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वर्धमान जीवन-कोश .५ गणधर सुधर्मा का श्रुत(क) दीक्षा के पूर्व का श्रुत
सव्वे माहणा जच्चा, सव्वे अज्झावया विऊ ।। सव्वे दुवालसंगिआ, सव्वे चउदसपुग्विणो ।।
-आव० निगा ६५५ विदन्तीति विदो -विद्वांसः चतुर्दशविद्यास्थानपारगमनान । तानिचतुर्दश विद्यास्थानान्यमुनि अंगानि वेदाश्चत्वारो, मीमांसा न्यामाविस्तरः। धर्मशास्त्रं पुराणंच विद्या ह्य ताश्चतुर्दश। तत्रांगानि तद्यथा शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्त छन्दो ज्योतिषं चेति, एष गृहस्थागम उक्तः ।
विद्ववंश परम्परा में उत्पन्न होने के नाते आर्य सुधर्मा ने ऋक , यजुष , साम और अथर्व-इन चारों बेदों, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद तथा ज्योतिष-इन छहों वेदांगों, मीमांसा, न्याय धर्मशास्त्र तथा पुराण आदि सब मिलकर इन चवदह विद्याओं का सम्यक्तया अध्ययन किया। उनके पूर्ण अधिकारी विद्वान् बने । (ख) द्वादशांगी से पूर्व पूर्वो की रचना और सुधर्मगणधर---
धम्मोवाओ पवयणमहवा पुव्वाई देसयातस्स । सव्वजिणाण गणहग चोहसपुवी उ ते तस्म ।। सामाइयाइया वा वयजीवनिकायभावणा पढमं । एसो धम्मोवादो जिणेहिं सव्वेहिं उवइट्रो।।
-आव० निगा २६२-६३ किसी का अभिमत है कि द्वादशांगी की रचना के पूर्व गणधरों द्वारा अहंभाषित तीन-मातृका पदों के आधार पर चतुर्दश शास्त्र रचे गये जिसमें समग्र श्रुत की अवतरणा की गई है। इसी आधार से सुधर्म गणधर ने पूर्वो की रचना द्वादशांगो के पूर्व की। द्वादशांगी के पूर्व—पहले यह रचना की गई-अतः ये चतुर्दश शास्त्र चतुर्दश पूर्वो के नाम से विख्यात हुए। . संहनन व संस्थानमासं पाओवगया सव्वेऽविय सव्वलद्धिसंपन्ना। वज्जरिसहसंघयणा समचउरंसा य संठाणे ॥
आव० निगा ६५६ आर्य सुधर्मा सभी लब्धियों से युक्त थे। उनका दैहिक गठन वज्र-ऋषभ-नाराच संहनन तथा समचतुरस्र संस्थानमय था ।
निर्वाण से पूर्व आर्य सुधर्मा एक मास तक पादोपगमन आमरण अनशन में रहे।
नोट--पाद का अर्थ वृक्ष का जमीन में गड़ा हुआ जड़ का भाग है। उसकी तरह जिम ( गृहोत-अनशन ) व्यक्ति की
अप्रकंप स्थिति होती है, उसे पादोपगत कहा जाता है। आमरण अनशन प्राप्त-साधक ---जिम में पादप वृक्ष की तरह परिस्पन्दन-कंपन आदि से सर्वथा रहित हो जाता है, उसे पादोपगमन अनशन कहा जाता है।
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