________________
१४२
वधमान जोवन-कोश __वे चार गोपुर द्वारों से संयुक्त, तीन प्राकारों ( कोटों ) से वेष्टित, सुवर्णमयो सोलह सोढ़ियों से भूषित देदीप्यमान और मन को हरण करने वाली थी।
___ उन वेदियों के मध्य भाग में जिनेन्द्र देव को प्रतिमासहित, मणियों को कांति और पूजनसामग्री से युक्त चार ऊँचे पीठ ( सिंहासन ) शोभायमान थे।
तस्या मध्ये व्यधाद् रेदः पराध्यमणिभूषितम् । हैम सिंहासनं दिव्यं स्वप्रभाजितभास्करम् ॥ ११ ॥ विष्टरं तदलं चक्र कोट्या दित्याधिकप्रभः । भगवान् श्रीमहावीरस्त्रिजगद्भव्यवेष्टितः ॥ १८२ ।। अनंतमहिमारूढो विश्वाङ्ग युद्धरणक्षमः । चतुर्भिरङ्गलैः स्वेन महिम्नाऽस्पृष्टतत्तलः ॥ १८३ ।।
-वीरवर्धमानच० अधि १४/श्लो १८१ से १८३ उस गंधकुटी के मध्य में यक्षराज ने अनमोल उत्कृष्ट मणियों से भूषित, अपनी प्रभा से सूर्य को प्रभा को जोतने वाला, स्वर्णमयो दिव्य सिंहासन बनाया था।
___ उस सिंहासन को कोटिसूर्य की प्रभा से अधिक पभावाले और तीनलोक के भव्यजीवों से वेष्ठित श्री महावीर प्रभु अलंकृत कर रहे थे।
उस पर अनंत महिमाशालो, विश्व के सर्व प्राणियों के उद्धार करने में समर्थ और अपनो महिमा से सिंहासन के तलभाग को चार अंगुलों से नहीं स्पर्श करते हुए भगवान अंतरिक्ष में विराजमान थे । '५ विभोः प्राग्दिशमारभ्य सत्कोष्ठे प्रथमे शुभे । गणीन्द्राद्या मुनीशोधाः स्थितिं चक्र शिवाप्तये ।। २०।।
द्वितोये कल्पनार्यश्चाद्य न्द्राणीप्रमुखाश्चिदे । तृतीये चार्यिकाः सर्वाः श्राविकाभिः समं मुदा । २१ ।। चतुर्थ ज्योतिषां देव्यः पंचमे व्यन्तराङ्गनाः । षष्ठे भावनदेवानां पद्मावत्यादिदेवताः ॥ २२ ॥ सप्तमे धरणेन्द्राद्याः सर्वे च भावनामराः। अष्टमे व्यन्तरा: सेन्द्राः नवमे ज्योतिषां सुराः ।। २३ ।। चन्द्रसूर्यादयः सेन्द्राः दशमे कल्पवासिनः। एकादशसरकोष्ठे च खगेशप्रमुखा नराः॥ २४ । कोष्ठे द्वादशमे तिर्यञ्चोऽहिसिंहमृगादयः । इति द्वादशकोष्ठेषु परीत्य त्रिजगद्गुरुम् ।। २५ ।। द्विषड्भेदा गणा भक्त्या कृताञ्जलिपुटाः शुभाः । तिष्ठन्त्यग्निदाहार्ताः पातु तद्वचनामृतम् ।। २६ ।। वेष्टितस्तैर्जगद्भर्ता भासतेऽत्यन्तसुन्दरः। सर्वेषां धर्मिणां मध्ये धममूर्तिरिवोच्छ्रितः ॥ २७ ।।
__ -वीरवर्धच० अधि १५ श्लो २० से २७ इस समवसरण सभा में बारह कोठे हो। उनमें से भगवान की पूर्व दिशा से लेकर प्रथम शुभ प्रकोष्ठ में गणधरादि मुनिश्वरों का समूह शिवपद की प्राप्ति के लिए विराजमान था।
दूसरे कोठे में इन्द्राणो आदि कल्पवासिनी देवियाँ विराजमान थीं।
तीसरे कोठे में सर्व आथिकाएँ श्राविकाओं के साथ हर्ष से बैठो हुई थों। चोथो कोठे में ज्योतिषी देवों की देवियाँ बैठी थीं। पांचवे कोठे में व्यंतर देवों को देवियाँ और छ? कोठे में भवनवासी देवों की पद्मावती आदि देवियों बैठो थों। सातवें कोठे में धरणेन्द्र आदि सभी भवनवासो देव बैठे थे। आठवें कोठे में अपने इन्द्रों के साथ ध्यंतर देव बैठे थे।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org