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वर्धमान जीवन-कोश : (ज) (मनरूपी) दुष्ट अश्व के विषय में : साहु गोयम ! पण्णा ते, छिण्णो मे संसओ इमो। अण्णोऽवि संसओ मज्झं, तं मे कहसु गोयमा ॥५४॥ अयं साहस्सिओ भीमो. दुट्ठस्सो परिधावई। जंसि गोयम ! आरूढो, कहं तेण ण हीरसि ? ॥५५।। पहावंतं णिगिण्हामि, सुयरस्सीसमा हियं। ण मे गच्छइ उम्मग्गं, मग्गं च पडिवज्जई ॥५६॥ आसे य इइ के वुत्ते ? कसी गोयममव्ववी। कसिमेवं बुवंतं तु, गोयमो इणमब्बवी !!५७|| मनो माहम्सिओ भीमो, दुट्टस्सो परिधावई। तं सम्म णिगिण्हामि, धम्मसिक्वाइ कंथगं !!५८।।
उत्त० अ०३/गा ५४ से ५८ हे गौतम ! आपकी बुद्धि श्रेष्ठ है। आपने मेरा यह संशय दूर कर दिया है। मेरा और भी संशय है। इसलिए हे गौतम ! उसके विषय में भी मुझे कहिये अर्थात् मेरा जो सातवाँ संशय है उसे भी दूर कीजिये ।
सातवाँ प्रश्न-हे गौतम ! यह साहसिक और भयानक दुष्ट घोड़ा चारों ओर भागता-फिरता है। उस पर चढ़े हुए आप उस घोड़े द्वारा उन्मार्ग में क्यों नहीं लिए जाते हो-अर्थात् वह दुष्ट घोड़ा आपको उन्मार्ग में क्यों नहीं ले जाता है ?
गौतम स्वामी कहते हैं कि हे मुने ! उन्मार्ग की ओर जाते हुए उस दुष्ट घोड़े को श्रुतरूपी लगाम से बांधकर मैं वश कर लेता हूं। इससे वह मुझे उन्मार्ग में नहीं ले जाता है, किंतु सन्मार्ग में ही प्रवृत्ति करता है ।
केशीकुमार श्रमण गौतम स्वामी से इस प्रकार पूछने लगे कि वह घोड़ा कौन-सा कहा गया ? इस प्रकार प्रश्न करते हुए केशीकुमार श्रमण से गौतम स्वामी इस प्रकार कहने लगे
मनरूपी साहसिक और भयानक दुष्ट घोड़ा चारों ओर भागता रहता है। जिस प्रकार जातिवान घोड़ा शिक्षा द्वारा सुधर जाता है। उसी प्रकार मनरूपी घोड़े को सम्यग् प्रकार से धर्म की शिक्षा द्वारा मैं वश में रखता हूँ।
(झ) सन्मार्ग-कुमार्ग के सम्बन्ध में : साहु गोयम ! पण्णा ते, छिण्णो मे संसओ इमो। अण्णोऽवि संसओ मज्झं, तं मे कहसु, गोयमा ॥५8 ।। कुप्पहा बहवो लोए, जेहिं णासंति जंतवो! अद्भ.णे कहं वर्सेतो, तं ण णाससि गोयमा ? ॥६॥ जे य मग्गेण गच्छति, जे य उम्मग्ग-पट्ठिया। ते सव्ये वेइया मज्झं, तो ण णस्सामहं मुणी ॥६॥ मग्गे य इइ के वुत्ते, कंसी गोयममब्बवी। केसिमेवं बुवंतं तु, गोयमो इणमब्बवी ॥६२।। कुप्पवयण - पासंडी, सव्वे उम्मग्ग-पट्ठिया। सम्मग्गं तु जिणवायं, एस मग्गे हि उत्तमे ॥३॥
उत्त० अ २३/गा ५६ से १३ हे गौतम ! आपकी बुद्धि श्रेष्ठ है। आपने मेरा यह संशय दूर कर दिया है। मेरा और भी संशय है, इमलिए हे गौतम ! उसके विषय में भी मुझे कहिये अर्थात् मेरा जो आठवां संशय है, उसे भी दूर कीजिये ।
लोक में बहुत से कुमार्ग हैं, जिससे प्राणी सुमार्ग से भ्रष्ट हो जाते हैं। हे गौतम ! सुमार्ग में रहे हुए आप कैसे सुमार्ग से भष्ट नहीं होते हो ?
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