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वर्धमान जीवन-कोश सावय वय विहाणं पालिवि जीवई अप्प - समाण. लालिवि । बहुकाले सो मरेवि पुरूरउ पढम सग्गे सुरु जाउ सरूरउ । वे - रयणायराउ अणिमाइय - गुण - गणईि महंतउ।
-वड ढमाणच० सन्धि ।कड ११ (ज) अथ जम्बूद्र मालक्ष्ये द्वीपानां मध्यवर्तिनि । द्वीपे विदेहे पूर्वस्मिन् सीतासरिदुदक्तटे ॥१४॥
विषये पुष्कलावत्यां नगरी पुण्डरी किणी । मधुकास्ये वने तस्या नाम्ना व्याधाधिपोऽभवत् ।।१५।। पुरूरवाः प्रियास्यासीत् कालिकाख्यानुरागिणो । अनुरूपं विधत्ते हि वेधाः संगममङ्गिनाम् ।।१६।। कदाचित् कानने तस्मिन् दिग्विभागविमोहनात् । मुनि सागरसेनाख्यं पर्यटन्तमितस्ततः ॥ १७॥ विलोक्य तं मृगं मत्वा हन्तुकामः स्वकान्तया । वनदेवाश्चरन्तीमे मावधीरिति वारितः ॥१८॥ तदैव स प्रसन्नात्मा समुपेत्य पुरूरवाः। प्रणम्य तद्वचः श्रुत्वा सुशांतः श्रद्धयाहितः ॥१६॥ मध्वादित्रितयत्यागलक्षणं व्रतमासदत्। जीवितावसितौ सम्यक्पालयित्वादराट् व्रतम् । सागरोपमदिव्यायुः सौधर्मेऽनिमेषोऽभवत् ।।२२।।
-उत्तपु० पर्व ७४/श्लो १४से १६, २१ पूर्वार्ध २२, सब द्वीपों के मध्य में रहने वाले इस जम्बू द्वीप के पूर्वविदेह क्षेत्र में सीतानदी के उत्तर किनारे पर पुष्कलावती नाम का देश है । उसकी पुण्डरीकिणी नगरी में एक मधु नाम का वन है। उसमें पुरुरवा नाम का एक भीलों का राजा रहता था। उसकी कालिका नाम की अनुराग करने वाली स्त्री थी सो ठीक ही है क्योंकि विधाता प्राणियों के अनुकूल ही समागम करता है ।
किसी एक दिन दिग्भ्रम हो जाने के कारण सागरसेन नाम के मुनिराज उस धन में इधर-उधर भ्रमण कर रहे थे। उन्हें देख पुरुरवा भील मृग समझकर उन्हें मारने के लिये उद्यत हुआ परन्तु उसको स्त्री ने यह कहकर मना कर दिया कि 'ये वन के देवता घूम रहे हैं, इन्हें मत मारो। वह पुरुरवा भील उसी समय प्रसन्नचित्त होकर उन मुनिराज के पास गया और श्रद्धा के साथ नमस्कार कर तथा उनके बचन सुनकर शांत हो गया।
वस्तुतः वह भोल भी सागरसेन मुनिराज को पाकर शान्त हुआ था। उसने मुनिराज से मधु और तीन प्रकार के त्याग का व्रत ग्रहण किया और जीवन-पर्यन्त उसका बड़े आदर से अच्छो तरह पालन किया। आयु समाप्त होने पर वह सौधर्म स्वर्ग में एक सागर को उत्तम आयु का धारक देव हुआ। - इस जम्बूद्वीप स्थित विदेह क्षेत्र के प्रांगण में विविध प्रकार के मेघों की वर्षा होती ही रहती है। वहीं पर पुष्कलावती नाम का एक विशाल देश है जहाँ महिलाएं मंगलगान गाती रहती है । उस देश में जलवाहिनी सीतानदी के उत्तरतट पर अगणित गोधनों से मण्डित महीतलपर विशाल पुण्डरिकीणी नामकी नगरी बसी है, जहाँ के मुनिगण भव्यजनों को हर्पित करते रहते हैं। उस नगरी में धर्म का रक्षक 'मधुस्वर' इस नाम से प्रसिद्ध एक चणिक श्रेष्ठ सार्थवाह निवास करता था।
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