________________
वर्धमान जीवन-कोश
७
श्री जिनेन्द्र देवों से और धार्मिक जैनों से रमणीय शोभित है। यतः उस क्षेत्र से अनन्त मुनिगण तप करके देहरहित हो गये हैं, अत: यह क्षेत्र 'विदेह' इस सार्थक नाम को धारण करता है। तन्मध्यस्थितसीताया नद्या उत्तर दिवटे। विषयः पुष्कलावस्यभिधो भाति महान श्रिया ॥६।। +
+ तन्मध्ये नाभिवद् भाति नगरी पुण्डरीकिणी ॥१७॥ पूर्वार्ध
+ तस्या बाह्य भवद्रम्यं मधु काख्यं वनं महत्। शीतलं सफलं हेधा ध्यानस्थमुनिभूषितम् ॥१८।। वसेद् व्याधाधिपस्तत्र पुरूरवाभिधानकः ॥१६।। पूर्वार्ध कदाचित्कानने तस्मिन् वन्दनायै जिनेशिनः। मुनिः सागरसेनाख्य आयातः सत्पथे व्रजन् ॥२०॥ सार्थवाहेन धर्मस्य स्वामिना सह सोऽशुभात। सार्थो भिल्लैगृहीतो खिलो भात् किं न जायते ॥२१॥ अतस्तत्र मुनीन्द्र तमीर्यापथविलोचनम् । दिङ मोहाद्धर्मसंलीनं पर्यटन्तमितस्ततः ॥२२।। दूराद्वीक्ष्य मृगं मत्वाहन्तुकामः पुरूरवाः। निषिद्धो द्र तमित्युक्त्वा शुभात्तत्कान्तया गिरा ॥२३।। वनदेवाश्चरन्तीमे विश्वानुग्रहकारिणः । न कर्तव्यमिदं नाथ त्वया कर्मावकारणम् ॥२४॥ तद्वचः श्रवणात्काललब्ध्या भूत्वा प्रसन्नधीः। उपैत्यासौ मुनीशं तं ननाम शिरसा मुदा ॥२५॥
+ इति तद्वचसा त्यक्त्वा मद्यमांसवधादिकान् । नत्वा मुनीन्द्रपादाब्जौ श्रद्धया परयासमम् ।।३१॥ जग्राह दृष्टीना सार्ध भिल्लाधिपः शुभाशयः। द्वादशैव व्रतान्याशु श्रावकस्य बृषाप्तये ॥३२।। ततो यतेः स पुण्यात्मा दर्शयित्वा पथोत्तमम् । नमस्कारं मुहुः कृत्वा जगाम स्वाश्रयंमुदा ॥३६।। आजन्मान्त प्रपाल्योच्चैः सर्वं व्रतकदम्बकम् । अन्ते समाधिना मृत्वा व्रतजातशुभोदयात् ॥३७॥ सौधर्माख्ये महाकल्पेऽनेक्शर्माकरेऽभवत् । महद्धिकोऽमरो भिल्ल एकसागरजीवितः ॥३८।।
-वीरच० अधि२
उस पूर्वविदेह क्षेत्र के मध्य में स्थित सीता नदी के उत्तर दिशावर्ती तट पर लक्ष्मी से शोभायमान एक पुष्कलावती नामक देश है । उस पुष्कलावती देश में एक पुण्डरीकिणी नामकी नगरी है। उस नगरी के बाहर मधुक नाम का एक रमणीक महावन है, जो शीतल छायावाले और फले-फूले हुए वृक्षों से युक्त तथा ध्यानस्थ मुनियों से भूषित है।
उस वन में पुरूरवा नाम का भद्र प्रकृत्ति का एक भोलों का स्वामी रहता था। उसकी कालिका नाम की एक भद्र और कल्याणकारिणी प्रिया थी। किसी समय जिनदेव की वंदना के लिए जाते हुए सागरसेन नामक एक मुनिराज उस वन में आये । वे मुनिराज धर्म के स्वामी किसी सार्थवाह के साथ आ रहे थे कि मार्ग में उस सार्थवाहको पापोदय से भीलों ने पकड़ लिया। अशुभ कर्म के उदय से वया नहीं हो जाता है। सार्थवाह के हाथ से बिछुड़कर और दिशा भूल जाने से ईर्यासमतिसे इधर-उधर घूमते हुए धर्म में संलग्न उन मुनिराज को पुरूरवा भील ने
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org