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वधमान जीवन-कोश
११५ भगवान ने कर्म के आत्म-प्रदेश के द्वारों को रूप दिया था। मेरेपन की बुद्धि त्याग दी थी। अतः मिनी मालिकी में कोई भी वस्तु नहीं रखी थी। भष-प्रवाह को छेद दिया था । या (परिग्रह संज्ञा के अभाव 1) शोक से रहित थे। निरुपलेप थे। प्रेम, राग, द्वेष और मोह से अतीत हो चुके थे।
निम्रन्थ प्रवचन के उपदेशक, शास्ता, नायक और प्रतिष्ठायक थे । अतः साधु-संघ के स्वामी थे और इन्द के वर्द्धक ( उन्नतिकर्ता या पूर्णता की ओर ले जाने वाले ) थे। जिनवर के वचन आदि चौंतीस अतिशेष
अय = तीव्र और उत्कृष्ट पुण्योदय से सर्वजन हितङ्करता की भावना से पूर्व भव में बद्ध पुण्य के उदय से होने | बिनसाधारण के लिए दुर्लभ पौद्गलिक रचनादि विशेष ) और पैंतीस सत्य-धचन के अतिशयों के पारक थे।
ल्यावस्था में अध्ययन अधितअहवासजाते भगवं x x x अम्मापिऊहिं लेहायरियस्स । x x x ताहे सक्को करतल. कतंजलिपुडो पुच्छति ( उपोद्घात्पदपदार्थक्रमगुरूलाघवसमासविस्तरसंक्षेपविषयविभागपर्यायवचना क्षेपपरिहारलक्षणया व्याख्यया व्याकरणार्थं ) अकारादीण य पज्जाए भंगे गमे य पुच्छति, ताहे सामी वागरेति अणेगप्पगारं"तप्पभिति च णं एन्द्र व्याकरणं संवृत्त ते य विमिता,"तिणाणो मातोत्ति।
-आव० चूर्णी पूर्व भाग पृ० २४६, ४६ । भगवान के माता-पिता ने आठ वर्ष की अवस्था होने पर वर्धमान को लेखाचार्य के पास भेजा। साह्मण विष में शक्रेन्द्र आया। उसने कुमार वर्धमान से कुछ प्रश्न पूछे-अक्षरों के पर्याय कितने हैं। उपोद्घात क्या माशेप और परिहार क्या है ? वधमान ने इन प्रश्नों के समुचित उत्तर दिये ।
शाला आदि में जाकर व्याकरण आदि का अध्ययन न महावीर करते हैं और न बुद्ध । महावीर एक दिन ये शाला में जाते हैं और इन्द्र के व्याकरण सम्बन्धी प्रश्नों का निरसन कर अपनी ज्ञान-गथिमा का परिचय
हमारादिपर्यायतीसा य वद्धमाणे बायालीसा य परियाओ।
-आव० निगा ३२१ टीका-वर्द्धमाने वर्द्धमानस्वामिनो गृहवासस्त्रिंशद्वर्षाणि, व्रतपर्यायः द्विचत्वारिंशद्वर्षाणि । वर्धमान स्वामी की गृहषास-पर्याय का कालमान तीस वर्ष का था तथा वतपर्याय अर्थात् दीक्षापर्याय का मान बयालीस वर्ष का था।
मामलकी क्रीडा भगवं च पमदवणे चेडरूवेहि समं सुकलिकडएण (सं० वृक्षक्रीडया अभिरमति ।) x x x ताहे
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