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वधमान जीवन-कोश तपोऽग्निना परित्यज्य प्राणान् सर्वसमाधिना । तत्फलेने महाशुक्र सोऽभून्महद्धिकोऽमरः ॥ २४ ॥
-वीरच० अधि ५ (ख) तउ दुच्चरु चिरु चरिवि पयत्तें मुणिणाहेण तेण विगयते ।
अंतयाले सल्लेहण भावेवि हिययं कमले जिणवर - गुण - थाइवि। मेल्लिवि पाणइ सोक्ख - णिहाणे किउ महुसुक्कि गवणु सुविहाणे । पीयंकरु णाम सुरु जायउ तहिं देवंगण - माणिय - कायउ। सोलह - सायर - आउ - पमाणउ ।
-वड्डमाणच• संधि ७/कड १७ (ग) वर्धमानवतः प्रान्ते महाशुक्र जनिष्ट सः । षोडशाम्भोधिमेयायुराविर्भूतसुखोदयः ।। २३४ ।।
-उत्तपु० पर्व ७४
जिसके व्रत निरन्तर बढ़ रहे हैं-ऐसा हरिषेण आयु का अंत होने पर महाशक स्वर्ग में देव उत्पन्न हुआ। वहाँ वह सोलह सागर की आयु प्रमाण उत्तम सुख भोगता रहा।
•२६ प्रियमित्र- प्रियदत्त चक्रवर्ती के भव में •१ जन्म
+ + लब्ध्वा च मानुषं जन्म शुभंकमै कदाऽर्जयत् ।। १८३ ।। ततोऽपरविदेहेषु मूकायां पूरिभूपतेः। धनंजयस्य धारिण्याः पन्यां कुक्षाववातरत् ।। १८४ ।। चतुर्दशमहास्वप्नाख्यातचक्रधरद्धिकः। काले तया च सुषुवे सूनुः संपूर्णलक्षणः । १८५ ।। प्रिय मित्र इति नाम पितरौ तस्य चक्रतुः। पित्रोमनोरथैः साधं क्रमेण ववृधेच सः ।। १८६ ।। अथ संसारनिविण्णो धनञ्जयमहीपतिः। प्रियमित्र' सुतं राज्ये निधायव्रतमाददे । १८७ ।। प्रियामिवभुवं पातुः प्रिय मित्रस्य भूपतेः। चतुर्दशमहारत्नान्युदपद्यन्त च क्रमात् ।। १८८ ।। षटखंड विजयं जेतु चक्रमार्गानुगोऽचलत्। गत्वाचपूर्वाभिमुखंमागध तीर्थमासदत् ।। १८६ ।।
-त्रिशलाका० पर्व १०/सर्ग १ तिथंच और मनुष्यों के अनेक भव कर बाद में शुभ कर्म उपार्जन कर अपर विदेह में मूकानगरी में धनजयराजा की धारिणी नाम की रानी की कुक्षि में पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ। रानी ने चौदह स्वप्न देखे जिसमें चक्रवति होने की सचना थी।-ऐसे संपूर्णलक्षण वाले उस पुत्र को धारिणी ने योग्य समय में जन्म दिया। माता-पिता ने पत्र का नाम-प्रियमित्र रखा । माता-पिता के मनोरथ के साथ अनुक्रम से वृद्धि को प्राप्त हआ।
संसार से निर्धद को प्राप्त धनंजय राजा ने प्रियमित्र को राज्य पर बैठा कर दीक्षा ग्रहण की। प्रिया को तरह भूमिका पालन करता हुआ प्रियमित्र राजा को अनुक्रम से चौदह महारत्न उत्पन्न हुए ।
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