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१६८ (ग)
वर्धमान जीवन - कोश
हरे विट्ठरे ठिउ सहइ जिणेसरु, भामंडल जुड़ णिजिय णेसम ।
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एत्यंतरे णिण्णासिय मारवे, अण उप्पज्जमाण दिव्वाखं । धत्ता - तहो जिणणाहहो अवहिए मुणेवि गोतम-पासे तुरंत । गउ सुरवइ गणियाणण लइवि मउड - मणीहिं फुरंत || -वड्ढच०
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संधि १० / कड ९
भामंडल की ति से सूर्य को भी जीत लेनेवाले जिनेश्वर सिंहासन पर हो बैठे हुए सुशोभित हो रहे थे । किन्तु उस समय जिननाथ का मिथ्यात्व एवं भार-कामनाशक दिव्यध्वनि नहीं खिर रही थी । तब इन्द्र ने पास पहुँचा ।
अपने अवधि ज्ञान से जाना और गणितज्ञ देवज्ञ ब्राह्मण का वेष बनाकर वह तुरंत गौतम के
तहिं अवलोएविणु गुण-गणहरु, गोत्तमु गोत्तणहंगण - ससहरु । विप्प वडूव रूवेण सुरेंदें, मेरुमहीहरे हविय जिणेदें । सइँ वासवेण पुराणि तित्तहे, इंदभूइ जिणु सामि जेत्त । माथंभु अवलोएव दूरहो, विहडिउ मा तमोहु व सुरहो । पणय - सिरेण तेण गय-माणें. गोत्तमेण महियले असमाणें । पुच्छिउ जीव-ट्ठिदिपरमेसरु, पयणिय- परमाणंडु जिणेसह | सो विजाय दिव्वज्झणि भासइ, तहो संदेहु असेसु विणास | पंच सयहिं दिसु हे समिल्ले, लइय दिक्ख विप्पेण सम्मेल्लें ! yasइँ सहुँ दिक्खए जायर, लद्धिउ सत्त - जासु विक्खायउ । तम्मि दिवसे अवरण्हए तेण वि सोवंगा गोत्तम णामेण वि । जिण-मुह - णिग्गय - अत्थ, लंकिय वारहंग सुय-पय रयणंकिय ।
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सुमेरु पर्वत पर जिनेन्द्र का न्हवन करने वाले तथा विप्र वटुक वेषधारी उस सुरेन्द्र ने गौतम गोत्र रूपी नाभांगण
के लिए चद्रमा के समान तथा गुण-समूह के निवासस्थल उस इन्द्रभूति गौतम को देखा तथा उसे स्वयं हो ले आया, जहां कि स्वामी जिन विराजमान थे। दूर से ही मान स्तंभ देख कर उस ( गौतम ) का मान अहंकार उसी प्रकार नष्ट हो गया, जिस प्रकार कि सूर्य के सम्मुख अंधकार-समूह नष्ट हो जाता है । उस गौतम ने निरहंकार भाव से नतशिर होकर पृथिवी मंडल पर असाधारण उन परमेश्वर से जीव-स्थिति पर प्रश्न किया, जिसका उत्तर परमानंद जिनेश्वर ने स्पष्ट किया । उस उत्पन्न दिव्य ध्वनि को उस गौतम ने समझ लिया, जिससे उस (गौतम) का समस्त संदेह दूर हो गया । अपने ५०० द्विज-पुत्रों के साथ मिलकर उस गौतम विप्र ने ( तत्काल ही ) सब कुछ त्याग कर जिन दीक्षा ले ली।
- वडूढच० संधि १०/कउ २
पूर्वाह्न में दीक्षा लेने के साथ ही गौतम को ७ विख्यात ( अक्षीण ) लब्धियाँ ( बुद्धि, किया, विक्रिया, रस ) तप, औषधि एवं बल ) उत्पन्न हो गयीं तथा उसी दिन अपराह्न में उस गौतम नामक ऋषि ने महावीर जिनके मुख निर्गत अर्थो से सांगोपांग द्वादशांग श्रुतपदों की रचना की
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