, गोयमा ॥५8 ।। कुप्पहा बहवो लोए, जेहिं णासंति जंतवो! अद्भ.णे कहं वर्सेतो, तं ण णाससि गोयमा ? ॥६॥ जे य मग्गेण गच्छति, जे य उम्मग्ग-पट्ठिया। ते सव्ये वेइया मज्झं, तो ण णस्सामहं मुणी ॥६॥ मग्गे य इइ के वुत्ते, कंसी गोयममब्बवी। केसिमेवं बुवंतं तु, गोयमो इणमब्बवी ॥६२।। कुप्पवयण - पासंडी, सव्वे उम्मग्ग-पट्ठिया। सम्मग्गं तु जिणवायं, एस मग्गे हि उत्तमे ॥३॥ उत्त० अ २३/गा ५६ से १३ हे गौतम ! आपकी बुद्धि श्रेष्ठ है। आपने मेरा यह संशय दूर कर दिया है। मेरा और भी संशय है, इमलिए हे गौतम ! उसके विषय में भी मुझे कहिये अर्थात् मेरा जो आठवां संशय है, उसे भी दूर कीजिये । लोक में बहुत से कुमार्ग हैं, जिससे प्राणी सुमार्ग से भ्रष्ट हो जाते हैं। हे गौतम ! सुमार्ग में रहे हुए आप कैसे सुमार्ग से भष्ट नहीं होते हो ? Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० वधमान जीवन-कोश गौतम स्वामी कहते हैं कि जो सुमार्ग से जाते हैं और जो उन्मार्ग में प्रवृत्ति करते हैं-उन सबको मैंने जान लिया है, इसलिए हे मुने ! मैं सुमार्ग से भ्रष्ट नहीं होता। ___ केशीकुमार श्रमण गौतम स्वामी से इस प्रकार पूछने लगे कि वह सुमार्ग और कुमार्ग कौन-सा कहा गया है । इस प्रकार प्रश्न करते हुए केशीकुमार श्रमण से गौतम स्वामी इस प्रकार कहने लगे - जो कुप्रवचन को माननेवाले पाखण्डी लोग हैं, वे सभी उन्मार्ग में प्रवृत्ति करनेवाले हैं। जिनेन्द्र भगवान् द्वारा प्ररूपित मार्ग ही सन्मार्ग है. इसलिए यह मार्ग ही उत्तम मार्ग है। (अ) धर्म रूप द्वीप के सम्बन्ध में : साहु गोयम ! पण्णा ते, छिण्णो मे संसओ इमो। अण्णोऽवि संसओ मज्झं, तं मे कहसु गोयमा ॥६॥ महा - उदगवेगेण, वुज्झमाणाण पाणिणं। सरणं गई पइट्ठा य, दीवं के मण्णसि मुणी ॥६५॥ अत्थि एगो महादीवो, वारिमज्झे महालओ। महाउदगवेगस्स, गई तत्थ ण विजई ॥६६।। दीवे य इइ के वुत्ते ? केसी गोयममब्बवी। केसिमेवं बुवंतं तु, गोयमो इणमब्बवी ॥६॥ जरामरणवेगेणं, बुज्झमाणाण पाणिणं । धम्मो दीवो पइट्ठा य, गई सरणमुत्तमं ॥६८! उत्त० अ २३/गा ६४ से ६८ हे गौतम ! अपकी बुद्धिश्रेष्ठ है । आपने मेरा यह संशय दूर कर दिया है। मेरा और भी संशय है, इसलिये हे गौतत ! उसके विषय में भी मुझे कहिए अर्थात् मेरा जो नववां संशय है-उसे भी दूर कीजिये। नववा प्रश्न-केशीकुमार श्रमण पूछते हैं कि हे मुने पानी के महान प्रवाह द्वारा बहाये जाते हुए प्राणियों के लिए शरणरूप तथा गतिरूप और प्रतिष्ठा रूप अर्थात् दुःख से पीड़ित प्राणी जिसका आश्रय लेकर सूखपूर्वक रह सके ऐसा द्वीप आप किसे मानते हैं । (समुद्र ) पानी के मध्य में बहुत ऊचा एवं विस्तृत एक महाद्वीप है उस पर पानी के महान् प्रवाह की गति नहीं है अर्थात् उस महाद्वीप में जल का प्रवेश नहीं हो सकता। केशी कुमार श्रमण गौतम स्वामी से इस प्रकार पूछने लगे कि वह द्वीप कौन सा कहा गया है। उपरोक्त 'प्रकार से प्रश्न करते हुए केशी कुमार श्रमण से गौतम स्वामी इस प्रकार कहने लगे। ____ जरा और मरण के वेग से प्रवाहित होते हुए प्राणियों के लिए धर्मरूपी द्वीप है, वह गति रूप है और उत्तम शरण रूप है तथा प्रतिष्ठा रुप है अर्थात धर्म ही एक ऐसा द्वीप है जिसका आश्रय लेकर प्राणी संसार रूपी समुद्र से पार हो सकते हैं। (ट) नौका के सम्बन्ध में : साह गोयम ! पण्णा ते, छिण्णो मे संसओ इमो। अण्णोऽवि संसओ मज्झं, तं मे कहसु गोयमा ॥६६॥ अण्णवंसि महोहंसि. णावा विपरिधावई। जंसि गोयम आरूढो कहं पारं गमिस्ससि ? ॥७०॥ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन - कोश २२१ असाविणी गावा, णं सा पारस्स गामिणी । जा णिरस्साविणी णावा, सा उ पारस्स गामिणी ॥ ७१ ॥ जावा य इइ का वृत्ता ? केसी गोयममब्बवी । केसिमेवं बुवंतं तु, गोयमो इणमब्बवी ॥ ७२ ॥ सरीरमाहु णावत्ति, जीवो वुच्चइ णाविओ । संसारो अण्णवो वृत्तो, जं तरंति महेसिणो ||७३ || - उत्त० अ २३ /गा ६६ से ७३ हे गौतम! आपको बुद्धि श्रेष्ठ है । आपने मेरा यह संशय दूर कर दिया है । मेरा और भी संशय है, इसलिए हे गौतम! उसके विषय में भी मुझे कहिये अर्थात् मेरा जो दसवाँ संशय है-उसे भी दूर कीजिये । दसवाँ प्रश्न --- महाप्रवाह वाले समुद्र में एक नौका विपरीत दिशा में जा रही है । हे गौतम ! उस पर चढ़े हुए आप कैसे पार हो जाओगे ? गौतम स्वामी कहते हैं कि - "जो नौका छिद्रोंवाली होती है-वह कभी पार ले जानेवाली नहीं होती, अपितु वह स्वयं समुद्र में डूब जाती है और उस में बैठे हुए मनुष्यों को भी डूबा देती है किन्तु जो नौका छिद्रों रहित है वह अवश्य ही पार ले जानेवाली होती है ।" केशीकुमार श्रमण गौतम स्वामी से इस प्रकार पूछने लगे कि - 'वह नौका कौन-सी कही गयी है।' उपरोक्त प्रकार से प्रश्न करते हुए केशीकुमार श्रमण से गौतम स्वामी इस प्रकार कहने लगे 'तोर्थंकर देव ने इस शरीर को नौका कही है और जीव नाविक (नौका) को चलानेवाला कहा जाता है तथा संसार, समुद्र कहा गया है, जिसे महर्षि लोग तिरकर पार हो जाते हैं। ' (ठ) सच्चे सूर्य के सम्बन्ध में : साहु गोयम ! पण्णा ते, छिण्णो मे संसओ इमो । अण्णोऽवि संसओ मज्झं, तं मे कहसु गोयमा ! ||७४ || अंधयारे तमे घोरे, चिट्ठति पणिणो बहू । को करिस्सइ उज्जोयं, सव्वलोयम्मि पाणिणं ॥ ७५ ॥ उगओ विमलो भाणू, सव्वलोय-पभंकरो । सो करिस्सइ उज्जोयं, सव्वलोयम्मि पाणिणं ॥ ७६ ॥ भाणू य इइ के कुत्ते, केसी गोयममब्बवी । केसिमेवं बुवंतं तु, गोयमो इणमब्बवी ||७७|| उग्गओ खीणसंसारो, सव्वण्णू जिणभक्खरो । सो करिस्सइ उज्जोयं सव्वलोगम्मि पाणिणं ॥ ७८ ॥ उत्त० अ २३/गा ७४ से ७८ मेरा और भी संशय है, हे गौतम! आपकी बुद्धि श्रेष्ठ है । आपने मेरा यह संशय दूर कर दिया है। इसलिए हे गौतम! उसके विषय में भी मुझे कहिये अर्थात् मेरा जो ग्यारहवाँ संशय है—उसे भी दूर कीजिये । में ग्यारहवाँ प्रश्न --जहाँ आँखों की प्रवृत्ति रूक जाने से पुरुष अंधे के समान बन जाता है, ऐसे घोर अंधकार से प्राणी रहते हैं । उन प्राणियों के लिए सम्पूर्ण लोक में कौन उद्योत करेगा । बहुत वह गौतम स्वामी कहते हैं कि- 'सम्पूर्ण लोक में प्रकाश करनेवाला एक निर्मल सूर्य उदय हुआ है । प्राणियों के लिए सारे संसार में उद्योत करेगा ।' Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ いいじ */t वर्धमान जीवन - कोश इस प्रकार पूछने लगे कि वह सूर्य कौन-सा कहा गया है । 18 ककुमार श्रमण गौतम स्वामी से 'प्रकार से प्रश्न करते हुए केशीकुमार श्रमण से गौतम स्वामी इस प्रकार कहने लगे क्षीण हो गया है संसार जिसका अर्थात् संसार के मूलभूत कर्मों का क्षय कर देनेवाला सर्वज्ञ, जिनेन्द्र भगवान् रूपी सूर्य उदय हुआ है । वह प्राणियों के लिए सम्पूर्ण लोक में प्रकाश करेगा ।' (ड) क्षेमरूप, शिवरूप- बाधापीड़ा रहित स्थान के सम्बन्ध में : साहु गोयम ! पण्णा ते, छिण्णो मे संसओ इमो । सारी माणसे दुक्खे, बज्झमाणाण पाणिणं । अस्थि एवं धुवं ठाणं, लोगग्गम्मि दुरारुहं । ठणे य इइ के कुत्ते ? केसी गोयममब्बवी । विणं ति अबाहं ति, सिद्धि लोगग्गमेव य । तं ठाणं सासयं वास, लोगग्गम्मि दुरारुहं । अण्णोऽवि संसओ मज्झ, तं मे कहसु गोयमा ! ||७|| खेमं सिव-मणाबाह, ठाणं किं मण्णसी मुणी ॥८०॥ जत्थ णत्थि जरामच्चू, बाहिणो वेयणा तहा ॥८१॥ केसिमेवं बुवंतं तु, गोयमो इणमब्बवी ॥८२॥ खेमं सिवं अणाबाहं, जं चरंति महेसिणो ॥ ८३ ॥ जं संपत्ता ण सोयंति, भवोंतकरा मुणी ॥८४॥ उत्त० अ २३ / गा ७६ ४ हे गौतम! आपकी बुद्धि श्रेष्ठ है । आपने मेरा यह संशय दूर कर दिया है। मेरा और भी संशय है, इसलिए हे गौतम! उसके विषय में भी मुझे कहिये अर्थात् मेरा जो बारहवाँ संशय है-उसे भी दूर कीजिये । बने बारहवाँ प्रश्न - हे मुने! शारीरिक और मानसिक दुःखों से पीड़ित होते हुए अथवा आकुल-व्याकुल प्राणियों के लिए क्षेम रूप, शिवरून और बाधा - पीड़ा रहित स्थान आप कौन-सा मानते हैं ? हुए गौतम स्वामी कहते हैं कि - "लोक के अग्रभाग पर एक ध्रुव स्थान है । वेदना नहीं है किन्तु वह स्थान दुरारूह है अर्थात् उस स्थान तक पहुँचना बड़ा कठिन है ।" उपरोक्त केशीकुमार श्रमण गौतम स्वामी से इस प्रकार पूछने लगे कि, "वह स्थान कौन-सा कहा गया है ?" उपरोक्त प्रकार से प्रश्न करते हुए केशीकुमार श्रमण से गौतम स्वामी इस प्रकार कहने लगे वह स्थान शाश्वत है, लोक के अग्रभाग पर कठिन है, उरकादि भवों की परम्परा का अन्त करनेवाले शोक नहीं करते अर्थात् वहाँ पहुँचने के बाद शोक, क्लेश, संसार में नहीं आना पड़ता "हे मुने ! वह स्थान निर्वाण, अत्र्याबाध, सिद्धि, क्षेम, शिव और अनाबाध इत्यादि नामों से कहा जाता है और वह स्थान लोकाग्र पर स्थित है, उस स्थान को महर्षि लोग प्राप्त करते हैं। " साहु गोय! पण ते, छिण्णो मे संसओ इमो । एवं तु संसए छिष्णे, घोरपरक्कमे । केसी जहाँ बुढ़ापा, मृत्यु, व्याधि तथा . ३ गौतम स्वामी से केशी स्वामी ने चार महाव्रत से पंच महाव्रत ग्रहण किये । स्थित है । वह दुरूह है अर्थात् वहाँ पर पहुँचना अत्यन्त मुनि उस स्थान को प्राप्त करते हैं और वहाँ पर पहुँचने पर जन्म, जरा आदि दुःख कभी भी नहीं होते - फिर कभी णमो ते संसयातीत ! सव्वमुत्तमहोयही ॥८५॥ अभिवंदित्ता सिरसा, गोयमं तु महायसं ॥ ८६ ॥ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२३ वर्धमान जीवन-कोश पंच महव्वयधम्म पडिवज्जइ भावओ। पुरिमस्स पच्छिमम्मि, मग्गे तत्थ सुहावहे ॥८॥ केसीगोयमओ णिचं, तम्मि आसि समागमे। सुय-सील-समुक्कसो, महत्थत्थ विणिच्छओ ||८|| सोसिया परिसा सव्वा, सम्मग्गं समुवट्ठिया। संथुया ते पसीयंतु, भयवं केसिगोयमे । त्तिबेमि || उत्त० अ २३/गा ८५ से यह हे गौतम ! आपकी बुद्धि श्रेष्ठ है। आपने मेरे इन संशयों को दूर कर दिया है। हे संशयातीत ! हे सर्व सूत्र महोदधि ! अर्थात् सर्वंशास्त्रों के ज्ञाता आपको नमस्कार करता हूँ। इस प्रकार संशय दूर हो जाने पर घोर पराक्रम वाले केशीकुमार श्रमण ने महायशस्वी गौतम स्वामी को मक से वन्दना करके ( हाथ जोड़कर तथा सिर झुकाकर ) वहीं तिन्दुक वन में पांच महाव्रत रूप धर्म को भावपूर्वक अंगीकार किया और वे उस रुखकारी मार्ग में विचरने लगे जो, प्रथम और अंतिम तीर्थंकर देवों के साधुओं के लिए प्ररूपित किया गया है। उस तिन्दुक उद्यान में केशीकुमार श्रमण और गौतम स्वामी का जो नित्य, समागम हुआ, उससे श्रुत और चारित्र की वृद्धि करनेवाले, महाम् पदार्थों का निर्णय हुआ। नोट--श्री केशीकुमार श्रमण और उनके शिष्य तथा श्री गौतम स्वामी और उनके शिष्य जबतक श्रावस्ती नगरी रहे, तबतक नित्य प्रति उनका समागम होता रहा। देव, असुर और मनुष्यों से युक्त वह सारी सभा अत्यन्त संतुष्ट हुई और सभी सन्मार्ग में प्रवृत्त हुए तथा वे सभी स्तुति करने लगे कि भगवान् केशीकुमार और गौतम स्वामी सदा प्रसन्न रहें एवं जयवंत रहें। .४ श्रमण भगवान महावीर की समकालीन अवस्था में गौतम स्वामी का भिक्षार्थ जाना : (क) तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे जाव सिरीवणे विहरइ। तेणं कालेणं तेणं समएवं समणस्स भगवओ महावीरस्स जे? अंतेवासी इंदभूई अणगारे जहा पण्णत्तीए जाव पोलासपुरे णयरे उच्चणीय जाव अडइ । - अंत० व ६/अ १५ उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर ग्रामानुग्राम विचरते हुए श्रीवन उद्यान में पधारे। उस समय भगवान के ज्येष्ठ अंतेवासी इन्द्रभूति भगवान् को पूछकर पोलासपुर नगर में ऊँच, नीच, मध्यम कुलों में गृह सामुदानिक भिक्षार्थ भ्रमण करने लगे। .५ गौतम गणधर और आणंद श्रावक : .१ वाणिज्य ग्राम में भिक्षार्थ आज्ञा मानना-भिक्षार्थ जाना : . (क) तए ण भगवं गोयमे छट्टक बमणपारणगंसि पढमाए पोरिसिए सज्झायं करेइ, बिइयाए पोरिसीए झागं झियाइ, तइयाए पोरिसीए अतुरियं अचवलं असम्भन्ते मुहपोत्तियं पडिलेहेइ, पडिलेहेत्ता, Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ वर्धमान जीवन-कोश भायणं-वत्थाई पडिलेहेइ, पडिलेहेत्ता भायणाई वत्थाई पमज्जइ, पमज्जित्ता भायणाई उग्गाहेइ, उग्गाहेत्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ, नमसइ, वंदित्ता, नमंसित्ता एवं वयासी–“इच्छामि णं भांते ! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए [समाणे] छट्टक्खमणपारणगंसि वाणियगामे नयरे उच्चनीय मज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडितए।” “अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबन्धंकरेह” ॥ -उवा० अ १/सू ७० तदनन्तर भगवान् गौतम ने षष्ठक्षपणा के अर्थात् बेला उपवास के पारणे के दिन प्रथम पौरुषी में स्वाध्याय किया, दूसरी पौरुषी में ध्यान किया, तीसरी पौरुषी में शीघ्रता रहित चपलता रहित असंभ्रांत होकर मुखवस्त्रिका को प्रतिलेखना की, प्रतिलेखना करके पात्र और वस्त्रों की प्रतिलेखना की। प्रतिलेखना करके पात्र-वस्त्रों का प्रमार्जन किया। प्रमार्जन करके पात्रों को उठाया। उठाकर जहाँ श्रमण भगवान् महावीर थे-वहाँ आये। आकर श्रमण भगवान् महावीर को वंदना-नमस्कार किया। वंदना-नमस्कार करके इस प्रकार कहा-"भगवन् ! आपकी अनुमति प्राप्त होने पर बेला पारणा के लिए वाणिज्यग्राम नगर में उच्च-नीच और मध्यम वुलों में गृह-समुदानी-सामूहिक घरों में भिक्षाचर्या के लिए पर्यटन करना चाहता हूँ।" भगवान् ने उत्तर दिया- "हे देवानुप्रिय ! जैसे तुमको सुख होविलम्ब न करो।" (ख) तए णं भगवं गोयमे समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भणुण्णाए समाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ दूइपलासाओ चेइयाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता अतुरियमचवलमसंभंते जुगंतर पडिलोयणाए दिट्ठीए पुरओ रियं सोहेमाणे-सोहमाणे जेणेव वाणियगामे नयरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता वाणियगामे नयरे उच्चनीयमज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडइ।। उवा० अ १/सू ७१ तदन्तर भगवान् गौतम श्रमण भगवान् महावीर से अनुमति मिल जाने पर श्रमण भगवान् महावीर के पास से दूतिपलाश चैत्य से निकले। निकलकर बिना शीघ्रता किये चपलता रहित-असंभ्रांत होकर अर्थात् युगपरिमाण अवलोकन करनेवाली दृष्टि से आगे की ओर ईर्या का शोषन करते हुए-जहाँ वाणिज्यग्राम नगर था, वहाँ पहुँचे । पहुँचकर वाणिज्यग्राम नगर में उत्तम, मध्यम, नीच कुलों में गृह समुदानी भिक्षाचर्या के लिए भ्रमण करने लगे। २ गौतम द्वारा आनंद की चर्चा-विषयक समाचार का श्रवण : तए णं से भगवं गोयमे वाणियगामे नयरे, जहा पण्णत्तीए तहा जाव भिक्खायरियाए अडमाणे अहापज्जत्तं भत्तपाणं पडिग्गाहेइ, पडिग्गाहेत्ता वाणियगामाओ नयराओ पडिणिग्गच्छइ, पडिणिग्गच्छित्ता कोल्लायस्स सन्निवेसस्स अदूरसामंतेणं वीइवयमाणे, बहुजणसई निसामेइ, बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ ४-“एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी आणंदे नामं समणोवासए पोसहसालाए अपच्छिम जाव अणवकखमाणे विहरइ । --उवा० अ १/सू ७२ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश २२५ तदनन्तर उस भगवान् गौतम ने वाणिज्यग्राम नगर में भिक्षाचर्या के लिए भ्रमण करते हुए यथापर्याप्त भत्तपान सम्यग् रूप से ग्रहण किया, ग्रहण करके वाणिज्यग्राम नगर से निकले। निकलकर के जब वे कोल्लाक सन्निवेश के पास से जा रहे थे तो बहुत से मनुष्यों को यह कहते हुए सुना, बहुत मनुष्य परस्पर इस प्रकार कह रहे थे-'हे देवानुप्रियो । इस प्रकार श्रमण भगवान् महावीर का शिष्य आनन्द नामक श्रावक पौषधशाला में अपश्चिम मारणांतिक संलेखना किये हुए यावत् मृत्यु की आकांक्षा न करते हुए विचर रहा है।' .३ गौतम का आनन्द के पास पहुँचना : ___ तए णं तस्स गोयमस्स बहुजणस्स अंतिए एयम सोच्चा निसम्म अयमेयारूवे अज्झत्थिय ४-"तं गच्छामि णं आणंदं समणोवासयं पासामि ।” एवं संपेहेइ, संपेहित्ता नेणेव कोल्लाए सन्निवेसे जेणेव आणंदे समणोवासए. जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ। -उवा० अ १/सू ७३ अनेक मनुष्यों से यह बात सुनकर गौतम स्वामी के यह विचार आया कि मैं इधर का उधर ही जाऊँ और आनंद श्रमणोपासक को देखू । यह विचारकर वे कोल्लाक सन्निवेश में स्थित पौषधशाला में बैठे हुए आनंद श्रावक के पास आये। .४ आनंद ने गौतम स्वामी को अपने पास आने का निवेदन किया : तए णं से आणंदे समणोवासए भगवं गोयमं एज्जमाणं पासइ, पासित्ता हट्ट जाव हियए भगवं गोयमं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-“एवं खलु भंते ! अहं इमेणं ओरालेणं जाव धम्मणिसंतए जाए, नो संचाएमि देवाणुप्पियस्स अंतियं पाउब्भवित्ता णं तिक्खुत्तो मुद्धाणेणं पाए अभिवंदित्तए, तुब्भेणंभंते ! इच्छाकांरेणं अणभिओगेणं इओ चेव एह जा णं देवाणुप्पियाणं तिक्खुत्तो मुद्धाणेणं पाएसु वंदामि नमसामि । -उवा० अ १/सू ७४ तदनन्तर उस आनन्द समणोपासक ने भगवान् गौतम को आते हुए देखा, देखकर हृष्ट, तुष्ट यावत् प्रसन्न हृदय होकर भगवान् गौतम को वंदन-नमस्कार किया। वंदन नमस्कार करके इस प्रकार कहा-“हे भगवान् ! इस प्रकार में इस उदार तपस्या से यावत् धमनियों से व्याप्त हो गया हूँ, अतः देवानुप्रिय के पास में आकर तीन बार मस्तक से पैरों को वंदना करने में समर्थ नहीं हूँ।" हे भगवन् ! आप ही इच्छापूर्वक और बिना किसी दबाव के यहाँ पधारिए। जिससे मैं देवानुप्रिय को तीन बार मस्तक द्वारा चरणों में वंदना-नमस्कार करू। Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ ०५ आनन्द द्वारा अपने अवधिज्ञान की सूचना : वधमान जीवन - कोश तणं से भगवं गोयमे जेणेव आनंदे समणोवासए, तेणेव उवागच्छइ । तए णं से आनंदे समणोवासए भगवओ गोयमस्स तिक्खुत्तो मुद्धाणेणं पाएसु वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी- “अस्थि णं मंते ! गिहिणो गिहमज्झावसंतस्स ओहिनाणं समुपज्जइ” “हंता अस्थि” । जहणं भंते! गिहिणो जाव समुपज्जइ, एवं खलु भंते । ममवि गिहिणो गिहमज्झाव संतस्स ओहिना समुप्पण्णे- पुरत्थिमे णं लवणसमुद्दे पंचजोयणसयाई जाव लोलुयच्चुयं नरयं जाणामि पासामि ! - उवा० अ १ / सू ७५ तत्पश्चात् भगवान् गौतम जहाँ आनन्द श्रमणोपासक था - वहाँ आये । तदनन्तर आनन्द ने भगवान् गौतम को तीन बार मस्तक से पैरों में वंदना की, नमस्कार किया । वंदना - नमस्कार करके इस प्रकार कहा - 'भगवन् ! क्या गृहस्थ को घर में रहते हुए क्या अवधिज्ञान उत्पन्न हो सकता है ' भगवान् ने उत्तर दिया- 'हाँ, हो सकता है ।' पुनः आनन्द ने कहा - "हे भगवन् । यदि गृहस्थ को अवधिज्ञान उत्पन्न हो सकता है, तो हे भगवन्! इस प्रकार मुझ गृहस्थ को भी घर में रहते हुए को अवधिज्ञान की उत्पन्न हुआ है -- पूर्व की ओर लवण समुद्र में पाँच सौ योजन क्षेत्र को जानने और देखने लगा। इसी प्रकार दक्षिण और पश्चिम में भी पाँच सौ योजन तक जानने-देखने लगा । उत्तर की ओर क्षुल्लहेमवान् वर्षधर पर्वत को जानने-देखने लगा तथा ऊर्ध्वलोक में सौधर्मकल्प तक जानने-देखने लगा । अधोलोक में इस रत्नप्रथा पृथ्वी के चौरासी हजार वर्ष की स्थिति वाले लोलुयाच्युत नरक तक जानने-देखने लगा । .६ गौतम का संदेह और आनन्द का उत्तर : तए णं से भगवं गोयमे आनंद समणोवासयं एवं वयासी- “अस्थि णं आनंदा ! गिहिणो जाव समुप्पज्जइ । नो चेव णं एमहालए। तं णं तुमं, आनंदा ! एयरस ठाणत्स आलोएहि जाव तवोकम्मं पडिवज्जाहि । तसे आदे समणोवासए भगवं गोयमं एवं क्यासी - अस्थि भंते! जिणवयणे संतान तचाणं तहियाणं सम्भूयाणं भावाणं आलोइज्जइ जाव पडिवज्जिज्जइ ? नो इट्टे समट्ठे । - 6 'जइ णं भंते! जिणवयणे संताणं जाव भावाणं नो आलोइज्जइ जाव तवोकम्मां नो पडिवज्जिज्जइ तं णं भांते ! तुब्भे चेव एयरस ठाणस्स आलोएह जाव पडिवज्जेह ।” - उवा० अ १/सू ७७, ७८ तदनन्तर भगवान् गौतम आनन्द भ्रमणोपासक से इस प्रकार बोले- "हे आनन्द, यह ठीक है कि घर में रहते हुए गृहस्थ को अवधिज्ञान उत्पन्न हो सकता है, किन्तु इतना विशाल नहीं । इसलिए हे आनन्द, तुम मृषावाद रूप इस स्थान की आलोचना करो यावत् उसे शुद्ध करने के लिए तपस्या स्वीकार करो ।” Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश २२७ तत्पश्चात् वह आनन्द श्रमणोपासक भगवान् गौतम को इस प्रकार बोला-'हे भगवन् ! क्या जिन शासन में सत्य, तात्त्विक, तथ्य तथा सद्भूत भावों के लिए भी आलोचना की जाती है ? और यावत् तपः कर्म स्वीकार किया जाता है। गौतम ने उत्तर दिया - ऐसा नहीं है, तब आनंद ने कहा-हे भगवन् ! यदि जिन प्रवचन में सत्य आदि भावों को आलोचना नहीं होती यावत् उनके लिए तपः कर्म स्वीकार नहीं किया जाता। तो हे भगवन् ! आप ही इस स्थान के लिए आलोचना कीजिये । यावत् तपः कर्म स्वीकार कीजिये । .. गौतम का शंकित होकर भगवान के पास आगमन : तए णं से भगवं गोयमे आणंदेणं समणोवासएणं एवं वुत्ते समाणे, संकिए कंखिए विइगिच्छा समावन्ने, आणंदस्स समणोवासगस्स अंतियाओ पडिणिक वमइ, पडिणिक्खभित्ता जेणेव दूइपलासे चेइए, जेणेव समणे भगवं महावीरे, तेणेव उवागच्छइ-उवागच्छइत्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामन्ते गमणागमणाए पडिक्कमइ पडिक्कमित्ता एसणमणेसणं अलोएइ, आलोइत्ता भत्तपाणं पडिदंसइ, पडिदंसित्ता समणं 'भगवं वंदइ नमसइ, विंदत्ता णमंसित्ता एवं वयासी-“एवं खलु भंते ! अहं तुब्भेहिं अब्भगुण्णाए तं चेव सव्वं कहेइ, जाव तएणं अहं x x x संकिए ३ आणंदस्स समणोवासगस्स अंतियाओ पडिक्खमाभि, पडिणिक्खमित्ता जेणेव इहं तेणेव हव्वमागए, तं गं भंत ! किं आणंदेणं समणोवासएणं तस्स ठाणस्स आलोएयव्वं जाव पडिवज्जेयव्वं उदाहु मए ?" गोयमा इ ! समण भगवं महावीरे भगवं गोयम एवं वयासी-गोयमा ! तुमं चेवणं तस्स ठाणस्स आलोएहि जाव पडिवजाहि, आणंदं च समणोवासयं एवमट्ट खामेहि । -उवा० अ १/सू ७६ से ८१ तदनन्तर भगवान् गौतम आनंद श्रमणोपासक के द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर शंकित, कांक्षित और विचिकित्सा युक्त होकर आनन्द के पास से निकले। निकलकर जहाँ दूतिपलास चैत्य था जहाँ श्रमण भगवान् महावीर थे, वहाँ पहुँचे। पहुँचकर श्रमण भगवान् महावीर के पास में गमनागमन कर प्रतिक्रमण किया। प्रतिक्रमण करके एषणीय-अनेषणीय की आलोचना की। आलोचना करके आहार-पानी दिखलाया। दिखाकर श्रमण भगवात् महावीर को वन्दना कर नमस्कार किया। वंदना, नमस्कार करके इस प्रकार बोले-“हे भगवन् ! इस प्रकार निश्चय ही मैं आपको अनुमति मिलने पर इत्यादि सारी घटनाएं कह सुनाई, यावत् उससे मैं शंकित होकर आनन्द श्रमणोपासक के पास से निकला ।" निकलकर यहाँ आप विराजमान हैं, वहाँ शीघ्रतापूर्वक आया हूँ, तो क्या भगवन् ! उस स्थान के लिए आनन्द श्रमणोपासक को आलोचना करनी चाहिए, यावत् ग्रहण करना चाहिए अथवा मुझे, गौतम ! यह संबोधन करते हुए श्रमण भगवान् महावीर ने भगवान् गौतम को इस प्रकार कहा-“हे गौतम ! तुम ही उस स्थान की बालोचना करो, यावत् तपः कर्म स्वीकार करो और आनन्द श्रमणोपासक से इस बात के लिए क्षमा प्रार्थना करो। Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ वर्धमान जीवन-कोश .८ गौतम द्वारा क्षमा याचना : तए णं से भगवं गोयमे, समणस्स भगवओ महावीरस्स 'तह' त्ति एयमढें विणएणं पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता तस्स ठाणस्स आलोएइ-जाव पडिवज्जइ, आणंदं च समणोवासयं एयमटुंखामेइ। -उवा० अ १/सू ८२ - गौतम ने भगवान् महावीर के उक्त कथन को विनयपूर्वक स्वीकार किया और उस दोष की आलोचना की तथा प्रायश्चित के रूप में आनन्द श्रावक से क्षमा-याचना की। .६ महाशतक श्रावक और गौतम गणधर .१ गौतम का आगमन : (क) तए णं से भगवं गोयमे समणस्स भगवओ महावीरस्स 'तह' त्ति एयमट्ट विणएणंपडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता तओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता रायगिहं नयरं मझं-मज्झेणं अणुप्पविसइ, अणुप्पविसित्ता जेणेव महासतगस्स समणोवासगस्स गिहे जेणेव महासतए समणोवासए तेणेव उवागच्छइ ! --उवा० अ८/सू ४७ सदनन्तर श्री भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर को इस बात को (रेवती पत्नी द्वारा दूसरी तथा तीसरी बार ऐसा कहने पर महाशतक क्रुध हो गया। उसने अवधिज्ञान का प्रयोग करके रेवती का भविष्य देखा और उसने नरक में उत्पन्न होने की बात कही।) यही ठीक है, कहकर--विनयपूर्व स्वीकार किया, स्वीकार करके वहाँ से निकले, निकलकर राजगृह नगर के बीच में प्रवेश किया। प्रवेश करके जहाँ महाशतक श्रमणोपासक का घर था-जहाँ महाशतक श्रमणोपासक था-वहाँ आये। ... (ख) तए णं से महासतए समणोवासए भगवं गोयमं एज्जमाणं पासइ, पासित्ता हट्ट जाव हियए भगवं गोयमं वंदइ नमसइ। -उवा० अ ८/सू ४८ महाशतक भगवान् गौतम को आते देखकर प्रसन्न और संतुष्ट हुआ और उन्हें वंदन-नमस्कार किया। (ग) तए णं से भगवं गोयमे महासतयं समणोवासयं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे एवमाइक्खइ, भासइ, पण्णवेइ, परूवेइ-“नो खलु कप्पइ देवाणुप्पिया ! समणोवासगरस अपच्छिम जाव वागरित्तए। तुमे र्ण देवाणुप्पिया! रेवई गाहावइणी संतेहिं जाव वागरिआ।” तं गं तुम देवाणुप्पिया। एयरस ठाणस्स आलोएहि जाव पडिवजाहि ।” -उवा० असू ४६ तदनन्तर भगवान् गौतम महाशतक श्रमणोपासक से इस प्रकार बोले- "हे देवानुप्रिय ! इस प्रकार श्रमण भगवान् महावीर ने ऐसा कहा है, भाषण किया है, प्रतिपादन किया है, प्ररूपित किया है कि .हे देवानुप्रिय नहीं.. कल्पना श्रमणोपासक को–अंतिम संलेखनाधारी को यावत् ऐसा कहना-तुमने देवानुप्रिय ! रेवती गाथापत्नी को.. तथ्य रूप वचन कहे-अतः हे देवानुप्रिय ! तुम इस स्थान की आलोचना करो यावत् प्रायश्चित् करो । : Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश २२६ .२ महाशतक का भूल स्वीकार करना और प्रायश्चित करना : तए णं से महासतए समणोवासए भगवओ गोयमस्म तह त्ति एयम विणएणं पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता तस्स ठाणस्स आलोएइ जाव अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्मं पडिवज्जइ। -उपा० असू ५० । तदनन्तर उस महाशतक श्रमणोपासक ने भगवान् गौतम की इस बात को तथेति ( ठीक है ) कहकर विनयपूर्वक स्वीकार किया। स्वीकार करके उस बात की आलोचना को यावत् यथायोग्य प्रायश्चित अंगीकार किया। .३ गौतम का महाशतक श्रावक के घर से वापस आना : ___ तए णं से भगवं गोयमे महासतगस्स समणोवासगस्स अंतियाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता रायगिहं नयरं मझंमज्झेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे, तेणेव उवागच्छइ, उदागपिछत्ता सम भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। ५१॥ -उवा० अघ/सू ५१ महाशतक-आणंद आदि दस प्रमुख श्रावकों में एक श्रावक था। भगवान् गौतम महाशतक श्रमणोपासक के समीप से निकले-निकलकर राजगृह नगरी के बीच में से होते हुए जहाँ पर श्रमण भगवान महावीर थे -वहाँ आये -आकर श्रमण भगवान महावीर को वंदन-नमस्कार किया। वंदन-नमस्कार करके संयम-तप के द्वारा आत्मा को भावित करते हए विचरने लगे। .७ अन्यतीथियों से गौतम स्वामी का वाद-विवाद : .१ अन्यतीर्थियों द्वारा प्रश्न : तेणं कालेणं तेणं समरणं रायगिहे जाव पुढविसिलापट्टओ, तस्स णं गुणसिलस्स चेइयस्स अदूरसामंते बहवे अण्णउत्थिया परिवसंति। तए णं समणे भगवं महावीरे जाव समासढे जाव परिसा पडिगया। तणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेढे अंतेवासी इंदभुई णामं अणगारे जाव उड्ढजाणू जव विहरइ। तए णं ते अण्णउत्थिया जेणेव भगवं गोयमे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता भगवं गोयम एवं वयासी–'तुभे णं अज्जो ! तिविहं तिविहेणं अस्संजय जाव एगंतबाला यावि भवह ।' तए ण भगवं गोयमे अण्णउत्थिए एवं वयासो-'केणं कारणेणं अज्जो ! अम्हे तिविहं तिविहेणं अस्संजय जाव एगंतबाला यावि भवामो।' तए णं ते अण्णउत्थिया भगवं गोयमं एवं वयासी–'तुज्न्भे णं अनो! रोयं रीयमाणा पाणे पेच्येह, अमिहणह जाव उवद्दवेमाणा तिविहं तिविहेणं जाव एर्गतबाला यावि भवद ।' Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० वधमान जीवन-कोश तए णं भगवं गोयमे ते अण्णउत्थिए एवं वयासी-'णो खलु अज्जो! अम्हे रीयं रीयमाणा पाणे पेच्चेमो जाव उद्दवेमो, अम्हे णं अज्जो! रीयं रीयमाणा कायं च जोयं च रोयं च पडुच्च दिस्सा-दिस्सा पदिस्सा-पदिस्सा वयामो, तए णं अम्हे दिस्सा-दिस्सा वयमाणा पदिस्सा-पदिस्सा वयामो, तए णं अम्हे दिस्सा-दिस्सा वयमाणा पदिस्सा-पदिस्सा वयमाणा णो पाणे पेञ्चमो जाव णो उद्दवेमो, तए णं अम्हे पाणे अपेच्चेमाणा जाव अणोद्दवेमाणा तिविहं तिविहेणं जाव एगंतपंडिया यावि भवामो, तुब्भे णं अज्जो! अप्पणा चेव तिविहं तिविहेणं जाव एगंतबाला यावि भवह ।। --भग० श १८/3 ८/सू १६३ से १६८ उस काल उस समय में राजगृह नामक नगर यावत् पृथ्वीशिलापट्ट था। उस गुणशील उद्यान के समीप बहुत से अन्यतीथिक रहते थे। अन्यदा किसी समय श्रमण भगवान महावीर स्वामी वहाँ पधारे यावत् परिषद् वंदना कर चली गई। उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के ज्येष्ठ अंतेवासी इन्द्रभूति अनगार यावत् ऊर्ध्वजानु (दोनों घुटने ऊंचे करके) तप-संयम से आत्मा को भावित करते हुए विचरते थे। उस समय वे अन्यतीथिक गौतम स्वामी के समीप आकर कहने लगे कि, 'हे आर्यों ! तुम त्रिविध-त्रिविध (तोन करण तीन योग से ) असंयत, अविरत यावत् एकांत बाल हो। ... अन्य तीथिकों का आक्षेप सुनकर गौतम स्वामी ने कहा-'हे आर्यों! किस कारण हम त्रिविध-त्रिविध असंयत यावत् एकांत बाल हैं ?' तब अन्यतीथिकों ने कहा-'हे आर्यो ! गमन करते हुए तुम जीवों को आकांत करते हो (दबाते हो), मारते हो, यावत् उपद्रव करते हो। इसलिए प्राणियों को आकात य. पत् उपद्रव करते हुए तुम त्रिविधत्रिविध असंयत यावत् एकांत बाल हो ।' इस पर से गौतम स्वामी ने उन अन्यतीथियों से कहा-'हे आर्यों ! हम गमन करते हुए प्राणियों को आक्रांत नहीं करते, यावत् पीड़ा नहीं पहुँचाते। हम गमन करते हुए काययोग (संयमयोग) और सूक्ष्मतापूर्वक (चपलता आदि से रहित) देख देख कर चलते हैं। इस प्रकार चलते हुए हम प्राणियों को आक्रांत नहीं करते, यावत् पीड़ा नहीं पहुँचाते । इस प्रकार प्राणियों को आकांत नहीं करते हुए, यावत् पीड़ा नहीं करते हुए हम विविध विविध यावत् एकांत पंडित हैं। तुम स्वयं ही त्रिविध-त्रिविध असंयत, अविरत यावत् एकांत बाल हो ।' .२ अन्यतीर्थियों के साथ सैद्धांतिक मतभेद : तए णं अण्णउत्थिया भगवं गोयम एवं वयासी-केणं कारणेणं अज्जो! अम्हे तिविहं तिविहेणं जाव भवामो।' तए णं भगवं गोयमे ते अण्णउत्थिए एवं वयासी-'तुम्भे णं अजो! रीयं रीयमाणा पाणे पेच्चेह, जाव उद्दवेह, तए णं तुम्भे पाणे पेच्चेमाणा जाव उद्दवेमाणा तिविहं जाव एगंतवाला यावि भवह।' तए णं भगवं गोयमे ते अण्णउत्थिए एवं पडिभणइ, पडिभणित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता णञ्चासणे जाव पन्जुवासइ। -भग० श १८/उ ८/सू १६६ से १७१/पृ० ७८१ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन - कोश २३१ अन्यतीर्थियों ने गौतम स्वामी का कथन सुनकर इस प्रकार कहा- 'हे आर्यो ! हम किस प्रकार त्रिविध-त्रिविध असंयत, अविरत यावत् एकांत बाल हैं ?' तब गौतम स्वामी ने उन अन्यतीर्थियों से कहा - 'हे आर्यों! चलते हुए तुम प्राणियों को आकांत करते हो, पीड़ित करते हो । जीवों को अकांत करते हुए यात्रत् पोड़ित करते हुए तुम त्रिविधविविध असंयत, अविरत, यावत् एकांत बाल हो ।' इस प्रकार गौतम स्वामी ने उन अन्यतीर्थियों को निस्तर किया । इसके पश्चात् गौतम स्वामी श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की सेवा में आकर उन् वंदना - नमस्कार करके न अतिदूर, न अति निकट यावत् पर्युपासना करने लगे । . ३ भगवान् महावीर द्वारा गौतम स्वामी की प्रशंसा : गोमादी ! समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं वयासी - सुट् ठु णं तुमं गोयमा ! ते अण्णउत्थि एवं वयासी - साहु णं तुमं गोयमा ! ते अण्णउत्थिए एवं वयासी, अस्थि णं गोयमा । ममं बहवे अंतेवासी समणा णिग्गंथा छउमत्था, णं णोपभू एयं वागणं वागरेत्तए, जहा णं तुमं, तं सुछु णं तुमं गोयमा ! ते अण्णउत्थिए एवं वयासी, साहू णं तुमं गोयमा ! ते अण्णउत्थिए एवं वयासी । तए णं भगवं गोयमे समणेणं भगवया महावीरेणं एवं कुत्ते समाणे हट्ट तुट्ठे समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी - भग० श १८ / उ ८ / सू १७२ से हे गौतम! इस प्रकार सम्बोधित कर श्रमण भगवान् महावीर ने गौतम स्वामी से कहा - 'हे गौतम! तुमने उन अन्यतीर्थियों को ठीक कहा, हे गौतम! तुमने उन अन्यतीर्थियों को यथार्थ कहा । गौतम ! मेरे बहुत शिष्य श्रमण-निर्ग्रन्थ छद्मस्थ हैं । जो तुम्हारे समान उत्तर देने में समर्थ नहीं हैं। इसलिए हे गौतम! तुमने उन अन्यतीथियों को ठीक कहा । हे गौतम! तुमने उन अन्यतीर्थियों को बहुत ठीक कहा ।' जब श्रमण भगवान् महावीर ने ऐसा कहा -तब हृष्ट-तुष्ट होकर गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर को वंदना नमस्कार किया । .८ परिनिर्वाण के दिन गौतम गणधर को देवशर्मा ब्राह्मण को प्रतिबोधार्थ भेजा : स्वामी तद्दिनयामिन्यां विदित्वा मोक्षमात्मनः । स एव केवलज्ञानप्रत्यूहोऽस्य महात्मा: । देवशर्मा द्वितो ग्रामे परस्मिन्नस्ति स त्वया । यथाऽऽदिशति मे स्वामीत्युदित्वा च प्रणम्यच । तदा च कार्तिकदर्शनिशायाः पश्चि क्षणे । X पंचह्नस्वाक्षरोच्चारमितकालेन दध्यावहो गौतमस्य मयि स्नेहो निरत्ययः ॥ २१८ || सच्छेद्य इति विज्ञाय निजगादेति गौतमम् ॥ २१६ ॥ बोधं प्राप्स्यति तद्धेतोस्तत्र त्वं गच्छ गौतम ! ||२२०|| जगाम गौतममुनिस्तथा चक्रे प्रभोर्वचः ॥ २२१|| स्व. तिक्षे वर्तमाने कृतषष्ठो जगद्गुरुः ||२२२|| X X तेन तु । ध्यानेन तुर्येण तुर्यपुमर्था X व्यभिचारिणा ॥ २३६ ॥ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ . वर्धमान जीवन-कोश एरंडबीजवबंद्याभावार्ध्वगतिः प्रभुः। पथा स्वाभावऋजुना मोक्षमेकमुपाययौ ॥२४०॥ नारकाणामपि तदा क्षणमेकमभूत् सुखम् न ये सुखलवस्यापि कदाचिदपि भ.जनम् ॥२४१।। x इतश्च देवशर्माणं बोधयित्वा निवृत्तवान् । शुश्राव गौतमः स्वामिनिर्वाणं सुरवार्तया ॥२४॥ गौतमस्वाम्यथोत्ताम्यं श्चिन्तयामास चेतसि । एकस्याह्नः कृते भ; किमहं प्रेपितोऽस्मिहा ! ॥२७५!। जगन्नाथमियत्कालं सेवित्वाऽन्त न दृष्टवान् । अधन्यः सर्वथाऽस्म्येष धन्यास्ते तत्र ये स्थिताः ।२७६।। गौतम ! त्वं वज्रमयो वज्रादप्यधिकोऽसि वा । श्रुत्वाऽपि स्वामिनिर्वाणं शतधायन्न दीर्यसे ||२७७|| यद्वाऽऽदितोऽपि भ्रान्तोऽहं यद्रागं रागवर्जिते । ममत्वं निर्ममे चास्मिन् कृतवानीदृशे प्रभौ ॥२७८।। रागद्वेषपभृतयः किं चामी भवहेतवः । हेतुना तेन च त्यक्तास्तेनापि परमेष्ठिना ॥२५६।। ईदृशे निर्ममे नाथे ममत्वेन ममाऽप्यलम् । ममावं सममत्वेऽपि मुनीनां न हि युज्यते ॥२८०॥ एवं शुक्लध्यानंपरः क्षपकश्रेणिभाक क्षणात् । घातिकर्मक्षयात्प्राप केवलं गौतमो मुनिः ॥२८१॥ -त्रिशलाका० पर्व १०/सर्ग १३ कार्तिक कृष्णा की अमावस्या की रात्रि को स्वयं का मोक्ष जानकर भगवान् ने विचार किया कि-अहो । गौतम का स्नेह मेरे पर अत्याधिक है और वही उसे केवल ज्ञान की उत्पत्ति में अंतराय करता है। इस कारण उस स्नेह को समुच्छेद कर देना उचित है। ऐसा विचार कर भगवान् ने गौतम को कहा-यहाँ से नजदीक के अन्य ग्राम में देवशर्मा नामक ब्राह्मण रहता है-वह तुमसे प्रतिबोध को प्राप्त होगा। अतः तुम वहाँ जाओ। यह सुनकर ! जैसी आपकी आज्ञा ! ऐसा कहकर गौतम वीरा को नमस्कार कर तुरन्त वहाँ आये और प्रभु का वचन सत्य किया अर्थात् उसे प्रतिबोधित किया। इधर कार्तिक मास की अमावस्या की पश्चिम रात्रि-चन्द्र स्वाति नक्षत्र था-छट्टतप था। अस्तु च ह्रस्वाक्षर का उच्चारण किया जाय -उस काल मात्र वाला अव्यभिचारी शुक्लध्यान की चतुर्थ पाद से ( चतुर्दशवें गुणस्थान में ) एरंड के बीज की तरह कर्मबंध रहित हुए। प्रभु यथास्वभाव ऋजुगति में ऊर्ध्वगमन कर मोक्ष पद प्राप्त किया। उस समय जिनको एक क्षणमात्र भी सुख नहीं प्राप्त होता है - ऐसे नारकी जीव को भी क्षणमात्र सुख प्राप्त हुआ। अस्तु इधर ही गौतम गणधर देवशर्मा ब्राह्मण को प्रतिबोध प्राप्त कराकर वापस फिरे । मार्ग में देवों की वार्ता से प्रभु की निर्वाण की बात सुनी। इस कारणचित्त में विचार करने लगे एक दिवस में निर्वाण था-ऐसा होने पर अरे प्रभो ! मुझे किस कारण से दूर भेजा ? अरे जगत्पति ! मैं इतने काल तक तुम्हारी सेवा की परन्तु अंतकाल में मुझे आपका दर्शन नहीं हुआ-इससे मैं सर्वथा अधम्य हूँ। अरे, गौतम ! तुम सही अर्थ में वज्रमय है-वे वज्र से भी अधिक कठिन है कि जिससे प्रभु का निर्वाण सुनकर भी तुम्हारे हदय के सैकड़ों ककडा कयों नहीं होता अर्थात हो जाना चाहिए। Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश अथवा हे प्रभो ! मैं भ्रांत हो गया हूँ जिस कारण उन निरागी और निर्भय प्रभु के प्रति मैंने राग और ममता रखा है। वे राग और द्वेष संसार के हेतु है। उसका त्याग करने के लिए परमेष्ठी ने मेरा त्याग किया है। ममता रहित प्रभु में ममता रखने से हमारे कुछ भी नहीं हुआ। मुनियों को ममता रखना उचित नहीं है। इस प्रकार शुक्लध्यान में परायण होते हुए गौतम मुनि ने क्षपक श्रेणी को प्राप्त किया-फलस्वरूप घाती कर्म का क्षय होने से गौतम को केवलज्ञान प्राप्त हुआ। .६ इन्द्रभूति को कैवल्य ज्ञान : (क) जादो सिद्धो वीरो तहिवसे गोदमो परमणाणी । जादो तस्सिं सिद्धे सुधम्मसामी तदो जादो ॥१४७६॥ -तिलोप० अधि ४/गा १४७६ जिस दिन भगवान् महावीर सिद्ध हुए उसी दिन गौतम गणधर केवलज्ञान को प्राप्त हुए। पुनः गौतम के सिद्ध होने पर उनके पश्चात् सुधर्मा स्वामी केवली हुए। णिव्वुइ वीरि गलिय-मय-रायउ । इन्दभूइ गणि केवलि जायउ ॥ सो विउलइरिहि गउ णिव्वाणहु । कम्म - विमुक्कर सासय - ठाणहु ।। तहिँ वासरि उप्पण्णउ केवलु । मुणिहि सुधम्महु पक्खालिय-मलु ॥ -वीरजि० संधि ३/कड २ वीर भगवान् के निर्वाण प्राप्त करने पर मद और राग को विनष्ट कर इन्द्रभूति गणधर ने केवलज्ञान प्राप्त किया। वे अपने कर्मों से मुक्त होकर, विपुलगिरि पर्वत पर निर्वाणरूपी शाश्वत स्थान को प्राप्त हो गये । उसी दिन सुधर्म मुनि को पापमल का प्रक्षालन करनेवाला केवलज्ञान उत्पन्न हुआ । .१० वर्धमान महावीर के पश्चात् धर्म का प्रवर्तन : (क) श्री गौतमः सुधर्माख्यः श्रीजम्बूस्वामिरन्तिमः । मोक्षं गते महावीरे त्रयः केवलिनोऽप्यमी ॥४॥ मध्ये द्वाषष्टिवर्पाणां जाता ये धर्मवर्तिनः । शरणं तत्क्रमाजानां तद्गुणार्थी व्रजाम्यहम् ॥४२॥ -वीरवर्धच० अधि १ भगवान् महावीर के मोक्ष चले जाने पर श्री गौतम, सुधर्मा और अंतिम जंबूस्वामी-ये तीन केवली- यहाँ पर बासठ वर्ष तक धर्म का प्रवर्तन करते रहे, अतः उनके गुणों का इच्छुक मैं उनके चरणकमलों की शरण को प्राप्त होता हूँ। Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश (ख) तद्दिवसे चेव सुहम्माइरियो जंबूसामियादीणमणेयाणमाइरियाणं वक्वाणिददुवालसंगो घाइच उक्कक्खएण केवलि जादो। तदो सुहम्मभडारयो वि बारसवस्साणि १२ केवलविहारेण विहरिय णिव्वुई पत्तो। -कसापा०/गा १ टीका/भाग १/पृ०८४ उसी दिन सुधर्माचार्य, जंबूस्वामी आदि अनेक आचार्यो को द्वादशांग का व्याख्यान करके चार घातिया कर्मो का क्षय करके केवली हुए। तदनन्तर सुधर्म भट्टारक भी बारह वर्ष तक केवलिविहार रूप से विहार करके मोक्ष को प्राप्त हुए। .११ गौतम का परिनिर्वाण : तत्र द्वादशवत्सरी क्षितितले भव्यान् प्रबोध्योच्चकैः । स्वामीवामलकेवलर्द्धिरमरैरभ्यर्चितो गौतमः ॥२८॥ गत्वा राजगृहे पुरे क्षत भवोपग्राहिकर्मा प्रभु- भूत्वा मासमुपोषितः पदमगादक्षीणशर्मास्पदम् ।।२८२॥ -त्रिशलाका० पर्व १०/सर्ग १३ केवलज्ञान समुत्पत्ति के बाद-बारह वर्ष पृथ्वी पर विहार कर और भव्य प्राणियों को प्रतिबोधित करते हुए केवलज्ञान रूप अचल समृद्धि से प्रभु की तरह देवों द्वारा पूजित गौतम मुनि अंत में राजगृह नगरी आये । वहाँ एक मास का अनशन कर, भवोपग्रही कर्म खपाकर अक्षय सुखवाले मोक्ष पद को प्राप्त किया। .१२ इन्द्रभूति का एक विवेचन : (क) थेरे णं इंदभूती बाणउई वासाइं सव्वाउयं पालइत्ता सिद्धे, वुद्ध -सम० सम १२ टीका- स्थविरइन्द्रभूतिर्महावीरस्य प्रथमगणनायकः, स च गृहस्थपर्याये पंचाशतं वर्षाणि त्रिंशतं छद्मस्थपर्यायं द्वादश च केवलित्वं पालयित्वा सिद्ध इति सर्वाणि द्विनवतिरिति । स्थविर इन्द्रभूति भगवान महावीर के प्रथम गणधर थे। जिनका गृहस्थ पर्याय पचास वर्ष, छद्मस्थ साधु पर्याय तीस वर्ष तथा केवलि-पर्याय बारह वर्ष का था। सर्वायु १२ वर्ष को थी। (ख) बासट्ठी वासाणिं गोदमपहुदीण णाणवंताण । धम्मपयट्टणकाले परिमाणं पिंडरूवेणं ॥ -तिलोप० अधि ४/गा १४७८ गौतम आदि केवलियों के धर्म-प्रवर्तन-काल का प्रमाण पिंडरूप से ६२ वर्ष है। .१३ इन्द्रभूति-सर्वलब्धि संपन्न थे : मलय टीका-सर्वेऽपि सर्वलब्धिसम्पन्नाः- आमोषध्याद्यशेषलब्धिसम्पन्नाः। -आव० निगा ६५६ इन्द्रभूति आमाँ षिधि आदि सर्वलब्धि से संपन्न थे। Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश २३५ .१४ संहनन और संस्थान : वनपभनाराच संहनन व समचतुरस्र संस्थान था सर्व एव गणधरा x x x | वर्षभसंहननाः समचतुरस्राश्च संस्थाने संस्थानविषये। -आव० निगा ६५९/टोका .१५ इन्द्रभूति का जन्म नक्षत्र : जेट्ठा-xxx। टीका-इन्द्रभुतेर्जन्मनक्षत्रं ज्येष्ठा । -आव० निगा ६४६/पूर्वार्ध इन्द्रभूति का जन्म-ज्येष्ठा नक्षत्र में हुआ था। .१६ गौत्र : (क) मगहा गुब्बरगामे जाया तिन्नेव गोयमसगुत्ता। -आव० निगा ६४३/भाग २ मलय टीका-मगधेपु जनपदेषु गोब्बरग्रामे जातात्रय एवाद्या गणधराः, कथम्भूता एते त्रयोऽपी त्याह-'गौतमसगोत्राः' सह गोत्रं येषां ते सगोत्राः, गौतमेन गोत्रेण सगोत्रा गोतमसगोत्राः, गौतमाभिधगोत्रयुक्ता इत्यर्थः । (ख) तिन्नि य गोयमगुत्ता x x x । -आव० निगा ६४६ टोका-त्रय आद्या गणभृतो गौतमगोत्राः। इन्द्रभूति का गौत्र-गौतम गोत्र था । गृहस्थपर्याय : पन्ना x x x । छद्मत्थं परियागं xxx । -आव० निगा ६५०-५१ टीका-इन्द्रभूतेरगारपर्यायः पंचाशवर्षाणि। इन्द्रभूति पचास वर्ष गृहस्थपर्याय में रहे । .१८ छद्मस्थपर्याय : तीसा x x x छउमत्थपरिआओ -आव० निगा ६५२ टीका-इन्द्रभूतेश्छद्मस्थपर्यायस्त्रिंशद्वर्षाणि इन्द्रभूति गणधर तीस वर्ष छद्मस्थ पर्याय में रहे । .१६ केवलिपर्याय : मलय टीका-छद्मपर्यायमगारवासं च व्यवकलय्य यत् सर्वायुष्कस्य शेषं तत् जिनपर्याय विजानीहि, स चायं जिनपर्यायः, इन्द्रभूतेः केवलिपर्यायो द्वादश वर्षाणि।। -आव० निगा ६५४/टीका इन्द्रभूति का केवलि-काल बारह वर्ष का था। Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ वर्धमान जीवन-कोश .२० इन्द्रभूति का परिनिर्वाण-भगवान् महावीर के पश्चात् : इन्द्रभूतिः सुधर्मश्च स्वामिनि वीरे निवृते परिनिर्वृतः, तत्रापि प्रथममिन्द्रभूतिः पश्चात्सुधम्मस्वामीः। -आव० निगा ६५८/टीका भगवान महावीर के परिनिर्वाण के पश्चात् (१२ वर्ष पश्चा) इन्द्रभूति का परिनिर्वाण हुआ। .२१ गौतम गणधर का श्रुत : सव्वे य महणा जच्चा, सव्ये अज्झावया विऊ। सव्ये दुवालसंगीआ, सव्वे चउदसपुग्विणो ॥६५७॥ -आव० निगा ६५७ इन्द्रभूति गणधर-आदि सब गणधर-सर्व ब्राह्मण कुल में समुत्पन्न थे-प्रशस्त जाति कुलोत्पन्न थे। सब अध्यापक-उपाध्याय थे, विद्वान थे। सब गणधरों ने स्वल्प रूप से द्वादशांगी का अध्ययन किया। इसके बाद सम्पूर्ण द्वादशांगी- चतुर्दश पूर्व के ज्ञाता थे। .२२ गौतम गणधर की आयु : (क) वाणउई xxx। -आव० निगा ६५५ ____टीका-इन्द्रभूतेः सर्वायुर्द्विनवतिर्वर्षाणि (ख) टीका-स्थविरइन्द्रभूतिमहावीस्य प्रथमगणनायकः, स च गृहस्थपर्याय पञ्चाशतं वर्षाणि त्रिंशतं छद्मस्थपर्यायं द्वादश च केवलित्वं पालयित्वा सिद्धि इति सर्वाणि द्विनवतिरिति । -सम० सम ६२/टीका स्थविर इन्द्रभूति भगवान् महावीर के प्रथम गणनायक थे। वे गृहस्थपर्याय में पचास वर्ष, छद्मस्थपर्याय में तीस वर्ष तथा केवलिपर्याय में बारह वर्ष रहकर सिद्ध हए। सर्वायु (५०+३०+१२ = ६२) बानवें वर्ष की थी। .२३ परिनिर्वाण के समय तप : सर्व एव गणधरा मासं यावत् पादपोपगमनगताः आव०निगा ६५६/मलय टीका इन्द्रभूति के पादोपगमन संथारा एक मास का था। -आव० निगा ६४५/टीका .२४ द्वितीय अग्निभूति (द्वितीय गौतम) गणधर : .१ अग्निभूति का श्रमण भगवान महावीर के पास आगमन और दीक्षा-ग्रहण : (क) तं च श्रुत्वा प्रत्रजितमग्निभूतिरचिन्तयत्। तेनेन्द्रजालिकेनेन्द्रभूतिनं प्रतारितः ॥१४॥ ___ गत्वा जय.म्यसर्वज्ञमपि सर्वज्ञमानिनम। आनयामि भ्रातरं स्वं माययैव पगजितम !!६५|| Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश २३७ सर्वशास्त्ररहस्यज्ञमिन्द्रभूतिं महामतिम्। कोऽलं जेतुं विना मायां-माया जैत्री त्वमायिषु १६६।। स चेन्म संशयं ज्ञाता छेत्ता च हृदयस्थितम् । तदाऽहमपि तच्छिष्यः सशिष्योऽपीन्द्रभूतिवत् ॥१७॥ अग्नि तिर्विमृश्यैवं पञ्चशिष्यशताऽऽवृतः । ययौ समवसरणे तस्थौ चोपजिनेश्वरम् ॥८॥ तमालपत्प्रभुर्विप्र. भूतं ! गो..नान्वय ! । अस्ति वा नास्ति किं कर्मेत्येष ते संशयोहदि ॥१६॥ प्रत्यक्षादिप्रमाणानामगम्यं कर्म मूर्तिमत् । कथंक..रं स बध्नीयाजीवो मूर्तत्ववर्जितः ॥१००|| उपघाताऽनुग्रहाश्च कथं मूतेन कर्मणा! जीवस्य स्युरमूर्तस्येत्याशंका हि मुधैव ते ॥१०१।। प्रत्यक्षं कर्मातिशयज्ञानिनां त्वादृशां पुनः। अनुमानाभिगम्यं तज्जीववैचित्र्यदर्शनात् ॥१०२।। कर्मणामेव वैचित्र्याद्भवन्ति च शरीरिणाम् । सुखदुःखादयो भावास्तत्कर्मास्तीति निश्चिनु ॥१०३।। तथाहि स्युनृपाः केऽपि हरत्यश्वरथवाहनाः। केचित्तत्र भवे पादचारिणो निरुपानहः ॥१०४।। सहस्रकुक्षिभरयो भवन्त्यक महर्द्धयः। भिक्षया स्वोदरमपि पूरयन्त्यपरेपुनः ॥१०५।। देशकालादितुल्यत्वेऽप्येकस्य व्यवहारिणः। भूयिष्ठो जायते लाभो मूलनाशोऽपरस्यतु ॥१०६॥ एवंविधानां कार्याणां ज्ञेयं कर्मैव कारणम् । न विना कारणं कार्यवैचित्र्यमुपजायते ॥१०७|| मूर्तानां कर्मणां जीवेनामूर्तेन च संगमः । समीचीनः सोऽपि नूनमाकाशघटयोरिव ॥१०८॥ उपघाताऽनुग्रहाश्य नानाविधसुरौषधैः। अमूर्तेऽपि भवन्तीति निरवद्यमदोऽपिहि ॥१०६।। एवं च स्वामिना च्छिन्नसंशयस्त्यक्तमत्सर । अग्निभूतिः प्रवव्राज शिष्यपंचशतीयुतः ॥११०॥ -त्रिशलाका० पर्व १०/सर्ग ५ तं पइव्वअं सोउं बीओ आगच्छई अमरिसेणं । बच्चाम णमाणेमी पराजिणि ता ण तं समणं ॥६०२।। मलय टीका-तं-इन्द्रभूतिं प्रव्रजितं श्रुत्वा द्वितीय :- खल्वग्निभूतिरत्रान्तरे अमर्षेण प्राग्व्यावर्णितस्वरूपेण हेतुभूतेन आगच्छति भगवत्समीपं। केनाभिप्रायेणेत्याह-व्रजामि, णमिति वाक्यालंकारे आनयामि, निजभ्रातरमिन्द्रभूतिमिति गम्यते पराजित्यं णमिति पूर्ववत् तं श्रमणमिन्द्रजासिककाल्पमिति। पुनरपि किं चिन्तयन्नसावागत इत्याह छलिओ छलाइणा सो मन्ने माइंदजालिओ वावि । को जाणइ कहवत्तं इत्ताहे वट्टम णी से ॥१२७ भा॥ मलय टीका- दुर्जयस्त्रिभुवनस्यापि मद्भ्रान्ता इन्द्रभूतिः, केवलमहमिदं मन्ये छलादिना छलितोऽसौतेन सहि छलजातिनिग्रहणस्थानग्रहणनिपुणः सम्भाव्यते, अथवा मायेन्द्रजालिकः कोऽपि निश्चितमसौ येनतस्यापि जगद्गुरोर्मद्भातुर्भमितं चेतः, यदिवा को जानाति तयोः किमपि वादस्थानं कथमपि वृत्तं ? मत्परोक्षत्वाद्. अत ऊर्दू मयि तत्र गते 'से' तस्य छलादिकुशलस्य मायेन्द्रजालकुशलस्य वा 'वट्टमाणी ति या काचित् वार्ता वर्तनि वा भविष्यति, तां द्रक्ष्यत्ययं समग्रोऽपि लोकइति गम्यते। इदं च तेन तत्रागच्छता प्रोक्तम् Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ वर्धमान जीवन-कोश सो पक्खंतरमेगं पि जाइजइ मे तओ मि तस्सेव । सीसत्तं हुज्ज गओ वुत्तुं पत्तो जिणसगासं ॥१२८।। भा० मलय टीका- को जानाति तायदिन्द्रभूतिस्तेन कथमपि निजितः ? मम पुनरेकमपि पक्षान्तरं-पक्षविशेष स यदि याति, किमुक्तं भवति ?-मद्विहितस्य सेहेतूदाहरणस्य पक्षविशेषस्य यद्युत्तरप्रदानेन कथमपि पारं गच्छति ततो मीति वाक्यालङ्कारे तस्यैव श्रमणस्य शिष्यत्वेन गतोऽहं भवेयमिति उक्त्वा प्राप्तो जिनस्य-भगवतो महावीरस्य सकाशं-समीपम् । ततः किमित्याह आभट्ठो य जिणेणं जाइजरामरणविप्पमुक्केण । नामेण य गोत्तेण य सव्वन्नूसव्वदरिसीण ॥६०३।। हे अग्निभूति गोयम ! सागयमुत्ते जिणेण चिंतेइ । नामंपि मे वियाणइ, अहवा को मं न याणाइ ॥१२६भा०। जइ वा हिययगयं मे संसय मन्नेज्ज अहव छिंदिज्जा । तो होज विम्हओ मे इय चिंतेतो पुणो भणितो ॥१३०.। (इदं गाथात्रयमपि पूर्ववदेव ।।) मलय टीका-xxx । हे अग्निभूति ! गौतम ! स्वागतमिति जिनेनोक्ते स चिन्तयति-अहोनामापि मे विजानाति, अथवा सर्वत्र प्रसिद्धोऽहं को मां न जानाति। यदि मे हृद्गतं संशयं मन्येत-जानीयात् , अथवा छिन्द्यात्-अपनयेत् , ततो मे विस्मयो भवेत्-भविष्यति इति चिन्तयन् पुनरपि भगवता भणितः। किं भणित इत्याह किं मन्ये अत्थिकम्मं उयाहु नत्थित्ति संसओ तुझं । वेयपयाण य अत्थं न याणसी तेसिमो अत्थो॥६०४॥ मलय टीका- हे अग्निभूते ! गौतम ! त्वमेतत् मन्यसे-चिन्तयसि, यदुत कम-ज्ञानावरणीयादि किमस्ति उत तास्तिति ? नन्वयमनुचितस्तव संशयः, यतोऽयं संशयस्तव विरुद्धवेदपदश्रुतिनिबन्धनः, x x x यदा कमर हितस्याप्यात्मनः शरीरकरणेच्छोपजायते तदा शरीरमारभते, आत्मनः आत्मनसकलशक्तिसमन्वितत्वात् , अत एव मुक्तात्मनो न भूयः शरीरित्वप्रसङ्गः, शरीरकरणेच्छाया एवाभावात् , तदप्यश्लील, शुद्धस्यसतो रागद्वेष रहिततया शरीरकरणेच्छाया एवाप्रवृत्तः, मुक्तात्मवत् । x x x । तस्मात्कार्मणशरीरपूर्वकं बालशरीरमिति सिद्धकर्म. अन्यथा प्रतिनियत देशस्थानगर्भप्राप्तिनरपश्वादिरूपेण वैचित्र्यं वा नोपपत्तिमत् , नियामकाभावात् , उक्तं च आत्मत्वेनाविशिष्टस्य, वैचित्र्यं तस्य यद्वशात् । नरादिरूपं तच्चित्रमदृष्टं कर्मसंज्ञकम् ॥१॥ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश अथ स्वभाव एव नियामका वैचित्र्यस्य न कम्र्मेति कर्मासिद्धिः। x x x अथ मूर्त तहिं स मूर्त्तवस्तुधर्मः पुद्गलपर्यायएवान्यस्य मूर्तवस्तुधर्मत्वायोगात्, कर्मापि च पुद्गलपर्यायानन्यरूपमिति कर्मसिद्धिः। अन्यच्च-समानेऽपि च सेवाद्यारम्भे समानेऽपि च स्वामिचित्तपरिज्ञानादिरूपे तदुपाये यः खलु परस्परं मनुष्याणां फलभेदः सहेत्वन्तरं विना न युक्तिमियति, कारणभेदमन्तरेण कार्यभेदायोगात् । ततो यदेव तत्र किञ्चनापि हेत्वन्तरं तत्कन्र्मेति प्रतिपत्तव्यम् , उक्तञ्च तथा तुल्येऽपि चारम्भे, सदुपायेऽपि यो नृणाम् । फलभेदः स युक्तो न, युक्त्या हेत्वन्तरं विना ।।१।। तस्मादवश्यमेष्टव्यमत्र हेत्वन्तरं परैः। तदेवादृष्टमित्याहुरन्ये शास्त्रकृतश्रमाः ॥२॥ ( शास्त्रवा० ) आगमगम्यं चैतत् , 'पुण्यः पुण्येन कर्मणा, पापः पापेन कर्मणे ति श्रुतिवचनप्रामाण्यात् , अथकर्मास्तीति प्रतीमः, तच्च कर्म पुद्गलस्वरूपं नामूर्त्तमिति कथं प्रतिपत्तव्यम् ? x x x तथा च सति यस्योपाघेः सम्पर्कवशात् सा शक्तिरात्मनो नारकादिभवभ्रमणरूपा समुदपादि तदेवास्माकं पौद्गलिकं कम्मेति न काचित्क्षति। यदप्युक्तम् , अन्यच्चामूर्त अ.त्मा मूत्तं च कर्मेत्यादि तदप्यसम्यक् , अमूर्तस्याप्याकाशस्य मूर्तेन घटादिना सह यदिवा द्रव्यस्य पराभिप्रायेणामूर्तया क्रियया सह संयोगभावात् , उक्तं चमुत्तस्सामुत्तिमया जीवेण कहं हवेज संबंधो ?। सोम ! घडस्सव नभसा जह वा दव्वस्स किरियाए ।।१।। (वि० १६३५) तथा अमूर्तस्याप्यात्मनो मूर्तकर्मकृतावनुग्रहोपघातावविरुद्धौ, विज्ञानस्य ब्राहम्यौषध्यादिमदिरापानादिभिरनुग्रहोपघातदर्शनात् , आह चमुत्तेणामुत्तिमतो उवघायाणुग्गहो कहं होजा ? जइ विनाणाईणं मदिरापाणोसहाई हिं ॥१।। (वि० १६३७) एवं भगवताऽभिहितेऽग्निभूतिः किं कृतवानित्याहछिन्नंमि संसयंमी जाइजरामरेणविप्पमुक्केण । सो समणो पव्वइओ पंचहिं सह खंडियसएहिं ।६०५।। टीका-उक्तप्रमाणेन जिनेन-भगवता वर्द्धमानस्वामिना जरामरणाभ्यामुक्तलक्षणाभ्यां विप्रमुक्त इव विप्रमुक्तः तेन छिन्ने-निराकृते संशये स अग्निभूतिः पंचभिः खण्डिकशतैः सह श्रमणः प्रबजितः सन् साधु संवृत्त इत्यर्थ ॥ इन्द्रभूति को दीक्षित हुआ जानकर अग्निभूति ने विचार किया कि उस इन्द्रजालिक ने अवश्य ही इन्द्रभूति को छल लिया है। अतः मैं वहां जाकर सर्वज्ञ नहीं होने पर भी अपने को सर्वज्ञ माननेवाले धूतारे को जीतना चाहिए और माया से पराजित किये हुए मेरे भाई को वापस लाना उचित है। सर्व शास्त्र के रहस्य को जानने वाला और मोटो बुद्धि वाले इन्द्रभूति को माया बिना जोतने में कौन समर्थ हो सकता है। क्योंकि माया रहित पुरुषों में माया-विजय देखा जाता है। परन्तु जो यह मायावी हमारे हृदय के संशय जानकर छेदता है तो मैं भी इन्द्रभूति की तरह शिष्यों सहित उनका शिष्य हो जाऊंगा। Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० वर्धमान जीवन-कोश ऐसा विचार कर अग्निभूति पांच सौ शिष्यों सहित समवसरण में गया और जिनेश्वर के पास बैठ गया। उसे देखकर भगवान् बोले कि- "हे गौतम गौत्री अग्निभूति ! तुम्हारे हृदय में ऐसा संशय है कि कर्म है या नहीं। और यदि कर्म होता है तो प्रत्यक्षादि प्रमाण के अगम्य होने पर मूर्तिमान कहा जाता है। इस प्रकार के कर्म को अमूर्तिमान जीव किस प्रकार बांध सकता है। अतिमान जीव को मूर्तिवाले कर्म से उपघात और अनुग्रह किस प्रकार होता है। इस प्रकार का तुम्हारे हृदय में संशय है। यह संशय व्यर्थ है। क्योंकि अतिशय ज्ञानी पुरुष कर्म को प्रत्यक्ष ही जानते हैं । और तुम्हारे जैसे छमस्थ पुरुष को जीव की विचित्रता देखने से अनुमान से कर्म जाना जाता है। कर्म को विचित्रता से ही प्राणियों को सुख-दुःखादि विचित्र भाव प्राप्त होते रहते हैं। इससे सिद्ध होता है कि कर्म का अस्तित्व है। ऐसा अग्निभूति ! तुम निश्चित करो। कितनेक जीव राजा होते हैं और कितनेक हाथी, अश्व और रथ के वाहनपन को प्राप्त होते हैं। उसी प्रकार कितनेक उसके पास उपानह आदि पैर से चलनेवाले होते हैं, कईएक हजारों प्राणियों के उदर भरनेवाले महद्धिक पुरुष होते हैं और कोई भिक्षा मांगकर भी स्वयं का उदर नहीं भर सकते हैं। देश, काल एक समान होने पर एक व्यापारी को बहुत लाभ होता है और अन्य की मूल पूंनी भो नष्ट हो जाती है-ऐसे कार्यों का कारण कर्म है क्योंकि कारण बिना कार्य को विचित्रता नहीं हो सकती है। मूत्तिमान् कर्म का अमूर्तिमान जोव के साथ जो संगम है वह भी आकाश और घट की तरह खराखर नहीं मिलता है। तथा विविध जाति के मद्य से और औषध से अमूर्त · ऐसे जीव को भी उपघात और अनुग्रह होता है। इसी प्रकार कर्मों से जीव को उपघात और अनुग्रह होता है-वह भी निर्दोष है । इस प्रकार भगवान महावीर ने अग्निभूति के संशय का निवारण किया। फलस्वरूप अग्निभूति ईर्ष्या छोड़कर पांच सौ शिष्यों के साथ भगवान के पास दीक्षा ग्रहण की। .२ दीक्षी के समय-अग्निभूति की आयु : थेरणं अग्निभूई सत्तालीसं वासाई अगारमझा वसित्ता मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए। -सम० सम ४७/सू २ टीका-'अग्निभूइ' त्ति वीरनाथस्य द्वितीयो गणधरस्तस्य चेह सप्तचत्वारिंशद्वर्षाण्यगारवासः उक्तः, __ आवश्यके तु षट्चत्वारिंशत् , सप्तचत्वारिंशत्तमवर्षस्यासंपूर्णत्वादविवक्षा, इह त्वसम्पूर्णस्यापि पूर्णत्वविवक्षेति संभावनया न विरोध इति । स्थविर अग्निभूति सैंतालीस वर्ष की अवस्था में अनगार-प्रव्रज्या ग्रहण की। मोट :-आपके बड़े भाई इन्द्रभूति तीन वर्ष बड़े थे। .३ अग्निभूति के माता-पिता का नाम : (क) इतश्च मगधे दश गोवरग्रामनामनि । ग्रामे गोतमगोत्रोऽभूद्वसुभूतिरिति द्विजः ॥४६॥ तस्येन्द्र भूत्यग्नि तिमा। त्यभिधाः सुताः। पत्न्यां पृथिव्यामभवंस्तेऽपि गोत्रेण गोतमाः ॥५०॥ –त्रिशलाका० पर्व १०/सर्ग ५ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन - कोश २४१ इस मगध देश में गोबर नामक ग्राम था । उस ग्राम में वसुभूति ब्राह्मण रहता था । जिसका गौतम गोत्र था। उसकी पत्नी का नाम पृथिवी था । उसके इन्द्रभूति, अग्निभूति और वायुभूति - तीन पुत्र थे । आगे जाकर अग्निभूति भगवान् महावीर के द्वितीय गणधर हुए । (ख) पुहवी-वसुभूइ-सुओ गणहारी जयइ चहत्तवास ऊ गोव्वरगामुभवो (ग) वसुभूई x x x अभिभूइ त्ति । बीओ ॥ - धर्मोप० पृ० २२७ - आव० निगा ६४७ टीका- आद्यानां त्रयाणां गणभृतां पिता व त्रुतिः । पुंछवी x X × । मलय टीका - आधानां त्रयाणां गणभृतां माता पृथिवी । अग्निभूति की माता का नाम पृथिवी व पिता का नाम वसुभूति था । चहत्तर वर्ष की आयु थी । - आव० निगा ६४८ •४ अग्निभूति गणधर - द्वितीय गौतम से संबोधित : तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स दोच्चे अंतेवासी अग्गिभूई नामं अणगारे गोयमे गोत्तेणं सत्तुर सेहे जाव पज्जुवासमाणे एवं वदासी x x x । दोच्चे गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ वंदित्ता नमंसित्ता जेणेव तच्चे गोयमे वायुभूति अणगारे तेणेव उवागच्छइ । × × × - भग० श ३ / उ १ / सू४/८ जन्मस्थान गोबर ग्राम ( मगध ) था । उम काल उस समय मोका नगरी में भ्रमण भगवान महावीर के दूसरे अंतेवासी अग्निभूति अणगार जिनका गौतम गोत्र था, सात हस्त प्रमाण अवगाहना थी भगवान् महावीर की सेवा में उपस्थित हुए । कालान्तर में वे दूसरे गौतम भगवान् महावीर को वंदन नमस्कार कर जहाँ तीसरे गौतम वायुभूति अनगार थे वहाँ आये । •५ अभिभूति का परिनिर्वाण - परिनिर्वाण के समय अवस्था : थे अग्भूिई गहरे चोवत्तरिं वासाईं सव्वाउयं पालइत्ता सिद्धे बुद्धे मुत्ते अंतगडे परिणिडे सव्वदुक्ख पहीणे || - सम० सम ७४ / सू १ टीका - तत्राभिभूतिरिति महावीरस्य द्वितीयो गणधर : - गणनायकः तस्येह चतुःसप्ततिवर्षाण्यायुः, अत्र चायं विभागः - षट्चत्वारिंशद्वर्षाणि गृहस्थपर्याय: द्वादश छद्मस्थपर्यायः, षोडश केवलिपर्याय इति । स्थविर अग्निभूति गणधर चौहत्तर वर्ष की आयु में सिद्ध बुद्ध, मुक्त, अंतकृत- परिनिर्वाण - सर्व दुःख से रहित हुए । Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ . ४३ तृतोय वायुभूति (तृतीय गौतम) गणधर : • १ वायुभूति का भगवान् महावीर के पास आगमन : संशय का निवारण और दीक्षा (क) अथ तृतीयस्य गणधरस्य वायुर्भूतेर्वक्तव्यतामभिधित्सुराह— ते पव्वइए सोउं तइओ आगच्छई जिणसगासं । वच्चामि ण वन्दामि वंदित्ता पज्जुवासामि || ६०६ ॥ वर्धमान जीवन - कोश मलय टीका - तौ इन्द्रभूत्यग्निभूति प्रव्रजितौ श्रुत्वा तृतीयो - वायुभूतिनामा द्विजोपाध्यायो जिनसकाशमा गच्छति, सातिशयनिजबन्धुद्व्य निष्क्रमणाकर्णनादपगताभिमानो भगवति सञ्जातसर्वज्ञप्रत्ययः सन्नेवमवधारयत्-व्रजामि ण इति वाक्यालङ्कारे तथ, वन्दे भगवन्तं वन्दित्वा पर्युपाइति ॥ अपरं च किं विकल्प्य समागतोऽसावित्याह । - आव० निगा ६०६ / भाग २ सीसत्तेणोवगया संपइ इंदऽग्गिणो जस्स । तिहुअणकयप्पणा मो स महाभागोऽभिगमणिज्जो || भाष्य | तदभिगमवंदणनमंसणाइणा हुज्ज पूअपावोऽहं । वुच्छिन्नसंसओ वा वुत्तुं पत्तो जिणसगासं ॥ भाष्य | मलय टीका- गाथाद्वयमपि सुगमं, पूतपापो – विशुद्धपापोऽपगतपाप इत्यर्थः ॥ तत किमित्याह - आभट्ठो य जिणेणं जाइजरामरणविप्पमुक्केणं । नामेण य गोत्तेण य सव्वन्नूसव्वदरिसीण || ६०७ || मलय टीका- अस्या व्याख्या प्रागिव । इत्थं सगौरवमाभाषितोऽपि भगवता सकलत्रैलोक्यातशायिनीं तस्य रूपादिसमृद्धिमभिसमीक्ष्य क्षोभादसमर्थो हृद्गतं संशयं प्रष्टु विस्मयात्तूष्णमाश्रितः पुनरप्युक्तः किमित्याह तज्जीवतस्सरीरंति संसओ नवि स पुच्छ से किंचि । वेयपयाण य अत्थं न याणसी तेसिमो अत्थो || ६०८ || - आव० निगा ६०७, ६०८ भाग २ मलय टीका - हे आयुष्मन् ! – वायुभूते ! तवायं संशयो, यदुतं – स एव जीवस्तदेव च शरीरमिति, नापि च पृच्छसि किञ्चित् विदिताशेषतत्त्वं मल्लक्षणं क्षोभात्, अयं च संशयस्तव विरुद्धवेदपदश्रुतिनिबन्धनः तेषां च वेदपदानामर्थं न जानासि तेन संशयं कुरुषे तेषां च तव संशयनिबन्धनानां वेदपदानामयमर्थी- वक्ष्यमाण इति गाथार्थः । तानि चामूनि परस्परविरुद्धानि वेदपदानि 'विज्ञानघनएवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय पुनस्तान्येवाविनश्यति, न प्रेत्य संज्ञाऽस्ति' इत्यादि, तथा - 'सत्येन लभ्यस्तपसा ह्येष ब्रह्मचर्येण नित्यं ज्योतिर्मयो हि शुद्धो यं पश्यन्ति धीरा यतयः 'संयतात्मनः' इत्यादि च, एतेषां चायर्थमस्तव बुद्धौ प्रतिभासते-न देहात्मनोर्भेदसंज्ञास्ति, विज्ञानघनेत्यादीनां व्याख्या पूर्ववत्, नवरं न प्रेत्य संज्ञाऽस्ति भूतसमुदयमात्र Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन - कोश २४३ धर्मत्वाच्चैतन्यस्य, तेन चामूनि किल शरीरातिरिक्तात्मोच्छेदपराणि वर्त्तन्ते, 'सत्येन लभ्यस्तपसा प इत्यादीनि तु देहतिरिक्तात्मप्रतिपादकानि ततः संशयः, युक्ता च भूतसमुदायमात्रधर्म्मता चेतनायाः, तस्याः भूतसमुदायमात्र एवोपलम्भात् गौरतादिवन् । प्रत्यक्षादिप्रमाणगोचरातिक्रान्तश्च देहातिरिक्त आत्मा इति, तत्र वेदपदानां चार्थं न जानासि, च शब्दात युक्तिहृदये च तेषामयमर्थ:: - तत्र विज्ञानघनेत्यादीनां वेदपदानामर्थः प्रागेव व्याख्यातः, सत्येन लभ्य इत्यादीनि तु सुप्रतीतानि भूतातिरिक्तात्मप्रतिपादकानि, तथाहि - सत्येन - सत्यवचनेन तपसाअनशनादिरूपेण ब्रह्मचर्येण च स्फुटं नित्यं नियमेन ज्योतिर्मयो- - ज्ञानमयः शुद्धो भवति, यं तथाभूतमात्मानं धीराः - परमज्ञानकलिता यतयो - महर्षयः संयतास्मानो ध्यानैकनिषण्णा पश्यति, न च चेतनाया भूतसमुदायमात्र एवोपलभ्यात् भूतधर्म्मता, विलक्षणतया तस्या मूर्त्तत्वायोगात्, एतच्चत्रागेव भावितम्, नच तस्मिन् सत्येवोपलम्भस्तद्धर्मत्वानुमानायालं, व्यभिचारदर्शनात्, तथाहि - स्पर्शे सत्येव रूपादय उपलभ्यन्ते, न च तेषां तद्धर्म्मतेति । ततः शरीरातिरिक्तात्माख्यपदार्थ धर्मश्चेतनेति स्थितं, प्रत्यक्षसिद्धोऽप्येष आत्मा, तद्गुणस्यावप्रहादिज्ञानस्य स्पष्टसंवेदनप्रत्यक्ष सिद्धत्वात् । अनुमानगम्योऽपि तच्चेदं – देहेन्द्रियातिरिक्त आत्मा, तदुद्विगमेऽपि तदुपलब्धार्थानुस्मरणात्, पञ्चवातायनोपलब्धार्थानुम्मतृ देवदत्तवत्, इह स्मरणमनुभव पूर्व तया व्याप्तं, व्याप्यव्यापकभावश्चानयोः प्रत्यक्षेणैव प्रतिपन्नः, तथाहि - योऽर्थोऽनुभूतः स स्मर्यते न शेषस्तथा स्वसंवेदनप्रत्यक्षेण प्रतीतेः, विपक्षे चातिप्रसङ्गो बाधकं प्रमाणं, अननुभूते हि विषयेयदि स्मरणं भवेत् ततोऽननुभूतत्वाविशेषात् खरविपाणादेरपि स्मरणप्रसक्तिरित्यतिप्रसङ्गः, विवक्षिते देहे विवक्षितेषु च इन्द्रियेषु सत्सुपलभ्यो योऽर्थः स भवान्तरे तद्विगमेऽपि जातिस्मरणे स्मर्यते, ततोऽवश्यं तस्यार्थम्योपलम्भको देहातिरिक्त आत्मा प्रतिपत्तव्यो न तन्मात्रः, तन्मात्रत्वे तदविगमे तदुपलब्धार्थानुस्मरणायोगात् अधिकृतदेहेन्द्रियमात्रेण तस्यानुपलब्धत्वारिति, आगमगम्यता त्वस्य सुप्रसिद्धैव, सत्येन लभ्य इत्यादिवेद - प्रमाणाभ्युपगमात् । एवं भगवता व्याकृते स किं कृतवान् ? इत्याह- छिन्नंमि संसयंमी जाइजरामरणविप्प मुक्केण । सो समणो पव्त्रइतो पंचहिं सह खंडियस एहिं || ६०६ || मलय टीका - अस्या व्याख्या पूर्ववत् । प्रथम गणधरादिदं नानात्वं तस्य जीवसत्तायां संशयः, अस्य तु शरीरातिरिक्त खल्वात्मनि, न तुतत्सत्तायामिति || - आव० निगा ६०६ / भाग २ (ख) सस्मिन्नपि प्रत्रजिते वायुभूति चिन्तय ॥ ! जितौ मे भ्रातरौ येन सर्वज्ञः खल्वयं ततः ||१११।। तदेतस्य भगवतोऽभ्यर्हणा वन्दनादिभिः । धौतकल्मषकालुष्यः स्यां छिनयि च संशयम् ॥ ११२ ॥ एवं विचिन्त्य सोऽप्यागात् स्वामिनं प्रणनाम च । स्वाम्यप्युवाच जीवः स तद्वपुश्चेतिते भ्रमः ||११३|| प्रत्यक्षाद्यग्रहणेन जीवो भिन्नस्तनोर्न हि । जलबुदबुदवत्सोऽङ्ग मूर्च्छतीति तवाशयः ॥ ११४॥ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ वर्धमान जीवन-कोश मिथ्या तद्देशप्रत्यक्षो जीवः सर्वशरीरिणाम् । तद्गुणानामीहादीनां प्रत्यक्षत्वात्स्वसंविदा ॥११॥ देहेन्द्रियातिरिक्तः स इन्द्रियाऽपगमेऽपि यत् । इन्द्रियार्थान् संस्मरति मरणं च प्रपद्यते ॥११६।। इति स्वामिगिराच्छिन्नसंशयो विमुखो भवात्। पर्यव्राजीवायुभूतिः शिष्यपंचशतीयुतः ॥११॥ –त्रिशलाका पर्व १०/सर्ग ५ अग्निभूति ने भी दीक्षाग्रहण की है-यह बात सुनकर वायुभूतिने विचार किया कि 'जिसने हमारे दोनों भाइयों को जीत लिया है तो वह निश्चव ही सर्वज्ञ होना चाहिए। अतः मुझे उचित है कि भगवान के पास जाकर, वंदनकर हमारे कृत पाप को धोना चाहिए। इसी प्रकार मेरा भी संशय दूर करु । इस प्रकार विचार कर वायुभूति भगवान् के पास आया और प्रणाम कर बैठा। उसे देखकर भगवान् बोले कि हे वायुभूति ! तुम्हें जीव और शरीर के विषय में बड़ा भ्रम है। प्रत्यक्षादि प्रमाण से ग्रहण न होने के कारण जीव शरीर से अलग दिखाई नहीं देता। इस कारण जल में परपोटे की तरह जीव शरीर में ही उत्पन्न होकर शरीर में ही मूर्छा को प्राप्त होता है-ऐसा तुम्हारा आशय है । परन्तु वह मिथ्या है। क्योंकि सर्व प्राणियों को यह जीव देश से तो वह प्रत्यक्ष है क्योंकि उसके इच्छादि गुण प्रत्यक्ष होने से जीव स्वसंविद् है फलस्वरूप उसका स्वयं को हो अनुभव होता है। वह जीव शरीर और इन्द्रियों से भिन्न है। और जिस समय इन्द्रियाँ नाश को प्राप्त होती है। उस समय भी वे इन्द्रियाँ प्रथम भोगे हुए अर्थ को संस्मरण करती है। ऐसी भगवान् को वाणी सुनकर स्वयं का संशय नष्ट होने पर वायुमूति संसार से विमुख होकर पांच सौ शिष्यों के साथ दीक्षा ग्रहण की। .२ वायुभूति के माता-पिता का नाम : इतश्च मगधे देशे गोवरग्रामनामनि। ग्रामे गोतमगोत्रोऽभूद्वसुभूतिरिति द्विजः ॥४॥ तस्येन्द्रभूत्यग्निभूतिवायुभूत्यभिधाः सुताः। पत्न्यां पृथिव्यामभवंस्तेऽपि गोत्रेण गोतमाः ॥५०॥ -त्रिशलाका० पर्व १०/सर्ग ५ वायुभूति के पिता का नाम वसुभूति था तथा माता का नाम पृथिवी था। गौतम गोत्र था। .३ वायुभूति गणधर. • तृतीय गौतम से संबोधित : ___ तच्चे गोयमे वायुभूई अणगारे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता जेणेव दोच्चे गोयमे अग्गिभूई अणगारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता दोच्चं गोयमं अग्गिभूइ अणगारं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एयमट्ठ सम्मं विणएणं भुज्जो-भुज्जो खामेइ। -भग० श ३/उ १/सू ११ किसी तत्त्वचर्चा में अग्निभूति और वायुभूति का वाद-विवाद हो जाने पर-तत्पश्चात् भगवान् महावीर ने उसका समाधान दिया। इसके बाद तीसरे गौतम-वायुभूति ने अग्निभूति गणधर से बारम्बार क्षमत-क्षामना किया । Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ •४ वायुभूति की आयु : दुई - वसुभूइ-सुओ गणहारी जयड़ वाउभूइत्ति । इह सत्तरिवासाऊ गोव्वरगामुब्भवो तइओ ||५|| - धर्मोप० पृ० २२७ जन्मस्थान गोबरग्राम (मगध ) वायुभूति की माता का नाम पृथिवी व पिता का नाम वसुभूति ब्राह्मण था । 27-30 वर्ष को आयु थी । . ४४ चतुर्थ गणधर — व्यक्त वर्धमान जीवन - कांश .५ व्यक्त गणधर का भगवान् के पास आगमन : - संशय का निवारण -दीक्षा ग्रहण (क) ते पव्वइए सोउं विअत्त आगच्छई जिणसगासं । वच्चामि ण वंदामि वंदित्ता पज्जुवासामि ॥ ६१०|| मलय टीका -- तान् - इन्द्रभूतिप्रमुखान् प्रब्रजितान श्रुत्वा व्यक्तो नाम चतुर्थी गणधरो जिनसकाशंभगवत्समीपं आगच्छति, केनाध्यवसायेनेत्याह- व्रजामि णमिति वाक्यालङ्कारे वन्दे भगवन्तं वर्द्धमानस्वामिनं वन्दित्वा च पर्युपास इति ॥ एवंभूतेन च संकल्पेन गत्वा भगवन्तं प्रणम्य तत्पादान्तिके भगवत्सम्पदुपलब्ध्या विस्मयोत्फुल्लनयनस्तस्थौ । अत्रान्तरेआभट्ठो अ जिणेणं जाइजरामरणविप्पमुक्केण । नामण य गोत्तेण य सव्वन्नूसव्वदरिसीणं ॥ ६११॥ मलय टीका अस्या अपि व्याख्या पूर्ववन किं मन्ने पंच भूआ अस्थि नत्थित्ति संसओ तुज्झं । वेयपयाण य अत्थं न याणसी तेसिमो अत्थो ॥ ६१२ ॥ २४५ 11 आभाष्य च भगवता किमुक्तोऽयमित्याह - मलय टीका -- किं पञ्च भूतानि - पृथिव्यादीनि सन्ति किं वा न सन्तीति मन्यसे व्याख्यान्तरं पूर्ववत् । अयं च संशयस्तव विरुद्धवेदपदश्रुतिनिबन्धनः तानि चामूनि वेदपदानि, 'स्वप्नोपमं वै सकलमित्येष ब्रह्मविधिरज्जमा विज्ञेय' इत्यादि । तथा 'द्यावापृथिवी' इत्यादि, तथा पृथिवी देवता आपो देवता' इत्यादि, तेषां च वेदपदानामयमर्थः, तव प्रतिभासतेस्वप्नोपमं स्वप्नसदृशं वै निपातोऽवधारणे सकलम- अशेषं जगदित्येष ब्रह्मविधिःपरमार्थप्रकारः अञ्जसा-प्रगुणेन न्यायेन विज्ञे यो ज्ञातव्यः एवमादीनि । किल वेदपदानि भूतनिह्नवपराणि. 'द्यावा पृथिवी' त्यादीनि तु सत्ताप्रतिपादकानि. ततः संशय:, तथा पर्वते चित्तविभ्रमो यथा भूताभाव एवं समीचीनस्तेषां प्रमाणे Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश नाग्रहणात्। तथाहि- चक्षुगदिविज्ञानस्यात्तम्बनं परमाणवा वा म्युः परमाणुसमूहो। वाऽवयवी वा ? x x x I एवं विभ्रमे स्फुटीकृते भगवानुत्तरमाह... वेदपदानामर्थ न जानासि, चशब्दात् युक्ति भावार्थ च, तत्र तव संशयनिवन्धनाना वेदपदानामयमर्थः-स्वप्नोपमं व सकलमित्यादीनि. अध्यात्मचिन्तायां मणिकनकाङ्गनादिसंयोगस्य अनियतत्वात अस्थिरत्वान् विपाककटुकत्वात् आस्थानिवृत्तिपराणि, न तु तदत्यन्ताभावप्रतिपादकानि, द्यावापृथिवित्यादीनि तु भूनमत्ताप्रतिपादकानि भवतोऽपि प्रतीतानि. ततो वेदसिद्धा सिद्धा भूतानां सत्ता, यदप्युक्त-भूनाभ व एव ममोचीनम्तेपां प्रमाणेनाग्रहणादित्यादि, तदप्यसम्यक् भूतानां प्रत्यक्षादिप्रमाणमिद्धत्वान। .xi अवयविपक्षोक्तं दृषणमनवकाशं, पृथग्द्रव्यान्तरपस्यायविनोऽम्माभिानभ्युपगमान , य एव हि परमाणूनां तथ विधदेशकालादिमामग्रीविरंपमापक्षाणां विवक्षितजलधारणादिक्रियासमर्थः समानः परिणामविशंपः, सोऽवयवी. ततः कुना देशकास्न्यवृत्तिविकल्पदोपावकाशः ? शेपं तु ममवायवक्षोक्तमन पगमा | नं: क्षिनिमावहति । एवं भगवनाऽभिहिते स किं कृतवानित्याहछिन्नंमि संसयंमी जाइजरामरणविप्पमुकणं । मो समणा पब्वइओ पंचहिं सह खंडियसाहिं ।।१३।। मलय टीका---- अश्या व्याख्या पूर्ववन -आव. निगा ६५० स ६१३ (ख) व्यक्तोऽप्यचिन्तयद् यक्त सर्वज्ञो भगवानयम। इन्द्रभूत्यादयो येन जिता बंदा इवत्रयः ।।११८॥ ममापि मंशयं देत्ता निश्चितं भगवानयम । तनः शिायी भविष्यामि ध्यात्यैवं सोऽप्यगात्प्रभुम ।११६। नमप्युवाच भगवान भो व्यक्त ! तव चेतसि । न हि भूनानि विद्यान्तं पृश्यादीनीति संशयः ।।१०।। तपां तु प्रतिपत्तिा मा भ्रमाजनचन्द्रवन। सवशून्यत्वमेवेवमिनिने बढ़ . आशयः ।।१२।। तन्मिथ्या सर्वशून्यत्वपले भुवनविश्रुताः। म्युः स्वप्नाऽवप्नगन्धर्ष पुरेतरभिदा न हि ॥१२॥ इत्थं च च्छिन्न मंदेहो व्यक्तोऽपि व्यक्तवामनः । परिवत्राज शिष्याणां शत: पंचभित्वित: ॥१२३।। -त्रिशलाका० पय १८ मग ५ इसके पश्चात् व्यक्त ने स्पष्टता से विचार किया कि ये अवश्य ही सर्वज्ञ भगवान है. जिन्होंने तोन बद की तरह इन्द्रभूति आदि तीनों को जीत लिया है। ये मर्वज्ञ भगवान हमारा भी मंशय अवश्य दूर कर देग....बाद में में उनका शिष्य होगा। सा विचार कर व्यक्त भगवान के पास आया। उसे देखकर भगवान बोले-'हे व्यक्त। तुम्हारे चिन में मा संशय है कि पृथ्वी आदि पंचभूत नहीं है। उसकी जो यह प्रतीति होती है वह भम से जल में चन्द्र की तरह है। ये सर्व शून्य ही है-यह तुम्हारा दृढ़ आशय है। परन्तु यह मिथ्या है- क्योंकि यदि सर्व शून्यता ही पक्ष ग्रहण किया जाता है तो भुवन में विख्यात हुए स्वप्न, अस्वप्न, गंधर्वपुर आदि भेद घटित ही नहीं होते हैं। भगवान् की इस प्रकार वाणी सुनकर व्यक्त का संशय नष्ट हो गया---इस कारण उमने भी व्यनवागना को बताकर पांच सौ शिष्यों के साथ भगवान के पास दीक्षा ग्रहण की। Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बधमान जीवन-कोश .. व्यन स्वामी के माना-पिता के नाम : कोल्लाकऽभूद्धनुमित्रो धम्मिलश्च द्विजस्तयोः। पुत्रौ व्यक्तः सुधर्मा च वारुणीभद्रिलाभवौ ॥५॥ - -त्रिशलाका० पर्व १०/सर्ग ५ ___ कौलाक ग्राम में धनुमिव और धम्मिल नामक दो ब्राह्मण थे। उनके वारुणी और भद्दिला नाम की स्त्रियों से व्यक्त और मधमा नामक दो पुत्र हुए थे। .३ व्यक्त गणधर की आयु : कोल्ट,ग-सन्निवसे उप्पण्णो जयइ गणहर-चउत्था। धारिणि-धणमित्त-सुओ असीइ-वरिसाउओ वुत्तो।। -धर्मोप० पृ० २२७ व्यक्त गणधर के माता का नाम धारिणी व पिता का नाम धनमित्र था। अस्सी वर्ष की आयु थी। कोल्लाग सन्निवेश (मगध) जन्मस्थान था । .४५ पंचम गणधर-सुधर्मा गणधर .५ सुधर्म गणधर का भगवान के पास अगमन, मंशय निवारण और दीक्षा-- (क) ते पचहा मोउ मुहम्म आगत् छई जिणसगास । वच्चामि ण वंदामी वंदित्ता पज्जुवासामि ॥६१४।। मलय टोका-नान इन्द्र भुतिप्रमु वान प्रव्रजितान श्रुत्वा सुधर्मः पंचमो गणधरो जिनसकाशं-भगव समीपमागच्छति, किं तेनाध्यवसायेनेत्याह, पश्चाद्धं पूर्ववत् ।। सच भगवन्तं दृष्ट्वाऽ नोव मुमुदे, अन्नान्तरेआभट्टा य निण ण जाहजगमरण विप्पमुक्क ण । नामणय गोतंणय सव्वन्नमव्वदरिसीण ।।६५५।। मलय टोका - अम्या व्य.ख्या एवं बत। किं मन्ने जाग्मिो इह भवंमि सो तारिमो परभवे वि । वयपयाण य अत्थं न याणसी नमिमो अत्थो ।। ६५ ।। मलय टोका किं मन्यसे या मनुष्यादिदिशं इह भी स परभवे ऽपि तादश एव. नन्वयमनुचितस्तव संशयो. यनोऽसौ वि वेदपदश्रुतिनिबन्धनः, तानि चामनि पदानि-पुरषो वै पुरुषत्वमश्रत पशवः पशुत्व, मित्यादि, तथा शृगालो वरख जायते यः सपुरीपो दह्यते इत्यादि च, तत्र वेदपदानां त्वमित्थमर्थमवयुद्वयर,-पुर.पो मतः सन पुत्पत्वमश्रते.प्र.प्नोति पशवा गवादयः पशुत्वमेव, अभनि वेदपदानि किल भवान्तग्मादृश्य:तिपादकानि, तथा शृगालो व एप इत्यादोनि तु वैमा श्यप्रापकानि ततः संशयः, अन्यच यत्तेऽ भिनायो यथा कारण नुरूपं कायं भवनि, न खलु शालिवीकात गोधमाङ्क र प्रमतिः. Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-काश तना भवान्तरसारश्यमेवोपपत्तिमत , नत्र वेदपदानामाथं च शब्दात युक्ति भावार्थ च न जानासि, तेषां वेदपदानामयमर्थ:-पुरुषः बल्विह जन्मनि म्वभावेन माईवाज वादिगुणयुक्तो मनुष्यनामगोत्रकमणी बदवा मृतः सन् पुरुषत्वमश्रुते, न तु नियमतः, एवं पशवोऽपि पशुभावमायादिगुणयुक्ताः पशुनामगोत्रे कमणी बद्धामृताः सन्तः पशुत्वमासादयन्ति, न तु नियोगतः, जीवानां गतिविशेषस्य कमसापक्षत्वान , शेषाणि तु वेदपदानि सुगमानि, न च नियमतः कारणानुम्प कार्य वैमदृश्यम्यापि दर्शनात . तथाहि शृङ्गाच्छरो जायते, तस्मादेव सर्षपानुलिप्तात्त तृणानीनि. गोलोमाविलोमभ्यां दूर्वा, नतो न नियमः अथवा कारणानुरूपकार्यपक्षेऽपि भवान्नरवचित्यमस्य युक्तमेव । यतो भवाङ्कुरबीजं सात्मक कम्म, तच नियंगनगमरनारकायुष्कादिभेदभिन्नत्वान चित्रम . अतः कारणवैचित्र्यान कार्यवैचित्र्यमिति, वस्तुस्थिम्या तु मौम्य ! किञ्चिदिह लोकेपरलोके वा न सवथा ममानमसमानं वाऽस्ति, तथा चह भवे युवा निजैरप्यतीनानागतर्बालवृद्धादि पर्यायः मवथा न ममानोऽवस्थाभेदग्रहणान, नापि सर्वथाऽममानः मत्तामनुगमान एवं परलोकेऽपि मनुजा देवत्वमापन्ना न मर्वथा ममान. शरीगन्तरादिभवान , __नापि मवथाऽसमानो जीवत्वाद्यन्वयान , इत्थं चतदङ्गीकर्तव्यमन्यथा दानदमदयादीनां वैययप्रसङ्गात , एवं भगवताऽभिहिते स किं कृतवानित्याह - छिन्नंमि मंसयंमी जाइजरामरणविप्पमुक्केण ! मो समणो पञ्चइओ पंचहिं मह खंडियमएहिं ।। १६ ।। मलय टीका-व्याख्या पूर्ववत आव० निगा ११४ से ६१६ (a) उपाध्यायः सुधाऽपि संशयच्छ दवाञ्छया। समाययो महावीरमतुच्छालोकभास्करम ॥ १२४।। तभप्य जल्पद्भगवान सुधर्मस्तव धीग्यिम। याहगत्र भवेदेह! ताक परभवेऽपिहि ॥ १२५ ।। कार्यहि कारणास्यानुरूपं भवति मंमृतौ। न ह युयुप्त कलमबीज प्ररोहति यवांकुरः ।। ५२६॥ नन्न युक्तं यद्भवेऽस्मिन यो मृदुत्वाऽऽजवादिभिः । नरः कर्म नगयुष्क बध्नातिस पुनर्नरः ॥ १२ ॥ मायादियुक पर्यस्तु स प्रत्याऽपि पशुःखलु । कर्माधीना समुत्पत्तिम्तन्नानात्वं च जन्मिनाम ॥ १८ ॥ महाशं कारणम्यैव कायमित्यप्यसंगतम। शुगप्रतिके योऽपि शरादोनां प्रोहणान ।। १२४ ।। न्याकण्य सुधर्माऽपि पञ्चशिष्यशतीयुनः। प्रवज्यामाददं पाश्व स्वामिपादारविन्दयोः ।। १३० ।। त्रिशलाका० पर्व १० मग ५ इन्द्रभूति आदि चार दीक्षित हो गये हैं-यह बात सुनकर उपाध्याय सुधर्म भी स्वयं का संशय नष्ट करने की इच्छा से लोकालोक के स्वरूप को देखने में सूर्य जैसे श्री वीरप्रभु के पाम आया। उसे देखकर भगवान ने कहा-हे सुधर्मा । तुम्हारी बुद्धि से ऐसा विचार उत्पन्न हआ है कि जीव जैसा इस भव में है---वैसा ही परभव में होता है क्योंकि संसार में कारण के मिलने से ही कार्य होता है। शाली पीजी Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बधमान जीवन कोश आने से उसमें से कुछ भी भवांकुर नहीं होता है। परन्तु यह आपका विचार खोटा और अघटित है। क्योंकि इस संसार में जो मनुष्य मृदुना और मरननादि मनुष्य का आयु बांधना है। यह करने से मनुष्य होता है परन्तु जो मायादि की रचना करता वै वह यहां पत्रु रूप में रहता है I वह मनुष्य भविष्यत् में पशु होता है। इस कारण जीव भी पृथक-पृथक गति में उत्पत्ति कर्म के आधीन है और इसी के कारण प्राणियों में विविधता दिखाई देती है। फलस्वरूप कारण के मिलने से ही कार्य होता है ऐसा कहना भी असंगत है। क्योंकि श्रृंग आदि में से शार निकलते हैं। ऐसी भगवान् की वाणी सुनकर सुधर्मा पांच सौ शिष्यों के साथ प्रभु के चरण कमलों में दीक्षा ग्रहण की। सुधमा गणधर के माता-पिता के नाम (क) भद्दिल प्रम्मिल तणओ गणहारी नव पंचम सुहम्मो ॥ कोल्लाग सन्निवेसे उप्पण्णी वरिस सय-जीओ - धर्मो० ० २२७ सुर्मा गणधर के माता का नाम भला व पिता का नाम भ्रम्मिल था । कोलाग सन्निवेश (मगध ) जन्मस्थान था । १०० वर्ष की आयु थी । (ख) कोला के अनुमित्रो धम्मिल्लक्ष्य द्विजस्तयोः पुत्रौ व्यक्तः सुधर्मा च वारुणीभद्रिलाभवौ ।। ५१ ।। - त्रिशलाका पर्व २० / सर्ग ५ कोल्लाक ग्राम में श्रम्मिल नाम का ब्राह्मण रहता था । उसके महिला नाम की स्त्री थी । उसके सुधर्मा नामक एक पुत्र था। 1 (ग) वसुभुईचणमित्तां धम्मिल धणदेव मारिएधेय देवे वसू अदत्तं बलं अ पिअरो गणहराणं ॥ आय निगा / ६४७ सूम के पिता का नाम धम्मिल और माता का नाम भहिला था । आर्य मी का गोत्र (क) सम भगव महावोरे कामवगात्तणं सरणम्म णं भगवओ महावीरस्स कासवगोत्तम्स अजमेरे देवासी अग्गिवेसायणसगांत कप्प० सू २०५ काश्यप गोत्री श्रमण भगवान महावीर के अग्नि वैशायन गांधी श्रमण भगवान् महावीर काश्यप गोत्री थे। स्थविर आय सुधर्मा नामक अंतवासी शिष्य थे । । (ख) तिन्निय गोयमगत्ता भाग्दा अग्गिस व. सिट्टा कासवगांअम हारिअ कोडिन्नदुगंच गुन्ताई ॥ सुषमा अनि वैश्यायन गोत्रीय ब्राह्मण वंश में उत्पन्न हुए थे । • सुधर्मा के जन्म के समय --नक्षत्र का योग जा कत्तिय साईसवणो हत्युत्तरा महाओ । रोहिणि उत्तरसोदा मिगसिर तह अम्मिणी पुरसो || -आय निगा सुधमा के जन्म के समय उत्तर-फाल्गुनी नक्षत्र का योग था । - आव० निगा ६४६ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश .५ गणधर सुधर्मा का श्रुत(क) दीक्षा के पूर्व का श्रुत सव्वे माहणा जच्चा, सव्वे अज्झावया विऊ ।। सव्वे दुवालसंगिआ, सव्वे चउदसपुग्विणो ।। -आव० निगा ६५५ विदन्तीति विदो -विद्वांसः चतुर्दशविद्यास्थानपारगमनान । तानिचतुर्दश विद्यास्थानान्यमुनि अंगानि वेदाश्चत्वारो, मीमांसा न्यामाविस्तरः। धर्मशास्त्रं पुराणंच विद्या ह्य ताश्चतुर्दश। तत्रांगानि तद्यथा शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्त छन्दो ज्योतिषं चेति, एष गृहस्थागम उक्तः । विद्ववंश परम्परा में उत्पन्न होने के नाते आर्य सुधर्मा ने ऋक , यजुष , साम और अथर्व-इन चारों बेदों, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद तथा ज्योतिष-इन छहों वेदांगों, मीमांसा, न्याय धर्मशास्त्र तथा पुराण आदि सब मिलकर इन चवदह विद्याओं का सम्यक्तया अध्ययन किया। उनके पूर्ण अधिकारी विद्वान् बने । (ख) द्वादशांगी से पूर्व पूर्वो की रचना और सुधर्मगणधर--- धम्मोवाओ पवयणमहवा पुव्वाई देसयातस्स । सव्वजिणाण गणहग चोहसपुवी उ ते तस्म ।। सामाइयाइया वा वयजीवनिकायभावणा पढमं । एसो धम्मोवादो जिणेहिं सव्वेहिं उवइट्रो।। -आव० निगा २६२-६३ किसी का अभिमत है कि द्वादशांगी की रचना के पूर्व गणधरों द्वारा अहंभाषित तीन-मातृका पदों के आधार पर चतुर्दश शास्त्र रचे गये जिसमें समग्र श्रुत की अवतरणा की गई है। इसी आधार से सुधर्म गणधर ने पूर्वो की रचना द्वादशांगो के पूर्व की। द्वादशांगी के पूर्व—पहले यह रचना की गई-अतः ये चतुर्दश शास्त्र चतुर्दश पूर्वो के नाम से विख्यात हुए। . संहनन व संस्थानमासं पाओवगया सव्वेऽविय सव्वलद्धिसंपन्ना। वज्जरिसहसंघयणा समचउरंसा य संठाणे ॥ आव० निगा ६५६ आर्य सुधर्मा सभी लब्धियों से युक्त थे। उनका दैहिक गठन वज्र-ऋषभ-नाराच संहनन तथा समचतुरस्र संस्थानमय था । निर्वाण से पूर्व आर्य सुधर्मा एक मास तक पादोपगमन आमरण अनशन में रहे। नोट--पाद का अर्थ वृक्ष का जमीन में गड़ा हुआ जड़ का भाग है। उसकी तरह जिम ( गृहोत-अनशन ) व्यक्ति की अप्रकंप स्थिति होती है, उसे पादोपगत कहा जाता है। आमरण अनशन प्राप्त-साधक ---जिम में पादप वृक्ष की तरह परिस्पन्दन-कंपन आदि से सर्वथा रहित हो जाता है, उसे पादोपगमन अनशन कहा जाता है। Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान भीवन-कोश २५१ .७ आर्य सुधर्म का आयुष्य (क) थेरेणं अजसुहम्मे एक वाससयं सव्वाउयं पालइत्ता सिद्धे बुद्धे मुत्ते अंतगडे परिणिव्वुडे सव्वदुक्खप्पहीणे। -सम० सम १०० सू ५ पृ०६०६ स्थविर आर्य सुधर्मा एक सौ वर्ष का सर्वायु पालनकर सिद्ध हुए यावत् सर्व दुःखों से रहित हुए । टीका- एवं 'थेरेवि अज्जसुहमे' त्ति आर्यसुधर्मों महावीरस्य पंचमो गणधरः सोऽपिवर्षशतं सर्वायुः पालयित्वा सिद्धस्तथा च तस्यागारवासः पंचाशद्वर्षाणि छद्मस्थपर्यायो द्विचत्वारिंशत्केवलिपर्यायोऽष्टौ, भवति चैतद्राशित्रयमिलने वर्षशतमिति । ___ सुधर्म स्वामी का गृहवास पचास वर्ष, छमस्थ पर्याय बयालीस वर्ष और केवलि पर्याय आठ वर्ष—इस प्रकार सुधर्मा स्वामी की आयुष्य १०० वर्ष की थी। (ख) मासं पाओवगया सव्वेऽवि य सव्वलद्धिसम्पन्ना । वज्जरिसहसंधयणा समचउरंसा य संठाणे ।। -आव० निगा ६५६ निर्वाण से पूर्व आर्य सुधर्मा एक मास तक पादोपगमन आमरण अनशन में रहे। नियुक्तिकार ने सभी गणधरों के लिए इसी प्रकार के अंतिम तप का उल्लेख किया है। .८ सुधर्मा गणधर का एक विर्वचन (क) तेणंकालेणं ते णं समएणं चंपा नामं नयरीहोत्था, वण्णओ। तीसे णं चंपाए णयरीए बहिया उत्तरपुरथिमे दिसीभाए पुण्णभद्दे नामं चेइएहोत्था। तत्थ णं चंपाए णयरीए कोणिए णामं राया होत्था, वण्णओ । ते णं काले णं, ते णं समए णं, समणम्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी अज्जसुहन्मे नाम थेरे, जातिसंपण्णे, कुलसंपण्णे, बलम्वविणयणाणदंसणचरित्तलाघवसंपण्णे; ओयंसी, तेयंसी, बच्चसी, जसंसी; जियकोहे, जियमाणे, जियमाए, जियलोहे. जिईदिए, जियनिद्दे, जियपरिसहे; जीवियासमरणभयविप्पमुक्के, तवप्पहाणे, गुणप्यहाणे, एवं करणचरणनिग्गहणिच्छयअज्जवमद्दवलाघवखतिगुत्तिमुत्ति १०, विज मतबंभवेयनयनियमसञ्चमोयणाणसण २०, चरित्त; ओगले, घोरे, घोरव्यए, घोरतबस्सी, घोरबंभचेग्वासी; उच्छृढशरीरे, संखित्त विउलतेयल्ले से, चोदसपुव्वी, चउण,णोवगत, पंचहिं अणगारमएहिं मद्धिं संपग्वुिडं, पुव्वाणपुचि चरमाणे, गामाणुगामे दूतिज्जमाणे, सुहसुहेणं विहरमाणे; जेणेव चंपा नयरी, जेणेव पुण्णभद्र चेतिए तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, अहापडिरूवं उन्गह, उरिगण्हित्त, मंजमेण तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरति ।। सूत्रम-४ ।। --णाया० श्रुत० १ अ० १ उस काल अर्थात् इस अवमपिणी काल के चोथे आरे में और उस समय में अर्थात कुणिक राना के समय में चंपा नामक नगरी थी। उम चंपा नगरी के बाहर, उत्तरपूर्व दिककोण में अर्थात् ईशान भाग में पूर्णभद्र नामक चैत्य था। उस चंग नगरी में कणिक नामक राजा था। Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन कोश वे जातिसंपन्न उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर के शिष्य आर्य सुधर्म नामक स्थविर उत्तम मातृपक्ष वाले थे। कुलसंपन्न - उत्तम पितृपक्ष वाले थे, उत्तम संहनन से उत्तम बल से युक्त थे । अनुत्तर विमान वासी देवों को अपेक्षा भी अधिक रूपवान थे, विनयवान चार ज्ञानवान्, क्षायिक सम्यक्ववान, लापश्वान ( द्रव्य मे अल्प उपधि वाले और भाव से ऋद्धि-रस एवं साता रूप तीन गारवों से रहित ) थे। ओजस्वी अर्थात् मानसिक तेज से संपन्न या चढ़ते परिमाण वाले तेजस्वी अर्थात् शारीरिक कांति से देदीप्यमान वचस्वी सगुण वचन वाले, यशस्त्र, क्रोध को जीतने वाले, मन को जीतने वाले, माया को जीतने वाले लोभ को जीतने वाले, पाँचों इन्द्रियों को जीतने वाले, निद्रा को जीतने वाले परो यहीं को जीतने वाले जीवित रहने की कामना और मृत्यु के भय से रहित तपः प्रधान अर्थात् अन्य मुनियों की अपेक्षा अधिक तप करने वाले या उत्कृष्ट तप करने वाले गुण प्रधान अर्थात् गुणों के कारण उत्कृष्ट या उत्कृष्ण संयम गुण वाले करणप्रधान - पिण्डविशुद्धि आदि करणसत्तरी में प्रधान, चरणप्रधान -- महाव्रत आदि चरणसत्तरी में प्रधान, निग्रहप्रधान - अनाचार में प्रवृत्ति न करने के कारण उत्तम तन्त्र का निश्चय करने में प्रधान, इसी प्रकार आर्जव प्रधान, मार्दवप्रधान लाघवप्रधान, अर्थात् क्रिया करने के कौशल में प्रधान क्षमाप्रधान गुप्तिप्रधान, मुक्ति (नि) में प्रधान देव अधिष्ठित प्रज्ञप्ति आदि ब्रह्मचर्य, अर्थात् समस्त कुशल अनुष्ठानों में प्रधान, वेद प्रधान अर्थात् लौकिक और लोकोत्तर आगमों में निष्णान, नरप्रधान नियमप्रधान भांति-भांति के अभिग्रह धारण करने में कुशल सत्यप्रधान, शौचप्रधान, ज्ञानप्रधान दर्शनप्रधान, चारित्रप्रधान उदार अर्थात् अपनी उस तपश्वर्या से समीपवर्ती. अल्प सरखवाले, मनुष्यों से भय उत्पन्न करने वाले पोर अर्थात् परीषहों, इन्द्रियों अर्थात् कषयों आदि आन्तरिक शत्रुओं का निग्रह करने में कठोर, पोरवती अर्थात् महावतों को अनन्य सामान्य पालन करने वाले, पोर तपस्त्री, स्टा का पालन करने वाले, शरीर संस्कार के त्यागी, विपुल तेजो लेश्या का अपने शरीर में ही समाविष्ट करके रखने वाले, चौदह पूर्वो के ज्ञाता, चार ज्ञानों के धनी, पांच सौ साधुओं के साथ परिवृत्त, अनुक्रम में चलते हुए एक ग्राम से दूसरे ग्राम में विचरण करते हुए सुखे सुखे विहार करते हुए जहां चंपा नगरी थी और जहाँ पूर्णभद्र चैत्य था उसी जगह आये । आकर यथोचित्त अवग्रह को ग्रहण किया अर्थात् उपाश्रय की याचना करके उसमें स्थित हुए । ग्रहण करके संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे अवग्रह की तत्पश्चात् चंपा नगरी से परिषद् निकली । कूणिक राजा भी ( वंदना करने के लिए ) निकला । सुधर्मा २५० स्वामी ने धर्मोपदेश दिया । (ख) तेणं कालेणं तेणं समर्पणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतवासी अज्जसुहम्मा णामं थेरा भगवंतो जातिसंपन्ना कुल संपन्ना जाव उद्दधी चडणाणोवगया पंचहि अणगारसहिं सद्धि सपरिवृडा yoवाणुपुवि चरमाणा गामाणुगामं दुइनमाण सुहंसुहेणं विहरमाणा जेणेव रायगिहे णयरे जेणेव गुणसीलए बेइए जाव संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाण्ण विहरति परिसा निग्गया, धम्मो कहिओ. परिसा जामेव दिसं पाया तामेव दिसिं पडिगया ||३|| -णाया० श्रु २१ अ० १ श्रमण भगवान् महावीर के शिष्य आर्य सुधर्मा -पांच सौ साधुओं के साथ ग्रामानुग्राम विहार करते हुए राजगृह के गुणशीलक चैत्य में पधारे। संयम और तप के द्वारा आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जोवन-कोश २५३ ... (ग) तेणं कालेणं तणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी अज्जमुहम्म णामं अणगारे जाइसंपण्णे कुलसंपण्णे, वण्णओ, चउदसपुव्वी, चउनाणोवगए पंचहिं अणगारसएहिं सद्धिं संपरिवुडे पुवाणुपुब्धि चरमाणे जाव जेणेव पुण्णभद्द चेइए x x x अहापडिरूवं जाव विहरइ। परिसा निग्गया। - सच्चा निसम्म जामेव दिसं पाउभूया, तामेव दिसं पडिगया । -विवा० श्रु ५/अ १ / सू २ एक समय की बात है कि-ग्रामानुग्राम विहार करते हुए उस समय, श्री सुधर्मा स्वामो अनेक गुण गणों से मण्डित, शांत, दांत और चतुर्दशपूर्वक धारी थे, उस उद्यान में अपने ५०० शिष्यों सहित पधारे। नगरवासियों को ज्योंही इस उद्यान में सुधर्मा स्वामी के पधारने की खबर पड़ी त्योंही नगरीजन सब के सब उनके वन्दन दर्शन एवं उनसे धर्म श्रवण करने के निमित्त बड़ी ही उत्कंठा से बहां पर आये, सुधर्मा स्वामी ने उपदेश दिया। उपदेश सुनकर वे सब अपने अपने स्थान गये ॥ सू. २ ॥ (घ) तेणं कालेणं तेण समएणं समण स भगवओ महावीरस्स अतेवासी अज्जसुहम्मे णामं अणगारे जाइसंपन्ने जहा केसी। जाव पंचहिं अणगारसएहिं सद्धिं संपरिबुडे पुव्वाणुपुव्वि चग्माण ( गामाणुगामं दुइजमाणे ) जेणेव रायगिहे जाव अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेण जाव विहरड। परिसा णिग्गया धम्मो कहिओ। परिसा पडिगया । -निरया० व १ / अ १ / सू ३ उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर के शिष्य आर्य सुधर्मा पांच सौ अनगारों के साथ तीथंकर परम्परा से विचरते हुए ग्रामानुग्राम विहार करते हुए राजगृह नगर में दूतिपलास चैत्य में पधारे। (च) तेणं क.लेणं तेणं समएणं अज्ज सुहम्मे थेरे जाव पंचहिं अणगारसएहिं सद्धिं संपरिवुडे पुवाणपुब्धि चरमाणे गामाणुगाम दूइज्जमाणे सुहं सुहेणं विरहमाणे जेणेव चपा नयरी जेणेव पुण्ण भद्दे चेइये तेणेव समोसरिए। परिसा निग्गया जाव परिसा पडिगया। -अंत० व १ / सू १ उस काल उस समय में स्थविर आर्य सुधर्मा स्वामी पाँच सौ अनगारों के साथ तीर्थंकर परम्परा से विचरते हुए ग्रामानुग्राम विहार करते हए, उस चम्पानगरी के पूर्णभद्र नामक उद्यान में पधारे। x x x (छ) आर्यिका प्रतिजागरको वा 'साधुविशेषः समयप्रसिद्धः। -स्थानांगसूत्र वृत्ति ४-३-३२३ साध्वियों के प्रतिजागरक को गणधर कहा गया है। सव्वे एए समणस्स भगवओ महावीरस्स एक्कारस वि गणइरा दुवालसंगिणो चौद्दसपुग्विणो समत्तगणिपिडगधरा रायगिहे नयरे मासिएणं भत्तिएणं, अपाणएणं कालगयाजाव :सव्वदुक्खप्पहीणा । धेरे इंदभुई थरे अजसुहम्मे सिद्धिंगए महावीरे पच्छादोन्नि चि परिणिव्वुया । -कप्प० सू २०३ भगवान् महावीर के सभी ग्यारहों गणधर द्वादशांगवेत्ता, चतुर्दश-पूर्वी तथा समस्त गणि पिटक के धारक थे। राजगृह नगर में मासिक अनशनपूर्वक वे कालगत हए। सर्वदःखमहीण बने । अर्थात् मुक्त हए । स्थविर इन्द्रभूति Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन - कोश २५४ ( गौतम ) तथा स्थविर आर्य सुधर्मा – ये दोनों ही महावीर के सिद्धिगत होने के पश्चात् मुक्त हुए । कालगत होते गए, उनके गण सुधर्मा के गण में अन्तर्भावित होते गये । नोट आर्यिका प्रतिजागरको वा साधुविशेषः समयप्रसिद्धः । - ठाण० स्था ४-३-३२३/टोका गणधर को साध्वियों का प्रतिजागरक कहा है । अत: सुधर्मा गणधर भी साध्वियों के प्रतिजागरक थे । गणधर का यह एक कार्य भी होता था कि वह साध्वीवृन्द को प्रतिजागृत रखने -- उन्हें संयम - जीवितव्य में उत्तरोत्तर गतिशील रखने में प्रेरक रहे, उनका मार्गदर्शन करे । ६ सुधर्म का कैवल्यकाल और परिनिर्वाण (क) तद्दिव से चेव सुहम्माइरियो जंबूसा मियादीणमणेयाणमाइरियाणं वक्खाणिददुवाल संगो घाइचक्कक्खएण केवली जादो । तदो सुहम्मभडारयो वि बारहवस्स णि । कसापा० भाग १ /गा० १ / पृ० ८४ जिस दिन गौतम स्वामी - इन्द्रभूति ने मोक्षपद प्राप्त किया- उसी दिन सुधर्माचार्य जंबूस्वामी अनेक आचार्यों को द्वादशांग का व्याख्यान करके चार घातिक कर्मों का क्षय करके केवली हुए । " तदनन्तर सुधर्म भट्टारक भी बारह वर्ष तक केवलिविहाररूप में विहार करके मोक्ष की प्राप्त हुए । (ख) तहिं वासरि उप्पण्णउ केवलु । तणिव्वाणइ जंबू - णामहु | मुणिहि सुधम्महु - पक्खालिय - मलु ॥ पंचमुदिव्व णाणु हय काम ॥ ज्यों-ज्यों गणधर इन्द्रभूति के निर्वाण के दिन सुधर्म गणधर को पापमल का प्रक्षालन करनेवाला केवलज्ञान उत्पन्न हुआ । सुधनं स्वामी का निर्वाण होने पर काम को जीतनेवाने जम्बू नामक मुनि को वहीं दिव्यज्ञान अर्थात् केवलज्ञान उत्पन्न हुआ । (ग) तम्मि कदकम्मणासे जंबूसामित्ति केवली जादो तत्थवि सिद्धिपवण्णे केवलिणो णत्थिअणुबद्धा ॥ -तिलोप० अधि/गा १४७७ गौतम, सुधर्मा और जम्बू का केवलि काल ६२ वर्ष का बताया है । - वीरजि० संधि ३/कड २ सुधर्मा स्वामी के कर्मनाश करने अर्थात् मुक्त होने पर जम्बू स्वामी केवली हुए । फिर जम्बूस्वामी के भो सिद्धि को प्राप्त होनेपर फिर कोई अनुबद्ध केवली नहीं रहे । वासट्ठी वासाणिं गोदमपहुदीण णाणवंताणं । धम्मपयट्टणकाले परिमाणं पिंडरूवेणं ॥ तिलोप० गा १४७८ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश २५५ जादो सिद्धो वीरो तदिवसे गोदमो परमणाणी। जादो तस्सि सिद्ध सुधम्मसामी तदो जादो ।। तम्मि कदकाम्मण से जंबूसामि त्ति केवली जादो। तत्थवि सिद्धिपवण्णे केवलिणो णस्थि अणुबद्धा ।। -तिलोप० १४७६,७७ घाति कर्मों का नाश कर जम्बू स्वामी केवली हुए। जम्बू स्वामी के बाद केवलज्ञान का विच्छेद हो गया । जम्बू स्वामी द्वारा सिद्धि प्राप्त कर लिये जाने पर अनुबद्ध केवलि नहीं हुए। थेरेस्सणं अजपुहम्मस्स अग्गिवेसायणगोत्तस्स। अज्जजंबुनामथेरे अंतेवासी कासवगोत्ते ।। -कप्प० सू २०५ सुहम्मं अग्गिवेसाणं, जंबू नामं च कासवं ।। -नंदी०. स्थविरावली गा २५ अग्नि वैश्यापन गोत्रोत्पन्न, स्थविर आर्य सुधमो के काश्यपगोत्रोत्पन्न आर्य जंबू नामक स्थविर अंतेवासी थे। आर्य सुधर्मा के पट्टधर जंबूस्वामी थे । (घ) मुक्त तत्र च पंचमो गणधरो लब्ध्वा सुधर्मप्रभु-र्ज्ञानं पंचममन्वशाञ्चिरन्तरं धर्म जनान् क्ष्मातले ।। प्राप्तो राजगृहाभिधाननगरे निःशेषमप्यन्यदा, जंबूस्वामीमुनेरधीनमनघं संघं निजं निर्ममे ॥२८३॥ तस्मिन्नेव पुरे सुधर्मगणभृत्क्षीणाष्टकर्मा-क्रमा-त्तुर्यध्यानधरोऽपुनर्भवमगादद्वैतसौख्यं पदम् । पश्चादन्तिमकेवली क्षितितले श्रीवीरमार्गाग्रणीधर्म भव्यजनान् प्रबोध्य सुचिरं जंबूप्रभुश्चान्यदा ॥२८४ - त्रिशलाका० पर्व १०/सर्ग १३ गौतमस्वामी के मोक्ष जाने के बाद पांचवे गणधर सूधर्म स्वामी पंचम ज्ञान को प्राप्त कर बहत वर्षों तक पृथ्वी पर विचरण कर लोगों को धर्मदेशना दी। अंत में वे भी राजगृही नगरी में पधारे और स्वयं के निर्दोष संघ को जंबूस्वामी को स्वाधीन किया। बाद में सुधर्मास्वामी गणधर भी उसी नगरी में अशेष कर्मों को क्षय कर शुद्ध ध्यान में अद्धत सुखवाले स्थान को प्रप्त किया। उसके बाद अन्तिम केवलो श्री जंबुस्वामी भी श्री वीर। भगवान के शासन में अग्रणी होकर बहुत वर्षों तक भकजनों को धर्म संबंधी उपदेश दिया और अंत में मोक्ष प्राप्त किया। .१० सुधर्मा गणधर से जंबूस्वामी के प्रश्नोत्तर तेणं कालेणं तेणं समएणं अज्ज सुहम्मस्स अणगास्स जेट्टे अंतेवासी अजजंबू णामं अणगारे कासवगोत्तेणं सत्र सेहेजाव अज्जसुहम्मस्स थेरस्स अदूरसामंते उड्ढं जाणू अहोसिरे झाणकोट्ठोवगए संजमेणं तवस्सा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ ।।६।। -नाया० श्रु १/अ६ उस समय सुधर्मा अनगार के ज्येष्ठ शिष्य काश्यपगोत्रोत्पन्न आर्य जंबू अपने गुरु के न बहुत दूर, न बहुत समीप, ऊर्ध्व जानू , प्रणत मस्तक, धर्मध्यान व शुद्ध ध्यानरूपी कोप्ठ में अवस्थित, संयम और तपस्या से अपने को प्रभावित करते हुए उपस्थित थे। Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ वर्धमान जीवन-कोश .११ भगवान महावीर के पट्टधर-सुधर्म गणधर (क) समणस्सणं भगवओ महावीरस्स कासवगोत्तस्स अजमुहम्मे थेरे अंतेवासी अग्गिवेसायणगोते । -कप्प० सू० २०५ काश्यप गोत्रीय श्रमण भगवान महावीर के अंतेवासी आर्य सुधर्मा स्थविर अग्निवश्यायन गोत्रीय थे। श्वेताम्बर मवानुसार गौतम के निर्वाण के पश्चात् आठ वर्ष तक वे केवल ज्ञानी रूप में रहे। दिगम्बर परंपरा में उनका केवल ज्ञान-काल दस वर्ष का माना जाता है। (ख) जादो सिद्धो वीरो तद्दिवसे गोदमो परमणाणी। जादे तस्सिं सिद्धे सुधम्मसामी तदो जादो ॥१४७६।। तम्मि कदकम्मणासे जबूसामि त्ति केवली जादो। तत्थवि सिद्धिपवण्णे केवलिणो णस्थि अणुवद्धा ।।१४७७।। बासट्ठी वासाणिं गोदम पहुदीण णाणवंताणं। धम्मपयट्टणकाले परिमाणं पिंडरूपेणं ॥ १४७८ ।। -तिलोप० अधि । जिस दिन भगवान् सिद्ध अवस्था को प्राप्त हए, गौतम को परम ज्ञान या सर्वज्ञत्व प्राप्त हुआ। गौतम के निर्वाण-प्राप्त कर लेने पर सुधर्मा सर्वज्ञ हुए। सुधर्मा द्वारा समस्त कर्मों का उच्छेद कर दिये जाने पर या वैसा कर मुक्त हो जाने पर जंबू स्वामी को सर्वज्ञत्व लाभ हुआ। जंबू स्वामी के सिद्ध प्राप्त हो जाने के पश्चात् सर्वज्ञों को अनुक्रमिक परंपरा विलुप्त हो गयी। गौतम प्रभृति ज्ञानियों के धर्म-प्रवर्तन का समय पिड रूप में सम्मिलित रूप में बासठ वर्ष का है। (ग) समणस्स णं भगवओ महावीरस्स कामवगोत्तस्स अन्जसुहम्मे थेरे अंतेवासी अग्गिवेसायणसगोत्त। थेग्स्स णं अन्जसुहमल्स अग्गिवेसायणसगोत्तस्स अज्जजंबुनाम थेरे अतेवासीकासवगोत्ते : थेस्स्स णं अजजंबुनामस्सकासवगोत्तरस अज्जप्पभवे थेरेअतवासी कच्चायणसगोत्ते । थेरस्स णं अज्जप्पभवस्स कच्चायणसगोत्तस्स अन्नसंजभवे थेरे अंतवासी मणगपिया वच्छसगोत्ते। थेरस्स णं अज्जसेज्जभवस्स मणगपिउणो वच्छसगोत्तम्स अजसभद्दे थरे अंतेवासी तुंगियायणसगोत्ते x x x । -कप्प० सू २०५/ पृ० ६१ १-श्रमण भगवान् महावीर, काश्यप गोत्री थे। काश्यप गोत्री श्रमण भगवान महावीर के अग्निवैशायन गोत्री स्थावर आर्य सुधर्मा नामक अंतेवासी-शिष्य थे। २-अग्निवैशायन गोत्री आर्य सुधर्मा के काश्यपगोत्री स्थविर आर्य जंबू नामक अंतेवासी थे। । :-काश्यप गोत्री स्थविर आर्य जंबू के कात्यायन गोत्री स्थविर आर्य प्रभव नामक अंतेवासी थे .... ४-कात्यायन गोत्री स्थविर आर्य प्रभव को वात्स्यगोत्री स्थविर आर्य सिज्जभव नामक अंतेवासी थे. आर्य सिजंभव (स्वयंभव ) मनक के पिता थे। Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश २५७ ५-मनक के पिता और वात्स्य गोत्री स्थविर आर्य सिज्जंभव (शय्यम्भव) के तुंगियायन गोत्रो स्थविर जसभद्र (यशोभद्र) नामक अंतेवासी थे। मोट-[ तिलोयपण्णत्तिकार ने गौतम, सुधर्मा और जंबू के केवल्यावस्था के समय को धर्म-प्रवर्तन काल शब्द से संज्ञित किया है। इसके अनुसार गौतम के बारह वर्ष, सुधर्मा के बारह वर्ष तथा जंबू के अड़तीस वर्ष कुल बामठ वर्ष होते हैं । ] (छ) सिरिजिणनिव्वाणगमणरयणीए उज्जोणीए चंडपज्जोअमरणे पालओ रायाअहिसित्तो। तेणं य अपुत्त उदाइमरणे कोणिअरज्जं पाडलिपुरं पिअट्ठिअं। तस्स य वरिसं ६० रज्जे-गोयम १२, सुहम्म ८, जम्बू ४४ जुगप्पहाणा । –सिरिदुसमाकाल समण संघथयं-अवचूरिः८०॥ श्रीजिन भगवान महावीर के निर्वाज-गमनकी रात्रि में उज्जयिनी में चंडप्रद्योतका मरण होने पर पालक राजा के रूप में अभिसिक्त हुआ। पाटलिपुत्र के राजा उदायी के निष्पुत्र रूप में मरणगत हो जाने पर उसने कोणिक (अजातशत्र ) का पाटलिपुत्र का राज्य भी अधिकृत कर लिया। उसके साठ वर्ष के राज्यकाल में गौतम १२ वर्ष, सुधर्मा ८ वर्ष तथा जंबू ४४ वर्ष तक युगप्रधान रहे। . नोट-आर्य सुधर्मा का जन्म ई० पू० ६०७ में हुआ था। जबकि भगवान महावीर का जन्म ई० पू० ५९६ में हुआ था। अतः भगवान महावीर से सुधर्मा आर्य आठ वर्ष बड़े थे। इन्द्रभूति गौतम का भी जन्म ई० पू० ६०७ में हुआ था। सुधर्मा ५० वर्ष को आयु तक गृहस्थ-पर्याय में रहे। ३० वर्ष साधु-पर्याय में रहे। भगवान् महावीर के निर्वाण और गौतम के केवली होने पर गौतम के जीवनकाल में वे १२ वर्ष असर्वज्ञ रूप में संघ के अधिनायक रहे। जिस दिन गौतम का निर्वाण हुआ सुधर्मा को केवल ज्ञान प्राप्त हुआ। उनका आठ वर्ष का केवलिकाल है। अतः इस अवधि में केवली के रूप में संघनायक रहे। तत्त्वतः केवलो पट्टासीन नहीं होते। केवली के पट्टधर केवली आसीन हों, तो द्वादशांग रूप ज्ञान का परम्परा प्राप्त शृखलागत स्रोत यथावत् नहीं रह पाता। अतः भगवान् महावीर के पट्टधर गौतम नहीं थे परन्तु सुधर्मा गणधर थे। क्लिोयपण्णत्तो में गौतम, सुधर्मा और जंबू का केवलिकाल ६२ वर्ष बताया गया है। अपभूश जंबूसामि चरिउ के लेखक और कवि ने जंबूस्वामी के दीक्षित होने के अठारह वर्ष पश्चात् माघ शुक्ला सप्तमी को प्रातः आर्य सुधर्मा मोक्षगामी हुए। सुधर्मा के निर्वाण के अठारह वर्ष बाद जंबू का मोक्ष हुआ। .१२ सुधर्म गणधर का मासिक अनशन में परिनिर्वाण(क) इंदभूई सुहम्मो अ रायगिहे निव्वुए वीरे। -आव० निगा ६५८ सुधर्मा गणधर का परिनिर्वाण राजगृह नगर में हुआ। Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन - कोश (ख) ( एक्कारस वि गणहरा ) रायगिहे नयरे मासिएणं भत्तिएण अपाणएणं कालगया जाम सव्वदुक्खप्पहीण्णा | २५८ —कप्प० सू २०३ सुधर्मा गणधर - राजगृह नगर में एक मास तक बिना जल के अनशन करके कालधर्म को प्राप्त हुए या सर्वदुःखों का अंत किया । • १३ सुधर्मा गणधर की निर्वाणभूमि परिनिव्वुया गणहरा जीवंते नायए नव जणाउ । इदभूई सुहम्मो अ रायगिहे निव्वुए वीरे ॥ - आव० निगा ६५ सुधर्मा का निर्वाण मगध की राजधानी राजगृह में हुआ । नोट- सुधर्मा गणधर ५० वर्ष गृहस्थ जीवन + ३० वर्ष साधु-जीवन + १२ वर्ष असर्वज्ञ रूप में संघप्रधान तथा ८ सर्वज्ञ रूप में संघप्रधान कुल १०० वर्ष का वयोमान होता है । दिगम्बर-परम्परा इससे कुछ भिन्न हैं वहाँ इनका केवलि-काल बारह वर्ष माना जाता है । जंबूसामि चरिउ के रचयिता वीर कवि ( ११वीं शती) ने सुधर्मा के १८ वर्ष तक केवल के रूप में रहने उल्लेख किया है। . १४ सुधर्म गणधर की श्रुत-साधना सव्वे एए समणस्स भगवओ महावीरस्स एक्कारस वि गणहरा दुवालसंगिणो चोद्दस पुव्विणे समत्तगणिपिउगधरा । -- कप्प० सू २३ सुधर्मा गणधर द्वादशांग - वेत्ता, चतुर्दशपूर्वी तथा समस्त गणिपिटक के धारक थे । • १५ आर्य सुधर्मा की अपत्य परम्परा या वंशपरंपरा जे इमे अज्जत्ताते समणा निग्गंथा विहरंति एएणं सव्वे अज्जसुहम्मस्स अणगारस्स आवशि अवसेसा गणहरा निरवच्चा वोच्छिन्ना । - कप्प० सू २ श्रमण भगवान् महावीर की उत्तरवर्ती श्रमण परम्परा के अधिनायक आर्य सुधर्मा हुए; इसलिए आगे की सा परम्परा आर्य सुधर्मा की ( धर्म ) अपत्य परम्परा या ( धर्म ) वंश परंपरा कही जाती है । अस्तु जो आज श्रमण-निर्ग्रन्थ विद्यमान है, वे सभी अनगार आयं सुधर्मा की अपत्य परम्परा के हैं, क्योिं और सभी गणधर निरपत्य रूप में निर्वाण को प्राप्त हुए । • १६ सुधर्मा के पट्टधर- जंबूस्वामी जंबूस्वामी - एक विवेचन- . १ तेणं कालेणं तेणं समएणं अज्जसुहम्मस्स अणगाररस जेट्ठ अंतेवासी अज्जजंबूणामं अणगादे कासवगोत्तेणं सत्तुस्सेहे जाव अज्जसुहम्मस्स थेरस्स अदूरसामंते उड्ढजाणू अहोसिरे झाणकोट्ठोवग संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति ॥ ६ ॥ -नाया० श्रु १ अ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन - कोश २५६ उस काल उस समय में आर्य सुधर्मा अनगार के ज्येष्ठ शिष्य आर्य जंबू नामक अनगार थे । जो काश्यप गोत्रीय और सात हाथ ऊँचे शरीरवाले यावत् आर्य सुधर्मा स्थविर से न बहुत दूर, न बहुत समीप अर्थात् उचित स्थान पर, ऊपर घुटने और नीचा मस्तक रखकर, ध्यानरूपी कोष्ठ में स्थित होकर संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरते थे । • २ जंबू स्वामी : तद्दिवसे चे जंबू सामिभडरओ विट्ठु (विष्णु) आइरियादीणमणेयाणं वक्खाणिददुवालसंगो कंवली जादो । सोवि अट्ठत्तीसवासाणि ३८ केवलविहारेण विहरिदूण णिव्वुई गदो । एसो एत्थोसप्पिणीए अंतिम केवली । - कसापा० /गा १/ टीका / भाग १ / १०८४-८५ जिस दिन सुधर्मा स्वामी मोक्ष पधारे उसी दिन जंबू स्वामी भट्टारक विष्णु आचार्य आदि अनेक ऋषिगण द्वादशांग की व्याख्या करके केवली हुए । वे जंबू स्वामी भी अड़तीस वर्ष तक केवली विहार रूप से विहार करके मोक्ष को प्राप्त हुए। ये जंबू स्वामी इस भरत क्षेत्र सम्बन्धी अवसर्पिणीकाल में पुरुष परम्परा की अपेक्षा अंतिम केवली हुए हैं। •३ जंबू जाव पज्जुवासति पठित जाव - यावत् पद से जंबू णामं अणगारे कासवगोत्तेणं सत्तुस्सेहे समचउरंससंठाणसंठिए वज्जरिसहनारायसंघयणे कणगलगणिघसपम्हगोरे उग्गतवे दित्ततवे तत्ततवे महातवे ओराले घोरे घोरगुणे घोरतवस्सी घोरबंभचेरवासी ऊछूढसरीरे संखित्तविउलतेउलेसे चोहसपुव्वी चउणाणोवगए सव्वक्खरसन्निवाई अज्जसुहम्मस्स थेरस्स अदूरसामंते उड्ढजाणू अहोसिरे झाणकोट्ठोवगते संजमेणं तवसा अप्पाणं भवेमाणे विहरति । ततेणं अज्ज जम्बू णामं अणगारे जायसड्ढे जायसंसए जायकोउहल्ले, संजायसंसए संजाय - कोउहल्ले, उप्पन्नसड्ढे उप्पन्नसंसए उप्पन्नकोउहल्ले, समुप्पन्नसड्ढे समुप्पन्नसंसए समुप्पन्नको उहल्ले उठाए उट्ठेति उट्टाए उट्ठेत्ता जेणामेव अज्जसुहम्मे xxx । - विवा० श्रु २/अ १ / सू १ आर्य जम्ब अणगार आर्य सुधर्मा स्वामी के पास संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विहरण कर रहे थे, जो कि काश्यप गोत्र वाले हैं, जिनका शरीर सात हाथ प्रमाण का है, जो पालथी मारकर बैठने पर शरीर की ऊँचाई और चौड़ाई बराबर हो — ऐसे संस्थान वाले हैं, जिनका वज्रर्षभनाराच संहनन है, जो सोने की रेखा के समान और पद्मराग (कमलरज) के समान वर्णवाले हैं, जो उग्रतपस्वी साधारण मनुष्य की कल्पना से अतीत को उग्र कहते हैं — ऐसे उग्र तप के करनेवाले, दीप्ततपस्वी — कर्मरूपी गहन वन को भस्म करने में समर्थ तप के करनेवाले, तप्ततपस्त्री -कर्म संताप के विनाशक तप के करनेवाले और महातपस्वी – स्वर्गादि की प्राप्ति की इच्छा बिना तप करने वाले हैं, जो उदार प्रधान हैं, जो आत्म शत्रुओं के विनष्ट करने में निर्भीक है, जो दूसरों के द्वारा दुष्प्राणो गुणा को Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० वर्धमान जीवन-कोश धारण करने वाले हैं । जो घोर-विशिष्ट तपस्वो है, जो दारुण भीषण ब्रह्मचर्य-व्रत के पालक हैं, जो शरीर पर ममत्व नहीं रख रहे हैं, जो तेजो लेश्या विशिष्ट तपोजन्य लब्धिविशेष, को संक्षिप्त किये हुए है। जो १४ पूर्वो के ज्ञाता है, जो मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनः पर्यवज्ञान-इनचारों ज्ञानों के धारक हैं, जिनको समस्त अक्षर संयोग का ज्ञान है । जिन्हों ने उत्कुष्टुक नामक आसन लगा रखा है, जो अधोमुख है। जो धर्म तथा शुक्ल ध्यान रूप कोष्ठक में प्रवेश किये हुए हैं अर्थात् जिस प्रकार कोष्ठक में धान्य सुरक्षित रहता है उसी प्रकार ध्यान रूपी कोष्ठक में प्रविष्ट हुए आत्मवृत्तियों को सुरक्षित रख रहे हैं। ४. सुधर्मा के पट्टधर जंबू स्वामी थे : सुहम्मं अग्गिवेसाणं, जम्बू नामे च कासवं । -नंदी० स्थविरावली, गा२५ सुधर्मा के पट्टधर आर्य जंबू स्वामी थे। .५ तम्मि कदकम्मणासे जंबू सामि त्ति केवली जादो । तत्थ वि सिद्धि पवण्णे केवलिणो णत्थि अणुबद्धा ।। -तिलोप० १४७७ जंबू स्वामी अन्तिम केवली थे। उनके निर्वाण के बाद अनुबद्ध केवली का विच्छेद हो गया। .१७ सुधर्म गणधर के पट्टधर जंबू के अनन्तर कतिपय विच्छेद : मण - परमोहि - पुलाए आहारग - खवग - उवसमे कप्पे। संजमतिय - केवलि - सिज्झणा य जंबूम्मि वोच्छिणा ।। -विशेभा० गा २५६३ जंबू अन्तिम केवली थे। प्रायः सभी जैन परम्पराए इस सम्बन्ध में एकमत हैं। जैन मान्यता के अनुसार जंबू के पश्चात् १-मनःपर्यव ज्ञान, २- परम अवधि ज्ञान, ३ –पुलाकलब्धि, ४-हारक शरीर, ५-उपसम श्रेणी, ६-क्षपक श्रेणी, ७-जिनकल्प साधना. ८-परिहार-विशुद्धि चारित्र, 8-सूक्ष्म-संपराय चारित्र, १० यथाख्यात चारित्र, ११-केवल-ज्ञान १२-मक्ष गमन का विच्छेद हो गया। नोट-तिलोयपण्णत्ती में गौतम, सुधर्मा और जंबू का केवलि-काल ६२ वर्ष का बताया गया है। प्रायः दिगम्बर परम्परा के सभी विद्वानों ने व श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार गौतम, सुधर्मा और जंबू के कैवल्य-काल को कुल संख्या ६४ वर्ष होती है। हियवत् थैरावली में वोर निर्वाणाब्द ७० में जंबू का निर्वाण सूचित किया है। उसके अनुसार गौतम, सुधर्मा और जंबू का सर्वज्ञावस्था का समय ७० वर्ष का होता है । .१८ सुधर्मा गणधर के बाद जंबू स्वामी आदि: सुहम्मं अग्गिवेसाणं, जम्बू नामं च कासवं । पभवं कच्चायणं वन्दे, वच्छ सिजंभवं तहा ।। -नंदी० स्थविरावली गा २५ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश २६१ थेरस्स णं अज्जसुहन्मस्स अग्गिवेसायणगोत्तस्स अज्जजंबुनामथेरे अंतेवासी कासवगुत्तेण । -कप्प० स्थविरावली अग्निवैश्यायन गोत्रोत्पन्न, स्थविर आर्य सुधर्मा के काश्यप गोत्रोत्पन्न आर्य जंबू नामक स्थविर अंतेवासी थे। आर्य सुधर्मा के पट्टधर आर्य जंबू थे। आर्य जंबू के जीवन का कालक्रम सामान्यतः निम्नांकित रूप में माना जाता है :१-जन्म : ई० पू० ५४३ २--दीक्षा : ई० पू० ५२७-१६ वर्ष की आयु में भगवान महावीर के निर्वाण के कुछ बाद । यद्यपि भगवान् महावीर का परिनिर्वाण ई० पू० ५२७ में हुआ था। परन्तु जंबू स्वामी की दीक्षा के समय भगवान् महावीर का परिनिर्वाण हो चुका था। ३-केवलझान : ई० पू० ५०७ ४-निर्वाण : ई० पू० ४६३ - सम्पूर्ण आयु ८० वर्ष । बुद्ध का परिनिर्वाण ई. पू. ५४४ में हुआ। नोट-कतिपय विद्वान् दिगम्बर-परम्परा के अनुसार वीर-निर्वाण के १२ वर्ष पश्चात् गौतम, उसके १२ वर्ष बाद सुधर्मा तथा उसके ४० वर्ष पश्चात् जंबू का मोक्ष मान्य किये हैं। इस प्रकार १२+१२+ ४० = वीर निर्वाण से जंबू-निर्वाण ६४ वर्ष होते हैं। श्वेताम्बर-परम्परा के अनुमार भी गौतम, सुधर्मा और जंबू के कैवल्य-काल की कुल संख्या ६४ वर्ष होती है। पर वह इस प्रकार है-गौतम का कैवल्य काल १२ वर्ष, सुधर्मा का कैवल्य काल ८ वर्ष तथा जंबू का कैवल्य काल ४४ वर्ष = कुल ६४ वर्ष । .१६ भगवान के परिनिर्वाण के पश्चात् सुधर्मा स्वामी चंपा नगरी में : __ तेणं कालेणं तेणं समएणं अज्जसुहम्मे थेरे जाव पंचहिं अणगार सएहिं सद्धिं संपरिवुडे पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे सुहंसुहेणं विहरमाणे जेणेव चंपा गयरी जेणेव पुण्णभद्दे चेइए तेणेव समोसरिए। परिसा णिग्गया जाव पडिगया। -अंत० व १/अ १ उस काल उस समय में स्थविर सुधर्मा स्वामी पांच सौ अनगारों के साथ तीर्थङ्कर भगवान की परम्परा के अनुसार विचरते हुए एवं ग्रामानुग्राम अर्थात् एक ग्राम से दूसरे ग्राम अनुक्रम से विहार करते हुए चम्पानगरो के पूर्णभद्र नामक उद्यान में पधारे । आर्य सुधर्मा स्वामी के आगमन को सुनकर परिषद् अर्थात् नगर निवासी लोगों का समुदाय रूप सभा, उन्हें वंदन करने के लिए एवं धर्मकथा सुनने के लिए अपने-अपने घर से निकल कर वहाँ पहुँची और वंदन करके एवं धर्मकथा सुनकर वापस लौट गयी। Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश .२० सुधर्मा गणधर के विहार (भगवान् महावीर के परिनिर्वाण के बाद ) तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नगरे गुणसिलए चेइए, सुहम्मे समोसढे । -विवा० श्रु २/अ१ उस काल उस समय में सुधर्म गणधर राजगृह नगर पधारे । .४५ षष्टम् मंडित गणधर : .१ मंडित-मंडिक गणधर का भगवान के पास आगमन : ___(क) ते पव्वइए सोउ मंडित आगच्छई जिणसगासे । वच्चामि णं वंदामि वंदित्ता पज्जुवासामि ॥६१८।। मलव टोका-तान-इन्दुभूतिप्रमुखान् प्रत्रजितान् श्रुत्वा मण्डिकः षष्ठो गणधरो जिनसकाशं भगवत्समीपमागच्छति, किं भूतेनाध्यवसाये नेत्याह-वच्चामि णेत्यादि पश्चाद्धं पूर्ववत् । स च भगवत्समीपगत्वा भुवननाथं प्रणभ्य प्रमुदितस्तदग्रतस्तस्थौ, अत्रान्तरेआभट्ठो य जिणेणं जाइजरामरण विप्पमुक्केणं । नामेण य गोत्तेण य सव्वण्णूसव्वदरिसीण ॥६१६॥ मलय टीका-व्याख्या पूर्ववत् ( x x x नाम्ना हे मण्डिके ! इत्येवंरूपेण तथा गोत्रेण च-यथा हे वशिष्ठगोत्र ! किं विशिष्ठेन जिनेनेत्याह-सर्वज्ञेन सर्वदर्शिना x x x) किं मन्ने बन्धमोक्खो अत्थी नत्थोत्ति संसओ तुज्झ । वेयपयाण य अत्थं न याणसी तेसिमो अत्थो ॥६२०।। मलय टीका- किं मन्यसे बन्धमोक्षौ स्तो न वा स्त इति, नन्वयमनुचितः तव संशयः, व्याख्यान्तरं पूर्ववत् , यतोऽयं तव संशयो विरुद्धवेदपदश्रुतिसमुत्थो वर्तते, तानि च वेदपदान्यमूनि-"सएष विगुणो विभुः न बध्यते संसरति वा न मुच्यते मोचयति वा, नवा एष बाह्यमाभ्यंतरं वा वेद" इत्यादीनि “न ह वै सशरीरस्य प्रियाप्रिययोरपहतिरस्ति, अशरीरं वा वसन्तं प्रियाप्रिये न स्पृशत” इत्यादीनि च, एतेषां च वेदपदानामयमर्थस्तव चेतसि प्रतिभासते स एषः-अधिकृतो जीवो विगुणः सत्त्वादिगुणरहितो विभुः-सर्वगतः न बध्यते, पुण्यपापाभ्यां न युज्यते इत्यर्थः, संसरति वा, नेत्यनुवर्तते, न मुच्यते न कर्मणा वियुज्यते, बन्धाभावात् , नाप्यन्यं मोचयति, क्रियारहितत्वात् , अनेनाकर्तृत्वमावेदयति, न वा एष बाह्यम् xxx तथाहि-काञ्चनोपलयोः संयोगोऽनादिसन्ततिगतोऽपि क्षारमृत्पुटपाकादिद्रव्यसंयोगोपायतो विघटमानको दृष्टस्तथा जीवकर्मणोरपि ज्ञानदर्शनचारित्रोपायतो वियोग इति न कश्चिद्दोषः ।xxx। Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन - कोश २६३ तथाहि—संसारिजीवः कषायादियुक्तः कषायादियुक्तश्च कर्म्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते इति तस्य कर्म्मबन्धोपपत्तिः, मुक्तस्तु कषायादिपरिणामविकलः, शुक्लध्यानमाहात्म्यतस्तेषां समूलमुन्मूलितत्वात् । ततो मुक्त्यवस्थायां कर्म्मबन्धाप्रसङ्गः न च वाच्यम्एवं सतितर्हि निरन्तरं मुक्तिगमनतो भव्यानामुच्छेदप्रसङ्गः, अनन्तानन्तसंख्योपेतत्वात् इह यदनन्तानन्तसंख्योपेतं तत्प्रतिसममेकद्विव्यादिसंख्ययाऽपगच्छदपि न कदाचन निर्लेपी भवति, यथाऽनागतकालः, तथा च अनन्तानन्तसंख्योपेता भव्या इत्यनुच्छेदः, अथ सिद्धा अप्यनन्तास्तेषामपि प्रवाहतोऽनादित्वात्ततः कथं तेषां तावत्संख्याकानां परिमितक्षेत्रेऽवस्थानाविरोधः, उच्यते, अमूर्त्तत्वात् तथा ह्यमूर्त्तानां प्रतिद्रव्यमनन्तानां केवलज्ञानदर्शनानां सम्पातोऽस्ति न च विरोध इति, " छिन्नंमि संसयम्मी जाजरामरणविप्प मुक्केण । सो समणो पव्वइओ अद्भुदुहिं सह खण्डियसएहिं |६२१|| टोका - व्याख्या पूर्ववत्, नवरम अर्द्ध चतुर्थेरिति - सार्द्धं स्त्रिभिः सह खण्डिकशतैरिति । - आव० निगा ६१६ से ६२१ (ख) मंडिकोऽपि जगामाऽथ स्वामिनं संशयच्छिदे । स्वाम्यप्युवाच तं बंधमोक्षयोस्तव संशयः ॥ १३१ ॥ तदसद्बन्धमोक्षौ हि प्रसिद्धौ तत्र चात्मनः । मिथ्यात्वादिकृतः कर्मसंबंधो बंध उच्यते ॥१३२॥ रज्जुबद्ध इव श्वभ्रतिर्यग्गृसुरभूमिषु । दुःखं तेनानुभवति प्राणी परमदारुणम् ॥१३३॥ ज्ञानदर्शनचारित्रप्रमुखैर्हेतुभिस्तु यः । वियोगः कर्मणां ज्ञेयः स मोक्षोऽनन्तशर्मदः ॥ १३४ ॥ अप्यनादिमिथः सिद्धयोगानां जीवकर्मणाम् । ज्ञानादिना स्याद्वियोगोऽग्निना स्वर्णाऽश्मनामिव ॥ १३५॥ इति स्वामिगिराच्छिन्नसंशयो मंडिकोऽपि हि । सार्धत्रिशत्या शिष्याणां सहितो व्रतमाददे ||१३६|| त्रिशलाका० पर्व १० / सर्ग ५ " इसके पश्चात् स्वयं को संशय को नष्ट करने के लिए मंडिक विप्र भगवान् के पास आया। उसने भगवान् को कहा कि—' तुम्हें बंध और मोक्ष के विषय में संशय है । परन्तु बंध और मोक्ष आत्मा को होता है - यह बात प्रसिद्ध है। मिथ्यात्वादि के द्वारा कृतकर्मो का जो सम्बन्ध है वह बंध कहा जाता है । उस बंध के साथ प्राणी रस्सी के साथ बंधे हुए की तरह नरक, तियंच, मनुष्य और देवरूप चार गति में परिभ्रमण करता हुआ प्राणो परम दारुण दुःख का अनुभव करता है । ज्ञान, दर्शन और चारित्र प्रमुख कर्म का वियोग होता है उसे मोक्ष कहा जाता है : मोक्ष के द्वारा प्राणी को अनन्त सुख की चूंकि जीव और कर्म का परस्पर संयोग अनादि सिद्ध है । देखा जाता है कि अग्नि से सुवर्ण और पाषाण अलग-अलग हो जाते हैं उसी प्रकार ज्ञानादिक से जीव और कर्म का वियोग हो जाता है ।" हेतु के कारण जो उपलब्धि होती है। इस प्रकार के भगवान् के वचनों से उसका संशय नष्ट हो गया । फलस्वरूप ३५० शिष्यों के साथ मंडिक ने भगवान् से पंच महाव्रत रूप दीक्षा ग्रहण की Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ • २ मंडित के माता-पिता के नाम : (क) धणदेव - विजय- देवाइ नंदणो जयइ मंडिओ ट्ठो सीईवरसाऊ मोरियदेसुब्भवो भयवं । — धर्मोप० पृ० २२७ मंडित के माता का नाम विजया, पिता का नाम धनदेव था । जन्मस्थान मौर्यसन्नि वेश था। तिरासी वर्ष की आयु थी । वर्धमान जीवन - कोश (ख) धनदेवश्च मौर्यश्च मौर्याख्ये सन्निवेशने । द्वावभूतां द्विजन्मानौ पत्न्यां विजयदेवायां धनदेवस्य नन्दनः । मंडिकोऽभूत्तत्र जाते .४ मंडित पुत्र की आयु : मौर्यग्राम में धनदेव और मौर्य - दो विप्र थे । जो परस्पर मासी के पुत्र - भाई थे । उनमें धनदेव के विजय नाम की पत्नी से मंडिक नामक एक पुत्र था । अस्तु मेंडिक के जन्म होते ही धनदेव मृत्यु को प्राप्त हुआ । . ३ मंडित गणधर की श्रमण-पर्याय : थेरेणं मंडियपुत्ते तीसं वासाईं सामण्णपरियायं पाउणित्ता सिद्धे बुद्धे मुत्ते अंतगडे परिणिवुडे दुखणे | - सम० सम० ३० / सू १ स्थविर मंडित पुत्र तीस वर्ष की श्रमण- पर्याय का पालन कर सिद्ध हुए यावत् सर्वदुःख से रहित हुए । मातृष्वस्त्र यकौ मिथः || ५२|| धनदेवो व्यपद्यतः ॥ ५३॥ - त्रिशलाका० पर्व १० / सर्ग ५ थेरेणं मंडियपुत्ते तेसीइं वासाईं सव्वाउयं पालइत्ता सिद्धे जाव प्पहीणे । -सम० सम ८३ टीका - तथा स्थविरो मंडितपुत्रो - महावीरस्य षष्ठो गणधरः तस्य च व्यशीतिर्वर्षाणि सर्वायुः, कथं ? त्रिपंचाशद्गृहस्थपर्याये चतुर्दशछद्मस्थपर्याये षोडश केवलित्वे इत्येवं त्र्यशीतिरिति । .५ परिनिर्वाण के समय तप : स्थविर मंडितपुत्र भगवान के छट्ट गणधर थे। उनकी सर्वायु तेरासी वर्ष को थी — जिसमें त्रेपन वर्ष गृहस्थपर्याय, चतुर्दश वर्ष छद्मस्थ दीक्षापर्याय व सोलह वर्ष केवलिपर्याय थी । (क) मासं पाओवगया × × × । मंडितपुत्र के परिनिर्वाण के समय पादोपगमन संथारा एक मास का था । (ख) सब्वे एए समणस्स भगवओ महावीरस्स एक्कारसवि गणहरा दुबालसंगिणो चौदसपुव्विणो समत्त गणिपिडगधरा गयगिहे नगरे मासिएणं भत्तेणं अपाणएणं काल गया जाव सव्वदुक्खप्पहीणा । -- कप्प० सू २०३ - आव० निगा ६५६ भगवान् महावीर के सभी गणधर - मंडितपुत्र गणधर द्वादशांगवेत्ता, चतुर्दशपूर्वो तथा समस्त गणिपिटक के धारक थे । राजगृह नगर में मासिक अनशनपूर्वक वे कालगत हुए, सर्वदुःख प्रहीण बने अर्थात् मुक्त हुए । Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश नोट :-पादो वृक्षस्य भूगतो मूलभागः, तस्येव अप्रकंपतया उपगतम-अवस्थानं यस्य स तथा। -जंबूद्वीपज्ञप्ति-वक्षस्कार ३, सू ७०/वृति पाद का अर्थ वृक्ष का जमीन में गड़ा हुआ जड़ का भाग है। उसकी तरह जिस ( गृहीत-अनशन ) व्यक्ति की अप्रकम्प स्थिति होती है। उसे पादोपगत कहा जाता है। पादपो वृक्षः उपशब्दश्चोपमेयोऽपि सादृश्येऽपि दृश्यते। ततश्च पादपमुपगच्छति सादृश्येन प्राप्नोतीति पादपोपगमनम पादपवन्निश्चले। -धर्म संग्रहसटीक, अधि/३ सर्वथा परिस्पन्दवर्जिते चतुर्विधाहारत्यागनिष्पन्ने अनशनभेदे । -पंचाशक टीका-विवरण १६ पादपस्येवोपगमनमस्पन्दतयावस्थानं पादपोपगमनम् भग० श २५/उ ७/टीका आमरण अनशन-प्राप्त साधक, जिसमें पादपवृक्ष की तरह परिस्पदन-कम्पन आदि से सर्वथा रहित कहा जाता है-वह पादपोपगमन अनशन कहा जाता है। .४६ सप्तम मौर्यपुत्र गणधर १ मौर्यपत्र का श्रमण भगवान महावीर के पास आगमन(क) ते पव्वइए सोउं, मोरिअ आगच्छई जिणसगासं । वञ्चामि ण वंदामी वंदित्ता पज्जुवासामि ॥६२२॥ मलय टीका-व्याख्या पूर्ववत्, नवरमिह मौर्य अगच्छति जिनसकाशमिति नानात्वम्। ___ आभट्ठो य जिणेणं जाइजरामरणविप्पमुक्केणं । नामेण य गोत्तेण य सम्वन्नूसव्वदरिसीण ॥६२३॥ टोका-अस्याअपि सपातनिका व्याख्या पूर्ववत् । किं मन्ने अस्थि देवा उआहु नत्थीत्ति संसओ तुज्झं । वेयपयाण य अत्थं न याणसी तेसिमो अत्थो ।।६२४॥ टीका--किं सन्ति देवा उत न सन्तीति मन्यसे, व्याख्यान्तरं प्राग्वत् , अयं च संशयस्तव विरुद्धवेदपदश्रुतिप्रभवो वर्तते, तानि चामूनि वेदपदानि __ "स एष यज्ञायुधी यजमानोऽज्जसा स्वर्गलोकं गच्छती।" त्यादीनि, तथा "अपाम सोमं अमृता अभूम अगमज्योतिर्विदाम देवान किं नूनमस्मातृणवदरातिः किमु धूर्तिरमृतः मत्यस्ये" त्यादीनि xxx ये पुनर्देवास्ते स्वच्छन्दचारिणः कामरूपिणः प्रकृष्टदिव्यप्रभावा इहागमनसामर्थ्यवन्तस्ततः किमितीह नागच्छन्ति येन न दृश्यन्ते इति, तस्मात्ते न सन्त्यस्मदाद्यप्रत्यक्षत्वात् खरविषाणवदिति x x x देवा अपि हि स्वकृतभोगफलकर्मपर्यन्ते विनश्वराः, किं पुनः शेषर्द्धिसमुदाया इत्यनित्यत्वभावनाप्रतिपादकमिदं वाक्यं न तु देवसत्तानिषेधकमिति, तथा स्वच्छन्दचारिणोऽप्यमी यदिह नागच्छन्ति तत्रेदं Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश कारणं--नागच्छन्तीह सदैव सुरगणाः, संक्रान्तदिव्यप्रेमतया विषयप्रसक्तत्वात् , प्रकृष्टरूपगुणस्त्रीप्रसता विच्छिन्नरम्यदेशान्तरगतमनुष्यवत् , तथा असमाप्तकर्त्तव्यत्वात्, बहुकर्त्तव्यताप्रसाधनप्रयुक्तविनीतपुरुषका तथा अनधीनमनुजकार्यत्वात् नारकवत् अनभिमतगेहादौ निःसङ्गयतिवद्वति, अशुभत्वान् नरभवस्य तदा गन्धासहिष्णुतया नागच्छन्ति, कडेवरमिव हंसा इति, जिनजन्ममहिमादिषु पुनर्भक्तिविशेषात् भावान्तररागतश्च क्वचिदागच्छन्त्येव, तथा चैते साम्या भवतोऽपि प्रत्यक्षा एव, शेषकालमपि सामान्यतश्चन्द्रसूर्यादिविमानप्रत्यक्ष वात् तद्वासिसिद्धिति कृतंप्रसङ्गन, छिन्नंमि संसयंमी जाइजरामरणविप्पमुक्केण । सो समणो पव्वइओ अद्भुट्टहिं खंडियसएहिं ।।६२५॥ टीका-व्याख्या पूर्ववत् -आव निगा ६२२ से ६२॥ (ख) मौर्यपुत्रोऽपि संदेहच्छिदे स्वामिनमाययौ। स्वाम्युप्यूचे मौर्यपुत्र ! तव देवेषुसंशयः ॥१३७॥ स मिथ्या पश्य नन्वेतान् प्रत्यक्षमपि ना किनः । अस्मि । समवसरणे शक्रादीन स्वयमागतान ।।१३८॥ संगीतकादिवेयग्रयान्मर्त्यगंधाच्च दुःसहात्। नायान्ति शेषकालेऽमो तदभावो न तावता ।।१३६॥ अर्हज्जन्माभिषेकादावायान्ति यदमी भुवि। प्रभावः कारणं तत्र गरीयान श्रीमदह ताम ॥१४॥ इति स्वामिगिरा बुद्धौ मौर्यपुत्रोऽपि तत्क्षणम । परिवत्राज शिष्याणां साधं साधैः शतै स्त्रिभिः ॥१४१५ -त्रिशलाकां० पर्व १०/सर्ग ५ तत्पश्चात् स्वयं के संशय को दूर करने के लिए मौर्य पुत्र भगवान् के पास आया। भगवान् ने कहा-हैं मौर्यपुत्र ! तुमको देवों के विषय में सन्देह है। परन्तु यह मिथ्या है। इस समवशरण में स्वयं की इच्छा से आये हुए इन्द्रादिक देव प्रत्यक्ष है। शेष काल में संगोत कार्यादि की व्यग्रता से और मनुष्यलोक के दुःसह गन्ध के कारण वे देव यहाँ नहीं आते हैं-इस कारण उनका अभाव नहीं हो जाता। वे अरिहंत के जन्माभिषेक आदि अनेक प्रसंगों पर इस पृथ्वी पर आते हैं। इसका कारण श्रीमत् अरिहंत का अतिश्रेष्ठ प्रभाव है। इस प्रकार भगवान् की वाणो से मौर्य पुत्र भी तत्काल प्रतिबोध को प्राप्त हुभा और स्वयं के ३५० शिष्यों के साथ दीक्षा ग्रहण की। .२ मौर्यपुत्र के माता-पिता के नाम (क) मोरीए विजयदेवाए नंदणो घंचनऊय-वरिसाऊ। मोरियनिवेस-जाओ मोरियपुत्तो त्ति सत्तमओ॥ -धर्मोप० पृ० २२७ मौर्य पुत्र गणधर की माता का नाम विजयादेवी और पिता का नाम मौर्य था। जन्मस्थान-मौर्य सन्निवेश था। ६५ वर्ष की आयु थी। Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश (ख) धनदेवश्च मौर्यश्च मौर्यालये सन्निवेशने । द्वावभुतां द्विजन्मानौ मातृप्यायको मिथः ।।५।। पत्न्यां विजयदेवायां धनदेवस्य नन्दनः । मंडिकोऽभुत्तत्र जाते धनदेवो व्यपद्यत ।।५३।। लोकाचारो ह्यसौ तत्रेत्यभार्यों मौर्यकोऽकरोत् । भार्या विजयदेवां तां देशाचारो हि न ह्रिये ॥५४|| क्रमाद्विजयदेवायां मौर्यस्य तनयोऽभवत् । स च लोके मौर्यपुत्र इति नाम्नैव पप्रथे ॥५५॥ –त्रिशलाका० पर्व १०।सर्ग ५ मौर्य ग्राम में धनदेव और मौर्य दो विप्र थे जो परस्पर मासो के पुत्र-भाई थे। उसमें धनदेव के विजयदेवी नाम की पत्नी से मंडिक नामक एक पुत्र था। अस्तु मंडिक के जन्म होते ही धनदेव मृत्यु को प्राप्त हुआ। इसके बाद लोकाचार प्रमाण से-स्त्रीविनाका मौर्य का विजयदेवी के साथ विवाह हुआ। देशाचार लज्जा के लिए नहीं होता। कालक्रम से मौर्य से विजय देवी के एक पुत्र हुआ -- लोक में वह मौर्यपुत्र नाम से प्रसिद्ध हुआ। अतः मंडितपुत्र और मौर्यपुत्र की माता का नाम विजयदेवो था लेकिन मंडितपुत्र के पिता का नाम धनदेव था तथा मौर्यपुत्र के पिता का नाम मौर्य था। .३ दीक्षा के समय मौर्यपुत्र की अवस्था थेरेणं मोरियपुत्ते पणसट्ठिवासाई अगारमज्झे वसित्ता मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए । -सम० सम ६५ टीका-'मौरियपुत्ते णं' ति मौर्यपुत्रो भगवओ महावीरस्य सप्तमो गणधरस्तस्य पंचषष्टिवर्षाणि गृहस्थपर्यायः आवश्यकेऽप्येवमेवोक्तो, नवरमेतस्येव यो वृहत्तरो भ्राता मंडितपुत्राभिधानः षष्ठो गणधर: तद्दीक्षादिन एव प्रत्रजितस्तसावश्यके त्रिपंचाशद्वर्षाणि गृहस्थपर्याय उक्तो न च बोधविषयमुपगच्छति यतो बृहत्तरस्य पंचपष्ट्रियुज्यते लघुनरस्य त्रिपंचाशदिति । मौर्यपुत्र भगवान् महावीर के सातवें गणधर थे। गृहस्थपर्याय ६५ वर्ष की थी। आवश्यकसूत्न में भी ऐसा ही कहा है परन्तु इनसे जो बड़े भाई मंतडिपुत्र नाम के छ? गणधर थे। इनकी दीक्षा के दिन ही प्रवजित हुए। उनको गृहस्थपर्याय आवश्यकसूत्र में ५३ वर्ष की कही है। यह सम्यग् प्रकार घटित नहीं होती। अतः बड़े भाई मंडित की आयु ६५ वर्ष की तथा छोटे भाई मौर्यपुत्र की आयु ५३ वर्ष की होनी चाहिए। .४ मौर्यपुत्र का आयुष्य थेरेणं मोरिययुत्ते पंचाणउइवासाई सव्वाउयं पालइत्ता सिद्धे बुद्धे जाव पहीणे । -सम० सम ६५ स्थविर मौर्यपुत्र पचानवें वर्ष के आयुष्य का पालन कर सिद्ध हुए, बुद्ध हुए यावत् सर्व दुःखों से रहित हुए। मौर्य पुत्र भगवान् महावीर के सातवें गणधर थे। वे गृहस्थवास में ६५ वर्ष, छहमस्थ साधुपर्याय में १४ वर्ष नथा केवलीपर्याय में १६ वर्ष रहे। कुल ६५ की आयु थी। टीका-मौर्यपुत्रो महावीरस्य सप्तमगणधरस्तस्य पंचनवतिवर्षाणि सर्वायुः, कथं १, गृहस्थत्वछद्मस्थत्व केवलित्वेष कोण पंचपष्टिच दशपोडश.नां वर्षाणांयभावादिति। Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ .४७ अष्टम् अकंपित गणधर . १ अकम्पित गणधर का भगवान् महावीर के पास आगमन वर्धमान जीवन-कोश (क) ते पव्वइए सोउ अकंपिओ आगच्छइ जिणसगासं । वच्चामि ण वंदामी वंदित्ता पज्जुवासामि | ६२६ | मलय टीका - व्याख्या पूर्ववत्, नवरमत्राकम्पिक आगच्छति - जिनसकाशमिति नानात्वम् । आभट्ठो य जिणेणं जाइजरामरणविष्पमुक्केणं । नामेण य गोत्तेण य सव्वन्नूसव्वदरिसीण । ६२७| मलय टीका - अस्याः सपातनिका व्याख्या प्राग्वत् । किं मन्ने नेरइया अत्थी नत्थित्ति संसओ तुझं । वेयपयाण य अत्थं न याणसी तेसिमो अत्थो । ६२८ मलय टीका - नरान् स्वयोग्यान् कायन्ति शब्दयन्ति आकारयन्तीति नरकास्तेषु भवा नारकाते नारकाः किं सन्ति उत न सन्तीति मन्यसे, व्याख्यान्तरं प्राग्वत्, अयं च संशयस्तव विरुद्धपदश्रुतिसमुद्भवो वर्त्तते तानि चामूनि वेदपदानि -नारको वैएष जायते, यः शूद्रान्नमश्नाति, इत्यादि, अस्यायमर्थः - एषः ब्राह्मणो नारको जायते यः शूद्रान्नमश्नातीत्यादीनि किल वेदवाक्यानि नारक सत्ताप्रतिपादकानि, 'नह वै प्रेत्य नारकाः सन्ती' त्यादीनि तु नारकाभावप्रतिपादकानि, तथा सौम्यः त्वमित्थं मन्यसे - देवा हि चन्द्रादयस्तावत्प्रत्यक्षा एव, अन्येपि औपयाचितकादिफलदर्शनतोऽनुमानतोऽवगम्यन्ते, नाग् कास्त्वभिधानव्यतिरिक्तार्थशून्याः कथं प्रत्येतव्या इति तदभावः, तथा चात्र प्रयोगः-न सन्ति नारकाः साक्षादनुमानतो वाऽनुपलब्धेः व्योमकुसुमवन्, व्यतिरेके देवाः, तत्र 'वेदपदानां चे' त्यादि, तत्र वेदपदानामर्थं च शब्दादयुक्ति भावार्थं च न जानासि, यतस्तेषां वेदपदानामयमर्थः – ये खलु निरूपाधितपः संयमादिना उपचितपुण्यप्राग्भारास्ते न ह वै - - न प्रेत्य-परलोके नारकाः सन्ति- भवन्ति जायन्ते, तेपां स्वर्ग सत्कुलप्रत्यायातिपरम्परया केषाञ्चित्तद्भवेऽपि मोक्षगमनात्, ततो नामूनि नारकाभावप्रतिपादकानि वेदपदानि किन्तु पुण्यवतां नारकभवनप्रतिषेधकानीत्ययुक्तः संशयः, तथा सौम्यः ! ते नारकाः कर्म्मपदतन्त्रत्वादिहागन्तुमशक्ताः भवद्विधानामपि कर्म्मपरतन्त्रत्वादेव तत्र गमनशक्त्यभावः, ततो न युष्मादृशां तदुपलब्धिः क्षायिकज्ञानसम्पदुपेतानां तु वीतरागाणां ते प्रत्यक्षा एव, अपाम्त ममस्तावरणतया समस्तवस्तुज्ञानोपेनत्वात् न च वाच्यमशेपपदार्थविद एव क्षायिकज्ञा न सन्तीति, यतो ज्ञस्वभाव आत्मा केवलं यथा ज्ञानावरणीयस्य कर्मणः क्षयोपशमस्तथा तस्य रूपाविर्भावविशेषो दृश्यते । , तथा च कश्चिद्बहु जानाति कश्चिद्वहुतरमिति, न चायं ज्ञानविशेषः खल्वात्मनस्तत्स्वभावतामन्तरेणोपपद्यते, ततोऽवश्यमसौ ज्ञस्वभावः प्रतिपत्तव्यः, तस्य चाशेपावरणविलये समस्तज्ञेयपरिच्छेदकता ज्ञ स्वभावत्वात् तथा चास्मिन्नर्थे लौकिको दृष्टान्तो यथा पद्यरागादिरूपल विशेषो भास्वरस्वरूपोऽपि स्वगतलकलङ्काङ्कितस्तदा वस्त्वप्रकाशयन्नपि क्षारमृत्पुटपाकाद्युपायतः स्वगतमललेपापगमे प्रकाशयति, एवमात्मापि ज्ञवभावः कर्ममलकलङ्काङ्कितः प्रागशेषं वत्वनाशयन्नपि , Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन - कोश 9 सम्यक्त्वज्ञानऩपोविशेषसंयोगोपायतोऽपेनसमस्तावरणः समस्तं वस्तु प्रकाशयति, प्रतिबंधकाभावात् न चाप्रतिवद्धस्वभावस्यापि तस्य सर्वत्र प्रकाशनव्यापाराभावो, ज्ञस्वभावत्वात्, न हि ज्ञो ज्ञेये सति प्रतिबन्धशून्यो न प्रवर्त्तते, अथ पद्मरागोऽपि प्रकाशकस्वभावः, न चासौ प्रतिबंधाभावे सर्वं प्रकाशयति, ततस्तेनैवव्यभिचार इति, तदसम्यक् तस्य सन्निकृष्टार्थप्रकाशनस्वभावत्वाद् विप्रकृष्टविषये देशविप्रकर्षेणैव प्रतिबंधाभावात् न चात्मनोऽपि देशविप्रकर्षः परिच्छेदप्रतिबंधहेतुः, तस्यागमगम्पेषु सूक्ष्मव्यवहितविप्रकृष्टेष्वखिलपदार्थेष्वधिगतिसामर्थ्य दर्शनात्, तथा च परमाणुमूलकीलकोदकामरलोकचंद्रोपरागादिपरिच्छेदसामर्थ्य मस्यागमोपदेशतः क्षयोपशामवतोऽपि दृश्यते, एवं साक्षात्कारि क्षायिकमिति प्रतिपत्तव्यमिति । किज्ञानवतां प्रत्यक्षा नारकाः, भवतोऽप्यनु 2 मानगम्याः । तच्चेदमनुमानं – विद्यमानोत्कृष्टं प्रकृष्टपापफलं कर्मफलत्वात् पुण्यफलवत्, न च तियंड्रा एव प्रकृष्टपापफलभुजः, तस्यौदारिकशरीरवता वेदयितुमशक्यत्वात्, अनुत्तरसुरजन्मनिबन्धनप्रकृष्टपुण्यफलवत् तथा आगमप्रमाणगम्याश्चैते, यत एवमागमः - ‘सततानुबंधयुक्तं दुःखं नरकेषु तीव्रपरिणामम्। तिर्यक् तृष्णाभयक्षुद्वधादि दुःखं सुखं चाल्पम् |१| सुखे दुःखे मनुजानां मनःशरीराश्रये ब विकलने । सुखमेवतु देव नामल्पं दुःखं तु मनसिभवम् ॥२॥ इत्यादि, एव २६६ छिन्नंमि संसयंमी जाइजरामरणविष्यमुक्केणं । सो समणोपत्रइतो तिहिं तु सह खंडियएहिं । ६२५ मलय टीका - व्याख्या पूर्वव [, नवरमत्र नानात्वं त्रिभिः खण्डिकशतैरिति । - आव० नि० गा ६२६ से ६२६ (ख) ययावकंपितोऽपीशमीशोऽवोचदकं पितः । न सन्त्यदृश्यमानत्वान्नारका इति ते मतिः । १४२ | तदसन्नारकाः कामं पारतंत्र्यवशादिह । आगन्तुमक्षमा गन्तुं तत्र च त्वादृशा अपि ॥१४३॥ प्रत्यक्षं नोपलभ्यास्ते युक्तिगम्यां भवादृशाम् । प्रत्यक्षा एव ते सन्ति क्षायिकज्ञानिनां पुनः ॥ १४४ ॥ क्षायिकज्ञानिनोऽप्यत्र नोसन्तीति स्म मानवी । मयैव व्यभिचारोऽस्या आशंकायाः परिस्फुटः | १४५ । प्रतिबुद्धोऽकंपितः स्वामिनोऽन्तिके । उपाददे परिव्रज्यां त्रिभिः शिष्यशतैः समम् ॥१४६॥ - त्रिशलाका० पर्व १० | सर्ग ५ तत्पश्चात् अकंपित भी भगवान् के पास आया । भगवान् ने कहा कि - " प्रत्यक्ष में नहीं दिखाई देने सेनारकी का अस्तित्व नहीं है - यह तुम्हारी बुद्धि है परन्तु नारकी जीव है परन्तु अत्यन्त परवशता से वे यहाँ आने में समर्थ नहीं है । उसी प्रकार तुम्हारे जैसे सनुष्य वहाँ जाने में समर्थ नहीं है । नारकी जीव तुम्हारे द्वारा प्रत्यक्ष में दिखाई नहीं देते । छद्मस्थ जंवों को वे युक्ति गम्य है और जो क्षायिक ज्ञानी है वे प्रत्यक्ष से नारकी को देख सकते हैं । परन्तु वर्तमान में इस लोक में कोई भी व्यभिचार द्वारा ही स्फुट होता ही है । अर्थात् क्षायिक ज्ञानी नहीं है ऐसा कहना उचित नहीं है । क्योंकि उस शंका का क्षायिक - प्रत्यक्ष ज्ञानी हूँ । Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० वर्धमान जीवन-कोश भगवान् के ऐसे वचन को सुनकर संशय नष्ट होने से अकंपित प्रतिबोध को प्राप्त हुआ और ३०० शिष्यों के साथ भगवान् के पास दीक्षा ग्रहण की.२ अकंपित के माता पिता के नाम देव-जयन्तीण मुओ अकंपिओ नाम अट्ठमो जयइ । अट्ठत्तरिवरिसाऊ मिहिलाए समुब्भवो भगवं । -धर्मो० पृ० २२७ तथैव मिथिलापुर्या' देवनाम्नोद्विजन्मनः । अभूदकं पितो नाम जयन्तीकुक्षिजः सुतः ।।५६।। -त्रिशलाका पर्व १०सर्ग ५ अकंपित के माता-पिता का नाम क्रमशः जयन्ती और देव था। जन्मस्थान मिथिला था। अद्रत्तर वर्ष की आयु थी.३ अकंपित गणधर की आयु थेरे णं अकंपिए. अट्ठसत्तरिं वासाइंसव्वाउयं पालइत्ता सिद्धे बुद्धे मुत्ते अंतगई परिणिव्वुडे सव्वदुकावप्पहीणे -सम० सम ७८ सू२ टीका-अकम्पितः स्थविरो महावीरस्याष्टमो गणधरस्तस्य चाष्ट सप्ततिवर्षाणि सर्वायुः, कथं ? गृहस्थपर्याये अष्टचत्वारिंशन ,मस्थपय ये ना केवलिपय ये चेकविंशतिरिति .४८ नववे अचलभ्राता गणधर .१-अचलभ्राता का श्रमण भगवान महावीर के पास आगमन (क) ते पचहए सो उं अयलो आगच्छई जिणसगासं । वच्छामि ण वंदामी वंदित्ता पन्जुवासामि ।६३० -आव. निगा ६३० मलय टीका- व्याख्या पूर्ववत , नवरमचलभ्राता आगच्छति जिनसकाशमिति विशेषः । आभद्रो य जिणेणं जाइजशमरणविप्पमुक्केणं। नामेणय गोतेणय सचन्नमव्यदग्सिीण ।।६३१।। -आव० निगा ६३१ मलय टीका-अस्या सपातनिका व्याख्या पूर्ववत । किं मन्ने पुण्णपावं अत्थी नस्थित्ति संसओ तुज्झं । वेयपयाण य अत्थं न याणसी सिमो अत्थो।६३२॥ मलय टीका-किं पुप्यपापे स्तः किंवा नेति मन्यसे, व्याख्यान्तरं पूर्ववत् , अयं च संशय लव विद्धवेदपदश्रुतिप्रभवो दर्शनान्तरविरुद्धश्रुतिप्रभवश्च, तानि चामूनि वेदपदानि-पुरुप एवेदं ग्निं सर्व, मित्यादि, अस्य यथा द्वितीयगणधरवक्तव्यतायां व्याख्या तथाऽत्रापि, तथा सौम्य ! अचलभ्रातस्त्वमित्थं मन्यसे-दर्शनविप्रतिपत्तिश्चात्र, तत्र कंपांचिद्दर्शनं-पुण्यमेवैकमस्ति न पापं, तदेव चावाप्तप्रकर्षावस्थं स्वर्गायक्षीयमाणं मनुष्यतियेगनरका दिभवफत्ताय, तदशेपक्षयाञ्च मोक्ष इति, यथा अत्यन्तपथ्याहारसेवनादुत्कृष्टमारोग्यसुखं भवति, किञ्चित्पथ्याहारपग्विजनाच्चागेग्यसबहानि. अशेपाहार परिक्षयाच्च सुवाभावकल्पोऽपवर्गः, अन्येपां तु पापमेवैकं, न पुण्यमस्ति, तदेव चोत्त Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश मास्थामनुप्राप्तं नारकभवायालं, क्षीयमाणं तियरामरभवायेति तदत्यन्तक्षयाच्च मोक्ष इति, यथा अत्यन्तापथ्याहारसेवनात् परमनारोग्यं, तस्यैव किञ्चित्किञ्चिदपकर्पादारोग्यसुखं, अशेपपरित्यागान् मृतिकल्पो मोक्ष इति, अन्येषां तूभयमप्यन्योऽन्यानुविद्ध स्वरूपकल्पं सम्मिश्रसुखदुःखाख्यहेतुफलभूतं, तथाहि-नैकान्ततः किल संसारिणः सुखं दुःखं वाऽस्ति, देवानामपि चेष्य दियुक्त वात ,, नारकाणामपि वा, पंचेन्द्रियत्वानुभवात् , इत्थंभूतपुण्यपापाख्यवस्तुक्षयाच मोक्ष इति, अपरेपा तु स्वतन्त्रमुभयं विविक्तसुखदुःखकारणं, तत्क्षयाच्च निःश्रेयसावाप्तिरिति, तदेवंदर्शनानां परस्परविरुद्धत्वेनाप्रमाणदव्यादस्मिन् विपये प्रमाणाभाव इति । तथा 'पुप्य पुण्येने' त्यादिना प्रतिपादिता तत्सत्ता, ततः संशयः, तत्र वेदपदानां चार्थ, चशब्दात् युक्ति हृदयं च, न जानासि, यतस्तेषामयमर्थः, तत्र द्वितीयगणधरवक्तव्यतायां वेदपदानामर्थः स्वभावपक्षनिराकरणप्रवणोऽभिहितस्तथाऽत्र वक्तव्यः, सामान्यकर्मसिद्धिरपि तथैव वक्तव्या, यच्च दर्शनानामप्रमाण्यं परस्परविरुद्धत्वेन मन्यसे तदसाम्प्रतम , एकस्य प्रमाणत्वात् , तथाहि पाटलिपुत्रादिविविधस्वरूपाभिधायकाः सम्यक्स्वरूपाभिधायकयुक्ताः परस्परविरूद्धवचसोऽपि न सर्व एवाप्रमाणनां भजन्ते, तत्र यत्प्रमाणं तत् अपमाणनिरासद्वारेण प्रदर्शयिष्यामः, तत्र न नावत्पुण्यमेवापचीयमानं दुःखकारण, तस्य सु वहेतुत्वेनेष्टत्वात् , स्वल्पस्यापि स्वल्पसुवसाधकत्वात् , तथा चाणोयसो हेमपिण्डादणुरपि सौवर्ण एव घटोभवति, न मार्तिको राजतो वेति, न च पुण्याभावो दुःखहे स्तस्य निरूपाख्यनया हेतुत्वायोगात् , न च सुखाभाव एव स्वसत्ताविकलो दुःखं, तस्यानुभूयमानत्वात् , ततः स्वानुरूपकारणपूर्विका दुःखानुभूतिः, अनुभूतित्वित सुखानुभूतिवंदिति कंवलपुण्यवादनिरासः, केवलपापपक्षेऽपि इहमेवोपपत्तिजालं विपरीतं वक्तव्य, नापि मर्वथाऽन्योऽन्यानुविद्ध स्वरूपमुभयात्माकमेकं निरंशवन्त्वन्तरमभ्युपगन्तुं युक्त, सम्मिश्रसुखदुःखाख्यकार्यप्रसङ्गात् , अथ च परस्परपरिहारेण विविक्ते सुखदुःखे अनुभूयते, तथा स्वसंवेदनप्रमाणसिद्धत्वात् , अन्यञ्च --केवलसुखानुभव श्रूयतेऽनुत्तरसुराणां, केवल : वानुभवो नारकाणां, न च सर्वथा सम्मिश्रकरूपात्कारणादेवं विविक्तः कार्यभेदो युक्तः, तस्मादन्यदेव निमित्तं सुखातिशयम्यान्यदेव च दुःग्वातिशयस्य, न च सर्वथैकरूपस्य सुवातिशयनिबंधनांशवृद्धि ग्वातिशयकारणाशहान्या सुखातिशयप्रभवाय दुःखातिशय निवंधनांशवृद्धिः सुखातिशयकारणांशहान्या दुःग्वातिशयप्रभवायकल्पयितुं न्याय्या, भेदप्रसङ्गात् तथा च यद्वृद्धावपि यस्य वृद्धिन भवति तत्ततो भिन्न प्रतीतमेवेति सर्वथैकरूपता पुण्यपापयोर्न सङ्गता, कर्मसामान्यापेक्षायात्वविरुद्धाऽपि, तथा हिसातसम्यक्त्वहास्यरतिपुरुपवेदशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यमन्यत् पापं, सवं च तत् कर्मेति, तस्माद्विविक्त पुण्यपापे इति प्रत्तिपत्तव्यम , सर्वस्यापि च संसारिण एतदुभयमप्यस्ति, कंवलं किञ्चित् कस्यचिदुपशान्तं किञ्चित्ज्ञयोपशममुपगतं किञ्चित क्षीणं किञ्चिदीर्णं ततः सुखदुःखवैचित्र्यं जन्तृनामिति । Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश छिन्नंमि संसयंमी जाइजरामरणविमुक्केण । सो समणो पव्वइओ तीहिं उ सह खंडियसए हिं॥ -आव० निगा ६३० से ६३३ मलय टीका-व्याख्यापूर्ववत् (ख) अथाऽऽगादचलभ्राता प्रभु प्रभुरपि स्फुटम् । ऊचे तवाचलभ्रातः ! संदेहः पुण्यपापयोः ॥१४७॥ मा कृथाः संशयं तत्र यत्फलं पुण्यपापयो । प्रत्यक्षं दृश्यते लोके तथैव व्वहारतः ॥१४॥ दीर्घमायुः श्रियो रूपमारोग्यं जन्म सत्कुले । इत्यादि पुण्यस्यफलं विपरीतं तु पाप्मनः ॥१४॥ इत्थं भगवताच्छिन्नसंशयः समुपाददे। प्रव्रज्यामचलभ्राता त्रिभिः शिष्यशतःसह । १५०॥ -त्रिशलाका० पर्व १०सर्ग ५ तत्पश्चात् अचलभाता भगवान् के पास आया। भगवान् ने उसे स्फुट रूप से कहा-हे अचलभ्राता ! तुमको पूण्य और पाप के विषय में संदेह है। परन्तु तुम्हें उसमें किंचित् भी संदेह नहीं करना चाहिए। कोंकि इस लोक में पुण्य-पाप का फल प्रत्यक्ष जाना जाता है। उसी प्रकार व्यवहार से भी सिद्ध होता है। दीर्घआयुष्य, लक्ष्मी, रूप, आरोग्य और सत्कुल में जन्म-ये पुण्य के फल हैं। और इसके विपरीत पाप के फल है। इस प्रकार भगवान् की वाणी से अचलभाता का संशय नष्ट हो गया । फलस्वरूप ३०० शिष्यों के साथ अचलभाता ने भगवान् के पास दीक्षा ग्रहण की। .. अचलभ्राता-के माता-पिता के नाम (क) नंदा-वसूण तणओ गणहारी जयइ अयलग(भा) यत्ति। बावत्तरिवरिसाऊ कोसलदेसुब्भवो नवमो । -धर्मो० पृ० २२७ (ख) अभूच्च कोशलापुर्या वसुनाम्नो द्विजन्मनः। सूनुर्नाम्नाऽचलभ्राता नन्दाकुक्षिसमुद्भवः ।।५।। –त्रिशलाका० पर्व १०सर्ग ५ अचलभाता के माता-पिता का नाम क्रमशः नंदा और वसु था। कोशल देश-जन्म स्थान था। बहत्तर वर्ष की आयु थी। अचलभ्राता गणधर के शरीर का संहनन-संस्थान वज्जरिसहसंघयणा समचरंसा य संठाणे ॥ -आव० निगा ६५६ मलय टीका-सर्व एव गणधग x x x तथा वर्षभसंहननाः समचतुरस्राश्चसंस्थाने-संस्थानविषये। अचलभ्राता का दैहिक गठन वज्र-ऋषमनाराच संहनन तथा समचतुरस्र संस्थान था। .४ अचलभ्राता गणधर की आयु थेरेणं अयलमाया बावत्तरि वासाई सम्वाउयं पालइत्ता सिद्धे युद्धे मुत्ते अंतगडे परिणिव्वुर्ड सव्वदक्खप्पहीणे। -सम० सम ७२ सू३ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश २७३ टीका-'अयलभाय' त्ति अचलो महावीरस्य नवमो गणधरः, तस्यायुर्द्धिसप्ततिवर्षाणि, कथं ?, पट्चत्वारिंशद्गृहस्थत्वे द्वादश छद्मस्थतायां चतुर्दशकेवलित्वे इति । अयलभाता बहत्तर वर्ष की सर्वायु पालकर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हुए यावत् सर्वदुःखों से रहित हुए। .४६ (क) दशम गणधर-मेतार्य .१ मेतार्य गणधर का श्रमण भगवान महावीर के पास आगमन और दीक्षा ग्रहण (क) ते पव्वइए सोउ मेयज्जो आगच्छई जिणसगासं । वच्चामि ण वंदामि वंदित्ता पज्जुवासामि ॥६३४।। मलय टीका---पूर्ववत् , नवरं मेताय आगच्छतीति नानात्वम्। किं मन्ने परलोगो अत्थी नत्थित्ति संसओ तुज्झं । वेयपयाण य अत्थं न याणसी तेसिमो अत्थो।६३६ मलय टीका-किं परलोको-भवान्तरगतिलक्षणोऽस्ति किं वानास्तीतिमन्यसे, व्याख्यान्तरं पूर्ववत् ! अयं च संशयस्तव विरुद्धवेदपदश्रुतिनिबन्धनः, तानि च वेदपदान्यमूनि-विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्य' इत्यादीनि, तथा 'सर्व अयमात्मा ज्ञानमय, इत्यादीनि च प्रथमगणधरवक्तव्यतायामिव भावनीयानि, तथा सौम्य ! त्व मित्थं मन्यसे-भूतसमुदायधर्मश्चैतन्यमिति कुतो भवान्तरलक्षणपरलोकसम्भवो, भूतसमुदायविनाशे चैतन्यस्यापि विनाशात् , अन्यच्चभवेदात्मा तथापि स नित्योऽनित्यो वा ? तत्र नित्यपक्षेऽप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावतया विभतया च परलोकाभावः, अनित्यपक्षेऽपि निरन्वयविनश्वरस्वभावतया कारणक्षणस्य सर्वथा विनाशे उत्तरकालमिह लोकेऽपि क्षणान्तराप्रभव इति कुतः परलोक सम्भवः ? तत्र वेदानां चार्थं च शब्दादयुक्तिं हृदयं च, तेषां च वेदापदानामयमर्थः-तत्र विज्ञानघनेत्यादीनां पूर्ववद्वाच्यः, न च भूतसमुदायश्चैतन्यं, सन्निकृष्टदेहोपलब्धावपि चैतन्यविशेषानुपलम्भात, इह यस्मिन्नुपलब्धेऽपि यदवश्यं नोपलभ्यते तत् ततो भिन्न, यथा घटात् पटः, नोपलभ्यते च देहोपलब्धावपि चैतन्यविशेष इति, इतश्च देहादन्यच्चैतन्यं, चलनादिचेष्टानिमित्तत्वात् , इह यत् यस्य चलादिचेष्टानिमित्तं तत्ततो भिन्नं इन्ट, यथा महत् पादपात् , चलनादिचेष्टानिमित्तं च चैतन्य दहस्येति न देहस्य धर्मश्चैतन्यं, किन्त्वात्मनः, तस्य चानादिमतकमसन्ततिसमालिङ्गितत्वादुत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तत्वाच्च । कर्मपरिणामापेक्षा मनुयादिपर्यायनिवृत्त्या देवादिपर्यायान्तरप्राप्तिररत्यविरद्धेति परलोकसिद्धिः यदपि च नित्यानित्यकान्तपक्षोक्तं दूपण तदपि जात्यन्तगत्मकनित्यानित्यशबलरूपपक्षाभ्युपगमेन तिरस्कृतत्वान्ननोढौकत इति -आव निगा ६३४ से ६३६ (ब) मेतायः स्वामिनमगात् स्वाम्यूचे तवधीरिया। भवान्तरप्राप्तिरूप: परलोको न विद्यते ।।१५१।। भतसंदोहरूपत्वाज्जीवस्येह चिदात्मनः। परलोकः कथंभूताऽभावे तस्याप्यभावतः ।।१५२।। तदसत खलुजीवस्य भूतेभ्यो हि स्थितिः पृथक् । पिण्डितेष्वपि भूतेषु चेतनानुपलम्भतः ।।१५३।। Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश भूतेभ्यश्चेतनाऽप्येवं जीवधर्मतया पृथक् । परलोकगतिस्तत्स्याज्जातिस्मृत्यादितोऽपि च ।।१५४॥ इत्थं प्रबुद्धो मेतार्यः समीपे स्वामिपादयोः । शिष्यत्रिशत्या सहितः परिव्रज्यामुपाददे ।।१५५।। -त्रिशलाका० पर्व १०/सर्ग ५ तत्पश्चात् मेतार्य नामक द्विज भगवान् के पास आया। उसे देखकर भगवान बोले-तुम्हें ऐसा संशय है"भवांतर में प्राप्त होने योग्य परलोक नहीं है क्योंकि चिदात्मा रूप जीव का स्वरूप सवभूतों के एक संदेह रूप हैउन भूत का अभाव होने के कारण-अलग अलग हो जाने से जीव का भी अभाव होता है तो फिर परलोक कैसे हो सकता है। परन्तु यह मिथ्या है। जीव की स्थिति सर्व भूतों से अलग है क्योंकि सर्वभूतों के एकत्रित होने पर भी उनमें से कोई चेतना उत्पन्न नहीं होती। इससे चेतना जो जीव का धर्म है-वह भूत से अलग है वह चेतनावाला जोव परलोक में जाता है और वहाँ भी उससे जाति स्मरण ज्ञान आदि से पूर्वभव का स्मरण होता है। इस प्रकार भगवान् की वाणी से प्रतिबोधित हुआ। फलस्वरूप तीन सौ शिष्यों के साथ भगवान के पास दीक्षा ग्रहण की.२ मेतार्य गणधर के माता-पिता के नाम (क) तुंगिणिदेसुप्पण्णो मेयज्जो जयइ गणहरो दसमो। वारुणदेवीए सुओ दत्तस्स विसटिवरिसाऊ॥ -धर्मो• पृ० २२७ (ख) वत्सदेशे तुंगिकाऽऽख्ये सन्निवेशे द्विजन्मनः । दत्तस्य सूनुर्मेतार्यों वरूणाकुक्षिभूरभूत् ।।५।। –त्रिशलाका० पर्व १०/सर्ग ५ मेतार्य गणधर का जन्म स्थान वत्सदेश में तुंगिकसन्निवेश था। बासठ वर्ष की आयु थी। पिता का नाम दत्त .. व माता का नाम वरुणादेवी था। .३ मेतार्य गणधर के संशय दशमस्य परलोके संशयः, सत्याप्यात्मनि परलोको-भवान्तरलक्षणः, किमस्ति किंवा नास्तिति । -अव० निगा ५६६/टीका मेतार्य गणधर के परलोक के विषय में संशय था। परलोक है या नहीं .४ मेतार्य गणधर का जन्मनक्षत्र (जन्म नक्षत्र) मेतार्यस्य अश्विनी x x x .. -आब• निगा ६४६।टीका मेतार्य का जन्म-नक्षत्र-अश्विनी था। मेतार्य गणधर का गोत्र कोडिन्नदुगं च गुत्ताई -आव० निगा ६४६ मलय टीका x x x कौन्डिन्यौ मेतार्य: प्रभासश्च मेतार्य गणधर का गोत्र कौन्डिन्य था। Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ मेतार्य गणधर की अगारपर्याय- गृहस्थपर्याय ( अगारपर्यायः) मेतार्यस्य पत्रिंशत् (वर्षाणि) । मेतार्य गणधर छत्तीस वर्ष गृहस्थ- पर्याय में रहे । वर्धमान जीवन - कोश .६ मेतार्य गणधर की छमस्थ दीक्षा पर्याय (छद्मस्थपर्यायवर्षाणि) मेतार्यस्य दश तार्य गणधर साधु-पर्याय में दस वर्ष छद्मस्थ पर्याय में रहे । २७५ .७ दीक्षा के पूर्व मेतार्य गणधर का अध्ययन 1 मलय टीका - विदन्तीति विदो: - विद्वांसः, चतुर्दशविद्यास्थानपारगमनात् । तानिचतुर्द्दश विद्यास्थानान्यमूनिअंगानि वेदाश्चत्वारो, मीमांसा न्यायविस्तरः । धर्मशास्त्रं पुराणं च विद्याह्य ताश्चतुर्द्दश । तत्रांगानि षट्तद्यथा - शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरूक्त छन्दो ज्योतिषं चेति, एष गृहस्थाश्रम उक्तः । - आव० द्वितीय भाग, पृ०३३६ .: मेतार्य गणधर की आयु (क) (मेयज्जो) विसट्ठिवरिसाऊ आव० निगा ६४६-५१/टीका विद्व वंश परंपरा में उत्पन्न होने के नाते - आर्य सुधर्मा ने ऋक - यजुष्, साम और अथर्व – इन चारों वेदों, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द एवं ज्योतिष - इन छहों वेदांगों, मीमांसा, न्याय, धर्मशास्त्र तथा पुराण, आदि सब मिलकर - इन चवदह विद्याओं का सम्यकतया अध्ययन किया। उनके पूर्ण अधिकारी विद्वान बने । आव निगा ६५० / टीका .८ मेतार्य गणधर का केवलिकाल - जिनपर्याय ( केवलिपर्याय ) छद्मस्थपर्यायमगारवा सं च व्यवकलय्य यत् सर्वायुष्कस्य शेषंतत् जिनपर्याय विजानीहि । × × × | मेतार्यस्यषोडश (वर्षाणि), - आव० निगा ६५३-६५४ गणधरों को सर्वायु में छद्मस्थ- पर्याय और अगारवास को घटाने से जिन पर्याय - केवल काल जानना चाहिए । मेतार्य की जिनपर्याय - केवलिपर्याय सोलह वर्ष की थी। - धर्मो० पृ० २२७ (ख) बावट्ठी चत्ता खलु सव्वगणहराअं एवं । - आव० निगा ६५६ मलय टीका — × × × मेतार्यस्य द्वाषष्टिः, प्रभासस्य चत्वारिंशत्, एवं क्रमेण गणधराणी सर्वायुधमिति । तार्य गणधर की बासठ वर्ष की आयु थी |१ १ नोट - भगवान् महावीर के परिनिर्वाण के ४ वर्ष पूर्व मेतार्य गणधर का परिनिर्वाण हो चुका था । Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ वर्धमान जीवन-कोश .४६ (ख)-ग्यारहवें गणधर-प्रभास .१ प्रभास गणधर का भगवान महावीर के पास आगमन और दीक्षा ग्रहण(क) एकादशः प्रभासः (गणधरमध्ये) -आव० निगा ५६४/टीका . ग्यारहवें प्रभास गणधर थे। (ख) ते पव्वइए सोउं पभास आगच्छई जिणसग से । वच्चामि ण वंदामी वंदित्ता पज्जुवासामि ।६३८ मलय टीका-व्याख्या पूर्ववत् , नवरं प्रभास आगच्छतीति नानात्वं । आभट्ठो य जिणणं जाइजरामरणविप्पमुक्केण । ना.ण य गोत्तेण य सव्वन्नूसव्वदरिसीण।६३४। मलय टीका-अस्याः सपातनिका व्याख्या पूर्ववत् । किं मन्ने निव्वाणं अत्थी नत्थित्ति संसओ तुझं । वेयपयाण य अत्थं न याणसी तेसिमो अत्थो।६४० मलय टीका-किं निर्वाणमस्ति किं वा नास्तीति मन्यसे, व्याख्यान्तरं पूर्ववत् , अयं च संशयस्तव 'विरुद्धवेदपदश्रुतिनिबन्धनः, तानि च वेदपदान्यमूनि-जरामयं वा एतत्सर्वं यदग्निहोत्रं' तथा सैषा गुहा दुःरवगाहा, तथा 'द्वे ब्रह्मणी परमपरं च तत्र परं सत्यं ज्ञानमनन्तरं ब्रह्म' ति, तेषां च यमर्थस्त्व चेतसि वर्तते-यदेतदग्निहोत्रं तत् जरामर्य मेव-यावज्जीवं कत्तव्यमिति, अग्निहोत्रक्रिया च भूतवधहेतुत्वात् सबलरूपा, साच स्वर्गफलैवस्यात् , नापवर्गफला, यावज्जीवमिति चोक्त कालान्तरं नास्ति यत्रापवर्गहेतुभूतक्रियान्तरारम्भः स्यात् , तस्मात्साधनाभावात् मोक्षाभावः, तदेवममूनि किल वेदपदानि मोक्षाभावप्रतिपादकानि, शेषाणि तु तदस्तित्वसूचकानि, यतो गुहाऽत्र मुक्तिरूपा, सा च संसाराभिनन्दिना दुरवगाहादुष्प्रवेशा, तथा परं ब्रह्म सत्यं-मोक्षः, अनन्तरं तु ज्ञानमिति, अमूनि मोक्षास्तित्वप्रतिपादकानीति तव संशयः, तथा सौम्य ! त्वमित्थं मन्यसे-संसारभवो मोक्षः संसारश्च रागादिनिबंधनः, रागादीनां चात्यन्तिकः क्षयोऽनुपपन्नः, तथाहि-रागादयो जन्तोरनादिमन्तो, यच्चाना दिमत न तद्विनाशमाविशति, तथा प्रमाणेन प्रतीतेः, तच्च प्रमाणमिदं-यद् अनादिमत् न तद् विनाशमावि-. शति, यथाऽऽकाशम् , अनादिमन्तश्च रागादय आत्मनो व्यतिरिक्ता वा, भवेयुव्यतिरिक्ता वा ? व्यक्तिरेके सर्वेषां वीतरागत्वप्रसङ्गः, रागादिभ्यो व्यतिरिक्तत्वात् , विवक्षितपुरुषवत् , अथाव्यतिरिक्तास्ततस्तत्क्षये आत्मनोऽपि क्षयप्रसङ्गः, तदव्यक्तिरिक्तत्वात् , तत्त्वरूपवत् , तथा च कुतस्तस्य वस्तुतो मोक्ष ?, तस्यैवाभावादिति, तत्र वेदपदानां चार्थ, च शब्दात् , युक्तिं हृदयं च न जानासि, यतस्तेषामयमर्थः 'जरामयं वे' ति वाशब्दोऽप्यर्थे, ततश्च यदेतदग्निहोत्रं तत् यावज्जीवं सर्वमपि कालं कर्त्तव्यम् , वाशब्दात् मुमुक्षुभिर्मोक्षहेतुभूतमप्यनुष्ठान विधेयमिति नापवर्गप्रापणक्रियारम्भकालास्तिता निषिद्धा, तथा यद्यपि रागादयो दोषा जान्तोरनादिमन्तस्तथापि कस्यचित्स्त्रीशरीरादिषु यथावस्थितवस्तुतत्त्वावगमेन तेषां प्रतिपक्षभावनातः प्रतिक्षणमपचयो दृश्यते, ततः सम्भाव्यते Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश २७७ विशिष्टकालादिसामग्रीसद्भावे भावनाप्रकर्षविशेषभावतो निर्मूलमपि क्षयः, अथ यदि प्रतिपक्षभावनातः प्रतिक्षणमपचयो दृष्टस्तथापि तेषामात्यन्तिकोऽपि क्षयः सम्भवतीति कथमवसीयते ? उच्यते, अन्यत्र तथा प्रतिबन्धग्रहणात् , यथाशीतस्पशसम्पाद्याः रोमहर्षादयः शीतप्रतिपक्षस्य वह्नमन्दतायां मंदा उपलब्धाः उत्कर्षे च निग्न्वयविनाशधर्माणः, ततोऽन्यत्रापि बाधकस्य मन्दतायां बाध्यस्य मन्दतादर्शनाद्वाधकोत्कर्षे बाध्यस्यावश्यं निरन्वयविनाशो वेदितव्यः, अन्यथा बाधकमन्दतायां मन्दता न स्यात् , अथास्ति ज्ञानस्य ज्ञानावरणीयं बाधकं, ज्ञानावरणीयकर्ममन्दतायां च ज्ञानस्यापि मनाक् मन्दता, अथ च प्रबलज्ञानावरणीयकर्मोदयोत्दर्षेऽपि न ज्ञानस्यनिरन्वयो विनाशः, एवं प्रतिपक्षभावनोत्कर्षेऽपि न रागादीनामत्यन्तोच्छेदो भविष्यति, तदयुक्तं, द्विविधंहि बाध्यं-सहभूस्वभावं तदन्यथाभूतं च, तत्र यत् सहभूस्वभावभूतं तन्न कदाचनापि निरन्वयं विनाशनुपयाति, ज्ञानं चात्मनः सहभूस्वभावम , आत्माच परिणामिनित्यः, ततोऽत्यन्तप्रकर्षवत्यपि ज्ञानावरणीयकम्र्मोदये ज्ञानस्य न निरन्वयो विनाशः, रागदयस्तु लोभादिकर्मविपाकोदयसम्पादितसत्ताक स्ततः कर्मणो निर्मूलमपगमे तेऽपि निर्मूलमपगच्छन्ति, नन्वासतां कर्मसम्पाद्या रागादयः, तथापिकर्मा निवृत्तौ ते निवर्तन्ते इति नावश्यं नियमो, नहि दहननिवृत्तौ तत्कृता काष्ठे अङ्गुरता निवत्तते, तदसत् , यत इह किञ्चित् कचित् निवर्त्य विकारमापादयति, यथा अग्निः सुवर्णे द्रवतां, तथाहि-अग्निनिवृत्तौ तत्कृता सुवर्ण द्रवता निवर्त्तते, किञ्चित् पुनः कचित् अनिवर्त्यविकारारम्भकं, यथा स एवाग्निः काष्ठे, न खलु श्यामतामात्रामपि काष्ठदहननिवृत्तौ निवर्त्तते, कर्म चात्मनि अनिवर्त्य विकारारम्भक, भवेत्तर्हि यदपि तदपि कर्मणा कृतं न कर्मनिवृत्तौ निवत्तेत. यथा अग्निना श्यामतामात्रमपि काष्ठे कृतमग्निनिवृत्तौ, ततश्च यदेकदाकर्मणाऽऽपादित मनुव्यत्वममरत्वं कृमिकोटत्वं शिरोवेदनादि च तत्सर्वकालं तथैवावतिष्ठेत, न चैतत् दृश्यते, तस्मान्निवर्त्य विकारारम्भकं कर्म, ततः कर्मनिवृत्तौ रागादीनामपि निवृत्तिः, यदपि च प्रागुपन्यस्तं प्रमाणं 'यदनादिमत् न तद्विनाशमाविशति यथाऽऽकाश' मिति तदप्यप्रमाणं हेतोरनैकान्तिकत्वात् , प्रागभ वेन व्यभिचारात् , तथाहि -प्रागभावोऽनादिमानपि विनाशमाविशति, अन्यथाकार्यानुत्पत्ते ?, भावनाधिकारी च सम्यग्दर्शनादिरत्नत्रयसम्पत्समन्वितो वेदितव्यः, इतरस्य तदनुरूपानुष्ठानप्रवृत्त्यभावेन तस्या मिथ्यात्वरूपत्वात् , आह च प्रवचनम"नाणी तवमि निरओ चारित्ती भावणाए जोगो" त्ति, सा च भावना रागादिदोषनिदानस्वरूपविषयफलगोचग यथागममवसा तव्या, जं कुच्छियाणुजोगो पयइविसुद्धस्स चेव जीवस्स। एएसिमो नियाणं बुहाण न य सुन्दरं एयं ॥१॥ रूवपि संकिलेसोऽभिस्संगापीइमाइलिंगाउ । परमसुहपच्चणीओ एयपि असोहण चेव ।।२।। विसओ य भंगुरो खलु गुणरहिओ तह य तहऽतहारूवो! संपत्तिनिप्फलो केवलं तु मूलं अणत्थाणं ।३। जम्मजरामरणाई विचित्तरूवो फलं तु संसारो। बुहजणनिव्वेयकरो एसोवि तहाविहो चेव ॥४॥ (धर्म० ११६६-७०-१-२) Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ वर्धमान जीवन-कोश : .. अपिच-सूत्रानुसारेण ज्ञानादिषु यो नैरन्तयेणाभ्यासस्तद्र पा भावना वेदितव्या, तस्या अपि रागादिप्रतिपक्षत्वात , नहि तत्त्ववृत्त्या सम्यग्ज्ञानाद्यभ्यासव्यापृतमनस्कस्य स्रोशरीररामणीकादिविषयः चेतः प्रवृत्तिमातनोति, तथानुपलम्भात् , यदप्युक्तं, किञ्च-रागादयआत्मनो व्यतिरिक्ता वा भवेयुख्यतिरिक्ता वा, इत्यादि, तदप्ययुक्तं, भेदाभेदपक्षस्य जात्यन्तरस्याभ्युपगमात् , केवलभेदाभेदपक्षे, धर्मधमिभावानुपपत्ते, तथाहि-धर्मधमिणोरेकान्तेन भेदेऽभ्युपगम्यमाने धम्मिणो निःस्वभावतापत्तिः, स्वभावस्यापि धर्मत्वात् । तस्य च ततोऽन्यत्वात् , स्वःभावः म्वभावः स्वस्यैव चात्मीया सत्ता, न तु तदर्थान्तिरं धर्मरूपं, ततो न निःस्वभावतापत्तिरिति चेत्न, इत्थं स्वरूपसत्ताभ्युपगमे तदपरसत्तासामान्ययोगकल्पनावैयर्थ्यप्रसङ्गात, अपिच–ज्ञ यत्वादिभिर्धमॅरननुवेधात् तस्य सर्वथाऽनवगमप्रसङ्गो, 'न ह्यज्ञ यस्वभावं ज्ञातुं शक्यते' इति न्यायात , तथा च तदभावप्रसङ्गः, कदाचिदप्यवगमाभावात् , तथापि तत्सत्त्वाभ्युपगमेऽतिप्रसङ्गः, अन्यस्यापि यस्य कस्यचित् अनवगतरच षष्ठभूतादेर्भावापत्तेः, एवं च धर्म्यभावे धर्माणामपि ज्ञ यत्वप्रमेयत्वादीनां निराश्रयत्वादभावापत्तिः, नहि धर्माधाररहिताः, कापि धर्माः सम्मवन्तीति, अन्यच्च-परस्परमपि तेषां धर्माणामेकान्तेन भेदाम्युपगमे सत्त्वाद्यभ्युपगमेऽपि सत्त्वाद्यननुवेधात् कथं भावाभ्युपगमः ? तदन्यसत्त्वादिधर्माभ्युपगमे च धमित्वप्रसक्तिरनवस्थावत्ता च, तन्नैकान्तभेदपक्षे धम्मिधर्मभावोपपत्तिः, नाप्पेकान्ताभेदपक्षे, यतस्तस्मिन्नभ्युपगम्यमाने धर्मयात्रं वा स्यात् , धर्मिमात्रं वा, अन्यथैकान्तभेदायोगात् , अन्यतराभावे चान्यतरस्याभावः । परस्परनान्तरीयकत्वात् , धर्मानन्तरीयको हिधम्मिधन्मिनान्तरीयकश्च धर्माः, ततः कथमेकस्याभावेऽपरस्यावस्थानमिति, कल्पितो धर्मम्मिभावस्ततो न दूषणमिति चेत् , तर्हि वस्त्वभावप्रसङ्गः, नहि धर्मधम्मिस्वभावरहितं किञ्चिदवस्त्वस्ति, धर्मधम्मिभावश्च कल्पित इति तदभावप्रसङ्गः धर्मा एवकल्पिता न धर्मी तत्कथमभावप्रसङ्ग, इति चेन्न, धर्माणां कल्पनामात्रत्वाभ्युपगमेन परमार्थतोऽमत्त्वाभ्युपगमाद्, तद्भ,वे धम्मिणोऽप्यभावापत्ते, अथ तदेवैकं स्वलक्षणं सकलसजातीयव्यावृत्तकस्वभावं धम्मि विजातीयव्यावृतिनिबन्धनाश्च या व्यावृत्तयो भिन्नाइव कल्पितास्ता धर्माः; ततो न कश्चिद्दोष. तदप्ययुक्तम एवं कल्पनायां वस्तुनोऽनेकान्तात्मकताप्रसक्तेः अन्यथा सकलसजातीयविजातीयव्यावृत्त्ययोगात् , नहि येनैव स्वभावेन घटाद् व्यावर्त्तते पटस्तेनैव स्तम्भादपि, स्तम्भस्य पटरूपताप्रसक्ते. तथाहि-घटाद् व्यावर्त्तते पटो घटव्यावृत्तिस्वभावतया, स्तम्भादपि चेत् घटव्यावृतिस्वभावतयैव व्यावर्तते तईि बलात् स्तम्भस्य घटस्वरूपताप्रसक्तिः, अन्यथा ततस्तत्स्वभावतया तव्यावृत्त्ययोगात् तस्मात् यतो व्यावर्त्तते यत् तत्तव्यावृत्तिनिमित्तभूताः स्वभावा अवश्यमभ्युपगन्तव्याः ते च नैकान्तेन धर्मिणो भिन्नास्तदभावप्रसङ्गात् तथा च तदवस्थ एवं पूर्वोक्तो दोषः तस्माद् भिन्नाभिन्नाः भेदाभेदोऽपि धर्मधमिणोः कथमितिचेत् , उच्यते; इह यद्यपि तादात्म्येन धर्मिणा धर्माः सर्वे लोलीभावेन व्याप्तास्तथाऽप्ययं धमी एते धर्मा इति परस्परं भेदोऽप्यस्ति, अन्यथा तद्भावानुपपत्तिः, तथा च सति प्रतीतिबाधा, मिथो भेदेऽपि च Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन - कोश २७६ विशिष्टाऽन्योऽन्यानुवेधेन सर्वधर्माणां धर्मिणा व्याप्तत्वात् अभेदोऽप्यस्ति, अन्यथा तस्य धर्मा इति संबंधानुपपत्तिः, ततश्च न सर्वेषां वीतरागत्वप्रसंगः, केवलभेदस्यानभ्युपगमात्, नापि दोषक्षये तदात्मनोऽपि क्षयः, केवलाभेदस्यानभ्युपगमादिति न काचित् क्षतिः । टीका - व्याख्या पूर्ववत् छिन्नंमि संसयंमी जाइजरामरणविप्प मुक्कणं । सो समणो पव्वतो तिहिं उ सह खंडियसएहिं । ६४१| - आव० निगा ६३८ से ६४१ प्रभुमागात् प्रभासोऽपि तमूचे भगवानपि । निर्वाणमन्ति नो वेति प्रभास ! तव संशयः ॥ १५६ ॥ ॥ मा संशयिष्ठा निर्वाणं मोक्षः कर्मक्षयः स तु । वेदान् सिद्धं कर्म जीवाऽवस्था वैचित्र्यतोऽपि च । १५७ | क्षीयते कर्म शुद्धैस्तु ज्ञानचारित्रदर्शनैः । प्रत्यक्षोऽतिशयज्ञानभाजां मोक्षस्तदस्ति भोः १ ॥ १५८ ॥ प्रतिबुद्धः प्रभासोऽपि स्वाम्युपन्यस्तया गिरा । दीक्षामादन्त सहितः खंडिकानां त्रिभिः शतैः ॥१५६॥ महाकुलाः महाप्राज्ञाः संविग्नाः विश्ववंदिताः । एकादशाऽपि तेऽभूवन्मूलशिष्याजगद्गुरोः ॥ १६० ॥ त्रिशलाका पर्व १८ / सर्ग ५ इसके पश्चात् प्रभास भगवान् के पास आया। उसे देखकर भगवान् बोले- हे प्रभास ! मोक्ष है या नहीं ? ऐसा तुमको सन्देह है । 7 परन्तु इसके विषय में तुम्हें किंचित् भी सन्देह नहीं करना चाहिए । कर्म का क्षय रूप मोक्ष - अवश्यमेव है । वेद तथा जोव की अवस्था की विचित्रता से ही कर्म सिद्ध होता है। शुद्ध ज्ञान, दर्शन और चारित्र से कर्म का • क्षय होता है। इस कारण अतिशय ज्ञानधारी पुरुष को मोक्ष प्रत्यक्ष भी होता है । इस प्रकार भगवान् के वचनों से प्रणाम प्रतिबोध को प्राप्त हुआ । फलस्वरूप ३०० पास दीक्षा ग्रहण की। इस प्रकार महान् कुल में उत्पन्न हुए, महान् प्राज्ञ संवेग को प्राप्त और विश्ववंदित - ऐसे ग्यारह प्रसिद्ध विद्वान् श्री वीर प्रभु के मूल शिष्य हुए । .. प्रभास गणधर के माता-पिता का नाम (क) अइभद्दाए बलम्स य पुत्तो चालीसवरिसाओ जाओ । रायगिहे उप्पण्णी एक्कारसमो पभाति ॥ इय दिय-वसुप्पण्णा समत्थ (त) सत्थत्थ पारगा सव्वे । चरम- शरीरा मोक्खं विमल-गुणगहरा दिंतु धर्मो० ० पृ० २२७ पुत्रोऽभूदतिभद्रोदरोद्भवः ॥५६॥ त्रिशलाका० पर्व १० / सर्ग ५ (ख) तथा पुरे राजगृहे बलनाम्नो द्विजन्मनः । प्रभासो नाम शिष्यों के साथ भगवान् के प्रभाम गणधर के पिता का नाम बल और माता का नाम अतिभद्र था। जन्म स्थान राजगृह था । चालीस वर्ष को आयु थी । चरम शरीरी थे व मोक्ष स्थान को प्राप्त किया । • ३ प्रभास गणधर का परिवार ( गणधर के साथ दीक्षित ) दुहंतु जुअलयाणं तिसओ तिसओ हवइ गच्छो -आ० निगा ५६७ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन - कोश मलय टीका - परिवार x x x । तथा द्वयोर्गणरयुगलकयोः प्रत्येकं त्रिशतस्त्रिशतो गच्छ:, किमुक्तं भवति ? उपरिस्थितानां चतुर्णा गणभृतां प्रत्येकं प्रत्येकं त्रिशतमानः परिवारः । दो युगल का अर्थात् ऊपर के चार गणधर अकम्पित, अचलभ्राता, मेतार्य और प्रभास इन चारों का प्रत्येक प्रत्येक का ३००-३०० शिष्य-परिवार था । अतः प्रभास गणधर भगवान् के पास ३०० शिष्यों के साथ दीक्षित हुए। .४ प्रभास गणधर के संशय एकादशस्य निर्वाण संशयः निर्वाणं किमस्ति किंवा नेति -आह-बंधमोक्ष संशयादस्य कोविशेषः १, उच्च्चते स ह्य ुभयगोचराः, अयं तु केवलविभागविषय एव तथा किं संसागभावमात्र एव, मोक्षः किं वाऽन्यः इत्यादि । - आव० निगा ५६६ / टीका २८. एकादशवें गणधर प्रभास के निर्वाण है या नहीं - यह संशय था । संसार का अभाव ही मोक्ष है या अन्य । यह केवल विभाग विषय ही है । .५ प्रभास गणधर का श्रुत-अध्ययन सव्वजिणाण गणहरा चोहसपुव्वी उ ते तस्स । - आव० निगा २६२ - आव निगा ६५७ सव्वे दुवाल संगीआ सव्वे चउदस पुत्रो सर्व जिनों तीर्थंकरों के गणधर सर्वज्ञ होने के पूर्व- चतुर्दश पूर्वधारी होते हैं । अतः प्रभास गणधर सर्वज होने के पूर्व चतुर्दश पूर्वधारी थे । .६ प्रभास गणधर का जन्म-नक्षत्र (जन्म - नक्षत्रं ) प्रभासस्य पुष्यः । .७ प्रभास गणधर का जन्म नक्षत्र पुष्य था । प्रभास गणधर की अगार पर्याय-गृहस्थ पर्याय ( अगार पर्याया) प्रभासस्य षोडश (वर्षाणि ) प्रभास गणधर सोलह वर्षं गृहस्थ- पर्याय में रहे । .८ प्रभास का गोत्र और जाति (क) (गोत्र) कौडिन्यौ मेतार्य प्रभासश्च (ख) सव्त्रेय माहणा जच्चा टीका - सर्वे ब्राह्मणा जात्या:- प्रशस्तजातिकुलोत्पन्नाः । प्रभास गणधर की छमस्थ दीक्षा-पर्याय Xx x अंगं च छउमत्थपरिआओ टीका - x x x प्रभासस्य वर्षाष्टकमेषामेव यथाक्रमं छद्मस्थपर्यायः । प्रभास गुणधर ८ वर्ष छद्मस्थ पर्याय में रहे । - आव० निगा ६४६ /टोका इन्द्रभूति आदि सब गणधर प्रशस्त जाति कुल में उत्पन्न हुए थे । जाति की अपेक्षा सभी ब्राह्मण थे । अतः प्रभास गणधर जाति से ब्राह्मण थे । कौडिन्य गोत्र था । .ε -- आव० निगा ६५० /टीका आव० निगा ६४६ / टोका - आव० निगा ६५७ - आव० निगा ६५२ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश २८१ '.१० प्रभास गणधर का केवलिकाल-जिनपर्याय (सचायं जिनपर्यायः) प्रभासस्य षोडश प्रभास गणधर की जिनपर्याय १६ वर्ष की थी। -आव० निगा ६५३-५४/मलय टीका .११ प्रभास गणधर की आयु-सर्वायु इन्द्रभूतेः सर्वायुर्द्विनवतिवर्षाणि x x x प्रभासस्य चत्वारिंशत् । -आव० निगा६५५-५६/टीका प्रभास की कुल आयु ४० वर्ष की थी। नोट-भगवान महावीर के परिनिर्वाण के ६ वर्ष पूर्व प्रभास गणधर का परिनिर्वाण हो चुका था। ग्यारह गणधरों में सर्वप्रथम प्रभास गणधर का परिनिर्वाण हुआ। चूंकि प्रभास गणधर गृहस्थावास में १६ वर्ष, छमस्थावस्था में ८ वर्ष तथा केवलिपर्याय में १६ वर्ष रहे। अतः कुल आयु ४० वर्ष की थी। .४६(ग) विविध .१ द्वादशांग का उपदेश - x x x भग्गबावीसपरीसहपसरस्स सच्चालं कारस्स अत्थो कहिओ। तदो तेण गोअमगोत्तेण इंदभुदिणा अंतोमुहुत्तेणावहारि यदुवालसंगत्थेण तेणेव कालेण कयदुवालसंगगंथरयणेण गुणे ह सगसमाणस्स सुहमा (म्मा) इरियस्स गंथो वक्खाणिदो। तदो केत्तिएण विकालेण केवलणाणमुप्पाइय बारसवासाणि केवल विहारेण विहरिय इंदभूदिभडारओ णिव्वुई संपत्तो। -कसापा० भाग १/गा /सू-१/ ८४ जिन्होंने क्षुधा आदि बाइस परीसहों के प्रसार को जीत लिया है और जिनका सत्य ही अलंकार है - ऐसे आर्य इन्द्रभूति आदि के लिए उन महावीर भट्टारक ने अर्थ का उपदेश दिया। उसके अनन्तर उन गौतम गोत्र में उत्पन्न हुए इन्द्रभूति ने एक अन्तर्मुहुर्त में द्वादशांग के अर्थका अवधारण करके उसी समय बारह अंग रूप ग्रन्थों की रचना को और गुणों से अपने समान ही सुधर्माचार्य को उसका व्याख्यान किया। तदनतर कुछ काल के पश्चात् इन्द्रभूति भट्टारक केवलज्ञान को उत्पन्न करके और बारह वर्ष तक केवलि-विहार रूप से विहार करके मोक्ष को प्राप्त हए। .२ भगवान् महावीर और गौतम का भवान्तरीय सम्बन्ध गयगिहे जावपरिसा पडिगया। गोयमाई ! समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं आमंतेत्ता एवं वयासी-'चिरं स सिटोसि मे गोयमा ! चिरसंथुओसि मे गोयमा ! 'चिर परिचिओसि मे गोयमा ! चिरजुसिओसि मे गोयमा ! चिराणुगओसि मे गोयमा ! चिराणुवत्तीसि मे गोयमा ! अणंतरं देवलोए अणंतरं माणुस्सएभवे, किं परं ? मरणा कायस्सभेदा, इओचुता दो वि तुल्ला एगट्ठा अविसेसमणाणत्ता भविस्सामो। -भग श५४/७ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन - कोश [ विवेचन - केवल ज्ञान की प्राप्ति न होने से खिन्न बने हुए गौतम स्वामी को आश्वासन देने भगवान् महावीर स्वामी, गौतम स्वामी के साथ अपना चिरकाल का परिचय बताते हुए कहते हैं कि खिन्न मत हो । इस शरीर के छूटने पर अपने दोनों एक समान सिद्ध हो जायेंगे । ] २८२ राजगृह नगर में यावत् परिषद् धर्मोपदेश श्रवण कर लौट गई । श्रमण भगवान् स्वामी ने इस प्रकार भगवान् गौतम को संबोधित करके इस प्रकार कहा - हे गौतम! तू मेरे साथ चिर संश्लिष्ट चिरकाल से स्नेह से बद्ध है । हे गौतम! तू मेरे साथ चिरसंस्तुत है ( लम्बे काल के स्नेह से तूने मेरी । हे गौतम! तू मेरे साथ चिर-परिचित है ( तेरा मेरे साथ लम्बे समय से परिचय रहा है ) हे गौतम चिर सेवित या चिर प्रीत है । ( तू लम्बे काल से मेरी सेवा की है अथवा साथ प्रोति रखी है ) हे गौतम चिरानुगत है ( चिरकाल से तूने मेरा अनुसरण किया है) हे गौतम! तू मेरे साथ चिरानुवृत्ति है ( साथ चिरकाल से अनुकूल बर्ताव रहा है ) हे गौतम! इससे ( पूर्व के ) अनन्तर देवभव में इससे अनन्तर तेरा मेरे साथ संबंध था। अधिक क्या कहा जाए, इस भव में मृत्यु के पश्चात् इस शरीर के छूट दोनों तुल्य ( एक सरीखे ) और एकार्थ ( एक प्रयोजन वाले अथवा एक सिद्ध क्षेत्र में रहने वाले ) विशेष किसी प्रकार के भेद-भाव से रहित हो जायेंगे । • ३ भगवान् के परिनिर्वाण के दिन ज्येष्ठ अनगार गौतम को केवल ज्ञान- केवल दर्शन समुत्पन्न परिनिर्वाण के समय गौतम स्वामी निकट में नहीं थे । .४ जं रयणि चणं समणे भगवं महावीरे कालगए जाव सव्वदुक्वप्पहीणे तं रयपि गोयसस्स इंदभूइस्स अणगारस्स अंतेवासिस्स नायए पेज्जबंधणे वोच्छिन्ने अतेि अ केवलवरनाणदंसणे समुपपन्ने । जिस रात्रि में श्रमण भगवान् महावीर ने सर्व दुःखों का अन्त किया - उस रात्रि में उनके पट्टशिष्य के इन्द्रभूति अनगार का भगवान् महावीर के प्रति प्रेम बंधन टूटा । फलस्वरूप इन्द्रभूति अनगार को ब यावत् केवलज्ञान- केवलदर्शन उत्पन्न हुआ । . ५ अग्निभूति की अवगाहना समणस्स भगवओ महावीरस्स दोच्चे अंतेवासी अग्गिभूई नामं अणगारे गोयमे गोते जाव पज्जुवासमाणे । -भग० श श्रमण भगवान् महावीर के दूसरे अंतेवासी अग्निभूति ( द्वितीय गणधर ) की अवगाहना सात हाथ • ६ नोट - जैनागम किंवा श्वेताम्बर ग्रन्थों तथा दिगम्बर ग्रन्थों में भगवान् महावीर के ग्यारह गणधरों उपलब्ध होते हैं उनमें परस्पर कई नामों में मेल नहीं खाता। दोनों परम्परा के अनुसार ग्यारह गणधरों प्रकार हैं । Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ air ० वर्धमान जीवन-कोश २८३ श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार दिगम्बर परम्परा के अनुसार १- इन्द्रभूति १- इन्द्रभूति २- अग्निभूति २- अग्निभूति ३- वायुभूति ३- वायुभूति ४- व्यक्त ४- सुधर्म ५- सुधर्मा ५- मौर्य ६- मंडित ६- मौंड्य-मौन्द्रय ७- मौर्यपुत्र ७- पुत्र ८- अकंपित ८- मैत्रेय 8- अचलभ्राता ह- अकम्पन १०- मेतार्य १०- अन्धवेल ११- प्रभास ११- प्रभास भगवान् महावीर के परिनिर्वाण के १२ वर्ष पश्चात् इन्द्रभूति तथा २० वर्ष पश्चात् सुधर्मा गणधर का परिनिर्वाण हुआ। शेष गणधरों का भगवान् महावीर के पूर्व ही परिनिर्वाण हो चुका था। १-चौथे व्यक्त गणधर, छ8 मंडित गणधर, सातवें मौर्यपुत्र गणधर, आठवें अकम्पित गणधर, इन चारों गणधरों का परिनिर्वाण-भगवान महावीर का जिस वर्ष में परिनिर्वाण हुआ-उसी वर्ष में भगवान् महावीर के पूर्व हुआ। २-द्वितीय अग्निभूति गणधर, तृतीय वायुभूति गणधर का परिनिर्वाण-भगवान महावीर के परिनिर्वाण के लगभग २ वर्ष पूर्व हुआ। ३-नववे अचलभाता गणधर तथा दसवें मेतार्य गणधर का परिनिर्वाण-भगवान् महावीर के परिनिर्वाण के लगभग ४ वर्ष पूर्व हुआ। ४–तथा ग्यारहवें प्रभास गणधर का परिनिर्वाण-भगवान महावीर के परिनिर्वाण के लगभग ६ वर्ष पूर्व हुआ। .७ आमर्शीषधि आदि लब्धि सम्पन्न थे। मासं पाओवगया सव्वेऽविय सव्वलद्धिसंपन्ना। -आव० निगा ६५६ टोका-सर्वेऽपि सर्वलब्धिसम्पन्नाः आमाँपाध्याद्यशेषलब्धिसंपन्नाः। शुभ अध्यवसाय तथा उत्कृष्ट तप-संयम के आचरण से तत् तत्त्कर्म का क्षय और क्षयोपशम होकर आत्मा में जा विशेष शक्ति उत्पन्न होती है उसे लब्धि कहते हैं। आमशौषधिलब्धि, विग्रु डौषधिलब्धि, खेलौषधिलब्धि, जल्लौषधिलब्धि, सौंषधिलब्धि, सम्भिन्नश्रोतोलब्धि, अवधिज्ञानलब्धि, जुमतिलब्धि, विपुलमतिलब्धि, चारणलब्धि, आशीविपलब्धि, गणधरलब्धि, पूर्वधरलब्धि, क्षीरमधुसर्पिराश्रवलब्धि, कोष्ठकलब्धि, पदानुसारिणीलब्धि, बीजबुद्धिलब्धि, तेजोलेश्यालब्धि, आहारकलब्धि, शीतलेश्यालब्धि, वैकुर्विकदेहलब्धि, अक्षीणमहानसीलब्धि, पुलाकलब्धि आदि-इन्द्रभूति आदि गणधरों को थी। Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ वर्धमान जीवन-कोश -ओव० सू८२ अन्त में केवलिलब्धि भी प्राप्त की थी। .८ गौतम के प्रश्नोत्तर की जिज्ञासा तएणं से भगवं गोयमे जायसड्ढे जायसंसए जायकोऊडल्ले उप्पण्णसड्ढे उप्पण्णसंसए उप्पण्णकोऊहल्ले समुप्पण्णसड्ढे समुप्पण्णसंसए समुप्पण्णकोऊहल्ले उठाए. उट्टेइ, २ त्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, २त्ता समणं भगवं महावीर तिक्खुत्तो आयाहिण पयाहिणं करेइ, २ त्ता वंदइणंमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता नच्चासण्णे नाइदूरे सुम्सूसमाणे णमंसमाणे अभिमुहे विणएणं पंजलिउडे पज्जुवासमाणे एवं वयासी। जब भगवान् गौतम भगवान महावीर के पास संयम और तप से आत्मा को भावित कर विचर रहे थे। तब भगवान् गौतम में श्रद्धा (= इच्छा). संशय ( = अनिर्धारित) अर्थ = शंका कुतूहल की प्रवृत्ति हुई-उत्पत्ति हुई, प्राप्ति हुई, मूत्तिमान हुए। अतः उठकर खड़े हुए। जहां श्रमण भगवान् महावीर थे-वहां आए . तीन बार आदक्षिणा प्रदक्षिणा की । वंदना की नमस्कार किया । न अधिक सटकर न अधिक दूर रहकर सुश्रूषा और नमस्कार करते हुए, अभिमुख होकर, करबद्ध होकर पर्युपासना करते हुए इस प्रकार बोले.ह गणधर के उपदेशकासमय उवरिं पोरुसीए उद्विते तित्थकरे गोयमसामी अन्नो वा गणहरो बितियपोरुसीए धम्म कहेति, स्यान्मतिः किं कारणं तित्थकर एवं द्वितीयायां पोरुष्यां धर्म न कप्ययति ? उच्यते -खेदविणोदो ५-६१ ५८ तित्थगरस्स खेदविणोदो भवति, परिश्रमविश्राम इत्यर्थः, शिष्यगुणाश्च दीपिताः प्रभाविता भविष्यति । -आव० निगा ५८८ -पृ चूर्णी० ३३३ तीर्थकर प्रथम पौरुषी में तथा गौतम स्वामो गणधर आदि द्वितीय पौरुषी में धर्म का कथन करते हैं। क्योंकि तीर्थंकर खेद विणोद होते हैं तथा शिष्यों में दिप्तवान्-प्रभावान् गुण होते हैं। .५० भगवान पार्श्वनाथ के संतानीय शिष्य.१ उदयपेढालपुत्र और गौतम गणधर के प्रश्नोत्तर तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहेणामं णयरे होत्था। रिद्धस्थिमियसमिद्धे जाव पडिरूवे ॥१॥ तस्सणं रायगिहस्स णयरस्स बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए, प्रत्थ णं णालंदाणामं बाहिरिया होत्था । x x x॥ ॥ तत्थणं णालंदाए बाहिरियाए लेवेणामं गाहावई होत्था x x x ॥३॥ तस्सणं लेवस्स गाहावइस्स णालंदाए बाहिरियाए उत्तरपुरथिमे दिसिभाए, एत्थणं सेसदवियाणाम उदगसाला होत्था x x x ॥५।। Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणधरों का जीवन परिचय दिगम्बर शास्त्रों में भगवान् महावीर के ११ गणधरों के नाम और कहीं परउनके माता-पिता आदि का उल्लेख मात्र पाया जाता है, पर श्वेताभ्वर शास्त्रों में इन गणधरों का विस्तृत वर्णन उपलब्ध है। यहां श्वेताम्बर शास्त्रों के आधार पर उनका परिचय दिया जा रहा है र ३ ४ ६ ७ ८ Ĉ १० ११ १२ १४ संख्या नाम गणधर पिता का नाम माता का नाम गोत्र नाम जन्म नक्षत्र जन्मस्थान गृहस्थ- दीक्षास्थान शिष्य छमस्थ केवलि- सर्वायु निर्वाणकाल गणधर बनने जीवन संख्या काल काल के पूर्व शंका २ ४ ५ इन्द्रभूति अग्निभूति वायुभूति व्यक्त सुधर्मा દ मंडित ७ र भूि पृथ्वी (ब्राह्मण) "1 धनमित्र धम्मिल्ल गौतम " धनदेव मौर्यपुत्र मौर्य अकंपित देव जयन्ती अचलभ्राता वसु नन्दा " वारुणी भारद्वाज श्रवण ज्येष्ठा गोबरग्राम ५० वर्ष मध्यमपावा ५०० ३० वर्ष १२ वर्ष १२ वर्ष ४२ वर्ष (मगध ) वशिष्ठ काश्यप गौतम हारित कृत्तिका स्वाति 21 " महिला अग्निवेश्यायन उत्तरा फाल्गुनी विजया मघा मोर्यसन्निवेश ५३ कोल्लाग ५० " (मगध ) ४६, (४०अपूर्ण ४२ " रोहिणी "1 मृगशिरा मिथिला उत्तराषाढ़ा कोशल ५०, 19 ६५ " ४८ フラ ४६ " " 17 " " 11 . 17 ,, " ५०० १२, १६, "1 ५०० १०,१८,, ७०,, ५०० १२, १८,, ५०० ४२,, ३५० १४,, ३५० ३०० ३०० १४ । मेनार्य दत्त वरुणा ११ प्रभास ३०० ८ कौडिन्य अश्विनी तुंगिक सन्निवेश ३६,, ३०० १०, बल अतिभद्रा राजगृह १६ पुण्या अग्निभूति की आयु के सम्बन्ध में समवाओ की अभयदेव सूरिकृत टीका में इसका स्पटीकरण किया गया है । - देखो पृष्ठ २४० सभी गणधरों का निर्वाणस्थान वैभारगिरि ( राजगृह) था। ६, २१ " १२, १६, १६, " " १४, ,, १००, ७४” " १६ " ८० 21 ८३ " ६५" ७८ ७२ ४० "3 "? ६२ " " २८ २८ 37 ३० " ५० ३० ३० "1 11 जीव के अस्तित्व में कर्म के विषय में जीव व शरीर के विषय में पंचभूतों से जीवोत्पत्ति के विषय में " 19 नरक के विषयमें १६, पुण्य के विषय में परलोक के २६. विषय में २४, मोक्ष के विषय में मरण के बाद उसी पर्याय में उत्पन्न होता है और मोक्ष के विषय में Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ . वर्धमान जीवन कोश तीसे णं सेसदवियाए उदगसालाए उत्तरपुरत्थिमे दिसिभाए, एत्थणं हथिजामेणामं वणसंडे होत्था । x x x ||६|| तस्सि च ण गिहपदेसंसि भगवं गोयमे विहरइ, भगवं च णं अहे आरामंसि ।।७।। -सूय० श्रु २/अ ७ उस काल उस समय में ऋद्धि से समृद्ध राजगृह नाम का नगर था। उसके बाहर उत्तर-पूर्व में कई समृद्ध भवनों से सुशोभित नालन्दा नामक बाहिरिक (उपनगर) था। उस नालन्दा बाहिरिक में लेप नामक एक गाथापति रहता था। नालन्दा उपनगर की उत्तर-पूर्व दिशा में, उस लेप गाथापति के 'शेष द्रव्या' नामक उदकशाला थो। उस उदकशाला के उत्तर-पूर्व में हस्तियाय नामक रमणीय उपवन था । उस उपवन की किसी गृह प्रदेश में भगवान गौतम ठहरे हुए थे, वे उस आराम के निचले भाग में विराजमान थे। उदयपेढालपुत्र का भगवान् गौतम के निकट आगमन अहे ण उदए पेढालपुत्ते भगवं पासावचिज्जे णियंठे मेदज्जे गोत्तेणं जेणेव भगवं गोयमे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता भगवं गोयमं एवं वयासीआउसंतो! गोयमा ! अस्थि खलु मे कइ पदेसे पुच्छियव्वे, तं च मे आउसो ! अहासुयं अहादरिसियमेव वियागरेहि ।। सवायं भगवंगोयमे उदयं पेढालपुत्तं एवं बयासी अवियाइ आउसो! सोचा णिसम्म जाणिस्सामो॥६।। -सूय० श्रु २/अ७ उस समय भगवान् पार्श्वनाथ के सन्तानीय मेतार्य गोत्रीय उदय पेढालपुत्र नामक निर्ग्रन्थ जहां भगवान् गौतम विराजमान थे, वहां आया। आकर उनसे कहने लगा-आयुष्मान् गौतम ! आपसे मुझे कुछ पूछना है। आयुष्मान् ! आपने जैसा सुना हो, जैसा विश्वास किया हा वहो कहना। भगवान् गौतम उदय पेढालपुत्र से बोले-आयुष्मान् । यदि आपके प्रश्न को सुनकर-समझकर जान लूंगा तो उत्तर दूंगा। .३ उदय पेढालपुत्रका प्रश्न सवायं उदए पेढालपुत्ते भगवं गोयम एवं वयासी-आउसंतो! गोयमा ! अस्थि खलु कम्मारपुत्तिया णामसमणा णिग्गंथा तुम्हागं पश्यणं पवयमाणा गाहावई समणोवासगं उवसंपण्णं एवं पचक बावेंति-णण्णत्थ अभिजोगेणं, गाहावइचोरग्गहण - विमोक्षणयाए तसेहिं पाणेहिं णिहाय दंडं। एवं हं पच्चक्खंताणं दुप्पच्चक्खायं भवइ। एवं हं पच्चरखावेमाणाणं दुप्पचक्वावियं भवइ । एवं ते परं पच्चक्खावेमाणा अइयरंति सयं पइण्णं कस्स णं तं हे। Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश २८७ संसारिया खलु पाणा-थावरावि पाणा तसत्ताए पच्चायति । तसा वि पाणा थावरत्ताए पच्चायति । थावरकायाओ विप्पमुच्चमाणा तसकायंसि उववज्जति । तसकायाओ विप्पमुच्चमाणा थावरकायंसि उववज्जंति। तेसिं चणं थावरकायंसि उववण्णाणं ठाणमेयं घत्तं -सूय० क्षु २/अ ७/सू १० उदक पेढालपुत्र भगवान् गौतम से बोले-आयुष्मान् गौतम ! कुमारपुत्र नामके श्रमण निर्ग्रन्थ है-जो तुम्हारे प्रवचन के अनुयायी है- वे प्रत्याग्ज्यान के लिए आये हुए श्रमणोपासक गृहपतियों को यह प्रत्याख्यान कराते हैं कि अपने से गुरु (बली आदि) के अभियोग (जबरन) को छोड़कर, गाथापति-चोर-ग्रहण-विमोक्षण न्याय से त्रस प्राणियों की हिंसा का त्याग है यह प्रत्याख्यान करना और कराना दुष्प्रव्याख्यान है। ऐसे प्रत्याख्यान करने वाले अपनी प्रतिज्ञा नहीं पा सकते हैं। इसका कारण क्या है ? कारण यह है कि प्राणियों में परिवर्तन होता रहता है -स्थावर प्राणी स्थावर काया को छोड़कर, त्रसकाया में त्रसरूप में उत्पन्न हो जाते हैं और त्रसप्राणी त्रसकाया को छोड़कर स्थावर काया में स्थावर रूप से उत्पन्न हो जाते हैं। उनमें से स्थावर काया में उत्पन्न हुए त्रस प्राणिवों की हिंसा, उन श्रमणोंपासकों से हो जाती है। एवं ई पच्चक्खं ताणं सुपच्चक्खायं भवइ। एवं ण्हं पच्चकवावेमाणाणं सुपच्चक्खावियं भवइ । एवं ते परं पच्चक्खावेमाणा णाइयरंति सयं पइण्णं-"णण्णत्थ अभिजोगेणं गाहावइ-चोरग्गहण विमोक्खणयाए तसभूएहिं पाणेहिं णिहायदंडं।" एवं सइभासाए परिकम्मे विजमाणे जे ते कोहा वा लोहावा परं पच्चक्खावेंति। अयं पि णो उवएसे किं णो णेयाउए यवइ ? अवियाई आउसो ! गोयया ! तुभं पि एयं एवं रोयइ। सूय० श्रु २/अ/सू ५० इस प्रकार प्रत्याख्यान करना और कराना सुप्रत्याख्यान है। इस प्रकार प्रत्याख्यान कराने से वे प्रतिज्ञा का उल्लंघन नहीं कर ककते हैं कि अभियोग को छोड़कर, गाथापति-चोर-ग्रहण-विमोक्षण न्याय से त्रसभूति प्राणियों की हिंसा करने का त्याग है । इस प्रकार की भाषा में (दोष परिहार की) शक्ति विद्यमान होने पर, जो कोई क्रोध से या लोभ से प्रत्याख्यान दूसरे को कराते हैं (उसके) समान यह (भूत' शब्द लगाये बिना कराये गये प्रत्याख्यान) भो उपदिष्ट नहीं है-न्यायसंगत नहीं है। आयुष्मान् गौतम ! क्या तुमको यह रुचिकर है। .४ भगवान् गौतमका उत्तर सवायं भावं गोयमे उदयं पेढालपुत्तं एवं वयासी-आउसंतो ! उदगा ! णोखलु अम्हं एयं एवं रोयइ जते समणा वा माहणाबाएवमाइक्खंति, एवं भासेंति, एवं पण्णवेंति, एवं परूवति णो खल ते समणा वा निग्गंथा वा भास भासंति, अणुतावियं खलु ते भासं भासंति, अब्भाइक्खंति खल ते Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश समणे समणोवासए वा। जेहिं वि अण्णेहिं पाणेहिं भूएहिं जीवेहिं सत्तेहिं संजमयंति ताणि वि ते अब्भाइक्खंति। कस्स णं तं हे । संसारिया खलु पाणा-तसावि पाणा थावरत्ताए पच्चायति । थावरा वि पाणा तसत्ताएपच्चायंति। तसकायाओ विष्पमुच्चमाणा थावरकायंसि उववज्जति । थावरकायाओ विप्पमुच्चमाणा तसकायंसि उववति । तेसिं च णं तसकायंसि उववण्णाणं ठाणमेयं अघत्तं । -सूय० श्रु २/अ सू७/११ भगवान गौतम ने उदय पेढालपुत्र को उत्तर दिया-आयुष्यमान् उदक! तुम्हारा कथन हमें उचित नहीं लगता है। जो कोई श्रमण-माहण तुम्हारे कथन के अनुसार प्रतिपादन करते हैं। वे श्रमण-निर्ग्रन्थों की भाषा नहीं बोलते हैं-अनुताप करने वाली भाषा बोलते हैं। श्रमण-श्रमणोपासकों पर व्यर्थ कलंक लगाते हैं - जो दूसरे प्राण, भूत, जीव और सत्त्व में संयम करते हैं, उन पर भी व्यर्थ कलंक लगाते हैं। क्योंकि प्राणियों में परिवर्तन होते रहते हैं और उनमें से त्रसकाया में उत्पन्न होनेवाले प्राणियों को उन्हें हनना योग्य नहीं है। .५ उदय पेढालपुत्रका प्रतिप्रश्न सवायं उदए पेढालपुत्ते भगवं गोयम एवं वयासी-कयरे खलु आउसंतो! गोयया ! तुम्भे वयह तसपाणा तसा आउ अण्णहा, ? -सूय० श्रु २/अ ७ सू १२ उदक पेठालपुत्र ने भगवान गौतम को कहा-आयुष्मान् गौतम ! तुम त्रस प्राणी को ही त्रस कहते हो कि किन्हीं दूसरे को। .६ भगवान् गौतम का प्रत्युत्तर सवायं भगवं गोयमे उदयं पेढालपुत्रं एवं वयासी-आउसंतो! उदगा ! जे तुम्भे वयह तसभूया पाणा तसा ते वयं वदामो तसा पाणा तसा । जे वयं वयामो तसा पाणा तसा ते तुम्भे वदह तसभूया पाणा तसा । एए संति दुवे ठाणे तुल्ला एगट्ठा। किमाउसो ! इमे भे सुप्पणीयतराए भवइ-तसभूया पाणा तसा ? इमे भे दुप्पणीयतराए भवइ-तसा पाणा तसा ? तओ एगमाउसो! पलिकोसह एक्कं अभिणंदह ! अयंपि "भे उवएसे" णोणेयाउए भवइ। भववं च णं उदाहु-संतेगइया मणुस्सा भवंति, तेसिं च णं एवं वुत्तपुव्वंभवइ-णोखलु वयं संचाएमो मुंडाभवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए । वयं णं" अणुपुव्वेणं गोत्तस्स लिस्सिस्सामो। ते एवं संखसावेंति-णण्णत्थं अभिजोगेणं गाहावइ-चोरग्ग्गाहण-विमोक्खयाए तसे हिं पाणेहिंणिहाय दंडे । तंपितेसिं कुसलमेव भवइ। -सूय० श्रु/अ /सू १३ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश २८६ t 1 भगवान् गौतम - आयुष्मान् उदक जिसे तुम प्रसभूत प्राणी कहते हो उसे हम प्रेम कहते हैं और जिसे हम यस प्राणी कहते हैं उसे तुम सभूत प्राणी कहते हो इस प्रकार दोनों शब्द ममान है एकार्थी है फिर आयुष्मान् ? आप क्यों "भूत प्राणी" यह सुप्रणीतवर (शुद्ध) और बम प्राणी यह दुष्प्रणीततर (अशुद्ध) मानते हैं? एक का प्रतिक्रोश ( भर्त्सना) करते हैं और एक का अभिनन्दन ? आपका यह भेद भी न्यायसंगत नहीं है। कई मनुष्य हैं जो श्रमणों से यह कहते हैं - हम इतने समय नहीं है कि मुण्डिन होकर गृहवानी से अनगार बन जायें । किन्तु हम क्रमशः गुप्त साधु बनेंगे। वे यही विचार करते हैं वे यही विचार करते हैं - यही विचार रखते हैं—यही विचार प्रकट करते हैं कि अभियोग को छोड़कर गाथापति चोर ग्रहण विमोक्षण न्यायसे त्रम प्राणियों की हिमा करना छोड़ दें। उनके लिए वह म कुशल रूप है। तसा वि त्वंति तसा तससंभारकडेणं कम्मुणा णामं चणं 'अभूवग्य भवइ 'तसाध्य चणं पलिक्खीणं भवइ' तसकायट्टिइया ते तओ आउयं विष्पजहंति, ते तओ आउयं विप्पजहित्ता थावरत्ताए पच्चायति । थावग विदुच्चति श्रावरा थावरसंभारकणं कम्मुणा णामं च णं अभूवगयं भव। 'थायगउयं चणं पतिक्षीण भवइ', थावरकायट्टिया से तओ आयं विजति ते तओ आउयं विप्यनहित्ता भुज्जो पारलोइयत्ताए पच्चायंति ते पाणा बिच्चति. ते तसा वि च्वंति, ते महाकाया ते चिरट्टिइया । .9 - सूय० श्रु २/अ ७ / सू १४ सजीव भी नाम कर्म के अनुभव करने से बस कहे जाते हैं। त्रस आयु जब परिक्षीण हो जाती है तब वे काया में स्थित जीव वहां से वह आयु छोड़ देते हैं। वहां से वे आयु छोड़कर ( ही ) वे स्थावर अवस्था में आते हैं । स्थावर जीव भी स्थावर नाम कम के भोगने से स्थावर कहे जाते हैं स्थावर आयु जब परिक्षीण हो जाती है तब स्थावर काया में रहने वाले जीव वहां से आयु छोड़ देते हैं - वहां से वे आयु छोड़कर (ही) पुनः पारलौकिकता के लिए । - जाते हैं। वे प्राणी भी कहे जाते हैं सभी कहे जाते हैं। वे महाकाव भी होते हैं—म्बी आयु वाले भी होते हैं। उदय पेढाल पुत्र का सपक्ष स्थापना करसणं तं हेडं । सवाय उद पेढालपुत्ते भगवं गोयमं एवं वयासी उसंतो ! गोयमा ! णत्थि णं से फेड परियाए जंसि समणोवासगस्स 'एगपाणाए वि इंडे णिक्खित्ते 1 संसारिया खलु पाणा- थावरा वि पाणा तसत्ता पच्चायति । पश्चायति। थावरकायाओ विप्नमुश्यमाणः सव्ये तसकायसि विप्यमुरचमाणा सच्चे थावर काय सि उववज्जति । तेसिंच णं थावरकार्यंसि उववण्णाणं ठाणमेयं धत्तं । 1 - - सूय० श्रु २ / अ ७ / सू १४ उदक पेढालपुत्र - आयुष्मान् गौतम ! ऐसी कोई भी पर्याय — अवस्था नहीं है, जिसमें श्रमणोपासक एक भी जीव की हिंसा विरति रख सके। कारण कि प्राणियों को अवस्था में परिवर्तन होता रहता है । स्थावर काय से निकल कर सभी प्राणी त्रम हो जाते हैं और उसकाया से निकल कर सभी प्राणी स्थावर हो जाते हैं। तब वे स्थावर काया में उत्पन्न जीव उनके लिए हिंसा के योग्य हो जाते हैं। तसा वि पाणा धावरत्ताए उवयञ्जति । तमकायाओ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० वर्धमान जीवन-कोश .८ भगवान् गौतम का प्रत्युत्तर सवायं भगवं गोयमे उदयं पेढालपुत्तं एवं वयासी-णो खलु आउसो ! अस्माकं वत्तव्वएणं तुम्भं चेव अणुप्पवाएणं अत्थि णं से परियाए जे णं समणोवासगस्स सव्वपाणेहिं सव्वभूएहिं सव्वजीवेहिं सव्वसत्तेहिं दंडे णिक्खित्ते भवइ । कस्स णं तं हे? संसारिया खलु पाणा-तसा वि पाणा थावरत्ताए पच्चायति । थावरा वि पाणा तसत्ताए पच्चायंति। तसकायाओ विप्पमुच्चमाणा सव्वे थावरकायंसि उववजंति। थावरकायाओ विमुच्चमाणा सव्वे तसकायंसि ज्ववज्जति। तेसिंच णं तसकायंसि उववण्णाणं ठाणमेयं अघत्तं । ते पाणा वि वुच्चंति, ते तसा वि वुचंति, ते महाकायं ते चिरटिइया। ते बहुयरगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स सुपच्चक्खायं भवइ। ते अप्पयरगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अपच्चक्खायं भवइ । से मया तसकायाओ उवसंतस्स उवट्ठियस्स पडिविरयम्स ज णं तुम्भे वा अण्णोवा एवं वयह-“णत्थि णं से केइ परियाए जंसि समणोवासगस्स एगपाणाए वि दंडे णिकि त्ते। अयं पि भे उवएसे णो णेयाउए भवइ। ... -सूर० श्रु / /सू १६ भगवान गौतम-हमारे वक्तव्य से यह (तुम्हारा कथन) सिद्ध नहीं होता। और तुम्हारे अनुप्रवाद (मन) से तो यह पर्याय संभव है जिसमें श्रमणोपासक सर्व प्राण, भूत, जीव और सत्त्वकी हिंसासे रहित हो सकता है। कारणकि -[जैसा कि तुम कहते हो] त्रसकाया से निकलकर सभी जीव स्थावर हो जाते हैं और स्थावर कायासे निकल कर सभीत्रस तो उनके लिए त्रसकाया में उत्पन्न जीव हिंसाके अयोग्य हो जाते हैं। वे प्राणी, त्रस, महाकाय और लम्बी स्थिति कहे जानेवाले जीव बहतर हो जाते हैं। जिनकी हिमा करने के श्रमणोपासक के प्रत्याख्यान होते हैं और वे प्राणी अल्पतर हो जाते हैं जिनकी हिंसा क ने के श्रमणोपासक के प्रत्याख्यान नहीं है। ऐसे उन महान श्रसकाया की (हिंसा) से उपशान्त, उपस्थित और प्रतिविरत के लिए तुम और दूसरे जा कहते हो कि श्रमणोपासक की ऐसी कोई पाय-अवस्था नहीं है जिसमें वह एक भी प्राणी को भी हिमा से बच सके--तो यह न्यायसंगत नही है। .६ श्रमण - दृष्टांत(क) भगवंच णं उदाहु णियंठा खलु पुच्छियव्या-आउसंतो ! णियंठा ! इह खलु संगइया मणुम्सा भवति। तेसिंचणं एवं बुत्तपुव्वं भवइ-जे इमे मुंडे भवित्ता अगागओ अणगारियं पव्वइत्ता, एएसिं णं आमरणंताए दडे णिक्वित्ते। जे इमे अगारमावसति, पयसिं णं आमरणंताए दंडे णो । णिक्वित्ते। 'कई च णं समणे, जाव वासाई चउपचमाइ छहसम्माई अप्पयरो वा भुज्जयरो वा देसं दृइज्जित्ता' अगारं वएज्जा। हंता वएज्जा। तस्स णं तमगाग्त्थं वहभाणस्स से पच्चकवाणे भग्गे भवड णेति। Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन - कोश २६१ एवमेव समणोगस वि तसेहिं पाणेहिं दंडे णिक्खित्ते, थावरेहिं पाणेहिं दंडे णो णिक्खित्ते । तरसणं तं थावरकायं वहमाणस्स से पच्चकखाणे णो भग्गे भवइ । सेवमायाणह नियंठा ! सेवमायाणियव्वं । - सूय० श्रु २ / अ७ / सू १७ गोतम भगवान् — निर्ग्रन्थ प्रश्न पूछे जाने योग्य होते हैं तो आयुष्मान् निर्ग्रन्थ ! संसार में कई तरह मनुष्य होते हैं । जो उन्हें आकर इस प्रकार कहते हैं - जो मुण्डित होकर गृहवास छोड़कर अनगार हो जाते हैं उनकी हिंसा के मृत्यु पर्यन्त के त्याग हैं और जो गृहस्थ हैं. उनकी हिंसा के मृत्यु पर्यन्त त्याग नहीं । पर कई कुछ वर्ष तक रहकर फिर गृहस्थ नहीं बन जाते हैं क्या ? बन जाते हैं । तो उस गृहस्थ बने हुए श्रमण का वध करने से उसके प्रत्याखान का भंग होता है ? [ तब वे 'निर्ग्रन्थ यही उत्तर देंगे कि । नहीं होता है । इसी प्रकार श्रमणोक के त्रस प्राणियों की हिंसा के प्रत्याख्यान है - स्थावर प्राणियों की हिंसा के नहीं । इसलिए [ स की अवस्था को छोड़कर आये हुए ] स्थावर जीवों की हिंसा से उसके है - यह समझिए और निर्ग्रन्थों ! यही समझना योग्य है । प्रत्याख्यान का भंग नहीं होता (ख) भगवंच णं उदाहु णियंठा खलु पुच्छियव्वा - आउसंतो ! नियंठा ! इह खलु गाहावइणो वा गावइपुत्त वा तप्पगारेहिं कुलेहिं आगम्म धम्मस्वणवत्तियं उवसंकमेज्जा ? हंता उपसंकमेज्जा । ते सिंच णं तह पगाराणं धम्मे आइकि वयवे हंता आइक्खियव्वे | किं ते तहप्पगारं धम्मं सोच्चा णिसम्म एवं वएज्जा - इणमेव णिग्गंथं पावयणं सच्चं अणुत्तरं केवलियं पडिपुणं 'णेयाज्यं संसुद्धं' सल्लकत्तणं सिद्धिमग्गं मुत्तिमग्गं णिज्जाणमग्गं णिव्वाणari अवित असंद्धिद्धं सव्वदुक् बप्पहीणमग्गं । एत्थठिया जीवा सिज्झं ति बुज्झति मुच्वंति परिणिति सव्वदुक्खाणमंतं करेंति । इमाणाए तहा गच्छामो तहा चिट्ठामो तहाणिसीयामो तहा तुणयट्ठामो तहा भुंजामो तहा अब्भुठ्ठे मो तहा उदाए उट्ठत्ता पाणणं भुयाणं जीवाणं सत्ताणं संजमेणं संजमामो त्ति वएज्जा १ हंता वएज्जा । किं ते तह पगारा कप्पति पव्वावेत्तए ! हंता कप्पंति । किं ते तहगारा कप्पंति मुंडावेत्तए ? हंता कप्पंति । किं ते तपगारा कप्पंति सिक्बावेत्तए ? हंता कप्पंति । किं ते तपगारा कप्पंति उवट्ठावेत्तए । हंता कप्पंति । तेसिंच णं तहनगाराणं सव्वपाणेहिं सव्वभूपहिं सव्यजीवेहिं सव्यसत्तेहिं दंडे णिक्खित्ते ? हंता णिक्खित्ते । ते णं एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणा जाव वासाई चउपंचमाई छद्दसमाई वा अप्पयरोवा भुज्जरो वा देसं दूइज्जित्ता अगारं वएज्जा । Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ वर्धमान जीवन कोश हंता वएज्जा | तरसण सव्वपाणेहिं सव्वभूएहिं सव्वजीवेहिं सव्वसत्तेहिं दंडे णिक्खित्ते । णेति । से जे से जीवे जल्स परेणं सव्वपाणंहिं सव्वभूएहिं सव्वजीवेहिं सव्वसत्तेहिं दंडे णो णिक्खित्ते । से जे से जीवे जस्स आरेणं सव्वपाणेहिं सव्वभूएहिं सव्वजीवेहिं सव्त्रत्तेहिं दंडे णिक्खित्ते । से जे से जीवे जस्स इयाणि सव्वपाणेहिं सव्वभूएहिं सजीवहिं सव्वसत्तेहिं दंडे णो णिक्खिते भवइ | परेण अस्संजए, आरेणं संजए, इयाणि अस्संजए । सव्वजीवेहिं सव्वसत्तेहिं दंडे णो णिक्खित्ते भवइ । भगवान् गौतम - जो निर्ग्रन्थ धर्म पृच्छा के योग्य हों। आयुष्मान् निर्ग्रन्थ ! गृहपति पुत्र उस प्रकार के कुल में आकर [ == जन्म लेकर ] धर्म सुनने आ सकते हैं । हां आ सकते हैं ? क्या उस प्रकार के धर्म को कहना चाहिए ? हां ? कहना चाहिए क्या वे तथा प्रकार धर्म को सुनकर, समझकर इस प्रकार कह सकते हैं कि यह निर्ग्रन्थ प्रवचन हो सत्य, अनुत्तर, केवल ज्ञानी से कथित, परिपूर्ण, संशुद्ध, नैयायिक युक्तियुक्त, शल्यकर्त्तक - आत्मकंटकों का नाशक, सिद्धमार्ग, मुक्तिमार्ग, निर्याण मार्ग, निर्वाण मार्ग, अविथ = मिथ्याभाव से रहित असन्दिग्ध और सर्वदुःख प्रदाण मार्ग है - जिसमें स्थित जीव सिद्ध होते हैं, बुद्ध होते हैं, मुक्त होते हैं, परिनिर्वाण पाते हैं और सभी दुःखों का अन्त करते हैं - ऐसे उम (निर्ग्रन्थ प्रवचन ) को आज्ञा के अनुसार हम चलें ठहरें बैठें, सोयें खायें बोलें सावधानी से रहें और उत्थान के लिए उठें - सभी प्राण, भूत, जीव और सत्त्व के मंयम से ( अपने को ) संयमित करें क्या वे ऐसा कर सकते हैं । अस्संजयस्स णं सव्वपाणेहिं सव्वभूपहिं सेवमायाणह नियंठा । सेवमायाणियव्वं । - सूय० श्रु २/अ ७ सू १८ ( उनके पास ) गृहपति या हाँ कह सकते हैं ? क्या तथा प्रकार (व्यक्तियों ) को दीक्षित, मुण्डित, शिक्षित और ( मोक्ष मार्ग में ) उपस्थित कर सकते हैं ? हाँ ! कर सकते हैं । क्या सब जीवों की हिंसा से निवृत्त हो सकते हैं ? हाँ! हो सकते हैं। क्या वे कुछ समय श्रमण रहकर, पुनः गृहस्थ बन जाते हैं ? हाँ! कई बन जाते हैं । क्या उस समय उनका ( लिया हुआ ) प्राणीघात का प्रत्याख्यान टिक सकता है ? नहीं, ऐसा नहीं हो सकता है ? Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वधमान जीवन कोश वह वही है, जिसके पहले हिंसा का त्याग नहीं था। फिर हिंसा से निवृत्त था और अब सब प्राणियों की हिंसा से निवृत्त नहीं है। क्योंकि पहले वह असंयति था, फिर संयति हुआ और अब असंयति है। असंयति की जीव-हिंसा को प्रवृत्ति बन्द नहीं होती है। यह समझिए और निर्ग्रन्थों ! यही समझना योग्य है। (ग) भगवं च णं उदाहु णियंठा खलु पुच्छियव्वा-आउसंतो ! णियंठा ! इह खलु परिव्वायया वा परिवाइयाओ वा अण्णयरेहिंतो तित्थ यतणे हितो आगम्म धम्मस्सवणवत्तियं उवसंकमज्जा ? हंता उवसंकमेन्जा। किं तेसिं तहप्पगाराणं धम्मे आइक्वियव्वे १ हंता आइक्खियब्वे । किं ते तहप्पगारं धम्म सोच्चा णिसम्म एवं वएज्जा-इणमेव णिग्गंथं पावयणं सत्त्वं अणुत्तरं कंवलियंपडिपुण्णं णेयाउयं मंसुद्धं सल्लणंत्तणं सिद्धिमग्गं मुत्तिमग्गं णिज्जाणमग्गं णिव्वाणमग्गं अवितहं असंदिद्धं सव्वदुक्खप्पहीणमग्गं । एत्थठियाजीवा सिझंति बुज्झंति, मुत्चंति परिणिध्वंति सव्वदुक्खाणमंतं करेंति। इमाणाए तहा गच्छामो तहा चिट्ठामो तहा णिसीयामो तहा तुयट्ठामो तहा भुंजामो तहा भासामो तहा अब्भुट्टेमो तहा उट्ठाए उदेंत्ता पाणाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं संजमेणं संजमामो मि वएज्जा । हंता वएज्जा। किं ते तहप्पगारा कप्पंति पवावेत्तए १हंता कप्पंति । किं ते तहप्पगारा कप्पंति मुंडावेत्तए ? हंता कप्पं ति । किं ते तहप्पगारा कप्पंति सिक्वावेत्त ए ? हंता कप्पंति । किं ते तहप्पगारा कप्पं ति उक्ट्ठावेत्तए ? हंता कप्पंति । किं ते तहप्पगारा कप्पंति संभजित्तए ? हंता कप्पंति। ते णं एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणा जाववासाई चउपंचमाई छहसमाई वा अप्पयरो वा भुज्जयरोवा देसं दृइज्जित्ता अगारं वाज्जा ? हता वएज्जा। ते णं तहप्पगारा कप्पंति सभ जित्तए ? णो इणठे समठू । से जे से जीव जे परेणं णो कप्पंति संभुजित्तए ? से जे से जीवे जे आरेणं कप्पंति संभजित्तए। से जे से जीवे जे इयाणिं णो कप्पंति संभुजित्तए। परेणं अस्समणे, आरेणं समणे, इयाणिं अम्समणे। अस्समणेणं सद्धिं णो कप्पंति समणाणं णिग्गंथाणं संभुजित्तए । सेवमायाणह णियंठा। सेवमायाणियव्वं । -सूय० श्रु २/अ ७/सू १६ भगवान् गौतम-आयुष्मान निम्रन्थ ! जो निर्ग्रन्थ धर्म पृच्छा के योग्य होते हैं, उनके पास परिव्राजक, परिवाजिका या कोई भी अन्यतीर्थी होकर (भी) धर्म सुनने के लिए आ सकते हैं ? हाँ आ सकते हैं। Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०६४ वर्धमान जीवन कोश क्या उन्हें धर्म-उपदेश देना चाहिए ? . . हाँ? देना चाहिए। क्या वे दीक्षित-धर्म में उपस्थित किये जा सकते हैं ? हाँ ! किये जा सकते हैं। क्या वे तथा प्रकार [ व्यक्ति , संभोग-साधु भों की पारस्परिक व्यवहार क्रिया के योग्य हैं। हाँ ! योग्य है। उनमें से कोई दीक्षा छोड़कर पुनः गृहस्थ बन जाते हैं क्या ? हाँ ! बन सकते हैं। तो वे तथा प्रकार [ व्यक्ति ] संभोग के योग्य रहते हैं ? नहीं ! ऐसा नहीं हो सकता है । वह वही जीव है जो पहले संभोग के योग्य नहीं थे। 'फर बाद में संभोग के योग्य थे और अब संभोग के योग्य नहीं रहे। क्योंकि पहले वे अश्रमण थे. फिर श्रमण बने और अब अश्रमण है। अश्रमण के साथ श्रमण का संभोग नहीं हो सकना-यह समझिये और निर्ग्रन्थ । यही समझना योग्य है। [ इन उदाहरणों के समान ही त्रस स्थावर जीवों के बारे में समझिये । ] .१० प्रत्याख्यान-विषय-उपदर्शन(क) भगवं च णं उदाहु-णियंठा खलु पुच्छियव्वा-आउसंतो ! णियंठा ! इह खलु संतगइया समणोवासगा भवंति। तेसिंच णं एवं दुत्तपुव्वं भवइ - णो खलु वयं संचाएमो मुंडाभवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए, वयं णं चाउद्दसट्टमुहिठ्ठपुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसह सम्म अणुपालेमाणा विहरिस्सामो। 'थूलग पाणाइवायं पक्वाइस्सामो, एवं थूलगं मुमावायं थूलगं अदिण्णादाण थूलगं मेहुणं थूलगं परिग्गरं पचखाइरसामो, इच्छापन्मिाणं करिसामो दुविहं तिविहेणं । मा खलु ममट्ठाए किंचि वि करेह वा काग्वेह बा तत्थ वि पञ्चकवाइस्सामो। ते णं अभंचा अपिच्चा असिणाइत्ता आसंदीपेढियाओ पच्चोरहित्ता ते तह कालगया किं वत्तव्वं सिया। सम्म कालगय त्ति वत्तव्यं सिया । ते पाणा वि वुच्चंति, ते तसावि वुरचंति. ते महाकाया, ते चिरट्टिइया। ते बहुतग्गा पाणाजेहिं समणोवासगस्स सुपच्चक्खायं भवइ। ते अप्पयरगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अपच्चक्खायं भवइ। से महया तसकायाओ उवसंतस्स उवट्टियस्स पडिविरयस्स नं णं तुम्भे वा अण्णो वा एयंवयह-"णत्थिणं से केइ परियाए जंसि समणोवासगस्स एगपाणाए वि दंडे णिक्खित्ते।" अयंपि 'भे उवएसे' णो णेयाउए भवइ । -सूय० श्रु२/अ/सू २० Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन कोश २६५ भगवान् गौतम-कई श्रमणोपासक होते हैं-( उनमें से कोई ) उनसे ( निर्ग्रन्थों से ) इस प्रकार ( प्रतिज्ञा लेने के लिए ] कहते हैं- हम इतने समर्थ नहीं है कि मुण्डित होकर, गृहस्थ से अनगार हो सकें । पर इस पर्व तिथियों के दिन परिपूर्ण पौषध का सम्यग प्रकार से अनुपालन करेंगे. स्थूल प्राणातिपात, स्थूल असत्य, स्थूल चौर्य, स्थूल मैथून और स्थूल परिग्रह को त्याग देंगे और इच्छा का परिमाण करेंगे। [ये प्रत्याख्यान ] द्विविध-त्रिविध से ( = करना और कराना, मन, वचन, काया से ) करूगा। हम अपने लिए [ उन दिनों में ] बिना खाये, पिये और स्नान किये तथा आसन्दी पीठिका पर बिना बैठे उम अवस्था में कालगत होजायें तो क्या उन्हें सम्यक कालगत होन हाँ, कहना योग्य हैं। अर्थात् वे देवादि होते हैं और प्राण, त्रम महाकाय व चिरञ्जीवी कहे जाते हैं और श्रमणोपासक के उनकी हिंसा के त्याग हैं अत: उन्हें...प्रत्याग्यान से रहित हुआ - जो तुम बताते हो-यह तो न्यायसंगत नहीं है । (ख) भगवं च उदाहु णियंठा खलु पुच्छियवा-आउसंनो! णियंठा ! इहखलु संतेगइया समणो वासगा भवंति । तसिं च णं एवं वृत्तपुव्वं भवइ–णो खलु वयं संचाएमो मुंडाभवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए, णो दलु वयं संचाएमो चाउद्दसट्टमुद्दिठ्ठपुण्णमासिणीसु पडिपुण्ण', पोसहं सम्म अणुपालेमाणा विहरित्तए । वयं णं अपच्छिममारणं तियसलेहणाझूसणाझूसिया भत्तपाणपडियाइक्खिया कालं अणवक माणा विहरिम्सामो। सव्वं पाणाइवायं पच्चक्खाइस्सामो, एवं सव्वं मुसावायं सव्वं अदिण्णाद णं सव्व मेहुणं सव्व परिग्गहं पच्चक्वाइस्सामो 'तिविह' तिविहेणं मा खलु ममट्ठाए किंचिविंकरे इवा कारवेह वाकरंत समणुजाणेह वा तत्थपि पच्चक्खाइस्सामो। तेणं अभोच्चा अपिच्वा असिणाइत्ता आसंदीपेढियाओ पच्चोकहिता ते तह कालगया किं वक्तव्बं सिया ? सम्म कालगय त्ति कर व्वं सिया। ते पाणा वि वुच्चति, ते तसा वि वुचंति, ते महाकाया, चिरटिइया। ते बहुतरगा पाण. जेहिं समणोवामगन्स सुपच्चक्खायं भवइ । ते अप्पयरगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अपच्चक वायं भवइ । से महया तसकायाओ उवसंतस्स उठ्ठियस्स पडिविरयस्स जं0 तुम्भे वा अणो वा एवं वयह-"णत्थि णं से केड परियाए जसि समणोवास गस्स एगपाणाए वि दंडे णिक्खित्ते । अयं पि भे उवएसे णो णेयाउए भवइ । -सूय० श्रु २/अ/मू २१ भगवान् गौतम कई भ्रमणोपासक निग्रंथों से कहते हैं कि हम न दीक्षित होने में समर्थ हैं औरन हममें श्रावक के वन पालने की सामर्थ्य है। (अब यही इच्छा है कि) हम अन्तिम मरण समयकी संलेखना में आत्मा को लगाकर भत्तपान का त्याग करके मरण को वाञ्छा नहीं करते हुए रहेंगे। पूर्णतः हिंसा से लगाकर पूर्णतः परिग्रहतकका त्रिविध. त्रिविध प्रत्याख्यान करेंगे। वे ऐसा ही करते हैं। उन तथा कालगत को क्या सम्यग कालगत कहना योग्य है। हाँ योग्य है। अर्थात् वे देवादि होते हैं। तब वे त्रमही कहे जाते हैं और त्रम जीव की हिमाके श्रमणोपासक को त्यागहे ही। अत: उन के लिये एकभी प्राणीको हिमासे राहत अवस्था नहीं बताना युत्ति-युक्त नहीं है। Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० वर्धमान जीवन-कोश (ग) भगवं च णं उदाहु-संतगइया मणुस्सा भवंति, तंजहा–महिच्छा महारंभा महापरिग्गहा अहम्मिया अधम्माणुया अधम्मिट्ठा अधम्मक्खाई अधम्मपापजीविणो अधम्मपलोइणो अधम्मपलज्जणा अधम्मसील-समुदाचारा अधम्मेण चेव वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति, ‘हण' छिंद, भिंद विगत्तगा लोहियपाणी चंडा रुद्दा खुद्दा साहम्सिया उक्कचण-वंचण-माया-णियडि-कूड-कवड-साइसपओगबहुला दुस्सीला दुब्बया दुप्पडियाणंदा असाहू । सव्वाओ पाणाइवायाओ अप्पडिविरया जावज्जीवाए सव्वाओ मुसावायाओ अप्पडिविरया जावज्जीवाए सव्वाओ अदिण्णादाणाओ अप्पडिविरया जावज्जीवाए सव्याओ मेहुणाओ अप्पडिविरया जावज्जीवाए सव्वाओ परिग्गहाओ अप्पडिविरया ज.वजोवाए, जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरण ताए दडे णिक्वित्ते, ते तओ आउगं विप्पजहंति, विप्पजहित्ता भुज्जो सगमादाए दोग्गइगामिणो भवंति । ते पाणावि वुच्चंति, ते तसावि बुचंति, ते महाकाया, ते चिरट्टिइया । ते बहुतरगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अपच्चक वायं भवइ । से महया तसकायाओ उवसंतस्स उवट्ठियस्स पडिविग्यस्स जं णं तुम्भे वा अण्णो वा एवं वयह–णत्थि णं से केइ परियाए जंसि समणोवासगस्स एगपाणाए वि दंडे णिक्वित्ते। अयं पि भे उवएसे णो णेयाउए भवइ। - सूय० श्रु २/अ७/सू २२ भगवान् गौतम-कई मनुष्य महेच्छ, महाहिंसक, महापरिग्रही, अधार्मिक, दुष्पर्यानन्द होते हैं अत: पूरी तरह से जीवन भर तक परिग्रह आदि से अप्रतिविरत रहते हैं। श्रमणोपासक के मृत्युपर्यन्त (वस होने से) उसकी हिसा के त्याग हो जाते हैं। वे अधार्मिक पुरुष आयुष्य पूर्ण कर लेते हैं और यहां से अपने पाप कर्म को साथ लेकर दुर्ग त (नरक) में चले जाते हैं। तब भी त्रस कहे जाते हैं। जिनकी हिसा से श्रमणोपासक निवृत्त होते हैं । अतः तुम्हारा कथन युक्तियुक्त नहीं है । (घ) भगवं च उदाहु-संतेगइया मणुस्सा भवंति, तंजहाअणारंभा अपरिगगहा धम्मिया धम्माणुया धम्मिट्ठा धम्मक्खाई धम्मपल्लोई धम्मपलजणा धम्मसमुदायारा धम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणा विहरति । सुसीला. सुव्वया सुप्पडिय गंदा सुसाहू। सव्याओ पाणाइवायाओं पडिविण्या जावज्जीवाए, सब्वाओ मुसावायाओ पडिविरया जावजीवाए. सब्बाओ अदिण्णादाणाओ पडिविण्या जावज्जोवाए. सव्वाओ मेहुणाओ पडिविरया जावज्जीवाए, सयाओ परिगहाओ पडिविरया जावज्जीचाए, जेहिं समणावासगरम आयाणसो आमरणताए हंडे णि किवते, ते तओ आउगं विप्पन्हं ति, विप्पजहिता ते तओ भुज्जो सगमयाए सोग्गष्ठ गामिणो भवंति। ते पाणावि बुरच ति जाव णो णेयाउए भवइ । -सूय० श्रु २/अ ७/५ -३ भगवान् गौतम--कई मनुष्य अहिंसक, अपरिग्रही, धार्मिक, धर्मानुगामी यावत् आजोवन पूर्णतः परिग्रह से प्रतिविरत होते हैं-जिनकी हिमा श्रमणोपासक मे आदानशः छूट जाती है। वे धार्मिक व्यक्ति आयुष्यपूर्ण करके सद्गति (देवगति) में जाते हैं । अतः वहां भी प्राण त्रम कहे जाते हैं। उन प्राणियों को श्रावकव्रत ग्रहण के दिन से लेकर मृत्यु पर्यन्त दण्ड नहीं देता है अतः श्रावक का व्रत सविषय है निविषय यहीं है। Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन कोश २६७ (च) भगवं च णं उदाहु-संतेगइया मणुस्सा भवंति, तं जहा - अप्पिच्छा अप्पारंभा अप्पपरिग्गहा धम्मिया धम्माणुया धम्मिट्ठा धम्मक्खाई धम्मप्पलोई धम्मपलज्जणा धम्मसमुदायारा धम्मेणं चेव वित्ति कप्पे माणा विहरंति, सुसीला सुब्वया सुम्पडियाणंदा सुसाहू | एगच्चाओ पाणाइवायाओ पडिविरया जावज्जीवाए, एगच्चाओ अप्पडिविरया । एगच्चाओ मुसावाओ डिविरया जावज्जीवाए, एगच्चाओ अप्पडिविरया । एगच्चाओ अदिण्णादाणाओ पडिविरया जावज्जीवाए, एगच्चाओ अप्पडिविरया । एगच्चाओ ओडिविया जावज्जीवाए, एगच्चाओ अनडिविरया । एगच्चाओ परिग्गहाओ पडिविरया जावज्जीवाए, एगच्चाओ अप्पडिविरया । जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए दंडे णिक्खित्ते । ते तओ आउगं विष्वजति, विप्पजहित्ता ते तओ भुज्जो सगमादाए सोग्गइग मिणो भवति । 1 ते पाणाविच्चंति, ते तसावि वृत्च्वंति ते महाकाया, ते चिरट्टिइया ते बहुतरगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स सुनच्चक्वायं भवइ । ते अपयरगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अप व बायें भवइ । से महया तसकायाओ उवसंतस्स उवट्ठियस्स पडिविरयस्स जंतुभे वा अण्णो वा एवं वयह-'" णत्थि णं से केइ परियाए जंसि समणोवासगस्स एगपाणाए वि दंडे णिक्वित्ते ।" अपि भे उसे णो णेयाउएभवइ । सूय० श्रु २अ / सू २४ 1 कई मनुष्य अल्पेच्छ, अल्पाहंसक, अल्पपरिग्रही, धार्मिक, धर्मानुगामी यात्रत् एक अंश से परिग्रही से अप्रतिविरत होते हैं – जिनकी हिमा के श्रमणोपासक के त्याग होते हैं । वे वहाँ से आयुष्य पूर्ण करते हैं। सद्गतिगामी होते हैं । जहाँ वे त्रस कहे जाते हैं । अतः भावक के व्रत को निर्विषय बनाना न्यायसंगत नहीं है । (छ) भगवं चणं उदाहु - संतेगइया मणुस्सा भवंति, तंजहा- आरणिया आवसहिया गामंतिया कण्हुई रहस्सिया - जेहिं समणोवासगत्स आयाणसो आमरणंताए दंडे णिक्खित्ते भवइ - णो बहुसंजया णो बहुपडिविरया सव्वपाणभूयजीवसत्तेहिं अपणा सच्चामोसाई एवं विरंजंतिअहंणं हंतव्य अण्णे तव्वा । अहं ण ऊज्जावेयव्त्रो अण्णे अज्जावेयव्त्रा, अहंण परिघेतन्त्र अण्णे परिघेता, अहं ण परितावेयव्वो अण्णे परितावेयच्या, अहं ण उद्दवेयन्त्रो अण्णे उद्दवेयव्त्रा । एवमेव इत्थकामेहिं मुच्छिया गिद्धा गढिया अज्झोववण्णा जाव वासाई चउपंचमाई छद्दसमाई अप्पयरो वा भुजयरो वा भुजित्तु भोगभोगाई' कालमासे कालं कित्त्वा अण्णयराई आसुरियाई किव्विसियाई, ठाणाई उववत्तारो भवंति । तओ वि विप्पमुचमाणा भुज्जो एलमृयत्ताए तमोरुवत्ताए पच्चायति । ते पाणा वि चुच्चात, ते तसावि बुचंति, ते महाकाया । ते चिरट्टिइया, ते बहुतरगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स सुपच्चक वायं भवइ । ते अप्पयरगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अपच्चक्वायं Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ह वर्धमान जीवन-कोश भवइ । से महया तसकायाओ उवसंतस्स उवट्ठियस्स पडिविरयस्स जंणं तुम्भे वा अण्णो वा एव वयह-णत्थि णं से केइ परियाए जंसि समणोवासगम्स एगपाणाए वि दंडे णिकि वत्ते अयं पि भे उवएसे णो णेयाउए भवइ। __ -सूय० श्रु २/अ ७/सू २५ कई मनुष्य आरण्यक, पण कुटीवासी, ग्रामान्तिक, (= ग्राम के समीप के वासी या भूमणशील) या रहस्य माधक होते हैं - जिनसे श्रमणोपासक को हिंसा-प्रवृत्ति हट जाती है। जो बहुसंयत नहीं होते हैं, बहुत प्रतिविरत नहीं होते हैं । जो मनगढन्त झूठ सच बातें इस प्रकार कहते हैं हम नहीं-दूसरे हनने योग्य हैं। वे यथा समय मरकर अन्यतर असूर या कल्विषी आदि में उत्पन्न होते हैं और वहां से निकलकर पुनः बकरे की तरह गूक और अन्धे होते हैं ! तब भी वे त्रस कहे जाते हैं। अतः श्रावकों के व्रत को निविषय बताना न्यायसंगत नहीं है। (ज) भगवं च उदाहु-संतेगइया पाणा दीहाउया, जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरताए दंड णिक्खित्ते भवइ। ते पुत्वामेव कालं करेंति, करेत्ता पारलोइयत्ताए पञ्चायति । ते पाणा वि वुच्चंति, ते तसा वि बुच्चंति. ते महाकाया, ते चिरिट्टिइया, ते दीहाउया। ते बहुयरगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स सुपच्चक्ख यं भवइ। ते अप्पयरगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अपच्चक वायं भवई। से महया तसकायाओ उव संतस्स उवट्ठियस्स पडिविरयस्स ज णं तुम्भे वा अण्णोवा एवं वयह-णत्थि णं से केइ परियाए जंसि समणोवासगम्स एगपाणए वि दंडे णि विखत्ते। अयं पि भे उवएसे णो णयाउए भवइ । -सूय० श्रु /अ ७ सू २६ कई प्राणो [श्रमणोपासक से ] दीर्घायुष्य होते हैं-जिनसे उसने अपने हिंसात्मक आदान-प्रवृत्ति को हटाली है। और जिनसे पहले ही वह [श्रमणोपासक ] कालकर जाते हैं। कालकरके पारलौकिकता के लिए चले जाते हैं। ( इसके बाद भी) वे ( दीर्घायुषी प्राणी) त्रस ही कहे जाते हैं।। वे महान् शरीर वाले हैं और चिरकाल की स्थिति वाले और दीर्घ आयु वाले एवं बहुत संख्या वाले हैं। इसलिए श्रमणोपासक का व्रत उनकी अपेक्षा से सुप्रत्याख्यान होता है अतः श्रावक के प्रत्याख्यान को निर्विष बनाना उचित नहीं है। (झ) भगवं च उदाहु-संतेगइया पाणा समाउया, जेहिं समणोवासगम्स आयाणसो आमरणंताए दंडे णिकि वत्ते भवइ । ते सममेव कालं करेंति, करेत्ता पारलोइयत्ताए पच्चायति । ते पाणा वि वुच्चंति, ते तसा वि वुन्चंति, ते महाकाया, ते समाउया, पाणा जेहिं समणोवासगस्स सुपच्चक्खायं भवइ । ते अप्पयरगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अपचक वायं भवइ । से महया तसकायाओ उवसंतस्स उवट्टियस्स पडिविर यस्स ज णं तुभे वा अण्णो वा एवं वयह-णस्थि णं से केड परियाए जंसि समणोवासगस्स एगपाणाए वि दंड णिविदत्ते । अयंपि भे उवएसे णो णेया'गए भवड। Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश २६६ भगवं च उदाहु-संतेगइया पाणा अप्पाउया, जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए दंडे णिक्वित्ते भवइ । ते पुयामेव कालं करेंति, करेत्ता पारलोइयत्ताए पच्चायति । ते पाणा वि बुचंति, ते तसा वि वुच्चंति, ते महाकाया, ते अप्पाउया । ते बहुयरगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स सुपच्चकावायं भवइ । ते अप्पयरगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अपच्चक्वायं भवइ । से महया तसकायाओ उवसंतस्स उवट्टियस्स पडिविरयस्स जं णं तुब्भे वा अण्णोवा एवं वयह–“णत्थि णं से केइ परियाए जंसि समणोवासगस्स एगपाणाए वि दंडे णिक्वित्ते। अयं पि भे उवएसे णो णेयाउए भवइ । -सूय० श्रु २/अ७/ सू २७-२८ कई प्राणो ( उनके ) सम आयुष्य वाले होते हैं। वे उनके ( श्रमणोपासक के ) समकाल में ही काल करते हैं। वे त्रस कहे जाते हैं। सम-आयुष्यवाले प्राणी बहुतर होते हैं जिनसे श्रमणोपासक के सुप्रत्याख्यान होते हैं। इसलिए धावक के प्रत्याख्यान को 'नविषय बताना न्यायसंगत नहीं है। कई जीव अल्प आयुष्य वाले होते हैं जिनसे उसने अपने हिसात्मक आदान-प्रवृत्ति को हटाली है और जिनसे पहले ही वह (श्रमणोपासक ) काल कर जाते हैं काल करके पारलौकिकता के लिए चले जाते हैं। ( इसके बाद भी) वे ( अल्पायुषी प्राणी ) त्रस ही कड़े जाते हैं और ऐसे प्राणी बहुतर है जिनसे श्रमणोपासक के सुप्रत्याख्यान होते हैं। इसलिये श्रावक के प्रत्याख्यान को निविषप बताना न्या पसंगत नहीं है। .११ नव भंगी प्रत्याख्यान भगवं च उदाहु-संतेगइया समणोवासगा भवंति। तेसिं च णं वुत्तपुव्वं भवइ-णो खलु वयं संचाएमो मुंडा भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए। णो खनु वयं संचाएमो चा उद्दसट्टमुद्दिट्टपुण्णम सिणीसु पडिपुण्णं पोसह अणुपालित्तए। णो खलु वयं संचाएमो अपच्छिममारणंतियसलेहणाझूसणाझूसिया भत्तयाणपडियाइक्विया क.लं अणवक खमाणा विहरित्तए । वयं णं सामाइयं देसावगासियं-पुरत्था पाईणं पडीणं दाहिणं उदीणं एतावताव सत्रपाणेहिं सवभूएहिं सव्वजीवहिं सव्वसन्तहिं दंडे णिकि वत्ते पाणभूयजीवसत्तेहिं खेमंकरे अहमंसि । .१-तत्थ आरेणं जे तसा पाणा, जेहिं समण वासगस्स आयाणसो आमरणंताए. दंडे णिकि खते, तेतओ आउ विप्पजहंति, विप्पजहित्ता तत्थ आरेणं चेव जे तसा पाणा, जेहिं समणोव सगस्स आयाणसो आमरणंताए दंडे णिकि वत्ते, तेसु पच्चायंनि तेहिं समणोवासगस्स सुपच्चक्खायं भवइ । ते पाणा वि वुत्त्वंति, ते तसा वि वुच्चंति, ते महाकाया, ते चिरटिइया। ते बहुतरगा पाणा जेहिं समणोवासगम्स सुपच्चक वायं भवइ । ते अप्पयरगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अपच्चक वायं भवइ । से महया तसकाय ओ उपसंतस्स उवट्टियस्स पडिविरयम्स जं णं तुम्भे वा अण्णो वा एवं वयह-''णत्थि णं से केइ परियाए जसि समणोवासगस्स एगपाणाए वि दंडे णिकि वन्ते ।' अयं पि भे उवापसे णो गया गए भवड़। -सूय० श्रु/अ ७/सू २६ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश कई श्रमणोपासक निग्रन्थों से कहते हैं कि-हममें यह सामर्थ्य नहीं है कि दीक्षित हो सकें। श्रावक के व्रत पालन कर सकें या संलेखना कर सकें। पर सामायिक व पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण दिशाओं की प्रतिदिन मर्यादा करके, उसके बाहर सब प्राणियों की हिंसा करना छोड़ देंगे और सब प्राण, भूत, जीव और सत्त्व पर क्षेत्र करनेवाले होकर रहेंगे। यदि मर्यादित भूमि के अन्दर के बस जीव -जिनकी हिंसा करना श्रमणोपासक ने जीवन भर के लिए छोड़ दी है - आयु पूर्ण करते हैं मर्यादित भूमि के अन्दर ही बस रूप से उत्पन्न होते हैं, तो श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान उनमें सुप्रत्याख्यान होता है। वे प्राणी भी कहलाते हैं तथा वस भी कह नाते हैं अतः श्रावक के प्रत्याग्यान को निविषय बताना न्यायसंगत नहीं है। .२-तत्थ आरेणं जे तसा पाणा, जेहिं समणोवासगम्स आयाणसो आमरणंताए दंडे णिक्वित्ते, ते तओ आउ विप्पजहंति, विप्पजहित्ता तत्थ आरेणं चेव जे थावरा पाणा, जेहिं समणोवासगस्स अट्ठाए दंडे अणि क्विते अणट्ठाए दंडे णिकि वत्ते, तेसु पच्चायति । तेहिं समणोवासगस्स अट्टाए इंडे अणि क्वित्ते अणट्टाए दंडे णिक्वित्ते । ते पाणा वि वुच्चंति, ते तसा वि वुचंति, ते महाकाया, ते चिरट्टिइया । ते बहुतरगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स सुपच्चक वायं भवइ । ते अप्पयरगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अपच्चक वायं भवइ । से महया तसकायाओ उवसंतस्स उवट्टियस्स पडिविरयस्स ज णं तुब्भे वा अण्णो वा एवं वयह-- “णत्थि णं से केइ परियाए जंसि समणोवासगस्स एगपाणाए वि दडे णि वि वत्ते ।” अयंपि भे उवएसे णो णेयाउए भवइ । -सूय० श्रु २/अ ७/सू ६ मर्यादित मूमि के अन्दर जो त्रस जीव हैं-जिनको हिंसा करने का श्रमणोपासक ने जीवन भर के लिये त्याग कर दिया है-वे आयु पूर्ण करते हैं और काल करके उन स्थावर प्राणियों में उसी भूमि में उत्पन्न होते हैं -जिनकी सप्रयोजन हिमा का श्रपणोपासक ने त्याग नहीं किपा है और निष्प्रयोजन हिसा का मग किया है अतः उनको सप्रयोजन हिसा उनके द्वारा होती है और निप्रयोजन हिंसा नहीं होती। उन (स्थावर प्राणिों ) को .... (मभा शब्द नहीं होने से ) त्रस कहते हैं-यावत् यह कथन योग्य नहीं है । अर्थात वे प्राणी भी कहलाते हैं और बस भी कहलाते हैं वे चिरकाल तक स्थित रहते हैं उन्हें श्रावक-दंड नहीं देता है अतः श्रावक ने व्रत को निविषय बताना न्या पसंगत नहीं है। १-तत्थ 'अरेणं जे तसा पाणा, जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए दंडे णिकि वत्ते, ते तओ आउ विप्पजहंति, विप्पजत्तिा तत्थ परेणं चेव जे तसा थावरा पाणा, जेहिं समणोवासगम्स आयाणसो आमग्णंताए दंडे णिकि वत्ते । तेसु पच्चायति । तेहिं समणोवासगस्स सुपच्चक वायं भवइ । ते पाणा वि वुच्चंति, ते तसावि चुच्चंति, ते महाकाया, ते चिरट्ठिझ्या । ते बहुतरगा पाणा जेहिं समणोवासगम्स सुपच्चक्खायं भवइ । ते अप्पयरगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अपचक्खायं भवइ। से मया तसकायाओ उवसंतस्स उवठ्ठियस्स पडिविग्यस्म ज णं तुम्भे वा अण्णो वा एवं Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन कोश ३०१ यह - ' णत्थि णं से केइ परियाए जंसि समणोवासगस्स एगपाणाए वि दण्डे णिक्खित्ते । अयं पि भे उवएसे णो णेयाउए भवइ । - सूय० श्रु २ / अ७ / सू २६ वहां सभी प्रदेश में रहनेवाले जो त्रस प्राणी हैं जिनको श्रावकों ने व्रत ग्रहण के दिन से लेकर मरणपर्यंत दंड देना त्याग दिया है वे अपनी उस आयु को त्याग कर उस देश के दूरवर्ती देश में रहनेवाले जो त्रस और स्थावर प्राणी हैं जिनको दंड देना श्रावक ने व्रत ग्रहण के दिन से मरणपर्यंत छोड़ दिया है उनमें उत्पन्न होते हैं । उन प्राणियों में श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान चरितार्थ होता है वे प्राणी भी कहलाते हैं और त्रस भी कहलाते हैं उन्हें श्रावक दंड नहीं देता है अतः श्रावकों के प्रत्याख्यान को निर्विषय बताना न्याययुक्त नहीं है । .४ तत्थ आरेण जे थावरा पाणा, जेहिं समणोवासगस्स अट्ठाए दंडे अणिक्खित्ते अणट्ठाए दंडे णिक्खित्ते । ते तओ आउं विप्पजहंति, विप्पजहित्ता तत्थ आरेणं चेव जे तसा पाणा, जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए दंडे णिक्खित्ते, तेसु पच्चायंति । तेहिं समणोवास गरस सुपरच्चक्खायं भवइ । ते पाणाविच्चति, ते तसा वि वुच्चंति से महाकाया, ते चिरट्ठिइया । बहुयरगा पाणा जेहिं समणोवासगस सुपच्चक्खायं भवइ । ते अप्पयरगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अपच्चक्खाय भवइ । से महया तसकायाओ उवसंतस्ससं उवट्ठियस्स पडिविरयस्स जं णं तुब्भे वा अण्णोवा एवं यह - ' णत्थि से केइ परियाए जंसि समणोवासगस्स एगपाणाए वि दंडे णिक्खित्ते" । अयं प भे उसे णो णेयाउए भवइ । - सूय० श्रु २/अ ७ / सू २६ मर्यादित भूमि के अन्दर के जो स्थावर जीव है - जिनकी श्रमणोपासक ने सप्रयोजन हिंसा नहीं छोड़ी है किन्तु निष्प्रयोजन हिंमा छोड़ी है—वे मर्यादित भूमि में त्रस रूप से उत्पन्न हों । अर्थात् वे उस आयु को त्याग कर वहां समीप देश में जो त्रस प्राणी हैं जिनको श्रमणोपासक ने व्रत ग्रहण करने के दिन से लेकर मरणपर्यंत दंड देना वर्जित किया है उनमें आकर उत्पन्न होते हैं उनमें श्रमणोपासक का सुप्रत्याख्यान होता है वे प्राणी भी कहलाते हैं और त्रस भी कहलाते हैं अतः उसके अभाव के कारण श्रावकों के प्रत्याख्यान को निर्विषय बताना न्याययुक्त नहीं है । • ५ तत्थ आरेणं जे थ वरा पाणा, जेहिं समणोवासगस्स अट्ठाए दंडे अणिक्खित्ते अट्ठाए दंडे णिक्खित्ते, ते तओ आउं विप्पजहंति, विप्पजहित्ता ते तत्थ आरेणं चेव जे थावरा पाणा, जेहिं समणोवासगस्स अट्ठाए दंडे अणिक्खित्ते अणट्ठाए दंडे णिक्खित्ते, तेसु पच्चायंति । तेहिं समणोवासगस्स अट्ठाए दण्डे अणिक्खित्ते अणट्ठाए दण्डे णिक्खित्ते । ते पाणावि जाव अयं पि भेउवए णो णेयाउए भवइ । - सूय० श्रु २/अ ७ / सू २६ मर्यादित भूमि के अन्दर के स्थावर प्राणी जिनकी श्रमणोपासक ने सप्रयोजन हिंसा नहीं छोड़ी — किन्तु निष्प्रयोजन हिंसा छोड़ी है—वे स्थावर प्राणी अपनी उस आयु को त्याग करके वहां जो समीपवर्ती स्थावर प्राणी हैं - जिन्हें श्रावक ने प्रयोजनवश दंड देना नहीं छोड़ा है परन्तु बिना प्रयोजन दंड देना छोड़ दिया- उनमें उत्पन्न होते हैं । उन्हें श्रमणोपासक प्रयोजनवश तो दंड देता है परन्तु बिना प्रयोजन नहीं देता है। इसलिए श्रावक के प्रत्याख्यान को निर्विषय बताना न्याययुक्त नहीं है । Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन कोश ३०२ .६ तत्थ परेण जे थावरा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अट्ठाए दंडे अणिक्खित्ते अणट्ठाए दण्डे णिक्खित्ते, ते तओ आउं विप्पजहंंति, विप्पजहित्ता तत्थ परेणं चेव जे तसा थावरा पाणा, जेहिं समणोवासगरस आयाणसो आमरणंताए दंडे णिक्खित्ते, तेसु पच्चायंति । तेहिं समणोवासगस्स सुपच्चक्खाय भवइ । ते पाणावि जाव अयं पि भे उवएसे णो णेयाउए भवइ । - सूय० श्रु २ अ७ / सू २६ वहां जो मर्यादित भूमि के बाहर स्थावर प्राणी है जिनको श्रावक ने अर्थ दण्ड देना नहीं छोड़ा है किन्तु अर्थ दण्ड देना छोड़ दिया है। वे उस शरीर की आयु को छोड़ देते हैं. छोड़कर वहां से दूर देश में जो त्रस स्थावर प्राणी है जिनको श्रावक ने व्रत ग्रहण के दिन से मरण पर्यंत दण्ड देना वर्जित किया है। उनमें उत्पन्न होते हैं । जिनमें श्रावक का सुप्रत्याख्यान होता है वे प्राणी भी कहलाते हैं और त्रस भी कहलाते हैं अतः श्रावक के व्रत को निर्विषय कहना न्यायसंगत नहीं है । .S तत्थ परेण जे तसथावरा पाणा, जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए दंडे णिक्खित्ते, ते तओ आउ विप्पजति विप्पजहित्ता तत्थ आरेणं जे तसा पाणा, जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए दण्डे णिक्खित्ते, तेसु पच्चायंति । तेहिं समणोवासगस्स सुपरचकखायं .c भवइ । ते पाणा वि जाव अयंपि भे उवएसे णो णेयाउए भवइ । - सूय० श्रु २/अ ७ / सू २६ मर्यादित भूमि के बाहर जो त्रस स्थावर प्राणी है - जिनकी हिंसा करने के श्रमणोपासक के आमृत्यु त्याग हैं । जीव आयु समाप्त करते हैं और काल करके मर्यादित भूमि के उन त्रस प्राणियों में उत्पन्न हो जाते हैं - जिनको हिंसा मृत्यु पर्यन्त श्रमणोपासक ने छोड़ दी है । अर्थात् उनमें श्रावक का सुप्रत्याख्यान होता है । वे प्राणी भी कहे जाते हैं और सभी कहे जाते हैं अतः श्रावक के व्रत को निर्विषय बताना न्यायसंगत नहीं है । तत्थ परेणं जे' तसथावरा पाणा जेहिं समणोवासगहस आयाणसो आमरणंताए दण्डे णिक्खित्ते, ते तओ आउ बिप्पजहंति, विप्पजहित्ता तत्थ आरेणं जे थावरा पाणा, जेहिं समणोत्रासगस्स अट्ठाए दण्डे अणिक्खित्ते अणट्टाए दण्डे णिक्खित्ते, तेसु पच्चायंति । तेहिं समणोवास गस्स सुपचचकखायं भवइ । ते पाणा वि जाव अपि भे उवएसे गोणेयाउए भवइ । - सूय० श्रु · / अ ७ / सू २६ वहां जो वे त्रस और स्थावर प्राणी हैं श्रावक के द्वारा ग्रहण किये हुए देश परिमाण से अन्य देशवर्ती है जिनको श्रावक ने व्रतारम्भ से लेकर मरण पर्यन्त दण्ड देना छोड़ दिया है वे उस आयु को छोड़ देते हैं और जो छोड़कर वहां जो समीपवर्ती स्थावर प्राणी हैं जिनको श्रावक ने अर्थ दण्ड देना नहीं छोड़ा है किन्तु अनथ दण्ड देना छोड़ दिया है। उनमें वे उत्पन्न होते हैं जिनको भावक अर्थ दण्ड देन नहीं छोड़ता है किन्तु अनर्थ दण्ड देना छोड़ देता है वे प्राणी भी कहलाते हैं और त्रस भी कहलाते हैं इसलिए श्रावक के व्रत को निर्विषय कहना न्यायसंगत नहीं है । Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन कोश ३०३ .ε तत्थ परेणं जे तसथावरा पाणा, जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए दण्डे णिक्खित्ते, ते तओ आउ प्पिनहंति, विप्पजहित्ता ते तस्थ परेणं चेव जे तसथावरा पाणा, जेहिं समणोवास गस सुपरचक्वायं भवइ । ते पाणा वि जाव अयंपि भे उबरसे णो णेयाउए भवइ । - सूय० श्रु २ / अ ७ सू २६ 1 उस समय जो त्रस और स्थावर प्राणी श्रावक के द्वारा ग्रहण किये हुए देश परिमाण से अन्य देशवर्ती हैं जिनको श्रावक ने व्रत ग्रहण से लेकर मरण पर्यन्त दण्ड देना छोड़ दिया है वे उस आयु को छोड़ देते हैं और छोड़कर वे धावक के द्वारा ग्रहण किये हुए देश परिमाण से अन्य देशवर्ती जो बस और स्थावर प्राणी हैं जिनको आवक ने व्रत ग्रहण से लेकर मरण पर्यन्त दण्ड देना छोड़ दिया है उनमें उत्पन्न होते हैं - जिनमें श्रावक का प्रत्याख्यान होता है । वे प्राणी भी कहलाते हैं और त्रस भी कहलाते हैं । अतः श्रावक के व्रत को निर्विषय बताना न्यायसंगत नहीं है । अर्थात् मर्यादित भूमि से बाहर के त्रस - स्थावर प्राणी उसी भूमि के त्रस स्थावर प्राणियों में उत्पन्न होते हैंजिनकी हिंसा को उसने मृत्यु पर्यन्त छोड़ दी है तो उनमें उसके सुप्रत्याख्यान होते हैं । .१२ त्रस स्थावर प्राणियों का अविछिन्न } भगवं चणं उदाहुण एवं भूयं ण एवं भंडवं 'ण एवं भविस्सं जण्णं तसा पाणा बोजिहिंत, थावरा पाणा भविस्संति। थावरा पाणा बोद्धिजिहिंति तसा पाणा भविस्संति । अवोण्णेिहिं तसथावरे हिं पाणेहिं जण्णं तुम्भे वा अण्णोवा एवं वदह - 'णत्थि से केइ परियाए जंसि समणोवासरस एगपाणाए वि दंडे णिक्खित्ते। अयंपि मे उवएसे णो णेयाउए भवइ । - - सूय० श्रु २/अ ७ सू ३० भगवान् गौतम - (आयुष्मान् ? ) इसलिए यह न कभी हुआ न कभी होता है और न कभी होगा कि सभी स : जंगम) प्राणी मिट जायं और स्थावर प्राणी हो जायं या स्थाबर प्राणी मिट जायं सब जंगम प्राणी हो जायं ! त्रस स्थायर प्राणियों के अविछिन्न होने पर भी जो तुम या और दूसरे कोई ऐसा कहते हो कि कोई ऐसी पर्याय नहीं है जिसमें श्रमणोपासक के सुप्रत्याख्यान हो सके. - यह कथन युक्तिसंगत नहीं है। व्याख्या इस सूत्र के नो भागों की इस प्रकार व्याख्या करनी चाहिए। १-आवक ने जितने देश की मर्यादा ग्रहण की है उतने देश के अन्दर जो उस स्थावर प्राणी निवास करते हैं वे जब मरकर उसी देश में फिर स-योनि में उत्पन्न होते हैं तब वे धावक के प्रत्याख्यान के विषय होते हैं अतः श्रावक के प्रत्याख्यान को निर्विषय कहना ठीक नहीं है। यह इस सूत्र के पहले भाग का आशव है । इस सूत्र के दूसरे भाव का तात्पर्य यह है कि श्रावक ने जितने देश की मर्यादा ग्रहण की है उतने देश के अन्दर रहनेवाले स प्राणी त्रस शरीर को छोड़कर उसी क्षेत्र में स्थावर योनि में आत्म ग्रहण करते हैं तब धावक उनको अनर्थ दण्ड देना वर्जित करता है। इस प्रकार उसका प्रत्याख्यान सविषयक होता है, निविषयक नहीं होता। तीसरे भाग का भाव यह है कि धावक ने जितने देश की मर्यादा ग्रहण की है उसके अन्दर निवास करनेवाले जो स प्राणी हैं। वे जब उस मर्यादा से बाह्य देश में त्रस स्थावर योनि में उत्पन्न होते हैं । तब उनमें श्रावक का सुप्रत्याख्यान होता है । Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ वर्धमान जीवन-कोश . इस सूत्र के चौथे भाग का भाव यह है कि-श्रावक के द्वारा ग्रहण की हुई मर्यादा के अन्दर रहनेवाले जो स्थावर-प्राणी हैं वे मरकर उस मर्यादा के अन्दर जब त्रस योनि में उत्पन्न होते हैं तब उनमें श्रावक का सुप्रत्याख्यान होता है। इस सूत्र के पांचवें भाग का सार यह है कि श्रावक के द्वारा ग्रहण की हुई मर्यादा के अन्दर रहनेवाले जो स्थावर । उसी देश में रहनेनाले स्थावर जीवों में उत्पन्न होते हैं तब उनको अनर्थ दण्ड देना श्रावक वजित करता है। ___इस सूत्र के छठे भाग का तात्पर्य यह है कि श्रावक के द्वारा ग्रहण की हुई मर्यादा से बाहर रहनेवाले जो स्थावर प्राणी हैं वे जब उस मर्यादा के अन्दर रहनेवाले त्रस और स्थावर प्राणियों में उत्पन्न होते हैं तब उनमें श्रावक का सुप्रत्याख्यान होता है। इस सूत्र के सप्तम भाग का अभिप्राम यह है कि श्रावक के द्वारा ग्रहण की हुई मर्यादा से बाहर रहनेवाले त्रस और स्थावर प्राणी जब उसी मर्यादा के अन्दर रहनेवाले त्रस प्राणियों में उत्पन्न होते हैं तब उनमें श्रावक का सुप्रत्याख्यान होता है। इस सूत्र का आठवें भाग का अभिप्राय यह है कि श्रावक के द्वारा ग्रहण की हुई देश मर्यादा से बाहर रहनेवाले त्रस-स्थावर प्राणी जब उस मर्यादा के अन्दर रहनेवाले स्थावर प्राणियों में उत्पन्न होते हैं तब श्रावक उन्हें अनर्थ दण्ड देना वर्जित करता है। इस सूत्र के नववें भाग का भाव यह है कि श्रावक के द्वारा ग्रहण की हुई मर्यादा से बाहर रहनेताले बस-स्थावर प्राणी जब मर्यादा से बाह्य देश में हो त्रस और स्थावर रूप में उत्पन्न होते हैं तब उनमें श्रावक का सुप्रत्याख्यान होता है। इसी प्रकार प्रथम भाग से लेकर नो ही भाग की व्याख्या करनी चाहिए परन्तु जहां-जहां त्रस प्राणियों का ग्रहण है.वहां सर्वत्र व्रत ग्रहण के समय से लेकर मरण पर्यन्त उन प्राणियों को श्रावक दण्ड नहीं देता है-यह तात्पर्य जानना चाहिए। और जहां स्थावर का ग्रहण है वहां श्रावक के द्वारा अनर्थ दण्ड वजित करना समझना चाहिए। शेष अक्षरों की योजना अपनी बुद्धि के अनुसार कर लेनी चाहिए। इस प्रकार बहुत दृष्टांतों के द्वारा श्रावक के व्रत को सविषय होना सिद्ध करके अब भगवान् गौतम स्वामी उदक के प्रश्न को ही अत्यन्त असंगत बतलाते हैं-भगवान् गौतम उदक से कहते हैं कि हे उदक ! पहले व्यतीत हुए अनन्त काल में ऐसा कभी नहीं हुआ तथा अनागत अनन्त काल में ऐसा कभी नहीं होगा एवं वर्तमान काल में ऐसा नहीं हो सकता है कि सभी त्रस प्राणी सर्वथा उच्छिन्न हो जायें और सभो स्थावर शरीर में जन्म ग्रहण कर लें तथा ऐसा भी नहीं हुआ है और न है कि सभी स्थावर प्राणी सर्वथा उच्छि न हो जायें और सभी त्रस योनि में जन्म ग्रहण कर लें। यद्यपि कभी त्रस प्राणी स्थावर होते हैं और स्थावर प्राणी कभी त्रस होते हैं। इस प्रकार इनका परस्पर संक्रमण होता अवश्य है परन्तु सबके सब स-स्थावर हो जाये अथवा सभी स्थावर एक ही कल में त्रस हो जाये-ऐसा कभी नहीं होता है। ऐसा त्रिकाल में भी सम्भव नहीं है एक प्रत्याख्यान करनेवाले श्रावक को छोड़कर बाकी के नारकी द्वीन्द्रियादि तिथंच तथा मनुष्य और देवताओं का सर्वथा अभाव हो जायें। उस दशा में श्रावक का प्रत्याख्यान निविषय Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन कोश ३०५ हो सकता है। यदि प्रत्याख्यानी श्रावक की जीवन दशा में ही सभी नारकी आदि त्रस प्राणी उच्छिन्न हो जायँ परन्तु पूर्वोक्त रीति से यह बात सम्भव नहीं है तथा स्थावर प्राणी अनन्त है अतः अनन्त होने के कारण असंख्येय त्रस प्राणियों में उनकी उत्पत्ति भी सम्भव नहीं है- यह बात अति प्रसिद्ध है। इस प्रकार जब कि त्रस और स्थावर प्राणी सर्वथा उच्छिन्न नहीं होते हैं तब आप तथा दूसरे लोगों का यह कहना कि 'इस जगत में ऐसा एक भी पर्याय नहीं है जिनमें श्रावक का एक त्रस के विषय में भी दण्ड देना वजित किया जा सके। यह सर्वथा अयुक्त है। .१३ उपसंहार पद.१ भगवं च उदाहु -आउसंतो! उदगा ! जे खलु समणं वा माहणं वा परिभासइ मित्ति मण्णइ आगमित्ता णाणं, आगमित्ता दंस, आगमित्ता चरित्तं पावाणं कम्माणं अकरणयाए [ उट्ठिए ? ], से खलु परलोगपलिमंथत्ताए चिट्ठइ। जे खलु समणं वा माहणं वा णो परिमासइ मित्ति मण्णइ आगमित्ता णाणं आगमित्ता दंसणं, आगमित्ता चरित्तं पावाणं कम्माणं अकरणयाए [उट्ठिए १] से खलु परलोगविसुद्धीए चिट्ठइ । ।३१।। तए णं से उदए पेढालपुत्ते भगवं गोयमं अणाढायमाणे जामेव दिसिं पाउब्भूए तामेव दिसिं पहारेत्थ गमणाए । ॥३२॥ भगवं च णं उदाहु-आउसंतो! उदगा ! जे खलु तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतिए एगमवि आरियंधम्मियं सुवयणं सोचा णिसम्म अप्पणो चेव सुहमाए पडिलेहाए अणुत्तरं जोगखेमपयं लभिए समाणे सो वि ताव.तं आढाइ 'परिजाणेइवंदइ णमंसइ सक्कारेइ सम्माणेइ कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासइ । -सूय० श्रु २/अ ७/सू ३१, ३२-३३ भगवान् गौतम-आयुष्मान उदक ! जो श्रमण-माहण की व्यर्थ निन्दा करते हैं, वे भले ही उनसे मैत्री रखते हो या पाप कर्म को निःशेष करने के लिए ज्ञान, दर्शन, चारित्र से युक्त हों तो भी उनका वह (कर्तव्य) परलोक को बिगाड़ने के लिए ही है और जो श्रमण-माहण की व्यर्थ निन्दा नहीं करता है, उनसे मैत्री रखता है और पाप कर्मों के विनाश के लिए ज्ञान, दर्शन और चारित्र से युक्त है -उनके (कर्तव्य) परलोक की विशुद्धि के लिए हैं। ___ इस [प्रकार सुनने के बाद उदक पेढालपुत्र भगवान् गौतम का अनादर करते हुए, जहां से आया था वहीं जाने को उद्यत हुआ। तब भगवान् बोले-आयुष्मान् उदक ! तथा भूत श्रमण या ब्राह्मण के पास से आर्य धर्म का एक भी सूवचन सुनकर-समझकर, जो सुक्ष्म प्रतिलेखन-विचार करने से उसे अपने लिए वे श्रेष्ठ योगक्षेम रूप पद-वाक्य प्राप्त कराने वाले प्रतीत होते हों तो वह व्यक्ति उनका आदर करता है, उपकार मानता है, उन्हें वन्दना-नमस्कार करता है। सत्कार-सम्मान देता है, उन्हें कल्याणकारी, मंगलकारी, देवस्वरूप समझकर उनकी पर्युपासना करता है । .२ तए णं से उदए पेढालपुत्ते भगवं गोयमं एव वयासी-एएसिणं भंते ! पदाणं पुव्वि अण्णाणयाए अस्सवणयाए अबोहीए अणभिगमेणं अदिवाण अस्सुयाणं अमुयाणं अविण्णायाणं अणिज्जूढाणं अव्योगडाणं अव्वोच्छिण्णाणं अणिसिट्ठाणं अणिवूढ.णं अणुवहारियाणं एयम8 णो सद्दहियं णो पत्तियं णो रोइयं। Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ वर्धमान जीवन-कोश एएसिणं भंते ! पदाणं एहिं जाणयाए सवणयाए बोहीए अभिगमेणं दिवाणं सुयाणं मुयाणं विण्णायाणं णिज्जूढाणं वोगडाणं वोच्छिण्णाणं णिसिट्ठाणं णिवूढाणं उवधारियाणं एयम सद्दहामि पत्तियामि रोएमि ‘एवामेयं जहाणं तुब्भे वदह। -सूय० श्रु २/अ ७ सू ३४ तब उदय पेढालपुत्र भगवान् गौतम से बोले भंते पहले मैं अज्ञानता अश्रवणता, अबोधि ( = अप्रतीति ) और अनभिगम ( = अप्रवेश ) से इन अदृष्ट, अश्रुत अस्मृत, अविज्ञात, अव्याकृत, ( = गुरुमुख से अप्राप्त ), अनिगूढ़ ( = अप्रकट ) अविच्छिन्न ( = सम्पूर्ण, सांगोपांग ), अनिशिष्ट ( = विशिष्ट ), अनियूंढ ( = अनिर्वाहित) और अनुपधारित (= स्मृतिकोष में असंग्रहित पदों (= वाक्यों) के इस अर्थ की श्रद्धा नहीं की थी, प्रतोति नहीं को थी, और रुचि नहीं की थी। परन्तु अब जानने से, सुनने से और बोध होने से.. जैसा आप कह रहे हैं उसी अर्थ की श्रद्धा. प्रतीति और रुचि करता हूँ। .३ तएणं भगवं गोयमे उदगं पेढालपुत्तं एवं वयासी-सहहाहि णं अजो! पत्तियाहि णं अज्जो ! रोएहि णं अजो! एवमेयं जहा णं अम्हे वयामो॥३४॥ तब भगवान् गौतम बोले-वैसा ही) श्रद्धा करो आर्य ! प्रतीति करो आर्य ! रुचि करो आर्य ! जैसा हम कहते हैं। उदक पेढालपुत्र से चार महाव्रत से पांच महाव्रत रूप धर्म को निवेदन-और स्वीकार करना.४ तएणं से उदगं पेढालपुत्ते भगवं गोयम एव वयासी-इच्छामि णं भंते ! तुब्भं अंतिए चाउज्जा माओ धम्माओ पंचमहव्वइयं संपडिक्कमणं धम्म उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए ।।३६।। इसके बाद उदक पेढालपुत्र बोले - भंते मैं आपके पास चार महाव्रत वाले धर्म से ( अलग होकर ) सप्रतिक्रमण सहित पांच महाव्रत वाले धर्म को प्राप्त करके रहना चाहता हूं। तएणं भगवं गोयमे उदगं पेढालपुत्तं गहाय जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ । तएणं से उदए पेढालपुत्ते समणं भगवं महावीरंतिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ णमंसइ, वंदित्ता, णमंसिता एवं वयासी-इच्छामि णं भंते ! तुब्भं अतिए चाउज्जामाओ धम्माओ पंचमहव्वइयं सपडिक्कमणं धम्म उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेहि। तए णं से उदए पेढालपुत्ते समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए चाउन्नामाओ धम्माओ पंचमहव्वइयं सपडिक्कमणं धम्म उवसंपज्जित्ताणं विहरइ। -सूय० श्रु२/अ ७ सू ३७, ३८ इसके बाद भगवान् गौतम उदक पेढालपुत्र को साथ में लेकर जहां महावीर स्वामी थे। वहां आये। आकर उदक पेढालपुत्र ने श्रमण भगवान् महावीर की तीन बार आदक्षिणा-प्रदक्षिणा की। फिर वंदना नमस्कार किया और इस प्रकार बोले-मैं चाहता हूं-आपके पास चतुर्यामिक धर्म से ( अलग होकर ) प्रतिक्रमण सहित पांच महाव्रत रूप धर्म को प्राप्त करके, विचरण करने के लिए। भगवान् बोले-जैसे सुख हो-वैसे करो, देवानुप्रिय ! प्रतिबंध ( == विलम्ब) मत करो। तब उदग पेढालपुत्र श्रमण भगवान् महावीर के पास चातुर्यामिक धर्म से ( अलग होकर ), प्रतिक्रमण सहित पाँच महाव्रत रूप धर्म का स्वीकार करके विधरने लगे। Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन - कोश . ५१ गौतम गणधर के प्रश्न नहाणंभंते ! वयं एयमट्ठ जाणामो-पासामो तहाणं अणुत्तरोववाइया वि देवा एयमट्ठ जाणंति पासंति ? हंता गोयमा ! जहाणं वयं एयमट्ठ जाणामो-पासामो तहाणं अणुत्तरोववाइया वि देवा एयमट्ठ जाति पासंति । ३०७ सेकेणट्ठेणं जाव पासंति ? गोयमा ! अणुत्तरोववाइयाणं अनंताओ मणोदव्ववग्गणाओ लद्वाओ पत्ताओ अभिसमण्णागाओ भवति, तेणट्टेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ जाव पासंति । - भग० श १४ / उ ७ सू ७८, ७६ हाँ गोतम ! जिस अपन दोनों पूर्वोक्त बात को जानते देखते हैं, उसी प्रकार अनुत्तरोपपातिक देव भी इस बात को जानते देखते हैं । अनुत्तरौपपातिक देवों को अवधि ज्ञान की लब्धि से मनोद्रव्य की अनन्त वर्ग्रणायें ज्ञेय रूप से उपलब्ध है, प्राप्त है, अभिमन्वागत हुई है । इस कारण हे गौतम! ऐसा कहा गया है कि यावत् अनुत्तरौपपातिक देव जानते-देखते हैं । नोट - भगवान् के कथन से आश्वासन प्राप्त कर गौतम स्वामी ने दूसरा प्रश्न किया कि हे भगवन् ! भविष्यकाल में अपने दोनों तुल्य हो जायेंगे । यह बात आप तो केवल ज्ञान से जानते हैं और मैं आपके कथन से जानता हूं किन्तु क्या अनुत्तरौपपातिक देव भी यह बात जानते-देलते हैं ? इस प्रश्न का आशय यह है कि अनुत्तरौपपातिक देव विशिष्ट अवधि ज्ञान के द्वारा मनोद्रव्य वर्गणा को जानते-देखते हैं । अयोगी अवस्था में अपन दोनों का निर्वाण-गमन का अनिश्चय करते हैं इस अपेक्षा से यह कहा गया है कि अपन दोनों की भावी तुल्य अवस्था रूप अर्थ को जानते और देखते हैं । .५२ परिनिर्वाण के दिन - भगवान् महावीर ने गौतम गणधर को देवशर्मा को प्रतिबोधार्थ भेजा— एवमाख्याय समवसरणान्निर्ययौ प्रभुः । हस्तिपालनरेन्द्रस्य शुल्कशालां जगाम च ॥ २१७५। स्वामी तद्दिनयामिन्यां विदित्वा मोक्षमात्मनः । दध्यावहो गौतमस्य मयि स्नेहो निरत्ययः || २१८|| स एव केवलज्ञानप्रत्यूहोऽस्य महात्मनः । स च्छेद्य इति विज्ञाय निजगादेति गौतमम् ॥ २१६ ॥ देवशर्मा द्विजो ग्रामे परस्मिन्नस्ति सत्वया । बोधं प्राप्स्यति तद्धेतोस्तत्रत्वं गच्छ गौतम ! ||२२|| यथाऽऽदिशति मे स्वामीत्युदित्वा च प्रणम्य च । जगाम गौतममुनिस्तथाचक्रे प्रभोर्वचः ॥ २२२ ॥ - त्रिशलाका० पर्व १० / सर्ग १३ भविष्य बाकी हकीकत कहकर श्रीवीर प्रभु समयसरण में से बाहर निकले और हस्तिपाल राजा की शुल्क (दान लेने की ) शाला में गये । उस दिन ( कार्तिक कृष्णा अमावश्या) की रात्रि में हो स्वयं का मोक्ष जानकर भगवान् महावीर ने विचार किया - अहो ! गौतम का स्नेह हमारे पर अत्यन्त है और वही उसको केवल ज्ञान की उत्पत्तिमें अन्तराय करता है । इस कारण उस स्नेह को हमारे से छेदन हो जाना चाहिए। ऐसा विचार कर उन्होंने गौतम को कहा - गौतम ! यहाँ से नजदीक के ग्राम में देवशर्मा नामक ब्राह्मण रहता है । वह तुम्हारे द्वारा प्रतिबोधित होगा । इसलिए तुम वहाँ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन कोश जाओ। यह सुनकर गौतम ने कहा-जैसी आपकी आज्ञा हो। ऐसा कहकर गौतम वीरप्रभु को नमस्कार कर तुरन्त वहाँ गये और प्रभु का वचन सत्य किया। अर्थात् देवशर्मा ब्राह्मण को प्रतिबोधित किया। .५३ भगवान महावीर का परिनिर्वाण सुनकर गौतम का विलाप और केवलज्ञान .१ गार्हस्थ्ये त्रिंशदब्दी द्विचत्वारिंशत्समा व्रत। इति द्वासप्ततिवर्षाण्यायुर्वीरप्रभोरभूत् । श्रीपार्श्वनाथनिर्वाणात् सार्धे वर्षशतद्वये । गते श्रीवीरनाथस्य निर्वाण समजायत ।। इतश्च देवशर्माणं बोधयित्वा निवृत्तवान्। शुश्राव गौतमः स्वामीनिर्वाणं सुरवात या ।। गौतमस्वाम्यथोत्ताम्यंश्चिन्तयामास चेतसि । एकस्याह्नः कृते भर्चा किमहं प्रेषितोऽस्मि हा !। जगन्नाथमियत्कालं सेवित्वाऽन्त न दृष्टवान् । अधन्यः सर्वथाऽस्म्येष धन्यास्ते तत्र ये स्थिताः। गौतम ! त्वं वजमयो वजादप्यधिकोऽसि वा। श्रुत्वाऽपि स्वामिनिर्वाणं शतधा यत्र दीर्यसे । यद्वाऽऽदितोपि भ्रान्तोऽहं यद्रागं राजवजिते। ममत्वं निर्ममे चास्मिन् कृतवानीदृशे प्रभौ। रागद्वेषप्रभृतयः किं चामी भवहेतवः। हेतुना तेन च त्यक्तास्तेनापि परमेष्ठिना। ईदृशे निर्ममे नाथे ममत्वेन ममाऽप्यलम् । ममत्वं सममत्वेऽपि मुनीनां न हि युज्यते । एवं शुक्लध्यानपरः क्षपकश्रेणिभाक् क्षणात् । घातिकर्मक्षयात्प्राप केवलं गौतमो मुनिः । तत्र द्वादशवत्सरी क्षिततले भव्यान् प्रबोध्योच्चकैः। स्वामीवामलकेवलेर्द्धिरमरैरभ्यर्चितो गौतमः । गत्वा राजगृहे पुरे क्षतभवोपग्राहीकर्मा । प्रभु त्वा मासमुपोषितः पद्मगादक्षीणशर्मास्पदम् । मुक्ते तत्र च पंचमो गणधरो लब्ध्वा सुधर्मप्रभुर्ज्ञानं पंचमन्वशाच्चिरतरं धर्मजनान् क्ष्मातले । स्मिन्नेव पुरे सुधर्मगणभृत्क्षीणाष्टकर्माक्रमा-त्तुयध्यानधरोऽपुनर्भवमगादद्वैतसौख्यपदम । –त्रिशलाका० पर्व १०/सर्ग १३/श्लो २७२ से २८२, ८४ गृहस्थ रूप में तीस वर्ष और व्रत में बयालीस वर्ष -ऐसे बहत्तर वर्ष का आयुष्य-श्री वीरप्रभु ने पूर्ण किया। श्री पार्श्वनाथ के निर्वाण के २५० वर्ष व्यतीत होने के बाद श्री वीरप्रभु का निर्वाण हआ। यहाँ श्री गौतम गणधर देवशर्मा ब्राह्मण को प्रतिबोध प्राप्त कराकर वापस आये। फलस्वरूप मार्ग में देवों की वार्ता से प्रभु के परिनिर्वाण के समाचार सुने । वे ऊपर से उस चित्त में विचार करने लगे कि ___ एक दिवस में निर्वाण था। यह होने पर अरे प्रभो ! मुझे किसलिए दूर भेजा ? अरे जगत्पति ! मैं इतने दिन तक आपकी सेवा की परन्तु अन्तकाल में मुझे तुम्हारे दर्शन नहीं हुए इस कारण मैं सर्वथा अधन्य हूं। जो उस समय आपकी सेवा में उपस्थित थे उन्हें धन्य है। अरे गौतम ! तू वास्तव में वज्रमय है अथवा वज्र से भी अधिक कठिन है कि जिससे प्रभु का निर्वाण सुनकर भी तुम्हारे हृदय में सैकड़ों ककड़े नहीं हुए। अथवा हे प्रभो ! मैं अब अक भ्रान्त हो गया कि जिससे इस निरागो और निर्मम ऐसे प्रभु में रोग और ममता रखी। वे राग और द्वेष संसार के हेतु है। उसका त्याग करने के लिए इस परमेष्ठी ने हमारा त्याग किया होगा। इसलिए ऐसे ममता रहित प्रभु में ममता रखनेसे हमें क्या मिला। क्योंकि मुनियों को तो ममतालु में भी ममता रखना युक्त नहीं है। Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन कोश ३०६ इस प्रकार शुद्ध ध्यान परायण होने से गौतम मुनि ने क्षपक श्रेणी को प्राप्त किया। इससे तत्काल घाती कर्म का क्षय होने से उनको केवल ज्ञान प्राप्त हुआ । बाद में बारह वर्ष पृथ्वी पर विहार करके और भव्य प्राणियों को प्रतिबोध देकर केवल ज्ञान रूप अचल समृद्धि से भगवान् महावीर की तरह देवों से पूजित गौतम मुनि अन्त में राजगृही में आये। वहाँ एक मास का अनशन किया भवोपग्राही कर्मों का क्षयकर अक्षय सुख वाले मोक्ष पद को प्राप्त किया। अस्तु गौतम स्वामी के माक्ष जाने के बाद पंचम गणधर सुधर्मा स्वामी पंचम ज्ञान को प्राप्त किया। बहुत काल पृथ्वी पर विचरण कर लोगों को धर्मदेशना दो । अन्त में वे भी राजगृहो नगरी पधारे और स्वयं के निर्दोष सघ से जम्बूस्वामी को स्वाधीन करके दिया । बाद में सुधर्म गणधर भो उसी नगर में अशेष कर्मों का क्षयकर चतुर्थ ध्यान ध्याते हुए अद्वैत सुख वाले स्थान को प्राप्त किया । भगवान महावीर के परिवण के दिन गौतम गणधर को बंवल ज्ञान की उपलब्धि (क) ततोऽस्य केवलज्ञ न श्रीगौतम गणेशिनः । प्रादुरासीत्सुशुक्लध्यानेन धात्यरिघातनात् ॥२४८ ॥ तत्रापि ते महेन्द्राद्याश्चक्रः कैवल्यपूजनम् । इन्द्रभूतेर्गणैः सार्धं तद्योग्यभूरिभूतिभिः ॥ २४६ ॥ - वीरवर्धच० अधि १६ भगवान् महावीर के परिनिर्वाण के पश्चात् उत्तम शुक्ल ध्यान से घानि कर्म शत्रुओं के घातने से उन श्री गौतम गणधर को केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ। वहाँ पर जाकर उन उत्तम देवेन्द्रों ने सर्वगण के साथ उनके योग्य भारी विभूति से इन्द्रभूति केवलो के केवल ज्ञान की पूजा की। . ५४ ग्यारह गणधरों के नाम (दिग् ) . .१ महंतो महाणाणवतो भूई | गणी वाउभूई पुणो अग्निभूई । सुप्रम्मो मुणिंदो कुलायास- चंदो । अणिदो णिवंदो चरित्ते अमंदो ॥ इसी मोरिमुंडी ओ चत्त-गावो । समुप्पण्ण वीरंघि राईव भावो ॥ सया सोहमाणो तवेणं खगामो । पवित्त सचित्तेण मित्तयणामो ॥ सयाकपणो णिच्चलको पहामो । विमुक्कंग-राओ रई-णाह - णासो ॥ इमे एवमाई गणमा मुणिल्ला । जिणिदम्स जाया अमल्ला महल्ला || - वीरजि० संधि २ / कड ७ भगवान महावीर के इन्द्रमूर्ति गौतम आदि एकादश गणधर थे । अस्तु महाज्ञानवान् एवं विभूतियुक्ति इन्द्रभूति गौतम महावीर भगवान् के श्रेष्ठ गणधर हुए। दूसरे वायुभूति, तोमरे अग्निभूति, चौथे सुधर्म मुनोन्द्र जो अपने कुलरूपी आकाश के चन्द्रमा थे। अनिंद्य, नर- वन्द्य तथा चारित्र में अमंद थे | पांचवें ऋषि मौर्य, छठे मुण्डि ( मौण्य ), सातवें सुत ( पुत्र ), जो इन्द्रियों की आसक्ति से रहित तथा वीर थे भगवान् के चरण कमलों के भक्त I Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन कोश आठवें मैत्रेय जो महातप से शोभायमान इन्द्रियजित व शुक्लध्यानी तथा चित्त से पवित्र थे। नवमें अकम्पन जो मदैव तपस्या में अकम्प रहते थे। दशवें अचल और ग्यारहवें प्रभास- जो देह के अनुराग़ से रहित तथा कामदेव के विनाशक थे। जिनेन्द्र भगवान् के ये ग्यारह गणधर मुनि हुए जो शल्यसहित और महान थे। .२ अथेन्द्रभूतिरेवाद्यो वायुभूत्यग्निभूतिको। सुधर्ममौर्यमौण्ड्याख्यपुत्रमैत्रेयसंज्ञका ॥ ___अकम्पनोऽन्धवेलाख्यः प्रभासोऽमी सुगचिताः। - वीरवर्धमानच० अधि १६/श्लो २०६ वीर निनेन्द्र के ग्यारह गणधरों में इन्द्रभूति गौतम प्रथम गणधर थे। ___ दूसरे वायुभूति. तीसरे अग्निभूति. चौथे सुधर्मा, पांचवें मौर्य. छठे मौण्ड्य (मंडिक), सातवें पुत्न (?) आठवें मैत्रेय, नववे अकम्पन, दशवें अन्धोल और ग्यारहवें प्रभास गणधर हुए । .५५ श्रमणी संघ की प्रवर्तिनी (अग्रणी)-आर्यचंदना (साध्वी प्रमुखा)-चंदनबाला .१ भगवान महावीर का अभिग्रह-आर्यचंदना के द्वारा फलिन (क) x x x ततो सामी कोसंविंगतो. तत्थ मयाणिनो गया मियादेवी तरचावादी धम्मपाढगो सुगुतो अमच्चो नन्दा से भारिया, सा य समणोवासिया, ततो सड्ढित्ति मियावतीए वयंसिया, 'तत्थेव नगरे धण्णावहो सेट्ठी, तरस मूला भारिया, एवं तेम् कम्मसंपत्ता अन्छति, सामीय पोसबहुल पाडिवए इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगेण्हइ चउम्विहं, तंजहा- दवतो वेत्ततो कालतो भावतो, दव्वतो कुम्मासे सुप्पकोणेणं, खेत्ततो एलुगं विक्खंभइत्ता कालतो नियत्तेसु भिक्खायरेसु भावतो जइ रायधूया दासत्तणं पत्ता नियतबद्धा मुंडियमिग, अट्ठमभत्तिया एवं कप्पइ, सेसं न कप्पइ एवं अभिग्गहं घेत्तूण कोसंबीए अच्छइ, दि वसे-दि-वसे भिक वायरियं फुसह, किं निमित्तं ? बावीसं परिसहा भिक्खा यरियाए उदिज्जति, एवं चत्तारिमासे कोसंवीएहिंडइ । - आव० निगा ५१८-टीका में उद्धत (ख) प्रामऽथ मेण्ढकग्रामे भगवान् विहरन ययौ ॥४७॥ पूर्वार्ध ततो निष्क्रम्य भगवान कौशाम्बी नगरी ययौ। राजा तस्यां शतानीकः पगनीकभयंकरः ॥१७४।। चेटकोवीं शदुहिता तद्राज्ञी च मृगावती। श्राविका तीर्थकृत्पादपूजानिष्ठा सदेवहि ॥४५५।। गज्ञस्तस्य च सचिवः मुगुप्तो नाम तत्प्रिया । नन्दा नाम श्राविकेति मृगावत्याः परा सखी ॥४७६।। श्रेष्ठी धनावहो नाम्ना तत्र चाऽऽसीत्महाधनः। मूलाऽभिधाना तस्यापि गृहिणी गृहकर्मणः ॥४७७ ॥ तत्र स्वामी पोपमासबहुलप्रतिपदिने । दुराचरं दुग्रहंच जग्राहैवमिमग्रहम् ।।४७८॥ अयोनिगडबद्धांघ्रिर्मुण्डिताऽनशिता सती। रुदती मन्युना राजकन्यापि प्रेष्यतांगता ॥४७॥ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन कोश देहल्यन्तः स्थितेकांघ्रिर्बहिः क्षिप्ताऽपरांघ्रिका । गृहात् प्रतिनिवृत्तेषु सर्वभिक्षाचरेषु च ॥४८॥ यदि मे शूर्वकोणेन कुल्माषान् संप्रदास्यति । चिरेणापि तदेवाऽहं पारयिष्यामि नान्यथा ॥४८१।। गृहीत्वाऽलक्ष्यमाणाभिग्रहं प्रतिदिनं प्रभुः । उच्चावचेषु गेहेषु भ्रमति स्म यथाक्षणम् ॥४८२|| अभिग्रहवशादभिक्षा दीयमानामगृति । स्वामिनि प्रत्यहं पौरास्ताम्यन्ति स्मात्मनिन्दिनः ।।४८३।। अनात्तभिक्षः स्वाम्येवं द्वाविंशतिपरिषहीम् । सहमानोऽनयन्मासांश्चतुरः प्रहरानिव ॥४८४ । -त्रिशलाका० पर्व ५०/सर्ग ४ (ग) ताहे नंदाए घरमणुप विट्ठो, तोए सामिणो परेण आवरेण भिकावा निणिया, सामीनिग्गतो, सो अद्धिति पंकया, ताहे दासीतो भणति-एस देवजगो दिवसे दिवस एत्थएइ, ताहे ताए नायं-नूणं भयवतो अमिग्गहो कोइ, ततो निरायं चेव अद्धिती जाया, सुगुत्तो अमच्चो आगओ, ताहे सो भणइ -किं अद्धितिं करेसि ? तीए कहियं, भणइ य किं अम्हं अमच्चत्तणेणं ? एच्चिरं कालं सामी भिक्खं नलहइ ? किं वा तेणं विन्नाणेणजइ एयं अभिरगहं न याणसि ?, तेण आसासिय, कल्ले दिवसे जहा भिकावं लभड तहा करेमि, एयाए कहाए वट्टमाणीए विजया णाम पडिहारी मियावतीए भणि या सा केणइ कारणेण आगया, सा तं उल्लावं सोऊण मियावतीए साहेइ, मियावईवि तं सोऊणमहया दुक्खेण अभिभूया, माचेडगस्स धूया, अतीव अद्धितिं पंकया, राया य आगनो पुच्छति, भणड -किं तुन्झ रज्जेण मए वा ?, अज्ज किर चउत्थो मासो सामिस्स हिंडंतस्स भिक्वाभिग्गहो न नज्जइ, न वा जाणमि एत्थं विहरतं, तेण आमासिया, तहकरेमि जहा कल्ले लभड, त हे सुगत्तं अमचं सद्दावेड अंबाडेइ य जहा तुमं आगयं सामिं न याणसि ? अज्ज किर चउत्थो मामो हिंडंतस्स, ताहे तच्चावादी सद्दावितो, सो पुच्छितो सयाणिएण-तुझं धम्मसत्थे सव्वपामंडाण आयाग आगया ते तुमं साह, इमोवि अमच्चो भणितो तुमंपि बुद्धिबलितोतासाह, ते भणंति-बहवे अभिग्गहा, न नज्जइ कोऽभिप्याओ ?. दव्वजुत्तो खित्तजुत्तो कालजुत्तो भावजुत्तो सत्तपिंडेसण तो मत्त पाणेसणाओ, ताहे रण्णा सव्वत्थसंदिट्ठा पाणेपणा भत्तेसणाओ य, लोगेणवि परलोग खिणा कयातो, सामी आगतो, न य तेहिं पगारे हिं गेण्हइ । वं तावइयं ।।। --आव० निगा ५१८-टीका में उद्धृत (घ भिक्षार्थमन्यदा स्वामी सुगुमामात्यवेश्मनि । प्रविवेश ददृशे च दृरादपि च नन्दया ।।४।। अयमहन्महावीरो दिष्ट्या मद्गृहमागतः । इति ब्रुवाणाऽभ्युत्तस्थौ नन्दाऽऽनन्देनपूरिता॥४८६।। कल्पनीयानि भोज्यानि साऽभज्ञा समुपानयत् । स्वाम्यप्यभिग्रहवशात्तान्यनादाय निर्ययौ ॥४७॥ धिगहं मन्दभाग्याऽस्मि न पूर्णो मे मनोरथः । इति खेदं दशरोच्च न्दा मन्दमनाः सती ॥४८ नां सखेदां च दाम्यूचे देवार्योऽयं दिने दिने । अनात्तभिक्षो निर्याति खल्वयैव निर्गतः । ४८६।। एवमाकर्ण्य नन्दाऽपि बुबुधे यद्भिग्रहः । विशिष्टः कोऽपि तन्नोपादत्तेऽसौ प्रासुकान्यपि ॥४६॥ स्वामिनोऽभिग्रहो शेयः कथंन्विनि विचिन्तया । निरानन्देव नन्दाऽस्थात् सुगुप्तस्तां ददर्श चा४६१॥ सुगप्तस्तामुवाचैवं किमुद्विग्नेव लक्ष्यसे । खंडिताऽऽज्ञाऽसि किं केनाप्यपराद्धं मयाऽथवा । ४६२॥ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन कोश माप्यचे खंडिता नाज्ञा नापगधम्तवापि च । न पारयामि श्रीवीरमिति खेदाय किन्तु मे !!४६३॥ भिक्षार्थी भगवान् वीरो नित्यमायाति याति च । अनात्त भिक्ष एवायमभिग्रह विशेषतः ।।४६४।। जानीह्यभिग्रहं भर्तुन चेजानासि तन्मुधा। बुद्धिस्त्व महामात्य ! परचित्तापलक्षिणी ।।४६५।। सुगुप्तोऽपि जग देवं जगभर्तुरभिग्रहः । यथा विज्ञाम्यते प्रातः प्रयतिष्ये तथा प्रिये ।।४६६।। तदेवाऽऽगान्मृगावत्या वेत्रिणी विजय ह्वया। तयोः श्रुत्वा तमाल पं गत्वा देव्याः शशंस च ।।४६७॥ तथैव खेदं विदधे मृगावत्यपि तत्क्षणम। संभ्रान्तश्व शतानोकोऽपृच्छन्न खेदकारणम् ॥४६८|| किंचिदुन्नमितभ्र का व्याजहार मृग वती: अन्तर्विष,दकालुष्योद्गारच्छुरितया गिग ॥४॥ चराचरं जगदिदं चरैजनिन्ति भूभनः । त्व तु स्वपत्तनमपि न वेत्सि व महेऽत्र किम ॥५००।। त्रैलोक्यपूज्यो भगवान् वीरश्चरमतीथकृत् । वसत्यत्रेति किं वेत्सि ? गज्यसौख्यप्रमद्वरः।।१०।। वेश्म वेश्मानुप्रवेशं भिवामपरिगृह्य सः कुतोऽप्यभिप्रहाद्यातीत्येतजानासि किं ननु ? ॥१२॥ धियां धिक वाममात्यान् धिग्यदत्र परमेश्वरः अज्ञाताऽभिग्रहोऽनानभिक्षम्तस्थावियचिरम ॥१०॥ प्रत्यभापिष्ट भूपोऽपि साधु साधु शुभ शो ! । प्रमादो शिक्षितोऽभ्येष स्थाने धर्मविचक्षणे ॥५०४।। विज्ञायाभिग्रहं प्रातः कारयिष्यामि पारणम् विश्वस्वामिनमित्युक्त्वा राज्ञा(जा)सचिवमाह्नत ॥५०५।। अमात्यमूचे नृपतिर्मुत्पूर्या त्रिजगद्गुरुः । अनात्तभिक्षश्चतुरो मासांस्तस्थौ धिगत्र नः ॥५०।। ज्ञातव्याऽभिग्रहोभर्तुः संपूर्याऽभिग्रहं यथा । कारयामि पारण.कं जगन्नाथं स्वशुद्धये ॥५०॥ अमात्योऽप्यत्रवीद् भर्तुर्ज्ञायतेऽभिग्रहो न हि । इति खिद्येऽहमप्युच्चैकपायः कोऽपि सूत्र्यताम ।।५०८। अथ राजा समाहाय्य नामतस्तथ्यवादिनम्। उपाध्यायं धर्मशास्त्रविचक्षणमवोचत ।।५०६।। आचागः सर्वधर्माणां शास्त्रे तव महामते ! । कीत्यन्ते तत्समाख्याहि जिनभर्तुरभिग्रहम ।।५१०।। उपाध्यायोऽप्यभाषिष्ट बहवोऽभिग्रहाः खनु । महीणां द्रव्यक्षेत्रकालभावविभेदतः ।।११।। अभिग्रहो भगवता गृहीतोऽयमिति ध्रुवम । विना विविशिष्टज्ञानेन ज्ञायते न जातुचित् ।।५१२|| गजाऽथाघोषयत्पुर्या' यदभिग्रहिणः प्रभोः । अनेकधोपनेतव्या भिक्षा भिक्षार्थमयुषः ।।५१३॥ राजाऽऽज्ञया श्रद्धया च तथा चक्रे जनोऽखिलः अपूर्णाभिग्रहः स्वामी भिक्षा जग्राहन क्वचित । ५१४।। अम्नानांगस्तथाप्याथाद्विशुद्धज्ञानभाक् प्रभुः। श्रीडाखेदाकुनेः पौरर्वीक्ष्यमाणो दिन दिने । ५१५।। -त्रिशलाका पर्व १०/सग ४ (च) जहा मयाणोपण पिल्लियस्म चंपाप दहिवाहणखं धावारम्स पा (प, लायमाणम्स भारिया धारिणीनामा वसुमइए धूयाए सह इक्केणं पुरिसेण गहिया । पंथम्मि ध रिणीए मयाए दिन्ना मोल्लेण वसुमई वणिणो। अइविणिय त्ति दिन्नं से नामं चंदणा। जह य वणिय नायाए ईसाए केसे मुंडाविऊण नियलिऊण घरे छूढा, विलवंतस्स य वणिणो जहाकम्मयरिए माहिया, कुमासे दाऊण लोहार-गेहं वणिओ गओ, Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश जहा य छम्मासोववासी तित्थयरोपरम-भत्तीए पाराविओ, तियसा अवयरिया, रमण बुट्टो जाया, तह सव्वमिणं सवित्थरं उवएसमाला-विवरणाओ नेयवं त्ति -धर्मोप० कथा ३०/०८६ (c ) इतो य सयाणितो चंपं पहावितो, दहिवाहणं गेण्हामि, नावाकडएणं गओ एगाए रत्नीए, अचिंतिया नगरी वेढिया, तत्थ दहिवाहणो पलातो, रण्णा य जग्गहो घोमितो. एव जग्गहे घुटे दहिवाहणम्स रणो धारणी देवी तोसे धूया वसुमई, सा सह धूयाए एगेण उट्टिएण गहिया, गया नियत्तो, सो उट्टितो चिंतेड भणइय-एसा मे भज्ना, इमंच दारियं विक्केस्सं, सा देवी तेण माणसिएण दुक्खेण धूया दुक्खेणय एसा में धूया न नज्जई किं पाविहिइत्ति अंतरा चेवकाल गया, पच्छा तस्स उट्टियम्म चिंता जाया. दुटु मए भणियं-महिला ममं होहितित्ति, एवं धूयं भणामि, मा एसावि मरिहिइ, तो मे मोल्नंपि न होहिड. ताहेतेण अगुयत्तं तेण अ णोया-वीहीए उडिया, धण्णवहेण दिट्ठा, अणलं कियलावन्ना अवम्म रगो ईसरम्स वाधूया एमा मा आवड पावरत्ति ननिय मोभणड तत्तिरण मोललेण गहिया, वरं तेणं समं गमणागमणं मे होहिइत्ति. नीया नियधरं, कासि, तुमंति पूछिया न माहइ, पच्छा तेण धूयत्ति गहिया. एवं सण्णाणिया. मृलावि तेण मणिया-एमा तुभं धूया. एवं सातत्थ जहा नियघरे तहा सुहं सुहेणं अच्छुड, तीए विमो सदा सपग्यिणो लोगो सीलेण विणएण य सव्वो अप्पणिज्जो कतो, नाहे ताणि सव्वाणि भगंति-अहो इमा सोलचंदणत्ति, ताहे से बिइयंपि नाम कयं चंदणत्ति, एवं कालो वच्चड़। -आव निगा ५१८ टीका में उदधत (ज) इतश्च पूर्व नौसैन्यः शतानीको निशैकया। गत्वाऽरुणत् पुरी चम्मां झंपासमसमागमः ॥५१६।। चम्पापतिः पलायिष्ट ततश्च दधिवाहनः । बलीयसाऽवरुद्धानां त्राणं नान्यत्पलायनात् ॥५१७॥ यद्ग्रहो घोषितस्तत्र शतानीकेन भूभजा। तदनीकभटाश्चम्पां म्वेच्छया मुमुषुम्तातः ।।५१८।। दधिवाहनराजस्य धारिणी नामत: प्रियाम । वसुमत्यासमं पुत्र्या तत्र कोऽप्यौष्ट्रिकोऽग्रहीत् ।।५१६।। कृतकृत्यः शतानीकोऽप्यनीकैः परिवारितः। समाजगाम कौशाम्बी वैरिकैरवभास्कर ।।५२०॥ औष्ट्रिकः सोऽपिधारिण्या देव्या रूपेण मोहित: । ब्रजजगाद पुरतो जनानामि दमुच्चकैः ॥५२१॥ प्रोढा रूपवती चेयं मम मार्या भविष्यति। विक्र प्ये कन्यकां त्वेतां नीत्वा पुर्याश्चतुष्पथे ।।५२२।। तच्छ् त्वा धारिणी देवी मनस्वमधारयत्। जाता महता वंशेऽहं शशांकादपि निर्मले ॥५२३।। महावंशप्रसूतस्य दधिवाहनभूपतेः। पत्नी चाग्मि परिणतजैनधर्माऽऽदितोऽपिहि ॥५२४ । श्रुत्वतान्यऽप्यक्षराणि धिरजी वाम्यघ भाजनम् । स्वभावलोल रे जीव ! किमद्याप्यवतिष्ठसे ॥५२५॥ न चेत् स्वयं निःसरसि तथापि हि बलान्मया । निस्सार्य से सद्य एव नीडादिव विहंगमः ॥५२६।। इति तद्भर्त्सनोद्विग्ना इव प्राणाः क्षणादपि । तस्या मन्यु प्रस्फुटितहृदयाया विनिर्ययु : ॥५२७|| औष्ट्रिकस्तां मृतां प्रेक्ष्य दध्यावेतां सती प्रति । धिग्धिङ्मयैतदुदितं यन्मे पत्नी भविष्यति ॥५२८।। Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ वर्धमान जीवन - कोश अंगुलीदर्शनेनेव कूष्मांडं दुर्गिरा मम । विपन्नेयं यथा तदवत् कन्याऽप्येषा विपत्स्यते । ५२६ ॥ एवं विमृश्य साना तामालपन्ननयत् पुरि। कौशाम्ब्यां सोऽथ निदधे विक्रेतुं राजवत्र्त्मनि ॥ ५३०|| देवात्तत्रागतः श्रेष्ठी तामपश्यद्धनावहः । दध्यौ चेत्यनया मूर्त्या नहि सामान्यपुत्र्यसौ || ५३१ ॥ भ्रष्टा पितृभ्यां प्राप्तेय निर्वृणेनामुनाऽधुना । यूथच्युता कुरंगोव लुब्धकेन दुरात्मना || ५३२|| विक्रेतुं पलवच्चेह स्थापिताऽनेन मूल्यतः । हस्ते हीनस्य कस्यापि हा यास्यति वराक्यसौ ।। ५३३ ॥ दत्त्वार्थं बहुमप्यस्य गृह्णाम्येतां कृपास्पदम् । पुत्रीमिव निजां हीमां न क्षमोऽ हमुपेक्षितुम ॥ ५३४|| विनाऽनर्थं मम गृहे तिष्ठन्त्याः क्रमयोगतः । अस्याः स्वजनवर्गेण भविता संगमोऽपिहि ॥ ५३५|| धनावो विमृश्यैवं दत्त्वा मूल्यं तदीप्सितम् । निन्ये वसुमतीं बालां सानुकंपः स्ववेश्मनि ॥ ५३६ ॥ सोऽप्रच्छत् स्वच्छ श्रीस्तां च वत्से ! कस्यासि कन्यका । को वा स्वजनवर्गस्ते मा भैषी दुहिताऽसि मे ||३७|| महत्त्वेन समाख्यातुं स्वकुलं सापि चाऽक्षमा । न किंचिदूचेऽस्थात्सायं नलिनीव त्वधोमुखी ||३८|| मूलां च श्रेष्ठिनीमूचे प्रियेऽसौ दुहिताऽऽवयोः । पाल्या लाल्या च तदियमतियत्नेन पुष्पवत् । ५३६ । एवं श्रेष्ठिगिरा तत्र . गेहेऽवात्सीत्स्व गेहवत् । बाला बालेन्दुलेखेव सा नेत्राऽऽनन्ददायिनी । ५४०|| - त्रिशलाका पर्व १० / सर्ग ४ ( झ ) ततो तार घरिणोए अवमाणो जातो मच्छरिज्जइ य को जाणड कयाइएस एवं पडिवज्जेन्ना ? ताहे अहं घरस्स असामिणी भांवरसामि, तीसे वाला अतीव दीहा रमणिजा किण्हाय, सो सट्टी मज्झ जणविरहिए आगतो जाव नत्थि कोऽविजो पाए पक्बालेड, ताहे सा पाणियं गहाय निग्गया, तेण वारिया, सा मड्डाए धोविडं पवत्ता, ताए धोवंतीए वाला बद्धेहगा छुहा, मा चिकबल्ले पडिहितित्ति तम्स सेट्ठिस्स हत्थे लीलाकट्टु तेण धरिया बद्धाय मूला य ओवलोयणगया पेच्छड, तीए णायं त्रिणह कज्जं, जइ एयं कवि परिणइ तोममं एसणत्थि, जावतरुणतो वाही ताव तिमिच्छामि, सेट्ठिमि विणिग्गए तोएण्हावियं वाहरावित्त साबंदणा बोडाविता नियले हि यबद्धा पिट्टिया य, वारियतो अणाए परियणो जो साहड वाणियम्म सो मेणत्थि सा घरे छोणतस्स वरस्स दारं दिन्नं तालयं च, सो सेठ्ठी आगतो पुन्छ कहिं चंदणा ?. न कोड साह भरण, सो जाणइ - नूगं रमड़ उवरिंवा चिट्टिइ, एवं रतिंपि पुच्छिया जाणइ - सानृणं सुत्ता, विइयदि वसेविन दिट्ठा, तइय दिवसे घणं पुच्छइ, साहेह मा भे मारेह, ततो थेरदासी एक्का चिनेइ-किंमम जीविएण १, सा जीव वराई, ताए कहियं - अमुयघरे, तेण उग्घाडिया दारा, पंच्छइ छुहाहयं चंदण, ततो कूरं पमग्गिता जाव समावन्त्तीए नत्थि, ताहे कुम्मासा दिट्ठा, ते सुष्कोण घेत्तूण तीसे दिन्ना, सेट्टी लोहकारघरंगतो. नियलाणि छिंदावेमि ताहे सा हत्थिणीव कुलं संभारिउमारद्धा एलुगं । विक्खंभइत्ता तेहिंपुरतो कतहिं अभंतरतो रोयइ, सामी आगतो, ताए चिंतियं - सामिस्सदेमि, मम एयं अहम्मफलं भणइ -- भयवं ! कप्पइ ?, सामिणा पाणी पसारितो, चव्विहोऽवि पुन्नो अभिग्गहो । - आव निगा ५१८ / में उद्धृत Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश (अ) तायः विनयवाक्शीले रन्जितश्वन्दनोपमः चन्दनेत्यभिधां श्रेष्ठो ददौ परिजन : सह ।।५४१।। ईपच्च यौवनारम्भं करभोमरवाप सा। राकाराविरिवाम्भोधेः श्रेष्ठिनो ददती मुदम ॥१४२॥ निसर्गतो रूपवतीं यौवनेन विशेषतः । निरीक्ष्य चन्दनां मूला दध्यावेव समत्सरा ।।५४३।। पुत्रीवत्प्रतिवद्याऽपि यद्येतां रूपमोहितः । श्रेष्ठी परिण पेत्तर्हि जीवन्त्यपि मृताऽस्मि हा ॥५४२।। एवं स्त्रणसुलभेन तुच्छत्वेन देिवाऽनिशन । तदा प्रभृति ताम्यन्ती तस्थौ मूला दुगशया ।।५४५।। ग्रामोऽमातोऽन्यदा श्रेष्ठी वेतन्य गमदापणात् । तदाऽव्रिक्षालको नासीत् कोऽपि देवात्पुरःसरः।।५४६।। विनीता चन्दनोत्थाय श्रेष्ठिना वारिताऽपि हि । प्रावतत क्षालयितुं तत्पादौ पितृभक्तितः ॥५४७॥ कशपाशस्तदा तस्याः स्निग्धश्यामलकोमलः । निःसहांग्याः परिस्रस्तः क्ष्मातले जलपकिले ॥५४८।। वत्सायाः केशपाशोऽयं मा भुद् भूपंकभागिति । लीलायष्ट्योदधे श्रेष्ठी तमवनाञ्च सादरः ॥५४६।। तच्च मूला गवाक्षस्था निरीक्ष्य वमचिन्तयन्। वितकः संवदति स यः पूर्व कल्पितो मया ॥५॥०॥ अम्याः स्वयं के राबन्धः पत्नीत्वस्य निबन्धनम् । प्रथम श्रेष्ठिनो नूनं लेटशी हि पितुः क्रिया ॥११॥ उच्छेदनीया तदियं मूलाद याधिरिवोत्थितः । इति निश्चित्य मूलाऽस्थाच्छाकिनीव दुराशया ।।५५२।। क्षणं श्रेष्यपि विश्रम्य पुनरेव बहिययौ। अमुंडयच्चन्दनां च मूलाऽप्याहूय नापितम् ॥५५३।। पादयोर्निगडान क्षिप्त्वा चन्दनां बताडयन । मूलावल्लीमिव वशा विवशा क्रोधरक्षसा ।।५५४।। गृहे कदेशे दूरस्थ मूला न्यधित चन्दनाम । कपाटसंपुटं दत्त्वा परिवारमुवाच च ।।५५५।। श्रेष्ठिन: पृच्छतोऽप्पेतत कथनीयं न केनचित् । कथयिष्यति यः कोऽपि मत्कोपाग्रे स आहुतिः ।।१५६।। एवं नियन्त्रणां कृत्वा मूला मृलगृहं ययौ । श्रेष्ठोच सायमायातोऽपृच्छत् क्व ननुचन्दना ? ॥५४॥ मूलाभयान्न कोऽप्याख्यच्छेष्ठी चवमबुध्यत । वत्सा मे रमले क्वापि यद्वाऽस्त्युपरिवेश्मनः ।।५५८:। एवं रात्राप्यपृच्छन्न कोऽप्यारव्यत्तथैवच । प्रसुप्ता चन्दनाऽस्तीति चाज्ञासीहजुधीः सतु ॥५५६।। द्वितीयेऽप्यह्नि नापश्यत्ततीयेऽपि तथैवताम। शकाकोपाकुलः श्रेष्ठी प्रोचे परिजनंततः । ५६०॥ रे रे कथयन मास्ति चन्दना मम नन्दना ? नाऽऽख्यास्यथ विदन्तश्चेन्निग्रहीष्यामि वस्तदा ।।५६१।। श्रुत्वेई स्थपिरा तत्र काचिच्चेटीत्यचिन्तयन् : जीविताऽहं चिरतरं प्रत्यासन्ना मृतिर्ममः ।।। ६२॥ कथित चन्दनोदन्ते किं गला मे करिष्यति ? एवं विचिन्त्य नामाख्यामूलाचन्दनयोः कथाम ५६३। अष्टि नोऽदर्शयद्गत्वा चन्दनागेधवेश्मसा! दुर चोद्धाघाटयामास स्वयं श्रेष्ठी धनावहः ।।५६४॥ तत्रव क्षुत्पिपासात्ती दवस्पृष्टा लतामिव । निगडयन्त्रितामंद्रुह्योनेवात्तां करिणीमिव ॥५६५।। परिमुण्डितमुण्डां च भिक्षुकीमिव चन्दनाम। अश्रुपूरितनेत्राब्जामीक्षाञ्चक्र धनावहः ।।५६६॥ वश्वस्तां भववत्से । त्वमिति जल्पन्नुदश्रुहक । तद्भोज्या, रसवतीं ययौ श्रेष्ठी द्र तद्र तम ।।५६७॥ विशिष्टं तत्र चाऽश्य न भोज्यं देवाद्धनावहः । कुल्माषान् शूपकोणस्थांश्चन्दनायै समार्पयत् ॥५६॥ भुज्जीथास्तावदतांस्त्व यावत्त्वन्निगडच्छिदे। कारमानयामीति जल्पित्वा श्रष्ट्यगाबहिः॥५६॥ चन्दनोलस्थिता चैवमचिन्तयदहो क में । तस्मिन राजकुले जन्म क चावस्थेयमीदृशी ॥५७०॥ भवेऽस्मिन्नाटकप्राये क्षणाद्वस्त्वन्यथाभवेन । स्वानुभूतमिदं में हि किं संप्रति करोमि हा ॥५७१।। Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश पष्टस्य पारणायामी कुल्माषाः सन्ति संप्रति । यद्यायात्यतिथिम्तस्मै दत्वा भुजेऽन्यथा नहि ॥५७२।। एवं विचिन्त्य सा द्वारे ददौ दृष्टिमिनम्ततः। तदाऽऽगान्महावीगे भिक्षाय पर्यटन प्रभुः ।।५.३।। अहो पात्रमहो पात्रमहो मे पुण्यसंचयः । मुनिर्महात्मा कोऽप्येष भिक्षायै यदुपस्थितः ॥५ ४। चिन्तयित्वेति साऽचालीबाला कुलमाप शूपभूत्। एकमंत्रिं न्यधादन्तर्दहल्या अपरंबहिः ।।५७५।। निगडेदहलीं सातु समुल्लं घितुमक्षमा। तत्रस्थैवाऽऽर्द्र या भक्त्या भगवन्तमभापत ।।५७६।। स्वामिन्ननुचितं भोज्यं यद्यप्येतत्तथापि हि। परोपकार करत ! गृहाणानुगृहाण माम ।।५७७।। द्रव्यादिभेदसंशुद्ध ज्ञात्वा पूणमभिग्रहम । तस्यै कुल्माषभिक्षायै स्वामी प्रासारयन् करम ।।५७८।। अहो धन्याऽहमेवेति ध्यायन्ती चन्दनापि हि । चिक्षेप शूर्पकोणेन कुल्मापान स्वामिनः करे । ५8 । -त्रिशलाका०पर्व १०/सग०४ ( ट ) कोसंबीइ सयाणिअ अभिग्गहो पोसबहुलपाडिवए । चाउम्मासि मिगावड विजय सुगुत्तो अनंदाय तच्चावाई चंगादहिवाहण वमुमई अ, बीअामा। धणवह मृलाऽ लोअण संपुल दाणअ पव्वज्जा। आव• निगा'५/१६-२० टोका-ततो भगवान कौशम्बी नगरी गतः, तत्र शतानीको गजा मृगापतिदेवी, भगवना च पौषमाम बहलपक्षे प्रतिपदि अभिग्रहो गृहीतः, प्रतिदिवसंच भिक्षामटतो भगवतश्चत्वारो मामा-अतिकान्ताः. अन्यदा भगवान् नंदाया गृहे गतः, तया आनीता भिक्ष न गृहीना, ततः मुगुप्तोऽमात्य आगतः, तयोश्च भगवद्भिक्षा विषये संलापे मृगापतिदेवीस्का विजया प्रतीहारी समागता मृगापति देव्या अचकथन, तया प्रोत्साहितेन गज्ञा तथ्यवादी धम्मपाठक आकारितः. सोऽभिग्रहान विचित्रान् कथितवान् । ततश्चचंपायां दधिवाहनो राजा, तस्य सुता चंदना द्वितीयनाम्ना वसुमती, सा कोशाम्ब्यामौष्ट्रि केणानीता, धन,वहेन गृहीता. अन्यदा धनावहस्य पादौ प्रक्षाल यन्ती तां तस्याः केशपाशंच धनावहेन लीलकम्बिकया मंयम्यमानं मूला अवलोकनगता प्रलो कनवती. ततो मात्सर्यात् तया चंदना निगडिता, ततो भगवनो दाने मंपुलनामा कञ्चु की नंदनाया मिलितः. ततो भगवतः समोपेऽनया प्रत्रज्या गृहीष्यते इति शक वचनतो संज्ञा चंदना सङ्गोपिता । जहा सयाणीएणं पिल्लियस्स चपाए दधिवाहणखंधावारस्स पा (प) लायमाणस्स भारिया धारिणी-नामा वसुमइएधूयाए सह इक्केणं पुरिसेण गहिया। पंथम्मि धारिणीए मयाम दिन्ना मोल्लेण वसुमई वणिणो । अइविणियत्ति दिन्नं सनामं चंदणा। जह य वणिय-जायाए ईसाए कसे मुंडाविऊण नियलिऊण घरे छूढा. विलवंतस्स य वाणिणो जहा कम्मयरिए साहिया. कंमासे दाऊण लोहार-गे वणिओगओ; जहा य छम्मासोववासी तित्थयरो परम-भत्तीए पाराविओ, तियसा अवयरिया, रयण-बुट्ठी जाया, तह सव्वमिणं सवित्थरं उवएसमालाविवरणाओ नेयव्वंति। -धर्मो०/कथा ३०/०८६ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश मेढ़क ग्राम से विहार कर भगवान् कौशाम्बी नगरी पधारे । . कौशाम्बी में शतानिक नामक राजा था । उसके चेटक राजा की पुत्री मृगावती नामक रानी थी। वह सदा तीर्थकर के चरण की पूजा में एकनिष्ठा वाली परम श्राविका थी। . शतानिक राजा के सुगुप्त नामक एक मंत्री था। उसके नन्दा नाम को स्त्री थी। वह भी परम श्राविका और मृगावतो की सखी थी। उस नगर में एक धनावह नामक एक सेठ रहता था। वह बहुत धनाढ्य था। उसके गृह कार्य में कुशल मूला नामक पत्नी थी। अस्तु यहाँ वीरप्रभु का पदार्पण हुआ। उस समय पौष मास की प्रतिपदा थी। उस समय उस दिन भगवान ने इस प्रकार बहुत ही अशक्य अभिग्रह ग्रहण किया। द्रव्य की अपेक्षा--सूपों को एक कोने में स्थित कुल्माष मुझे भिक्षा में दें। क्षेत्र की अपेक्षा-अमुक-अमुक क्षेत्र में भिक्षा दें। काल की अपेक्षा-नियत काल में भिक्षा दें । भाव की अपेक्षा-जो राजकन्या हो, दासत्व को प्राप्त हो, मुंडित सिर हो, तीन दिन का उपवास हो विस्तार से इनके निम्नलिखित १३ बोलोंपर अभिग्रह था। (१) राज कन्या हो। (२) अविवाहिता हो -- सती हो । (३) सदाचारिणी हो। (४) निरपराध होने पर भी जिसके प.वों में बेड़ियों तया हाथों में हथकड़िया हों। बांधकर घुबारे में रखी गयी हो। (५) सिर मुंडित हो। (६ शरीर पर काछ लगी हुई हो। (७) तीन दिन का उपवास किये हए हो -भुखी हो। (८) पारण के लिए उड़द के बाकले सूप में लिए हो। (8) न घर में हो न बाहर हो । (१०) एक पैर देहली के भातर तथा दूसरा बाहर हो । (११) दान देने की भावना से अतिथि की प्रोक्षा कर रहो हो, सर्वभिक्षुओं का पदार्पण हा हो । (१२) प्रसन्न मुख हो । (१३) और आँखों में आंसु भो हो-हदनी करतो हुई हो । ___ उपर्युक्त अभिग्रह पूर्वक उक्त स्त्री मुझे एक कोने में रखे हुए कुल्माष ( उड़द ) बहराव तो मुझे लेना है-- नहीं तो चिरकाल तक ( छः मास तक ) मुझे पारणा नहीं करना है। इन तेरह अभिग्रह पूर्वक मुझे वह कन्या भिक्षा दे तो में उस भिक्षाको ग्रहण करूगा अन्यथा चिरकार तक भिक्षा ग्रहण नहीं +. अर्था । पारणा नहीं करूगा । Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश ऐसा अभिग्रह ग्रहण कर भगवान् प्रतिदिन भिक्षा के समय में उच्च-नीच गृह में गोचरी के लिए फिरने लगे। परन्तु भगवान् के उपयुक्त अभिग्रह होने के कारण यदि कोई भिक्षा देता तो भगवान् भिक्षा को ग्रहण नहीं करते थे। फलस्वरूप नगर के लोग प्रतिदिन सोच करते और स्वयं की निंदा करते थे। इस प्रकार अशक्य अभिग्रह होने के कारण भिक्षा को ग्रहण किये बिना बावीस परीषहों को सहन करते हए भगवान् ने चार प्रहर की तरह चारमास व्यतीत किये। एक समय भगवान् सुगुप्त मंत्री के घर पर भिक्षार्थ पधारे । वहाँ उनकी स्त्री नन्दाने भगवान को दूर से देखा। ये 'महावीर अहंत' हमारे भाग्य के कारण हमारे घर पधारे। इस प्रकार बोलती हुई नंदा आनंदको प्राप्त-भगवान् . के सम्मुख गयी। और वह बुद्धिमान श्राविका भगवान् को कल्पित भोजन-पदार्थ भगवान् के पास रखा। परन्तु भगवान् अभिग्रह के कारण उसमें से किसी को भी ग्रहण किये बिना चले गये। फल स्वरूप- तत्काल नंदा का हृदय मंद हो गया । मैं अभागिनी हूं, मुझे धिक्कार है, मेरा मनोरथ पूर्ण नहीं हुआ। इस प्रकार शोक-संताप करने लगी। इस प्रकार खेद करती हुई उसे उसको दासी ने कहा कि हे भद्र ! ये देवार्य प्रतिदिन इसी रीति से भिक्षा लिये बिना ही चले जाते हैं-आज तक कार्य पूर्ति नहीं हआ है। दासो की यह बात सुनकर नंदा ने विचार किया कि भगवान् ने किसी प्रकार का अपूर्व अभिग्रह किया है --- ऐसा जाना जाता है जिससे कि प्राशुक अन्य भी नहीं ग्रहण करते हैं। अब प्रभु के उस ग्रहित अभिग्रह को किसी प्रकार से जाना लेना चाहिए। इस प्रकार चिंता करती हुई नंदा आनन्द रहित होकर बैठी हुई थी कि उस समय सुगुप्त मंत्री घर आया। उसने नंदा को चिता से व्याकुल देखकर कहा-हे प्रिया! तुम उद्विग्न चित्तवालो केसे दिखाई देती हो। क्या किसी ने तुम्हारी आज्ञा का उल्लंघन किया है। मैंने तुम्हारा क्या अपराध किया है। प्रत्युत्तर में नंदाने कहा-स्वामी ! किसी ने भी मेरी आज्ञा का उल्लघन नहीं किया है। आपने भी कोई अपराध नहीं किया है। परन्तु में श्री वीर भगवान् को पारणा नहीं कराने सकी---- इसमे मुझे बहुत बड़ा खेद है। भगवान् वारप्रभु नित्य भिक्षार्थ अपने नगर ( कौशाम्बी ) में आते हैं और किसी अपूर्व अभिग्रह को ग्रहण करने से भिक्षा लिये बिना हो चले जाते हैं। इसलिए हे महामंत्री ! तुम्हें उस प्रभु के अभिग्रह को जान लेना चाहिये । यदि तुम यह नहीं जानते हो तो दूसरों के चित्त को देखने वाली तुम्हारी बुद्धि व्यर्थ है। प्रत्युत्तर में सुगुप्त ने कहा-हे प्रिया ! महावीर प्रभुका अभिग्रह जिस रीति-भांति जाना जाय बसा प्रात: काल प्रयास करूंगा। उस समय मृगावती राणी की नाम विजया को छड़ोदार स्त्री वहाँ आयी थी। उसने दंपती की बात को सुना। फलस्वरूप यह सर्व हकीकत उसने स्वयं को स्वामिनी मृगावती के पास जाकर कही। यह बात सुनकर मृगावती राणा को भी तत्काल खेद उत्पन्न हुआ। शतानिक राजा संभ्रम को प्राप्त हुआ और उसे खेद का कारण पूछा । फल स्वरूप मृगावती जरा भृगुटी ॐची कर अंतर के खेद और क्षोभ के उद्गार से व्याप्त ऐसो वाणी से बोली-"राजागण तो इस चराचर जगत को स्वयं की बात-मोदारा से जान सकते हैं और तुम तुम्हारे एक शहर को भी नहीं जान सकते हो-तब तुम्हारे पास Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६. वधमान जीवन कोश क्या बात करनी चाहिए ! राज्य के सुख में प्रमादी बने हुए हे नाथ । तीन लोक के पूजित चरम तीर्थंकर श्री वीर भगवंत इस शहर में रहते हैं-यह तुम जानते हो। वे किसी अभिग्रह को ग्रहण किये हुए घर-घर फिरते हैं परन्तु मिक्षा को ग्रहण किये बिना ही वापस चल देते हैं । यह तुम जानते हो ? मुझे, तुम्हें और अपने अमात्य को धिक्कार है कि जहाँ श्री वीरप्रभु अज्ञात अभिग्रह के द्वारा इतने सब दिन तक भिक्षा बिना रहे ।" प्रत्युत्तर में राजा ने कला-हे शुभाशय । हे धर्मचतुर ! तुमको धन्यवाद है। मेरे जैसे प्रमादी को तुमने बहुसारी शिक्षा-सीख योग्य समय में दी। अब मैं प्रभुका अभिग्रह जानकर प्रात:काल उन्हें पारणा कराऊंगा। ऐसा कहकर राजा ने तत्काल मंत्री को बुलाया और कहा कि हे भद्र ! हमारी नगरी में श्री वीरप्रभु चार मास होने पर भी भिक्षा ग्रहण किये बिना रहे । इमसे अपने को धिक्कार है। अतः तुम्हें जैसा उचित लगे वसा उपायकर उनका अभिग्रह जान लेना चाहिये कि जिससे मैं उस अभिग्रह को पूर्णकर हमारी शुद्धता के लिए पारणा कराऊ । प्रत्युत्तर में मंत्री ने कहा कि हे महाराज ! उनका अभिग्रह जाना जाय ऐसा नहीं है---मैं भी उससे खेदित हूं अतः उमका कोई उपाय सोचना चाहिये। तत्पश्चात् राजा ने धर्मशास्त्र में विचक्षण तथ्यकंदी नामक उपाध्याय को बुलाकर कहा कि-हे महामति ! तुम्हारे शास्त्र में सर्व धर्मों के आचार कथित है। उनमें से श्री जिनेश्वर के अभिग्रह की बात मुझे कहो। प्रत्युत्तर में उपाध्यायमे कहा-हे राजन् ! महर्षिगण द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव-ये चार भेद से बहुत अभिग्रह कहे हैं। वर्धमान महावीर ने जो अभिग्रह ग्रहण किया है। वह विशिष्ट ज्ञान के बिना कभी भी नहीं जाना जा सकता है। तत्पश्चात् राजा ने नगरी में यह उद्घोषणा की कि-अभिग्रह को ग्रहण किये हुए श्री वीरप्रभु भिक्षा को लेने के लिए आये-तब लोग अनेक प्रकार को भिक्षा दो। राजा की आज्ञा और श्रद्धा से सर्वलोगों ने वमा किया। तथापि अभिग्रह के पूर्ण न होने के कारण प्रभु ने किसी भी स्थान से भिक्षा ग्रहण नहीं की। __इस प्रकार भिक्षा रहित रहते हुए भो: विशुद्ध ध्यान द लीन रहे हुए भगवान अम्लान मुख रहते थे और लोग प्रतिदिन लज्जा और खेद से विशेष आकल-व्याकुल होकर भगवान् को देखते रहते थे। इस अवधि में शतानिक राजा सैन्य के साथ वटोलिओं की तरह वेग से एक रात्रि में जाकर चंपानगरी को । घेर लिया। चंपापति दधिवाहन राजा उससे भय को प्राप्त होकर भाग गया। अति बलवान् पुरुष से रूधे हुए मनुष्य को भागने के सिवाय अन्य कोई स्वरक्षा का उपाय हो नहीं है। तत्पश्चात रातानिक राजा ने विचार किया कि-इस नगरी में से जो लेना हो वह लेना चाहिए। ऐसी स्वय को सैन्य में आघोषणा करायी । फलस्वरूप उसके सुभट चंपानगरी को स्वेच्छापूर्वक लूटने लगे। Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० वर्धमान जीवन-कोश इधर दधिवाहन राजा की धारणी नाम की-राणी व उसकी पुत्री वसुमति को कोई ऊंटवाला हरण कर ले गया। - शत्रु रूप कुमुद में सूर्य जैसा शतानिक राजा कृतार्थ होकर सैन्य के परिवार के साथ कौशाम्बी नगरी भाया । - धारिणी राणी के रूप से मोह को प्राप्त हुआ-पहले सुभट लोगों के सम्मुख उच्च स्वर से कहने लगा कियह जो प्रौढ़ रूपवती स्त्री है वह मेरी होगी और इस कन्या को कौशाम्बी के चौक में जाकर बिक्री कर दूंगा। यह बात सुनकर धारिणो देवी ने चिन्तन किया f-ने चन्द्र से भी निर्मल वंश में जन्म लिया है तथा महान् वंश में उत्पन्न हुए दधिवाहन राजा को पत्नी हूं। और जैन धर्म मेरे में परिणत हुआ है तो फिर इस प्रकार के अक्षर को सुनकर भी मैं पाप का भाजन होकर अभी भी जीवित हूं। इस कारण मुझे धिक्कार है। अरे स्वभाव चपल ऐसा जीव अभी भी देह में वे से स्थित है। यदि तुम अपने आप देह से अलग नहीं होते हो तो-माला में से पक्षी को निकाला जाता है उसी प्रकार मैं तुमसे बलात्कार निकालूंगी। इसप्रकार तिरस्कार से मानो उद्वेग को प्राप्त हुआ हो वसे खेद से पूटी गए हए उसके हृदयमें से उसके प्राण क्षण भर में निकल गए। उसे मृत्यु को प्राप्त हुआ देखकर ऊंटवाले सुभट ने खेद किया-“ऐसी सती स्त्री के लिए मैंने कहा कि यह मेरो पत्नी होगी-यह मैंने बहुत खराब कार्य किया है अतः मुझे भिक्कार है। आंगुल से बताते हुए कुष्मांडफल ( कोला) की तरह हमारी दुष्ट वाणी से यह सतो जैसे मृत्यु को प्राप्त हुई है उसी तरह कदाचित् यह कन्या भी मृत्यु को प्राप्त होगी। अतः इसे खेद नहीं उत्पन्न करना चाहिए। ऐसा विचार कर उस कन्या को मधुर वचन के द्वारा बुलाता हुआ कौशाम्बी नगरी आया। और उसे राजमार्ग में बिक्री करने के लिए खड़ी किया। भाग्यवशात् वहाँ धनावह सेठ का आगमन हआ। देवयोग से-उसने वसमती को देखकर विचार में पड गया। इस कन्या की आकृति देखने से ऐसा महसूस होता है कि यह किसी सामान्य मनुष्य की पुत्री नहीं है परन्तु युथ में से भ्रष्ट हुई मृगी जैसे पारधि के हाथ में आती है उसी प्रकार माता-पिता से विखुटी पड़ी हुई यह कन्या इस निर्दय मनुष्य के हाथ में आयो है-ऐसा जाना जाता है। उसने यहाँ मूल्य लेकर बिक्री के लिए लाया है। इससे यह बिचारी जरूर किसी हीन मनुष्य के हाथ में चली जायेगी। अतः इस मनुष्य को बहुत धन देकर मुझे ही इस कृपा-पात्र कन्या को खराद करना चाहिए। स्वयं की पुत्री को तरह मैं उसको उपेक्षा करने में अशक्त है। किसी भी प्रकार की रूकावट के बिना हमारे घर में रहते हुए दैवयोग से इस बाला का उसके स्वजन-वर्ग का संयोग भी हो जाएगा। - इस प्रकार विचार कर धनावह सेठ ने उस सुभट को इच्छा-प्रमाण उसका मूल्य देकर अनुकम्पा से उम बाला को स्वयं के घर ले आया। उसने स्वच्छ बुद्धि से पूछा कि-हे वत्स ! तुम किसकी कन्या हो और तुम्हारा स्वजन वर्ग कौन सा है। इसका उत्तर दो, भय को प्राप्त मत होना। तुम मेरी पुत्री हो। वह स्वयं के कुल को अति महत्ता होने के कारण कुछ भी नहीं बोलती हुई-सांयकाल में कमलिनी रहती है वैसे अधोमुख कर खड़ी रही। बाद में सेठ ने स्वयं की पत्नी मला को कहा-प्रिया! यह कन्या अपनी दुहिता है उसकी अति यत्न से पुष्प की तरह लालन-पालन करो। इस प्रकार श्रेष्ठी के वचन से वह बाला वहाँ स्वयं के धरकी तरह रही। और बालचंद्र को लेखा की तरह सब के नेत्रों को आनंदित करने लगी। Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश उसके चंदन जैसे शीतल विनय वचन और शील से अनुरंजित हुए श्रेष्ठि ने परिवार के साथ मिलकर उसका चन्दना नाम दिया। अनुक्रम से करभ जैसो उहवाली वह बाला यौवनवय को प्राप्त हुई। उस समय समुद्र की तरह पूर्णिमा की रात्रि हर्ष को प्रदान करती है उसी प्रकार वह श्रेष्ठि को हर्ष को प्रदान करने लगी। स्वभाव से ही रूपवती होनेपर यौवन को प्राप्त होने से विशेष रूपवती हई चंदना को देखकर मूला सेठाणी मन में ईर्ष्या लाकर इस प्रकार विचार करने लगी-श्रेष्ठि ने इस कन्या को पुत्री की तरह रखा है परन्तु अब उसके रूप से मोहित होकर कदाचित् सेठ उसके साथ विवाह-संबध करे तो मैं जीवित हाते हुए भी भृत समान हो जाऊँगी। इस प्रकार स्त्रीपन को छाजती तुच्छ हृदय को लिये हुए वह मूला उस समय से रात्रि-दिन उदास रहने लगी। एक समय सेठ ग्रीष्म ऋतुके ताप से पीड़ित हाकर दूकान से घर आया। उस समय दैवयोग से कोई सेवक उसके पैरों को धोनेवाला उपस्थित नहीं था । इस कारण अति विनीत चंदना खड़ी हुई। सेठ के वारण करने पर भी वह पितुभक्ति से सठ के पैरों को धोने लगी। उस समय उसका स्निग्ध श्याम और कोमल केशपाश अं से छुटा जाने से जलांकिल भूमि पर पड़ा। फलस्वरूप इस पुत्री का केशपाश भूमि के कादे से मलिन न हो-ऐसा विचारकर सेठ ने सहज स्वभाव से यष्टि से उसे ऊचा किया और बाद में चादर से बांध लिया। गौख पर बैठी हई मुलाने यह देखा । फलस्वरूप उसने यह विचार किया कि मैंने प्रथम जो तक किया था-वह बरावर मिलता है। इस यौवन स्त्री का केशपाश सेठ ने स्वयं की मेल में बांधा है। यह वास्तव में पत्नीपन का प्रथम चिन्ह सचित होता है क्योंकि पिता का कार्य इस प्रकार करने का नहीं होता है इसलिए इस बाला का व्याधि की तरह मूलोच्छेद करना उचित है। अस्तु यह निश्चय कर यह दुराशा डाकण की तरह उस समय की राह देखने लगी। सेठ क्षण भर विश्राम कर फिर बाहर गया। इधर मला ने एक नापित को बुलाकर चंदना के मस्तिष्क को मंडित किया। तत्पश्चा उसके पैरों को बेड़ी में बांधा। क्रोध रूप राक्षस के वशीभूत हई मूला लता को हस्तिनी की तरह चंदना को बहुत ताड़ित किया। तत्पश्चात् घर के एक दूर के विभाग ( ओरड़े ) में चन्दनाको पूरी तरह कपाट से बंधकर मुला ने स्वयं के परिवार को कहा -यदि श्रेष्ठि इस विषय में किसी प्रकार प्रश्न पूछे तो किसी को भी कुछ नहीं कहना है। यदि कोई कहेगा तो वह हमारे कोपरूप अग्नि में आहुति रूप होगा। इस प्रकार नियंत्रणा कर मूला स्वयं के पियर चलो गयो। सांयकाल सेठ अपने घर आया। चंदना को न देखकर-पूछा कि चंदना कहाँ है। चंदना के भय के कारण किसी ने भी उत्तर नहीं दिया। सेठ ने विचार किया कि हमारी वत्सा चंदना कुछ रमती होगी अथवा घर के ऊपर होगी। इसी प्रकार रात्रि में वापस पूछा परन्तु किसी ने भी कुछ नहीं कहा। सरल स्वभाव बुद्धि वाले सेठ ने यह जिवन किया कि चंना सो गई होगी। Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ वधमान जीवन-कोश इस प्रकार दूसरे दिन तीसरे दिन भी चंदना को नहीं देखा । फलस्वरूप शंका और कोप से आकुल-व्याकुल हुआ सेठने परिजन को पूछा-अरे सेवको ! तुम कहो कि हमारी पुत्री चन्दना कहाँ है ? यदि तुम जानते हुए नहीं कहते हो तो मैं तुम सबों का निग्रह कर दूंगा। यह बात सुनकर किसी वृद्धदासी ने चिंतन किया कि मैं बहुत वर्षों से जीवित हूँ, अब मेरी मृत्यु भी नजदीक है। इसलिये मैं कदाचित् का वृत्तांता प्रकाशित कर दू तो मूला मेरा क्या कर सकती है। यह विचार कर उसने मूला। और चंदना की सारी बात सेठ को कही। बाद में वह वृद्धा जाकर जहाँ चंदना को कोठे में बंद किया था उस घर को सेठ को बताया । अस्तु धनावह सेठ स्वयं की मेल से उसका द्वार खोला। वहाँ चोर से खींची हुई लता की तरह क्षुधा-तृष्णा से पीड़ित, नवीन पकड़ी हुई हस्तिनी की तरह बेड़ी से बांधी हुई भिक्षु की तरह मस्तिष्क मुंडित की हुई और जिनके नेत्रकमल अश्रु से पूरित है-ऐसी चंदनाको धनावह सेठ ने देखो। सेठने उसे कहा कि वत्स ! तुम स्वस्थ थी। ऐसा कहकर नेत्र में से अश्रु गिराते सेठ उसे भोजन कराने के लिए रसवती लेने के लिए चपल गति से रसोई घर में गया परन्तु दैवयोग से वहाँ कुछ भी अवशेष भोजन देखने में नहीं आया। इस कारण सुपडे के खोणे में से पड़े हुए कुल्माष उसने चंदना को दिया और कहा-हे वत्स ! मैं तम्हारी बेड़ो तोड़ने के लिए लुहार को बुलाकर लाता हूं। वहाँ तक तुम इस कुल्माष का भोजन करो। इस प्रकार कहकर सेठ बाहर गया। इधर चंदना खड़ी-खड़ी विचार करने लगी कि-अहो! हमारा राजकुल में जन्म कहाँ और इस समय ऐसी स्थिति कहाँ ? इस नाटक जैसे संसार में क्षण में वस्तु मात्र अन्यथा हो जातो है। यह सब मैंने अनुभव किया है । अहो ! अब मैं क्या उसका प्रतिकार करू। आज मुझे अष्टम तप के पारणे में यह कुल्माष प्राप्त हुआ है परन्तु यदि कोई अतिथि आये तो उसे प्रतिलाभित कर फिर भोजन करू'। अन्यथा भोजन नहीं करूगी। यह विचार कर उसने द्वारपर दृष्टि दी। उस समय तत्काल श्री वीरप्रभु भिक्षा के लिए फिरते-फिरते वहाँ आये । उनको देखकर-अहो ! ये कैसे शुद्ध पात्र, अहो ! ये कैसे उत्तम पात्र। अहो ! मेरे पुण्य का संचय कैसा है कि जिस कारण से यह कोई महात्मा भिक्षार्थ यहाँ अचानक प्राप्त हुए हैं। इस प्रकार चिंतन कर चंदनबाला ने बुल्माष वाला सुपडु हाथ में लेकर एक पर उमरा के अन्दर और एक पैर बहार निकाल कर खड़ी रही। बेड़ी के कारण उमरा को उल्लंघन करने में असमर्थ ऐसी बाला वहाँ रहकर आद्र हृदय वाली भक्ति से भगवान् को बोलीं-हे प्रभो! क्या यह भोजन आपके लिये अनुचित है तथापि आप परोपकार में तत्पर है। इस कारण आप इसे ग्रहण कर मेरे पर अनुग्रह करना चाहिये। ___ द्रव्य-क्षेत्र काल-भाव से शुद्ध प्रकार से अभिग्रह पूर्ण हुआ जानकर प्रभु ने कुस्माष को भिक्षार्थ स्वयंका हाथ प्रसारित किया। उस समय अहो ! मुझे धन्य है। इस प्रकार ध्यान करती हुई च दना सुपडे के एक खुणे से वह कुल्माष प्रभु के हाथ में दिया। भगवान् का अभिग्रह पूर्ण होने से देव प्रसन्न होकर वहाँ आये Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन - कोश ३२३ नोट – इस समय चन्दना के नेत्रमें आँसु नहीं थे अतः प्रभु अभिग्रह की अपूर्णता जानकर वापस पश्चारे । फलस्वरूप चन्दना को पारावार खेद हुआ । अतः इससे आँखों में अश्रुधारा बह निकली प्रभु अभिग्रह पूर्ण हुआ जान कर वापस पधारें | चंदना से हाथ में दान लिया । यह अन्यत्र कथन है । * 1 ( ड ) कदाचिच्चेटकाख्यस्य नृपतेश्चन्दनात्रिधाम् । सुतां वीक्ष्य वनक्रीडासक्तां कामशरातुरः । ३३८ ।। कृतोपायो गृहीत्वैनां कश्चिद्गच्छन्नमश्चरः । पश्चाद्भीत्वा स्वभार्याया महाटव्यां व्यसर्जयत् ॥ ३३६ ॥ वनेचरपतिः कश्चित्तत्रालोक्य धनेच्छया : एनां वृषभदत्तस्य वाषिजस्य समर्पयत् ॥३४०|| तस्य भार्या सुभद्राख्या तया संपर्कमात्मनः । वणिजः शंकमानासौ पुराणं कोद्रवौदनम् ||३४१ || आरनालेन संमिश्रं शरावे निहितं सदा । दिशती श्रृंखलाबन्धभागिनीं तां व्यधाद्रुषा || ३४२ || - उत्तपु० पर्व ७४ (ढ) अथ चेटकराजस्य चन्दनाख्यां सुतांसतीम् । वनक्रीडासमासक्तां कश्चित्कामातुरः खगः ॥ ८४ ॥ वीक्ष्योपायेन नीत्त्राशु गच्छन् पापपरायणः । पश्चाद्भीत्वा स्वभार्याया महाटव्यां व्यसर्जयत् ||८५|| स्वैनः कर्मोदयं ज्ञात्वा सा तत्रैव महासती । जपन्ती सन्नमस्कारान् धर्मध्यानपराभवत् ॥ ८६ । वनेचरपतिः कश्यित्तामालोक्य धनेच्छया । नीत्वा वृषभसेनस्य समर्पयवणिक्पतेः । ८७|| श्रेष्ठभार्या सुभद्राख्या दृष्ट्वा तद्रूपसंपदः । भविता मे सपत्नीयमिति शंकां व्यधाद् हृदि ॥८८॥ ततस्तद्रूपहान्यै सा पुरणं कोद्रवोदनम् । आरनालेन सम्मिश्रं शरावे निहितं सदा ॥८॥ ददती चन्दनयाश्चशृंखला बंधनं व्यधात् । तत्रापि सा सती दक्षा नात्यजर्द्धमभावनाम् ॥ ६० ॥ —वीरवर्धच० अधि १३ जब भगवान् महावीर छ मस्थावस्था का वारहवाँ वर्ष व्यतीत कर रहे थे उस समय चेटक राजा की न कोड़ा में आसक्त चंदना नामकी सती पुत्री को देखकर कोई कामातुर और पाप-परायण विद्याधर किसी उपाय से उसे शीघ्र ले उड़ा और आकाश मार्ग से जाते हुए उसने अपनी भार्या के भय मे पीछे किसी महाअटवी में उसे छोड़ दिया । तब वह महासती अपने पाप कर्मोदय को जानकर पंचनमस्कार मंत्र को जपती हुई उसी अटवी में धर्माध्यान में तत्पर होकर रहने लगी । वहाँ पर किसी भीलों के राजा ने उसे देखकर धन प्राप्ति की इच्छा से ले जाकर वृषभ सेन नाम के वेश्यपति को सौंप दी। सुभद्रा नाम की उस सेठ की स्त्री ने उसकी रूप-संपदा को देखकर 'यह मेरी सौत बनेगी' ऐसी शंका को मन में धारण किया । तब उसने उसके रूप सौन्दर्य की हानि के लिए ( उसके केश मुंड़ा दिये और ) सांकल से बांधकर ( उसे एक कालकोठरी में बन्द कर दिया ) तथा आरनाल (काँजी) से मिश्रित कोदो का भात मिट्टी के सिकोरे में रखकर उसे नित्य खाने को देने लगी। ऐसी अवस्था में भी उन सती ने अपनी धर्म भावना को नहीं छोड़ा । Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन - कोश ३२४ (ण) अन्येद्युर्वत्सदेशेऽत्रतकौशाम्बीपुरं परम् । कायस्थित्यै महावीरः प्राविशदुरागद्रगः ||११| पात्रोत्तमं तमालोक्य विच्छिन्न बंधनाभवत् । तद्दानाय तदा प्रत्युव्रजन्ती चंदना शुभात् ॥ ६२॥ ततो नीलालिमा केशभारस्त्रग्भूषणाङ्किता । । गत्वा सा विधिना नत्वा प्रतिजग्राह सन्मतिम् ॥ ६३ ॥ शीलमाहात्म्यतस्तस्या अभवत्कोद्रवोदनम् । शाल्यन्नं तच्छरावं च पृथुकाञ्चनभाजनम् ॥६४॥ अहो पुण्यविधिः पुंसां विश्वानघटितानपि । घटयत्येव दूरस्थान् मनोऽभीष्टान्न संशयः ||१५|| ततोऽस्मै परया भक्त्या तदन्नदानमूर्जितम् । नवप्रकारपुण्याढ्या ददौ सा विधिना मुदा ||६|| तत्क्षणार्जितपुण्येन सा चापाश्चर्य पंचकम् । संयोगं बन्धुभि सार्धं दानात्कि नाप्यतेऽत्रमोः ||१७|| जगद्व्यापि यशस्तस्या अभवच्छ शिनिर्मलम् । इष्टबन्ध्वादिवस्तूनां सङ्गमोऽभूत्मुदानतः ॥ ६=॥ - वीरवर्धमानच० अधि १३ किसी एक दिन उन महावीर प्रभु ने राग से रहित होकर शरीर स्थिति के लिए वत्सदेशकी इस कौशम्बीपुरी में प्रवेश किया । उन उत्तमात्र महावीर प्रभु को देखकर चंदना के भाव दान देने के हुए। पुण्योदय से उसके बंधन तत्काल टूट गये । सिर काले भौरों के सामान केशभारसे, और शरीर माला- आभूषणों से युक्त हो गया। तब उसने सामने जाकर और उन्हें नमस्कार कर सन्मति प्रभु को पडिगाह लिया । उसके शील के माहात्म्य से कोदों का भात शालि चावलों का हो गया और वह मिट्टी का सिकोरा विशाल सुवर्ण पात्र बन गया । आचार्य कहते हैं कि अहो, यह पुण्य कर्म पुरुषों की समस्त अघटित और दूरवर्ती भो अभीष्ट मनोरथों को स्वयमेव घटित कर देता है, इसमें कोई संशय नहीं है । तब उस चंदना सती ने परम भक्ति के साथ नव प्रकार के पुण्यों से युक्त होकर अर्थात् नवधा भक्ति पूर्वक विधि से हर्षित होते हुए श्री महावीर प्रभु को वह उत्तम दान दिया । इस महान् दान के प्रभाव से उसी समय उपार्जित पुण्य के द्वार वह पंचाश्चर्यो को प्राप्त हुई और तभी बंधुओं के साथ उसका संयोग भी हो गया । अहो ! पुण्य से क्या नहीं प्राप्त होता है । उस चन्दना का सुदान के प्रभाव से चंद्रमा के समान निर्मल यश जगत् में व्याप्त हो गया और इष्ट बंधुजनों और इष्ट वस्तुओं का भी सगम हो गया । ( त ) अण्णहिं दिणि भव्व समुद्धरणु || पिंडत्थि जाणिय-जीव-गड़ । कोसंबी -पुर-वरि पडसरह । पित्ता-नियल - णिरुद्ध पयाइ वेडय- णिव दुहियाइ || आविवि संमुहियाड पणवेघिणु दुहियाइ ||७|| वीरजि० संधि २ शुक्रड४ एक दिन श्रमण भगवान् महावीर भव्यों के उद्धार की भावना रखते हुए तथा जीवों की विचित्र गति को समझते हुए आहार के निमित्त कौशाम्बीपुरी में प्रविष्ट हुए । सभी सांकल के बंधे हुए पैरों से युक्त उस दुःखी चेटक राजपुत्री ने भगवान के समुख आकर प्रणाम किया । Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश ३२५ .२-अभिग्रह फलित होने पर देवों द्वारा वृष्टि (क) कोहव - सिस्थइ सरावि कय। सउवीर - विमीसइँ हयमय । मुणि - णाहहु करयलि ढोइयइँ । तेणवि णियदिट्टिइ जोइय।। जायाइँ भोज्जु रस - दिण्ण-दिहि! अट्ठारहा - खण्ड - पयार - विहि ।। जिण - दाण - पहावें दुइमइँ । आयस - घडियइँ रोहिय - कम । सज्जण - मण - णयणाणंदणहि । परिगलिय' णियलई चंदणहि ॥ -वीरजि० संधि २/कङ५ अमरहिं महुयर - मुह - पेल्लियइँ। कुदइँ मंदारइँ घल्लियइँ ।। ग्यणाई वण्ण - कब्बुरियाइँ । पसरंत - किरण - विष्फुरियाइँ ॥ हय दु'दुहि साहुकारु कउ । गुणि - संगें कारुण जाउ जउ ॥ कण्णहि गुणोहु विउसेहिं थुउ ! सहुँ बंधवेहिं संजोउ हुउ । -वीरजि० संधि २/कङ५ परेद्यर्वत्सदेशस्य कौशाम्बीनगरान्तरम् । कायस्थित्यै विशन्तं तं महावीर विलोक्य सा ॥३४३॥ प्रत्युव्रजन्ती विच्छिन्नशृङ्खलाकृतबंधना। लोलालिकुललीलोरुकेशभाराच्चलाचलात् ॥३४४|| विगलन्मालतीमालादिव्याम्बरविभूषणा। नवप्रकारपुण्येशा भक्तिभावभरानता ॥३४५।। शीलमाहात्म्यसंभूतपृथुहेमशराविका। शाल्यन्नभाववत्कोद्रवौदनं विधिवत्सुधीः ।।३४६।। अन्नमाश्राणयत्तस्मै तेनाप्याश्चर्यपंचकम् । बंधुभिश्च समायोगः कृतश्चन्दनया तदा ॥३४॥ -उच्चपु० पर्व ७४ (ख) पंच दिव्याणि पाउन्भूयाणि, ते वाला तदवत्था चेव जाया, नियलाणि फिट्टाणि, सोवन्नयाणि नेउराणि जायाणि, देवेहिय सव्वालंकारा कया, सक्को देवराया आगतो, वसुहाराए पमाणं अड्ढतेरस हिरण्ण कोडो, कोसंबीए य सव्वतो उग्घुट्ठ-केणइ पुण्णम् तेण अज सामी पडिलाहितो, ताहे राया संतेउरयरियणो आगतो, तत्थ संपुलो नाम दहिवाहणस्स कंचुकी, सोरण्णा बंधित्ता आणीतो, सोऽविरण्णा सहतत्थागतो, तेणसा चंदणा पच्चभिजाणिया, पच्छा पाएसु पडिऊण परुन्नो, राया पुच्छति-काएसा ? तेण से कहियं, जहा-एसा दहिवाहणस्स रणो दुहिया, मियावती भणइ-मम भागिणिधूया, अमच्चोवि सपत्तीतो आगतो सामी वंदइ, सामीविनिग्गतो, ताहे रायातं वसुहारं पगहिओ, सक्केण वारितो, जस्स एसा देइ तस्स आभवइ, सा पुच्छिया भणइ-ममपिउणो, ताहे सक्केण सयाणितो भणितो-एसा चरमसरीरा एवं संगोवाहि जावसामिस्स नाणं उप्पज्जइ, एसा पढमसिस्सिणी, ताहे कन्नं तेउरे छूढा संचिट्ठइ, छम्मासा तया पंचहिं दिवसे हिं उणगा अभिग्गहस्स गहियस्स जाया जद्दिवसं सामिणा भिक्खालद्धा, सावि मूला लोगेण अंबाडिया हीलियाय । अमुमेवार्थ सजिघृक्षुराह Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ वर्धमान जीवन - कोश (ग) स्वाम्यभिप्रहसंपूर्त्या प्रीतास्तत्राययुः सुराः । वसुधाराप्रभृतीनि पंच दिव्यानि व्यधुः ||८०|| तुत्रुटुर्निंगडास्तस्यास्तत्पदे कांचनानि च । जज्ञिरे नू पुराण्यासीत् केशपाशश्च पूर्ववत् ||५८१|| सर्वागोणं च तत्कालं रत्नालंकारधारिणो । श्रोवोरभ कैर्विदधे विबुधैरथ चन्दना ॥ ५८२|| उत्कृष्ट नादं विदधू रोदः कुक्षिभरि सुराः । जगुश्च ननृतुश्चोच्च रंगाचार्या इवोन्मुदः || ५८३ ॥ मृगावतीशतानीकौ सुगुप्तो नन्दया सह । तत्रैयुः सपरीवाराः श्रुत्वा तं दुन्दुभिध्वनिम् ||५८४ | आययौ देवराजोऽपि शक्रो मुदितमानसः । संपूर्णाभिग्रहं नाथ नमस्तकतु द्रुतद्रु तम । ५८५॥ दधिवाहनराजस्य संपुलो नाम कचुकी । चंपावरकन्द आनीतो राज्ञा मुक्तस्तदैवहि ||५८६ ॥ तत्रायातो वसुमतीं दृष्ट्वा तत्पादयोर्नतः । विमुक्तकण्ठमन्द्रत् सद्यस्तामपि रोदयन् । ५८७ || किंरोदिषीति राज्ञोक्तः साश्रुः प्रोवाच कंचुकी । दधिवाहनराजस्य धारिण्याश्चेयमात्मजा ||१८|| तादृग्विभवविभ्रष्टा पितृभ्यां रहिता च हा । इयं वसत्यन्यगृहे दासीवत्तेन रोदिमि ॥ ५८६ ॥ राजाऽप्यूचे न शोच्येय संपूर्णाभिग्रहो यया । जगत्त्रयत्राणवीरः श्रीवीरः प्रतिलाभितः ||५६२॥ मृगावस्यष्यभाषिष्ट धारिणी भगिनि मम । इयं तद्दुहिता बाला ममापि दुहिता खलु || ५६१|| पंचाहन्यूनपण्मासतपःपर्यन्तपारणम् । कृत्वा धनावहगृहान्निर्ययौ भगवानपि || ५६२ ॥ वसुधारामथाऽऽदित्सुं लोभप्राबल्यतो नृपम् । व्याजहार शतानीकं सौधर्माधिपतिः स्वयम् | ५६३ नेह स्वस्वामिभावो यद्रत्नवृष्टिं जिवृक्षसि । यम्मै ददाति कन्येयं स एव लभते नृप ! ||५६४।। 'गृह्णात्विमांक इत्युक्ता राज्ञा प्रोवाच चन्दना अयं धनावहः श्रेष्ठी पिता हि मम पालनात् । ५६५ || जग्राह वसुधारां तां ततः श्रेष्ठीधनावहः । भूयोऽप्याखं डलोऽवोचच्छतानीकन रेश्वरम् ||५६.६ || बाला चरमदेहेयं भोगतृष्णापराङ्मुखी भविष्यत्यादिमा शिष्योत्पन्ने वीरस्य केवले || ५ ७ आस्वामिकेवलोत्पत्ति रक्षणीया त्वया ह्यसौ । इत्युक्त्वा मघवा नाथं नत्वाच त्रिदित्वं ययौ । ५६८ | कन्यकाऽन्तःपुरे निन्ये शतानीकेन चन्दना । सा स्वामि केवलोत्पत्तिं तत्र ध्यायन्त्यवास्थित | ५६६ ॥ अनर्थमूलं मूला च श्रेष्ठिना निरवास्यत । अपध्यानवती साथ विपद्य नरकं ययौ || ६८८।। - त्रिशलाका० पर्व १० सर्ग४ भगवान् का अभिग्रह पूर्ण होने के कारण देव प्रसन्न होकर वहाँ आये । और उन्होंने वसुधारा आदि पाँच दिव्य प्रगट किये। तत्काल चंदनबाला की बेड़िये टूट गयी। उसके स्थानपर नुवर्ण के नूपुर हो गये । और केशपाश पूर्व की तरह सुशोभित हो गये । श्री. वीरप्रभु के भक्त देवगण तत्काल चंदना को ( सर्व अंग में ) वस्त्रालंकार से सुशोभित किया । तत्पश्चात् देव पृथ्वी और अंतरीक्ष के उदर को पूर्ति करे वैसा उत्कृष्ट नादकर मुत्रधार की तरह हर्ष को प्राप्त होते हुए गीतनृत्यादिक करने लगे । दुन्दुभिकीका सुनकर मृगावती और शतानिक राजा तथा सुगुप्त मंत्री और नंदा मोटे परिवार के साथ वहाँ आये । Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश ३२७ देवपति श केन्द्र भी पूर्ण अभिग्रह वाले प्रभु को वंदन करने के लिए मन में हर्ष को प्राप्त--प्राप्त वेग से वहाँ आया। ____ अस्तु दहिवाहन राजा का संपुल नामक एक कंचुकी था। उसने जिम समय चंपानगरी को लटा उस समय वहाँ से शतानिक राजाने पकड़ कर लाया था। उसे इस समय मेंही छोड़ देने से वह भी वहाँ आया । फलस्वरूप स्वयं के राजा की पुत्री वमूमती को देखकर उसके पैरों में पड़ गया और खुले कंठों से रुदन करने लगा। इससे उस बाला को भी रुदन आया वह बाला भी रोने लगी। यह देखकर शतानिक राजाने उसे पूछा कि तुम क्यों रो रहे हो। तब उस कंचुकी ने अश्रुधारा सहित कहा-कि महाराज । दधिवाहन राजा की धारिणो रानी की यह पुत्री है। अहो। केमे उत्कृष्ट वैभवमे भृष्ट होकर माता-पिता के बिना यह बाला दूसरों के घर में दामी की तरह रहती है। यह देख र मैं रोने लगा। तब राजा ने कहा कि हे भद्र । यह कुमारी शोक करने योग्य नहीं है, क्योंकि उसने तीन जगतको रक्षण करने में शूरवीर ऐसे वीर प्रभुका अभिग्रह पूर्णकर प्रतिलाभित किया है । उस समय मृगावती ने कहा-अरे! धारिणी तो हमारी बहिन भी होती है उसकी यह दुहिता है। तब हमारो भी यह दुहिता है। तत्पश्चात् वर्धमान-महावीर छ: मास में पाँच दिन न्यून नप का पारणा कर धनावह सेठ के घर से बाहर निकले। अस्तु भगवान के विहार करने के बाद लोभ की प्रबलता से शतानिक राजा उस वसुधारा का धन लने की इच्छा को। तब सौधर्मपति ने शतानिक राजा को कहा-है राजन् । तुम यह रत्नवृष्टि लेने की इच्छा करते हो परन्तु इस द्र०प पर तुम्हारा स्वामीभाव नही है। _इस कारण यह कन्या जिमका दी जायेगो वह यह द्रव्य ले सकता है। राजा ने चंदना को पूछा किचदना। यह द्रव्य कान ले सकता है। प्रत्युत्तर में चंदना ने कहा कि यह धनावह सेट यह द्रव्य ग्रहण करेगाक्योंकि मने मेरा प्रतिपालन करने से मेरा पिता है। तत्पश्चात् धनावह सेट ने वसुधारा का द्रव्य ग्रहण किया। बाद में इन्द्र ने दूसरी बार शतानिक राजा को कहा कि यह बाला चरम शरीरी, और भोगतृष्णा से विमुख है। इस कारण जिस समय वीर प्रभु को केवल ज्ञान होगा-उस समय वह उनकी प्रथम शिष्या होगी। उमलिए जहां तक प्रभु को केवल ज्ञान न उत्पन्न हो । वहाँ तक इस कन्या का रक्षण करना । इस प्रकार कह कर-प्रभु को नमस्कार कर इन्द्र देवलोक में गया । अस्तु राजा शतानिक चंदना को स्वयं के घर ले गया और कन्याओं के अंतःपुर में उसे रखा। चंदना भी प्रभु का कवलज्ञान की उत्पत्ति का ध्यान करती हुई वहाँ रही। पूर्व जो धनावह सेठ को स्त्री मूला सेठानो-- जो अनर्थ का मूल कारण थी। उसे धनावह सेठ ने निकाल दिया। वह दुनि करतो हुई मृत्यु प्राप्त कर नरक गयो। Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ वर्धमान जीवन - कोश . ३ भगवान् महावीर से दीक्षा ग्रहण - इतश्च चन्दना तत्र शतानीकगृहस्थिता । पश्यन्ती यान्तमायान्तं दिविषज्जनमम्बरे । १६१ ।। स्वामिनः केवलोत्पत्तिनिश्चयाद्वतकांक्षिणी । त्रिदशैरदवीयोभिर्निन्ये श्री वीरपर्ष दि ११६२ ॥ सात्रिः प्रदक्षिणीकृत्य नत्वा चोपास्थित प्रभुम् । प्रव्रज्यार्थं नृपाऽमात्यपुत्र्यो बढ्योऽपरा अपि ॥ १६३ ॥ चन्दनां धुरि कृत्वाताः स्वयं प्राव्राजयत् प्रभुः । अस्थावयच्छ्रावकत्वे नृन्नारीश्च सहस्त्रश ॥१६४|| - त्रिशलाका १० पर्व सर्ग ५ भगवान् महावीर की द्वितीय देशना अपापा नगरी में थी उस समय शतानिक राजा के घर में रही हुई चंदन बाला ने आकाश मार्ग में देवों का आवागमन देखा । उसके कारण वर्धमान महावीर को केवल ज्ञान समुत्पन्न हुआ है - ऐसा निश्चय होने के कारण उसको व्रत ग्रहण करने की इच्छा हुई । तत्पश्चात् नजदीक में रहे हुए किसी देव ने उसे श्री वीर प्रभु की परिषद् में उठा कर रखा। चंदनबाला ने भगवान् को वदन— नमस्कार किया और दीक्षा ग्रहण के लिए तत्पर हुई तथा भगवान् के सम्मुख खड़ी हो गयो । उस समय अन्य अन्य भी अनेक राजा तथा अमात्यों की पुत्रियाँ दीक्षा ग्रहण करने के लिए तैयार हुई । भगवान् ने चंदना को आगे कर उन सबको दीक्षा ग्रहण करवायी । उस समय हजारों नर-नारियों ने श्रावक के बारह व्रतों को ग्रहण किया .४ भगवान् महावीर की मुखिया - चंदना साध्वी बम्हनकुज्जणाभा धम्मसिरी मेहसेणअयणंता । तह रतिसेणा मीणा वरुणा घोसाय धरणाय । चारणवरसेणाओ पम्मासव्वसिसुव्वदाओ वि । हरिसेणभावियाओ कुंथूमधुसेणपुव्वदत्ताओ । मग्गणिक्खिसुलोया चंदणणामाओ उसहपहुदीणं एदा पढमगणीओ एक्केका सव्वविरदीओ ॥ -तिलोप० अधि ४ /गा १५७८ से १९८० ब्राह्मी यावत चंदना नामक ये एक एक आर्थिकायें क्रम से ऋषमादिक के तीर्थ में रहनेवालो आर्यिकाओं के समूह में मुख्य थी । अतः भगवान् महावीर के समस्त साध्वियों में आर्य चंदना प्रमुख थी । .५ चंदना आर्या को केवलज्ञान की उत्पत्ति— एवंच बोधयन् भव्यानम्भोजानीव भास्करः । भूयो जगाम कौशाम्बी नगरीं परमेश्वरः ॥ ३३७ ॥ प्रमोश्वरमयां वन्दनायेन्दु भास्करौ । स्वाभाविक विमानस्थौ तस्यां युगपतुः ||३३८|| तयोर्विमान तेजोभिर्नभम्युद्योतिते सति । लोकम्तथैय तत्राऽस्थात् कौतुक्रव्यग्रमानसः ॥३३६॥ विज्ञ: योत्थानसमयं चंदना तु प्रवर्तिनी । वीरं प्रणाम्य वसतिं स्वां ययौ सपरिच्छदा ||३४०|| मृगावती तु तत्रस्थमार्तण्डोद्यततेजसा । नाज्ञासीद्रात्रिमायातां तत्रैवाऽऽस्था द्दिनभ्रमात् ||३४१ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन - कोश ३२६. चंद्रार्क योगतवतोर्ज्ञात्वा रात्रिं मृगावती । प्रतिश्रयमुपेयाय चकिता काललंघनात् ||३४२॥ तामूचे चंदना साध्वि ! कुलीनायास्तवेदृशम् । किं युज्यते ! यन्निशायां बहिरे काकिनी स्थिता ॥ ३४३ || इत्युक्त चंदनां तस्या क्षमयन्त्या मुहुर्मुहुः । घातिक्षयान्मृगावत्या उदपद्यत केवलम् ||३४४॥ निद्रान्त्याश्च प्रवर्तिन्या भुवो बाहुमुद क्षिपत् । तत्पार्श्वे यान्तमुरगं दृष्ट्वा केवलशक्तितः ।। ३४५|| प्रबुद्धया चंदनया पृष्टा किं बाहुरुद्धृतः । १ महाहिरिह यातीति शशंस च मृगावती ॥ ३४६ ॥ भूयोऽपि चन्दनाऽवोचत्सूचीभेद्य तमस्यपि । मृगावती ! कथं दृष्टस्त्वयाऽहिर्विस्मयोमम ||३४७ || मृगावती भगवतीत्याचचक्षे प्रवर्तिनि । उत्पन्नकेवलज्ञानचक्षुषा ज्ञातवत्यहम् ||३४८|| केवल्याशातनीं धिङ्मामित्यश्रान्तं स्वगर्हया । उत्पेदे केवलज्ञानं चन्दनाया अपि क्षणात् ॥३४६॥ - त्रिशलाका० पर्व १० / सर्ग ८ एकदा भगवान् महावीर का कौशम्बी में पदार्पण हुआ - दिन के अंतिम महर में चंद्र-सूर्य स्वाभाविक विमान में बैठकर भगवान् को वदनार्थ आये। उनके विमान के तेजसे आकाशमें उद्योत हुआ देखकर लोग कौतुकसे वहाँ बैठे रहे । रात्रि पड़ने से स्वयं के उठने का समय देखकर चंदना साध्वी स्वयं के परिवार के साथ वीरप्रभु को नमस्कार स्वयं उपाश्रय में गयी। परन्तु मृगावती सूर्य के उद्योत के तेजसे दिव्य के भ्रमसे रात्रि हुई - नहीं जानी । इस कारण वह वहाँ बैठी रही । तत्पश्चात् जिस समय चद्र-सूर्य चले गये उम समय मृगावती रात्रि हुई जानकर कालातिक्रम के भयसे चकित होकर उपाश्रय में आयी । चंदना ने उसे कहा - अरे मृगावती! तुम्हारी जैसी कुलीन स्त्री को रात्रि में अकेली बाहर रहना क्या उचित है। यह वचन सुनकर वह चंदना आर्या को बारम्बार खमाने लगी। ऐसे करते-करते शुभ भाव से घाती कर्म के क्षय से मृगावती को केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ । उस समय निद्रावश हुई चंदना के पड़खे से सर्प जा रहा था—उसको केवलज्ञान की शक्ति से देखकर मृगावती ने उसका हाथ संथारापर से ऊँचा किया । इससे चंदना ने जागारित होकर पूछा- मेरा हाथ ऊंचा क्यों किया ? मृगावती बोली- यहाँ मोटा सर्प जा रहा था। चंदना ने वापस पूछा- अरे मृगावती ! हम सोये हुए थे तब तुमने गाढ़ अंधकार में सर्प को कैसे जाना। इससे मुझे विस्मय होता है । मृगावती बोली- हे भगवती ! मुझे उत्पन्न हुआ केवल ज्ञान रूपी चक्षु से देखा । यह सुनकर - बोली अरे केवल ज्ञान की आशातना करने वाली मुझे धिक्कार हैइस प्रकार स्वयं की आत्मा की निंदा करने से आर्या चंदना को भी केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ । 1:0:1 Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० वर्धमान जीवन-कोश अध्ययन, गाथा, सूत्र आदि को संकेत-सूची आव 444 अध्ययन, अध्याय आवश्यक उद्देश, उद्देशक गाथा चूर्णी दिगम्बर शतक श्रुतस्कंध श्लोक श्वेताम्बर समवाय श्वे सम सूत्र स्थान स्था कट कड़वक भा भाग नि नियुक्ति मलयगिरि मलय Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकलन - सम्पादन- अनुसंधान में प्रयुक्त ग्रंथों की सूची आयारो - ( जैन आगम ) - वाचना प्रमुख आचार्य तुलसी, सम्पादक - मुनि नथमल ( वर्तमान नामयुवाचार्य श्री महाप्रज्ञ ) प्रकाशक - जैन विश्व भारती, लाडनूं ( राजस्थान ) वि० सं० २०३१ सूयगडो - ( जैन आगम ) - वाचना प्रमुख आचार्य तुलसी, सम्पादक - मुनि नथमल, प्रकाशक- - जैन विश्व भारती लाडनूं ( राजस्थान ) वि० सं० २०३१ ठाणं - ( जैनागम ) - वाचना प्रमुख आचार्य तुलसी, सम्पादक - मुनि नथमल, प्रकाशक - जैन विश्व भारती लाडनूं ( राजस्थान ) वि० सं० २०३१ समवाओ - ( जैनागम ) वाचना प्रमुख आचार्य तुलसी, सम्पादक - भारती, लाडनूं ( राजस्थान ) वि० सं० २०३१ भगवई - ( विवाहपण्णत्ती ) - ( जैनागम ) - वाचमा प्रमुख आचार्य तुलसी, सम्पादक – मुनि नथमल, प्रकाशक - जैन विश्व भारती, लाडनूंं ( राजस्थान ) वि० सं० २०३१ नायाधम्मक हाओ - ( जैनागम ) - वाचना प्रमुख आचार्य तुलसी, सम्पादक - मुनि नथमल, प्रकाशकजैन विश्व भारती, लाडनूं ( राजस्थान ) वि० सं० २०३१ उपासगदसाओ – (जैनागम ) - वाचना प्रमुख आचार्य तुलसी, सम्पादक - मुनि नथमल प्रकाशक — जैन विश्व भारती, लाडनूं ( राजस्थान ) वि० सं० २०३१ अन्तगडदसाओ - ( जैनागम ) - वाचना प्रमुख आचार्य तुलसी, सम्पादक - मुनि तथमल, प्रकाशक - जैन विश्व भारती, लाडनूं ( राजस्थान ) वि० सं० २०३१ अणुत्तरोववाइयदसाओ - ( जैनागम - वाचना प्रकाशक – जैन विश्व भारती, लाडनूं ( राजस्थान ) वि० सं० पण्हावागरणाई - ( जैनागम ) - वाचना प्रमुख आचार्य तुलसी, सम्पादक - फण्ड, सूरत -मुनि नथमल, प्रकाशक जैन विश्व प्रमुख आचार्य तुलसी, २०३१ विश्व भारती, लाडनूं ( राजस्थान ) वि० सं० २०३१ विवागसूर्य - ( जैनागम - वाचना प्रमुख आचार्य तुलसी, सम्पादक- मुनि नथमल, प्रकाशक - जैन विश्व भारती, लाडनूं ( राजस्थान ) वि० सं० २०३१ ओववाइयं - ( जैनागम ) - वाचना प्रमुख आचार्य तुलसी, सम्पादक — मुनि नथमल प्रकाशक - श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा ई० सं० १६७० रायसेइयं (जैनागम ) - सम्पादक - स्वर्गीय पं० बेचरदासजी डोशी, प्रकाशन – गुर्जरग्रन्थरत्न कार्यालय अहमदाबाद- १६३६ जीवाजीवाभिगमो - ( जैनागम ) - समलयगिरिप्रणीत विवृति प्रकाशक- देवचन्द लालभाई पुस्तकोद्धारक सम्पादक-मुनि नथमल, -मुनि नथमल, प्रकाशक - जैन Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ वर्धमान जीवन - कोश पण्णवणासुत्तं - ( जैनागम ) - समलयगिरिकृत वृत्ति- दो भाग, प्रकाशक - आगमोदय समिति, मेहसाना । जंबुद्दीवपण्णत्ती - (जैनागम ) - शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति प्रकाशक देवचन्द लालभाई पुस्तकोद्धार फण्ड, सूरत १६२० चंदपण्णत्ती - ( जैनागम ) - प्रकाशक- लाला सुख सहाय, ज्वाला प्रसाद-हैदराबाद सूरपण्णत्ती - ( जैनागम ) - प्रकाशका - समलयगिरि विहित विवरण प्रकाशक -- आगमोदय समिति, मेहसाना निरयावलियाओ - (जैनागम ) - सम्पादन गोपानी तथा चौकसी, प्रकाशन - गुर्जर ग्रन्थ रत्न कार्यालय, अहमदाबाद - १६३४ ववहारो - ( जैनागम ) - सम्पादन - प्रो० वोल्थर श्युलिंग प्रकाशन - डा० जीवराज बेलाभाई डोसी, अहमदाबाद - १६२५ बिहकप्पो - ( जैनागम ) - ६ भाग- सम्पादन- चतुर विजय, पुण्य विजय प्रकाशन- श्री आत्मानन्द जन सभा, भावनगर १६३४ से १६४२ । ( निर्युक्ति भाष्य टीका ) निसीहज्झयणं - ( जैनागम ) - वाचना प्रमुख आचार्य तुलसी, सम्पादक - मुनि नथमल, प्रकाशक - श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा, कलकत्ता, सन् १९६७ दसासुखंधो - ( जैनागम ) - सम्पादक व अनुवादक आत्मारामजी महाराज, प्रकाशक - जैन शास्त्रमाला, लाहौर १९३६ दसवेलियं सुतं - ( जैनागम ) - वाचना प्रमुख आचार्य तुलसो, सम्पादक - मुनि नथमल प्रकाशक - श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा - कलकत्ता-१, वि० सं० २०२३ उत्तरज्झयणाई - ( जैनागम ) - वाचना प्रमुख आचार्य तुतसी, सम्पादक - मुनि नथमल प्रकाशक -- श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा, कलकत्ता-१, वि० सं० २०२३ नंदीसुत्तं - ( जैनागम ) - सम्पादक मुनि पुण्य विजय, पं० दलसुख मालवणिया, प्रकाशक - श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई १९६८ अणुओगद्दाराई - ( जैनागम ) - सम्पादक -: - मुनि पुण्य विजय, पं० दलसुख मालवणिया, प्रकाशक श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई १९६८ आवस्यं सुत्तं -- ( जैनागम ) - प्रकाशक - जैन श्वेताम्बर जैन शास्त्रोद्धार समिति राजकोट कष्पसुत्तं - प्रकाशक - साराभाई मणिलाल नवाब - अहमदाबाद १९४१ आचारांग चूर्णी - रचयिता - जिनदास गणि, प्रकाशक - ऋषभदेव केशरीलाल संस्था, रतलाम -१६४१ आवश्यक चूर्णी ( भाग २ ) - रचयिता -- जिनदास गणि, प्रकाशक - ऋषभदेव केशरीलाल संस्था रतलाम- १६२८ आवश्यक निर्यक्ति - आचार्य भद्रबाहु - मलयगिरि वृत्ति सहित प्रकाशक आर मोदय समिति, बम्बई १९२८ आवश्यक नियुक्ति - आचार्य भद्रबाहु -हारिभद्रीय वृत्ति सहित, आगमोदय समिति, बम्बई १९१६ आचारांग टीका - टीका - शिलांगाचार्यवृत, तदुपरि श्री जिनहंस सूरिकृत दीपिका, तदुपरि पार्श्वचन्द्र सूरिकृ बालावबोध - प्रकाशक - श्रीयुक्त धनपतसिंह बहादुरसिंह अजीमगंज संवत् १९३६ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन - कोश ३३३ ठाणं टीका - अभयदेव सूरि टीका - प्रकाशक सेठ माणेकचन्द चुनीलाल- सेठ कांतिलाल चुनीलाल, अहमदाबाद सन् १९३७ समवाओ टीका - अभयदेव सूरि टीका प्रकाशक - सेठ माणेकचन्द चुनीलाल, अहमदाबाद सन् १९३८ सूत्रकृतांग चूर्णी - रचयिता - जिनदास गणि, प्रकाशक ऋषभदेव केशरीमल जैन श्वेताम्बर संस्था सन् १९४७ व्याख्या प्रज्ञप्ति - ( भगवती सूत्र ) टीका - अभयदेव सूरि प्रकाशक - ऋषभदेव केशरीमल जैन श्वेताम्बर संस्था सन् १९४७ सूत्रकृतांग टीका - शीलांगाचार्य टीका - प्रकाशक सेठ छगनमलजी साहेव मुन्था, बेंगलोर सन् १९६५ वल्लभकृत टीका, अनुवादक - पं० हीरालाल हंसराज, उत्तरज्झयणाई टीका - ( ४ भाग ) - लक्ष्मी प्रकाशक - मणिबाई राजकरण-अहमदाबाद- सन् १९३५ कल्पसूत्र - कल्पलता व्याख्या - प्रकाशक- वेलजी शिवजी कम्पनी, दाणानगर बम्बई - सन् १९१८ चप्पन महापुरिसचरियं - शीलांगाचार्य, ( वि० सं० २५ ) प्रकाशक - प्राकृत ग्रन्थ परिषद - वाराणसी ५- सन् १९६१ तिलोय पण्णत्ती - रचयिता - आचार्य यति वृषभ, प्रकाशक - जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर - १६५१ उत्तर पुराण - आचार्य गुणभद्र, (१० वीं शदी ) प्रकाशक- भारतीय ज्ञान पीठ वाराणसी सन् १९६८ आगम और त्रिपिटक - प्रकाशक -- जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा कलकत्ता-सन् १९६६ यजुर्वेद - वैदिक यन्त्रालय - अजमेर युक्त्यनुशासनम्- अभिधान चिंतामणि कोष – आचार्य हेमचन्द्र चतुर्विंशतिस्तवन - श्री मज्जया चार्य, प्रकाशक - ओसवाल प्रेस, कलकत्ता धर्मोपदेशमाला - प्रकाशक - सिंधी जैन शास्त्र शिक्षा पीठ, भारतीय विद्या भवन बम्बई, १६४६ ग्नकरण्ड श्रावकाचार - प्रकाशक- माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला समिति बम्बई तित्थोगालीपइनय - ( जैन ग्रन्थ ) - अप्रकाशिल त्रिपष्टिश्लाकापुरुष चरित्र - श्रीमती गंगाबाई जैन चेरिटेबल ट्रस्ट बम्बई दर्शनसार देवसेनाचार्य - सं० पं० नाथूराम प्रेमी, प्रकाशक - जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई - १९२० पंचवस्तुक ग्रन्थ - आचार्य हरिभद्र सूरि, प्रकाशक - देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फंड सूरत - १९२७ परिशिष्ट पर्व - आचार्य हेमचन्द्र, सं० - सेठ हरगोविन्ददास, प्रकाशक - जैन धर्म प्रचारक समा, भावनगर १६५७ भरतेश्वर बाहुबलि वृत्ति - शुभशील गणि, प्रकाशक - देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्लकोद्धार फंड सूरत १६३२ अभिधान राजेन्द्र कोष ( भाग ७ ) - आचार्य विजय राजेन्द्र सूरि, रतलाम- १६१३-१४ पाइअसद्द मण्णवो - कर्त्ता - पं. हरगोविन्द दास त्रिकमचन्द सेठ, सं० डा० वासुदेव अग्रवाल, पं० दलसुखभाई मालवणिया, प्रकाशक - प्राकृत ग्रन्थ परिषद - वाराणसी ५ ( द्वितीय संस्करण - १९६३ ) Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ वर्धमान जीवन-कोश मत्स्स्य पुराण-प्रकाशक नन्दलाल मोर, ५ क्लाईव रो कलकत्ता-१९५८ वायु पुराण प्रकाशक धनसुख राय मोर, ५ काइव रो कलकत्ता-१९५६ महावीरचरियं--श्री गुणचन्द्रगणि, (वि०सं०११३६) प्रकाशक-श्री जीवनचन्द रखबचन्द जवेरी, बम्बई-१९२६ अगवेद मण्डल-प्रकाशक-वैदिक यन्त्रालय अजमेर सिद्धहेमशब्दानुशासनम्-हेम चन्द्राचार्य प्रकाशक - सिद्धचक्र साहित्य प्रचारक समिति, बम्बई विशेषावश्यक भाष्य - दिव्य दर्शन कार्यालय, अहमदाबाद प्रवचनसारोद्धार-प्रकाशक-देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार संस्था, बम्बई १९७८ आप्ते संस्कृत अंग्रेजी छात्र कोष-वमन शिवदास आप्ते विचार श्रेणी-आचार्य मेरुतुंग-प्रकाशक जैन साहित्य संशोधक ( पत्रिका ) पूना १९२५ सिरिदुसमाकाल समण संघथयं-अवचूरि हरिवंश पुराण -जिन सेन सूरि, (७८३ ई.)सं० पं. पन्नालाल जैन, प्रकाशक -भारतीय ज्ञानपीठ-काशी १९६३ न्यायबिन्दु-आचार्य धर्मकृति ऋगवेद मंडल प्रकाशक-वैदिक यन्त्रालय, अजमेर महापुराण-प्रकाशक-माणिकचन्द्र जैन, ग्रन्थमाला बम्बई अष्टप्राभृत-रचयिता- कुंदकुदाचार्य प्रकाशक-परमश्रुत प्रभावक मण्डल, आगास सप्ततिशत द्वार - प्रकाशक-जैन आत्मान्द सभा, भावनगर वीरवर्धमान चरित्रम्-प्रकाशक-भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी १६७४, कर्ता-भट्टारक सकल कीति (१४७१-८०) वीरजिणिंदचरिउ-प्रकाशक-भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसो १६७४, महाकवि पुष्पदन्त विरचित ( शक सं० ८८७ ) संपादक-डा० आ० ने० उपाध्याय, एम० ए०, डि० लिट वडढमाणचरिउ-प्रकाशक-भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी १६७५, कर्ता-विबुध श्रीधर (वि० सं० ११९०) ज्येष्ठ शुक्ला १५ स्कन्ध महा पुराण-नटवर चक्रवर्ती, बंगवासी प्रेस, कलकत्ता अंगुत्तर निकाय-(त्रिपिटक )-हिन्दी अनुवाद, भाग १-२) अनुवादक-महंत आनन्द कौशल्यायन, प्रकाशक - महाबोधि सभा, कलकत्ता-१९५७-६३ दीर्घनिकाय-(त्रिपिटक )-सं० भिक्षुजगदीश काश्यप, प्रकाशन मण्ड - नव नालन्दा, महाविहार, नालन्दा, बिहार राज्य-१९५८ - मज्झिमनिकाय-(त्रिपिटक )-सं० भिक्षु जगदीश काश्यप, प्रकाशन मण्ड- नव नालन्दामहाबिहार नालन्दा बिहार राज्य-१९५८ .. विनय पिटक-(त्रिपिटक)-सं.-भिक्षु जगदीश काश्यप, प्रकाशन मण्ड-नव नालन्दा महाबिहार; नालन्दा बिहार राज्य-१९५६ | Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश संयुक्त निकाय-सं0-भिक्षु जगदीश काश्यप, प्रकाशन मण्ड-नव नालन्दा महाबिहार, नालन्दा, बिहार राज्य-१९५६ सुत्तनिपात्तपालि-संपादक - भिक्षु जगदीश काश्यप, प्रकाशन मण्ड-नव नालन्दा, महाबिहार नालन्दा बिहार राज्य-१९५६ उपदेशमाला सटीक-रचयिता-धर्मदास गणि, टीकाकार-रामविजय गणि, प्रकाशक-हीरालाल हंसराज जामनगर, १९३४ कषायपाहुडं -रचयिता-वीरसेनाचार्य-प्रकाशक-भारतीय दिगम्बर जैन संघ, मथुरा लेश्या कोश-सम्पादक-मोहनलाल बांठिया, श्रीचन्द चोरडिया, प्रकाशक-मोहनलाल बांठिया, कलकत्ता-१९६६ क्रियाकोश-सम्पादक-मोहनलाल बांठिया, श्रीचन्द चोरडिया, वाचना प्रमुख आचार्य तुलसी, प्रकाशकजैन दर्शन समिति कलकत्ता तुलसीप्रज्ञा–प्रकाशन-सन् १९६६ जैन विश्व भारती, लाडनूं (राजस्थान) पत्रिका--अक्टूबर-दिसम्बर १६७५ पउमचरियं-प्रकाशक प्राकृत ग्रन्थ परिषद, वाराणसी अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका-रचयिता-हेमचन्द्राचार्य ( बारहवीं शदी ) टीकाकार-आचार्य मल्लिषेण ( ई० सं० १२६३ ) प्रकाशक-परमश्रुत प्रभावक मण्डल, मागास ( गुजरात, वि० सं० २०२६) धर्मसंग्रह सटीक-शान्ति विजयगणि, प्रकाशक-वसंती त्रिकमजी-पालीताना, सन् १९०५...... पंचाशकटीका- रचयिता- हरिभद्र सूरि/टीकाकार-अभयदेव सूरि । प्रकाशक-जैन धर्म प्रसारक संघ, भावनगर, ई० सन् १९१२ अयोगव्यवच्छेदिका-रचयिता-हेमचन्द्राचार्य ( बारहवीं शदी )-प्रकाशक- परमश्रुत प्रभावक मण्डल, आगास ( गुजरात ) वि० सं० २०२६ पंचसंग्रह-टीकाकार-मलयगिरि प्रकाशक-जेन आत्मानन्द सभा, भावनगर १९१९ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेश्या-कोश पर विद्वानों की सम्मति प्रज्ञाचक्ष पं० सुखलालजी संघवी, अहमदाबाद लेश्या कोश के प्रारम्भिक ३४ पृष्ठों को पूरा सुन गया हूँ। अगला भाग अपेक्षा के अनुसार ही देखा है। पर उसका पूरा ख्याल आ गया है। प्रथम तो यह बात है कि एक व्यापारी फिर भी अस्वस्थ तबीयतवाला इतना गहरा श्रम करे और शास्त्रीय विषयों में पूरी समझ के साथ प्रवेश करे यह जैन समाज के लिए आश्चर्य के साथ खुशी का विषय है। आपने कोशों की कल्पना को मूत बनाने का जो संकल्प किया है वह और मो आश्चर्य तथा आनन्द का विषय है। इतना बड़ा भारी जवाबदेही का काम निर्विघ्न पूरा हो-यही कामना है । Dr. A. N Upadhya, M A. D. Litt.. Shivaji University, Kolhapur, "I have read the major portion of this KOSA You are to be congratulated on having brought out a valuable source book on the Lesya Doctrine. I appreciate your methodology and have all praise for the pains you have taken in collecting and systematically presenting the material. Sush works really advance the cause of Jainological studies. Please accept my greetings on this useful work and convey the same to your colleagues who have collaborated with you in this project. Such Kosas for "PUDGAL' etc. would be welcome in the interest of the progress of Jainological studies." Dr. P. L. Vaidya, M. A D Litt. Bhandarkar Oriental Research Institute, Poona. "I am very grateful to you for your sending me a copy of your book Lesya-Kosa.' I have read a goodly portion of it and am deeply impressed by your methodical work on an important topic of Lesya in Jain Philosophy. All students of Jian Literature and Philosophy would surely be grateful to you for your having placed in their hand a work of tremendous utility." Dr. Suniti Kumar Chatterjee, National Professor of India, Calcutta "I am not a student of Philosophy, much less of Jain Philosophy. But I have learnt a lot from your work, which is very thorough study, with a wealth of quotations from both Prakrita and Sanskrita, on the concept of Lesya. This, as it would appear, is not known in Brahmanical and Buddhistic philosophy. I did not know anything about it before I got your book. This, as it would appear from your study, is a vary important concept in Jain Philosophy with regard to the nature of Soul, both in the static or contemplative and its dynamic or active aspect. I am sure specialists will give a welcome accord to your book." Wishing you all success in your noble work of interpreting one of the most important aspects of our Indian civilisation and thought namely, the Jaina." Dr. Prof L. Alsdorf, Seminar fur Kultur und Geschichte Indiens, Universitat Hamburg. I acknowledge receipt of your Lesya-Kosa and acceptmy verysincere thanks for this most valuable and welcome gift The theory of Karman of which Lesya Doctrine is an Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन - कोश ३३७ integral part is the very centre and heart of Jainism; at the same time it is a most intricate and complex subject the study of which presents a great many difficulties and problems, not allof which have been solved so far. With erudition and acumen, you have furnished a most useful contribution and successfully advanced our knowledge" Prof. Dr K. L. Janert, Director, Institut fur Indologie Der Universitat Zu Koln "I have received your book Lesya Kosa, I also owe you a valuable addition to my Library. It is always a matter of great satisfaction to me to see a scholar not recoil from the arduous task of compiling dictionaries, indexes etc.- even that great English Critic and Lexicographer, Dr. Samuel Johnson, called it drudgery some two hundred years ago. And it is of course only diligent collection and comparison of all relevent material that genuine advance in knowledge is based on So we shall have to thank you for having made work. easier for those who come after you. Prof. Padamanath S. Jain, Dept. of Linguistics, The University of Michigan, US A. "Please forgive me for the delay in acknowledging the receipt of your excellent gift of the Lesya-Kosa. This is an extraordinary work and you deserve our gretitude for publishing it. You have opened a new field of research and have established a new model for all future Jain studies The subject is fascinating not only for its antiquity but also for its value in the study of Indian Psychology." क्रिया - कोश पर प्राप्त समीक्षा Prajnachakshu Pandit Sukhlal D. Litt., Ahmedabad, After Kesya-Kosa I have received your Kriya-Kosa, thanks I have heard the Editorial, Forward, Preface in full and certain portions thereafter. I am surprised to find such dilligence such concentration and such devotion to learning. Particularly so because such person is rarely found in business community who dedicates himself to learning like a BRAHMIN. Dr. Adinath Neminath Upadhya D. Litt. Shivaji University, Kolhapur. I am in receipt of the copy of the 'Kriya-Kosa' so kindly sent by you. It is a remarkable source book which brings in one place so systematically, the references and extracts which shed abundant light on the usage of the term Kriya in Jainism. The Kosas that are being brought out by you will prove of substantial help to the future compliation of an encyclopaedia on Jainism I shall eagerly look forth to the publication of your DHYAN KOSA. With felicitations on your scholarly achievements Dr. P. L. Vaidya, D. Litt Bhandarkar Oriental Research Institute, Poona-4. I am very grateful to you for your sending me a copy of your Cyclopaedia of Kriya. I have read a few pages already and find it as useful as your Lesya Kosa. Please do bring out similar volumes on different topics of Jain Philosophy, of course, this may not bring you any material wealth, but I am sure students of Jain Literature will surely bless you for having offered them a real help in their study Prof. Hiralal Rasikdas Kapadiya, Surat Bombay. This wok (Krlya Kosa) will be very useful to scholars interested in Jainology The learned editors deserve hearty congratulations for having undertaken such a laborious and tedious task. Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिध्यात्वीका आध्यात्मिक विकास पर अभिमत भँवरलाल जैन न्यायतीर्थ, जयपुर पुस्तक में नौ अध्याय है-विभिन्न दृष्टिकोणों से मिथ्यात्वी अपना आत्म विकास किम रूप में किस प्रकार कर सकता है-यह दर्शाया है । जैन सिद्धान्त के प्रमाणों के आधार पर इस विषय को स्पष्टतया पाठकों के समक्ष लेखक ने सरल सुबोध भाषा में रखा है। जिसके लिए वे बधाई के पात्र हैं । शास्त्रीय चर्चा को अभिनव रूप में प्रस्तुत करने में लेखक सफल हुए हैं। (वीर वाणी) राम सुरी ( डेलावाला ), कलकत्ता 'मिथ्यात्वी का आध्यात्मिक विकास' पुस्तक में आलेखित पदार्थो के दर्शन से जैन दर्शन व जैनागमों की अजैनों की तरफ उदात्त भावना और आदरशीलता प्रकट होती है। एवं जैन धर्म को अप्राप्त आत्माओं में कितने प्रमाण में आध्यात्मिक विकास हो सकता है-इत्यादिक विषयों का आलेखन बहुत सुन्दरता से जैनागमों के सूत्रपाठों से दिखाया गया है। इसलिए विद्वान् श्रीचन्द चोरड़िया का प्रयास बहुत प्रशंसनीय है और यह ग्रन्थ दर्शनीय है। डा० नरेन्द्र मणावत, जयपुर लेखक की यह कृति पाठकों का ध्यान एक नई दिशा की ओर खींचती है। शास्त्र मर्मज्ञ विद्वानों को विविध विषयों पर गहराई से चिन्तन करने की ओर प्रवृत्ति करने में यह पुस्तक सहायक बनेगी। डा० ज्योति प्रसाद जैन, लखनऊ प्रायः यह समझा जाता है कि मिथ्यात्वी व्यक्ति धर्माचरण का अधिकारी नहीं है और उसका आध्यात्मिक विकास नहीं हो सकता। भान्ति का निरसन विद्वान् लेखक ने सरल-सुबोध किन्तु विवेचनात्मक शैली में और अनेक शास्त्रीय प्रमाणों को पुष्ठिपूर्वक किया है। जमनालाल जैन वाराणसी यह अपने विषय की अपूर्वकृति है। मनीषी लेखक ने लगभग दो सौ ग्रन्थों का गम्भीर परायण एवं आलोडन करके शास्त्रीय रूप में अपने विषय को प्रस्तुत किया है। परिभाषाओं और विशिष्ट शब्दों में आबद्ध तात्विक प्ररूपणाओं एवं परम्पराओं को उन्मुक्त भाव से समझने के लिए यह कृति अतीव मूल्यवान् है। (श्रमण पत्रिका) भंवरलाल नाहटा, कलकत्ता शास्त्र प्रमाणों से परिपूर्ण इस ग्रन्थ में विद्वान् लेखक ने नौ अध्यायों में प्रस्तुत विषय पर अच्छा प्रकाश डाला है। पं० चन्द्रभूषणमणि त्रिपाठी, गजगृह लेखक ने काफी विस्तार के साथ उक्त चर्चा को पुनः चिन्तन का आयाम दिया है। पुस्तक एक अच्छी चिन्तन सामग्री उपस्थित करती है। Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश ३३६ दलसुख मालवणिया, अहमदाबाद श्री चोरड़ियाजी ने इस विषय में जो परिश्रम किया है वह धन्यवाद के पात्र हैं। यह ग्रंथ इतःपूर्व प्रकाशित लेश्या-कोश, किया-कोश की कोटिका ही है। इन ग्रन्थों में श्री चोरडियाजी का सहकार था। हमें आशा है कि वे आगे भी इस कोटि के ग्रन्थ देते रहेंगे। विशेषता यह है कि आगमों में जितने भो अवतरण इस विषय में उपलब्ध थेउनका संग्रह किया है। इतना ही नहीं आधुनिक काल के ग्रन्थों के भो अवतरण देकर ग्रन्थ को संशोधकों के लिए अत्यन्त उपादेय बनाया है-इसमें सन्देह नहीं है। Glory of India, freat "मिथ्यात्वी का आध्यात्मिक विकास' यह पुस्तक अनेक विशिष्टताओं से युक्त हैं। एक मिथ्यात्वी भी सद्अनुष्ठानिक क्रिया से अपना आध्यात्मिक विकास कर सकता है। साम्प्रदायिक मतभेदों की बातें या तो आई ही नहीं है अथवा भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों का समभाव से उल्लेख कर दिया गया है। श्री चोरड़ियाजी ने विषय का प्रतिपादन बहुत ही सुन्दर और तलस्पर्शी ढंग से किया है। विद्वज्जन इसका मूल्यांकन करें । निःसन्देह दारानिक जगत के लिए चोरडियाजी की यह एक अप्रतिम देन है। मुनिश्री जशकरण, सुजानगढ़ अनुमानत: लेखक ने इस ग्रंथ को लिखने के लिए अनेकानेक ग्रंथों का अवलोकन किया है। टीका भाष्यों के सुन्दर संदर्भो से पुस्तक अतीव आकर्षक बनी है । डा० भागचन्द्र जैन, नागपुर विद्वान् लेखक ने यह स्पष्ट करने का साधार प्रयत्न किया है कि मिथ्यात्वी का कब और किस प्रकार विकास हो सकता है । लेखक और प्रकाशक इतने सुन्दर ग्रंथ के प्रकाशन के लिए बधाई के पात्र हैं। डा० दामोदर शास्त्री, दिल्ली लेखक ने अपने इस प्रथ में शोधसार समाविष्ट कर शोधार्थी विद्वज्जनों के लिए मार्ग प्रशस्त किया है। यत्र-तत्र पेचीदे प्रश्नों को उठाकर उसका सोदाहरण व शास्त्र सम्मत समाधान भी किया गया है। मुनिश्री राकेशकुमार, कलकत्ता ___श्रीचन्द चोरड़िया के विशिष्ठ ग्रन्थ 'मिथ्यात्वी का आध्यात्मिक विकास' में शास्त्रीय दार्शनिक दोनों दृष्टियों से महत्वपूर्ण प्रतिपादन हुआ है। जैन धर्म के तात्विक चिन्तन में रूचि रखनेवालों के लिए तो यह पुस्तक ज्ञानवर्द्धक और रसप्रद है ही, किन्तु साम्प्रदायिक अनाग्रह और वैचारिक उदारता के इस युग में हर बौद्धिक और चिन्तनशील व्यक्ति के लिए इसका स्वाध्याय उपयोगी भी है। Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन कोश- प्रथम खण्ड पर प्राप्त समीक्षा डा० ज्योतिप्रसाद जैन, लखनऊ यह ग्रन्थ भगवान् महावीर के जीवन सम्बन्धी संदर्भों का विस्तृत विश्वकोश है। लेश्या कोश क्रिया कोश की भांति इसका निर्माण भी अन्तरराष्ट्रीय दशमलव वर्गीकरण पद्धति से किया गया है। इसमें सन्देह नहीं है कि शोधार्थियों के लिए यह ग्रंथ अतीव उपयोगी सिद्ध होगा। डा० नेमीचन्द जैन, इन्दौर 'वर्धमान जीवन कोश' जैन विद्या के क्षेत्र का एक अपरिहार्य, अपूर्व लेश्या कोश किया कोशों का जो स्वागत देश-विदेश हुआ है वह उजागर है। भी है। अस्तु को उपयोगी है और भगवान् महावीर के जीवन के सम्बन्ध में मुनिश्री लालचन्द ( श्रमण संघीय), कलकत्ता 'श्री वर्धमान जीवन कोश' प्रथम खण्ड देखने को मिला। यह पुस्तक सर्वप्रथम पुस्तक है जिसमें भगवान् महावीर की जीवनी यथार्थ रूप से लिखने में आई है । श्री कन्हैयालाल सेठिया, कलकत्ता सम्पादक द्वय का गहन अध्ययन और अथक श्रम इस ग्रन्थ में प्रतिम्बित हुआ है। शं धार्थियों के लिए यह ग्रंथ अत्यन्त उपयोगी है। । बहुमूल्य संदर्भ ग्रंथ है। पूर्व प्रकाशित इसी तरह का मूल्यवान् संदर्भ ग्रंथ यह बहुविध जानकारी दे रहा है। अखिल भारतीय प्राच्यविद्या सम्मेलन, ३१वां अधिवेशन में , जैन दर्शन समिति ( १६ सी डोवर लेन, कलकत्ता- २६) द्वारा श्री श्रीचन्द चोरड़िया के सम्पादन में 'वर्धमान जीवन कोश' कृति का प्रकाशन हुआ है 1 प्रारम्भ में स्वनामधन्य आदरणीय जैनरत्न श्री मोहनलालजी बा योजना के प्रवर्तक थे। श्री चोरड़ियाजी के सहयोग से यह ग्रन्थ तैयार हुआ था भगवान् महावीर की जीवनी से सम्बन्धित सामग्री को प्रस्तुत करने वाला यह पंचरत्र अत्यन्त उपयोगी एवं संग्रहणीय है। प्राकृत एवं जैन विद्या विभाग अध्यक्षीय भाषण ६ से ३१-१०-८२ डा० भागचन्द्र जैन, नागपुर प्रस्तुत समीक्ष्य ग्रन्थ 'वर्धमान जीवन कोश' का प्रकाशन जैन विषय कोश योजना के अन्तर्गत हुआ | सम्पादक इप ने इस ग्रंथ को सामग्री साम्प्रदायिकता के दायरे से हठकर उपलब्ध समस्त वाङ्मय से एकत्रित की है। प्रस्तुत प्रकाशित प्रथम खण्ड में तीर्थंकर महावीर के जीवन विषयक पवन से परिनिर्वाण तक का विषय संयोजित हुआ है। सामग्री की प्रस्तुति में सम्पादन कला का निर्दोष उपयोग हुआ है। - Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जीवन-कोश ३४१ पाल जैन, दिल्ली । भगवान् महावीर के जीवन से सम्बन्धित यह 'विश्व कोश' है। भगवान महावीर के जीवन और सिद्धांतों के ध्य में विपुल साहित्य की रचना हुई है, किन्तु वह इतना फैला हुआ है कि शोधकर्ताओं को इसकी पूरी जानकारी करने में बड़ी कठिनाई होती है। आलोच्य कोश ने उस कठिनाई को बहुत कुछ अंशों में दूर कर दिया । बरलाल नाहटा, कलकत्ता . भगवान महावीर की जीवनी सम्बन्धी समस्त पहलुओं के अवतरणों का संग्रह करने में विद्वान सम्पादकों ने बड़े धैर्यपूर्वक श्रुतसमुद्र का अवगाहन कर बहुत ही महत्वपूर्ण भागीरथ प्रयत्न किया है। गलप्रकाश मेहता, वाराणसी यह ग्रन्थ जैन आगम और आगमेतर साहित्य पर शोध कर रहे छात्रों के लिए विशेष उपयोगी सिद्ध होगा। डा० नरेन्द्र भाणावत, जयपुर वर्धमान महावीर के जीवन की आधारभूत सामग्री का यह प्रामाणिक संदर्भ ग्रंथ शोधाथियों के लिए अत्यन्त ही उपयोगी और पथ प्रदर्शक है। श्री रतनलाल डोशी, सैलाना यह ग्रंथ अपने आप में अद्वितीय अनूठा और विद्वानों के लिए बहुमूल्य निधि है। इसके पीछे सूझ-बूझ के साथ काट सा पुरुषार्थ हुआ है। भगवान् के जीवन सम्बन्धी जो और जितनी सामग्री इसमें संकलित हुई है, पहले किसी ग्रंथ में नहीं हुई : जिस निष्ठा, अनुभव और धैर्य से यह कोश सम्पन्न हुआ है, वह अभिवन्दनीय है । 'मंगलदेव शास्त्री, गजगृह महाश्रमण भगवान् महावीर पर अब तक अनेक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है, पर प्रस्तुत ग्रंथ का अपना विशेष महत्व है ! यह सम्पादक द्वय की उदार एवं समन्वयवादी दृष्टि को उजाकर करता है। प्रस्तुत ग्रंथ विद्वानों के लिए, विशेष रूप से शोध छात्रों के लिए विशेष उपयोगी है। श्री भंवरलाल जैन न्यायतीर्थ, जयपुर भगवान् महावीर के च्यवन से परिनिर्वाण तक का विस्तारपूर्वक विवेचन इस कोष में किया गया है। दिगम्बरश्वेताम्बर एवं जनेतर सामग्री का यथास्थान संकलन कर इतिहास प्रेमियों एवं शोध छात्रों के लिए इसे एक संदर्भ ग्रंथ बना दिया है। कंवर साहब मानसिंहजी, लावा सरदारगढ़ भगवान महावीर के जीवन की अपूर्व व विशद मामग्री है। इस कार्य को पूरा कर दिखाने में यह आपके परिश्रम व तप का ही फल है: युगप्रधान आचाय श्री तुलसी इसमें भगवान महावीर के जीवन से सम्बन्धित काफी सामग्री एकत्रित है। इस विषय में शोध करने वालों के लिए यह ग्र-थ बहत ही उपयोगी बन सकेगा--ऐसा विश्वास है। Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vardhamana-Jivana-Kosha compiled and edited by Mohan Banthia and Srichand Choraria, Jain Darsan Samiti, 16C, Dover Lane, Calcutta 700 02 1980 p.p. 51 +584. The publication of Vardhamana-Jivana-Kosha (Cyclopaedia of the life of Vardham compiled and edited by Mohanlal Banthia and Srichand Choraria, is a unique contribute to the scholarly world of Jainistic studies. The conception of compiling a dictionary the life and teaching of Lord Mahavira is itself a new one, and the compilers must thanked for such a venture This type of cyclopaedia has been a dessideratum for a long time. The book divided into several sections as far as 99 and sub-divided into several other decimal poh for the easy reference. The system followed in this classification is the international decir system. Each decimal point is arranged in accordance with the topic connected with life and history of Vardhamana Mahavira. In each section and under each topic the origin quotations from nearly 100 books followed by Hindi translation are given. These quotatic are not only valuable, but they represent the authenticity of the incidents of the life Mahavira. To compile such quotations in one place is a monumental one and tiemendou labour is involved therein. This Jain Darsana samiti has published two other Kosas Les'ya Kos'a (1966) an Kriya Kos'a (1969) The Pudgala Kos'a and the Dhyana-Kosa seen to have been compile and awaiting publications for a decade now. The Vardhamana Jivana-Kosa is not only unique but also very useful for the hang reference, to the source material on Mahavira's life story. The author has ransacked ba the Svetambara and Digambara materials. This is an exceptionally good book and must used by all scholars who want to work on Jainism, particularly on Mahavira's iife The book is well-printed and carefully executed The printing mistakes are exca tionally few. The book is well bound as well. I hope this book will receive good demag from the libraries of the world. University of Calcutta, 20th Sept 1984 -SATYA RANJAN BANERJE Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Mithyatvi Ka Adhyatmika Vikasa written by Sri Srichand Choraria, Jain Darsana Samiti 16C, Dover Lane, Calcutta 29 p.p. 24 and 360. This is a philosophical treatise. It describes carefully the manifestation of the soul according to Jain tradition. It deals with the problem whether the mithyatva can have a manifestation and the author has proved that in a possible way. The book is divided into nine chapters including conclusion. chapter has several sub sections, or rather points on which the author has discussed a lot, each section of each chapter is replete with ample quotations proving the conclusion of the author. This book shows the masterly scholarship of Sri Srichand Choraria over the subject. The language of the author is simple, but forceful and the analysis is praise-worthy. The author has consulted quite a number of books and has given a substained effort for the better production of the thesis. The work is more than a D. Lit. The printing of the book is good and the binding as well. The book must be in the shelf of the library of every learned scholar. University of Calcutta 20 Sept. 1984 -SATYA RANJAN BANERJEE Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________