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वर्धमान जोवन-कोश से निकलने का सही पथ दिखाने से सम्यक्त्व को प्राप्त कर उसके प्रभाव से आयष क्षय होने पर सौधर्म स्वर्ग रूप में उत्पन्न हुआ । वहाँ एक पल्योपम की आयु थी। . (ग) हुउ जीव दयावरु सवरू णिक्खरू लग्गउ जिणवर धम्मइ । . मुउ काले जंतं गिलिउ कयंत उप्पण्णउ सोहम्मइ ।।३।।
-वीरजि० संधि १/कड ३ बह निरक्षर शबर जोवदया में तत्पर हो गया और जिनधर्म में लग गया। काल व्यतीत होने पर वह यम द्वारा गला जाकर मरा और सौधर्म स्वर्ग में देव उत्पन्न हुआ। (घ आजन्मान्तं प्रपाल्योच्चैः सर्वं व्रतकदम्बकम् । अन्ते समाधिना मृत्वा व्रतजातशुभोदयात् ॥३७॥ सौधर्माख्ये महाकल्पेऽनेकशर्माकरेऽभवत् । मह द्विकोऽमरो भिल्ल एकसागरजीवितः ॥३८॥
-वीरच० अधि २ पुरुरवा भिल्ल ने अपने जोवन-पर्पन्त उप सब व्रत समुदाय को उत्तम प्रकार से पालन किया और अन्त में समाधि साथ मरण कर व्रत-पालन से उत्पन्न हुये पुण्योदय से अनेक सुखों के भण्डार ऐसे सौधर्म नामक महाकल्प में एक गरोपम की आयु का धारक महद्धिक देव उत्पन्न हुआ। (च) शिलासं पुटगर्भ स तंत्राप्य नवयौवनम् । मुहूर्तेन विलोक्याशु विमानादिश्रियं पराम् ॥३६॥
समस्तं प्राग्भवं ज्ञात्वा व्रतादिजनितं फलम् । तरक्षणाप्तावधिज्ञानाद्धर्मेधात्स्वमति दृढाम् ॥४०॥ ततश्चैत्यालयं गत्वा मुदा धर्मादिसिद्धये । चक्रेऽसौ परमां पूजां प्रतिमानां जिनेशिनाम् ॥४१।। सार्ध स्वपरिवारेण चाष्टभेदैमहार्चनैः। जलादिफलपयन्तीतनृत्यस्तवादिभिः ॥४२।। पुनः प्रपूज्य तीर्थेशमूर्तीश्चत्यद्रुमे स्थिताः । मेरुनन्दीश्वरादौ च गत्वारूढः स्ववाहनम् ।।४३॥ जिनेन्द्रकेवलज्ञानिगणेशादिमहात्मनाम्। महामहं विधायोच्चभक्त्या मूर्ना ननाम सः ॥४४॥ तेभ्यः श्रुत्वा द्विधा धर्म विश्वतत्त्वादिगर्भितम् । उपाय बहुधा पुण्यं सोऽगमत्स्वालयं ततः ।।४।। इत्यसौ विविधं पुण्यं कुर्वाणः शुभचेन्टया । क्रोडा कुर्वन् स्वदेवीभिः सौधमेरुवनादिषु ॥४६।।। शृण्वन् मणोहरं गीतं क्वचित्पश्यश्च नर्तनम् । शृङ्गारं रूपसौन्दर्य विलासं दिव्ययोषिताम् ।।४।। इत्यादिपरमान् भोगान् भुजाना प्राकशुभार्जितान् । सप्तहस्तस्ततनूत्सेधः सवधात्व तिगाङ्गभाक्॥४८॥ त्रिज्ञानाष्टद्धिभूषाढ्यो नेत्रस्पन्दादिदूरगः । दिव्यदेहधरतत्र तिष्ठेच्छाब्धिमध्यगः ॥४६।।
- वीरवधूच० अधि २॥ श्लो ४१ से ३६
उपपादशय्या के शिलासम्पुट गर्भ में अन्तमुहूतं के भोतर ही नवयौवन अवस्था को प्राप्त कर और तत्क्षण प्राप्त मे अवधि ज्ञान से पूर्वभव में कृत व्रतादिका फल जानकर और स्वर्ग-विमानादिको उ कृष्ट लक्ष्मी को देख कर उसने बम में अपनी मति को और भी दृढ़ किया। तदनन्तर धर्म आदि की सिद्धि के लिये हर्षित होकर उसने अपने परिवार के साथ च:यालय में जाकर जिनेन्द्र देवों प्रतिमाओं की जल को आदि लेकर फल-पर्यन्त भेदरूप उतम द्रव्यों से गोत, नृत्य, स्तवन आदि के साथ
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