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वधमान जीवन-कोश दूर से देखा और उन्हें मृग समभकर बाण द्वारा मारने के लिए उद्यत हुआ। तभी पुण्योदय से उसकी स्त्री ने शीघ्र ही यह कहकर उसे मारने से रोका कि- अरे, ये तो संसार का अनुग्रह करने वाले वनदेव विचर रहे हैं । हे नाथ ! तुम्हें महापाप कर्म का कारणभूत यह निंद्य कार्य नहीं करना चाहिए। अपनी स्त्रो के ये वचन सुनने से और काल- . लब्धि के योग से प्रसन्नचित्त होकर वह उन मुनिराज के पास गया और अति हर्ण के साथ मस्तक से उन्हे नमस्कार किया।
मनिराज ने उसे धर्मोपदेश दिया । मनिराज के इन वचनों से उस भिल्लराज ने मद्य-मासादिका भक्षण और जीवघात आदि का त्याग कर और परम श्रद्धा के साथ श्रावक के बारह ही व्रतों को धर्म-प्राप्ति के लिए शीघ्र ग्रहण कर लिया।
तत्पश्चात् वह पुण्यात्मा भिल्लराज मुनिराज को उत्तम माग दिखला कर और उन्हें बार-बार नमस्कार करके हर्षित होता हुआ अपने स्थान को चला गया। उसने अपने जोवन-पर्यन्त उस सब व्रत समुदाय को उत्तम प्रकार से पालन किया और अन्त में समाधि के साथ मरण कर श्रत पालन से उत्पन्न हुए पुण्य के उदय से अनेक सुखों के भंडार ऐसे सौधर्म नामक महाकल्प में एक सागरोपम की आयु का धारक महद्धिकदेव उत्पन्न हुआ। (छ) एत्थवि जंबूदीव विदेहई पंगणि वरिसिय विविह. मेहइँ ।
पुक्खलवइ - विसयम्मि विसालए णारि - दिण्ण - मंगल - रावालए । सीया - जलवाहिणि - उत्तरयले अगिणिय - गोहण - मंडिय - महियले। विउल पुंडरिंकिणि पुरि निवसइ जहिं मुणिगणु भव्वयणहँ हरिसइ । सत्थवाहु तहिं वसइ वणीसरु धम्म • सामि नामेण महुर - सरु । तहो सस्थेण तेण सहुँ चलियउ मंदगामि तवलच्छी - चलियउ । हिययकमले - विणिहित्त जिणेसरु । णामें सायरसेणु मुणिसरु । एक्कहिं दिणि चोरेहिं विलुटिए । तम्मि सस्थि लवडोवल - कुटिए । सूरहिं जुझेवि पाण - विमुक्कई कायरं-णर पलाइवि थक्कई एत्यंतरे वण-मज्झे मुणिदें । तव पहाव-उवसमिय फणेदें दिस · विहाय - मूढेण णिहालिउ सवरु कालि - सवरी - भुव - लालिउ । सूवर - हरिण - वियारिय - सूरउ रूव-रहिउँ नामेण पुरुरउ । पुप्वज्जिय - पावेण असुद्धउ सो कुरुवि मुणि वयणहिं बुद्धउ भत्ति करेविणु सहुँ सम्मत्तं लइयइँ सावय - वय िपयत्ते ।
कोउवसंतएण चुव संगे णिण्णासिय दुव्वार - निरंगे । घत्ता-सहुँ मुणिणा जाएवि करु उच्चाइवि तेण मग्गि मुणि लाइउ । जिण-गुणचितंतर मइणिभंतउ गउ उवसम सिरि राइउ ।
-वड्डमाणच० संधिरा कड १०
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