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वर्धमान जीवन - कोश
(ग) तत्राप्येन उपायच्चर्हि सादिक्र रकर्मभिः । तस्योदयेन सप्रापनिन्द्यां
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- वीरच० अधि० ४
घ) रत्नप्रभां प्रविश्यैव प्रज्वलद्वह्निमाप्तवान् । दुःखमेकाब्धिमेयायुस्ततश्च्युत्वा पुनश्च सः ॥ १७० ॥
उत्तपु० पर्व ७४
(च) अविरय दुरियासउ पुणुवि हरि । गउ पढमणरइ करि पाउ मरि ||
- वडूमाणच० संधि ६ / कड ११
निरन्तर दुरिताशय वह हरि- त्रिपृष्ठ का जीव ( सिंह ) पापकारी कार्य करके पुन: प्रथम नरक में जा पहुँचा ।
. २२ क कतिपय तिर्यग् - मनुष्य भव में
(क) x x x नरपसु तिरिअमणुएस्सु
रत्नप्रभाव निम् ॥ ३ ॥
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- आव० निगा ४४८ का अंश
मलय टीका — × × × ‘तिरियमणुसु' त्ति पुनः कतिचिद्भवग्रहणानि तिर्यङ्मनुयेषूत्पद्यxxx । (ख) सोऽथ तिर्यङ मनुष्यादिभवान् बभ्राम भूरिशः ।
- त्रिशलाका० पर्व १० / सर्ग १ / श्लो० १८३ / पूर्वार्ध
भगवान महावीर का जीव सिंह भव से मरकर नरक ( प्रथम ) में उत्पन्न हुए और वहाँ से आकर कतिपय भव तिर्यञ्च और मनुष्य के किए ।
नोट :- दिगम्बर ग्रन्थों में इन तिर्यञ्च - मनुष्य भवों का इस प्रकार वर्णन है ।
• २३ सिंह के भव में
- २४ सौधर्म स्वर्ग देव के भव में
* २५ कनकोज्ज्वल राजा के भव में
* २६ लांतक स्वर्ग देव के भव में
- २७ हरिषेण राजा के भव में
२३. सिंह के भव में
(क) अनुभूय महादुःखमेकाब्ध्यन्तं ततोहि सः । च्युत्वा दुःकर्मबद्धात्मा द्वीपेऽस्मिन्नादिमे शुभे ॥ ४ ॥ भारते सिद्धकूटस्य प्राग्भागे हिमवगिरेः । सानावभून्मृगाधीशस्तीक्ष्णदंष्ट्रो मृगान्तकः ॥ ५ ॥ - वीरच० अधि ४
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(ख) इय नरय- दुक्खाइँ सहिऊण तुहुँजाउ । खर- नहर - निद्दलिय करिकुंभ मयराउ || - वडूमाणच० संधि ६ / कड १३ (ग. द्वीपेऽस्मिन् सिन्धुकुटस्य प्राग्भागे हिमवगिरेः । सानावभून्मृगाधीशो ज्वलत्केसरभासुरः ॥
७१ ।।
- उत्तपु० पर्व ७४
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