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वर्धमान जीवन-कोश प्रोक्तुर्विभोर्मनाग नासीदोष्ठादिस्पन्दविक्रिया। मुखाब्जे साम्यतापन्ने तथापि तन्मुखाम्बुजात् ॥२६॥ निर्ययो भारती रम्या सर्वसंशयनाशिनी । मंदराद्रिगुहोत्पन्न प्रतिच्छन्दनिभा शुभा ॥३०॥ अहो तीर्थे शिनामेषा योगजा शक्तिरूर्जिता। यथा जगत्सतामत्रोपकारः क्रियते महान् ।।३१।।
-वीरवर्धच० अधि १६/श्लो २६ से ३१ इस प्रकार गौतम स्वामी के प्रश्न के वश से संसार के समस्त भन्य जीवों के हित करने के लिए उद्यत, तीर्थकर वर्धमान देव ने मुक्तिमार्ग की प्रवृत्ति के लिए सप्त तत्त्वादि विषयक समस्त प्रश्न-समूहों का सद्भाव और उनका अभीष्ट अभिप्राय जीवों को स्वर्ग और मोक्ष के सुख प्राप्त कराने के लिए दिव्यध्वनि से इस प्रकार कहता प्रारंभ किया
हे धोमन् ! सर्व गण के साथ मन को स्थिर करके तुम्हारे सर्व अभीष्ट साधक मेरा यह वक्ष्यमाण (उत्तर) सुनो। जब भगवान ने उत्तर देना प्रारंभ किया, तब बोलते समय प्रभु के सान्यता को प्राप्त मुख-कमल में रंच मात्र भी ओष्ठ बादि चलने की विक्रिया (विशेष क्रिया) नहीं हुई। तथापि उनके मुख-कमल से सर्व संशयों का नाश करने पालो मंदराचल की गुफाओं में से निकली प्रतिध्वनि के समान गंभीर, शुभ और रमणीय वाणी निकली।
आचार्य कहते हैं कि अहो! तीर्थंकरों की यह योगजनित ऊर्जस्विनी शक्ति है कि जिसके द्वारा इस संसार में समस्त सज्जनों का उपकार होता है ॥३१॥
अपापप्राप्तितन्विज्यास्थायिकातिशयोर्जितः। परमात्मपदं प्रापत्परमेष्ठी स सन्मतिः ॥३५५।। अथ दिव्यध्वनेहेतुः को भावीत्युपयोगवान् । तृतीयज्ञाननेत्रण ज्ञात्वा मां परितुष्टवान् ॥३५६।। तदैवागत्य मद्नाम गौतमाख्यं शचीपतिः । तत्र गौतमगोत्रोत्थमिन्द्रभूतिं द्विजोत्तमम् ॥३५७।। महाभिमानमादित्यविमानादेस्य भास्वरम् । शेषः पुण्यैः समुत्पन्नं वेदवेदांगवेदिनम् ॥३५८।। दृष्ट वा केनाप्युपायेन समानीयान्तिकं विभोः । स्वपिपृच्छिषितं जीवभावं पृच्छेत्य चोदयत् ॥३६॥ अस्ति किं नास्ति वा जीवस्तत्स्वरूपं निरूप्यताम् । इत्यप्राक्षमतो मह यं भगवान्मव्यवत्सलः ॥३६०॥ अस्ति जीवः चोपात्तदेहमात्रः सदादिभिः । किमादिभिश्च निर्देश्यो नोत्पन्नो न विनङ क्ष्यति ।।३६१।। द्रव्यरूपेण पर्यायैः परिणामी प्रतिक्षणम् । चैतन्यलक्षणः कर्ता भोक्ता सर्वैकदेशवित् ।।३६२।।
इति जीवस्य याथात्म्यं युक्त्या व्यक्तं न्यवेदयत् । द्रव्यहेतुं विधायास्य वचः कालादिसाधनः ॥३६६॥ विनेयोऽहं कृतश्राद्धो जीवतत्त्वनिश्चये। x
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x भट्टारकोपदेशेन श्रावणे बहुले तिथौ ।।३६६॥ पक्षादावर्थरूपेण सद्यः पर्याणमन् स्फुटम् । पूर्वाण्हे पश्चिमे भागे पूर्वाणामप्यनुक्रमात् ॥३७०॥
-उत्तपु० पर्व ७४
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