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वर्धमान जीवन-कोश
तब वह गौतम आश्चर्य युक्त चित्तवाला होकर अति शुद्ध भाव से महान् विभूति को देखता हुआ उस समवसरण सभा में प्रविष्ट हुआ। वहां पर सभा के मध्य में स्थित, समस्त ऋद्धिगण से वेष्टित और दिव्य सिंहासन पर विराजमान श्री वर्धमान स्वामी को उस द्विजोत्तम गौतम ने देखा।
__ तब वह परम भक्ति से जगद्-गुरू की तीन प्रदक्षिणा देकर और अपने दोनों हाथों को जोड़कर उनके चरण-कमलों को मस्तक से नमस्कार कर भक्तिभार से अवनत हो नाम, स्थापनादि छह प्रकार के सार्थक स्तुति-निक्षेपों के अर्थ स्तुति करने के लिए उद्यत हुआ। (ख) अथ दिव्यध्वनेतुः कोभावीत्युपयोगवान् । तृतीयज्ञाननेत्रेण ज्ञात्वा मां परितुष्टवान् ॥३५६॥ तदेवागत्य मद् ग्राम गौतमाख्यं शचीपतिः। तत्र गौतमगोत्रोत्थमिंद्रभूतिं द्विजोत्तमम् ॥३५७।। महाभिमानमादित्यविमानादित्यभास्वरम। शेषैः पुण्यैः समुत्पन्नं वेदवेदांगवेदिनम् ॥३५८।। दृष्ट्वा केनाप्युपायेन समानीयान्तिकं विभोः। स्वपिपृच्छिषितं जीवभावं पृच्छेत्यचोदयत् ।।३५६।। अस्ति किं नास्ति वा जीवस्तत्स्वरूपं निरूप्यताम् । इत्यप्राक्षमतो मह्य भगवान् भव्यवत्सलः ॥३६०॥ अस्ति जीवः स चोपात्तदेहमात्रः सदादिभिः। किमादिभिश्च निर्देश्यो नोत्पन्नो न विनंक्ष्यति ॥३६१।। दिव्यरूपेण पर्यायैः परिणामी प्रतिक्षणम्। चैतन्यलक्षणः कर्त्ता भोक्ता सर्वेकदेशवित् ॥३६२॥ इति जीवस्य यथात्म्यं रक्त्या व्यक्त न्यवेदय । द्रव्यहेतुं विध.यास्य वचः कालादिसाधनः ॥३६३।। विनेयोऽहं कृतश्राद्धो जीततत्त्वविनिश्चये। सौधर्मपूजितः पंचशतब्राह्मणसूनुभिः ॥३६४॥ श्रीवर्धमानमानस्य संयम प्रतिपन्नवान्। तदैव मे स त्पन्नाः परिण.मविशषतः ॥३६५।।
-उत्तपु० पव ७४/श्तो ३५६ से ३६५ जब वर्धमान तीर्थकर सर्वज्ञ हो गये तब इसके बाद इन्द्रने भगवान की दिव्यध्वनि का कारण क्या होना चाहिए इस बात का विचार किया और अवधि ज्ञान से मुझे (गौतम-इन्द्रभूति ) को इसका कारण जानकर बहुत ही संतुष्ट हुआ। वह उसी समय मेरे गांव आया। मैं वहां पर गौतम गोत्रीय नाम का उत्तम ब्राह्मण था, महाभिमानी था, आदित्य नामक विमान से आकर शेष बचे हुए पुण्य के द्वारा वहाँ उत्पन्न हुआ था। मेरा शरीर अतिशय देदीप्यमान था। और मैं वेद-वेदांग का जानकार था।
मुझे देखकर वह इन्द्र किसी उपाय से भगवान् के पास ले आया और प्रेरणा करने लगा.कि तुम जीव तत्त्व के विषय में जो कुछ पूछना चाहते थे-पूछ लो।
___इन्द्र की बात सुनकर मैंने भगवान् से पूछा कि हे भगवान् ! जीव नाम का कोई पदार्थ है या नहीं ? उसका स्वरुप कहिए। इसके उत्तर में भव्यवत्सल भगवान् कहने लगे कि जीव नाम का पदार्थ है और वह ग्रहण किये हुए शरीर के प्रमाण है, सत्संख्यादि सदादिक और निर्देश आदि किमादिक में उसका स्वरूप कहा जाता है। वह द्रव्य रूप से न कभी उत्पन्न हआ है और न कभी नष्ट होगा किन्तु पर्याय रूप से प्रतिक्षण परिणमन करता है। चेतना उसका लक्षण है, वह कर्ता है, भोक्ता है और पदार्थो के एक देश तथा सर्व देश का जानकर है
इस प्रकार भगवान् से युक्तिपूर्वक जीव तत्त्व का स्पष्ट स्वरूप कहा। भगवान् के वचन को द्रव्य हेतु मानकर तथा काल लब्धि आदि को कारण सामग्री मिलने पर मुझ जीव तत्व का निश्चय हो गया और मैंने पाँच सौ ब्राह्मणों के साथ श्री वर्धमान स्वामी को नमस्कार कर संयम धारण कर लिया।
परिणामों की विशेष शूद्धि होने से मुझे उसी समय सात ऋद्धियाँ प्राप्त हो गयी।
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