________________
१२४
वर्धमान जोवन-कोश छेदोपस्थापनादि, तथाकल्पत्वात्, सप्तदशाङ्गः - सप्तदशभेदः पुनः, चः पुनरर्थे, सर्वेषां तीर्थकृता भूत् ।
संयम का अर्थ सामायिक रूप होता है। प्रथम तथा अंतिम तीर्थकर ( ऋषभदेव-धद्धमान ) के शासन दो प्रकार का विकल्प था-१. इत्वरिक सामायिक चारित्र रूप तथा छेदोपस्थापनीय चारित्र रूप । मध्यम न तीर्थ करों के शासन में यावत्कथिकम् सामायिक चारित्र होता है किन्तु छेदोपस्थापनीय चारित्र नहीं होता। २ हिंसादिपंचपापानां सामस्त्येन च सर्वदा । त्यजनं यस्त्रिगुप्त्यापंचधा समितिपालनैः ॥ १६
चारित्र व्यवहाराख्यं भुक्तिमुक्तिनिबंधनम् । तज्ज्ञ यं शर्मद सारं कर्मागमनिरोधकम् ॥१॥ चारित्रण विना जातु तपोऽङ्गक्लेशकोटिभिः। कर्मणां संवरः कतुं शक्यते न जिनैरपि ॥२ संवरेण बिना मुक्ति कुतो मुक्त विना सुखम् । कथं च जायते पुसां शाश्वतं परमं यतः ॥ २१
-वीरवर्धच० अधि १८/श्लो १८ से हिंसादि पाँच पापों का समस्त रूप से, अर्थात् कृत, कारित और अनुमोदना से सर्वदा के लिए त्रियोग शुद्धिपूर्वक तीन गुप्ति और पाँच समिति के परिपालन के साथ त्याग करना व्यवहार चारित्र है, यह भक्ति ( सांसा भोगसुख) और मुक्ति का कारण है। इसे ही कर्मों के भास्रव का रोकने वाला और सारभूत सुख का देनेवाला बा चाहिए।
औरों की तो बात ही क्या है, तीर्थङ्कर भी चारित्र के बिना शरीर को कष्ट देने वाले कोटि-कोटि तपों द्वारा कर्मों का संवर नहीं कर सकते हैं। संधर के बिना मुक्ति कैसे प्राप्त हो सकती है और कर्मों से मुक्त हुए कि जीवों को शाश्वत स्थायी परम सुख कैसे प्राप्त हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता।
२६ भगवान् महावीर और दीपालिका
ततस्तु लोकः प्रतिवर्षमादरात् प्रसिद्धदीपालिकयात्र भारते। समुद्यतः - पूजयितु जिनेश्वरं जिनेन्द्रनिर्वाणविभूतिभक्तिभाक् ॥
-हरिवंशपुराण ६६ भगवान् महावीर के निर्वाण के उपलक्ष्य में भारत में प्रतिवर्ष लोगों के द्वारा दीपालिका पर्व मना जाता है।
'२७ वर्धमान-महावीर भगवान् की स्तुति •१ सूयगडो (सूत्रकृतांग सूत्र ) से (क) पुच्छिसु णं समणा माहणा य, अगारिणो यापरतिस्थिआ य ।
से के 'इमं णितियं धम्ममाहु अणेलिसं ? साहुसमिक्खयाए ॥१॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org