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वर्षमान जीवन-कोश सुप्परइट्ठ णामेण मुणीसरु मोहरहिउ णिम्महिय रईसरु तहो पय - पंकय जुवलु णवेविणु णरणाहँ उवसमु भावेविणु लेवि दिक्ख उवलक्खिवि सत्थई भव्वयणई वोहेइ पसत्थइँ
-वड्डमाणच० संधि ७/कड १७ जम्बूद्वीप में सुमेरु पर्वत के दक्षिण दिशा भाग में भारतवर्ष में अवंती नाम का देश है। उस अबन्ती देश उज्जयिनी नामकी एक पुरी है।
उसी उज्जयिनी नगरी में वज्रसेन नामक एक राजा (राज्य करता) था जो वचपाणि-इन्द्र के समान बने विभूतियों वाला था। वह वज्रशगीरी अपने समस्त बन्धुओं को सुख देने वाला सुन्दर एवं बच-चिन्ह से भला हाथों वाला था।
उस राजा वज्रसेन की गृहिणी-पट्टशानी का नाम सुशीला था, जो शीलकी निधि के समान थी। वह है प्रतीत होती थी मानों चन्द्रमा की प्रिया रोहिणी ही हो । हंसिनी के समान उसके ( मातृ-पितृ एवं ससुराल ) दो हो पक्ष समुज्जवल थे।
काल के वशीभूत होकर वह लान्तवदेव स्वर्ग से चयकर इन दोनों के यहाँ एक विख्यात पुत्र के रूप हुआ। उसे गुणश्री से युक्त देख कर पिता ने स्वयं ही उसका नाम 'हरिषेण' घोषित किया।
एक दिन राजा ( वज्रसेन अपने ) पुत्र को अपने साथ में लेकर अंतःपुर के परिजनों सहित श्रुतसागर मुनि । चरणों में प्रणाम कर तथा उनसे जिननाथ द्वारा कथित धर्म ग्रहण कर विवेकशील बनकर वह वैराग्य से भर गया उसने काम-भावना को जीतकर तथा पुत्र को शाज्य सौंप कर उनके समीप दीक्षा ग्रहण कर ली।
काम को जीत लेने वाले मुनि नाथ से श्रावकों के व्रतों को लेकर ( तथा उन्हें ) प्रणाम कर सम्यग् दर्शन रत्न से विराजित वह हरिषेण भी अपने घर लौट आया।
वह महामति मंत्रियों और उग्र परिवार से निरंतर घिरा हुआ होने पर शत्रुओं पर वह कभी उग्र नहीं हुवा
सुन्दर काय वाले उस ( राजा हरिषेण ) ने युवावस्था में विवाह किया था। तो भी वह उद्दाम-काय के का भूत न हुआ। उस उपशांत वृत्ति वाले का मन विषयों में नहीं रमता था। वह उनसे एक दम विरुद्ध रहता था।
इस प्रकार राज्यलक्ष्मी का सुखभोग करते हुए, बंधुजनों का मनोरंजन करते हुए, सुखकारी श्रावकवृत्ति आचरण करते हुए उस नरनाथ हरिषेण के अनेक वर्ष व्यतीत हो गये।
इस बीच में अप्रमादी, मोहजाल से रहित एवं काम-विजेता सुप्रतिष्ठ नामक मुनिश्वर विहार करतेप्रमद धन में पधारे।
उन मुनिराज के पद-पंकज युगल को प्रणाम कर यह नरनाथ उपशम भाष भाकर, दीक्षा ग्रहण कर प्रशस्त शास्त्रों को उपलक्षित कर भव्यजनों को प्रतिबोधित करने लगा। •२८ महाशुक्र स्वर्ग का देव (क) ततो दृग्ज्ञानचारित्रतपसां मुक्तिदायिनाम्। आराधनां विधायोच्चैः शोषयित्वानिवपुः । २ ।
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