________________
११४
वर्षमान जीवन-कोश का भाकाय सुन्दर था, संगत था, अतः वे विशिष्ट थे-घन, स्थिर और स्नायुओं से ठीक ढंग से बंधी हुई ( हड्डियों के जोड़) से युक्त थे । वे पूरे बाहू ऐसे दिखाई देते थे कि मानों इच्छित वस्तु को प्राप्त करने के लिए ने अपना महान देह फैलाया हो। प्रभु के हाथ के तले लाल, उन्नत, कोमल, भरे हुए, सुन्दर और शुभ लक्षा युक्त थे और अंगुलियों के बीच में छिद दिखाई नहीं देते थे। अंगुलियां पुष्ट, कोमल और श्रेष्ठ थीं। ( अंगुर नख ताम्बे के समान कुछ-कुछ लाल, पवित्र, दीप्त और स्निग्ध और रूक्षता से रहित थे। हाथ में चन्द्राकार, सूब शंखाकार, चक्राकार और दक्षिणावतं स्वस्तिकाकार रेखायें थी । इन सभी रेखामों के सुसंगम से सुशोभित थे।
भगवान् का वक्ष ( = छाती, सीना ) सुवर्ण शिलातल के समान उज्ज्वल, प्रशस्त, समतल, मांसल, और घोड़ा था । उस पर 'श्रीवत्स' स्वस्तिक का चिह्न था। मांसलता के कारण पांसलियों की हड्डियां नहीं देती थीं। स्वणं कांतिसा ( सुनहरा ), निर्मल, मनोहर और रोग के पराभवसे ( = आघात से) रहित (भर का) देह था।
जिसमें पूरे एक हजार आठ, श्रेष्ठ पुरुषों के लक्षण थे । उनके पाश्वं ( = बगल ) नीचे की ओर क्रमशः धेरे वाले हो गये थे, देह के प्रमाण के अनुकूल थे सुन्दर थे । उत्तम बने हुए थे, और मितमात्रिक पुष्ट-रम्य थे
(वक्ष और उदर पर ) सीधे और सम रूपसे एक दूसरे से मिले हुए, प्रधान, पतले, काले, स्निग्ध, मन को वाले, सलावण्य और रमणीय रोमों की पंक्ति थी। मत्स्य और पक्षीकी सी उत्तम और दृद्ध मांसपेशियों के कुक्षि थो। मत्स्य का-सा उदर था। पावन इन्द्रिय थी या पेट के करण पावन थे। गंगा के भंवर के मन दाहिनी और घूमतो हुई तरंगों के भंगुर अर्थात् चंचल सूर्य की तेज किरणों से विकसित कमल के मध्यभाग के गम्भीर और गहन नाभि थी। त्रिदण्ड, मूशल, सार पर चढ़ाये हुए श्रेष्ठ स्वर्ण दर्पणक और खड्ग-मुष्टि के श्रेष्ठ, वयवत् क्षीण मध्य भाग था। रोग-शोकादि से रहित श्रेष्ठ अश्व और सिंह के समान घे पाली कटि थी।
श्रेष्ठ घोड़े के समान अच्छी तरह बना हुआ उत्तम गृह य भाग था। जातिवान् घोड़े के समान (का ) शरीर लेप से लिप्त नहीं होता था। श्रेष्ठ हाथो के समान पराक्रम और विलास युक्त चाल थी। हाथी के समान जंघाएँ थी। गोल डिब्बे के ढक्कन के समान निमग्न और गुप्त घुटने थे। हरिणी ( की जंघा ) के और 'कुरुपिंद' नामक तृण के समान तथा सूत्र बनाने के पदार्थ के समान क्रमशः उतार सहित गोल जंघाएं ( अथवा पिंडलियाँ थीं)। सुन्दराकार, सुगठित और गुप्त पैर के मणिबंध (= टखने, थे। शुभरीति से स्पा कछुए के समान चरण थे। क्रमशः बढ़ी-घटी हुई अगुलियाँ थीं। ऊंचे उठे हुए, पतले, ताम्र वर्ण और स्निग्ध ना लाल कमल दल के समान कोमल और सुकुमार पगतलियां थीं। देहयष्टि में श्रेष्ठ पुरुषों के १००८ लक्षण थे।
पर्वत, नगर, मगर, समुद्र और चक्र रूप श्रेष्ठ चिन्हों और स्तस्तिक आदि मंगल चिन्हों से अंकित कम भगवाम् का रूप विशिष्ट था। धुएं से रहित जाज्वल्यमान अग्नि फैली हुई बिजली और तरुण सूर्य किरन समान भगवान का तेज था।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org