________________
२१८
वर्धमान जीवन-कोश गौतम स्वामी कहने लगे कि मैंने उस लता को सर्वथा काटकर मूल सहित उखाड़कर फेंक दिया है इसी कारण उसके विष समान फल खाने से मैं मुक्त हूँ। अतः मैं जिनेश्वर देव के न्याययुक्त मार्ग में शांतिपूर्वक विचरता हूँ।
केशीकुमार श्रमण गौतम स्वामी से इस प्रकार पूछने लगे कि वह लता कौन-सी कही गयी। उपरोक्त प्रकार से प्रश्न करते हुए केशीकुमार श्रमण को गौतम स्वामी इस प्रकार कहने लगे
हे महामुने ! संसार में तृणारूपी लता कही गयी है। वह अत्यन्त भयंकर है तथा भयंकर फल देनेवाली. है, उसको यथान्याय (जिन शासन की रीति के अनुसार) उच्छेदन कर के सुखपूर्वक विचरता है ।
(छ) अग्नि ( क्रोध-मान-माया-लोभ) के सम्बन्ध में : साहु गोयम ! पण्णा ते, छिण्णो मे संसओ इमो। अण्णोऽवि संसओ मज्झं, तं मे कहसु गोयमा !!४६।। संपज्जलिया घोरा, अग्गी चिट्टइ गोयमा !। जे डहंति मरीरत्था, कहं विज्झाविया तुमे ? ||५|| महामेहप्पसूयाओ, गिज्झ वारि जमुत्तमं । मिंचामि सययं ते उ, सित्ता णो व डहंति में ॥५१॥ अग्गी य इइ के वुत्ता ? केसो गोयममब्बवी। कसिमेवं बुवंतं तु, गोयमो इणमब्बवी ॥५२॥ कसाया अग्गिणो वुत्ता, सुय-सील-तवो जलं। सुयधाराभिहया संता, भिण्णा हु ण डहं ति मे ॥५३।।
उत्त० अ २३/गा ४६ से ५३ हे गौतम ! आपकी बुद्धि श्रेष्ठ है। आपने मेरा यह संशय दूर कर दिया है। मेरा और भी संशय है, इसलिए हे गौतम ! उसके विषय में भी मुझे कहिये अर्थात् मेरा छट्ठा संशय है उसे भी दूर कीजिये ।
छट्ठा प्रश्न-हे गौतम ! भयंकर जलती हुई एक अग्नि है, जो शरीर में रहकर आत्मगुणों को जलाती है । आपने किस प्रकार उसे बुझाया है ?
गौतम स्वामी कहते हैं कि महामेघ से उत्पन्न हुए उत्तम जल को ग्रहण करके में शरीर में रही हई उस अग्नि को निरंतर बुझाता रहता हूँ। इस प्रकार बुझाई हुई वह अग्नि मुझे अर्थात् मेरे आत्मगुणों को जलाती नहीं है।
केशीकुमार श्रमण गौतम स्वामी से इस प्रकार पूछने लगे कि, वह अग्नि कौन-सी कही गयी है और महामेघ और जल कौन-सा कहा गया है ? उपरोक्त प्रकार से प्रश्न करते हुए केशीकुमार श्रमण से गौतम स्वामी इस प्रकार कहने लगे
क्रोध-मान-माया-लोभ-ये कषाय रूप अग्नि कही गयी है और श्रुत-शील तप रूप जल कहा गया है। उस श्रुत रूप जल से सिचित की जाने पर नष्ट हुई वह अग्नि मुझे नहीं जलाती है। नोट-श्री तीर्थंकर देव, महामेघ के समान है। जिस प्रकार मेघ से जल उत्पन्न होता है, उसी प्रकार तीर्थकर भगवान्
के मुखारविन्द से श्रुत-आगम उत्पन्न होता है। उसमें वर्णित श्रुतज्ञान, शील और तप रूप जल है। उस श्रुत... शील और तप रूप जल के छिड़कने से कषाय रूपी अग्नि शांत हो जाती है, फिर वह आत्मगुणों को नहीं जला
सकती।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org