________________
वर्षमान जीवन-कोश
जिन्होंने कुशान की निन्दा की है और निर्मल मोक्षमार्ग का प्रकाशन किया है।
वे भगवान जन्म-मरण की परंपरा के विनाशक है तथा मनुष्यों के मन में उत्पन्न हुए अज्ञान रूपो अन्धकार को दूर करने के लिए सूर्य-समान हैं।
वे प्रभ पाप रूपी ईन्धन को नष्ट करने के लिए अग्नि समान उत्तम तपों के निधान हैं । वे स्थिर हैं, मान से मुक्त है और इन्द्रियों को वश में करने वाले हैं, तथा शत्रु और मित्र, सुरी और सुधोजनों पर समान दृष्टि रखते हैं।
उन्होंने अपने समता भाव द्वारा, प्रमादी राग युक्त तथा दुविनीत चंचल मन को पराजित कर दिया है। उन्होंने इस जगत को ज्ञान के मार्ग पर लगाया है, तथा शाश्वत मार्ग की स्थापना की है। ये सर्वदा कषाय रहित हैं और विषाद रहित है। उनके हर्ष भी नहीं है और माया का भी अभाव है।।
वे सदैव सुप्रसन्न रहते हैं । आहाय, भय आदि संज्ञाएं उनके नहीं होतीं। वे उन तपस्विगणों के प्रधान हैं, जिन्होंने दिव्य द्वादश अंगों का ज्ञान प्राप्त किया है ।
वे महावीर नामक तीर्थङ्कर, उत्तम देवांगनाओं के प्रेम में आसक्त नहीं हुए। ऐसे उन जगतभर के मुनियों और मजिकाओं के स्वामी दम, यम, क्षमा, संयम एवं अभ्युदय और निःश्रेयस रूप दोनों प्रकार के लक्ष्मी और समस्त द्रव्यों के प्रमाण के ज्ञानी, दया से वृद्धिशील वर्धमान जिनेन्द्र को मैं अपना मस्तक धूमाकर नमन करता हूं और उनके चरित्र का वर्णन करता हूं। (ख) सम्यक्त्व क्षायिक चास्य प्राक्तनं मलदूरगम् । अस्ति तेनाखिलार्थानां स्वयं सुनिश्चयोऽभवत् ।।
-वीरवर्धमान अधि १०/श्लो १२ बीरप्रभु के निर्मल क्षायिक सम्यक्त्व पूर्वभव से ही प्राप्त था, उससे उनके सवंतत्त्वों का यथार्थ निश्चय स्वयं हो गया। (ग) जिनवरमुखजाता सत्कथां धर्मखानि चरमजिनपतेर्वच्मीह कर्मारिशान्त्यै ।। ८६ ।।
-वीरच अधि १ / श्लो ८६ जिनेन्द्र देव के मुख से उत्पन्न हुई, धर्म की खानि स्वरूप अन्तिम जिनपति महावीर स्वामी को सत्कथा अपने कमंशत्रुओं को शांत करने के लिए है। (घ) वीरोडौष नुतः स्तुतः किल मया वीरश्रयाम्यन्वहं । वीरेणानुचराम्यमा शिवपथं वीराय कुर्को नुति । वीरान्नास्त्यपरो ममातिहितकृद्वीरस्य पादौ श्रये । वोरे स्वस्थितिमातनोमि परमां मां वीरतेऽन्तं नय।
-वीरवर्धच० । अधि १७ / श्लो २०६
वीरप्रभु के साथ मैं भी शिवमार्ग का अनुसरण करता हूं। तथा वीरप्रभु के लिये नमस्कार करता हूं। वीर से अतिरिक्त अन्य कोई मेरा हित करने वाला नहीं है, इसलिये मैं वीर जिनेन्द्र के चरणों का आश्रय लेता हूँ। मै वीर भगवान में अपने चित को परम स्थिति करता हूं। हे वीर भगवान, आप मुझे अपने समीप ले जाये।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org