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वर्धमान जीवन - कोश
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बाइस हजार वर्ष बीतने पर सर्वाग से तृप्त करने वाला अमृतमय दिव्य आहार मन से ग्रहण करता था । ग्यारहमास बीतने पर दिङ्मंडल को सुरभित करनेवाला सुगन्धिवाला दिव्य उच्छ्वास नाम मात्र को लेता था । (ग) पावोवओग - विहिणा मुणिंदु पाणाईँ गाणं अणि ।
मेल्लेविणु पाणय- कप्पे जाउ पुष्कोत्तरे सुरहरे तियस-राउ | विमलंगु वीस- सायर समाउ
- वडूमाणच संधि ८ । कड १७
उन अनिन्द्य नन्दन मुनिराज ने पादोपगमन विधि से धर्मध्यान पूर्वक प्राण छोड़े तथा प्राणत-स्वर्ग के पुष्पोत्तर विमान में त्रिदशयराज इन्द्र हुआ । चिमल अंग वाले उस इन्द्र की आयु बीस सागर की थी ।
'३२३ आहार - श्वासोच्छ्वास- ज्ञान
दुवई - धुवणीसासु मुयइ सो तेन्तिय पक्खहिं दुह - विहंजणो । आणइ ताम जाम छट्ठावणि वडिय - ओहि दंसणो ॥ परमागम - साहिय - दिव्व - माणि । णिवसंतहु पुष्फुत्तर
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पुष्पोत्तर स्वर्ग में देवरूप से रहते हुए वह सहस्र वर्ष में एक बार आहार करता था और उतने ही पक्षों में श्वासोच्छ्रवास लेता था । वह समस्त दुःखों का विनाश कर अपने अवधि दर्शन द्वारा छुट्टी पृथ्वी तक की बातें जान लेता था ।
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विमाणि ॥
* ३२४ पुष्पोत्तर विमान में भगवान महावीर का जीव और भाविजन्म क्षेत्र में धन-वर्षा
क) जइयहुँ वट्ट छम्मासु तासु । परमाउ - माउ परमेसरासु । तइयहुँ सोहम्म सुराहिवेण । पभणिउ कुबेरु इच्छिय - सिवेण ॥ इह जंबुदोवि भरहंतरालि । रमणीय विसइ सोहा - विसालि ॥ कुंडउरि राउ सिद्धत्थु सहिउ । जो सिरिहरु मग्गण-वेस रहिउ ||
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- वीरजि० संधि १ । कडवक६
- वीरजि० संधि १ / कड ६
इस प्रकार परमागम में कहे हुए गुणों से युक्त दिव्य प्रमाण वाले उस पुष्पोत्तर विमान में रहते हुए जब अपनी उत्कृष्ट षायु प्रमाण के छह मास शेष रहे तभी सौधर्म स्वर्ग के इन्द्र ने जगत्-कल्याण की कामना से प्रेरित होकर कुबेर से कहा – इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में विशाल शोभाधारी विदेह प्रदेश में कुण्डपुर नगर के राजा सिद्धार्थ राज्य करते हैं । वे आत्म- हितैषी है और श्रीधय होते हुए भी विष्णु के समान बामनावतार सम्बन्धी याचक वेष से रहित हैं ।
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