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वर्धमान जीवन कोश पुण्य रूप परम औदादिक शरीर की पूजा और समवसरण की रचना होना आदि अतिशयों से संपन्न श्री वर्धमान स्वामी परमेष्ठी कहलाने लगे और परमात्मा पद को प्राप्त हो गये।
तदनन्तर इन्द्र ने भगवान् की दिव्य-धवनि का कारण क्या होना चाहिए-इस बात का विचार किया और अवधिज्ञान से मुझे (इन्द्रभूति) उसका कारण जानकर वह बहुत ही संतुष्ट हुआ। वह उसी समय मेरे गाँव में आया। में वहाँ पर गौतम गोत्रीय इन्द्रभूति नाम का उत्तम ब्राह्मण था। महाभिमानी था. आदित्य नामक विमान से आकर शेष बचे हुए पुण्य के द्वारा वहाँ उत्पन्न हुआ था, मेरा शरीर अतिशय देदीप्ययान था और मैं वेदवदांग का जानने वाला था।
मुझे देखकर वह इन्द्र किसी उपाय से भगवान के समीप ले आया और प्रेरणा करने लगा कि तुम जीव तत्त्व के विषय में जो कुछ पूछना चाहते थे पूछ लो।
. इन्द्र की बात सुनकर मैंने भगवान् से पूछा कि हे भगवन् ! जीव नामक कोई पदार्थ है या नहीं? उसका स्वरूप कहिए। इसके उत्तर में भव्यवस्सल भगवान् कहने लगे कि जीव नामक पदार्थ है और वह ग्रहण किये गये शरीर के प्रमाण है, सत्संख्या आदि सदादिक और निर्देश आदि किमादिक से उसका स्वरूप जाना जाता है। वह द्रव्य रूप से न कभी उत्पन्न हुआ है और न कभी नष्ट होगा किन्तु पर्याय रूप से प्रतिक्षण परिणमन करता है। चेतना उसका लक्षण है, वह कर्ता है, मोक्ता है और पदार्थों के एक देश तथा सर्व देश का जानकार है।
इस प्रकार भगवान् ने युक्तिपूर्वक जीव तत्त्व का स्पष्ट स्वरूप कहा । भगवान् के वचन को द्रव्य-हेतु मानकर तथा काललब्धि आदि की कारण सामग्री मिलने पर मुझे जीव तत्त्व का निश्चय हो गया। और मैं उसकी श्रद्धाकर भगवान् का शिष्य बन गया।
तदनन्तर भट्टारक वर्धमान स्वामी के उपदेश से मुझे श्रावण वदी प्रतिपदा के दिन पूर्वाह्न काल में समस्त अंगों के अर्थ और पद स्पष्ट जान पड़े। इसी तरह उसी दिन अपराह्न काल में अनुक्रम से पूर्वो के अर्थ व पदों का भी स्पष्ट बोध हो गया।
नोट-अतः दिगम्बर मतानुसार भगवान् को प्रथम देशना-केवलज्ञान की प्राप्ति के छयासठवें दिन श्रावण वदी
प्रतिपदा को हुई। '४ गणैर्द्वादशभिः प्रोक्तः परीतेन जिनेशिना ।।३८०॥
सिंहविष्टरमध्यस्थेनार्धमागधभाषया । षड्द्रव्याणि पदार्थाश्च सप्तसंसृतिमोक्षयोः ॥३८१॥ प्रत्ययस्तत्फलं चैतत्सर्वमेव प्रपञ्चतः। प्रमाणनयनिक्षेपाचू पायैः सुनिरूपितम् ॥३८२॥
औत्पत्तिक्या दिधीयुक्ताः श्रतवन्तः सभासदाः। केचित्संयमापन्नाः संयमासंयम परे ॥३८३।। सम्यक्त्वमपरे सद्यः स्वभव्यत्वविशेषतः एवं श्रीवर्धमानेशो विदधद्धर्मदेशनाम् ॥३८४॥ क्रमादुराजगृहं प्राप्य तस्थिवान् विपुलाचले। श्रुत्वैतदागर्म सद्यो मगधेशत्वमागतः ॥३८॥
-उत्तपु० पर्व ७४
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