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वर्धमान जीवन-कोश पंच महव्वयधम्म पडिवज्जइ भावओ। पुरिमस्स पच्छिमम्मि, मग्गे तत्थ सुहावहे ॥८॥ केसीगोयमओ णिचं, तम्मि आसि समागमे। सुय-सील-समुक्कसो, महत्थत्थ विणिच्छओ ||८|| सोसिया परिसा सव्वा, सम्मग्गं समुवट्ठिया। संथुया ते पसीयंतु, भयवं केसिगोयमे । त्तिबेमि ||
उत्त० अ २३/गा ८५ से यह हे गौतम ! आपकी बुद्धि श्रेष्ठ है। आपने मेरे इन संशयों को दूर कर दिया है। हे संशयातीत ! हे सर्व सूत्र महोदधि ! अर्थात् सर्वंशास्त्रों के ज्ञाता आपको नमस्कार करता हूँ।
इस प्रकार संशय दूर हो जाने पर घोर पराक्रम वाले केशीकुमार श्रमण ने महायशस्वी गौतम स्वामी को मक से वन्दना करके ( हाथ जोड़कर तथा सिर झुकाकर ) वहीं तिन्दुक वन में पांच महाव्रत रूप धर्म को भावपूर्वक अंगीकार किया और वे उस रुखकारी मार्ग में विचरने लगे जो, प्रथम और अंतिम तीर्थंकर देवों के साधुओं के लिए प्ररूपित किया गया है।
उस तिन्दुक उद्यान में केशीकुमार श्रमण और गौतम स्वामी का जो नित्य, समागम हुआ, उससे श्रुत और चारित्र की वृद्धि करनेवाले, महाम् पदार्थों का निर्णय हुआ।
नोट--श्री केशीकुमार श्रमण और उनके शिष्य तथा श्री गौतम स्वामी और उनके शिष्य जबतक श्रावस्ती नगरी रहे, तबतक नित्य प्रति उनका समागम होता रहा।
देव, असुर और मनुष्यों से युक्त वह सारी सभा अत्यन्त संतुष्ट हुई और सभी सन्मार्ग में प्रवृत्त हुए तथा वे सभी स्तुति करने लगे कि भगवान् केशीकुमार और गौतम स्वामी सदा प्रसन्न रहें एवं जयवंत रहें।
.४ श्रमण भगवान महावीर की समकालीन अवस्था में गौतम स्वामी का भिक्षार्थ जाना :
(क) तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे जाव सिरीवणे विहरइ। तेणं कालेणं तेणं समएवं समणस्स भगवओ महावीरस्स जे? अंतेवासी इंदभूई अणगारे जहा पण्णत्तीए जाव पोलासपुरे णयरे उच्चणीय जाव अडइ ।
- अंत० व ६/अ १५ उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर ग्रामानुग्राम विचरते हुए श्रीवन उद्यान में पधारे।
उस समय भगवान के ज्येष्ठ अंतेवासी इन्द्रभूति भगवान् को पूछकर पोलासपुर नगर में ऊँच, नीच, मध्यम कुलों में गृह सामुदानिक भिक्षार्थ भ्रमण करने लगे।
.५ गौतम गणधर और आणंद श्रावक : .१ वाणिज्य ग्राम में भिक्षार्थ आज्ञा मानना-भिक्षार्थ जाना :
. (क) तए ण भगवं गोयमे छट्टक बमणपारणगंसि पढमाए पोरिसिए सज्झायं करेइ, बिइयाए पोरिसीए झागं झियाइ, तइयाए पोरिसीए अतुरियं अचवलं असम्भन्ते मुहपोत्तियं पडिलेहेइ, पडिलेहेत्ता,
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