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वर्धमान जीवन कोश
इसके बाद फिर विचार किया - इस सिंह को दाढ और नख मात्र ही शस्त्र रूप है और हमारे पास ढालतलवार है— इस कारण यह भी उचित नहीं हैं । ऐसा धारण कर त्रिपृष्ठ ने ढाल-तलवार को भी छोड़ दिया ।
यह देखकर उस केशरी सिंह को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ । इस कारण उसने चिंतन किया - प्रथम तो यह पुरुष अकेला हमारी गुफा के पास आया - यह उसकी धृष्टता है, दूसरा रथ से नीचे उतरा यह भी उसकी धृष्टता है और तीसरा इसने शस्त्र को छोड़ दिया है यह और भी कीउस की घृष्टता है । अतः मुझे उचित है कि मदांध हाथी की तरह अतिदुमंद ऐसे त्रिपृष्ठ को मार देना चाहिए ।
ऐसा विचारकर मुख को निकालकर वह सिंह फाल भरकर त्रिपृष्ठ के ऊपर कूद पड़ा । त्रिपृष्ठ ने एक हाथ ऊपर का और दूसरा हाथ नीचे का होठ पकड़कर जीर्णवस्त्र की तरह उस सिंह को फाड़ दिया - मार दिया ।
तत्काल देवों ने वासुदेव पर पुष्प, आभरण और वस्त्रों की दृष्टि की । लोग विस्मय को प्राप्त हुए । 'साधुसाधु' ऐसे शब्दों का उच्चारण करते हुए स्तुति करने लगे ।
उस समय अहो ! यह नाना बालककुमार मुझे आज कैसे मारा - ऐसे असमर्थ से वह सिंह - दो भाग होने पर भी धूजने लगा ।
उस समय चरम तीर्थ कर का जीव वासुदेव का सारथि गौतम गणधर का जीव था । उसने स्फुरणमान होते हुए सिंह को कहा - "अरे सिंह । जैसे तुम पशुओं में सिंह हो वैसे ही यह त्रिपृष्ठ मनुष्यों में सिंह है । उसने तुम्हें माया है— कारण तुम वृथा अपमान क्यों मानते हो ? क्योंकि किसी दीन पुरुष ने तुम्हें नहीं मारा है ।
इस प्रकार अमृत जैसी सारथी की वाणी को सुनकर प्रसन्न होकर वह सिंह मृत्यु को प्राप्त हुआ । और चतुर्थं नरक में नारकी रूप में उत्पन्न हुआ । उसका चर्म लेकर दोनों कुमार स्वयं के नगर की ओर चले और पहले गांव के लोगों को कहा- तुम यह खबर अश्वाग्रीव को दो और कहो कि - अब तुम इच्छानुसार शाली खाना और विश्वास धरकर रहना । क्योंकि तुम्हारे हृदय में शल्प रूप है—जो केशरी सिंह था उसे मार दिया। इस प्रकार कहकर दोनों कुमार पोदनपुर गये और पहले गांव के लोगों ने यह सब वृत्तांत अश्त्रग्रीव को सूचित किया ।
* ११ त्रिपृष्ठ वासुदेव द्वारा अश्वग्रोव प्रतिवासुदेव का मारा जाना
(क) हयग्रीवोऽपि साशंको जिवांसुर्माययापि तौ । अनुशिष्या दिशद् दूतं प्रजापतिनृपं प्रति ।। १५८ गत्वा स दूतस्तं स्माहोपस्वामि प्रेषयात्मजौ । राज्यं यदनयोः स्वामी प्रदास्यति पृथक् पृथक् ।। १५६ प्रजापतिर्बभाषेऽहं यास्यामि स्वामिनं स्वयम् । कृतं मम कुमाराभ्यां तत्र सुन्दर ! ।। १६० दूतो भूयोऽवदत्पुत्रौ न चेत्त्वं प्रेषयिष्यसि । तत्सज्जीभव युद्धाय मा वादीः कथितं न यत् ।। १६१ इत्युक्तवन्तं तं दूतं तौ कुमारावमर्षणौ । धर्षयित्वा निजपुरान्निरवासयतां क्षणात् ।। १६२ दूतो गत्वा तदाचख्यौ हयग्रीवाय घर्षणम् । हयग्रीवोऽपि कोपेन हुताशन इवाज्वलतू ।। १६३. हयग्रीवः ससैन्योsपि त्रिपृष्ठश्चाचलोऽपि । युयुत्सवः समभ्येयू रथावर्तमहा गिरौ ।। १६४
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