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वर्धमान जीवन-कोश एरंडबीजवबंद्याभावार्ध्वगतिः प्रभुः। पथा स्वाभावऋजुना मोक्षमेकमुपाययौ ॥२४०॥ नारकाणामपि तदा क्षणमेकमभूत् सुखम् न ये सुखलवस्यापि कदाचिदपि भ.जनम् ॥२४१।।
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इतश्च देवशर्माणं बोधयित्वा निवृत्तवान् । शुश्राव गौतमः स्वामिनिर्वाणं सुरवार्तया ॥२४॥ गौतमस्वाम्यथोत्ताम्यं श्चिन्तयामास चेतसि । एकस्याह्नः कृते भ; किमहं प्रेपितोऽस्मिहा ! ॥२७५!। जगन्नाथमियत्कालं सेवित्वाऽन्त न दृष्टवान् । अधन्यः सर्वथाऽस्म्येष धन्यास्ते तत्र ये स्थिताः ।२७६।। गौतम ! त्वं वज्रमयो वज्रादप्यधिकोऽसि वा । श्रुत्वाऽपि स्वामिनिर्वाणं शतधायन्न दीर्यसे ||२७७|| यद्वाऽऽदितोऽपि भ्रान्तोऽहं यद्रागं रागवर्जिते । ममत्वं निर्ममे चास्मिन् कृतवानीदृशे प्रभौ ॥२७८।। रागद्वेषपभृतयः किं चामी भवहेतवः । हेतुना तेन च त्यक्तास्तेनापि परमेष्ठिना ॥२५६।। ईदृशे निर्ममे नाथे ममत्वेन ममाऽप्यलम् । ममावं सममत्वेऽपि मुनीनां न हि युज्यते ॥२८०॥ एवं शुक्लध्यानंपरः क्षपकश्रेणिभाक क्षणात् । घातिकर्मक्षयात्प्राप केवलं गौतमो मुनिः ॥२८१॥
-त्रिशलाका० पर्व १०/सर्ग १३
कार्तिक कृष्णा की अमावस्या की रात्रि को स्वयं का मोक्ष जानकर भगवान् ने विचार किया कि-अहो । गौतम का स्नेह मेरे पर अत्याधिक है और वही उसे केवल ज्ञान की उत्पत्ति में अंतराय करता है। इस कारण उस स्नेह को समुच्छेद कर देना उचित है।
ऐसा विचार कर भगवान् ने गौतम को कहा-यहाँ से नजदीक के अन्य ग्राम में देवशर्मा नामक ब्राह्मण रहता है-वह तुमसे प्रतिबोध को प्राप्त होगा। अतः तुम वहाँ जाओ।
यह सुनकर ! जैसी आपकी आज्ञा ! ऐसा कहकर गौतम वीरा को नमस्कार कर तुरन्त वहाँ आये और प्रभु का वचन सत्य किया अर्थात् उसे प्रतिबोधित किया।
इधर कार्तिक मास की अमावस्या की पश्चिम रात्रि-चन्द्र स्वाति नक्षत्र था-छट्टतप था।
अस्तु च ह्रस्वाक्षर का उच्चारण किया जाय -उस काल मात्र वाला अव्यभिचारी शुक्लध्यान की चतुर्थ पाद से ( चतुर्दशवें गुणस्थान में ) एरंड के बीज की तरह कर्मबंध रहित हुए। प्रभु यथास्वभाव ऋजुगति में ऊर्ध्वगमन कर मोक्ष पद प्राप्त किया।
उस समय जिनको एक क्षणमात्र भी सुख नहीं प्राप्त होता है - ऐसे नारकी जीव को भी क्षणमात्र सुख प्राप्त हुआ।
अस्तु इधर ही गौतम गणधर देवशर्मा ब्राह्मण को प्रतिबोध प्राप्त कराकर वापस फिरे । मार्ग में देवों की वार्ता से प्रभु की निर्वाण की बात सुनी। इस कारणचित्त में विचार करने लगे
एक दिवस में निर्वाण था-ऐसा होने पर अरे प्रभो ! मुझे किस कारण से दूर भेजा ? अरे जगत्पति ! मैं इतने काल तक तुम्हारी सेवा की परन्तु अंतकाल में मुझे आपका दर्शन नहीं हुआ-इससे मैं सर्वथा अधम्य हूँ। अरे, गौतम ! तुम सही अर्थ में वज्रमय है-वे वज्र से भी अधिक कठिन है कि जिससे प्रभु का निर्वाण सुनकर भी तुम्हारे हदय के सैकड़ों ककडा कयों नहीं होता अर्थात हो जाना चाहिए।
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