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वर्धमान जीवन-कोश
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२ नवम गणधर-अचलभ्राता के संशय :
नवमस्य पुण्ये संशयः, कर्मणि सत्यपि किं पुण्यमेव प्रकर्षप्राप्त प्रकृष्टसुखहेतुः तदेव चापचीयमानअन्तस्वल्पावस्थं दुःखस्य, उत तदतिरिक्तं पापमस्ति, आहोस्विदेकमेवोभयरूपमुत स्वतन्त्रमुभयमिति ।
-आवनिगा ५६६/टीका नवम गणधर-अचलभ्राता के संशय था कि पुण्य है या नहीं। पृण्य और पाप एक रूप है या दो रूप ।
३ दशम गणधर—मेताय के संशय दशमस्य परलोके संशयः, सत्याप्यात्मनि परलोको-भवान्तरलक्षणः, किमस्ति किंवा नास्तीति
-आव० निगा ५६६/टीका दशम गणधर—मेतार्य क परलोक में संशय था। परलोक है या नहीं।
१४ एकादशम् गणधर-प्रभास गणधर के संशय
एकादशस्य निर्वाणे संशयः, निर्वाणकिमस्ति किंवा नेति-आह-बंधमोक्षसंशयादस्य को विशेषः ?, न्यते-स ह्यु भयगोचराः, अयं तु केवलविभागविषय एव तथा किं संसाराभावमात्र एव, मोक्षः किं साऽन्यः इत्यादि।
-आव० निगा ५६६/टीका एकादशम गणधर-प्रभास गणधर के निर्वाण है या नहीं—यह संशय था। संसार का अभाव ही मोक्ष है या अन्य
.१५ गणधरों का सामान्य विवेचन
महंतो महाणाणवंतो सभुई। गणी वाउभूई पुणो अग्गिभूई ।। सुधम्मो मुणिंदो कुलायास-चंदो। अणिंदो णिवंदो चरित्ते अमंदो।। इसी मोरि मुंडी सुओ चत्त-गावो। समुप्पण्ण - वीरंघि - राईव-भावो । सया सोहमाणो तवेणं खगामो। पवित्तो सचित्तेण मित्तेय णामो॥ सयाकंपणो णिच्चलको पहासो। विमुक्कंग-राओ रई-णाह-णासो॥ इमे एवमाई गणेसा मुणिल्ला। जिणिंदस्स जाया असल्ला महल्ला ॥
__ -वीरजि० संधि २/कड ७/पृ० ३४ महाज्ञानवान् एवं विभूतियुक्त इन्द्रभूति गौतम महावीर भगवान् के श्रेष्ठ गणधर हुए।
दूसरे-वायुभूति, तीसरे-अग्निभूति, चौथे -सुधर्म मुनीन्द्र जो अपने कुलरूपी आकाश के चन्द्रमा थे । पाँचवे-ऋषि मौर्य । छठे-मुण्डि (मौण्य)। सातवें-सुत (पुत्र) जो इन्द्रियों की आसक्ति से रहित तथा वोर भगवान् के चरण कमलों के भक्त थे। आठवें-मैत्रेय जो महातप से शोभायमान, इन्द्रियजित् व शुक्लध्यानी और चित्त
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