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वर्धमान जीवन-कोष (ग) यावज्जीवं प्रपाल्योच्चैरित्थं व्रतकदम्बकम् । संन्याससहितं प्रान्ते त्यक्त्वा प्राणान् समाधिना। व्रतादिजफलेनाभूत्कल्पे सौधर्मनामनि । सिंहोमहद्धिकः सिंहकेतुनामामरो महान् ।। ५६ ॥
-वीरच० अधि ४ (घ) भो गय - भय तुहुं एयहो भवहो हो होसि भरहे पाउन्भवहो।
दहमइ भरि जिणेवरु सुरमहिउ। कमलायरेण मुणिणा कहिउ ।।
तुह वोहणस्थु तहो वयणु सुणि अम्हेत्थ समागय एउ मुणि। मुणिवर मणु णिप्पड हुइ जइवि। भव्वत्थे होइ सप्पिहु तइवि । वयविरु अणुसासेवि तच्च पहु । हरि-तणु फसेवि स-यरेण लहु ।
घत्ता-समणिच्छिय वाणि गण - मुणिवर गयणेण अवलोविजंत हरिणा थिर • गयणेण ।
-वड्माणच. संधि ६/कड १७ सुह-धम्म-फलेण मइंदु गउ सोहम्मसग्गे करिपाव खउ । अमरहरे मणोरमे देउ हुउ णामेण हरिद्धउ पबल - भुउ ।
घत्ता-सत्त - रयणि - देहु णिरुवम - रुव - णिवासु । सम्मत्त हो सुद्धि पयणई सोखु न कासु
- वड्डमाणच० संधि ६/कड १८ किसी समय भव्यों के हित में तत्पर, अनेक गुणों के सागर, चारण ऋद्धि के धारक अमितगुण नामक आकाशगामी मुनि के साथ आकाश में जाते हुए अजितंजय नाम के मुनिराज ने उसे एक मृग को लाते हुए देखा। तीर्थङ्करा देवभाषित वचन का स्मरण कर वे चारणऋद्धि धारियों में अग्रणी मुनिराज दया से प्रेरित होकर पृथ्वी पर उसके हिताथं इस प्रकार बोले-भो भो ! भव्य मुनिराज, मेरे हितकारी पचन सुन । xxx।
अत: तू शीघ्र ही दुर्गति के नाश के लिए क्रूरता को छोड़कर व्रतपूर्वक पुण्य के सागरस्वरू। अनशन को ग्रहण कर।
अब इससे आगे दसवें भव में तुम इस भारतवर्ष में जगत का हित करने वाले अंतिम तीर्थकर नियम से होओगे।
जम्बूद्वीपस्थ पूर्व विदेह नामक क्षेत्र में (कमलाकर मुनि) श्रीधर नामक तो कर समवसरण में विराजमान है। उनसे किसी ने पूछा-हे भगवन् । इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में जो अंतिम तीथ कर होगा-वह आज कहाँ पर है। इस प्रकार के प्रश्न करने पर जिनेन्द्र देव ने अपने गणों के प्रति तुम्हारी यह त्रिकाल विषयक कथा कही।
जिनेन्द्र देव के श्री मुख से सुनकर मैंने तेरे हित के लिए भूत और भावी सर्व दिव्य कथानक तुझे कहा है।
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